हैशटैग
#Shribhushan17ThCentury
श्रीभूषण नामके दो भट्टारकोंका परिचय प्राप्त होता है। एक श्रीभूषण भानुकीतिके शिष्य हैं । पट्टावलीमें इनका परिचय देते हुए लिखा है
"संवत् १७०५ आश्विन सुदी ३ श्रीभूषणजी गृहस्थ वर्ष १३ दीक्षा वर्ष १५ पट्ट वर्ष ७ पाछै धर्मचन्द्रजी नै पट्ट दियो पाछ १२ वर्ष जीया संवत् १७२४ ताई जाति पाटणी पट्ट नागौर"। ___ अर्थात् वि०सं० १६९० में भानुकोति पट्टारूक हुए और १४ वर्ष तक पट्ट पर आसीन रहे। इनके शिष्य भट्टारक श्रीभूषण वि०सं० १७०५ आश्विन शुक्ला तृतीयाको पट्टाधीश हुए और १९ वर्ष तक पट्ट पर प्रतिष्ठित रहे । इनका गोत्र पाटणी था। पद प्राप्तिके ७ वर्षके पश्चात् वि०सं० १७१२ चैत्र शुक्ला एकादशीको अपने शिष्य धर्मचन्द्रको भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित किया था।
दूसरे थीभूषण विद्याभूषणके शिष्य हैं। ये काष्ठासंघी नन्दीतटगच्छके आचार्य थे। संवत् १६३४ में श्वेताम्बरोंके साथ इनका विवाद हुआ था, जिसके परिणाम स्वरूप श्वेताम्ब को देश त्याग करना पड़ा था । इनके पिताका नाम कृष्णशाह और माताका नाम माकुही था।
_ "माकुही मास कृष्णासाह तात श्रीभूषण विख्यात दिन दिनह दिवाजा बादीगजघट्ट दीयत सुघट्ट न्यायकुहट्ट दीवादीव दीपाया ।"
इन्होंने वादीचन्द्रको बादमें पराजित किया था।
श्रीभूषणको उपाधि षट्भाषाविचक्रवर्ती थी। ये सोजिना ( भंडौंच । को काष्ठासंघकी गद्दीके पट्टधर थे। श्रीभूषणके शिष्य भट्टारक चन्द्रकीति द्वारा विरचित पाश्चपुराण ग्रन्थ उपलब्ध है। इस गन्यमें चन्द्रकीतिने अपने १. भद्रबाहुचरितम्, श्लोक ६ ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २९१ ।
३. वही, लेखांक १८१ ।
४. वहीं, लेखांक ६८८ ।
गुरु विश्वभूषणको सच्चारित्र, तपोनिधि, विद्वानोंके अभिमानशिखरक तोड़ने वाला वन, स्याद्वादविद्याप्रवीण बतलाया है और लिखा है कि उनके आगे गुरु ( बृहस्पति का गुरुत्व नहीं रहा, उष्णा ( शुक्राचार्य )की बुद्धिकी भी कोई प्रशंसा नहीं।
श्रीभूषणने संवत् १६३६में पाश्वनाथकी एक मूर्ति स्थापित की। विसं १६६०में पद्मावतीकी मूर्ति, वि०सं० १६६५में रत्नत्रययन्त्र एवं वि०सं० १६७६में चन्द्रप्रभु मूर्तिको स्थापना की है। अतएव भट्टारक श्रीभूषणका समय विक्रम की १७वीं शताब्दी है। इन्होंने शान्तिनाथपुराणको रचना भी विसं १६६९ में की है।
श्रीभूषण की कई रचनाएं होनी चाहिये। क्योंकि ये अपने युगके बहुत बड़े विद्वान् थे | अभी तक इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध है--
१. शान्तिनाथ पुराण,
२. द्वादशांगपूजा,
३. प्रतिबोधचिन्तामणि ।
शान्तिनाथपुराणमें १६वें तीर्थंकर शान्तिनाथका जीवनचरित्र वर्णित है। कथावस्तु १६ सोंमें विभक्त है । शान्तिनाथपुराणमें जो प्रशस्ति दी गयी है उसमें काष्ठासंघके नन्दीतटगच्छके आचार्योंकी गुरु-परम्परा समाविष्ट है। इस परम्परामें रामसेमके अन्बयने क्रमसे नेमिसेन, धर्मसेन, विमलसेन, विशाल कीर्ति, विश्वसेन, विद्याभूषण और श्रीभूषणके नाम दिये गये हैं। प्रशस्तिका कुछ भाग निम्न प्रकार है
काष्ठासंघावगच्छे विमलतरंगुणे सारनंदीतटाके
ख्याते विद्यागणे बै सकलबुधजन: सेवनीये वरेण्ये ।
श्रीमच्छीरामसेनान्चतिलकसमा नेममि) सेना सुरेन्द्राः
भूयासुस्ते मुनीन्द्रा ब्रतनिकरयुता भूमिपैः पूज्यपादाः ।।४५६।।
विद्याभूषणपट्टकंजतरणिः श्रीभूषणो भूषणो
जीयाज्जीवदयापरो गुणनिधिः संसेवितो सज्जनः ॥
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६८२ 1
काष्ठासंघसरित्पत्तिः शशधरो बादी विशालोपमः
सदद्वतोऽधरातिसुंदरतरो श्रीजेनमार्गानुगः ॥४६१॥
संवत्सरे घोडशनामधेये एकोनशतषष्टियुते वरेण्ये ।
श्रीमार्गशीर्षे रचितं मया हि शास्त्रं च वर्षे बिमलं विशुद्ध ।। ४६२।।
त्रयोदगीसहिवसे विशुद्ध वारे गुरौ शान्तिजिनस्य रम्यं ।
पुराणमेतद्विमलं विशालं जीयाच्चिर पुण्यकर नराणाम् ।।४६३॥
द्वादशांगपूजा में श्रुतजन की पूजा वर्णित है। प्रशस्तीमे बताया है:---
अर्चे आगमदेवतां सुखकरां लोकत्रये दीपिका ।
नीराज्यप्रतिकारकै: क्रमयुगं संपूज्य बोधप्रदां ।।
विद्याभूषणसद्गुरो पदयुमं नत्वा कृतं निर्मलं ।
सच्छीभूषणसंज्ञकेन कथितं ज्ञानप्रदं बुद्धिद ।।
इस ग्रन्थमें मूलसंघकी उत्पत्तिको कथा दी गयी है, जो साम्प्रदायिक विद्वेष पूर्ण है । इस प्रकार श्रीभूषण भट्टारकने साहित्य और संस्कृति के प्रचारमें अपूर्व योगदान किया है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक विद्याभूषण |
शिष्य | आचार्य श्री श्रीभूषण |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Shribhushan17ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री श्रीभूषण 17वीं शताब्दी
आचार्य श्री भट्टारक विद्याभूषण Aacharya Shri Bhattarak Vidhyabhushan
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 11-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 11-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
श्रीभूषण नामके दो भट्टारकोंका परिचय प्राप्त होता है। एक श्रीभूषण भानुकीतिके शिष्य हैं । पट्टावलीमें इनका परिचय देते हुए लिखा है
"संवत् १७०५ आश्विन सुदी ३ श्रीभूषणजी गृहस्थ वर्ष १३ दीक्षा वर्ष १५ पट्ट वर्ष ७ पाछै धर्मचन्द्रजी नै पट्ट दियो पाछ १२ वर्ष जीया संवत् १७२४ ताई जाति पाटणी पट्ट नागौर"। ___ अर्थात् वि०सं० १६९० में भानुकोति पट्टारूक हुए और १४ वर्ष तक पट्ट पर आसीन रहे। इनके शिष्य भट्टारक श्रीभूषण वि०सं० १७०५ आश्विन शुक्ला तृतीयाको पट्टाधीश हुए और १९ वर्ष तक पट्ट पर प्रतिष्ठित रहे । इनका गोत्र पाटणी था। पद प्राप्तिके ७ वर्षके पश्चात् वि०सं० १७१२ चैत्र शुक्ला एकादशीको अपने शिष्य धर्मचन्द्रको भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित किया था।
दूसरे थीभूषण विद्याभूषणके शिष्य हैं। ये काष्ठासंघी नन्दीतटगच्छके आचार्य थे। संवत् १६३४ में श्वेताम्बरोंके साथ इनका विवाद हुआ था, जिसके परिणाम स्वरूप श्वेताम्ब को देश त्याग करना पड़ा था । इनके पिताका नाम कृष्णशाह और माताका नाम माकुही था।
_ "माकुही मास कृष्णासाह तात श्रीभूषण विख्यात दिन दिनह दिवाजा बादीगजघट्ट दीयत सुघट्ट न्यायकुहट्ट दीवादीव दीपाया ।"
इन्होंने वादीचन्द्रको बादमें पराजित किया था।
श्रीभूषणको उपाधि षट्भाषाविचक्रवर्ती थी। ये सोजिना ( भंडौंच । को काष्ठासंघकी गद्दीके पट्टधर थे। श्रीभूषणके शिष्य भट्टारक चन्द्रकीति द्वारा विरचित पाश्चपुराण ग्रन्थ उपलब्ध है। इस गन्यमें चन्द्रकीतिने अपने १. भद्रबाहुचरितम्, श्लोक ६ ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २९१ ।
३. वही, लेखांक १८१ ।
४. वहीं, लेखांक ६८८ ।
गुरु विश्वभूषणको सच्चारित्र, तपोनिधि, विद्वानोंके अभिमानशिखरक तोड़ने वाला वन, स्याद्वादविद्याप्रवीण बतलाया है और लिखा है कि उनके आगे गुरु ( बृहस्पति का गुरुत्व नहीं रहा, उष्णा ( शुक्राचार्य )की बुद्धिकी भी कोई प्रशंसा नहीं।
श्रीभूषणने संवत् १६३६में पाश्वनाथकी एक मूर्ति स्थापित की। विसं १६६०में पद्मावतीकी मूर्ति, वि०सं० १६६५में रत्नत्रययन्त्र एवं वि०सं० १६७६में चन्द्रप्रभु मूर्तिको स्थापना की है। अतएव भट्टारक श्रीभूषणका समय विक्रम की १७वीं शताब्दी है। इन्होंने शान्तिनाथपुराणको रचना भी विसं १६६९ में की है।
श्रीभूषण की कई रचनाएं होनी चाहिये। क्योंकि ये अपने युगके बहुत बड़े विद्वान् थे | अभी तक इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध है--
१. शान्तिनाथ पुराण,
२. द्वादशांगपूजा,
३. प्रतिबोधचिन्तामणि ।
शान्तिनाथपुराणमें १६वें तीर्थंकर शान्तिनाथका जीवनचरित्र वर्णित है। कथावस्तु १६ सोंमें विभक्त है । शान्तिनाथपुराणमें जो प्रशस्ति दी गयी है उसमें काष्ठासंघके नन्दीतटगच्छके आचार्योंकी गुरु-परम्परा समाविष्ट है। इस परम्परामें रामसेमके अन्बयने क्रमसे नेमिसेन, धर्मसेन, विमलसेन, विशाल कीर्ति, विश्वसेन, विद्याभूषण और श्रीभूषणके नाम दिये गये हैं। प्रशस्तिका कुछ भाग निम्न प्रकार है
काष्ठासंघावगच्छे विमलतरंगुणे सारनंदीतटाके
ख्याते विद्यागणे बै सकलबुधजन: सेवनीये वरेण्ये ।
श्रीमच्छीरामसेनान्चतिलकसमा नेममि) सेना सुरेन्द्राः
भूयासुस्ते मुनीन्द्रा ब्रतनिकरयुता भूमिपैः पूज्यपादाः ।।४५६।।
विद्याभूषणपट्टकंजतरणिः श्रीभूषणो भूषणो
जीयाज्जीवदयापरो गुणनिधिः संसेवितो सज्जनः ॥
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६८२ 1
काष्ठासंघसरित्पत्तिः शशधरो बादी विशालोपमः
सदद्वतोऽधरातिसुंदरतरो श्रीजेनमार्गानुगः ॥४६१॥
संवत्सरे घोडशनामधेये एकोनशतषष्टियुते वरेण्ये ।
श्रीमार्गशीर्षे रचितं मया हि शास्त्रं च वर्षे बिमलं विशुद्ध ।। ४६२।।
त्रयोदगीसहिवसे विशुद्ध वारे गुरौ शान्तिजिनस्य रम्यं ।
पुराणमेतद्विमलं विशालं जीयाच्चिर पुण्यकर नराणाम् ।।४६३॥
द्वादशांगपूजा में श्रुतजन की पूजा वर्णित है। प्रशस्तीमे बताया है:---
अर्चे आगमदेवतां सुखकरां लोकत्रये दीपिका ।
नीराज्यप्रतिकारकै: क्रमयुगं संपूज्य बोधप्रदां ।।
विद्याभूषणसद्गुरो पदयुमं नत्वा कृतं निर्मलं ।
सच्छीभूषणसंज्ञकेन कथितं ज्ञानप्रदं बुद्धिद ।।
इस ग्रन्थमें मूलसंघकी उत्पत्तिको कथा दी गयी है, जो साम्प्रदायिक विद्वेष पूर्ण है । इस प्रकार श्रीभूषण भट्टारकने साहित्य और संस्कृति के प्रचारमें अपूर्व योगदान किया है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक विद्याभूषण |
शिष्य | आचार्य श्री श्रीभूषण |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Shribhushan 17th Century
आचार्य श्री भट्टारक विद्याभूषण Aacharya Shri Bhattarak Vidhyabhushan
आचार्य श्री भट्टारक विद्याभूषण Aacharya Shri Bhattarak Vidhyabhushan
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 11-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Shribhushan17ThCentury
15000
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Shribhushan17ThCentury
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