हैशटैग
#VeernandijiPrachin
सिद्धान्तवेत्ता होनेके साथ जनसाधारणके मनोभावों, हृदयकी विभिन्न वृत्तियों एवं विभिन्न अवस्थाओंमें उत्पन्न होनेवाले मानसिक विकारोंके सजीव चित्रणकर्ता महाकवि थे। इनके द्वारा रचित चन्द्रप्रभ-महा कान्य इनको काव्य-प्रतिभाका चूडान्त-निदर्शन है। ये नन्दिसंघ देशीयगणके आचार्य हैं । चन्द्रप्रभके अन्तमें इन्होंने जो प्रशस्ति लिखी है, उससे ज्ञात होता
१. प्रमेयरत्नमाला, चौखम्बा विद्याभवन, बारागसी, १।३।।
२. चन्द्रप्रम-चरितम्, निर्माय सागर प्रेस बम्बई, सन् १९२६, प्रशास्ति पद्य १, तथा ४ ।
है कि ये आचार्य अभयनन्दिके शिष्य थे । अभयनन्दिके गुरुका नाम गुणन्दि था । ___ श्रवणवेलगोलके ४७वें अभिलेखमें बताया है कि गुणन्दि आचार्यक ३०० शिष्य थे । उसमें ३२ सिद्धान्त-शास्त्रके मर्मज्ञ थे। इनमें देवेन्द्र सैद्धान्तिक सबसे प्रसिद्ध थे। इन देवेन्द्र सैद्धान्तिकक शिष्य कलधौतनन्दिया कनकनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। कनकनन्दिने इन्दनन्दि गुरुके पास सिद्धान्त-शास्त्रका
मध्ययन किया था ।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें अभय नन्दि, इन्द्रनन्दि और वीरनन्दि इन तीनों आचार्योको नमस्कार किया है।
एक अन्य गाथामें उन्होंने बताया है कि जिनके चरणप्रसादस बीरनन्दि और इन्द्रनन्दि शिष्य अनन्न संगारमे पार हुए हैं, उन अभयनन्दि गुरुको नमस्कार है
अतः प्रतीत होता है कि बौरनन्दिक गुरु अभयन्दि, दादागुरु गणनन्दि और सहाध्यायी इन्द्रनन्दि थे । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती इनके शिष्य अथवा लघु गुरुभाई प्रतीत होते हैं। इन्होंने उन्हें नमस्कार किया है।
पाश्वनाथचरिसमें महाकवि वादिराजने ( ई० सन् १०२५ । चन्दप्रभकाव्य और उसके रचयिता बीरनन्दिकी संस्तुति करते हुए लिखा है कि
चन्द्रप्रभाभिसम्बद्धा रसपुष्टा मनः प्रियं ।
कुमुहतोब नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ।।
जिस प्रकार चन्द्रमाको प्रभा कुमुदवतीको प्रफुल्लित करती है, उसी प्रकार शृङ्गारादि नव रसोंसे पुष्ट चन्द्रप्रभचरितमें अथित वीरनन्दिस्वामीकी वाणी, हमारे मनको प्रफुल्लित करती है ।
१. गमिका अभयदि मुद-सायरपारौंगददिगुरू ।
वरवीरदिणाहं पपडीणं पच्चयं बोच्छ ।।
गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गापा ७८५ ।
२. अस्स पायपसायेगणतसंसारजाहमुत्तियो।
नीरिक्षणदिवच्छो गमामि तं अभयमंदिगुरुं ॥
३. वही, गाषा ४३६ ।
४. मो. गा० ७८५, पार्थनापचरित, माणिकचन्द्र ग्रम्पमाला सीरीज, ३० ।
इससे अवगत होता है कि आचार्य बौरनन्दि वादिराज ( ईस्वी सन् १०२५ । से पूर्ववर्ती हैं और उनका चन्द्रप्रभचरित रचा जा चुका था। __आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीने इन्द्रनन्दिको अपना गुरु लिखा है तथा वीरनन्दि इन्हीं इन्द्रनन्दिके सहाध्यायी हैं। अतः प्रतीत होता है कि इन्द्रनन्दि और वीरनन्दि नेमिचन्द्रक समकालीन हैं। आचार्य नेमिचन्द्रने अपने गोम्मटसार की रचना गङ्गवंशीय राजा राचमलक प्रधानमन्त्री और सेनापत्ति चामुण्डरायकी अंगणासे की है। राचमलके भाई रक्यास गंगराजने शक संवत् १.०६-५२१ ( ई सन् १८४-१९९ ) तक राज्य किया है । कन्नड़के महाकवि रन्नने शक संवत् ११५ ( ई० सन् ९८३ ) में पुराणतिलक नामक ग्रन्थको रचना की है और उसने अपने को रक्कम गंगराजका आश्रित लिखा है | चामुण्डराय द्वारा श्रवणबेलगोलको प्रसिद्ध गोम्मटस्वामीकी मूर्ति १३ मार्च सन् २८१ ई० में प्रतिष्ठित हुई। अतः इन समस्त संदर्भोक प्रकाश में तौरनधिका समय ३० सन् १०२५ से पूर्व और ई० सन् ९०० के बाद अर्थात १५०-२९९. सिद्ध होता है।
आचार्य बोरनन्दिकी एकमात्र रचना चन्द्रप्रभचरित है, जो उपलब्ध तथा प्रकाशित है। इस महाकाव्यमें १८ सर्ग और १६२५७ पद्य हैं। कविने संस्कृतके सभी प्रसिद्ध छन्दोंका इसमें प्रयोग किया है | आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभका इसमें जीवन-चरित वर्णित है। रचना बड़ी मरम और हृदयग्राही है। मभी रस और अलङ्कार इसमें समाहित हैं। प्रसङ्गत: सिद्धान्तका प्रतिपादन भी असाधारण और बहुबोधवर्धक है । थाक्कधर्म और मुनिधर्मका भी विस्तारपूर्वक वर्णन आया है । अतएक वीरनन्दिकी यह महत्वपूर्ण कृति न केवल काव्यत्त्वको दृष्टिसे उल्लेखनीय है, अपितु धर्म, दर्शन, आचार आदिकी दृष्टि से भी समृद्ध है। यतः इसको कथावस्तु तीर्थकरसे सम्बद्ध है, अतः यह और भी अधिक रोचक है ।
गुरु | आचार्य श्री अभयनंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री वीरनंदी जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#VeernandijiPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री वीरनंदीजी (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 21 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 21-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
सिद्धान्तवेत्ता होनेके साथ जनसाधारणके मनोभावों, हृदयकी विभिन्न वृत्तियों एवं विभिन्न अवस्थाओंमें उत्पन्न होनेवाले मानसिक विकारोंके सजीव चित्रणकर्ता महाकवि थे। इनके द्वारा रचित चन्द्रप्रभ-महा कान्य इनको काव्य-प्रतिभाका चूडान्त-निदर्शन है। ये नन्दिसंघ देशीयगणके आचार्य हैं । चन्द्रप्रभके अन्तमें इन्होंने जो प्रशस्ति लिखी है, उससे ज्ञात होता
१. प्रमेयरत्नमाला, चौखम्बा विद्याभवन, बारागसी, १।३।।
२. चन्द्रप्रम-चरितम्, निर्माय सागर प्रेस बम्बई, सन् १९२६, प्रशास्ति पद्य १, तथा ४ ।
है कि ये आचार्य अभयनन्दिके शिष्य थे । अभयनन्दिके गुरुका नाम गुणन्दि था । ___ श्रवणवेलगोलके ४७वें अभिलेखमें बताया है कि गुणन्दि आचार्यक ३०० शिष्य थे । उसमें ३२ सिद्धान्त-शास्त्रके मर्मज्ञ थे। इनमें देवेन्द्र सैद्धान्तिक सबसे प्रसिद्ध थे। इन देवेन्द्र सैद्धान्तिकक शिष्य कलधौतनन्दिया कनकनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। कनकनन्दिने इन्दनन्दि गुरुके पास सिद्धान्त-शास्त्रका
मध्ययन किया था ।
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें अभय नन्दि, इन्द्रनन्दि और वीरनन्दि इन तीनों आचार्योको नमस्कार किया है।
एक अन्य गाथामें उन्होंने बताया है कि जिनके चरणप्रसादस बीरनन्दि और इन्द्रनन्दि शिष्य अनन्न संगारमे पार हुए हैं, उन अभयनन्दि गुरुको नमस्कार है
अतः प्रतीत होता है कि बौरनन्दिक गुरु अभयन्दि, दादागुरु गणनन्दि और सहाध्यायी इन्द्रनन्दि थे । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती इनके शिष्य अथवा लघु गुरुभाई प्रतीत होते हैं। इन्होंने उन्हें नमस्कार किया है।
पाश्वनाथचरिसमें महाकवि वादिराजने ( ई० सन् १०२५ । चन्दप्रभकाव्य और उसके रचयिता बीरनन्दिकी संस्तुति करते हुए लिखा है कि
चन्द्रप्रभाभिसम्बद्धा रसपुष्टा मनः प्रियं ।
कुमुहतोब नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ।।
जिस प्रकार चन्द्रमाको प्रभा कुमुदवतीको प्रफुल्लित करती है, उसी प्रकार शृङ्गारादि नव रसोंसे पुष्ट चन्द्रप्रभचरितमें अथित वीरनन्दिस्वामीकी वाणी, हमारे मनको प्रफुल्लित करती है ।
१. गमिका अभयदि मुद-सायरपारौंगददिगुरू ।
वरवीरदिणाहं पपडीणं पच्चयं बोच्छ ।।
गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गापा ७८५ ।
२. अस्स पायपसायेगणतसंसारजाहमुत्तियो।
नीरिक्षणदिवच्छो गमामि तं अभयमंदिगुरुं ॥
३. वही, गाषा ४३६ ।
४. मो. गा० ७८५, पार्थनापचरित, माणिकचन्द्र ग्रम्पमाला सीरीज, ३० ।
इससे अवगत होता है कि आचार्य बौरनन्दि वादिराज ( ईस्वी सन् १०२५ । से पूर्ववर्ती हैं और उनका चन्द्रप्रभचरित रचा जा चुका था। __आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवतीने इन्द्रनन्दिको अपना गुरु लिखा है तथा वीरनन्दि इन्हीं इन्द्रनन्दिके सहाध्यायी हैं। अतः प्रतीत होता है कि इन्द्रनन्दि और वीरनन्दि नेमिचन्द्रक समकालीन हैं। आचार्य नेमिचन्द्रने अपने गोम्मटसार की रचना गङ्गवंशीय राजा राचमलक प्रधानमन्त्री और सेनापत्ति चामुण्डरायकी अंगणासे की है। राचमलके भाई रक्यास गंगराजने शक संवत् १.०६-५२१ ( ई सन् १८४-१९९ ) तक राज्य किया है । कन्नड़के महाकवि रन्नने शक संवत् ११५ ( ई० सन् ९८३ ) में पुराणतिलक नामक ग्रन्थको रचना की है और उसने अपने को रक्कम गंगराजका आश्रित लिखा है | चामुण्डराय द्वारा श्रवणबेलगोलको प्रसिद्ध गोम्मटस्वामीकी मूर्ति १३ मार्च सन् २८१ ई० में प्रतिष्ठित हुई। अतः इन समस्त संदर्भोक प्रकाश में तौरनधिका समय ३० सन् १०२५ से पूर्व और ई० सन् ९०० के बाद अर्थात १५०-२९९. सिद्ध होता है।
आचार्य बोरनन्दिकी एकमात्र रचना चन्द्रप्रभचरित है, जो उपलब्ध तथा प्रकाशित है। इस महाकाव्यमें १८ सर्ग और १६२५७ पद्य हैं। कविने संस्कृतके सभी प्रसिद्ध छन्दोंका इसमें प्रयोग किया है | आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभका इसमें जीवन-चरित वर्णित है। रचना बड़ी मरम और हृदयग्राही है। मभी रस और अलङ्कार इसमें समाहित हैं। प्रसङ्गत: सिद्धान्तका प्रतिपादन भी असाधारण और बहुबोधवर्धक है । थाक्कधर्म और मुनिधर्मका भी विस्तारपूर्वक वर्णन आया है । अतएक वीरनन्दिकी यह महत्वपूर्ण कृति न केवल काव्यत्त्वको दृष्टिसे उल्लेखनीय है, अपितु धर्म, दर्शन, आचार आदिकी दृष्टि से भी समृद्ध है। यतः इसको कथावस्तु तीर्थकरसे सम्बद्ध है, अतः यह और भी अधिक रोचक है ।
गुरु | आचार्य श्री अभयनंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री वीरनंदी जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Veernandiji ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 21-April- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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