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#Naynandi12ThCentury
आचार्य नयनन्दि अपने युगके प्रसिद्ध आचार्य हैं । इनके गुरुका नाम माणि क्यनन्दि विद्य था । नयनन्दिने अपने ग्रन्थ 'सुदंसणचरिउ'में अपनी गुरु परम्परा अंकित की है। उन्होंने बताया है कि महावीर जिनेन्द्र के महान तीर्थमें कुन्दकुन्दान्वयकी क्रमागत परम्परामें नक्षत्र नामके आचार्य हुए। तत्पश्चात् पचनन्दि, विष्णुनन्दि और नन्दनन्दि आचार्य हुए। अनन्तर जिनोपदिष्ट धर्मकी शुभरश्मियोंसे विशुद्ध, अनेक ग्रन्थोंके रचयिता, समस्त जगतमें प्रसिद्ध, भवसमुद्रके लिए नौकास्वरूप विश्वनन्दि हुए। तत्पश्चात् क्षमाशील सैद्धान्तिक विशाखनन्दि हुए। इनके शिष्य जिनेन्द्रागमके उपदेशक, तपस्वी, लब्धप्रतिष्ठ, नरेन्द्रों और देवेन्द्रों द्वारा पूज्य रामनन्दि हुए। इनके शिष्य महापण्डित माणिक्यनन्दिहए, जो अशेष ग्रन्थोंके पारगामी, तपस्वी, अंगोंके झासा, भव्यरूपी कमलोंके लिए सूर्यतुल्य एवं त्रिलोकको आनन्ददायी थे। उनके प्रथम शिष्य जगत् विख्यात नयनन्दि हुए । लिखा है--
जिणिदस्स वीरस्स तित्थे महंते । महाकुन्दकुन्दण्णए एतसते ।।
सुणक्लाहिहाणो तहा पोमणंदी । पुणो विण्हणंदी सो गदिणंदी ॥
जिद्दिधम्म सुरासीविसुद्धो । कयाणेयगंयो 'जयते पसिद्धो॥
भवंबोहिपोको महानिस्सणंदी । खमाजुसु सिद्धतिओ विसहणंदी॥
जिणिदागमाहासणे एयचित्ती । मामारणियार लखार युती॥
गरिदारिदेहि सो पदबंदी । हुओ तस्स सीसो गणी रामगंदी ॥
असेसाण मंथाण पारम्मि पत्तो । तवे अंगवी भव्धराईवमित्तो ॥
गुणावासभूओ सुतिल्लोक्कणंदी ! महापंडिओ सस्स माणिक्कणंदी ॥
घत्ता-पढमसीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि मयणदि अणिदिउ ।
___ चरिउ सुदंसणणाह्हो तेण अवाहद्दो विरउ बुहअहिगदिउ' ||शा प्रशस्ति से स्पष्ट है कि सुनक्षत्र, पचनन्दि, विश्वनन्दि, नन्दनन्दि, विष्णनन्दि, विशासनन्दि, रामनन्दि, माणिक्यनन्दि और नयनन्दि नामक आचार्य हुए हैं ।
'सुदंसगचरिउका रचनाकाल स्वयं ही अन्यकर्त्ताने अंकित किया है। यह प्रन्थ विक्रम संवत् ११०० में रचा गया है। आचार्यने बताया है कि अवन्ति देशकी धारा नगरीमें जब त्रिभुवननारायण श्रीनिकेतनरेश भोजदेवका राज्य था, उसो समय धारा नगरीके एक जैन मन्दिरके महाविहारमें बैठकर वि० सं० ११०० में सुदर्शनचरितकी रचना की । प्रशस्सिमें उल्लिखित मालवाके परमार बंशो सुप्रसिद्ध नरेश भोजदेव हैं, जिनके राज्यकालके अभिलेख वि० सं०१०७७ से ११०४ तक पाये जाते हैं। भोजका राज्य राजस्थानके चित्तौड़से लेकर दक्षिणमें कोंकण व गोदावरी तक विस्तीर्ण था। अतएव नयनन्दिका समय वि० सं० को ११वीं शताब्दीका अन्तिम और १२वीं शतीका प्रारम्भिक भाग है।
नयनन्दिकी 'सुदसणचरित' और 'सयलविहिविहाणफन्च' नामक दो रचनाएँ उपलब्ध हैं। सुदंसगरिउ अपभ्रशका एक प्रबन्धकान्य है, जो महाकाव्य की कोटिमें परिगणित किया जा सकता है। रोचक कथावस्तुके कारण आक र्षक होनेके साथ सालंकार काव्यकलाको दृष्टि से भी यह ग्रन्थ उच्चकोटिका है। पञ्चनमस्कार मन्त्रका फल प्राप्त करने वाले सेठ सूदर्शनके चरितका वर्णन किया गया है। चरितनायक धीरोदात्त नायकके गुणोंसे परिपूर्ण है। ग्रन्थ १२ सन्धियों में विभक्त है।
१. सुदंसंणचरित, सम्पादक झाँ हीरालाल जैन, प्रकाशक जन शास्त्र और अहिंसा
शोध संस्थान, वैशाली (बिहार) सन् १९६५, १२९ ।
प्रथम सन्धिमें णमोकारमन्त्रका पाठ करनेसे एक ग्वाला सुदर्शनके रूपम जन्म ग्रहण करता है। इस सन्धिमें जम्बूद्वीप, ममधदेश, राजगृह नगर और विपुलाचल पर्वतपर स्थित भगवान् महावीरके समवशरणका वर्णन किया गया है। द्वितीय सन्धिमें राजा श्रेणिकने गौतमगणवरसे पन्चनमस्कारमन्त्रके फल के सम्बन्ध में प्रश्न किया। उसके उत्तरमें गौसममणधरने लोक्यका वर्णन करके अंगदेश, चम्पानगरी, दधिवाहन राजा, वहाँक निवासी सेठ ऋषभदास, उनकी पत्नी अहदासी तथा उनके सुभग नामक पवालेका वर्णन किया है। इस ग्बालेको एक बार वनमें मुनिराजके दर्शन हुए और उनसे णमोकारमन्त्र प्राप्त कर उसका पाठ करने लगा। सहने उसे मन्त्रका माहात्म्य समझाया और धर्मोपदेश दिया। उस ग्वालने गंगानदीमें जलकौड़ा करते हुए ठूछसे आहत होकर मन्त्रके स्मरण पूर्वक प्राण त्याग किये।
तृतीय सन्धिमें ग्वालेका वह जीव सेठ ऋषभदासके यहाँ पुत्रक रूपमें जन्म ग्रहण करता है। सुभग और शुभलक्षणोंसे युक्त होनेके कारण पुत्रका नाम सुदर्शन रखा जाता है। वयस्क होने पर सुदर्शन अनेक प्रकारकी विद्याओं और कलाओंमें निपुणता प्राप्त करता है। सुदर्शनको सुन्दरताके कारण नगरकी नारिबों उसपर आसक्त होने लगती हैं। __चतुर्थ सन्धिमें बताया गया है कि सुदर्शनका एक घनिष्ठ मित्र कपिल था। एक दिन वह अपने इस मित्रके साथ नगर-परिभ्रमण कर रहा था कि सुदर्शन की दृष्टि मनोरमा नामक कुमारी युवतीपर पड़ी और वह उसपर कामासक्त हो गया। मनोरमा भी उस पर मोहित हो गयी।
पञ्चम सन्धिमें सुदर्शन और मनोरमाके विवाहका वर्णन आया है और इसी सन्धिमे महाकाव्यको प्रथित परम्पराके अनुसार सूर्यास्त, सन्ध्या, रात्रि, प्रभात एवं वर-वधूकी विभिन्न कामकोड़ाओंका निरूपण किया गया है।
षष्ठ सन्धिमें सुदर्शनके पिता सेठ ऋषभदास मुनिका दर्शन करते हैं और मुनिके उपदेशसे प्रभावित होकर विरक्त हो जाते है तथा अपने सुत्र सुदर्शनको गृहस्थमार्गको शिक्षा देकर और उसे समस्त कुटुम्बका भार सौंपकर वे मुनि दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं और अन्तमें उन्हें स्वर्गको प्राप्ति होती है।
सप्तम सन्धिमें बताया गया है कि सुदर्शनके मित्रकी पत्नी कपिला उनपर मोहासक्त होती है और छलसे उसे अपने यहाँ बुलाती है। सुदर्शन बहाना बनाकर किसी प्रकार अपने शोलकी रक्षा करता है। वसन्त ऋतुका आगमन हुआ और उत्सव मनाने के लिए राजा एवं प्रजा सभी जपवनमें सम्मिलित हुए। रानी अभया सुदर्शन के रूपलावण्यको देखकर मुग्ध हो गयी और उसने कपिला
से मर्मको बात कर प्रतिज्ञा की कि वह सुदर्शनको वशीभूत करेगी। अष्टम सन्धिमें अभया रानाकी विरहवेदनाका वर्णन है । अभयाकी दयनीय अवस्था देखकर उसको पण्डिता नामक सखीने बहुत समझाया, पर रानीका हठ न छूटा और अन्ततः विवश होकर पण्डिताको अभयाकी कामवासना तृप्त करानेके लिए वचनबद्ध होना पड़ा । पण्डिताने एक कुटिल चाल चली। उसने कुम्हारसे मनुष्याकृतिके मिट्टी के सात पुतले बनवाये । वह प्रतिपदासे लेकर सप्तमी तक
मसे एक-एक पुतला ढेककर अपने साथ लाती, प्रतोलीके द्वारपर द्वारपालसे झगड़कर पुतला फोड़ डालती और द्वारपालको रानीका भय दिखाकर आगेके लिए उसे चुप करा देती । इस प्रकार पण्डिताने महलदे. सातों द्वारपालोंको अपने अधीन कर अन्तःपुरका प्रवेश निर्वाध बना दिया । अष्टमोके दिन सुदर्शन श्मशानमें कायोत्सर्ग करने के लिए गया । पण्डिताने उसके पास जाकर पहले तो उसे ध्यानच्युत एवं प्रलोभित करने का प्रयत्न किया, पर जब उसे इस अस त्प्रयासमें सफलता न मिली, तो वह सुदर्शनको उठाकर राजमहल में ले गयी । रानी अभघाने सुदर्शनको विचलित करनेके लिए अनेक प्रयास किये, पर सुदर्शन सुमेरुकी तरह अडिग रहा | जब प्रयास करते-करते ममस्त गन्नि व्यतीत हो मयी, तो रानीने दूसरा कपटजाल रचा और सुदर्शन पर शीलभंग करनेका आरोप लगाया । राजाने बिना सोचे-समझे सठ सुदर्शनको प्राणदण्डका आदेश दिया । राजपुरुष उसे पकड़कर श्मशान ले गये और उसकी हत्याका प्रयास करने लगे। सुदर्शनके धर्मध्यानके प्रभावसे एक व्यन्तरदेवने हत्यारोंको स्तम्भित कर दिया और सुदर्शनके प्राणोंको रक्षा की।
नवम सन्धि में व्यन्तरदेवका राजाकी सेना एवं गजाके साथ भयानक युद्ध होनेका वर्णन आया है। राजाको अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी और व्यन्तरदेवकी आदेशानुसार उसे सुदर्शनके शरण में जाना पड़ा । सुदर्शनने उसे क्षमा कर दिया।
दशम सन्धि जीवनसंकटसे मुक्त होकर जिनमन्दिरमें गया और वहाँ उसने विमलवाहन मुनिसे अपने भवान्त र पूछे । मुनिने उसके क्रमशः ब्यान नामक कर भील, श्वान तथा सुभग गोपाल इन तीन भवोंका वर्णन किया। इसी प्रसंगमें णमोकारमन्त्रके प्रभावका भी कथन किया। साथ ही मनोरमाकी पूर्वभवाबलि भी बतलायी । मुनिका धर्मापदेश सुनकर सुदर्शनने महाबत धारण कर लिये। __एकादश सन्धिमें मुनि सुदर्शनके ऊपर आये हा उपसर्गोका वर्णन है । अभयाके जीव क्यन्तरीने सुदर्शनको नाना प्रकारसे विचलित करनेका प्रयास किया । एक व्यन्तरने आकर उनकी रक्षा की।
बारहवीं सन्धिमें आया है कि सुदर्शन मुनिने चार घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। स्वर्गसे आकर इन्द्रने उनकी स्तुति की और कुवेरने समवसरणको रचना की । केवलोके अतिशय तथा उनके उपदेशको सुन कर अभयारानीके जीव व्यन्तरीको भी वैराग्यभाव हो गया और उसने सम्यक्त्वभाव धारण किया ।
इस प्रकार इस महाकाव्य में आकर्षक कथावस्तु गुम्फित है। कोमल पद, गम्भीर अर्थ और अलंकारों की अद्भुत छटा काव्यसौन्दर्यको वृद्धिगत करती है।
'सकलविधिविधाण का शरियों नहुमा है, पर यह ग्रन्थ अपुर्ण ही उपलब्ध है । इसमें १६ सन्धियां नहीं हैं । प्रारम्भको दो तीन सन्धियोंमें अन्धके अवतरण आदि पर प्रकाश डाला गया है । १२वीं से १५वीं सन्धि तक मिथ्यालके कालमिथ्यात्व और लोकमिथ्यात्व आदि अनेक मिथ्यावोंका स्वरूप बतलाते हुए क्रियावादी और अक्रियावादी आदि मेदोंका विवेचन किया है । १५वी सन्धिसे ३१वौं सन्धि तक १६ सन्धियाँ प्राप्त नहीं हैं । कविने इस ग्रंथमें बिलासिनी, भुजङ्गप्रिया, मन्जरी, चन्द्रलेखा, मौक्तिकमाला, पादा कुला, मदनलीला आदि विविध छन्दोंका प्रयोग किया है । अतएव छन्दशास्त्र की दृष्टिसे भी यह ग्रंथ महनीय है । ३२वीं सन्धिमें मद्य, मांस, मधुके दोष, उदम्बरादि पंचफलोंके त्यागका विधान बताया है। ३३वी सन्धिमें पञ्चअणु नतोको विशेषताओंका वर्णन है और उनमें प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले व्यक्तियोंके आख्यान भी आये हैं। ५६वी सन्धिके मन्तमें सल्लेखनाका उल्लेख है। इस ग्रन्थमें गृहस्थाचारका वर्णन विस्तारके साथ आया है। __ इतिहासकी दृष्टिसे भी यह ग्रंथ कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसमें काञ्ची पुर, अम्बाइय और बल्लभराजका कथन आया है। इस ग्रंथको रचनाको प्रेरणा मुनि हरिसिंहने की थी । प्रशस्तिमें वररुचि, वामन, कालिदास, कौतूहल, वाण, मयूर, जिनसेन, बादरायण,श्रीहर्ष, राजशेखर, जसचन्द्र, जयराम, जयदेव, पादलिप्त, धिंगल, बीरसेन, सिंहन्दि, सिहभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, अकलंक, रुद्रगोविन्द, दण्डी, भामह, माघ, भरत, चङमुह, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र और श्रीकुमारका निर्देश आया है।
इस ग्रंथको सामग्री अत्यन्त महत्वपूर्ण है । संसारको असारता और मनुष्य की उन्नति-अवनतिका इसमें हृदयग्राही चित्रण आया है।
गुरु | आचार्य श्री मानिक्यनंदी त्रैविद्य |
शिष्य | आचार्य श्री नयनंदी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Naynandi12ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री नयनन्दि 12वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 19-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य नयनन्दि अपने युगके प्रसिद्ध आचार्य हैं । इनके गुरुका नाम माणि क्यनन्दि विद्य था । नयनन्दिने अपने ग्रन्थ 'सुदंसणचरिउ'में अपनी गुरु परम्परा अंकित की है। उन्होंने बताया है कि महावीर जिनेन्द्र के महान तीर्थमें कुन्दकुन्दान्वयकी क्रमागत परम्परामें नक्षत्र नामके आचार्य हुए। तत्पश्चात् पचनन्दि, विष्णुनन्दि और नन्दनन्दि आचार्य हुए। अनन्तर जिनोपदिष्ट धर्मकी शुभरश्मियोंसे विशुद्ध, अनेक ग्रन्थोंके रचयिता, समस्त जगतमें प्रसिद्ध, भवसमुद्रके लिए नौकास्वरूप विश्वनन्दि हुए। तत्पश्चात् क्षमाशील सैद्धान्तिक विशाखनन्दि हुए। इनके शिष्य जिनेन्द्रागमके उपदेशक, तपस्वी, लब्धप्रतिष्ठ, नरेन्द्रों और देवेन्द्रों द्वारा पूज्य रामनन्दि हुए। इनके शिष्य महापण्डित माणिक्यनन्दिहए, जो अशेष ग्रन्थोंके पारगामी, तपस्वी, अंगोंके झासा, भव्यरूपी कमलोंके लिए सूर्यतुल्य एवं त्रिलोकको आनन्ददायी थे। उनके प्रथम शिष्य जगत् विख्यात नयनन्दि हुए । लिखा है--
जिणिदस्स वीरस्स तित्थे महंते । महाकुन्दकुन्दण्णए एतसते ।।
सुणक्लाहिहाणो तहा पोमणंदी । पुणो विण्हणंदी सो गदिणंदी ॥
जिद्दिधम्म सुरासीविसुद्धो । कयाणेयगंयो 'जयते पसिद्धो॥
भवंबोहिपोको महानिस्सणंदी । खमाजुसु सिद्धतिओ विसहणंदी॥
जिणिदागमाहासणे एयचित्ती । मामारणियार लखार युती॥
गरिदारिदेहि सो पदबंदी । हुओ तस्स सीसो गणी रामगंदी ॥
असेसाण मंथाण पारम्मि पत्तो । तवे अंगवी भव्धराईवमित्तो ॥
गुणावासभूओ सुतिल्लोक्कणंदी ! महापंडिओ सस्स माणिक्कणंदी ॥
घत्ता-पढमसीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि मयणदि अणिदिउ ।
___ चरिउ सुदंसणणाह्हो तेण अवाहद्दो विरउ बुहअहिगदिउ' ||शा प्रशस्ति से स्पष्ट है कि सुनक्षत्र, पचनन्दि, विश्वनन्दि, नन्दनन्दि, विष्णनन्दि, विशासनन्दि, रामनन्दि, माणिक्यनन्दि और नयनन्दि नामक आचार्य हुए हैं ।
'सुदंसगचरिउका रचनाकाल स्वयं ही अन्यकर्त्ताने अंकित किया है। यह प्रन्थ विक्रम संवत् ११०० में रचा गया है। आचार्यने बताया है कि अवन्ति देशकी धारा नगरीमें जब त्रिभुवननारायण श्रीनिकेतनरेश भोजदेवका राज्य था, उसो समय धारा नगरीके एक जैन मन्दिरके महाविहारमें बैठकर वि० सं० ११०० में सुदर्शनचरितकी रचना की । प्रशस्सिमें उल्लिखित मालवाके परमार बंशो सुप्रसिद्ध नरेश भोजदेव हैं, जिनके राज्यकालके अभिलेख वि० सं०१०७७ से ११०४ तक पाये जाते हैं। भोजका राज्य राजस्थानके चित्तौड़से लेकर दक्षिणमें कोंकण व गोदावरी तक विस्तीर्ण था। अतएव नयनन्दिका समय वि० सं० को ११वीं शताब्दीका अन्तिम और १२वीं शतीका प्रारम्भिक भाग है।
नयनन्दिकी 'सुदसणचरित' और 'सयलविहिविहाणफन्च' नामक दो रचनाएँ उपलब्ध हैं। सुदंसगरिउ अपभ्रशका एक प्रबन्धकान्य है, जो महाकाव्य की कोटिमें परिगणित किया जा सकता है। रोचक कथावस्तुके कारण आक र्षक होनेके साथ सालंकार काव्यकलाको दृष्टि से भी यह ग्रन्थ उच्चकोटिका है। पञ्चनमस्कार मन्त्रका फल प्राप्त करने वाले सेठ सूदर्शनके चरितका वर्णन किया गया है। चरितनायक धीरोदात्त नायकके गुणोंसे परिपूर्ण है। ग्रन्थ १२ सन्धियों में विभक्त है।
१. सुदंसंणचरित, सम्पादक झाँ हीरालाल जैन, प्रकाशक जन शास्त्र और अहिंसा
शोध संस्थान, वैशाली (बिहार) सन् १९६५, १२९ ।
प्रथम सन्धिमें णमोकारमन्त्रका पाठ करनेसे एक ग्वाला सुदर्शनके रूपम जन्म ग्रहण करता है। इस सन्धिमें जम्बूद्वीप, ममधदेश, राजगृह नगर और विपुलाचल पर्वतपर स्थित भगवान् महावीरके समवशरणका वर्णन किया गया है। द्वितीय सन्धिमें राजा श्रेणिकने गौतमगणवरसे पन्चनमस्कारमन्त्रके फल के सम्बन्ध में प्रश्न किया। उसके उत्तरमें गौसममणधरने लोक्यका वर्णन करके अंगदेश, चम्पानगरी, दधिवाहन राजा, वहाँक निवासी सेठ ऋषभदास, उनकी पत्नी अहदासी तथा उनके सुभग नामक पवालेका वर्णन किया है। इस ग्बालेको एक बार वनमें मुनिराजके दर्शन हुए और उनसे णमोकारमन्त्र प्राप्त कर उसका पाठ करने लगा। सहने उसे मन्त्रका माहात्म्य समझाया और धर्मोपदेश दिया। उस ग्वालने गंगानदीमें जलकौड़ा करते हुए ठूछसे आहत होकर मन्त्रके स्मरण पूर्वक प्राण त्याग किये।
तृतीय सन्धिमें ग्वालेका वह जीव सेठ ऋषभदासके यहाँ पुत्रक रूपमें जन्म ग्रहण करता है। सुभग और शुभलक्षणोंसे युक्त होनेके कारण पुत्रका नाम सुदर्शन रखा जाता है। वयस्क होने पर सुदर्शन अनेक प्रकारकी विद्याओं और कलाओंमें निपुणता प्राप्त करता है। सुदर्शनको सुन्दरताके कारण नगरकी नारिबों उसपर आसक्त होने लगती हैं। __चतुर्थ सन्धिमें बताया गया है कि सुदर्शनका एक घनिष्ठ मित्र कपिल था। एक दिन वह अपने इस मित्रके साथ नगर-परिभ्रमण कर रहा था कि सुदर्शन की दृष्टि मनोरमा नामक कुमारी युवतीपर पड़ी और वह उसपर कामासक्त हो गया। मनोरमा भी उस पर मोहित हो गयी।
पञ्चम सन्धिमें सुदर्शन और मनोरमाके विवाहका वर्णन आया है और इसी सन्धिमे महाकाव्यको प्रथित परम्पराके अनुसार सूर्यास्त, सन्ध्या, रात्रि, प्रभात एवं वर-वधूकी विभिन्न कामकोड़ाओंका निरूपण किया गया है।
षष्ठ सन्धिमें सुदर्शनके पिता सेठ ऋषभदास मुनिका दर्शन करते हैं और मुनिके उपदेशसे प्रभावित होकर विरक्त हो जाते है तथा अपने सुत्र सुदर्शनको गृहस्थमार्गको शिक्षा देकर और उसे समस्त कुटुम्बका भार सौंपकर वे मुनि दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं और अन्तमें उन्हें स्वर्गको प्राप्ति होती है।
सप्तम सन्धिमें बताया गया है कि सुदर्शनके मित्रकी पत्नी कपिला उनपर मोहासक्त होती है और छलसे उसे अपने यहाँ बुलाती है। सुदर्शन बहाना बनाकर किसी प्रकार अपने शोलकी रक्षा करता है। वसन्त ऋतुका आगमन हुआ और उत्सव मनाने के लिए राजा एवं प्रजा सभी जपवनमें सम्मिलित हुए। रानी अभया सुदर्शन के रूपलावण्यको देखकर मुग्ध हो गयी और उसने कपिला
से मर्मको बात कर प्रतिज्ञा की कि वह सुदर्शनको वशीभूत करेगी। अष्टम सन्धिमें अभया रानाकी विरहवेदनाका वर्णन है । अभयाकी दयनीय अवस्था देखकर उसको पण्डिता नामक सखीने बहुत समझाया, पर रानीका हठ न छूटा और अन्ततः विवश होकर पण्डिताको अभयाकी कामवासना तृप्त करानेके लिए वचनबद्ध होना पड़ा । पण्डिताने एक कुटिल चाल चली। उसने कुम्हारसे मनुष्याकृतिके मिट्टी के सात पुतले बनवाये । वह प्रतिपदासे लेकर सप्तमी तक
मसे एक-एक पुतला ढेककर अपने साथ लाती, प्रतोलीके द्वारपर द्वारपालसे झगड़कर पुतला फोड़ डालती और द्वारपालको रानीका भय दिखाकर आगेके लिए उसे चुप करा देती । इस प्रकार पण्डिताने महलदे. सातों द्वारपालोंको अपने अधीन कर अन्तःपुरका प्रवेश निर्वाध बना दिया । अष्टमोके दिन सुदर्शन श्मशानमें कायोत्सर्ग करने के लिए गया । पण्डिताने उसके पास जाकर पहले तो उसे ध्यानच्युत एवं प्रलोभित करने का प्रयत्न किया, पर जब उसे इस अस त्प्रयासमें सफलता न मिली, तो वह सुदर्शनको उठाकर राजमहल में ले गयी । रानी अभघाने सुदर्शनको विचलित करनेके लिए अनेक प्रयास किये, पर सुदर्शन सुमेरुकी तरह अडिग रहा | जब प्रयास करते-करते ममस्त गन्नि व्यतीत हो मयी, तो रानीने दूसरा कपटजाल रचा और सुदर्शन पर शीलभंग करनेका आरोप लगाया । राजाने बिना सोचे-समझे सठ सुदर्शनको प्राणदण्डका आदेश दिया । राजपुरुष उसे पकड़कर श्मशान ले गये और उसकी हत्याका प्रयास करने लगे। सुदर्शनके धर्मध्यानके प्रभावसे एक व्यन्तरदेवने हत्यारोंको स्तम्भित कर दिया और सुदर्शनके प्राणोंको रक्षा की।
नवम सन्धि में व्यन्तरदेवका राजाकी सेना एवं गजाके साथ भयानक युद्ध होनेका वर्णन आया है। राजाको अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी और व्यन्तरदेवकी आदेशानुसार उसे सुदर्शनके शरण में जाना पड़ा । सुदर्शनने उसे क्षमा कर दिया।
दशम सन्धि जीवनसंकटसे मुक्त होकर जिनमन्दिरमें गया और वहाँ उसने विमलवाहन मुनिसे अपने भवान्त र पूछे । मुनिने उसके क्रमशः ब्यान नामक कर भील, श्वान तथा सुभग गोपाल इन तीन भवोंका वर्णन किया। इसी प्रसंगमें णमोकारमन्त्रके प्रभावका भी कथन किया। साथ ही मनोरमाकी पूर्वभवाबलि भी बतलायी । मुनिका धर्मापदेश सुनकर सुदर्शनने महाबत धारण कर लिये। __एकादश सन्धिमें मुनि सुदर्शनके ऊपर आये हा उपसर्गोका वर्णन है । अभयाके जीव क्यन्तरीने सुदर्शनको नाना प्रकारसे विचलित करनेका प्रयास किया । एक व्यन्तरने आकर उनकी रक्षा की।
बारहवीं सन्धिमें आया है कि सुदर्शन मुनिने चार घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। स्वर्गसे आकर इन्द्रने उनकी स्तुति की और कुवेरने समवसरणको रचना की । केवलोके अतिशय तथा उनके उपदेशको सुन कर अभयारानीके जीव व्यन्तरीको भी वैराग्यभाव हो गया और उसने सम्यक्त्वभाव धारण किया ।
इस प्रकार इस महाकाव्य में आकर्षक कथावस्तु गुम्फित है। कोमल पद, गम्भीर अर्थ और अलंकारों की अद्भुत छटा काव्यसौन्दर्यको वृद्धिगत करती है।
'सकलविधिविधाण का शरियों नहुमा है, पर यह ग्रन्थ अपुर्ण ही उपलब्ध है । इसमें १६ सन्धियां नहीं हैं । प्रारम्भको दो तीन सन्धियोंमें अन्धके अवतरण आदि पर प्रकाश डाला गया है । १२वीं से १५वीं सन्धि तक मिथ्यालके कालमिथ्यात्व और लोकमिथ्यात्व आदि अनेक मिथ्यावोंका स्वरूप बतलाते हुए क्रियावादी और अक्रियावादी आदि मेदोंका विवेचन किया है । १५वी सन्धिसे ३१वौं सन्धि तक १६ सन्धियाँ प्राप्त नहीं हैं । कविने इस ग्रंथमें बिलासिनी, भुजङ्गप्रिया, मन्जरी, चन्द्रलेखा, मौक्तिकमाला, पादा कुला, मदनलीला आदि विविध छन्दोंका प्रयोग किया है । अतएव छन्दशास्त्र की दृष्टिसे भी यह ग्रंथ महनीय है । ३२वीं सन्धिमें मद्य, मांस, मधुके दोष, उदम्बरादि पंचफलोंके त्यागका विधान बताया है। ३३वी सन्धिमें पञ्चअणु नतोको विशेषताओंका वर्णन है और उनमें प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले व्यक्तियोंके आख्यान भी आये हैं। ५६वी सन्धिके मन्तमें सल्लेखनाका उल्लेख है। इस ग्रन्थमें गृहस्थाचारका वर्णन विस्तारके साथ आया है। __ इतिहासकी दृष्टिसे भी यह ग्रंथ कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसमें काञ्ची पुर, अम्बाइय और बल्लभराजका कथन आया है। इस ग्रंथको रचनाको प्रेरणा मुनि हरिसिंहने की थी । प्रशस्तिमें वररुचि, वामन, कालिदास, कौतूहल, वाण, मयूर, जिनसेन, बादरायण,श्रीहर्ष, राजशेखर, जसचन्द्र, जयराम, जयदेव, पादलिप्त, धिंगल, बीरसेन, सिंहन्दि, सिहभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, अकलंक, रुद्रगोविन्द, दण्डी, भामह, माघ, भरत, चङमुह, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र और श्रीकुमारका निर्देश आया है।
इस ग्रंथको सामग्री अत्यन्त महत्वपूर्ण है । संसारको असारता और मनुष्य की उन्नति-अवनतिका इसमें हृदयग्राही चित्रण आया है।
गुरु | आचार्य श्री मानिक्यनंदी त्रैविद्य |
शिष्य | आचार्य श्री नयनंदी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Naynandi 12 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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