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#Padmanandiji1stPrachin
पद्मनन्दि प्रथम से हमारा अभिप्राय जंबूदीव-पष्णत्तिके कर्तासे है। यों तो आचार्य कुन्द-कुन्दका भी एक नाम पद्धन्दि मिलता है, पर इस नामसे उनकी ख्याति नहीं है। अतएव पद्मनन्दि प्रथमको हम जंबूदीवपत्तिका कर्ता मानते हैं।
अभिलेखीय साहित्यसे कई पद्यनन्दियोंके अस्तित्वकी सिद्धि होती है । एक पद्मनन्दि चन्द्रप्रभके शिष्यके रूपमें उल्लिखित हैं। इनका निर्देश डॉ. हीरालालजीने जैन-शिलालेख संग्रह प्रथम भागको प्रस्तावनामें किया है। दूसरे पद्मनन्दि वि० सं० ११ ६२ में सिद्धान्तदेव ब सिद्धान्तचक्रवर्ती मूलसंघ, कुन्द कुन्दान्वय, कारगण एवं तितिणिकगच्छमें हुए हैं। तीसरे पद्मनन्दि गोल्ला चार्य के प्रशिष्य और काल्ययोगीके शिष्य हुए हैं। इनका नाम कौमारदेवव्रती था और दूसरा नाम अविद्धकर्ण पद्मनन्दि सैद्धान्तिक था। ये मूलसंघ देशीयगणके
१. प्रमाणनिर्णय, पृ. ३६ ।
२. वही, पृ. ३३ ।
३. एपिग्राफी कर्नाटिका, भाग ७, अभिलेख सं० २६२ ।
आचार्य थे । इनका उल्लेख वि०सं० १२२० के एक अभिलेखमें पाया जाता है। इनके सधर्मा प्रभाचन्द्र थे तथा उनके शिष्य कुलभूषणके शिष्य माघनन्दिका सम्बन्ध कोल्हापुरसे था।
चौथे पद्मनन्दि वे है, जो नयकोसिके शिष्य और प्रभाचन्द्र के सहधर्मी थे, जिनका उल्लेख वि० सं० १२३८ १२४२ १२६३ के अभिलेखों में आता है । इनकी उपाधि 'मन्त्रवादिबर' पायी जाती है | बहुत संभव है कि ये तृतीय और चतुर्थं पद्यनन्दि एक ही हों। तृतीय पद्मनन्दिको भी मन्त्रवादि बहा गया है।
पंचम पद्मनन्दि वीरनन्दिके प्रशिष्य तथा रामनन्दिके शिष्य थे जिनका उल्लेख १२वी शतीके एक अभिलेख में मिलता है।
छठे पद्मनन्दि वे हैं, जिन्होंने अपने गुरु शुभचन्द्रदेवको स्मृतिम लेख लिखवाया था | शुभचन्द्रदेवका वि०सं० १३७० में स्वर्गवास हुआ था। इनके दो शिष्य थे। इन्हीं में एक पद्मनन्दि थे ।
सातवे पद्मनन्दिका उल्लेख वि०सं०१३६० के एक अभिलेखमें आया है । इसमें बाहुबलिमलधारिदेवके शिष्य पद्मनन्दि भट्टारकका निर्देश है, जिन्होंने वि०सं० १३६० में एक जैनन्दिरका निर्माण कराया था |
__ आठवें पद्मनन्दि वे हैं, जो मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण पुस्तकमच्छवर्ती विशदेवके शिष्य पद्मनन्दि थे। इनका स्वर्गवास वि०सं० १३७३में हुआ था। इनका निर्देश श्रवणबेलगोलके अभिलेखसंख्या २६९, में आया है।
नौवें पद्मनन्दि वे हैं, जिनकी वि०सं०१४७१ के देवगढ़के अभिलेखमें प्रभाचन्द्र के शिष्यके रूपमें बड़ी प्रशंसा की गयी है।
जम्बूदीवपत्तिके कर्ता पद्मनन्दि इन सबसे भिन्न हैं । ये अपनेको वीर नन्दिका प्रशिष्य और बलनन्दिका शिष्य बतलाते हैं। इन्होंने विजयगुरुके पास ग्रन्थोंका अध्ययन किया था । ग्रन्थ लिखनेका निमित्त बतलाते हुए निर्दिष्ट किया है कि राग-द्वेषसे रहित श्रुतसागरके पारगामी माघनन्दि आचार्य हुए। उनके शिष्य सिद्धान्त महासमुद्र में कलुषताको धो डालनेवाले गुणवान सकलचन्द्र गुरु हुए। उनके शिष्य निर्मल रत्नत्रयके धारक श्री नन्दिगुरु हुए और उन्हीं के
१. एपिग्राफी कर्नाटिका, माग २, अभिलेख सं० ६४ ।
२. वही, भाग २, अभिलेख सं०६६ ।
३. Jainism in South India, Page 280 तथा एपिग्राफी कर्नाटिका, भाग ८, _अभि० सं० १४० और २३३ ।
४. एपिग्राफी कर्नाटिका-अभिलेख ६५ तथा भूमिका, पृ ० ८६ ।
निमित्त यह 'जम्बुदीवपत्ति लिखी गयो । गुरुपरम्परा मदर्भम पचनन्दिने अपने सम्बन्ध में बताया है कि निदाहरहित, श्यारिशुद्ध, गावत्रयसे रहित, सिद्धान्तके पारगामी और तप-नियम-योगसे संयुक्त पद्मनन्दि नामक मुनि हुए।
ग्रन्थ-रचना के स्थान और वहाँक शासपका नाम निर्देशा करते हुए यह बतलाया है कि वारांनगरका स्वामो नरोत्तमशक्तिभूपाल श्रा, जो सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध वनकर्मको करनेवाला निरन्तर दानशील, जिनशासनवत्सल, वीर, नर पत्तिसंपुजित और कालाओं में कुशल था । यह नगर धन-धान्यसे परिपूर्ण, सम्य दृष्टियों और मुनिजनोंसे मण्डित, जिनभवनोंसे विभूषित, रमणीय पारयात्र देशके अन्तर्गत था। इन्होंने अपनेको 'चरपजमनंदि' कहा है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये पत्ननन्दि पूर्वोक्त सभी पझनन्दियोंसे भिन्न हैं ।
'जंबूदीबपत्ति के अतिरिक्त इनको दो रचनाएँ और मानी जा सकती हैं। एक है प्राकृतपद्यात्मक 'धम्मरसायण' और दूसरी है 'प्राकृतपंचसंग्रहवृत्ति' । श्री पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने पञ्चसंग्रहवृत्तिका रचयिता प्रस्तुत पद्म नन्दिको ही माना है। प्राकृतपंचसंग्रहवृत्तिकार पद्मनन्दि ने अपना निर्देश करते हुए लिखा है----
जह जिणवरेहि कहियं गणहरदेवेहि गथियं सम्म ।
आयरियक्रमेण पुणो जह गंगणइपबाहुब्ध ।।
तह पउमणदिमुणिमा रइयं भबियाण बोहणट्टाए ।
ओघादेसेण य पयडीणं बंधसामित्तं ।।
पं० हीरालालजीकी मान्यता उचित प्रतीत होती है, क्योंकि 'जंबूदीव पण्णसि' और 'प्राकृतपंचसंग्रहवृत्ति की उत्थापनाएँ तुल्य हैं । निस्सन्देह पद्मनन्दि प्राकृतभषा और सिद्धान्तशास्त्र परगामी है। अत: यह वृत्ति पद्मनन्दि प्रथम द्वारा विरचित हो, तो कोई आश्चर्य नहीं । अन्य जितने पद्मनन्दि मिलते हैं, वे प्राकृतके विशेषज्ञ प्रतीत नहीं होते। अतएव प्रस्तुत पद्मनन्दिकी तीन रचनाएं मानी जा सकती हैं-१. जंबूदीवपत्ति , २. धम्मरसायण ३. प्राकृतपंच संग्रवृत्ति ।
'जंबुदीवपण्णत्ति के रचयिता पद्ममन्दिका समय क्या है ? इसका निर्णय अन्तरंग प्रमाणोंके आधारपर किया जाना सम्भव नहीं है। हाँ, अभिलेख, इतर आचार्यों द्वारा किये निर्देश एवं अन्य ग्रन्थोंसे विषयके आधारपर समयका निर्धारण किया जा सकता है । जम्बूदीवपण्पत्ति की आमेर शास्त्रभण्डारकी प्रति ज्येष्ठ १-२. पज्वसंगह, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावनासे उद्धत, पृ. ३९ ।
शुक्ला पञ्चमी वि ० सं ० १५१८ की है , अतः रचयिता का समय इससे पूर्व होना निश्चित है।
नन्दिसंघकी पट्टावलीमें बारांके भट्टारकोंको गद्दीका उल्लेख आया है, जिसमें वि० सं० ११४४ से वि सं० १२०६ तकके बारह भट्टारकोंके नाम दिये गये हैं। इस भट्टारकपरम्परासे सम्बद्ध पद्मनन्दिको गुरुपरम्परा है। राजपूतानेके इतिहासमें गुहिलोतवंशी राजा भरवाहनके पुत्र शालिवाहनके उत्तराधिकारी शक्ति कुमारका उल्लेख मिलता है, इस ग्रन्थम उल्लिखित यही राजा है। आटपुर (आहाड़) के अभिलेखमें गुहदत्त गुहिल) से लेकर शक्तिकुमार तककी पूरी वंशाबली दी है । यह अभिलेख वि० सं० १०३४ वैशाख शुक्ल, प्रतिपदाका लिखा हुआ है । अत: 'जंबूदीवपणत्तिका यही रचनाकाल सम्भव है।।
श्री पंडित नाथुरामजी प्रेमीने इस ग्रन्धके रचनास्थल वारांनगरको राजस्थानके कोटा राज्यके अन्तर्गत माना है । और वारांको भट्टारक गद्दीके आधारपर पद्मनन्दिका समय वि० सं० ११०० अर्थात् ई० सन् १०४३ के लगभग सिद्ध किया है।
ज्ञानप्रबोध भाषाग्रन्थमें कुन्दकुन्दाचार्यकी एक कथा आयी है । उसमें कुन्द कुन्दको इसी वारापुर या बारांके धनी कुन्दश्रेष्ठी व कुन्दलताका पुत्र बतलाया है । कुन्दकुन्दका एक नाम पद्मनन्दि भी है । अवगत होता है कि ज्ञानप्रबोधके कर्ताने क्रमशः 'जंबुदीवपण्णत्तिके' रचयिता पद्मनन्दिको कुन्दकुन्द समझकर वारांको उनका जन्मस्थान बताया है । शान्ति या शक्तिराजाको नरपतिरांपूज्य लिखा है। और साथ ही उसे 'बारानगरस्य प्रभु ' कहा है। इस शान्ति या शक्तिको ही शक्तिकुमार मान लेना उचित प्रतीत है और इस आधारपर पद्म नन्दिका समय ई० सन् १७७ के आस-पास माना जा सकता है।
एक अन्य प्रमाण यह भी है कि सुधर्म स्वामीका नाम लोहार्य दिया है । यह लोहार्य अचारांगधारी लोहार्ये भिन्न हैं। श्रवणबेलगोला बमतिमें भी गौतम गणधरके साक्षात शिष्य लोहार्यको बताया है। यह अभिलेख शक संवत् ५२२ ( ई० सन् ६००) है, अतः सुधर्मके स्थानपर लोहार्य के नाम आनेसे भी 'जबूदीब पत्ति ' ई० सन् दशवीं शतीकी रचना है।
जंबूदीवपण्णत्तिमें २४२९ गाथाएँ हैं और तेरह उद्देश्य हैं । प्रत्येक उद्देश्य को पुष्पिकामें उस उद्देश्यके विषयका निर्देश पाया जाता है। उद्देश्योंके नाम निम्न प्रकार हैं
१. जैनसाहित्य और इतिहारा, बम्बई, प्रथम मंस्करण, पृ. २५४ ।
१. उपोद्घातप्रस्ताव ।
२. भरतैरावर्णन 1
३. पर्वत-नदी-भोगभूमिवर्णन |
४. महाविदेहाधिकार।
५. मंदरगिरि-जिनभवनवर्णन ।
६. देवकुरु-उत्तरकुरु-विन्यासप्रस्ताव ।
७. कच्छाबिजयवर्णम ।
८. पूर्व विदेहवर्णन ।
९. अपरविदेहवर्णन ।
१०. लवणसमुद्रवर्णन ।
११. बहिरुपसंहार द्वीप-सागर-नरकगति-देवति-सिद्धक्षेत्रवर्णन ।
१२. जयोतिलोकेवर्णन
१३. प्रमाणपरिच्छेद ।
प्रथम उद्देश्यमें ७४ गाथाएँ हैं। प्रथम छह गाथाओंमें पञ्चपरमेष्ठीको नमस्कार किया है, तदनन्तर ग्रन्थ रचनेको प्रतिज्ञा की है । पश्चात् तीर्थकर महावीर आचार्यपरम्पराका निर्देश करते हुए बताया है कि विपुलाचलपर स्थित वर्धमान जिनेन्द्रने प्रमाण नययुक्त अर्थ गौतम गणधरके लिए कहा । गौतम गणधरने सुधर्मस्वामी ( लोहाचार्य ) को कहा और उन्होंने जम्वृस्वामी को। ये तीनों अनुबद्धकेवली थे। पश्चात् १. नन्दी, २. नन्दिमित्र, ३. अपराजित, ४. गोबर्द्धन और ५. भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए। तदनन्तर १. विशाखाचार्य, २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. जय, ५. नाग, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषण, ८. विजय, २. बुद्धिल्ल, १०. गङ्गदेव और ११. धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य दशपूर्वोके ज्ञाता हुए। तत्पश्चात् १ नक्षत्र, २. यशपाल, ३. पाण्डु, ४. ध्रुवषेण और ५. कंसाचार्य ये पाँच ११ अंगोंके धारी हुए । तदुपरान्त १. सुभद्र, २. यशोभद्र, ३. यशोबाहु और ४. लोहाचार्य ये आचाराङ्ग के धारक हुए।
इन आचार्योंके निर्देशके पश्चात् पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्वारपल्यप्रमाण समस्त द्वीप-सागरोंके मध्य में स्थित जम्बुद्वीपके बिस्तार, परिधि और क्षेत्रफलका कथन किया है। उसकी वेदिकाका वर्णन करते हुए बताया है कि उसके विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक चार गोपुरद्वारोंपर क्रमशः उन्हीं नामोंके धारक प्रभावशाली चार देव स्थित हैं । यहाँ इनमेंसे प्रत्येकके बारह हजार योजन प्रमाण लम्बे -चौड़े नगर बतलाये हैं। जम्बूद्वीपमें सात क्षेत्र, एक मन्दर पर्बत, छह कुलपर्वत, दोसौ काञ्चनपर्वत, चार यमकपर्वत, चार नाभिगिरि, चौतीस वृषभगिरि, चौतीस बिजयार्द्ध, सोलह वक्षार पर्वत और आठ दिग्गज पर्वत स्थित हैं। इन सबके पृथक्-पृथक् वेदियाँ और वनसमूह भी है । चौदह लाख छप्पन हजार नब्बे नदियाँ जम्बूद्वीपमें हैं । नदी, तट, पर्बल, उद्यान, बन, दिव्य भवन, शाल्मलिवृक्ष और जम्बूवृक्ष आदिके उपर स्थित किन प्रतिमाओंको नमस्कार करके जिनेन्द्रसे बोध-याचना की गयी है।
द्वितीय उद्देश्यमें २१० गाथाएँ हैं। क्षेत्रोंका वर्णन करते हुए भरत, हैमवत, हरि, बिदेह, रम्पक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र तथा क्रमशः इनका विभाग करने वाले हिमवान।,महहिमवान , गातिमा , नील , किम और शिखरी ये पद कुलाचल स्थित हैं। जम्बू द्वीपके गोलाकार होनेसे इसमें स्थित उन क्षेत्र पर्वतोंमें क्षेत्रसे दुना पर्वत और उससे दुना बिस्तृत आगेका क्षेत्र है । यह क्रम उसके मध्यमें स्थित विदेह क्षेत्र तक है। इस क्षेत्रसे आगेके पर्वतका विस्तार आधा है और उससे आधा विस्तार आगेके क्षेत्रका है। यह क्रम अन्तिम ऐरावत क्षेत्र तक है । इस प्रकार जम्बूद्वीपके खण्ड भरत १ + हिमवान् २+ हैमबत्त ४+ महाहिमवान् ८ + हरिवर्ष १६ + निषध ३२ + विदेह ६४ + नील ३२ + रम्यक १६ + रुक्मि ८ + हैरण्यवत ४ + शिखरी २+ ऐरावत १ = १९० हो गये हैं। जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन है । गोल क्षेत्रके विभागभूत होनेसे इन क्षेत्र और पर्वतोंका आकार धनुष जैसा हो गया है। यहाँ धनुपृष्ठ, बाहु, जीवा, चूलिका और बाणका प्रमाण निकालनेके लिए करणसुत्र दिये गये है।
विजयाका वर्णन करते हुए वहाँ उसको दक्षिण श्रेणी में पचास और उत्तर श्रेणिमें साठ विद्याधर नगगेका निदश करके ४०ची गाथामें उनकी सम्मिलित संख्या २०७ बतलायो है, यह संख्या विचारणीय है । यों तो ५० + ६० = ११० विद्याधर नगर बतलाये गये हैं। यदि इनमें ऐरावल क्षेत्रस्थ विजयाध पर्वतक भी नगरीको संख्या सम्मिलित करली जाय, तो २२० नगर होने चाहिए। विजया पर्वतके वर्णनप्रसंगमें उसके ऊपर स्थित नौ कूटोंका नामनिर्देश कर उनपर स्थित जिनभवन, देवभवन और उद्यान वनोका वर्णन किया है । पर्वतके दोनों ओर तिमिस्त्र और खण्डप्रपात नामकी दो गुफाएं हैं। इन्हीं गुफाओंके भीतर आकर गंगा और सिन्धु दक्षिणभारतमें प्रविष्ट होती हैं। तदनन्तर उत्सपिणी और अवपिणी कालके भेदोंका उल्लेख करते हुए बताया है कि समस्त विदेह क्षेत्रों, म्लेच्छखण्डों और समस्त विद्याधरनगरोंमें सदा चतुर्थ काल विद्यमान रहता है । देवकुम और उत्तरकुममें प्रथम; हैमवत और हैरण्यवतमें तृतीय एवं हरिवर्ष और रम्यक क्षेत्रमें द्वितीय काल सदा रहता है । इन कालोंमें उत्सेध, आयु, योजन
आदिके नियम भी प्रतिपादित किये गये हैं।
मानुषोत्तर पर्वतसे आगे स्वयम्भरमण दीपके मध्यमें स्थित नगेन्द्र पर्वत तक असंख्यात द्वीपोंमें युगलरूपमें उत्पन होनेवाले तिर्यञ्च जीत्र रहते हैं । यहाँ पर सदा तीसरकाल .विद्यमान रहता है। नगेन्द्र पर्वतसे आगे स्वयम्भरमणद्वीप एवं स्वयम्भूरमणसमुद्र में दुगमकाल, देवों में सुपम-मुषम, नारकियोंमें अतिदुःषम तथा तिर्यंचों और मनुष्योंमें छहों काल रहनेका उल्लेख किया है।
....तीसरे उदेशय मे २४६ गाथाये हे है। इन उपदेश हिमवान -शिखरी , महाहिम वान-रुक्मि, और निषध-नील कुलाचलोंके विस्तार, जीवा, धनुपृष्ठ, पार्श्वभुजा, चूलिकाका प्रमाण बतलाकर उनके ऊपर स्थित कूटोके नामोंका निर्देश किया है ! इन कूटोंके ऊपर जो भवन स्थित हैं. उनका भी वर्णन किया गया है । तत्प श्चात् कुलाचलोके ऊपर स्थित पद्म और महापदम आदि सरोवर और उनमें स्थित कमलभवनों पर निवास करनेवाली श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि एवं लक्ष्मी इन छह देवियोंकी विभूतियोंका वर्णन किया गया है। पथहृदय स्थित समस्त कमल-भवन १४०११६ हैं । जम्बू और शाल्मलिवृक्षोंके ऊपर स्थित भवन भी इतने ही हैं । इन वृक्षोंके अधिपत्ति देवोंकी चार महिषियोंके भवन १४०१२० बतलाये गये हैं। यहाँके जिनभवनोंको संख्या भी गिनायी गयी है । पाहदके पूर्वाभिमुख तोरणद्वारसे गंगा महानदी निकलती है । यह नदी हिमवान् पर्वतके ऊपर पूर्वकी ओर ५०० योजन जाकर पुनः दक्षिणकी ओर मुड़ जाती है । इस प्रकार पर्वतके अन्त तक जाकर वहाँ जो बृषभाकार नाली स्थित है, उसमें प्रविष्ट होती हुई वह पर्वतके नीचे स्थित कुण्डमें गिरती है । यह गोलकुण्ड ६२ १/२ योजन विस्तृत और १० योजन गहरा है। इसके बीचोंबीच एक आठ-योजन विस्तृत द्वीप और उसके भी मध्यमें पर्वत है । पर्वतके ऊपर गंगादेवीका मंगाकूट नामक प्रासाद है। गंगानदीकी धारा उन्नत भवनके शिखर पर स्थित जिनप्रतिमाके ऊपर पड़ती है । यहसि निकलकर वह गंगानदी दक्षिणकी ओर जाकर विजयार्थ की गुफामें जाती हुई पूर्व समुद्र में गिरती है ! इस प्रसंगमें कुण्ड, कुण्डद्वीप, कुण्डस्थ पर्वत, तदुरिस्थ भवन और तोरण आदिका विस्तार प्रतिपादित किया गया है । अन्तमें हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक और हैरण्यवत इन चार क्षेत्रोंके मध्य में स्थित नाभिगिरि पर्वतका वर्णन करते हुए इन क्षेत्रोंमें प्रवर्तमान कालोंका पुनः निर्देश करके भोगभूमियोंकी व्यवस्था प्रतिपादित की गयी हैं।
चतुर्थ उद्देश्यमें २९२ गाथाएँ हैं । इसमें सुमेरुके वर्णनके साथ लोककी आकृति, उसका विस्तार,कैचाई आदिका कथन किया है। लोकके मध्यभागमें स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके मान्य में जम्बूद्वीप है और उसके मध्यमें विदेह क्षेत्र
के अन्तर्गत मन्दर पर्वत है। उसका विस्तार पातालतलमें १००९० १०/११ योजन, पृथिवीतलके ऊपर भद्रशालबनमें १००० योजन और ऊपर शिखर पर - पाण्डुकवनमें एक सहस्त्र योजन है। यह मूल भागमें एक सहस्र योजन वन मय, मध्य में ६१००० योजन मणिमय और ऊपर ३८००० योजन सुवर्णमय है। मेरुका भद्रशाल नामका प्रथम वन पूर्व-पश्चिममें २२००० योजन विस्तृत है। इसके मध्य में १०० योजन विस्तृत, ५० योजन आयत और ७५ योजन उन्नत चार जिनभवन स्थित हैं। इनके तारोंकी ऊँचाई ८ योजन, विस्तार ४ योजन और बिस्तारके समान प्रवेश भी ४ योजन है। इनकी पीठिकाएं १५ योजन दीर्घ और ८ योजन ऊंची हैं। उनमें स्थित जिनप्रतिमाओंकी ऊँचाई ५०० धनुष है ! नन्दीश्वरद्वीपमें स्थित बावन जिनभवनोंकी रचनाका यही क्रम है। नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनोंमें स्थित जिनभवनोंके विस्तार आदिका वर्णन किया है।
मेरुके ऊपर पृथिवीतलसे ५०० योजन कार जाकर नन्दनवन, ६२५०० योगन ऊपर सौमनस बन और ३६००० योजन ऊपर पाण्डुकवन स्थित है । पाण्डुक बनके मध्यमें ४० योजन ऊँची वैडूर्यमणिमय चूलिका है। इसका विस्तार मूल में १२ योजन, मध्यमें आठ योजन और शिखरपर चार योजन है। चूलिकाके ऊपर एक बालमात्रके अन्तरसे सौधर्मकल्पका प्रथम ऋजुनिमान स्थित है। पाण्डुकबनके भीतर पाण्डुशिला, पाण्डुककम्बला, रक्तबंबला और रक्तशिला, ये चार शिलाएँ पाँचसौ योजन आयत, दोसौ पचास योजन विस्तृत और चार योजन ऊँची स्थित हैं। प्रत्येक शिलाके ऊपर ५०० धनुष आयत, २५० धनुष विस्तृत और ५०० धनुष उन्नत ३-३ पूर्वाभिमुख सिंहासन स्थित हैं। इनमेंसे मध्यका जिनेन्द्रका, दक्षिणपश्चिभागमें स्थित सौधर्म इन्द्रका और वामपाश्व भागमें स्थित सिंहासन ईशानेन्द्रका है। ईशान दिशामें स्थित पाण्डकशिलाके ऊपर भरतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरोंका, आग्नेयकोणमें स्थित पाण्ड्डककम्बलाशिला के ऊपर अपरविदेहोत्पन्न तीर्थंकरोंका, नैऋत्यकोणमें स्थित रक्तकम्बाला शिलाके ऊपर ऐरावतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरोंका और वायव्यकोणमें स्थित रक्त शिलाके ऊपर पूर्व विदेहोत्पन्न तीर्थंकरोंका जन्मामिषेक चतुनिकायके देवों द्वारा किया जाता है। इस उद्देशमें सौधर्म इन्द्रकी सप्तविध सेना और ऐरावत हाथीका भी विस्तृत वर्णन आया है।
पञ्चम उद्देश्यमें १२५ गाथाएं हैं। यहाँ मन्दरपर्वतस्थ जिनेन्द्र-भवनोंका वर्णन करते हुए बतलाया है कि त्रिभुवनतिलकनामक जिनेन्द्र-भवनकी गंघ कुटी ७५ योजन ऊँची, ५० योजन आयत और इतनी ही विस्तृत है।
उसके द्वार १६ योजन उन्नत, ८ योजन विस्तृत ओर विस्तार के बराबर प्रवेशसे सहित हैं। मन्दरपर्वतके भद्रशालनामक प्रथम वनमें चारों दिशाओं में चार जिन भवन हैं, जिनका आयाम १०० योजन, विस्तार ५० योजन, ऊँचाई ७५ योजन और अवगाह आवा योजन है। इन जिनभवनों में पूर्व, उत्तर और दक्षिणको ओर तीन द्वार हैं । इन जिनभवनों में पूर्व-पश्चिममें ८,000 मणिमालाएं और अन्तरालोंमें २४,००० सुवर्णमालाएँ लटकती हैं । द्वारो में कपूर आदि सुगंधित द्रव्योंसे संयुक्त २४,००० धूप घट हैं । सुगन्धित मालाओंके अभिमुख ३२,००० रत्नकलश हैं, बाएँ भागमें ४००० मणिमलाएँ, १२,००० स्वर्णमालाएँ, १२,००० धूपघट और १६,००० कंचनकलश हैं।
जिनभवनोंके पीठ सोलह योजनसे कुछ अधिक आयत, आठ योजनसे कुछ अधिक विस्तृत और दो योजन ऊंचे हैं । यहाँको सोपानपंक्तियाँ सोलह योजन लम्बी, आठ योजन चौड़ी, छ: योजन ऊंची और दो गव्यूति अवगाहवाली है । सोपानोंको संख्या १०८ है। पीठोंकी वेदिवाएँ स्फटिकमणिमय हैं, गर्भगृहभित्तियाँ वैडूर्यमणिमय स्तम्भसे युक्त हैं। इन भवनों में अनादिनिधन जिनेन्द्र-प्रतिमाएं पाँच सौ धनुष उन्नत विराजमान हैं। एक-एक जिनभवनमें १०८-१०८ जिन प्रतिमाएं रहती है और प्रत्येक प्रतिभा के साथ एकसौ आठ प्रतिहार्य होते हैं। यहाँ उक्त जिनभवनोंके भीतर सिंहादि चिह्नोंसे सुशोभित दश प्रकारको ध्वजाएं, मुखमण्डप, प्रेक्षागृह, सभागृह, स्तूप, चैत्यवृक्ष और वनवापियाँ आदिका भी चित्रण आया है। इन जिनभवनों में चार प्रकारके देव अपनी-अपनी विभूतियाँ के साथ आकर अष्टालिक दिनोंमें पूजा करते हैं । इन्द्रोंके विमानोंका नाम .बतलाते हुए लिखा है कि १. गज, २. वृषभ, ३. सिंह, ४. तुरग, ५. हंस, ६. वानर,७. सारस, ८. मयूर, ९. चक्रवाक, १०. पुष्पक विमान, ११. कोयल विमान, १२. गाड़विमान, १३. कमलविमान, १४. नलिनविमान और १५. कुमुदविमान हैं। इनके हाथमें १. वच, २. त्रिशूल, ३. मि, ४. परशु, ५. मणिदण्ड, ६. पाश, ७. कोदण्ड, ८. कमलकुसुम, १. पूर्वफ का गुच्छा, १०. मदा, ११. तोमर, १२. हल-मूसल, १३. सितकुसुममाला, १४. चम्पकमाला और १५ मुक्तादाम रहते हैं ।
छठे उद्देश्यमें १७८ गाथाएँ हैं। उसमें देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रोंका वर्णन किया गया है। उत्तरकुरुक्षेत्र मेरुपर्वतके उत्तर और नीलपर्वतके दक्षिण में है। इसके पूर्व में माल्यवान पर्वत और पश्चिममें गन्धमादन है। उत्तरकुरुके मध्यमें मेरुके उत्तर-पूर्व कोणमें सुदर्शननामक जम्बू-वृक्ष स्थित है। इसकी पूर्वादिक चारों दिशाओंमें चार विस्तृत शाखाएं हैं। इसकी उत्तरी शाखापर जिनेन्द्र-भवन और शेष तीन शाखाओंपर यक्ष-भवन हैं।
मन्दरपर्वतके दक्षिण पार्श्वभागमें देवकुरु क्षेत्र है। इसके पूबमें सौमनस तथा पश्चिममें विद्युत्प्रभ नामक गजदन्त पर्वत स्थित है। यह भी निषधपर्वत के उत्तरमें एक सहस्र योजन जाकर सीतोदा नदीके दोनों तटोंपर चित्र और विचित्र नामके दो यमक पर्वत हैं। इनके आगे ५०० सौ योजन जाकर सीता नदीके मध्य में पांच सरोवर हैं, जिनमें स्थित कमलभवनों पर निषधकुमारी, देवकुरुकुमारी, सुरकुमारी, सुलसा और विद्युत्प्रभाकुमारी देवियाँ निवास करती हैं। प्रत्येक सरोबरके पूर्व-पश्चिम दोनों पाश्वभागोंमें १०-१० कञ्चन शैल हैं। यहाँ देवकुरु क्षेत्रमें मन्दरपर्वतकी उत्तर दिशामें सीतोदा नदीके पश्चिम तटपर स्वातिनामक शाल्मली वृक्ष स्थित है। इन देवकुरु और उत्तर कुरु क्षेत्रोंमें युगलरूपसे उत्पन्न होनेवाले मनुष्य सीन पल्योपम प्रमाण आयुसे संयुक्त और तीन कोस ऊँचे होते हैं । तीन दिनके पश्चात् बेरके बराबर आहार ग्रहण करते हैं । ये मरकर नियमतः देवोंमें ही उत्पन्न होते हैं।
सप्तम उद्देश्यमें १५३ गाथाएं हैं। इनमें विदेह क्षेत्रका वर्णन किया गया है। यह क्षेत्र निषध और नील कुलपर्वतोंके बीच स्थित है। इसका विस्तार तेतीस हजार छ: सौ चौरासी पूर्णांक ४/१९ योजन प्रमाण है। बीच में सुमेरु पर्वत और उससे संलग्न चार दिग्गज पर्वत हैं। इस कारण यह पूर्व विदेह और अपर विदेहरूप दो भागोंमें विभक्त हो गया है। बीचमें सीता, सीतोदा महानदियोंके प्रवाहित होनेके कारण प्रत्येकाके और दो-दो भाग हो गये हैं । उक्त चार भागों में से प्रत्येक भागके मध्यमें चार वक्षारपर्वत और उनके बीचमें तीन विभंगा नदियाँ हैं। इस कारण उनमेंसे प्रत्येकके भी आठ-आठ भाग हो गये हैं। इस तरह ये बत्तीस भाग ही बत्तीस विदेहके रूपमें स्थित हैं!
बीचोंबीच विजयाधपर्वत स्थित है । यहाँ रक्ता और रक्तोदा नामकी दो नदियाँ नीलपर्वतस्थ कुण्डोसे निकलकर विजयाईकी गुफाओ भीतरसे जाती हुई सीता महानदीमें प्रविष्ट होती हैं। इस कारण उक्त कच्छा विदेह छ: खण्डोंमें विभक्त हो गया है। इनमें सीता नदीकी ओर बीचका आर्यखण्ड तथा शेष पांच म्लेच्छखण्ड है। आर्यखण्डके बीचमें क्षेमा नामकी नगरी स्थित है। इस नगरीका आयाम बारह योजन और विस्तार नौ योजन प्रमाण है। प्राकारवेष्टित उक्त नगरीके एक सहस्र गोपुर द्वार और पंचशतक खिड़की द्वार हैं। रय्याओंकी संख्या बारह हजार निर्दिष्ट की गयी है । यहाँ चक्रवर्तीका निवास है, जो बत्तीस हजार देशोंके अधिपतियोंका स्वामी होता है । इसके अधीन ९९ हजार द्रोणमुख, ४८ हजार पट्टण, २६ हजार नगर, पांच-पांच सौ ग्रामोसे संयुक्त चार हजार मडम्ब, चौतीस हजार करवट, सोलह हजार खेट, चौदह हजार संवाह, ५६ रत्नद्वीप और ९६ करोड़ ग्राम होते हैं । यहां क्षत्रिय, वैश्य
और शूद्र ये तीन ही वर्ण रहते हैं। ६३ शलाकापुरुषोंकी परम्परा यहाँ पायी जाती है । कच्छा विदेहके समान ही महाकच्छा आदि विदेहोंकी भी स्थिति है। कच्छा विदेहके रक्ता-रक्तोदा नदियोंसे अन्तरित मागध, वरतनु और प्रभास नामके तीन द्वीप हैं। दिग्विजयमें प्रवृत्त हुआ चक्रवर्ती प्रथम इन द्वीपोंके अधि पति देवोंको अपने अधीन करता है। इसी प्रकारसे दक्षिणकी ओरसे देव, विद्या धरोंको चशमें करके वह विजयाई पर्वतकी गुफामेंसे जाकर उत्तरके म्लेच्छ खण्डोंको भी अपने अधीन करता है। युद्धके अनन्तर चक्रवर्ती यहाँसे अश्व, गज, रत्न एवं कन्याओं को प्राप्त करता है। इस समय उसे यह अभिमान होता है कि मुझ जैसा प्रतापी चक्रवर्ती इस पृथ्वी पर अन्य कोई नहीं हुआ । अतएव इसी अभिमानसे प्रेरित होकर निज कीर्ति स्तम्भको स्थापित करनेके लिए ऋषभ गिरिके निकट जाता है ! हाँ समस्न पर्वतोंके नाना नजणि वासे व्याप्त देखकर, वह तत्क्षण निर्मद हो जाता है। अन्तमें वह दण्डरलसे एक नामको घिसकर उस स्थान पर अपना नाम लिख देता है और छहों खण्डोको जीतकर क्षेमा नगरीमें वापस लौटता है।
आठवें उद्देशमें १९८ गाथाएं हैं। इसमें पूर्वविदेहका वर्णन आया है और बताया है कि कच्छा देशके पूर्व में क्रमश: चित्रकूटपर्वत, सुकच्छा देश, ग्रहनती नदी, महाकच्छादेश, पधकूटपर्वत, कच्छकावतीदेश, द्रवतीनदी, आवतीदेश, नलिनकूटपर्वत, मंगलावतोदेश, पंकवतीनदी, पुष्कलादेश, शैलपर्वत और महा पुष्कलादेश हैं । इसके आगे देवारण्य नामका वन है । उक्त सुकच्छा आदि देशों की राजधानियोंके, ओमपुरी, अरिष्टनगरी, अरिष्टपुरी, खड्गा, मंजूषा, ओषधि और पुण्डरीकिणी नाम आये हैं । महापुष्कलावती देशके आगे पूर्वमें देवारण्य नामका वन है। इसके आगे दक्षिणमें सीता नदीके तट पर दुसरा देवारण्य वन है। इससे आगे पश्चिम दिशामें वत्सादेश, त्रिकूटपर्वत , सुबत्सा देश, तप्तबला नदी, महावत्सादेश, वेश्रवणकूटपर्वत, वत्सकावतीदेश, मत्तजलानदी, रम्या देश, अंजनगिरि पर्वत, सुरम्यादेश, उन्मत्तजलानदी, रमणीयादेश, आत्माजनपर्वत और मङ्गलावतीदेश आये हैं। इन देशोंकी सुशीमा, कुण्डला, अप राजिता, प्रभंकरा, अंकावती, पद्मावती, शुभा और रत्नसंचया नामकी राजधानियाँ हैं । समस्त देश, नदी और पर्वतोंकी लम्बाई १६५५२, २/११ योजन है।
नवम उद्देशमें १५७ गाथाएँ हैं। यहाँ अपरविदेहका वर्णन करते हुए बतलाया है कि रत्नसंचयपुरके पश्चिममें एक वेदिका और उस वेदिकासे ५०० योजच जाकर सोमनसपर्वत है। यह पर्वत भद्रशालबनके मध्यसे गया है। निषधपर्वतके समीपमें इसकी ऊँचाई ४०० योजन और अवगाह १०० योजन
है । विस्तार इसका ५०० योजन है । वेदिकाके पश्चिममें पद्मा नामका देश है। यह गंगा-सिन्धु नदियों और विजयाचं पर्वतोके कारण छह खण्डोंमें विभक्त हो गया । इसकी राजधानी अश्वपुरी है । पद्मा क्षेत्रके आगे पश्चिममें क्रमश: श्रद्धा बतीपर्वत, सुपादेश, धीरोदानदी, महपद्मादेश, विकटावतीपर्वत, पश्य कावतीदेश, सीतोदानदी, संखादेश, आशीविषपर्वत, नलिनादेश, स्रोतवा हिनीनदी कुमुदानेश, मवावहार्बन और सरिता नामक देा है। इन देशोंकी सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका और विगतशोका राजधानियाँ है । पश्चिममें देवारण्य नामक वन है । इसके उत्तरमें शीतोदा नदी के उत्तर तटपर भी दुसरा देवारण्य है । इसके पूर्व में वप्रादेश, चन्द्रपर्वत, सुबप्रा देश, गम्भीरमालिनीनदी, महावप्रादेश, सूर्यपर्वत, बाकावतीदेश, फेनमालिनी नदी, बल्गुदेश, महानागपर्वत, सुवलादेश, उमिमालिनीनदी, गन्धिलादेश, देवपर्वत और गन्धमालिनीदेश स्थित हैं। इन देशोंकी विजयपुरी, वैजयन्ती, जयन्ता, अपराजिसा, चकपुरी, खड़गपुरी, अयुध्या और अबध्या राजधानियाँ हैं। इसके पूर्वमें एक बेदी और उसके आगे ५०० योजन जाकर गन्धमादन पर्वत है। इसके पूर्व में ५३००० हजार योजन जाकर माल्यवान पर्वत है । इसके आगे पूर्व मे ५०० योजन जाकर नीलपर्वतके पासमें एक और बेदिका है। नदियों के किनारे पर स्थित २० वक्षार पर्वत हैं, जिनके उपर जिनभवन बने है।
दशम उद्देशमें १०२ गाथाएँ हैं और लवण समुद्रका वर्णन आया है। यह समुद्र जम्बू द्वीपको सब ओरसे घेरकर वलयाकार स्थित है। इसका विस्तार पृथ्वीतलपर दो लाख योजन और मध्यमें दश सहस्र योजन है। गहराई एक हजार योजन है । इसके भीतर तटसे १५ हजार योजन जाकर पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरमें क्रमशः पाताल, वलयमुख, कदम्बक और यूपकेशरी महा पाताल स्थित हैं। इनका विस्तार मूलमें और ऊपर दश सहस्र योजन है । इनके मध्य विस्तार और ऊँचाई एक लाख प्रमाण योजन है। शुक्लपक्ष और कृष्ण पक्षमें समुद्रकी जलवद्धि और हासका भी वर्णन आया है। दिशा और विदिशा गत समस्त पातालोंको संख्या १००८ है। लवणसमुद्र में वेदिकासे बयालीस हजार योजन जाकर बेलन्धर देवोंके कौस्तुभ, कौस्तुभभास, उदक, उदकभास, शंख, महास्त्र, उदक और उदवास आठ पर्वत है। समुद्रकी बेलाको धारण करनेवाले नागकुमार देवोंको संख्या एक लाख बयालीस हजार है। इनमें बहत्तर हजार देव बाहा बेलाको, बयालीस हजार देव आभ्यन्तर बेलाको बोर २८ हजार देव जलशिखाको धारण करते हैं। इन देवोंके नगरोंकी संख्या भी एक लाख बबालीस हजार है । यहाँ अन्तरद्वीप २४ हैं। इन द्वीपोंमें एक जंघावाले ,
पूछवालं, सींगवाले एवं गूंगे इत्यादि विकृत आकृतिके धारक कुमानुष रहते हैं। इनमें एक जंघावाले कुमानुष गुफाओं में रहकर मिट्टीका भोजन करते हैं तथा शेष कुमानु पुष्प फल भोगी होते है .। इनके ..यह उत्त्पन होनेके कारणोंको बतलाते हुए कहा गया है कि जो प्राणी मन्दकषायी होते हैं, काय-क्लेष से धर्म फलको चाहने वाले हैं, अज्ञानवश पञ्चाग्नितप करते हैं, सम्यग्दर्शनसे रहित होकर तपश्चरण करते हैं, अभिमानमें चूर होकर साधुओंका अपमान करते हैं, आलोचना नहीं करते, मुनिसंघको छोड़कर एकाकी विहार करते हैं, कलह करते हैं, वे मरकर कुमानुषोंमें उत्पन्न होते हैं।
एकादश उद्देशमें ३६५ गाथाएँ हैं। इस उद्देशमें द्वीपसागर, अधोलोक तथा उध्वंलोकका वर्णन आया है। द्वीपसागरोंमें धातकीखण्डद्वीपका वर्णन करते हुए उसका चार लाख योजन प्रमाण विस्तार बतलाया है। इसके दक्षिण और उत्तर भागोंमें दो इष्वाकार पर्वत है, जो लवणसे कालोद समुद्र तक आयत हैं। धातकोखण्डद्वीपके दो विभाग हैं। प्रत्येक विभागमें जम्बूदीपके समान, भरतादि सात क्षेत्र और हिमवान् आदि छह कुलपर्वत स्थित हैं। मध्यमें एक एक मेरुपर्वत है। इनमें हिमवनपर्वतका विस्तार २१०५,५/१९ योजन है, महा हिमवनका ८४२१,११/१९ योजन और निषषपर्वतका ३३६८४,४/१९ योजन है। आगे नील, रुक्मि और शिखरी पर्वतोंका विस्तार क्रमशः निषध, महाहिमवानके और हिमवानके समान है। घातकीखण्डद्वीपको चारों ओरसे वेष्टित कर कालोदधि स्थित है । इसका विस्तार आठ लाख योजन है। लवण समुद्र के समान अन्तरद्वीप यहाँ भी हैं, जिनमें कुमानुष रहते हैं। इससे आगे १६ हजार योजन विस्तृत पुष्करवरद्वीप है । इसके मध्यमें वलयाकारसे मानुषोत्तरपर्वत स्थित है, जिससे कि इस द्वीप के दो भाग हो गये हैं। मानुषोत्तर पर्वतके इस ओर पुष्करार्वद्वीपमें स्थित भरतादि क्षेत्रों और हिमवान् आदि पर्वतोंकी रचना घातकीखण्डद्वीपके समान है। यह पर्वतरुद्ध क्षेत्रका प्रमाण ३५५६८४,४/१९ योजन है । पुष्करार्धकी आदिम परिधि ५१७०६०५ योजन, मध्य परिधि ११७००४२७ योजन और बाह्य परिधि १४२३०२४९ योजन है।
जम्बूद्वीपसे लेकर पुष्करापर्यन्त क्षेत्र ढाईद्वीप या मनुष्यक्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध है । मानुषोत्तरपर्वतसे आगे मनुष्य नहीं पाये जाते । पुष्कबरद्वीपसे आगे पुष्करवरसमुद्र, वारुणिवरद्वीप, वारुणिवरसमुद्र, क्षी क्षीरवरीप, क्षीरवरसमुद्र, धृतवरद्वीप और घृतवरसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप और समुद्र स्थित हैं । अन्तिम द्वीप और समुद्रका नाम स्वम्रभूमण है । पुष्करवर और स्वम्भूबर द्वीपोंके मध्य में
जो असंख्यात द्वीप, समुद्र स्थित हैं, उनमें केवल संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त तियंञ्च जीव ही उत्पन्न होते हैं । इनकी आयु एक पल्य और शरीरकी ऊंचाई दो हजार धनुषप्रमाण होती है। युगलस्वरूपसे उत्पन्न होनेवाले ये सब मन्दकषायी और फलभोजी होते हैं तथा मरकर नियमत: देवलोक जाते हैं । लवणोद, कालोद और स्वम्भरमण इन तीन समुद्रों में ही मगर, मत्स्यादि जलचर जीव पाये जाते हैं । शेष समुद्रों में जलचर जीव नहीं होते । आगे सात नरकों और उनके निवासियोंकी आयु शरीरोत्षेध, अवधिज्ञानका विषय आदि बातोंका वर्णन आया है। समस्त नारकियोंके बिलोंकी संख्या एवं ४२. प्रस्तारोंका उल्लेख पाया जाता है। उर्ध्वलोकका वर्णन करते हुए बतलाया है कि पृथ्वीतलसे १९ हजार योजन ऊपर जाकर मेरुपर्वतकी चूलिकाके ऊपर बालाग्रमात्रके अन्तरसे ऋजु विमान स्थित है। इसका विस्तार मनुष्यलोकने समान ४५ लाख योजनमात्र है। स्वर्गों में इन्द्रक, प्रकीर्णक और श्रेणीबद्ध विमान स्थित हैं, जिनका विस्तारादि भी निकाला गया है । इस प्रकार सौधर्म इन्द्रकी विभूति एवं सौधर्मस्वर्गके आकार-प्रकारादिका विवेचना किया है। इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमाने की ..संख्या का अध्यन भी किया गया है।
द्वादश उद्देशमें ११३ गाथाएं हैं। यहाँ ज्योतिषपटलका वर्णन किया गया है। भूमिसे आठसौ अस्सी योजनकी ऊंचाईपर चन्द्रमाका विमान है। चन्द्र विमानका विस्तार और आयाम तीन गच्युति और तेरहसौ धनुषसे कुछ अधिक है। इन बिमानोंको प्रतिदिन सोलह हजार आभियोग्य जातिके देव खीचते हैं। उक्त देव पूर्वादिक दिशाओं में क्रमशः सिंह, गज, वृषभ और अश्चके आकारमें चार-चार हजार रहते हैं। इसी प्रकार सोलह हजार आभियोग्यदेव सूर्यविमानके, आठ हजार ग्रहगणोंके, चार हजार नक्षत्रोंके और दो हजार ताराओंके वाहक हैं। जम्बूद्वीपमें २, लवणसमुद्र में ४, घातकी खण्डमें १२, कालोदधिमें ४२, और पुष्करापद्वीपमें ७२ चन्द्र हैं। मानुषोत्तरपर्वतके आगे पुष्करद्वीपमें १२६४ चन्द्र हैं। इतने ही सूर्य हैं। शेष द्वीपों और समुद्रोंमें चन्द्रबिम्ब और सूर्यबिम्बों की संख्या निकालनेके लिए कर्णसूत्र दिये गये हैं। इस प्रकार ज्योतिषपटल अधिकारमें सूर्य, चन्द्र और ग्रह नक्षत्रोंकी संख्याका आनयन किया है।
त्रयोदश उद्देशमें १७६ गाथाएँ हैं। सर्वप्रथम यहाँ कालके व्यवहार और परमार्थ रूपसे उल्लेख करते समय, आवलि आदिके प्रमाणका आनयन किया है। आगे चलकर परमाणुका स्वरूप बतलाते हुए उत्तरोत्तर अष्टगुणित अवसन्ना सन्नादिके क्रमसे उत्पन्न होनेवाले अंगुलके उत्सेघांगुल, प्रमाणाङ्गल और आत्मा अल ये तीन भेद बतलाये हैं। इनमेंसे प्रत्येक सूच्यङ्गल, प्रतराङ्गल और घनाङ्गल के भेद से तीन-तीन प्रकारका है । ५०० उत्सेधाङ्गलोंका एक प्रमाणाङ्गुल होता
है। परमाणु और अवसनासन्नादिके क्रमसे जो अङ्गुल निष्पन्न होता है, वह सूच्यङ्गल कहलाता है। इसके प्रतरको प्रतराजल और धनको धनाङ्गल कहते है। भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें जिस-जिस कालमें जो मनुष्य होते हैं, उनके अङ्गुलको आस्माङ्गल कहा जाता है। उत्सेधाङ्गलसे नर-नारकादि जीवोंक शरीर को ऊँचाईका प्रमाण बतलाया जाता है । प्रमाणाङ्गलसे द्वीप, समुद्र, नदी, कुण्ड, क्षेत्र, पर्वत, जिनभवनानि विस्तार का प्रमाण सप्त किया जारहा है आत्माङ्गुलसे कलश, झारी, दण्ड, धनुष, बाण, हल, मूसल, रथ, सिंहासन, छत्र, चमर और गृह आदिका प्रमाण ज्ञात किया जाता है।
इसके पश्चात व्यवहरपल्य ,उदारपल्य ,अदापल्य,कोड़ा-कोड़ी उत्सपिणी अवसपिणी आदिका मान बतलाया गया है। अनन्तर सर्वज्ञसिद्धिके लिए प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और अविरुद्ध आगम प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। प्रमाणके दो भेद हैं. प्रत्यक्ष और परोक्ष । इनमें प्रत्यक्ष भी संकरल और चिकलके भेदसे दो प्रकारका है। सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञान और विकलप्रत्यक्ष अवधि और मन: पर्ययज्ञान हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद अवधिज्ञानके, तथा ऋजुमतिमनःपर्यय और विपुलमतिमनःपर्यय ये दो भेद मनःपर्ययज्ञानक हैं। परोक्ष-भेदोंके अन्तर्गत आभिनिबोधिक ज्ञानके ३३६ भेदोंका निर्देश करते हा अवग्रह, ईहा, अवाय और घारणाका स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । पश्चात् क्षुधा, तुषादिसे रहित देवका वर्णन करते हुए अरहन्त परमेष्ठीके ३४ अतिशयों, देवरिगृहीत आठ मङ्गलद्रव्यों, आठ प्रातिहार्यों और नव केबल लब्धियोंका नामोल्लेख करके १८ हजार शीलों और ८४ हजार गुणोंका भी निर्देश किया है । इस प्रकार इस ग्रन्थमें मनुष्यक्षेत्र, मध्यलोक, पाताललोक और उध्वंलोकका विस्तारसे वर्णन आया है। जैन भूगोलकी दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
इस ग्रन्थमें १९३ गाथाएं हैं। धर्मरसायननामके मुक्तक-काव्य प्राकृत-भाषा के कवियोंने एकाध और भी लिखे हैं। इस नामका आशय यही रहा है कि जिन मुक्तकोंमें संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होनेके आचार और नैतिक नियमोंको चर्चित किया जाता है, इस प्रकारकी रचनाएं धर्मरसायनके अन्तर्गत आती हैं। प्रस्तुत ग्रन्थका भी मूल वय-विषय यही है। यद्यपि इस ग्रन्थमें काव्यतत्वको अपेक्षा धर्मतत्व ही मुखरित हो रहा है, तो भी जीवनके शाश्वतिक नियमोंकी दृष्टिसे इसका पर्याप्त मूल्य है। नैतिक और धार्मिक जीवन के सभी
१. सिद्धान्तसारादिके अन्तर्गत, ..मा ० दि ० जैन ग्रन्थमालासे १९०९ ई० में प्रकाशित ।
मूल्य इस लघुकाय ग्रन्थमें प्रतिपादित हैं। आचार्य धर्मको त्रिलोकका बन्धु बतलाते हुए कहते हैं कि इसकी सत्तासे ही व्यक्ति पूजनीय, त्रिभुवनप्रसिद्ध एवं मान्य होता है ___
आरम्भमें ही आचार्य ने जन्म-मरण और दुःखको नाश करनेवाले इह लोक, परलोकके हितार्थ धर्मरसायनके कहनेकी प्रतिज्ञा की है। धर्म त्रिलोकबन्धु है, धर्म शरण है। धमसे ही मनुष्य त्रिलोकमें पूज्य होता है । धर्मसे कुलकी वृद्धि होती है, धर्मसे दिव्यरूप और आरोग्यता प्राप्त होती है। धर्मसे सुख होता है
और धर्मसे ही संसारमें कीर्ति प्राप्त होती है। आचार्यने बताया है
धम्मो तिलोयबंधु धम्मो सरण हवे तिहुयणस्स ।
धम्मेण पुषणोओ होइ गरी सञ्चलोयस्स ॥
धम्मेण कुलं विउलं धम्मेण य दिब्बरूवमारोग्गं |
धम्मेण जए कित्ती धम्मेण होइ सोहगां ।।
वरभवणजाणवाहणसयणासणयांणभोयणाणं च ।
बरजुबइवत्थुभूसण संपती होइ धम्मेण ।'
अर्थात् धर्मके प्रभावसे धन-वैभव, भवन-बाहन, शय्या, आसन, भोजन, सुन्दर पत्नी, वस्त्राभूषण आदि समस्त लौकिक सुख-साधनोंकी प्राप्ति होती है। इस धर्मरसायनको सामान्यतया उपादेय बणित करनेपर भी रस-भेदसे उसकी भिन्नता उपमाद्वारा सिद्ध होती है। यथा ----
खीराई जहा लोए सरिसाई हति वण्णणामेण ।
रसभेएण य ताई चि गाणागुणदोसजुत्ताइ ।।
काई वि खीराइं जए हवति दुक्खाबहाणि जीवाणं ।
काई वि तुट्ठि पुट्ठि करति वरखण्णमारोग्ग' ।।
जिस प्रकार वर्णमात्रसे सभी दूध समान होते हैं, पर स्वाद और गुणको दुष्टिसे भिन्नता होती है, उसी प्रकार सभी धर्म समान होते हैं, पर उनके फल भिन्न-भिन्न होते हैं। आक–मदार या अन्य प्रकारके दूधके सेवनसे न्याधि उत्पन्न हो जाती है, पर गोदुग्धके सेवनसे आरोग्य और पुष्टि-लाभ होता है। इसी प्रकार अहिंसाधर्मके आचरणसे शांतिलाभ होता है, पर हिंसाके व्यवहारसे अशान्ति और कष्ट प्राप्त होता है। आचार्यने चारों गतियोंके प्राणियोंको प्राप्त होनेवाले दुःखोंका मार्मिक विवेचन किया है। मनुष्य, तिर्यन्च, नारकी और देव इनको अपनी-अपनी
१. धम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पञ्च ३,४,५
२. वही , पद्य-१,१०
योनियों में पर्याप्त कष्ट होता है । जो इन कष्टोंसे मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, वह धर्मरसायनका सेवन करे । आचार्यने इसमें बीतराग और सरागी देवोंकी भी परीक्षा की है, तथा बतलाया है कि जिसे अपने हृदयको राग-द्वेष से मुक्त करना है, उसे चीत रागताका आचरण करना चाहिए । विषय-वासना ग्रस्त सांसारिक प्रपञ्चोंसे युक्त, स्त्रीके अधीन, रागी, द्वेषी परमात्मा नहीं हो सकता है | आचार्यने इस परमात्म-सत्वका विवेचन करते हुए लिखा है
कामग्गिततचित्तो इच्छ्यभाणो तिलोषणाय ।
जो रिच्छी भत्तारो जादो सा कि होइ परमप्पो ।
जइ रिसो वि मुढो परमप्पा वच्चर एवं ।
तो खरघोड़ाईया सच्चे वि य होति परमप्पा' ।।
सच्चा देव क्षुधा, तृषा, तृष्णा, व्याधि, वेदना, चिन्ता, भय, शोक, पीड़ा , राग, मोह, जन्म-जरा-मरण, निद्रा, स्वेद आदि दोषोंसे रहित होता है । सिंहा सन, छत्र, दिव्यध्वनी , पुष्पवृष्टि , चमर, भामण्डल, दुन्दुभि आदि बाह्य चिह्नोंसे युक्त, सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी देव होता है । ९४बी गाथासे १३८वीं गाथा तक सर्वज्ञदेव परीक्षा की गयी है और विभिन्न तर्को से अर्हन्तको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। धर्मके दो भेद हैं---सागार और अनगार । इन दोनों धर्मोका मूल सम्यक्त्व है। इस सम्यक्त्वकी प्राप्ति जिसे हो जाती है, उसके कर्म-कलङ्क नष्ट होने लगते हैं। सम्यक्त्वरूपी रत्नके लाभसे नरक और तिर्यञ्च गति मे जन्म नहीं होता। श्रावकाचारके १२ भेद बतलाए हैं-पाँच अणुव्रत, तीन गुणत्रत और चार शिक्षावत । इस प्रकार १२ व्रतोंका कथन आया है। देवता, पित, मन्त्र, औषधि, यन्त्र आदिकः निमित्तसे जीवोंकी हिंसा न करना अहिसाणुवत है। असत्य वचनोंके साथ दूसरेवो कष्ट देनेवाले बचन भी असत्यको ही अन्तर्गत है, अत: ऐसे बचनोंके व्यवहारका त्याम करना सत्याणुव्रत है। संसारको समस्त स्त्रियोंकी माता, बहिन और पुत्रियोंके समान समझकर स्चदार-सेवनमें सन्तोष करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। धन-धान्य, द्विपद, चतुष्पद, खेत आदि वस्तुओंका नियत परिमाण कर शेषका परित्याग करना परिग्रहपरिमाणवत है। इस प्रकार गुणग्रत और शिक्षाव्रतोंका भी वर्णन किया है। आचार्यने दान देनेपर विशेष जोर दिया है। दानके प्रभावसे सभी प्रकारके दुःख दारिद्रय नष्ट हो जाते हैं और अणिमा, महिमा आदि अष्ट्र ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
१. धम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पद्य-१०४, १०५ ।
देवतिमें जन्म लेनेवाला व्यक्ति यथेष्ट भोगोंको भोगनेके अनन्तर मनुष्यगतिमें जन्म लेता है और वहाँ दिगम्बर दीक्षा धारणकर तपश्चर्या द्वारा कर्मोको नष्ट करता है। मुनिको ग्रीष्म और शीत ऋतुमें किस प्रकार विचरण करना चाहिए, इसका भी वर्णन आया है । आचार्य ने लिखा है
डहिऊग य कम्मवणं उमोण तवाणलंण णिस्सेसं ।
आपुण्णभवं अणंत सिद्धिसुहं पावए जीओ' ||
इस ग्रन्थकी १९१वी गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डकी ६८वी गाथा है। बहुत सम्भव है कि यह गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डसे अथवा ऐसे किसो अन्य स्रोतसे ली गयी है, जो दो दोनोंका एक ही आधार रहा हो ।
प्राकृतवृत्ति सहित पञ्चसंग्रहमें १. जीवसमास २. प्रकृतिसमुत्कीर्तन ३. बन्धस्तव, ४, शतक और ५ सप्ततिका ये पाँच प्रकरण संग्रहीत हैं। प्रकरणोंके क्रममें अन्तर है। पहला प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन, द्वितीय कर्मस्तवन, तृतीय जीवसमास, चतुर्थ शतक और पंचम सप्ततिका है। बंध्य, बन्धेश, बन्धक, बन्धकारण और बन्धभेद इन पांचोंके अनुसार संकलन कर व्याख्या की गयी है। व्याख्याकी शैली चुणियोंकी शैली है। वृतित्तिकारने अपनी रचनामें कसायपाहुइ'की चूणि और धवलाटीकाको शैलीका पूरा अनुकरण किया है। इनकी वृत्तिको देखनेसे स्पष्ट मात होता है कि बृत्तिकार सिद्धान्तशास्त्रके अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने अनेक नयी परिभाषाएँ अंकित की है। यद्यपि सभी गाथाओंपर वृत्ति नहीं लिखी है, पर जिन गाथाओं पर वृत्ति लिखी गयी है, उन गाथाओंमें अनेक नयी बातें बतलायी गयी हैं। इसका पहला प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन है। इसमें प्रकृतियोंके नामोंका सम कीर्तन करनेके अनन्तर चौदह मार्गणाओंमें कर्मप्रकृतियोंके बंधका कथन आया है। आचार्य ने सभी विषयमें प्रमाण, नय और निक्षेपद्वारा वस्तुके परीक्षणकी चर्चा की है। प्रथम प्रकरण श्रुतवृक्ष नामका है, जिसमें श्रुतज्ञान के समस्त भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है। लिखा है----
प्रमाण-नयनिक्षेपर्योऽयों नाभिसमीक्ष्यते ।
युक्तञ्चायुक्तपद् भाति तस्यायुक्तं सयुक्तिवत् ॥
१. धम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, गाथा १८१ ।
२. प्राकृतवृत्ति सहित पञ्चसंग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ काशी के पंचसंग्रहमें प्रकाशित, पच ५,
पृ ५४१ ।
ज्ञानको प्रमाण माना है और नयको बस्तुके एक अंशका बोधक बनाया है
ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते ।
नयों ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥
ग्यारह अंग और चौदह पूर्वको विषयवस्तुका विस्तारसे वर्णन आया है। प्रथम प्रकृतिरामुलीर्तनमें १६ गाथाएँ हैं और प्राकृत में वृति लिखी गयी है।
कर्मस्तवसंग्रहमें ८८ + १ गाथाएँ हैं। इस प्रकरणमें गुणस्थानक्रमानुसार व्युच्छितिका कयन आया है। सान्तर-निरन्तर, सादि-अनादि आदि प्रकृतियोंक कथनके पश्चात् बन्धब्युन्छति सम्बन्धी १ गाथाओंकी वृति भी लिखी है। प्रारम्भकी ८८ गाथाओंपर कोई वृत्ति नहीं है ।
तृतीय प्रकरण जीवसमास नामका है। इसमें १७६ गाथाएँ हैं । आरम्भ की ५ गाथाओंपर वृत्ति है और शेष गाथाओंपर वृत्ति नहीं लिखी गयी है । पुद्गल द्रब्यके छ; भेद-काल-द्रव्य, बीस प्ररूपणा, गुणस्थानका लक्षण, १४ गुण स्थानोंके नाम, गुणस्थानोंके स्वरूप, जीवोंकी गतियाँ, काय, जान, प्राण, वेद आदि सभी जीवसमासोंके लक्षण भी बतलाये गये हैं। लेश्याका स्वरूप, भेद एवं प्रत्येक लेश्यावालेकी प्रवृत्ति और परिणतिका भी वर्णन आया है । ज्ञान मार्गणामें ज्ञान के भेदोंका विवेचन किया है ।
शतकसंग्रह नामक चतुर्थ प्रकरण है । इस प्रकरणमें १३९.+ १९ गाथाएँ हैं और सभी गाथाओंपर वृत्ति भी लिखी गयी है। इसमें एकेन्द्रिय आदि जीवो के भेद या जीवसमास वर्णित हैं। गुणस्थानों में जीवोंकी संख्याका प्रति पादन करनेके अनन्तर प्रत्येक गतिमें बन्ध होनेवाली प्रकृतियोंका विवेचन किया गया है।
पञ्चम सप्ततिका नामक प्रकरण है। इसमें ९९, गाथाएं हैं 1 इस प्रकरण में विभिन्न बन्धभेदोंका वर्णन किया है। योग, उपयोग, लश्या आदिको अपेक्षा कर्मबन्धके भेदों या भंगोंका वर्णन किया है। इस प्रकार यह 'पंचसंग्रह अन्य कर्मशास्त्रको दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
गुरु | आचार्य श्री बालनंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री पद्मनंदी जी प्रथम |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Padmanandiji1stPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री पद्मनंदीजी प्रथम (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 25 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
पद्मनन्दि प्रथम से हमारा अभिप्राय जंबूदीव-पष्णत्तिके कर्तासे है। यों तो आचार्य कुन्द-कुन्दका भी एक नाम पद्धन्दि मिलता है, पर इस नामसे उनकी ख्याति नहीं है। अतएव पद्मनन्दि प्रथमको हम जंबूदीवपत्तिका कर्ता मानते हैं।
अभिलेखीय साहित्यसे कई पद्यनन्दियोंके अस्तित्वकी सिद्धि होती है । एक पद्मनन्दि चन्द्रप्रभके शिष्यके रूपमें उल्लिखित हैं। इनका निर्देश डॉ. हीरालालजीने जैन-शिलालेख संग्रह प्रथम भागको प्रस्तावनामें किया है। दूसरे पद्मनन्दि वि० सं० ११ ६२ में सिद्धान्तदेव ब सिद्धान्तचक्रवर्ती मूलसंघ, कुन्द कुन्दान्वय, कारगण एवं तितिणिकगच्छमें हुए हैं। तीसरे पद्मनन्दि गोल्ला चार्य के प्रशिष्य और काल्ययोगीके शिष्य हुए हैं। इनका नाम कौमारदेवव्रती था और दूसरा नाम अविद्धकर्ण पद्मनन्दि सैद्धान्तिक था। ये मूलसंघ देशीयगणके
१. प्रमाणनिर्णय, पृ. ३६ ।
२. वही, पृ. ३३ ।
३. एपिग्राफी कर्नाटिका, भाग ७, अभिलेख सं० २६२ ।
आचार्य थे । इनका उल्लेख वि०सं० १२२० के एक अभिलेखमें पाया जाता है। इनके सधर्मा प्रभाचन्द्र थे तथा उनके शिष्य कुलभूषणके शिष्य माघनन्दिका सम्बन्ध कोल्हापुरसे था।
चौथे पद्मनन्दि वे है, जो नयकोसिके शिष्य और प्रभाचन्द्र के सहधर्मी थे, जिनका उल्लेख वि० सं० १२३८ १२४२ १२६३ के अभिलेखों में आता है । इनकी उपाधि 'मन्त्रवादिबर' पायी जाती है | बहुत संभव है कि ये तृतीय और चतुर्थं पद्यनन्दि एक ही हों। तृतीय पद्मनन्दिको भी मन्त्रवादि बहा गया है।
पंचम पद्मनन्दि वीरनन्दिके प्रशिष्य तथा रामनन्दिके शिष्य थे जिनका उल्लेख १२वी शतीके एक अभिलेख में मिलता है।
छठे पद्मनन्दि वे हैं, जिन्होंने अपने गुरु शुभचन्द्रदेवको स्मृतिम लेख लिखवाया था | शुभचन्द्रदेवका वि०सं० १३७० में स्वर्गवास हुआ था। इनके दो शिष्य थे। इन्हीं में एक पद्मनन्दि थे ।
सातवे पद्मनन्दिका उल्लेख वि०सं०१३६० के एक अभिलेखमें आया है । इसमें बाहुबलिमलधारिदेवके शिष्य पद्मनन्दि भट्टारकका निर्देश है, जिन्होंने वि०सं० १३६० में एक जैनन्दिरका निर्माण कराया था |
__ आठवें पद्मनन्दि वे हैं, जो मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण पुस्तकमच्छवर्ती विशदेवके शिष्य पद्मनन्दि थे। इनका स्वर्गवास वि०सं० १३७३में हुआ था। इनका निर्देश श्रवणबेलगोलके अभिलेखसंख्या २६९, में आया है।
नौवें पद्मनन्दि वे हैं, जिनकी वि०सं०१४७१ के देवगढ़के अभिलेखमें प्रभाचन्द्र के शिष्यके रूपमें बड़ी प्रशंसा की गयी है।
जम्बूदीवपत्तिके कर्ता पद्मनन्दि इन सबसे भिन्न हैं । ये अपनेको वीर नन्दिका प्रशिष्य और बलनन्दिका शिष्य बतलाते हैं। इन्होंने विजयगुरुके पास ग्रन्थोंका अध्ययन किया था । ग्रन्थ लिखनेका निमित्त बतलाते हुए निर्दिष्ट किया है कि राग-द्वेषसे रहित श्रुतसागरके पारगामी माघनन्दि आचार्य हुए। उनके शिष्य सिद्धान्त महासमुद्र में कलुषताको धो डालनेवाले गुणवान सकलचन्द्र गुरु हुए। उनके शिष्य निर्मल रत्नत्रयके धारक श्री नन्दिगुरु हुए और उन्हीं के
१. एपिग्राफी कर्नाटिका, माग २, अभिलेख सं० ६४ ।
२. वही, भाग २, अभिलेख सं०६६ ।
३. Jainism in South India, Page 280 तथा एपिग्राफी कर्नाटिका, भाग ८, _अभि० सं० १४० और २३३ ।
४. एपिग्राफी कर्नाटिका-अभिलेख ६५ तथा भूमिका, पृ ० ८६ ।
निमित्त यह 'जम्बुदीवपत्ति लिखी गयो । गुरुपरम्परा मदर्भम पचनन्दिने अपने सम्बन्ध में बताया है कि निदाहरहित, श्यारिशुद्ध, गावत्रयसे रहित, सिद्धान्तके पारगामी और तप-नियम-योगसे संयुक्त पद्मनन्दि नामक मुनि हुए।
ग्रन्थ-रचना के स्थान और वहाँक शासपका नाम निर्देशा करते हुए यह बतलाया है कि वारांनगरका स्वामो नरोत्तमशक्तिभूपाल श्रा, जो सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध वनकर्मको करनेवाला निरन्तर दानशील, जिनशासनवत्सल, वीर, नर पत्तिसंपुजित और कालाओं में कुशल था । यह नगर धन-धान्यसे परिपूर्ण, सम्य दृष्टियों और मुनिजनोंसे मण्डित, जिनभवनोंसे विभूषित, रमणीय पारयात्र देशके अन्तर्गत था। इन्होंने अपनेको 'चरपजमनंदि' कहा है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये पत्ननन्दि पूर्वोक्त सभी पझनन्दियोंसे भिन्न हैं ।
'जंबूदीबपत्ति के अतिरिक्त इनको दो रचनाएँ और मानी जा सकती हैं। एक है प्राकृतपद्यात्मक 'धम्मरसायण' और दूसरी है 'प्राकृतपंचसंग्रहवृत्ति' । श्री पं० हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने पञ्चसंग्रहवृत्तिका रचयिता प्रस्तुत पद्म नन्दिको ही माना है। प्राकृतपंचसंग्रहवृत्तिकार पद्मनन्दि ने अपना निर्देश करते हुए लिखा है----
जह जिणवरेहि कहियं गणहरदेवेहि गथियं सम्म ।
आयरियक्रमेण पुणो जह गंगणइपबाहुब्ध ।।
तह पउमणदिमुणिमा रइयं भबियाण बोहणट्टाए ।
ओघादेसेण य पयडीणं बंधसामित्तं ।।
पं० हीरालालजीकी मान्यता उचित प्रतीत होती है, क्योंकि 'जंबूदीव पण्णसि' और 'प्राकृतपंचसंग्रहवृत्ति की उत्थापनाएँ तुल्य हैं । निस्सन्देह पद्मनन्दि प्राकृतभषा और सिद्धान्तशास्त्र परगामी है। अत: यह वृत्ति पद्मनन्दि प्रथम द्वारा विरचित हो, तो कोई आश्चर्य नहीं । अन्य जितने पद्मनन्दि मिलते हैं, वे प्राकृतके विशेषज्ञ प्रतीत नहीं होते। अतएव प्रस्तुत पद्मनन्दिकी तीन रचनाएं मानी जा सकती हैं-१. जंबूदीवपत्ति , २. धम्मरसायण ३. प्राकृतपंच संग्रवृत्ति ।
'जंबुदीवपण्णत्ति के रचयिता पद्ममन्दिका समय क्या है ? इसका निर्णय अन्तरंग प्रमाणोंके आधारपर किया जाना सम्भव नहीं है। हाँ, अभिलेख, इतर आचार्यों द्वारा किये निर्देश एवं अन्य ग्रन्थोंसे विषयके आधारपर समयका निर्धारण किया जा सकता है । जम्बूदीवपण्पत्ति की आमेर शास्त्रभण्डारकी प्रति ज्येष्ठ १-२. पज्वसंगह, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावनासे उद्धत, पृ. ३९ ।
शुक्ला पञ्चमी वि ० सं ० १५१८ की है , अतः रचयिता का समय इससे पूर्व होना निश्चित है।
नन्दिसंघकी पट्टावलीमें बारांके भट्टारकोंको गद्दीका उल्लेख आया है, जिसमें वि० सं० ११४४ से वि सं० १२०६ तकके बारह भट्टारकोंके नाम दिये गये हैं। इस भट्टारकपरम्परासे सम्बद्ध पद्मनन्दिको गुरुपरम्परा है। राजपूतानेके इतिहासमें गुहिलोतवंशी राजा भरवाहनके पुत्र शालिवाहनके उत्तराधिकारी शक्ति कुमारका उल्लेख मिलता है, इस ग्रन्थम उल्लिखित यही राजा है। आटपुर (आहाड़) के अभिलेखमें गुहदत्त गुहिल) से लेकर शक्तिकुमार तककी पूरी वंशाबली दी है । यह अभिलेख वि० सं० १०३४ वैशाख शुक्ल, प्रतिपदाका लिखा हुआ है । अत: 'जंबूदीवपणत्तिका यही रचनाकाल सम्भव है।।
श्री पंडित नाथुरामजी प्रेमीने इस ग्रन्धके रचनास्थल वारांनगरको राजस्थानके कोटा राज्यके अन्तर्गत माना है । और वारांको भट्टारक गद्दीके आधारपर पद्मनन्दिका समय वि० सं० ११०० अर्थात् ई० सन् १०४३ के लगभग सिद्ध किया है।
ज्ञानप्रबोध भाषाग्रन्थमें कुन्दकुन्दाचार्यकी एक कथा आयी है । उसमें कुन्द कुन्दको इसी वारापुर या बारांके धनी कुन्दश्रेष्ठी व कुन्दलताका पुत्र बतलाया है । कुन्दकुन्दका एक नाम पद्मनन्दि भी है । अवगत होता है कि ज्ञानप्रबोधके कर्ताने क्रमशः 'जंबुदीवपण्णत्तिके' रचयिता पद्मनन्दिको कुन्दकुन्द समझकर वारांको उनका जन्मस्थान बताया है । शान्ति या शक्तिराजाको नरपतिरांपूज्य लिखा है। और साथ ही उसे 'बारानगरस्य प्रभु ' कहा है। इस शान्ति या शक्तिको ही शक्तिकुमार मान लेना उचित प्रतीत है और इस आधारपर पद्म नन्दिका समय ई० सन् १७७ के आस-पास माना जा सकता है।
एक अन्य प्रमाण यह भी है कि सुधर्म स्वामीका नाम लोहार्य दिया है । यह लोहार्य अचारांगधारी लोहार्ये भिन्न हैं। श्रवणबेलगोला बमतिमें भी गौतम गणधरके साक्षात शिष्य लोहार्यको बताया है। यह अभिलेख शक संवत् ५२२ ( ई० सन् ६००) है, अतः सुधर्मके स्थानपर लोहार्य के नाम आनेसे भी 'जबूदीब पत्ति ' ई० सन् दशवीं शतीकी रचना है।
जंबूदीवपण्णत्तिमें २४२९ गाथाएँ हैं और तेरह उद्देश्य हैं । प्रत्येक उद्देश्य को पुष्पिकामें उस उद्देश्यके विषयका निर्देश पाया जाता है। उद्देश्योंके नाम निम्न प्रकार हैं
१. जैनसाहित्य और इतिहारा, बम्बई, प्रथम मंस्करण, पृ. २५४ ।
१. उपोद्घातप्रस्ताव ।
२. भरतैरावर्णन 1
३. पर्वत-नदी-भोगभूमिवर्णन |
४. महाविदेहाधिकार।
५. मंदरगिरि-जिनभवनवर्णन ।
६. देवकुरु-उत्तरकुरु-विन्यासप्रस्ताव ।
७. कच्छाबिजयवर्णम ।
८. पूर्व विदेहवर्णन ।
९. अपरविदेहवर्णन ।
१०. लवणसमुद्रवर्णन ।
११. बहिरुपसंहार द्वीप-सागर-नरकगति-देवति-सिद्धक्षेत्रवर्णन ।
१२. जयोतिलोकेवर्णन
१३. प्रमाणपरिच्छेद ।
प्रथम उद्देश्यमें ७४ गाथाएँ हैं। प्रथम छह गाथाओंमें पञ्चपरमेष्ठीको नमस्कार किया है, तदनन्तर ग्रन्थ रचनेको प्रतिज्ञा की है । पश्चात् तीर्थकर महावीर आचार्यपरम्पराका निर्देश करते हुए बताया है कि विपुलाचलपर स्थित वर्धमान जिनेन्द्रने प्रमाण नययुक्त अर्थ गौतम गणधरके लिए कहा । गौतम गणधरने सुधर्मस्वामी ( लोहाचार्य ) को कहा और उन्होंने जम्वृस्वामी को। ये तीनों अनुबद्धकेवली थे। पश्चात् १. नन्दी, २. नन्दिमित्र, ३. अपराजित, ४. गोबर्द्धन और ५. भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए। तदनन्तर १. विशाखाचार्य, २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. जय, ५. नाग, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषण, ८. विजय, २. बुद्धिल्ल, १०. गङ्गदेव और ११. धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य दशपूर्वोके ज्ञाता हुए। तत्पश्चात् १ नक्षत्र, २. यशपाल, ३. पाण्डु, ४. ध्रुवषेण और ५. कंसाचार्य ये पाँच ११ अंगोंके धारी हुए । तदुपरान्त १. सुभद्र, २. यशोभद्र, ३. यशोबाहु और ४. लोहाचार्य ये आचाराङ्ग के धारक हुए।
इन आचार्योंके निर्देशके पश्चात् पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्वारपल्यप्रमाण समस्त द्वीप-सागरोंके मध्य में स्थित जम्बुद्वीपके बिस्तार, परिधि और क्षेत्रफलका कथन किया है। उसकी वेदिकाका वर्णन करते हुए बताया है कि उसके विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक चार गोपुरद्वारोंपर क्रमशः उन्हीं नामोंके धारक प्रभावशाली चार देव स्थित हैं । यहाँ इनमेंसे प्रत्येकके बारह हजार योजन प्रमाण लम्बे -चौड़े नगर बतलाये हैं। जम्बूद्वीपमें सात क्षेत्र, एक मन्दर पर्बत, छह कुलपर्वत, दोसौ काञ्चनपर्वत, चार यमकपर्वत, चार नाभिगिरि, चौतीस वृषभगिरि, चौतीस बिजयार्द्ध, सोलह वक्षार पर्वत और आठ दिग्गज पर्वत स्थित हैं। इन सबके पृथक्-पृथक् वेदियाँ और वनसमूह भी है । चौदह लाख छप्पन हजार नब्बे नदियाँ जम्बूद्वीपमें हैं । नदी, तट, पर्बल, उद्यान, बन, दिव्य भवन, शाल्मलिवृक्ष और जम्बूवृक्ष आदिके उपर स्थित किन प्रतिमाओंको नमस्कार करके जिनेन्द्रसे बोध-याचना की गयी है।
द्वितीय उद्देश्यमें २१० गाथाएँ हैं। क्षेत्रोंका वर्णन करते हुए भरत, हैमवत, हरि, बिदेह, रम्पक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र तथा क्रमशः इनका विभाग करने वाले हिमवान।,महहिमवान , गातिमा , नील , किम और शिखरी ये पद कुलाचल स्थित हैं। जम्बू द्वीपके गोलाकार होनेसे इसमें स्थित उन क्षेत्र पर्वतोंमें क्षेत्रसे दुना पर्वत और उससे दुना बिस्तृत आगेका क्षेत्र है । यह क्रम उसके मध्यमें स्थित विदेह क्षेत्र तक है। इस क्षेत्रसे आगेके पर्वतका विस्तार आधा है और उससे आधा विस्तार आगेके क्षेत्रका है। यह क्रम अन्तिम ऐरावत क्षेत्र तक है । इस प्रकार जम्बूद्वीपके खण्ड भरत १ + हिमवान् २+ हैमबत्त ४+ महाहिमवान् ८ + हरिवर्ष १६ + निषध ३२ + विदेह ६४ + नील ३२ + रम्यक १६ + रुक्मि ८ + हैरण्यवत ४ + शिखरी २+ ऐरावत १ = १९० हो गये हैं। जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन है । गोल क्षेत्रके विभागभूत होनेसे इन क्षेत्र और पर्वतोंका आकार धनुष जैसा हो गया है। यहाँ धनुपृष्ठ, बाहु, जीवा, चूलिका और बाणका प्रमाण निकालनेके लिए करणसुत्र दिये गये है।
विजयाका वर्णन करते हुए वहाँ उसको दक्षिण श्रेणी में पचास और उत्तर श्रेणिमें साठ विद्याधर नगगेका निदश करके ४०ची गाथामें उनकी सम्मिलित संख्या २०७ बतलायो है, यह संख्या विचारणीय है । यों तो ५० + ६० = ११० विद्याधर नगर बतलाये गये हैं। यदि इनमें ऐरावल क्षेत्रस्थ विजयाध पर्वतक भी नगरीको संख्या सम्मिलित करली जाय, तो २२० नगर होने चाहिए। विजया पर्वतके वर्णनप्रसंगमें उसके ऊपर स्थित नौ कूटोंका नामनिर्देश कर उनपर स्थित जिनभवन, देवभवन और उद्यान वनोका वर्णन किया है । पर्वतके दोनों ओर तिमिस्त्र और खण्डप्रपात नामकी दो गुफाएं हैं। इन्हीं गुफाओंके भीतर आकर गंगा और सिन्धु दक्षिणभारतमें प्रविष्ट होती हैं। तदनन्तर उत्सपिणी और अवपिणी कालके भेदोंका उल्लेख करते हुए बताया है कि समस्त विदेह क्षेत्रों, म्लेच्छखण्डों और समस्त विद्याधरनगरोंमें सदा चतुर्थ काल विद्यमान रहता है । देवकुम और उत्तरकुममें प्रथम; हैमवत और हैरण्यवतमें तृतीय एवं हरिवर्ष और रम्यक क्षेत्रमें द्वितीय काल सदा रहता है । इन कालोंमें उत्सेध, आयु, योजन
आदिके नियम भी प्रतिपादित किये गये हैं।
मानुषोत्तर पर्वतसे आगे स्वयम्भरमण दीपके मध्यमें स्थित नगेन्द्र पर्वत तक असंख्यात द्वीपोंमें युगलरूपमें उत्पन होनेवाले तिर्यञ्च जीत्र रहते हैं । यहाँ पर सदा तीसरकाल .विद्यमान रहता है। नगेन्द्र पर्वतसे आगे स्वयम्भरमणद्वीप एवं स्वयम्भूरमणसमुद्र में दुगमकाल, देवों में सुपम-मुषम, नारकियोंमें अतिदुःषम तथा तिर्यंचों और मनुष्योंमें छहों काल रहनेका उल्लेख किया है।
....तीसरे उदेशय मे २४६ गाथाये हे है। इन उपदेश हिमवान -शिखरी , महाहिम वान-रुक्मि, और निषध-नील कुलाचलोंके विस्तार, जीवा, धनुपृष्ठ, पार्श्वभुजा, चूलिकाका प्रमाण बतलाकर उनके ऊपर स्थित कूटोके नामोंका निर्देश किया है ! इन कूटोंके ऊपर जो भवन स्थित हैं. उनका भी वर्णन किया गया है । तत्प श्चात् कुलाचलोके ऊपर स्थित पद्म और महापदम आदि सरोवर और उनमें स्थित कमलभवनों पर निवास करनेवाली श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि एवं लक्ष्मी इन छह देवियोंकी विभूतियोंका वर्णन किया गया है। पथहृदय स्थित समस्त कमल-भवन १४०११६ हैं । जम्बू और शाल्मलिवृक्षोंके ऊपर स्थित भवन भी इतने ही हैं । इन वृक्षोंके अधिपत्ति देवोंकी चार महिषियोंके भवन १४०१२० बतलाये गये हैं। यहाँके जिनभवनोंको संख्या भी गिनायी गयी है । पाहदके पूर्वाभिमुख तोरणद्वारसे गंगा महानदी निकलती है । यह नदी हिमवान् पर्वतके ऊपर पूर्वकी ओर ५०० योजन जाकर पुनः दक्षिणकी ओर मुड़ जाती है । इस प्रकार पर्वतके अन्त तक जाकर वहाँ जो बृषभाकार नाली स्थित है, उसमें प्रविष्ट होती हुई वह पर्वतके नीचे स्थित कुण्डमें गिरती है । यह गोलकुण्ड ६२ १/२ योजन विस्तृत और १० योजन गहरा है। इसके बीचोंबीच एक आठ-योजन विस्तृत द्वीप और उसके भी मध्यमें पर्वत है । पर्वतके ऊपर गंगादेवीका मंगाकूट नामक प्रासाद है। गंगानदीकी धारा उन्नत भवनके शिखर पर स्थित जिनप्रतिमाके ऊपर पड़ती है । यहसि निकलकर वह गंगानदी दक्षिणकी ओर जाकर विजयार्थ की गुफामें जाती हुई पूर्व समुद्र में गिरती है ! इस प्रसंगमें कुण्ड, कुण्डद्वीप, कुण्डस्थ पर्वत, तदुरिस्थ भवन और तोरण आदिका विस्तार प्रतिपादित किया गया है । अन्तमें हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक और हैरण्यवत इन चार क्षेत्रोंके मध्य में स्थित नाभिगिरि पर्वतका वर्णन करते हुए इन क्षेत्रोंमें प्रवर्तमान कालोंका पुनः निर्देश करके भोगभूमियोंकी व्यवस्था प्रतिपादित की गयी हैं।
चतुर्थ उद्देश्यमें २९२ गाथाएँ हैं । इसमें सुमेरुके वर्णनके साथ लोककी आकृति, उसका विस्तार,कैचाई आदिका कथन किया है। लोकके मध्यभागमें स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके मान्य में जम्बूद्वीप है और उसके मध्यमें विदेह क्षेत्र
के अन्तर्गत मन्दर पर्वत है। उसका विस्तार पातालतलमें १००९० १०/११ योजन, पृथिवीतलके ऊपर भद्रशालबनमें १००० योजन और ऊपर शिखर पर - पाण्डुकवनमें एक सहस्त्र योजन है। यह मूल भागमें एक सहस्र योजन वन मय, मध्य में ६१००० योजन मणिमय और ऊपर ३८००० योजन सुवर्णमय है। मेरुका भद्रशाल नामका प्रथम वन पूर्व-पश्चिममें २२००० योजन विस्तृत है। इसके मध्य में १०० योजन विस्तृत, ५० योजन आयत और ७५ योजन उन्नत चार जिनभवन स्थित हैं। इनके तारोंकी ऊँचाई ८ योजन, विस्तार ४ योजन और बिस्तारके समान प्रवेश भी ४ योजन है। इनकी पीठिकाएं १५ योजन दीर्घ और ८ योजन ऊंची हैं। उनमें स्थित जिनप्रतिमाओंकी ऊँचाई ५०० धनुष है ! नन्दीश्वरद्वीपमें स्थित बावन जिनभवनोंकी रचनाका यही क्रम है। नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वनोंमें स्थित जिनभवनोंके विस्तार आदिका वर्णन किया है।
मेरुके ऊपर पृथिवीतलसे ५०० योजन कार जाकर नन्दनवन, ६२५०० योगन ऊपर सौमनस बन और ३६००० योजन ऊपर पाण्डुकवन स्थित है । पाण्डुक बनके मध्यमें ४० योजन ऊँची वैडूर्यमणिमय चूलिका है। इसका विस्तार मूल में १२ योजन, मध्यमें आठ योजन और शिखरपर चार योजन है। चूलिकाके ऊपर एक बालमात्रके अन्तरसे सौधर्मकल्पका प्रथम ऋजुनिमान स्थित है। पाण्डुकबनके भीतर पाण्डुशिला, पाण्डुककम्बला, रक्तबंबला और रक्तशिला, ये चार शिलाएँ पाँचसौ योजन आयत, दोसौ पचास योजन विस्तृत और चार योजन ऊँची स्थित हैं। प्रत्येक शिलाके ऊपर ५०० धनुष आयत, २५० धनुष विस्तृत और ५०० धनुष उन्नत ३-३ पूर्वाभिमुख सिंहासन स्थित हैं। इनमेंसे मध्यका जिनेन्द्रका, दक्षिणपश्चिभागमें स्थित सौधर्म इन्द्रका और वामपाश्व भागमें स्थित सिंहासन ईशानेन्द्रका है। ईशान दिशामें स्थित पाण्डकशिलाके ऊपर भरतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरोंका, आग्नेयकोणमें स्थित पाण्ड्डककम्बलाशिला के ऊपर अपरविदेहोत्पन्न तीर्थंकरोंका, नैऋत्यकोणमें स्थित रक्तकम्बाला शिलाके ऊपर ऐरावतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरोंका और वायव्यकोणमें स्थित रक्त शिलाके ऊपर पूर्व विदेहोत्पन्न तीर्थंकरोंका जन्मामिषेक चतुनिकायके देवों द्वारा किया जाता है। इस उद्देशमें सौधर्म इन्द्रकी सप्तविध सेना और ऐरावत हाथीका भी विस्तृत वर्णन आया है।
पञ्चम उद्देश्यमें १२५ गाथाएं हैं। यहाँ मन्दरपर्वतस्थ जिनेन्द्र-भवनोंका वर्णन करते हुए बतलाया है कि त्रिभुवनतिलकनामक जिनेन्द्र-भवनकी गंघ कुटी ७५ योजन ऊँची, ५० योजन आयत और इतनी ही विस्तृत है।
उसके द्वार १६ योजन उन्नत, ८ योजन विस्तृत ओर विस्तार के बराबर प्रवेशसे सहित हैं। मन्दरपर्वतके भद्रशालनामक प्रथम वनमें चारों दिशाओं में चार जिन भवन हैं, जिनका आयाम १०० योजन, विस्तार ५० योजन, ऊँचाई ७५ योजन और अवगाह आवा योजन है। इन जिनभवनों में पूर्व, उत्तर और दक्षिणको ओर तीन द्वार हैं । इन जिनभवनों में पूर्व-पश्चिममें ८,000 मणिमालाएं और अन्तरालोंमें २४,००० सुवर्णमालाएँ लटकती हैं । द्वारो में कपूर आदि सुगंधित द्रव्योंसे संयुक्त २४,००० धूप घट हैं । सुगन्धित मालाओंके अभिमुख ३२,००० रत्नकलश हैं, बाएँ भागमें ४००० मणिमलाएँ, १२,००० स्वर्णमालाएँ, १२,००० धूपघट और १६,००० कंचनकलश हैं।
जिनभवनोंके पीठ सोलह योजनसे कुछ अधिक आयत, आठ योजनसे कुछ अधिक विस्तृत और दो योजन ऊंचे हैं । यहाँको सोपानपंक्तियाँ सोलह योजन लम्बी, आठ योजन चौड़ी, छ: योजन ऊंची और दो गव्यूति अवगाहवाली है । सोपानोंको संख्या १०८ है। पीठोंकी वेदिवाएँ स्फटिकमणिमय हैं, गर्भगृहभित्तियाँ वैडूर्यमणिमय स्तम्भसे युक्त हैं। इन भवनों में अनादिनिधन जिनेन्द्र-प्रतिमाएं पाँच सौ धनुष उन्नत विराजमान हैं। एक-एक जिनभवनमें १०८-१०८ जिन प्रतिमाएं रहती है और प्रत्येक प्रतिभा के साथ एकसौ आठ प्रतिहार्य होते हैं। यहाँ उक्त जिनभवनोंके भीतर सिंहादि चिह्नोंसे सुशोभित दश प्रकारको ध्वजाएं, मुखमण्डप, प्रेक्षागृह, सभागृह, स्तूप, चैत्यवृक्ष और वनवापियाँ आदिका भी चित्रण आया है। इन जिनभवनों में चार प्रकारके देव अपनी-अपनी विभूतियाँ के साथ आकर अष्टालिक दिनोंमें पूजा करते हैं । इन्द्रोंके विमानोंका नाम .बतलाते हुए लिखा है कि १. गज, २. वृषभ, ३. सिंह, ४. तुरग, ५. हंस, ६. वानर,७. सारस, ८. मयूर, ९. चक्रवाक, १०. पुष्पक विमान, ११. कोयल विमान, १२. गाड़विमान, १३. कमलविमान, १४. नलिनविमान और १५. कुमुदविमान हैं। इनके हाथमें १. वच, २. त्रिशूल, ३. मि, ४. परशु, ५. मणिदण्ड, ६. पाश, ७. कोदण्ड, ८. कमलकुसुम, १. पूर्वफ का गुच्छा, १०. मदा, ११. तोमर, १२. हल-मूसल, १३. सितकुसुममाला, १४. चम्पकमाला और १५ मुक्तादाम रहते हैं ।
छठे उद्देश्यमें १७८ गाथाएँ हैं। उसमें देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रोंका वर्णन किया गया है। उत्तरकुरुक्षेत्र मेरुपर्वतके उत्तर और नीलपर्वतके दक्षिण में है। इसके पूर्व में माल्यवान पर्वत और पश्चिममें गन्धमादन है। उत्तरकुरुके मध्यमें मेरुके उत्तर-पूर्व कोणमें सुदर्शननामक जम्बू-वृक्ष स्थित है। इसकी पूर्वादिक चारों दिशाओंमें चार विस्तृत शाखाएं हैं। इसकी उत्तरी शाखापर जिनेन्द्र-भवन और शेष तीन शाखाओंपर यक्ष-भवन हैं।
मन्दरपर्वतके दक्षिण पार्श्वभागमें देवकुरु क्षेत्र है। इसके पूबमें सौमनस तथा पश्चिममें विद्युत्प्रभ नामक गजदन्त पर्वत स्थित है। यह भी निषधपर्वत के उत्तरमें एक सहस्र योजन जाकर सीतोदा नदीके दोनों तटोंपर चित्र और विचित्र नामके दो यमक पर्वत हैं। इनके आगे ५०० सौ योजन जाकर सीता नदीके मध्य में पांच सरोवर हैं, जिनमें स्थित कमलभवनों पर निषधकुमारी, देवकुरुकुमारी, सुरकुमारी, सुलसा और विद्युत्प्रभाकुमारी देवियाँ निवास करती हैं। प्रत्येक सरोबरके पूर्व-पश्चिम दोनों पाश्वभागोंमें १०-१० कञ्चन शैल हैं। यहाँ देवकुरु क्षेत्रमें मन्दरपर्वतकी उत्तर दिशामें सीतोदा नदीके पश्चिम तटपर स्वातिनामक शाल्मली वृक्ष स्थित है। इन देवकुरु और उत्तर कुरु क्षेत्रोंमें युगलरूपसे उत्पन्न होनेवाले मनुष्य सीन पल्योपम प्रमाण आयुसे संयुक्त और तीन कोस ऊँचे होते हैं । तीन दिनके पश्चात् बेरके बराबर आहार ग्रहण करते हैं । ये मरकर नियमतः देवोंमें ही उत्पन्न होते हैं।
सप्तम उद्देश्यमें १५३ गाथाएं हैं। इनमें विदेह क्षेत्रका वर्णन किया गया है। यह क्षेत्र निषध और नील कुलपर्वतोंके बीच स्थित है। इसका विस्तार तेतीस हजार छ: सौ चौरासी पूर्णांक ४/१९ योजन प्रमाण है। बीच में सुमेरु पर्वत और उससे संलग्न चार दिग्गज पर्वत हैं। इस कारण यह पूर्व विदेह और अपर विदेहरूप दो भागोंमें विभक्त हो गया है। बीचमें सीता, सीतोदा महानदियोंके प्रवाहित होनेके कारण प्रत्येकाके और दो-दो भाग हो गये हैं । उक्त चार भागों में से प्रत्येक भागके मध्यमें चार वक्षारपर्वत और उनके बीचमें तीन विभंगा नदियाँ हैं। इस कारण उनमेंसे प्रत्येकके भी आठ-आठ भाग हो गये हैं। इस तरह ये बत्तीस भाग ही बत्तीस विदेहके रूपमें स्थित हैं!
बीचोंबीच विजयाधपर्वत स्थित है । यहाँ रक्ता और रक्तोदा नामकी दो नदियाँ नीलपर्वतस्थ कुण्डोसे निकलकर विजयाईकी गुफाओ भीतरसे जाती हुई सीता महानदीमें प्रविष्ट होती हैं। इस कारण उक्त कच्छा विदेह छ: खण्डोंमें विभक्त हो गया है। इनमें सीता नदीकी ओर बीचका आर्यखण्ड तथा शेष पांच म्लेच्छखण्ड है। आर्यखण्डके बीचमें क्षेमा नामकी नगरी स्थित है। इस नगरीका आयाम बारह योजन और विस्तार नौ योजन प्रमाण है। प्राकारवेष्टित उक्त नगरीके एक सहस्र गोपुर द्वार और पंचशतक खिड़की द्वार हैं। रय्याओंकी संख्या बारह हजार निर्दिष्ट की गयी है । यहाँ चक्रवर्तीका निवास है, जो बत्तीस हजार देशोंके अधिपतियोंका स्वामी होता है । इसके अधीन ९९ हजार द्रोणमुख, ४८ हजार पट्टण, २६ हजार नगर, पांच-पांच सौ ग्रामोसे संयुक्त चार हजार मडम्ब, चौतीस हजार करवट, सोलह हजार खेट, चौदह हजार संवाह, ५६ रत्नद्वीप और ९६ करोड़ ग्राम होते हैं । यहां क्षत्रिय, वैश्य
और शूद्र ये तीन ही वर्ण रहते हैं। ६३ शलाकापुरुषोंकी परम्परा यहाँ पायी जाती है । कच्छा विदेहके समान ही महाकच्छा आदि विदेहोंकी भी स्थिति है। कच्छा विदेहके रक्ता-रक्तोदा नदियोंसे अन्तरित मागध, वरतनु और प्रभास नामके तीन द्वीप हैं। दिग्विजयमें प्रवृत्त हुआ चक्रवर्ती प्रथम इन द्वीपोंके अधि पति देवोंको अपने अधीन करता है। इसी प्रकारसे दक्षिणकी ओरसे देव, विद्या धरोंको चशमें करके वह विजयाई पर्वतकी गुफामेंसे जाकर उत्तरके म्लेच्छ खण्डोंको भी अपने अधीन करता है। युद्धके अनन्तर चक्रवर्ती यहाँसे अश्व, गज, रत्न एवं कन्याओं को प्राप्त करता है। इस समय उसे यह अभिमान होता है कि मुझ जैसा प्रतापी चक्रवर्ती इस पृथ्वी पर अन्य कोई नहीं हुआ । अतएव इसी अभिमानसे प्रेरित होकर निज कीर्ति स्तम्भको स्थापित करनेके लिए ऋषभ गिरिके निकट जाता है ! हाँ समस्न पर्वतोंके नाना नजणि वासे व्याप्त देखकर, वह तत्क्षण निर्मद हो जाता है। अन्तमें वह दण्डरलसे एक नामको घिसकर उस स्थान पर अपना नाम लिख देता है और छहों खण्डोको जीतकर क्षेमा नगरीमें वापस लौटता है।
आठवें उद्देशमें १९८ गाथाएं हैं। इसमें पूर्वविदेहका वर्णन आया है और बताया है कि कच्छा देशके पूर्व में क्रमश: चित्रकूटपर्वत, सुकच्छा देश, ग्रहनती नदी, महाकच्छादेश, पधकूटपर्वत, कच्छकावतीदेश, द्रवतीनदी, आवतीदेश, नलिनकूटपर्वत, मंगलावतोदेश, पंकवतीनदी, पुष्कलादेश, शैलपर्वत और महा पुष्कलादेश हैं । इसके आगे देवारण्य नामका वन है । उक्त सुकच्छा आदि देशों की राजधानियोंके, ओमपुरी, अरिष्टनगरी, अरिष्टपुरी, खड्गा, मंजूषा, ओषधि और पुण्डरीकिणी नाम आये हैं । महापुष्कलावती देशके आगे पूर्वमें देवारण्य नामका वन है। इसके आगे दक्षिणमें सीता नदीके तट पर दुसरा देवारण्य वन है। इससे आगे पश्चिम दिशामें वत्सादेश, त्रिकूटपर्वत , सुबत्सा देश, तप्तबला नदी, महावत्सादेश, वेश्रवणकूटपर्वत, वत्सकावतीदेश, मत्तजलानदी, रम्या देश, अंजनगिरि पर्वत, सुरम्यादेश, उन्मत्तजलानदी, रमणीयादेश, आत्माजनपर्वत और मङ्गलावतीदेश आये हैं। इन देशोंकी सुशीमा, कुण्डला, अप राजिता, प्रभंकरा, अंकावती, पद्मावती, शुभा और रत्नसंचया नामकी राजधानियाँ हैं । समस्त देश, नदी और पर्वतोंकी लम्बाई १६५५२, २/११ योजन है।
नवम उद्देशमें १५७ गाथाएँ हैं। यहाँ अपरविदेहका वर्णन करते हुए बतलाया है कि रत्नसंचयपुरके पश्चिममें एक वेदिका और उस वेदिकासे ५०० योजच जाकर सोमनसपर्वत है। यह पर्वत भद्रशालबनके मध्यसे गया है। निषधपर्वतके समीपमें इसकी ऊँचाई ४०० योजन और अवगाह १०० योजन
है । विस्तार इसका ५०० योजन है । वेदिकाके पश्चिममें पद्मा नामका देश है। यह गंगा-सिन्धु नदियों और विजयाचं पर्वतोके कारण छह खण्डोंमें विभक्त हो गया । इसकी राजधानी अश्वपुरी है । पद्मा क्षेत्रके आगे पश्चिममें क्रमश: श्रद्धा बतीपर्वत, सुपादेश, धीरोदानदी, महपद्मादेश, विकटावतीपर्वत, पश्य कावतीदेश, सीतोदानदी, संखादेश, आशीविषपर्वत, नलिनादेश, स्रोतवा हिनीनदी कुमुदानेश, मवावहार्बन और सरिता नामक देा है। इन देशोंकी सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अरजा, विरजा, अशोका और विगतशोका राजधानियाँ है । पश्चिममें देवारण्य नामक वन है । इसके उत्तरमें शीतोदा नदी के उत्तर तटपर भी दुसरा देवारण्य है । इसके पूर्व में वप्रादेश, चन्द्रपर्वत, सुबप्रा देश, गम्भीरमालिनीनदी, महावप्रादेश, सूर्यपर्वत, बाकावतीदेश, फेनमालिनी नदी, बल्गुदेश, महानागपर्वत, सुवलादेश, उमिमालिनीनदी, गन्धिलादेश, देवपर्वत और गन्धमालिनीदेश स्थित हैं। इन देशोंकी विजयपुरी, वैजयन्ती, जयन्ता, अपराजिसा, चकपुरी, खड़गपुरी, अयुध्या और अबध्या राजधानियाँ हैं। इसके पूर्वमें एक बेदी और उसके आगे ५०० योजन जाकर गन्धमादन पर्वत है। इसके पूर्व में ५३००० हजार योजन जाकर माल्यवान पर्वत है । इसके आगे पूर्व मे ५०० योजन जाकर नीलपर्वतके पासमें एक और बेदिका है। नदियों के किनारे पर स्थित २० वक्षार पर्वत हैं, जिनके उपर जिनभवन बने है।
दशम उद्देशमें १०२ गाथाएँ हैं और लवण समुद्रका वर्णन आया है। यह समुद्र जम्बू द्वीपको सब ओरसे घेरकर वलयाकार स्थित है। इसका विस्तार पृथ्वीतलपर दो लाख योजन और मध्यमें दश सहस्र योजन है। गहराई एक हजार योजन है । इसके भीतर तटसे १५ हजार योजन जाकर पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरमें क्रमशः पाताल, वलयमुख, कदम्बक और यूपकेशरी महा पाताल स्थित हैं। इनका विस्तार मूलमें और ऊपर दश सहस्र योजन है । इनके मध्य विस्तार और ऊँचाई एक लाख प्रमाण योजन है। शुक्लपक्ष और कृष्ण पक्षमें समुद्रकी जलवद्धि और हासका भी वर्णन आया है। दिशा और विदिशा गत समस्त पातालोंको संख्या १००८ है। लवणसमुद्र में वेदिकासे बयालीस हजार योजन जाकर बेलन्धर देवोंके कौस्तुभ, कौस्तुभभास, उदक, उदकभास, शंख, महास्त्र, उदक और उदवास आठ पर्वत है। समुद्रकी बेलाको धारण करनेवाले नागकुमार देवोंको संख्या एक लाख बयालीस हजार है। इनमें बहत्तर हजार देव बाहा बेलाको, बयालीस हजार देव आभ्यन्तर बेलाको बोर २८ हजार देव जलशिखाको धारण करते हैं। इन देवोंके नगरोंकी संख्या भी एक लाख बबालीस हजार है । यहाँ अन्तरद्वीप २४ हैं। इन द्वीपोंमें एक जंघावाले ,
पूछवालं, सींगवाले एवं गूंगे इत्यादि विकृत आकृतिके धारक कुमानुष रहते हैं। इनमें एक जंघावाले कुमानुष गुफाओं में रहकर मिट्टीका भोजन करते हैं तथा शेष कुमानु पुष्प फल भोगी होते है .। इनके ..यह उत्त्पन होनेके कारणोंको बतलाते हुए कहा गया है कि जो प्राणी मन्दकषायी होते हैं, काय-क्लेष से धर्म फलको चाहने वाले हैं, अज्ञानवश पञ्चाग्नितप करते हैं, सम्यग्दर्शनसे रहित होकर तपश्चरण करते हैं, अभिमानमें चूर होकर साधुओंका अपमान करते हैं, आलोचना नहीं करते, मुनिसंघको छोड़कर एकाकी विहार करते हैं, कलह करते हैं, वे मरकर कुमानुषोंमें उत्पन्न होते हैं।
एकादश उद्देशमें ३६५ गाथाएँ हैं। इस उद्देशमें द्वीपसागर, अधोलोक तथा उध्वंलोकका वर्णन आया है। द्वीपसागरोंमें धातकीखण्डद्वीपका वर्णन करते हुए उसका चार लाख योजन प्रमाण विस्तार बतलाया है। इसके दक्षिण और उत्तर भागोंमें दो इष्वाकार पर्वत है, जो लवणसे कालोद समुद्र तक आयत हैं। धातकोखण्डद्वीपके दो विभाग हैं। प्रत्येक विभागमें जम्बूदीपके समान, भरतादि सात क्षेत्र और हिमवान् आदि छह कुलपर्वत स्थित हैं। मध्यमें एक एक मेरुपर्वत है। इनमें हिमवनपर्वतका विस्तार २१०५,५/१९ योजन है, महा हिमवनका ८४२१,११/१९ योजन और निषषपर्वतका ३३६८४,४/१९ योजन है। आगे नील, रुक्मि और शिखरी पर्वतोंका विस्तार क्रमशः निषध, महाहिमवानके और हिमवानके समान है। घातकीखण्डद्वीपको चारों ओरसे वेष्टित कर कालोदधि स्थित है । इसका विस्तार आठ लाख योजन है। लवण समुद्र के समान अन्तरद्वीप यहाँ भी हैं, जिनमें कुमानुष रहते हैं। इससे आगे १६ हजार योजन विस्तृत पुष्करवरद्वीप है । इसके मध्यमें वलयाकारसे मानुषोत्तरपर्वत स्थित है, जिससे कि इस द्वीप के दो भाग हो गये हैं। मानुषोत्तर पर्वतके इस ओर पुष्करार्वद्वीपमें स्थित भरतादि क्षेत्रों और हिमवान् आदि पर्वतोंकी रचना घातकीखण्डद्वीपके समान है। यह पर्वतरुद्ध क्षेत्रका प्रमाण ३५५६८४,४/१९ योजन है । पुष्करार्धकी आदिम परिधि ५१७०६०५ योजन, मध्य परिधि ११७००४२७ योजन और बाह्य परिधि १४२३०२४९ योजन है।
जम्बूद्वीपसे लेकर पुष्करापर्यन्त क्षेत्र ढाईद्वीप या मनुष्यक्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध है । मानुषोत्तरपर्वतसे आगे मनुष्य नहीं पाये जाते । पुष्कबरद्वीपसे आगे पुष्करवरसमुद्र, वारुणिवरद्वीप, वारुणिवरसमुद्र, क्षी क्षीरवरीप, क्षीरवरसमुद्र, धृतवरद्वीप और घृतवरसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप और समुद्र स्थित हैं । अन्तिम द्वीप और समुद्रका नाम स्वम्रभूमण है । पुष्करवर और स्वम्भूबर द्वीपोंके मध्य में
जो असंख्यात द्वीप, समुद्र स्थित हैं, उनमें केवल संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त तियंञ्च जीव ही उत्पन्न होते हैं । इनकी आयु एक पल्य और शरीरकी ऊंचाई दो हजार धनुषप्रमाण होती है। युगलस्वरूपसे उत्पन्न होनेवाले ये सब मन्दकषायी और फलभोजी होते हैं तथा मरकर नियमत: देवलोक जाते हैं । लवणोद, कालोद और स्वम्भरमण इन तीन समुद्रों में ही मगर, मत्स्यादि जलचर जीव पाये जाते हैं । शेष समुद्रों में जलचर जीव नहीं होते । आगे सात नरकों और उनके निवासियोंकी आयु शरीरोत्षेध, अवधिज्ञानका विषय आदि बातोंका वर्णन आया है। समस्त नारकियोंके बिलोंकी संख्या एवं ४२. प्रस्तारोंका उल्लेख पाया जाता है। उर्ध्वलोकका वर्णन करते हुए बतलाया है कि पृथ्वीतलसे १९ हजार योजन ऊपर जाकर मेरुपर्वतकी चूलिकाके ऊपर बालाग्रमात्रके अन्तरसे ऋजु विमान स्थित है। इसका विस्तार मनुष्यलोकने समान ४५ लाख योजनमात्र है। स्वर्गों में इन्द्रक, प्रकीर्णक और श्रेणीबद्ध विमान स्थित हैं, जिनका विस्तारादि भी निकाला गया है । इस प्रकार सौधर्म इन्द्रकी विभूति एवं सौधर्मस्वर्गके आकार-प्रकारादिका विवेचना किया है। इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमाने की ..संख्या का अध्यन भी किया गया है।
द्वादश उद्देशमें ११३ गाथाएं हैं। यहाँ ज्योतिषपटलका वर्णन किया गया है। भूमिसे आठसौ अस्सी योजनकी ऊंचाईपर चन्द्रमाका विमान है। चन्द्र विमानका विस्तार और आयाम तीन गच्युति और तेरहसौ धनुषसे कुछ अधिक है। इन बिमानोंको प्रतिदिन सोलह हजार आभियोग्य जातिके देव खीचते हैं। उक्त देव पूर्वादिक दिशाओं में क्रमशः सिंह, गज, वृषभ और अश्चके आकारमें चार-चार हजार रहते हैं। इसी प्रकार सोलह हजार आभियोग्यदेव सूर्यविमानके, आठ हजार ग्रहगणोंके, चार हजार नक्षत्रोंके और दो हजार ताराओंके वाहक हैं। जम्बूद्वीपमें २, लवणसमुद्र में ४, घातकी खण्डमें १२, कालोदधिमें ४२, और पुष्करापद्वीपमें ७२ चन्द्र हैं। मानुषोत्तरपर्वतके आगे पुष्करद्वीपमें १२६४ चन्द्र हैं। इतने ही सूर्य हैं। शेष द्वीपों और समुद्रोंमें चन्द्रबिम्ब और सूर्यबिम्बों की संख्या निकालनेके लिए कर्णसूत्र दिये गये हैं। इस प्रकार ज्योतिषपटल अधिकारमें सूर्य, चन्द्र और ग्रह नक्षत्रोंकी संख्याका आनयन किया है।
त्रयोदश उद्देशमें १७६ गाथाएँ हैं। सर्वप्रथम यहाँ कालके व्यवहार और परमार्थ रूपसे उल्लेख करते समय, आवलि आदिके प्रमाणका आनयन किया है। आगे चलकर परमाणुका स्वरूप बतलाते हुए उत्तरोत्तर अष्टगुणित अवसन्ना सन्नादिके क्रमसे उत्पन्न होनेवाले अंगुलके उत्सेघांगुल, प्रमाणाङ्गल और आत्मा अल ये तीन भेद बतलाये हैं। इनमेंसे प्रत्येक सूच्यङ्गल, प्रतराङ्गल और घनाङ्गल के भेद से तीन-तीन प्रकारका है । ५०० उत्सेधाङ्गलोंका एक प्रमाणाङ्गुल होता
है। परमाणु और अवसनासन्नादिके क्रमसे जो अङ्गुल निष्पन्न होता है, वह सूच्यङ्गल कहलाता है। इसके प्रतरको प्रतराजल और धनको धनाङ्गल कहते है। भरत और ऐरावत क्षेत्रोंमें जिस-जिस कालमें जो मनुष्य होते हैं, उनके अङ्गुलको आस्माङ्गल कहा जाता है। उत्सेधाङ्गलसे नर-नारकादि जीवोंक शरीर को ऊँचाईका प्रमाण बतलाया जाता है । प्रमाणाङ्गलसे द्वीप, समुद्र, नदी, कुण्ड, क्षेत्र, पर्वत, जिनभवनानि विस्तार का प्रमाण सप्त किया जारहा है आत्माङ्गुलसे कलश, झारी, दण्ड, धनुष, बाण, हल, मूसल, रथ, सिंहासन, छत्र, चमर और गृह आदिका प्रमाण ज्ञात किया जाता है।
इसके पश्चात व्यवहरपल्य ,उदारपल्य ,अदापल्य,कोड़ा-कोड़ी उत्सपिणी अवसपिणी आदिका मान बतलाया गया है। अनन्तर सर्वज्ञसिद्धिके लिए प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और अविरुद्ध आगम प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। प्रमाणके दो भेद हैं. प्रत्यक्ष और परोक्ष । इनमें प्रत्यक्ष भी संकरल और चिकलके भेदसे दो प्रकारका है। सकलप्रत्यक्ष केवलज्ञान और विकलप्रत्यक्ष अवधि और मन: पर्ययज्ञान हैं। देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद अवधिज्ञानके, तथा ऋजुमतिमनःपर्यय और विपुलमतिमनःपर्यय ये दो भेद मनःपर्ययज्ञानक हैं। परोक्ष-भेदोंके अन्तर्गत आभिनिबोधिक ज्ञानके ३३६ भेदोंका निर्देश करते हा अवग्रह, ईहा, अवाय और घारणाका स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । पश्चात् क्षुधा, तुषादिसे रहित देवका वर्णन करते हुए अरहन्त परमेष्ठीके ३४ अतिशयों, देवरिगृहीत आठ मङ्गलद्रव्यों, आठ प्रातिहार्यों और नव केबल लब्धियोंका नामोल्लेख करके १८ हजार शीलों और ८४ हजार गुणोंका भी निर्देश किया है । इस प्रकार इस ग्रन्थमें मनुष्यक्षेत्र, मध्यलोक, पाताललोक और उध्वंलोकका विस्तारसे वर्णन आया है। जैन भूगोलकी दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
इस ग्रन्थमें १९३ गाथाएं हैं। धर्मरसायननामके मुक्तक-काव्य प्राकृत-भाषा के कवियोंने एकाध और भी लिखे हैं। इस नामका आशय यही रहा है कि जिन मुक्तकोंमें संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होनेके आचार और नैतिक नियमोंको चर्चित किया जाता है, इस प्रकारकी रचनाएं धर्मरसायनके अन्तर्गत आती हैं। प्रस्तुत ग्रन्थका भी मूल वय-विषय यही है। यद्यपि इस ग्रन्थमें काव्यतत्वको अपेक्षा धर्मतत्व ही मुखरित हो रहा है, तो भी जीवनके शाश्वतिक नियमोंकी दृष्टिसे इसका पर्याप्त मूल्य है। नैतिक और धार्मिक जीवन के सभी
१. सिद्धान्तसारादिके अन्तर्गत, ..मा ० दि ० जैन ग्रन्थमालासे १९०९ ई० में प्रकाशित ।
मूल्य इस लघुकाय ग्रन्थमें प्रतिपादित हैं। आचार्य धर्मको त्रिलोकका बन्धु बतलाते हुए कहते हैं कि इसकी सत्तासे ही व्यक्ति पूजनीय, त्रिभुवनप्रसिद्ध एवं मान्य होता है ___
आरम्भमें ही आचार्य ने जन्म-मरण और दुःखको नाश करनेवाले इह लोक, परलोकके हितार्थ धर्मरसायनके कहनेकी प्रतिज्ञा की है। धर्म त्रिलोकबन्धु है, धर्म शरण है। धमसे ही मनुष्य त्रिलोकमें पूज्य होता है । धर्मसे कुलकी वृद्धि होती है, धर्मसे दिव्यरूप और आरोग्यता प्राप्त होती है। धर्मसे सुख होता है
और धर्मसे ही संसारमें कीर्ति प्राप्त होती है। आचार्यने बताया है
धम्मो तिलोयबंधु धम्मो सरण हवे तिहुयणस्स ।
धम्मेण पुषणोओ होइ गरी सञ्चलोयस्स ॥
धम्मेण कुलं विउलं धम्मेण य दिब्बरूवमारोग्गं |
धम्मेण जए कित्ती धम्मेण होइ सोहगां ।।
वरभवणजाणवाहणसयणासणयांणभोयणाणं च ।
बरजुबइवत्थुभूसण संपती होइ धम्मेण ।'
अर्थात् धर्मके प्रभावसे धन-वैभव, भवन-बाहन, शय्या, आसन, भोजन, सुन्दर पत्नी, वस्त्राभूषण आदि समस्त लौकिक सुख-साधनोंकी प्राप्ति होती है। इस धर्मरसायनको सामान्यतया उपादेय बणित करनेपर भी रस-भेदसे उसकी भिन्नता उपमाद्वारा सिद्ध होती है। यथा ----
खीराई जहा लोए सरिसाई हति वण्णणामेण ।
रसभेएण य ताई चि गाणागुणदोसजुत्ताइ ।।
काई वि खीराइं जए हवति दुक्खाबहाणि जीवाणं ।
काई वि तुट्ठि पुट्ठि करति वरखण्णमारोग्ग' ।।
जिस प्रकार वर्णमात्रसे सभी दूध समान होते हैं, पर स्वाद और गुणको दुष्टिसे भिन्नता होती है, उसी प्रकार सभी धर्म समान होते हैं, पर उनके फल भिन्न-भिन्न होते हैं। आक–मदार या अन्य प्रकारके दूधके सेवनसे न्याधि उत्पन्न हो जाती है, पर गोदुग्धके सेवनसे आरोग्य और पुष्टि-लाभ होता है। इसी प्रकार अहिंसाधर्मके आचरणसे शांतिलाभ होता है, पर हिंसाके व्यवहारसे अशान्ति और कष्ट प्राप्त होता है। आचार्यने चारों गतियोंके प्राणियोंको प्राप्त होनेवाले दुःखोंका मार्मिक विवेचन किया है। मनुष्य, तिर्यन्च, नारकी और देव इनको अपनी-अपनी
१. धम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पञ्च ३,४,५
२. वही , पद्य-१,१०
योनियों में पर्याप्त कष्ट होता है । जो इन कष्टोंसे मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, वह धर्मरसायनका सेवन करे । आचार्यने इसमें बीतराग और सरागी देवोंकी भी परीक्षा की है, तथा बतलाया है कि जिसे अपने हृदयको राग-द्वेष से मुक्त करना है, उसे चीत रागताका आचरण करना चाहिए । विषय-वासना ग्रस्त सांसारिक प्रपञ्चोंसे युक्त, स्त्रीके अधीन, रागी, द्वेषी परमात्मा नहीं हो सकता है | आचार्यने इस परमात्म-सत्वका विवेचन करते हुए लिखा है
कामग्गिततचित्तो इच्छ्यभाणो तिलोषणाय ।
जो रिच्छी भत्तारो जादो सा कि होइ परमप्पो ।
जइ रिसो वि मुढो परमप्पा वच्चर एवं ।
तो खरघोड़ाईया सच्चे वि य होति परमप्पा' ।।
सच्चा देव क्षुधा, तृषा, तृष्णा, व्याधि, वेदना, चिन्ता, भय, शोक, पीड़ा , राग, मोह, जन्म-जरा-मरण, निद्रा, स्वेद आदि दोषोंसे रहित होता है । सिंहा सन, छत्र, दिव्यध्वनी , पुष्पवृष्टि , चमर, भामण्डल, दुन्दुभि आदि बाह्य चिह्नोंसे युक्त, सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी देव होता है । ९४बी गाथासे १३८वीं गाथा तक सर्वज्ञदेव परीक्षा की गयी है और विभिन्न तर्को से अर्हन्तको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है। धर्मके दो भेद हैं---सागार और अनगार । इन दोनों धर्मोका मूल सम्यक्त्व है। इस सम्यक्त्वकी प्राप्ति जिसे हो जाती है, उसके कर्म-कलङ्क नष्ट होने लगते हैं। सम्यक्त्वरूपी रत्नके लाभसे नरक और तिर्यञ्च गति मे जन्म नहीं होता। श्रावकाचारके १२ भेद बतलाए हैं-पाँच अणुव्रत, तीन गुणत्रत और चार शिक्षावत । इस प्रकार १२ व्रतोंका कथन आया है। देवता, पित, मन्त्र, औषधि, यन्त्र आदिकः निमित्तसे जीवोंकी हिंसा न करना अहिसाणुवत है। असत्य वचनोंके साथ दूसरेवो कष्ट देनेवाले बचन भी असत्यको ही अन्तर्गत है, अत: ऐसे बचनोंके व्यवहारका त्याम करना सत्याणुव्रत है। संसारको समस्त स्त्रियोंकी माता, बहिन और पुत्रियोंके समान समझकर स्चदार-सेवनमें सन्तोष करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। धन-धान्य, द्विपद, चतुष्पद, खेत आदि वस्तुओंका नियत परिमाण कर शेषका परित्याग करना परिग्रहपरिमाणवत है। इस प्रकार गुणग्रत और शिक्षाव्रतोंका भी वर्णन किया है। आचार्यने दान देनेपर विशेष जोर दिया है। दानके प्रभावसे सभी प्रकारके दुःख दारिद्रय नष्ट हो जाते हैं और अणिमा, महिमा आदि अष्ट्र ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
१. धम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पद्य-१०४, १०५ ।
देवतिमें जन्म लेनेवाला व्यक्ति यथेष्ट भोगोंको भोगनेके अनन्तर मनुष्यगतिमें जन्म लेता है और वहाँ दिगम्बर दीक्षा धारणकर तपश्चर्या द्वारा कर्मोको नष्ट करता है। मुनिको ग्रीष्म और शीत ऋतुमें किस प्रकार विचरण करना चाहिए, इसका भी वर्णन आया है । आचार्य ने लिखा है
डहिऊग य कम्मवणं उमोण तवाणलंण णिस्सेसं ।
आपुण्णभवं अणंत सिद्धिसुहं पावए जीओ' ||
इस ग्रन्थकी १९१वी गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डकी ६८वी गाथा है। बहुत सम्भव है कि यह गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डसे अथवा ऐसे किसो अन्य स्रोतसे ली गयी है, जो दो दोनोंका एक ही आधार रहा हो ।
प्राकृतवृत्ति सहित पञ्चसंग्रहमें १. जीवसमास २. प्रकृतिसमुत्कीर्तन ३. बन्धस्तव, ४, शतक और ५ सप्ततिका ये पाँच प्रकरण संग्रहीत हैं। प्रकरणोंके क्रममें अन्तर है। पहला प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन, द्वितीय कर्मस्तवन, तृतीय जीवसमास, चतुर्थ शतक और पंचम सप्ततिका है। बंध्य, बन्धेश, बन्धक, बन्धकारण और बन्धभेद इन पांचोंके अनुसार संकलन कर व्याख्या की गयी है। व्याख्याकी शैली चुणियोंकी शैली है। वृतित्तिकारने अपनी रचनामें कसायपाहुइ'की चूणि और धवलाटीकाको शैलीका पूरा अनुकरण किया है। इनकी वृत्तिको देखनेसे स्पष्ट मात होता है कि बृत्तिकार सिद्धान्तशास्त्रके अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने अनेक नयी परिभाषाएँ अंकित की है। यद्यपि सभी गाथाओंपर वृत्ति नहीं लिखी है, पर जिन गाथाओं पर वृत्ति लिखी गयी है, उन गाथाओंमें अनेक नयी बातें बतलायी गयी हैं। इसका पहला प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन है। इसमें प्रकृतियोंके नामोंका सम कीर्तन करनेके अनन्तर चौदह मार्गणाओंमें कर्मप्रकृतियोंके बंधका कथन आया है। आचार्य ने सभी विषयमें प्रमाण, नय और निक्षेपद्वारा वस्तुके परीक्षणकी चर्चा की है। प्रथम प्रकरण श्रुतवृक्ष नामका है, जिसमें श्रुतज्ञान के समस्त भेद-प्रभेदोंका वर्णन आया है। लिखा है----
प्रमाण-नयनिक्षेपर्योऽयों नाभिसमीक्ष्यते ।
युक्तञ्चायुक्तपद् भाति तस्यायुक्तं सयुक्तिवत् ॥
१. धम्मरसायणं, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, गाथा १८१ ।
२. प्राकृतवृत्ति सहित पञ्चसंग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ काशी के पंचसंग्रहमें प्रकाशित, पच ५,
पृ ५४१ ।
ज्ञानको प्रमाण माना है और नयको बस्तुके एक अंशका बोधक बनाया है
ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते ।
नयों ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥
ग्यारह अंग और चौदह पूर्वको विषयवस्तुका विस्तारसे वर्णन आया है। प्रथम प्रकृतिरामुलीर्तनमें १६ गाथाएँ हैं और प्राकृत में वृति लिखी गयी है।
कर्मस्तवसंग्रहमें ८८ + १ गाथाएँ हैं। इस प्रकरणमें गुणस्थानक्रमानुसार व्युच्छितिका कयन आया है। सान्तर-निरन्तर, सादि-अनादि आदि प्रकृतियोंक कथनके पश्चात् बन्धब्युन्छति सम्बन्धी १ गाथाओंकी वृति भी लिखी है। प्रारम्भकी ८८ गाथाओंपर कोई वृत्ति नहीं है ।
तृतीय प्रकरण जीवसमास नामका है। इसमें १७६ गाथाएँ हैं । आरम्भ की ५ गाथाओंपर वृत्ति है और शेष गाथाओंपर वृत्ति नहीं लिखी गयी है । पुद्गल द्रब्यके छ; भेद-काल-द्रव्य, बीस प्ररूपणा, गुणस्थानका लक्षण, १४ गुण स्थानोंके नाम, गुणस्थानोंके स्वरूप, जीवोंकी गतियाँ, काय, जान, प्राण, वेद आदि सभी जीवसमासोंके लक्षण भी बतलाये गये हैं। लेश्याका स्वरूप, भेद एवं प्रत्येक लेश्यावालेकी प्रवृत्ति और परिणतिका भी वर्णन आया है । ज्ञान मार्गणामें ज्ञान के भेदोंका विवेचन किया है ।
शतकसंग्रह नामक चतुर्थ प्रकरण है । इस प्रकरणमें १३९.+ १९ गाथाएँ हैं और सभी गाथाओंपर वृत्ति भी लिखी गयी है। इसमें एकेन्द्रिय आदि जीवो के भेद या जीवसमास वर्णित हैं। गुणस्थानों में जीवोंकी संख्याका प्रति पादन करनेके अनन्तर प्रत्येक गतिमें बन्ध होनेवाली प्रकृतियोंका विवेचन किया गया है।
पञ्चम सप्ततिका नामक प्रकरण है। इसमें ९९, गाथाएं हैं 1 इस प्रकरण में विभिन्न बन्धभेदोंका वर्णन किया है। योग, उपयोग, लश्या आदिको अपेक्षा कर्मबन्धके भेदों या भंगोंका वर्णन किया है। इस प्रकार यह 'पंचसंग्रह अन्य कर्मशास्त्रको दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
गुरु | आचार्य श्री बालनंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री पद्मनंदी जी प्रथम |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Padmanandiji 1 st ( Prachin )
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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