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#Gunadharmaharajji
श्रुतधराचार्यों की परंपरामें सर्वप्रथम आचार्य गुणधरका नाम आता है। गुणधर और धरसेन दोनों ही श्रुत-प्रतिष्ठापकके रूपमें प्रसिद्ध हैं। गुणधर आचार्य धरसेनकी अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे। गणधरको 'पञ्चमपूर्वगत पेज्जदोसपाहुड' का ज्ञान प्राप्त था और धरसेनको 'पूर्वगत कम्मपयडिपाहुड' का। इतना ही नहीं, किन्तु गुणधरको 'पेज्जदोसपाहुड’ के अतिरिक्त 'महाकम्मपयडिपाहुड' का भी ज्ञान प्राप्त था, जिसका समर्थन 'कसायपाहुड’ से होता है । 'कसायपाहुड' में बन्ध, संक्रमण, उदय और उदीरणा से पृथक् अधिकार दिये गये हैं। ये अधिकार 'महाकम्मपयडिपाहुड’ के चौबीस अनुयोगद्वारों में से क्रमशः षष्ठ, द्वादश और दशम अनुयोगद्वारोंसे संबद्ध हैं। 'महाफम्मपयडिपाहुड' का चौबीसवाँ अल्पबहुत्व नामक अनुयोगद्वार भी 'कसायपाहुड' के सभी अधिकारोंमें व्याप्त है । अतः स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर 'महाकम्मपयडिपाहुड’ के ज्ञाता होने के साथ 'पेज्जदोसपाहुड' के ज्ञाता और 'कसायपाहुड' के रूपमें उसके उपसंहारकर्ता भी थे। पर 'छक्खडागम’ की धवला-टोकाके अध्ययनसे ऐसा ज्ञात नहीं होता कि धरसेन 'पेज्ज दोसपाहुड' के ज्ञाता थे। अतएव आचार्य गुणधरको दिगंबर परंपरामें लिखित रूपमें प्राप्त श्रुतका प्रथम श्रुतकार माना जा सकता है। धरसेनने किसी ग्रंथकी रचना नहीं की। जबकि गुणधरने 'पेज्जदोसपाहुड' की रचना की है। जयघवलाके मंगलाचरणके पश्चसे ज्ञात होता है कि आचार्य गुणधरने कसायपाहुडका गाथाओं द्वारा व्याख्यान किया है।
जैणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्जलं अणंतत्थं।
माहाहि विवरियं तं गुणहरभडारयं वंदे ॥ ६ ॥
इसके अनन्तर आचार्य वीरसेनने लिखा है - ज्ञानप्रवादपूर्वके निर्मल दसवें वस्तु अधिकारके तृतीय कसायपाहुडरूपी समुद्रके जलसमूहसे प्रक्षालित मति ज्ञानरूपी नेत्रवारी एवं त्रिभुवन-प्रत्यक्षज्ञानकर्ता गणधर भट्टारक हैं और उनके द्वारा उपदिष्ट गाथाओंमें सम्पूर्ण कसायपाहुडका अर्थ समाविष्ट है। आचार्य वीरसेनने उसी संदर्भ में आगे लिखा है कि तीसरा कषायनाभूत महासमुद्रके तुल्य है और आचार्य गुणधर उसके पारगामी हैं।
वीरसेनाचार्यके उक्त कथनसे यह ध्वनित होता है कि आचार्य गुणधर पूर्व विदोंकी परम्परा में सम्मिलित थे, किन्तु धरसेन पूर्वविद् होते हुए भी पूर्वविदोंकी परम्परामें नहीं थे। एक अन्य प्रमाण यह भी है कि धरसेनकी अपेक्षा गुणधर अपने विषयके पूर्ण ज्ञाता थे। अतः यह माना जा सकता है कि गुणधर ऐसे समय में हुए थे जब पूवों के आंशिक ज्ञानमें उतनी कमी नहीं आयी थो, जितनी कमी धरसेनके समयमें आ गयी थी । अतएव गुणधर धरसेनके पूर्ववर्ती हैं।
आचार्य गुणधरके समयके सम्बन्धमें विचार करनेपर ज्ञात होता है कि इनका समय धरसेनके पूर्व है। इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें लोहार्य तकको गुरु परम्पराके पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हदत्त इन चार आचार्यो का उल्लेख किया गया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वों के एकदेशज्ञाता थे। इनके पश्चात् अर्हद्वीलिका नाम आया है। अर्हद्वीलि बड़े भारी संघनायक थे। इन्हें पूर्वदेशके पुण्ड्वर्धनपूरका निवासी कहा गया है। इन्होंने पञ्चवर्षीय युगप्रतिक्रमणके समय बड़ा भारो एक यति-सम्मेलन किया, जिसमें सौ योजन तकके यति सम्मिलित हुए। इन यत्तियोंको भावनाओंसे अर्हद्वीलिने ज्ञात किया कि अब पक्षपातका समय आ गया है। अतएव इन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पञ्चस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामोंसे भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये, जिससे परस्परमें धर्मवात्सल्यभाव वृद्धिंगत हो सके।
संघके उक्त नामोंसे यह स्पष्ट होता है कि गुणधरसंघ आचार्य गुणधरके नाम पर ही था । अतः गुणधरका समय अर्हद्वीलिके समकालीन या उनसे भी पूर्व होना चाहिए। इन्द्रनन्दिको गुणधर और धरसेनका पूर्व या उत्तरवर्तीय ज्ञात नहीं है। अतएव उन्होंने स्वयं अपनो असमर्थता व्यक्त करते हुए लिखा है-
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरकमोऽस्माभिः ।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ।। १५१ ।।
अर्थात् गुणधर और धरसेनको पूर्वापर गुरुपरम्परा हमें ज्ञात नहीं है क्योंकि इसका वृत्तान्त न तो हमें किसी आगम में मिला और न किसी मुनिने ही बतलाया।
स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दिके समय तक आचार्य गुणधर और धरसेनका पूर्वापर वत्तित्व स्मृत्तिके गर्भ में विलीन हो चुका था। पर इतना स्पष्ट है कि अर्हद्वीलि द्वारा स्थापित संघोंमें गुणधरसंघका नाम आया है। नन्दिसंघको प्राकृत पट्टावली में अर्हद्वीलिका समय वीर निर्वाण सं. ५६५ अथवा वि. सं. ९५ है। यह स्पष्ट है कि गुणधर अर्हद्वीलिके पूर्ववर्ती है; पर कितने पूर्ववर्ती हैं, यह निर्णयात्मक रूपसे नहीं कहा जा सकता। याद गणधरको परम्पराको ख्याति प्राप्त करने में सौ वर्षका समय मान लिया जाय तो 'छक्खंडागम' प्रवचनकर्ता घरसेनाचार्य से 'कसायपाहुड' के प्रणेता गुणवराचार्यका समय लगभग दो सौ वर्ष पूर्व सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार आचार्य गुणधरका समय विक्रम संवत पूर्व प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है।
हमारा यह अनुमान केवल कल्पना पर आधृत नहीं है। अर्हद्वीलिके समय तक गुणधरके इतने अनुयायी यति हो चुके थे कि उनके नामपर उन्हें संघकी स्थापना करनी पड़ी। अतएव अर्हद्वीलिको अन्य संघोंके समान गुणधर संघका भी मान्यता देनी पड़ी। प्रसिद्धि प्राप्त करते और अनुयायो बनानेमें कमसे कम सौ वर्षका समय तो लग ही सकता है। अतः गुणधरका समय धरसेनसे कमसे कम दो सौ वर्ष पूर्व अवश्य होना चाहिये।
इनके गुरु आदिके सम्बन्धमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। गुणधरने इस ग्रन्थकी रचना कर आचार्य नागहस्ति और आर्यमक्षुको इसका व्याख्यान किया था। अतएव इनका समय उक्त आचार्योंसे पूर्व है। छक्खंडागमके सूत्रों के अध्ययनसे भी यह अवगत होता है कि 'पेज्जदोसपाहुड' का प्रभाव इसके सूत्रों पर है। भाषाका दृष्टिसे भा छक्खंडागमकी भाषा कसायपाहुडकी भाषाकी अपेक्षा अर्वाचीन है। अतः गुणधरका समय वि. पू. प्रथम शताब्दी मानना गर्वथा उचित है! जयधवलाकारने लिखा है- "पुणो ताओ चेव सुत्तगाहाओ आइरियपरंपराए आगच्छमाणीओ अज्जमं खुणागहत्थीणं गत्ताओ। पुणो नेसि दोण्हं पि पादमूले असोदिसदमाहाणं गुणहर मुहकमलविणिग्गयाणमार्थ सम्मं सोङ्गण जयीवसहभडारएण पचयणवच्छलेण चुन्नीसुतं कयं।'
अर्थात् गुणधराचायके द्वारा १८० गाथाओं में कसायपाहुड़का उपसंहार कर दिये जाने पर वे हा सुनगाथाएँ आचार्यपरम्परासे आती हुई आयमंक्षु और नागहस्तिको प्राप्त हुई। पश्चात उन दोनों ही आचार्या के पादमलमें बैठकर गुणधराचार्यके मुखकमलसे निकली हुई उन १८० गाथाओंके अर्थको भले प्रकारसे श्रवण करके प्रवचनवात्सल्यसे प्रेरित हो यतिवृषभ भट्टारकने उनपर चूणिसूत्रोंकी रचना की। इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि आचार्य गुणधरने महान विषयको संक्षेपमें प्रस्तुत कर सूत्रप्रणालीका प्रवर्तन किया। गुणधर दिगम्बर परम्पराके सबसे पहले सूत्रकार हैं।
गणघराचार्यने 'कसायपाहुड', जिसका दूसरा नाम 'पेज्जदोसपाहुड' भी है, को रचना की है। १६००० पद प्रमाण कसायपाहुडके विषयको संक्षेपमें एकसौ अस्सी गाथाओंमें ही उपसंहृत कर दिया है।
'पेज्ज' शब्दका अर्थ राग है। यतः यह ग्रन्थ राग और द्वेषका निरूपण करता है। क्रोधादि कषायोंको रागद्वेष परिणति और उनकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशबन्ध सम्बन्धी विशेषताओंका विवेचन ही इस ग्रन्थका मूल वर्ण्य विषय है। यह ग्रन्थ सूत्रशेलीमें निबद्ध है| गुणधरने गहन और विस्तृत विषधको अत्यन्त संक्षेपमें प्रस्तुत कर सूत्रपरम्पराका आरंभ किया है। उन्होंने अपने ग्रंथके निरूपणकी प्रतिज्ञा करते हुए गाथाओंको सुनगाहा कहा है-
गाहासदे असीदे अत्ये पण्णरसधा विहतम्मि |
वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्यम्मि ॥२॥
स्पष्ट है 'कसायपाहुड' की शैली गाथासूत्र शैली है। प्रश्न यह है कि इन गाथाओंको सूत्रगाथा कहा जाय अथवा नहीं? विचार करनेसे ज्ञात होता है कि 'कसायपाहुड' की गाथाओं में सूत्रशैलीके सभी लक्षण समाहित हैं। इस ग्रन्थकी जयधवला-टीकामें आचार्य वीरसेनने आगमदृष्टिसे सूत्रशैलीका लक्षण बतलाते हुए लिखा है- सुत्तं
गणहरकहियं तहेय पत्तेयबुद्धकहियं च।
सुदकेवलिणा कहियं अभिष्णदसपुब्धिकहियं च।।
अर्थात् जो गणघर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्नदसपूर्वियों द्वारा कहा जाय यह सूत्र है।
अब यहाँ प्रश्न यह है कि गुणधर भट्टारक न तो गणधर हैं, न प्रत्येकबुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्शी हैं। अत: पूर्वोक्त लक्षणके अनुसार इनके द्वारा रचित गाथाओंको सूत्र कैसे माना जाय? इस शंकाका समाधान करते हुए आचार्य वीरसेनने लिखा है कि आगमद्रुष्टिसे सूत्र न होने पर भी शैलीकी दृष्टि से ये सभी गाथाएँ सूत्र है- 'इदि वयणादो णेदाओ गाहाओ सुत्तं गणहर-पत्तेयबुद्ध-सुदकेवलि-अभिण्णदसपुब्बीसु गुणहरभद्धारयस्स अभावादो; ण, णिड्डोसापकावर सहेउपमानेहि सुत्तेण ससित्तमस्थि त्ति सुत्तत्तुवलंभादो।' अर्थात् गुणधर भट्टारकको माथाएं निर्दोष, अल्पाक्षर एवं सहेतुक होनेके कारण सूत्रके समान हैं।
सूत्रशब्दका वास्तविक अर्थ बाजपद है। तीर्थंकरके मुखसे निस्सत बोज पदोंको सूत्र कहा जाता है और इस सूत्रके द्वारा उत्पन्न होनेवाला ज्ञान सूत्र सम कहलाता है-
'इदि वयणादा तिस्थयरवयणचिणिगयबीजपदं सुतं । तेण सुत्तेण समं धट्टीद उप्पज्जादि त्ति गणहरदेवम्मि द्विदसुदणाणं सुतसम'।
बन्धन अनुयोगद्वारमें सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली या द्वादशांगरूप शब्दागम लिया गया है और श्रुतकेवली के समान श्रुतज्ञानको भी सूत्रसम कहा है; पर कृतिअनुयोगद्वारमें जो सूत्रको परिभाषा बतलाया गयी है उसके अनुसार द्वादशांगका सूत्रागममें अन्तर्भाव न होकर ग्रन्यागममें अन्तर्भाव होता है। यतः कृतिअनुयोगद्वारमें गणधर द्वारा रचे गये द्रव्यश्रुतको ग्रन्थागम कहा है।
आचार्य वीरसेनका अभिमत है कि सूत्रको समग्र परिभाषा जिनेन्द्र द्वारा कथीत अर्थपदोंमें ही पायी जाती है, गणधरदेवके द्वारा ग्रंथित द्वादशांगमें नहीं। इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि यद्यपि गुणपर आचार्य द्वारा विरचित 'कमायपाहुड’ में आगमसम्मत सूत्रकी परिभाषा घटित नहीं होती; पर सूत्रशैलीके समस्त लक्षण इसमें समाहित हैं। प्राचार्य वीरसेनने जयधवलामें 'कसायपाहुड' को सूत्रग्रन्थ सिद्ध करते हुए लिखा है-
"एवं सञ्चं पि सुत्तलक्षणं जिणवयणकमलविष्णिग्गय अथ्यपदाणं चेव संभवङ्, ण गणहरमुहविणिरायगंथरयणाए, तत्थ महापरिमाण तुवलंभादो; ण; सच्च (सुत्त) सारिच्छमस्सिदूण तत्थ वि सुत्तत्तं पडी विरोहाभावादो।"
अर्थात् सूत्रका सम्पूर्ण लक्षण तो जिनदेवके मुखकमलसे निस्सृत अर्थपदों में ही संभव है, गणधरकै मुखकमलसे निकली हुई रचनामें नहीं; क्योंकि गणधर की रचनाओंमें महापरिमाण माना जाता है। इतना होनेपर भी गणधरके वचन भी सूत्रके समान होनेके कारण सूत्र कहलाते हैं। अतः उनकी ग्रंथरचनामें भी सूत्रत्वके प्रति कोई विरोध नहीं है। गणधरवचन भी बीजपदोंके समान सूत्र रूप है। अतएव गुणधर भट्टारककी रचना ‘कसायपाहुड़’ में सूत्रशैलीके सभी प्रमुख लक्षण घटित होते हैं। यहाँ विश्लेषण करनेपर निम्नलिखित सूत्रलक्षण उपलब्ध है-
१. अर्थमत्ता
२. अल्पाक्षरता
३. असंदिग्धता
४. निर्दोषता
५. हेतुमत्तता
६. सारयुक्तता
७. सोपस्कारता
८. अनवद्यता
९. प्रामाणिकता
स्पष्ट है कि कसायपाहुडकी गाथाओंकी शैली सूत्रशैली है। इस ग्रंथमें १८० + ५३ = २३३ गाथाएँ हैं। इनमें १२ गाथाएँ सम्बन्धज्ञापक हैं, छ: गाथाएं अधपरिमाणका निर्देश करती हैं और ३५ गाथाएँ संक्रमणवृतिसे सम्बद्ध हैं। जयधवलाके अनुसार ये समस्त २३३ गाथाएँ आचार्य गणधर द्वारा विरचित हैं। यहाँ यह शंका स्वभावतः उत्पन्न होती है कि जब ग्रन्थमें २२३ गाथाएँ थीं, तो ग्रन्थके आदिमें गुणधराचार्यने १८० गाथाओंका ही क्यों निर्देश किया? आचार्य वीरसेनने इस शंकाका समाधान करते हुए बताया है कि १५ अधिकारों में विभक्त होनेवाली गाथाओंको संख्या १८० रहने के कारण गुणधराचार्यने १८० गाथाओंकी संख्या निर्दिष्ट की है। सम्बन्ध-गायाएँ तथा अज्ञापरिमाण निर्देशक गाथाएँ इन १५ अधिकारोंमें सम्मिलित नहीं हो सकती हैं। अतः उनकी संख्या छोड़ दी गयी है।
आचार्य वीरसेनने पुनः शंका उपस्थित की है कि संक्रमण सम्बन्धी ३५ गाथाएं बन्धक नामक अधिकारमें समाविष्ट हो सकती हैं, तब क्यों उनकी गणना उपस्थित नहीं की? इस शंकाका समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है कि प्रारंभके पांच अर्थाधिकारों में केवल तीन ही गाथाएं हैं और उन तीन गाथाओंसे निबद्ध हुए पांच अधिकारों से बन्धक नामक अधिकारसे ही उक्त ३५ गाथाएँ सम्बद्ध हैं। अतः इन ३५ गाथाओंको १८० गाथाओंकी संख्यामें सम्मिलित करना कोई महत्वकी बात नहीं है। हमारा अनुमान है कि जिन ५३ गाथाओंकी गणना आचार्य गुणधरने नहीं की है वे गाथाएं संभवत: नागहस्तिद्वारा विरचित होनी चाहिए। हमारे इस अनुमानकी पुष्टि जयधवलासे भी होती है। जयधवलामें मतान्तरसे उक्त ५३ गाथाओंको नागहस्तिकृत माना है।
एक बात यह भी विचारणीय है कि सम्बन्धनिर्देशक १२ गाथाओं और अद्धापरिमाणनिर्देशक छ: गाथाओं पर यत्तिवृषभके चूर्णिसूत्र भी उपलब्ध नहीं हैं। यदि ये गाथाएँ गुणधर भट्टारक द्वारा विरचित होती तो यतिवृषभ इनपर अवश्य ही चूणिसूत्र लिखते। दूसरी बात यह कि संक्रमणसे सम्बद्ध ३५ गाथाओं मेंसे १३ गाथाएँ शिवशर्म रचित कर्मप्रकृतिमें भी पायी जाती हैं। यह सत्य है कि उक्त तथ्योंसे ५३ गाथाओंके रचयिता नामहस्ति सिद्ध नहीं होते, पर इसमें आशंका नहीं कि उक्त ५३ गाथाएँ गुणधर भट्टारक द्वारा विरचित नहीं। यद्यपि आचार्य वीरसेनने व्याख्याकारोंके मतोंको स्वीकार नहीं किया है तो भी समीक्षाकी दृष्टिसे ५३ गाथाओंको गुणधर भट्टारक द्वारा विरचित नहीं माना जा सकता है। रचनाशेलीकी दुष्टिसे १८० गाथाओंकी अपेक्षा ५३ गाथाओंकी शैली भिन्न प्रतीत होती है। एक अनुमान यह भी है कि आचार्य गुणधरने १८० गाथाओंको १५ अधिकारोंमें विभक्त करनेवाली प्रतिज्ञा नहीं की है। उनकी प्रतिज्ञा तो यह होनी चाहिए थी कि सोलह हजार पद प्रमाण कषायप्रामृतको एक-सो अस्सी गाथाओंमें संक्षिप्त करता हूँ। वस्तुत: गुणधराचार्य कषाय प्राभूतको उपसंहत करनेके लिए प्रवृत्त हुए थे, स्वरचित गाथाओंको अधिकारोंमें विभक्त करनेके लिए नहीं।
'सस्तेदा गाहाओ'; 'एदाओ सुत्त गाहाओं' आदि पदोंसे यह ध्वनित होता है कि इन गाथाओंकी रचनासे पूर्व मूलगाथाओं और भाष्यगाथाओंकी रचना हो चुकी थी। अन्यथा अमुक गाथासूत्र है, इस प्रकारका कथन संभव ही नहीं था। अतएव व्याख्याकारोंके, 'गाहासदे असीदे’ प्रतिज्ञावाक्य नागहस्तिका है, इस अभिमतको सर्वथा उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता है।
कसायपाहुडमें १५ अधिकार हैं जो निम्न प्रकार है-
१. प्रकृति-विभक्ति अधिकार
२. स्थिति-विभक्ति अधिकार
३. अनुभाग-विमति अधिकार
४. प्रदेश-विभक्ति-झीणाझीण-स्थित्यन्तिक
५. बंधक अधिकार
६. वेदक अधिकार
७. उपयोग अधिकार
८. चतुःस्थान अधिकार
९. व्यंजन अधिकार
१०. दर्शनमोहोपशमना अधिकार
११. दर्शनमोहक्षपणा अधिकार
१२. संयमासंगमलब्धि अधिकार
१३. संयमलब्धि अधिकार
१४. चारित्रमोहोपशमना
१५. चारित्रमोहक्षपणा
१. प्रकृति-विभक्ति- अधिकारका अन्य नाम 'पेज्जदोस-विभक्ती' है। यतः कषाय पेज्ज- राग या देषरूप होती है। चूर्णिसूत्रोंमें क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंका विभाजन राग और द्वेषमें किया है। नैगम और संग्रहनयकी दृष्टिसे क्रोध और मान द्वेषरूप हैं तथा माया और लोभ रागरूप हैं। व्यवहारनय मायाको भी द्वेषरूप मानता है। यतः लोकमें मायाचारीकी निन्दा होती है। ऋजुसूत्रनय कोधको द्वेषरूप तथा लोभको रागरूप मानता है। मान और माया न तो रागरूप है और न द्वेषरूप ही; क्योंकि मान क्रोधोत्पत्तिके द्वारा द्वेषरूप है तथा माया लोभोत्पत्तिके कारण रागस्प है स्वयं नहीं। अत: इस परम्पराका व्यवहार ऋजुसूत्रनयकी सीमामें नहीं आता। तीनों शब्दनय चारों कषायोंको द्वेषरूप मानते हैं क्योंकि उनसे कर्मों का आनंद होता है। राग और दोषोंका विवेचना हादा अनुहारों में किया गण है एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभागातुगम और अल्पबहुत्वानुगम।
२. स्थिति-विभक्ति-आत्माकी शक्तियोंको आवृत्त करनेवाला कर्म कहलाता है। यह पुद्गलरूप होता है। इस लोकमें सूक्ष्म कर्मपुद्गलस्कन्ध भरे हुए हैं जो इस जीवकी कायिक, वाचनिक और मानसिक प्रवृत्तिके साथ आकृष्ट होकर स्वतः आत्मासे बद्ध हो जाते हैं। कर्मपरमाणुओंको आकृष्ट करनेका कार्य योग द्वारा होता है। यह योग मन, वचन, काय रूप है। इस योगकी जैसी शुभाशुभ या तीव्र-मन्दरूप परिणति होती है उसीप्रकार कर्मों का आस्रव होता है। कषायके कारण कर्मों में स्थिति और अनुभाग उत्पन्न होते हैं। जब कर्म अपनी स्थिति पूरी होनेपर उदयमें आते हैं तो इष्ट या अनिष्ट फल प्राप्त होता है। इसप्रकार जीव पूर्वबद्ध कर्मके उदयसे क्रोधादि कषाय करता है और उससे नवीन कर्मका बन्ध करता है। कर्मसे कषाय और कषायसे कर्मबन्धकी परम्परा अनादि है।
कर्मबन्धके चार भेद हैं- १. प्रकृतिबन्ध, २. स्थितिबन्ध, ३. अनुभाग बन्ध, ४. प्रदेशबन्ध। कर्मोंमें ज्ञान-दर्शनादिको रोकने और सुख-दुःखादि देनेका जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। कर्म बन्धनेपर कितने समय तक आत्माके साथ बद्ध रहेंगे उस समयकी मर्यादाका नाम स्थितिबन्ध है। कर्म तीव्र या मन्द जैसा फल दें उस फलदानकी शक्तिका पड़ना अनुभागबन्ध है। कर्मपरमाणुओंकी संख्याके परिमाणका नाम प्रदेशबन्ध है। प्रकृति और प्रदेशनन्ध योग- मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिसे होते हैं। तथा स्थिति और अनु भागबन्ध कषायसे होते हैं । . स्थिति-विभक्तिनामक इस द्वित्तीय अधिकारमें स्थितिबन्ध के साथ प्रकृति बन्धका भी कथन सम्मिलित है। प्रकृति और स्थितिबन्धका एक जीवको अपेक्षा कथन स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोंको अठेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्वकी दृष्टिसे किया है। कसायपाहुडमें मोहनीयकर्मका वर्णन विशेष रूपसे आया है। इस अधिकारमें प्रकृत्ति-विभक्ति के दो भेद किये हैं। प्रथम भेद मूलप्रकृति मोहनीयकर्म है और द्वितीय भेद उत्तरप्रकृतिमें मोहनीयकर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ ग्रहण की गई हैं। इसप्रकार विभिन्न अनुयोगों द्वारा स्थिति-विभक्तिमें चौदह मार्गणाओंका आश्रय लेकर मोहनीयके २८ भेदोंकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बतलायो गई है। अद्धाच्छेद, सर्वविक्ति, नोसर्व विभक्ति, उत्कृष्टविक्ति, अनुत्तकृष्टविभक्ति, जयन्यविभक्ति, अजघन्मविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति आदिका कथन किया है।
३. अनुभाग-विभक्ति- अधिकारमें कर्मोंको फलदार-शक्तिका विवेचन किया गया है। आचार्यने यहां उस अनुभागका विचार किया है जो बन्धसे लेकर सत्ताके रूपमें रहता है। वह जितना बन्धकालमें हुआ उतना भी हो सकता है और होनाधिक भी संभव है। उसके दो भेद हैं- १. मूलप्रकृति-अनुभाग विभक्ति और २. उत्तरप्रकृति-अनुभागविभक्ति । इस सबका वर्णन संक्षेपमें किया है। इस अधिकारमें संज्ञाके दो भेद किये हैं- १. घातिसंज्ञा और २. स्थानसंज्ञा। मोहनीयकर्म की घातिसंज्ञा है क्योंकि वह जीवके गुणोंका घातक है। घातीके दो भेद हैं- सर्वघाती औः देशघाती। मोहनीवर उत्क्रुस्त अनुभाग सर्वघाती है और अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वघातो और देशघाती दोनों प्रकारका है। इसी तरह जघन्य अनुभाग और अजघन्य अनुभाग देशघाती और सर्वघाती दोनों प्रकारका है। स्थान अनुभागके चार प्रकार है- एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक । इस प्रकार अनुभागनवभक्तिमें अनुभागके विभिन्न भेद-प्रभेदोंका कथन किया है।
४. प्रदेश-विभक्ति- कर्मों का बन्ध होनेपर तत्काल बन्धको प्राप्त कर्मों को जो द्रव्य मिलता है उसे प्रदेश कहते हैं। इसके दो भेद हैं- प्रथम बन्धके समय प्राप्त द्रव्य और द्वितीय बन्ध होकर सत्तामें स्थित द्रव्य| कसायपाहूडमें इस द्वितीयका हो निरूपण आया है। मोहनीय कर्मको लेकर स्वामित्व, काल, अन्तर, भंगविचय आदि दुष्टियोंसे विचार किया है। अनुभागके दो प्रकार है - जीवभागाभाग और प्रदेशभागाभाग। पहले की चर्चामें कहा है कि उत्कृष्ट प्रदेश-विभक्ति बाले जीव सब जीवों के अनन्तमें भाग प्रमाण है। और अनुत्कृष्ट प्रदेश-विभक्ति बाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभाग प्रमाण है। इस प्रकार इस प्रदेश-विभक्ति अधिकारमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण प्रति कर्मों को स्थितियोंका भी विचार किया गया है।
५. बंधक - अधिकारमें कर्मवर्गणाओंका, मिथ्यात्व, अविरति आदिके निमित्तसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारके कर्मरूप परिणमनका कथन आया है। इस अधिकारमें बन्ध और संक्रम इन दो विषयोंका व्याख्यान किया है। गुणधर भट्टारकने इस बन्धक अधिकारमें संक्रमका भी अन्तर्भाव किया है। बन्धके दो भेद बताये है- १. अकर्मबन्ध और २. कर्मबन्ध| जो कार्माणवर्गणाएं कर्मरूप परिणत नहीं हैं उनका कर्मरूप परिणत होना अकर्म बन्ध है और कर्मरूप परिणत पुद्गलस्कन्धोंका एक कर्मसे अपने सजातीय अन्य कर्मरूप परिणमन करना कर्मबन्ध है। यह द्वितीय कर्मबन्ध भेद ही संक्रमरूप है। यही कारण है कि इस बन्धके अधिकारमें बन्ध और संक्रम इन दोनोंका समावेश हो जाता है। आचार्यने 'कदि पयडीओ बन्धदि' आदि २३ संख्यक गाथामें इस अधिकारका वर्णन किया है।
६. वेदक अधिकार- इस अधिकारमें बताया है कि यह संसारी जीव मोह नीयकर्म और उसके अवान्तर भेदोंका कहाँ कितने काल तक सान्तर या निरन्तर किस रूपमें वेदन करता है। इस अधिकारके दो भेद है- उदय और उदोरणा। उदीरणा सामान्यतः उदयविशेष ही है। किन्तु इन दोनोंमें अन्तर यह है कि कर्मों का जो यथाकाल फलविपाक होता है उसकी उदयसंज्ञा है और जिन कर्मों का उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ उनको उपायविशेषसे पचाना उदोरणा है। इस अधिकारको गुणधरने चार गाथासूत्रोंमें निबद्ध किया है। यहाँ उदोरणा, उदय और कारणभूत बाह्य सामग्रीका निर्देश किया गया है। प्रथम पाद द्वारा उदीरणा सुचित की गयी है। द्वितीय पाद द्वारा विस्तार सहित उदय सूचित किया है और शेष दो पादों द्वारा उदयावलीके भीतर प्रविष्ट हुई उदय प्रकृत्तियों और अनुदयप्रकृतियोंको ग्रहण कर प्रवेशसंज्ञावाले अर्थाधिकारका सूचन किया है। गाथाके पूर्वाद्धका स्पष्टीकरण करनेके पश्चात् उत्तरार्द्ध में बताया है कि क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलोंको निमित्त कर कर्मों का उदय और उदौरणारूप फलत्रिपाक होता है। यहाँ क्षेत्रपदसे नरकादिगतियोंका क्षेत्र, भवपदसे एक इन्द्रियादि पर्यायोंका, कालपदसे बसन्त, ग्रीष्म और वर्षा आदिका एवं पुद्गल पदसे ग्रंथ, ताम्बूल, वस्त्र, आभरण आदि पुद्गलोंका ग्रहण किया है।
उदीरणाके समग्र विवेचनके पश्चात् गाथाके उत्तरार्द्ध में उदयका कथन किया है। उदीरणाके मूल प्रकृति उदोरणा और उत्तरप्रकृति उदोरणा ये दो भेद किये गये हैं। उत्तरवर्ती टोकाकारोंने १७ अनुयोगनारोंका आश्रय लेकर उदीरणाओंका विस्तृत विवेचन किया है।
वेदक अधिकारकी दूसरी गाथाका दूसरा पाद है 'को व केय अणुभागे' अर्थात् कौन जीव किस अनुभागमें मिथ्यात्व आदि कर्मों का प्रवेशक है। गाथासूत्रके इस पादको व्याख्या चूर्णिसूत्रकार और टीकाकारोंने विस्तारपूर्वक की है।"
७. उपयोगाधिकार में जीवके क्रोध, मान, मायादिरूप परिणामोंको उपयोग कहा है। इस अधिकार में चारों कषायोंके उपयोगका वर्णन किया गया है। और बतलाया है कि एक जीवके एक कायका उदय कितने काल तक रहता है और किस गत्तिके जीवके कौन-सी कषाय बारबार उदयमें आती है। एक भवमें एक कषायका उदय कितने बार होता है और एक कषायका उदय कितने भवों तक रहता है। जितने जीय वर्तमान समयमें जिस कषायसे उपयुक्त हैं क्या वे उतने ही पहले उसी कवायसे उपयुक्त थे? और आगे भी क्या उपयुक्त रहेंगे? आदि कषायविषयक सासष्य बातोंका विवेचन इस अधिकारमें किया है।
८. चतुःस्थान अधिकार- वातियाकर्मों की फलदानशक्तिका विवरण लता, दारू, अस्थि और शेलरूप उपमा देकर किया गया है। इन्हें क्रमशः एक स्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थान भी कहा गया है।
इस प्रस्तुत अधिकारके नामकरणका कारण भी उक्त चार स्थानोंका रहना हो है। उपमाओं द्वारा क्रोधको पाषाणरेखाके समान, पृथ्वीरेखाके समान, बालुरेखाके समान और जलरेखाके समान बसाया है। जिस प्रकार जलमें खिंची हुई रेखा तुरंत मिट जाती है और बालू, पृथ्वी और पाषाणपर खिंची गई रेखाएँ उत्तरोत्तर अधिक समयमें मिटती है, उसी प्रकार हीनाधिक कालकी अपेक्षासे क्रोधके भी चार स्थान है। इसी क्रमसे मान, माया और लोभके भी चार-चार स्थानोंका निरूपण किया है। इसके अतिरिक्त चारों कषायोंके सोलह स्थानोंमेंसे कौन-सा स्थान किस स्थानसे अधिक होता है और कोन किससे हीन होता है, कोन स्थान सर्वघाती है, कोन स्थान देशघाती है? आदिका विचार किया गया है।
९. व्यजन अधिकार- व्यञ्जनका अर्थ पर्यायवाधी शब्द है। इस अधिकार में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों हो कषायोंके पर्यायवाचक शब्दोंका प्रतिपादन किया गया है। क्रोधके पर्याय रोष ,अक्षमा, कलह, विवाद आदि बतलाये हैं। मानके पर्याय, मान, मद, दर्प, स्तम्भ, परिभव तथा मायाके, माया, निकृति, वंचना, सातियोग और अनऋजुता आदि बतलाये गये हैं। लोभके पर्यायोंमें लोभ, राग, निदान, प्रेयस्, मळ आदि बतलाये गये हैं। इस प्रकार विभिन्न पर्यायवाची शब्दों द्वारा कषायविषयोंपर विचार-विमर्श किया गया है।
१०. दर्शनमोहोपशमनाधिकार-जिस कर्मके उदयमें आनेपर जीवको अपने स्वरूपका दर्शन- साक्षात्कार और यथार्थ प्रतीति न हो उसे दर्शनमोहकर्म कहते हैं। इस कर्मके परमाणुओंका एक अन्तर्मुहसके लिए अभाव करने या उपशान्त रूप अवस्थाके करनेको उपशम कहते हैं। इस दर्शनमोहके उपशमनकी अवस्था में जीवको अपने वास्तविक स्वरूपका एक अन्तमुहूर्तके लिए साक्षात्कार हो जाता है। इस साक्षात्कारकी स्थितिमें जो उसे आनन्द प्राप्त होता है वह अनिर्वच नीय है। दर्शनमोहके उपशमन करने वाले जीदके परिणाम कैसे होते हैं, उसके कौन सा योग होता, कौन-सा उपयोग रहता है। कौन-सी कषाय होती है और कौन-सी लेश्या, आदि बातोंका निरूपण करते हुए उन परिणाम विशेषोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है। दर्शनमोहके उपशमको चारों गतियोंके ही जीव कर सकते हैं, पर उन्हे संज्ञी, पन्चेन्द्रिय और पर्याप्तक होना चाहिए। इस अधिकारके अन्तमें प्रथमोपशम-सम्यक्त्वीके विशिष्ट कार्यों और अवस्थाओंका वर्णन भी आया है।
११. दर्शनमोक्षपणा अधिकार- दर्शनमोहकी उपशम अवस्था अन्त मुहूर्त तक ही रहती है। इसके पश्चात् वह समाप्त हो जाती है| और जीव पुनः आत्मदर्शनसे वंचित हो जाता है। आत्मसाक्षात्कार सर्वदा बना रहे, इसके लिए दर्शन मोहका क्षय आवश्यक है। इसके लिये जिन प्रमुख बातोंकी आवश्यकता होती है उन सबका विवेचन इस अधिकार में किया गया है। दर्शनमोहके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिमें उत्पन्न मनुष्य ही कर सकता है और इसकी पूर्णता चारों गतियों में की जा सकती है। दर्शनमोहके क्षपणका काल अन्तर्मुहूर्त है। इस क्षपर्णावयाके समाप्त होनेके पूर्व हो यदि उस मनुष्यको मृत्यु हो जाय तो वह अपनी आयुबन्धके अनुसार यथासंभव चारों ही गतियों में उत्पन्न हो सकता है। दर्शनमोहके क्षपणका प्रारम्भ करने वाला मनुष्य अधिक से अधिक तीन भव और धारण करके मुक्तिलाभ करता है। इस अधिकारमें दर्शनमोहक क्षपणकी प्रक्रिया और तत्सम्बन्धी साधन-सामग्रीका निरूपण किया गया है।
१२. संयमासंयमलब्धि अधिकार- आत्मस्वरूपका साक्षात्कार होते ही जीव मिथ्यास्वरूप पंकसे निकलकर निर्मल सरोवरमें स्नान कर आनन्दमें निमग्न हो जाता है। उसको विचारधारा सांसारिक विषयवासनासे दूर हो संयमासंयमकी प्राप्तिकी ओर अग्रसर होती है। शास्त्रीय परिभाषाके अनुसार अप्रत्याख्यानावरणकषायके उदयके अभावसे देशसंयमको प्राप्त करने वाले जीवके जो विशुद्ध परिणाम होते हैं उसे संयमासंयमलब्धि कहते हैं। इसके निमित्तसे जोव श्रावकके व्रतोंको धारण करने में समर्थ होता है। इस अधिकारमें संयमासंयमलब्धिके लिये आवश्यक साधन-सामग्रियोंका विस्तार पूर्वक कथन किया है।
१३. संयमलब्धि अधिकार- प्रत्याख्यानावरणकषायके अभाव होनेपर आत्मामें संयमलब्धि प्रकट होती है, जिसके द्वारा आत्माकी प्रवृत्ति हिंसादि पाँच पापोंसे दूर होकर अहिंसादि महाव्रतोंके धारण और पालनकी होती है। संयमासंयम अधिकारकी गाथा ही इस अधिकारको गाथा है। संयमके प्राप्त कर लेनेपर भी कषायके उदयानुसार जो परिणामोंका उतार-चढ़ाव होता है उसका प्ररूपण अल्पबहुत्त्व आदि भेदों द्वारा किया गया है। इस लब्धिका वर्णन चूणिसूत्रकारने अधःकरण और अपूर्वकरणके विवेचन द्वारा किया है, जो अध्यात्म प्रेमी उपशमसम्यक्त्वके साथ संघमासंयम धारण करते हैं उनके तीनों करण होते हैं, पर जो वेदकसम्यकदृष्टि संयमासंयमको धारण करते हैं उनके दो ही करण होते हैं। संयमको धारण करनेके लिये आवश्यक सामग्रीका भी कथन किया गया है।
१४. चारित्रमोहोपशमनाधिकार- इस अधिकारमें प्रथम आठ गाथाएँ आती हैं। पहली गाथाके द्वारा उपशमना कितने प्रकारकी होती है, किस-किस कर्मका उपशम होता है आदि प्रश्न किये गये हैं। दूसरी गाथाके द्वारा निरुद्ध चारित्रमोहप्रकृतिको स्थितिके कितने भागका उपशम करता है, कितने भागका संक्रमण करता है और कितने भागका उदीरणा करता है इत्यादि प्रश्नोंकी अव तारणा की गयी है। तीसरी गाथाके द्वारा चारित्रमोहनीयका उपशम कितने कालमें किया जाता है उसो उपशमित प्रकृतिको उदोरणा-संक्रमण कितने काल तक करता है इत्यादि प्रश्न किये गये हैं। चौथी गाथाके द्वारा आठ करणोंमेंसे उपशामकके कब, किस करणसे व्युछित्ति होती है या नहीं इत्यादि प्रश्नोंका अव तार किया गया है। इस प्रकार चार गाथाओंके द्वारा उपशामकके और शेष चार गाथाओंके द्वारा उपशामकके पतनके सम्बन्ध में प्रश्न किये गये हैं।
१५. चारित्रमोहक्षपणाधिकार- यह अन्तिम अधिकार बहुत विस्तृत है। इसमें चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयका वर्णन विस्तारसे किया है। यहां यह ध्यातव्य है कि चारित्रमोहनीयका क्षय अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करपके बिना संभव नहीं है। इस अधिकारमें २८ मूलगाथाएँ हैं ओर ८६ भाष्यगाथाएँ हैं। इस प्रकार कुल ११४ गाथाओंमें यह अधिकार व्याप्त है। इनमेंसे चार सूत्रमाथाएँ अधःप्रवृत्तिकरणके अन्तिम समयसे प्रतिबद्ध हैं। इनके आधारपर चूणिसूत्रों और जयधवलामें योग और कषायोंको उत्तरोत्तर विशद्धिका चित्रण किया गया है। आशय यह है कि चारित्रमोहनीयकर्मकी प्रकृतियोंका क्षय किस क्रमसे होता है और किस-किस प्रकृतिक क्षय होनेपर कहाँपर कितना स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व रहता है इत्यादि बातोंका वर्णन इस अधिकारमें आया है। ध्यान और कषायक्षयको प्रक्रिया भी इस अधिकारमें वर्णित है।
बायपावना को नीदर महावीरकी आरातीय परम्परासे प्राप्त हुआ है| वीरसेनाचार्य ने जयधवला-टीकामें लिखा है- "एदम्हादो विउलगिरिमत्ययस्थवड्डमाणदिवायरादो विणिग्यमिय गोदम लोहज्ज-जंबुसामियादि-आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहास रूवेण परिणामय" अर्यातविपुलाचलके शिखरपर विराजमान वर्धमान दिवाकरसे प्रकट होकर गौतम, लोहाचार्य, जम्बूस्वामी आदिकी आचार्यपरम्परासे आकर गुणधरको 'कम्मपडिपाहुड' का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने गाथारूपमें इस ज्ञान का प्रतिपादन किया | स्पष्ट है कि आचार्य गुणधरको केलियोंकी परम्परासे ज्ञान प्रास हुआ था| आचार्य गुणधर सूत्ररचनाशैलीके प्रकाण्ड विद्वान् हैं । धवला टीकामें आचार्य वीरसेनने उन्हें वाचक कहा है और वाचकका अर्थ पूर्वविद लिया है। अतएव इनकी रचना-प्रतिभा मंजुल अर्थको संक्षेपमें प्रस्तुत करनेकी थी। वस्तुतः आचार्य गुणधर 'कम्मपडिपाहुड' के ज्ञाता होनेके साथ ही अत्यन्त प्रतिभाशाली और विषविशेषज विद्वान थे। इनके कसायपाहुडकी प्रत्येक गाथाके एक-एक पदको लेकर एक-एक अधिकारका रचा जाना तथा तीन गाथाओंका पाँच अधिकारोंमें निबद्ध होना ही इनकी प्रतिभाकी गंभीरता और अनन्त अर्थगर्भित अभीव्यक्तीको सूचित करता है। वेदक अधिकारकी जो ज सकामेदिय' (गाथाङ्क ६२) गाथाके द्वारा चारों प्रकारके बन्ध, चारों प्रकारके संक्रमण, चारों प्रकारके उदय, चारों प्रकारकी उदीरणा और चारों प्रकारके सत्वसम्बन्धी अल्पबहुत्वकी सूचना निश्चयतः उसके गाम्भीर्य और अनन्तार्थभित्वकी साक्षी है। अर्थबहुलताकी दृष्टि से गुणधरकी शैली अत्यन्त गंभीर है। गुणधरके इस ग्रंथपर यदि चूर्णिसूत्र न लिखे जाते तो उनका अर्थ पश्चादवर्ती व्यक्ति योंके लिये दुर्बोध हो जाता।
आचार्य शिवशर्मके 'कम्मपयडि' और 'सतक' नामक दो ग्रंथ आज उपलब्ध हैं। इन दोनों ग्रंथोका उद्गम स्थान 'महाकम्मपडिपाहुड' है। 'कम्म पयडी के साथ जब हम गुणधरके 'कषायपाहुड' की तुलना करते हैं तो हमें इन दोनोंमें मौलिक अन्तर प्रतीत होता है। कम्मापयडिमें महाकम्मपडिपाहुडके चौबीस अनुयोगद्वारोंका समावेश नहीं है। किन्तु बन्धन, उदय और संक्रमणादि कुछ अनुयोगद्वार ही प्राप्त हैं। गुणधरने अपने 'कषायपाहुड' में समस्त 'पेज्जदोषपाहुड' का उपसंहार किया है। अतः यह स्पष्ट है कि 'कम्मपयडि की रचना शिवशर्मने गुणधरके पश्चात् ही की है। 'कम्मपयडि' और 'सतक’ इन दोनों ग्रंथोके अन्त में अपनी अल्पज्ञना प्रकट करते हुए शिवशर्मने दृष्टिवादके ज्ञाता आचार्यों से उसे शुद्ध कर लेनेकी प्रार्थना की है। वस्तुत: 'कम्मपयडि' एक संग्रह ग्रंथ है क्योंकि उसमें विभिन्न स्थानोंपर आई हुई प्राचीन गाथाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। कम्मपयडिकी चूणिमें उसके कर्ताने उसे 'कम्पयडिसंग्रहिणी' नाम दिया है। इसी प्रकार 'सतक' चुर्णीमें भी उसे संग्रह-ग्रन्थ कहा है। गुणधरकी यह रचना मौलिक है तथा कर्म-शिद्धान्तको बीजरूप में प्रस्तुत करती है।
कषायपाहुड कम्मपडिसे पूर्ववर्ती है। कम्मपर्याडके संक्रमकरणमें कषाय पाहुड़के संक्रमअर्थाअधिकारको १३ गाथाएँ साधारण पाठभेदके साथ अनुक्रमसे ज्यों-की-त्यों उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार कम्मपयडिके उपशमकरणमें कषाय पाहुडके दर्शनमोहोपशमना अर्थाधिकारकी चार गाथाएँ कुछ पाठभेदके साथ पायी जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर केवली और श्रुतकेवलियोंके अनन्सर पहले पूर्वविद हैं, जिन्होंने 'महाकम्मपयडिपाहुड' का संक्षेपमें उपसंहार किया। महान् अर्थको अल्पाक्षरोंमें निबद्ध करनेकी प्रतिभा उनमें विद्यमान थी। यही कारण है कि कसायपाहुडका उत्तरकालीन सभी वाङ्मयपर प्रभाव है।
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई० सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
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आचार्य श्री १०८ गुणधर महाराजजी
शशांक शहा
Shashank Shaha
श्रुतधराचार्यों की परंपरामें सर्वप्रथम आचार्य गुणधरका नाम आता है। गुणधर और धरसेन दोनों ही श्रुत-प्रतिष्ठापकके रूपमें प्रसिद्ध हैं। गुणधर आचार्य धरसेनकी अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे। गणधरको 'पञ्चमपूर्वगत पेज्जदोसपाहुड' का ज्ञान प्राप्त था और धरसेनको 'पूर्वगत कम्मपयडिपाहुड' का। इतना ही नहीं, किन्तु गुणधरको 'पेज्जदोसपाहुड’ के अतिरिक्त 'महाकम्मपयडिपाहुड' का भी ज्ञान प्राप्त था, जिसका समर्थन 'कसायपाहुड’ से होता है । 'कसायपाहुड' में बन्ध, संक्रमण, उदय और उदीरणा से पृथक् अधिकार दिये गये हैं। ये अधिकार 'महाकम्मपयडिपाहुड’ के चौबीस अनुयोगद्वारों में से क्रमशः षष्ठ, द्वादश और दशम अनुयोगद्वारोंसे संबद्ध हैं। 'महाफम्मपयडिपाहुड' का चौबीसवाँ अल्पबहुत्व नामक अनुयोगद्वार भी 'कसायपाहुड' के सभी अधिकारोंमें व्याप्त है । अतः स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर 'महाकम्मपयडिपाहुड’ के ज्ञाता होने के साथ 'पेज्जदोसपाहुड' के ज्ञाता और 'कसायपाहुड' के रूपमें उसके उपसंहारकर्ता भी थे। पर 'छक्खडागम’ की धवला-टोकाके अध्ययनसे ऐसा ज्ञात नहीं होता कि धरसेन 'पेज्ज दोसपाहुड' के ज्ञाता थे। अतएव आचार्य गुणधरको दिगंबर परंपरामें लिखित रूपमें प्राप्त श्रुतका प्रथम श्रुतकार माना जा सकता है। धरसेनने किसी ग्रंथकी रचना नहीं की। जबकि गुणधरने 'पेज्जदोसपाहुड' की रचना की है। जयघवलाके मंगलाचरणके पश्चसे ज्ञात होता है कि आचार्य गुणधरने कसायपाहुडका गाथाओं द्वारा व्याख्यान किया है।
जैणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्जलं अणंतत्थं।
माहाहि विवरियं तं गुणहरभडारयं वंदे ॥ ६ ॥
इसके अनन्तर आचार्य वीरसेनने लिखा है - ज्ञानप्रवादपूर्वके निर्मल दसवें वस्तु अधिकारके तृतीय कसायपाहुडरूपी समुद्रके जलसमूहसे प्रक्षालित मति ज्ञानरूपी नेत्रवारी एवं त्रिभुवन-प्रत्यक्षज्ञानकर्ता गणधर भट्टारक हैं और उनके द्वारा उपदिष्ट गाथाओंमें सम्पूर्ण कसायपाहुडका अर्थ समाविष्ट है। आचार्य वीरसेनने उसी संदर्भ में आगे लिखा है कि तीसरा कषायनाभूत महासमुद्रके तुल्य है और आचार्य गुणधर उसके पारगामी हैं।
वीरसेनाचार्यके उक्त कथनसे यह ध्वनित होता है कि आचार्य गुणधर पूर्व विदोंकी परम्परा में सम्मिलित थे, किन्तु धरसेन पूर्वविद् होते हुए भी पूर्वविदोंकी परम्परामें नहीं थे। एक अन्य प्रमाण यह भी है कि धरसेनकी अपेक्षा गुणधर अपने विषयके पूर्ण ज्ञाता थे। अतः यह माना जा सकता है कि गुणधर ऐसे समय में हुए थे जब पूवों के आंशिक ज्ञानमें उतनी कमी नहीं आयी थो, जितनी कमी धरसेनके समयमें आ गयी थी । अतएव गुणधर धरसेनके पूर्ववर्ती हैं।
आचार्य गुणधरके समयके सम्बन्धमें विचार करनेपर ज्ञात होता है कि इनका समय धरसेनके पूर्व है। इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारमें लोहार्य तकको गुरु परम्पराके पश्चात् विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त और अर्हदत्त इन चार आचार्यो का उल्लेख किया गया है। ये सभी आचार्य अंगों और पूर्वों के एकदेशज्ञाता थे। इनके पश्चात् अर्हद्वीलिका नाम आया है। अर्हद्वीलि बड़े भारी संघनायक थे। इन्हें पूर्वदेशके पुण्ड्वर्धनपूरका निवासी कहा गया है। इन्होंने पञ्चवर्षीय युगप्रतिक्रमणके समय बड़ा भारो एक यति-सम्मेलन किया, जिसमें सौ योजन तकके यति सम्मिलित हुए। इन यत्तियोंको भावनाओंसे अर्हद्वीलिने ज्ञात किया कि अब पक्षपातका समय आ गया है। अतएव इन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पञ्चस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामोंसे भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये, जिससे परस्परमें धर्मवात्सल्यभाव वृद्धिंगत हो सके।
संघके उक्त नामोंसे यह स्पष्ट होता है कि गुणधरसंघ आचार्य गुणधरके नाम पर ही था । अतः गुणधरका समय अर्हद्वीलिके समकालीन या उनसे भी पूर्व होना चाहिए। इन्द्रनन्दिको गुणधर और धरसेनका पूर्व या उत्तरवर्तीय ज्ञात नहीं है। अतएव उन्होंने स्वयं अपनो असमर्थता व्यक्त करते हुए लिखा है-
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरकमोऽस्माभिः ।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ।। १५१ ।।
अर्थात् गुणधर और धरसेनको पूर्वापर गुरुपरम्परा हमें ज्ञात नहीं है क्योंकि इसका वृत्तान्त न तो हमें किसी आगम में मिला और न किसी मुनिने ही बतलाया।
स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दिके समय तक आचार्य गुणधर और धरसेनका पूर्वापर वत्तित्व स्मृत्तिके गर्भ में विलीन हो चुका था। पर इतना स्पष्ट है कि अर्हद्वीलि द्वारा स्थापित संघोंमें गुणधरसंघका नाम आया है। नन्दिसंघको प्राकृत पट्टावली में अर्हद्वीलिका समय वीर निर्वाण सं. ५६५ अथवा वि. सं. ९५ है। यह स्पष्ट है कि गुणधर अर्हद्वीलिके पूर्ववर्ती है; पर कितने पूर्ववर्ती हैं, यह निर्णयात्मक रूपसे नहीं कहा जा सकता। याद गणधरको परम्पराको ख्याति प्राप्त करने में सौ वर्षका समय मान लिया जाय तो 'छक्खंडागम' प्रवचनकर्ता घरसेनाचार्य से 'कसायपाहुड' के प्रणेता गुणवराचार्यका समय लगभग दो सौ वर्ष पूर्व सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार आचार्य गुणधरका समय विक्रम संवत पूर्व प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है।
हमारा यह अनुमान केवल कल्पना पर आधृत नहीं है। अर्हद्वीलिके समय तक गुणधरके इतने अनुयायी यति हो चुके थे कि उनके नामपर उन्हें संघकी स्थापना करनी पड़ी। अतएव अर्हद्वीलिको अन्य संघोंके समान गुणधर संघका भी मान्यता देनी पड़ी। प्रसिद्धि प्राप्त करते और अनुयायो बनानेमें कमसे कम सौ वर्षका समय तो लग ही सकता है। अतः गुणधरका समय धरसेनसे कमसे कम दो सौ वर्ष पूर्व अवश्य होना चाहिये।
इनके गुरु आदिके सम्बन्धमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। गुणधरने इस ग्रन्थकी रचना कर आचार्य नागहस्ति और आर्यमक्षुको इसका व्याख्यान किया था। अतएव इनका समय उक्त आचार्योंसे पूर्व है। छक्खंडागमके सूत्रों के अध्ययनसे भी यह अवगत होता है कि 'पेज्जदोसपाहुड' का प्रभाव इसके सूत्रों पर है। भाषाका दृष्टिसे भा छक्खंडागमकी भाषा कसायपाहुडकी भाषाकी अपेक्षा अर्वाचीन है। अतः गुणधरका समय वि. पू. प्रथम शताब्दी मानना गर्वथा उचित है! जयधवलाकारने लिखा है- "पुणो ताओ चेव सुत्तगाहाओ आइरियपरंपराए आगच्छमाणीओ अज्जमं खुणागहत्थीणं गत्ताओ। पुणो नेसि दोण्हं पि पादमूले असोदिसदमाहाणं गुणहर मुहकमलविणिग्गयाणमार्थ सम्मं सोङ्गण जयीवसहभडारएण पचयणवच्छलेण चुन्नीसुतं कयं।'
अर्थात् गुणधराचायके द्वारा १८० गाथाओं में कसायपाहुड़का उपसंहार कर दिये जाने पर वे हा सुनगाथाएँ आचार्यपरम्परासे आती हुई आयमंक्षु और नागहस्तिको प्राप्त हुई। पश्चात उन दोनों ही आचार्या के पादमलमें बैठकर गुणधराचार्यके मुखकमलसे निकली हुई उन १८० गाथाओंके अर्थको भले प्रकारसे श्रवण करके प्रवचनवात्सल्यसे प्रेरित हो यतिवृषभ भट्टारकने उनपर चूणिसूत्रोंकी रचना की। इस उद्धरणसे यह स्पष्ट है कि आचार्य गुणधरने महान विषयको संक्षेपमें प्रस्तुत कर सूत्रप्रणालीका प्रवर्तन किया। गुणधर दिगम्बर परम्पराके सबसे पहले सूत्रकार हैं।
गणघराचार्यने 'कसायपाहुड', जिसका दूसरा नाम 'पेज्जदोसपाहुड' भी है, को रचना की है। १६००० पद प्रमाण कसायपाहुडके विषयको संक्षेपमें एकसौ अस्सी गाथाओंमें ही उपसंहृत कर दिया है।
'पेज्ज' शब्दका अर्थ राग है। यतः यह ग्रन्थ राग और द्वेषका निरूपण करता है। क्रोधादि कषायोंको रागद्वेष परिणति और उनकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशबन्ध सम्बन्धी विशेषताओंका विवेचन ही इस ग्रन्थका मूल वर्ण्य विषय है। यह ग्रन्थ सूत्रशेलीमें निबद्ध है| गुणधरने गहन और विस्तृत विषधको अत्यन्त संक्षेपमें प्रस्तुत कर सूत्रपरम्पराका आरंभ किया है। उन्होंने अपने ग्रंथके निरूपणकी प्रतिज्ञा करते हुए गाथाओंको सुनगाहा कहा है-
गाहासदे असीदे अत्ये पण्णरसधा विहतम्मि |
वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्यम्मि ॥२॥
स्पष्ट है 'कसायपाहुड' की शैली गाथासूत्र शैली है। प्रश्न यह है कि इन गाथाओंको सूत्रगाथा कहा जाय अथवा नहीं? विचार करनेसे ज्ञात होता है कि 'कसायपाहुड' की गाथाओं में सूत्रशैलीके सभी लक्षण समाहित हैं। इस ग्रन्थकी जयधवला-टीकामें आचार्य वीरसेनने आगमदृष्टिसे सूत्रशैलीका लक्षण बतलाते हुए लिखा है- सुत्तं
गणहरकहियं तहेय पत्तेयबुद्धकहियं च।
सुदकेवलिणा कहियं अभिष्णदसपुब्धिकहियं च।।
अर्थात् जो गणघर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्नदसपूर्वियों द्वारा कहा जाय यह सूत्र है।
अब यहाँ प्रश्न यह है कि गुणधर भट्टारक न तो गणधर हैं, न प्रत्येकबुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्शी हैं। अत: पूर्वोक्त लक्षणके अनुसार इनके द्वारा रचित गाथाओंको सूत्र कैसे माना जाय? इस शंकाका समाधान करते हुए आचार्य वीरसेनने लिखा है कि आगमद्रुष्टिसे सूत्र न होने पर भी शैलीकी दृष्टि से ये सभी गाथाएँ सूत्र है- 'इदि वयणादो णेदाओ गाहाओ सुत्तं गणहर-पत्तेयबुद्ध-सुदकेवलि-अभिण्णदसपुब्बीसु गुणहरभद्धारयस्स अभावादो; ण, णिड्डोसापकावर सहेउपमानेहि सुत्तेण ससित्तमस्थि त्ति सुत्तत्तुवलंभादो।' अर्थात् गुणधर भट्टारकको माथाएं निर्दोष, अल्पाक्षर एवं सहेतुक होनेके कारण सूत्रके समान हैं।
सूत्रशब्दका वास्तविक अर्थ बाजपद है। तीर्थंकरके मुखसे निस्सत बोज पदोंको सूत्र कहा जाता है और इस सूत्रके द्वारा उत्पन्न होनेवाला ज्ञान सूत्र सम कहलाता है-
'इदि वयणादा तिस्थयरवयणचिणिगयबीजपदं सुतं । तेण सुत्तेण समं धट्टीद उप्पज्जादि त्ति गणहरदेवम्मि द्विदसुदणाणं सुतसम'।
बन्धन अनुयोगद्वारमें सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली या द्वादशांगरूप शब्दागम लिया गया है और श्रुतकेवली के समान श्रुतज्ञानको भी सूत्रसम कहा है; पर कृतिअनुयोगद्वारमें जो सूत्रको परिभाषा बतलाया गयी है उसके अनुसार द्वादशांगका सूत्रागममें अन्तर्भाव न होकर ग्रन्यागममें अन्तर्भाव होता है। यतः कृतिअनुयोगद्वारमें गणधर द्वारा रचे गये द्रव्यश्रुतको ग्रन्थागम कहा है।
आचार्य वीरसेनका अभिमत है कि सूत्रको समग्र परिभाषा जिनेन्द्र द्वारा कथीत अर्थपदोंमें ही पायी जाती है, गणधरदेवके द्वारा ग्रंथित द्वादशांगमें नहीं। इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि यद्यपि गुणपर आचार्य द्वारा विरचित 'कमायपाहुड’ में आगमसम्मत सूत्रकी परिभाषा घटित नहीं होती; पर सूत्रशैलीके समस्त लक्षण इसमें समाहित हैं। प्राचार्य वीरसेनने जयधवलामें 'कसायपाहुड' को सूत्रग्रन्थ सिद्ध करते हुए लिखा है-
"एवं सञ्चं पि सुत्तलक्षणं जिणवयणकमलविष्णिग्गय अथ्यपदाणं चेव संभवङ्, ण गणहरमुहविणिरायगंथरयणाए, तत्थ महापरिमाण तुवलंभादो; ण; सच्च (सुत्त) सारिच्छमस्सिदूण तत्थ वि सुत्तत्तं पडी विरोहाभावादो।"
अर्थात् सूत्रका सम्पूर्ण लक्षण तो जिनदेवके मुखकमलसे निस्सृत अर्थपदों में ही संभव है, गणधरकै मुखकमलसे निकली हुई रचनामें नहीं; क्योंकि गणधर की रचनाओंमें महापरिमाण माना जाता है। इतना होनेपर भी गणधरके वचन भी सूत्रके समान होनेके कारण सूत्र कहलाते हैं। अतः उनकी ग्रंथरचनामें भी सूत्रत्वके प्रति कोई विरोध नहीं है। गणधरवचन भी बीजपदोंके समान सूत्र रूप है। अतएव गुणधर भट्टारककी रचना ‘कसायपाहुड़’ में सूत्रशैलीके सभी प्रमुख लक्षण घटित होते हैं। यहाँ विश्लेषण करनेपर निम्नलिखित सूत्रलक्षण उपलब्ध है-
१. अर्थमत्ता
२. अल्पाक्षरता
३. असंदिग्धता
४. निर्दोषता
५. हेतुमत्तता
६. सारयुक्तता
७. सोपस्कारता
८. अनवद्यता
९. प्रामाणिकता
स्पष्ट है कि कसायपाहुडकी गाथाओंकी शैली सूत्रशैली है। इस ग्रंथमें १८० + ५३ = २३३ गाथाएँ हैं। इनमें १२ गाथाएँ सम्बन्धज्ञापक हैं, छ: गाथाएं अधपरिमाणका निर्देश करती हैं और ३५ गाथाएँ संक्रमणवृतिसे सम्बद्ध हैं। जयधवलाके अनुसार ये समस्त २३३ गाथाएँ आचार्य गणधर द्वारा विरचित हैं। यहाँ यह शंका स्वभावतः उत्पन्न होती है कि जब ग्रन्थमें २२३ गाथाएँ थीं, तो ग्रन्थके आदिमें गुणधराचार्यने १८० गाथाओंका ही क्यों निर्देश किया? आचार्य वीरसेनने इस शंकाका समाधान करते हुए बताया है कि १५ अधिकारों में विभक्त होनेवाली गाथाओंको संख्या १८० रहने के कारण गुणधराचार्यने १८० गाथाओंकी संख्या निर्दिष्ट की है। सम्बन्ध-गायाएँ तथा अज्ञापरिमाण निर्देशक गाथाएँ इन १५ अधिकारोंमें सम्मिलित नहीं हो सकती हैं। अतः उनकी संख्या छोड़ दी गयी है।
आचार्य वीरसेनने पुनः शंका उपस्थित की है कि संक्रमण सम्बन्धी ३५ गाथाएं बन्धक नामक अधिकारमें समाविष्ट हो सकती हैं, तब क्यों उनकी गणना उपस्थित नहीं की? इस शंकाका समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है कि प्रारंभके पांच अर्थाधिकारों में केवल तीन ही गाथाएं हैं और उन तीन गाथाओंसे निबद्ध हुए पांच अधिकारों से बन्धक नामक अधिकारसे ही उक्त ३५ गाथाएँ सम्बद्ध हैं। अतः इन ३५ गाथाओंको १८० गाथाओंकी संख्यामें सम्मिलित करना कोई महत्वकी बात नहीं है। हमारा अनुमान है कि जिन ५३ गाथाओंकी गणना आचार्य गुणधरने नहीं की है वे गाथाएं संभवत: नागहस्तिद्वारा विरचित होनी चाहिए। हमारे इस अनुमानकी पुष्टि जयधवलासे भी होती है। जयधवलामें मतान्तरसे उक्त ५३ गाथाओंको नागहस्तिकृत माना है।
एक बात यह भी विचारणीय है कि सम्बन्धनिर्देशक १२ गाथाओं और अद्धापरिमाणनिर्देशक छ: गाथाओं पर यत्तिवृषभके चूर्णिसूत्र भी उपलब्ध नहीं हैं। यदि ये गाथाएँ गुणधर भट्टारक द्वारा विरचित होती तो यतिवृषभ इनपर अवश्य ही चूणिसूत्र लिखते। दूसरी बात यह कि संक्रमणसे सम्बद्ध ३५ गाथाओं मेंसे १३ गाथाएँ शिवशर्म रचित कर्मप्रकृतिमें भी पायी जाती हैं। यह सत्य है कि उक्त तथ्योंसे ५३ गाथाओंके रचयिता नामहस्ति सिद्ध नहीं होते, पर इसमें आशंका नहीं कि उक्त ५३ गाथाएँ गुणधर भट्टारक द्वारा विरचित नहीं। यद्यपि आचार्य वीरसेनने व्याख्याकारोंके मतोंको स्वीकार नहीं किया है तो भी समीक्षाकी दृष्टिसे ५३ गाथाओंको गुणधर भट्टारक द्वारा विरचित नहीं माना जा सकता है। रचनाशेलीकी दुष्टिसे १८० गाथाओंकी अपेक्षा ५३ गाथाओंकी शैली भिन्न प्रतीत होती है। एक अनुमान यह भी है कि आचार्य गुणधरने १८० गाथाओंको १५ अधिकारोंमें विभक्त करनेवाली प्रतिज्ञा नहीं की है। उनकी प्रतिज्ञा तो यह होनी चाहिए थी कि सोलह हजार पद प्रमाण कषायप्रामृतको एक-सो अस्सी गाथाओंमें संक्षिप्त करता हूँ। वस्तुत: गुणधराचार्य कषाय प्राभूतको उपसंहत करनेके लिए प्रवृत्त हुए थे, स्वरचित गाथाओंको अधिकारोंमें विभक्त करनेके लिए नहीं।
'सस्तेदा गाहाओ'; 'एदाओ सुत्त गाहाओं' आदि पदोंसे यह ध्वनित होता है कि इन गाथाओंकी रचनासे पूर्व मूलगाथाओं और भाष्यगाथाओंकी रचना हो चुकी थी। अन्यथा अमुक गाथासूत्र है, इस प्रकारका कथन संभव ही नहीं था। अतएव व्याख्याकारोंके, 'गाहासदे असीदे’ प्रतिज्ञावाक्य नागहस्तिका है, इस अभिमतको सर्वथा उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता है।
कसायपाहुडमें १५ अधिकार हैं जो निम्न प्रकार है-
१. प्रकृति-विभक्ति अधिकार
२. स्थिति-विभक्ति अधिकार
३. अनुभाग-विमति अधिकार
४. प्रदेश-विभक्ति-झीणाझीण-स्थित्यन्तिक
५. बंधक अधिकार
६. वेदक अधिकार
७. उपयोग अधिकार
८. चतुःस्थान अधिकार
९. व्यंजन अधिकार
१०. दर्शनमोहोपशमना अधिकार
११. दर्शनमोहक्षपणा अधिकार
१२. संयमासंगमलब्धि अधिकार
१३. संयमलब्धि अधिकार
१४. चारित्रमोहोपशमना
१५. चारित्रमोहक्षपणा
१. प्रकृति-विभक्ति- अधिकारका अन्य नाम 'पेज्जदोस-विभक्ती' है। यतः कषाय पेज्ज- राग या देषरूप होती है। चूर्णिसूत्रोंमें क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंका विभाजन राग और द्वेषमें किया है। नैगम और संग्रहनयकी दृष्टिसे क्रोध और मान द्वेषरूप हैं तथा माया और लोभ रागरूप हैं। व्यवहारनय मायाको भी द्वेषरूप मानता है। यतः लोकमें मायाचारीकी निन्दा होती है। ऋजुसूत्रनय कोधको द्वेषरूप तथा लोभको रागरूप मानता है। मान और माया न तो रागरूप है और न द्वेषरूप ही; क्योंकि मान क्रोधोत्पत्तिके द्वारा द्वेषरूप है तथा माया लोभोत्पत्तिके कारण रागस्प है स्वयं नहीं। अत: इस परम्पराका व्यवहार ऋजुसूत्रनयकी सीमामें नहीं आता। तीनों शब्दनय चारों कषायोंको द्वेषरूप मानते हैं क्योंकि उनसे कर्मों का आनंद होता है। राग और दोषोंका विवेचना हादा अनुहारों में किया गण है एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभागातुगम और अल्पबहुत्वानुगम।
२. स्थिति-विभक्ति-आत्माकी शक्तियोंको आवृत्त करनेवाला कर्म कहलाता है। यह पुद्गलरूप होता है। इस लोकमें सूक्ष्म कर्मपुद्गलस्कन्ध भरे हुए हैं जो इस जीवकी कायिक, वाचनिक और मानसिक प्रवृत्तिके साथ आकृष्ट होकर स्वतः आत्मासे बद्ध हो जाते हैं। कर्मपरमाणुओंको आकृष्ट करनेका कार्य योग द्वारा होता है। यह योग मन, वचन, काय रूप है। इस योगकी जैसी शुभाशुभ या तीव्र-मन्दरूप परिणति होती है उसीप्रकार कर्मों का आस्रव होता है। कषायके कारण कर्मों में स्थिति और अनुभाग उत्पन्न होते हैं। जब कर्म अपनी स्थिति पूरी होनेपर उदयमें आते हैं तो इष्ट या अनिष्ट फल प्राप्त होता है। इसप्रकार जीव पूर्वबद्ध कर्मके उदयसे क्रोधादि कषाय करता है और उससे नवीन कर्मका बन्ध करता है। कर्मसे कषाय और कषायसे कर्मबन्धकी परम्परा अनादि है।
कर्मबन्धके चार भेद हैं- १. प्रकृतिबन्ध, २. स्थितिबन्ध, ३. अनुभाग बन्ध, ४. प्रदेशबन्ध। कर्मोंमें ज्ञान-दर्शनादिको रोकने और सुख-दुःखादि देनेका जो स्वभाव पड़ता है उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। कर्म बन्धनेपर कितने समय तक आत्माके साथ बद्ध रहेंगे उस समयकी मर्यादाका नाम स्थितिबन्ध है। कर्म तीव्र या मन्द जैसा फल दें उस फलदानकी शक्तिका पड़ना अनुभागबन्ध है। कर्मपरमाणुओंकी संख्याके परिमाणका नाम प्रदेशबन्ध है। प्रकृति और प्रदेशनन्ध योग- मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिसे होते हैं। तथा स्थिति और अनु भागबन्ध कषायसे होते हैं । . स्थिति-विभक्तिनामक इस द्वित्तीय अधिकारमें स्थितिबन्ध के साथ प्रकृति बन्धका भी कथन सम्मिलित है। प्रकृति और स्थितिबन्धका एक जीवको अपेक्षा कथन स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोंको अठेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग और अल्पबहुत्वकी दृष्टिसे किया है। कसायपाहुडमें मोहनीयकर्मका वर्णन विशेष रूपसे आया है। इस अधिकारमें प्रकृत्ति-विभक्ति के दो भेद किये हैं। प्रथम भेद मूलप्रकृति मोहनीयकर्म है और द्वितीय भेद उत्तरप्रकृतिमें मोहनीयकर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ ग्रहण की गई हैं। इसप्रकार विभिन्न अनुयोगों द्वारा स्थिति-विभक्तिमें चौदह मार्गणाओंका आश्रय लेकर मोहनीयके २८ भेदोंकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बतलायो गई है। अद्धाच्छेद, सर्वविक्ति, नोसर्व विभक्ति, उत्कृष्टविक्ति, अनुत्तकृष्टविभक्ति, जयन्यविभक्ति, अजघन्मविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति आदिका कथन किया है।
३. अनुभाग-विभक्ति- अधिकारमें कर्मोंको फलदार-शक्तिका विवेचन किया गया है। आचार्यने यहां उस अनुभागका विचार किया है जो बन्धसे लेकर सत्ताके रूपमें रहता है। वह जितना बन्धकालमें हुआ उतना भी हो सकता है और होनाधिक भी संभव है। उसके दो भेद हैं- १. मूलप्रकृति-अनुभाग विभक्ति और २. उत्तरप्रकृति-अनुभागविभक्ति । इस सबका वर्णन संक्षेपमें किया है। इस अधिकारमें संज्ञाके दो भेद किये हैं- १. घातिसंज्ञा और २. स्थानसंज्ञा। मोहनीयकर्म की घातिसंज्ञा है क्योंकि वह जीवके गुणोंका घातक है। घातीके दो भेद हैं- सर्वघाती औः देशघाती। मोहनीवर उत्क्रुस्त अनुभाग सर्वघाती है और अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वघातो और देशघाती दोनों प्रकारका है। इसी तरह जघन्य अनुभाग और अजघन्य अनुभाग देशघाती और सर्वघाती दोनों प्रकारका है। स्थान अनुभागके चार प्रकार है- एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक । इस प्रकार अनुभागनवभक्तिमें अनुभागके विभिन्न भेद-प्रभेदोंका कथन किया है।
४. प्रदेश-विभक्ति- कर्मों का बन्ध होनेपर तत्काल बन्धको प्राप्त कर्मों को जो द्रव्य मिलता है उसे प्रदेश कहते हैं। इसके दो भेद हैं- प्रथम बन्धके समय प्राप्त द्रव्य और द्वितीय बन्ध होकर सत्तामें स्थित द्रव्य| कसायपाहूडमें इस द्वितीयका हो निरूपण आया है। मोहनीय कर्मको लेकर स्वामित्व, काल, अन्तर, भंगविचय आदि दुष्टियोंसे विचार किया है। अनुभागके दो प्रकार है - जीवभागाभाग और प्रदेशभागाभाग। पहले की चर्चामें कहा है कि उत्कृष्ट प्रदेश-विभक्ति बाले जीव सब जीवों के अनन्तमें भाग प्रमाण है। और अनुत्कृष्ट प्रदेश-विभक्ति बाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभाग प्रमाण है। इस प्रकार इस प्रदेश-विभक्ति अधिकारमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण प्रति कर्मों को स्थितियोंका भी विचार किया गया है।
५. बंधक - अधिकारमें कर्मवर्गणाओंका, मिथ्यात्व, अविरति आदिके निमित्तसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारके कर्मरूप परिणमनका कथन आया है। इस अधिकारमें बन्ध और संक्रम इन दो विषयोंका व्याख्यान किया है। गुणधर भट्टारकने इस बन्धक अधिकारमें संक्रमका भी अन्तर्भाव किया है। बन्धके दो भेद बताये है- १. अकर्मबन्ध और २. कर्मबन्ध| जो कार्माणवर्गणाएं कर्मरूप परिणत नहीं हैं उनका कर्मरूप परिणत होना अकर्म बन्ध है और कर्मरूप परिणत पुद्गलस्कन्धोंका एक कर्मसे अपने सजातीय अन्य कर्मरूप परिणमन करना कर्मबन्ध है। यह द्वितीय कर्मबन्ध भेद ही संक्रमरूप है। यही कारण है कि इस बन्धके अधिकारमें बन्ध और संक्रम इन दोनोंका समावेश हो जाता है। आचार्यने 'कदि पयडीओ बन्धदि' आदि २३ संख्यक गाथामें इस अधिकारका वर्णन किया है।
६. वेदक अधिकार- इस अधिकारमें बताया है कि यह संसारी जीव मोह नीयकर्म और उसके अवान्तर भेदोंका कहाँ कितने काल तक सान्तर या निरन्तर किस रूपमें वेदन करता है। इस अधिकारके दो भेद है- उदय और उदोरणा। उदीरणा सामान्यतः उदयविशेष ही है। किन्तु इन दोनोंमें अन्तर यह है कि कर्मों का जो यथाकाल फलविपाक होता है उसकी उदयसंज्ञा है और जिन कर्मों का उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ उनको उपायविशेषसे पचाना उदोरणा है। इस अधिकारको गुणधरने चार गाथासूत्रोंमें निबद्ध किया है। यहाँ उदोरणा, उदय और कारणभूत बाह्य सामग्रीका निर्देश किया गया है। प्रथम पाद द्वारा उदीरणा सुचित की गयी है। द्वितीय पाद द्वारा विस्तार सहित उदय सूचित किया है और शेष दो पादों द्वारा उदयावलीके भीतर प्रविष्ट हुई उदय प्रकृत्तियों और अनुदयप्रकृतियोंको ग्रहण कर प्रवेशसंज्ञावाले अर्थाधिकारका सूचन किया है। गाथाके पूर्वाद्धका स्पष्टीकरण करनेके पश्चात् उत्तरार्द्ध में बताया है कि क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलोंको निमित्त कर कर्मों का उदय और उदौरणारूप फलत्रिपाक होता है। यहाँ क्षेत्रपदसे नरकादिगतियोंका क्षेत्र, भवपदसे एक इन्द्रियादि पर्यायोंका, कालपदसे बसन्त, ग्रीष्म और वर्षा आदिका एवं पुद्गल पदसे ग्रंथ, ताम्बूल, वस्त्र, आभरण आदि पुद्गलोंका ग्रहण किया है।
उदीरणाके समग्र विवेचनके पश्चात् गाथाके उत्तरार्द्ध में उदयका कथन किया है। उदीरणाके मूल प्रकृति उदोरणा और उत्तरप्रकृति उदोरणा ये दो भेद किये गये हैं। उत्तरवर्ती टोकाकारोंने १७ अनुयोगनारोंका आश्रय लेकर उदीरणाओंका विस्तृत विवेचन किया है।
वेदक अधिकारकी दूसरी गाथाका दूसरा पाद है 'को व केय अणुभागे' अर्थात् कौन जीव किस अनुभागमें मिथ्यात्व आदि कर्मों का प्रवेशक है। गाथासूत्रके इस पादको व्याख्या चूर्णिसूत्रकार और टीकाकारोंने विस्तारपूर्वक की है।"
७. उपयोगाधिकार में जीवके क्रोध, मान, मायादिरूप परिणामोंको उपयोग कहा है। इस अधिकार में चारों कषायोंके उपयोगका वर्णन किया गया है। और बतलाया है कि एक जीवके एक कायका उदय कितने काल तक रहता है और किस गत्तिके जीवके कौन-सी कषाय बारबार उदयमें आती है। एक भवमें एक कषायका उदय कितने बार होता है और एक कषायका उदय कितने भवों तक रहता है। जितने जीय वर्तमान समयमें जिस कषायसे उपयुक्त हैं क्या वे उतने ही पहले उसी कवायसे उपयुक्त थे? और आगे भी क्या उपयुक्त रहेंगे? आदि कषायविषयक सासष्य बातोंका विवेचन इस अधिकारमें किया है।
८. चतुःस्थान अधिकार- वातियाकर्मों की फलदानशक्तिका विवरण लता, दारू, अस्थि और शेलरूप उपमा देकर किया गया है। इन्हें क्रमशः एक स्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थान भी कहा गया है।
इस प्रस्तुत अधिकारके नामकरणका कारण भी उक्त चार स्थानोंका रहना हो है। उपमाओं द्वारा क्रोधको पाषाणरेखाके समान, पृथ्वीरेखाके समान, बालुरेखाके समान और जलरेखाके समान बसाया है। जिस प्रकार जलमें खिंची हुई रेखा तुरंत मिट जाती है और बालू, पृथ्वी और पाषाणपर खिंची गई रेखाएँ उत्तरोत्तर अधिक समयमें मिटती है, उसी प्रकार हीनाधिक कालकी अपेक्षासे क्रोधके भी चार स्थान है। इसी क्रमसे मान, माया और लोभके भी चार-चार स्थानोंका निरूपण किया है। इसके अतिरिक्त चारों कषायोंके सोलह स्थानोंमेंसे कौन-सा स्थान किस स्थानसे अधिक होता है और कोन किससे हीन होता है, कोन स्थान सर्वघाती है, कोन स्थान देशघाती है? आदिका विचार किया गया है।
९. व्यजन अधिकार- व्यञ्जनका अर्थ पर्यायवाधी शब्द है। इस अधिकार में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों हो कषायोंके पर्यायवाचक शब्दोंका प्रतिपादन किया गया है। क्रोधके पर्याय रोष ,अक्षमा, कलह, विवाद आदि बतलाये हैं। मानके पर्याय, मान, मद, दर्प, स्तम्भ, परिभव तथा मायाके, माया, निकृति, वंचना, सातियोग और अनऋजुता आदि बतलाये गये हैं। लोभके पर्यायोंमें लोभ, राग, निदान, प्रेयस्, मळ आदि बतलाये गये हैं। इस प्रकार विभिन्न पर्यायवाची शब्दों द्वारा कषायविषयोंपर विचार-विमर्श किया गया है।
१०. दर्शनमोहोपशमनाधिकार-जिस कर्मके उदयमें आनेपर जीवको अपने स्वरूपका दर्शन- साक्षात्कार और यथार्थ प्रतीति न हो उसे दर्शनमोहकर्म कहते हैं। इस कर्मके परमाणुओंका एक अन्तर्मुहसके लिए अभाव करने या उपशान्त रूप अवस्थाके करनेको उपशम कहते हैं। इस दर्शनमोहके उपशमनकी अवस्था में जीवको अपने वास्तविक स्वरूपका एक अन्तमुहूर्तके लिए साक्षात्कार हो जाता है। इस साक्षात्कारकी स्थितिमें जो उसे आनन्द प्राप्त होता है वह अनिर्वच नीय है। दर्शनमोहके उपशमन करने वाले जीदके परिणाम कैसे होते हैं, उसके कौन सा योग होता, कौन-सा उपयोग रहता है। कौन-सी कषाय होती है और कौन-सी लेश्या, आदि बातोंका निरूपण करते हुए उन परिणाम विशेषोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है। दर्शनमोहके उपशमको चारों गतियोंके ही जीव कर सकते हैं, पर उन्हे संज्ञी, पन्चेन्द्रिय और पर्याप्तक होना चाहिए। इस अधिकारके अन्तमें प्रथमोपशम-सम्यक्त्वीके विशिष्ट कार्यों और अवस्थाओंका वर्णन भी आया है।
११. दर्शनमोक्षपणा अधिकार- दर्शनमोहकी उपशम अवस्था अन्त मुहूर्त तक ही रहती है। इसके पश्चात् वह समाप्त हो जाती है| और जीव पुनः आत्मदर्शनसे वंचित हो जाता है। आत्मसाक्षात्कार सर्वदा बना रहे, इसके लिए दर्शन मोहका क्षय आवश्यक है। इसके लिये जिन प्रमुख बातोंकी आवश्यकता होती है उन सबका विवेचन इस अधिकार में किया गया है। दर्शनमोहके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिमें उत्पन्न मनुष्य ही कर सकता है और इसकी पूर्णता चारों गतियों में की जा सकती है। दर्शनमोहके क्षपणका काल अन्तर्मुहूर्त है। इस क्षपर्णावयाके समाप्त होनेके पूर्व हो यदि उस मनुष्यको मृत्यु हो जाय तो वह अपनी आयुबन्धके अनुसार यथासंभव चारों ही गतियों में उत्पन्न हो सकता है। दर्शनमोहके क्षपणका प्रारम्भ करने वाला मनुष्य अधिक से अधिक तीन भव और धारण करके मुक्तिलाभ करता है। इस अधिकारमें दर्शनमोहक क्षपणकी प्रक्रिया और तत्सम्बन्धी साधन-सामग्रीका निरूपण किया गया है।
१२. संयमासंयमलब्धि अधिकार- आत्मस्वरूपका साक्षात्कार होते ही जीव मिथ्यास्वरूप पंकसे निकलकर निर्मल सरोवरमें स्नान कर आनन्दमें निमग्न हो जाता है। उसको विचारधारा सांसारिक विषयवासनासे दूर हो संयमासंयमकी प्राप्तिकी ओर अग्रसर होती है। शास्त्रीय परिभाषाके अनुसार अप्रत्याख्यानावरणकषायके उदयके अभावसे देशसंयमको प्राप्त करने वाले जीवके जो विशुद्ध परिणाम होते हैं उसे संयमासंयमलब्धि कहते हैं। इसके निमित्तसे जोव श्रावकके व्रतोंको धारण करने में समर्थ होता है। इस अधिकारमें संयमासंयमलब्धिके लिये आवश्यक साधन-सामग्रियोंका विस्तार पूर्वक कथन किया है।
१३. संयमलब्धि अधिकार- प्रत्याख्यानावरणकषायके अभाव होनेपर आत्मामें संयमलब्धि प्रकट होती है, जिसके द्वारा आत्माकी प्रवृत्ति हिंसादि पाँच पापोंसे दूर होकर अहिंसादि महाव्रतोंके धारण और पालनकी होती है। संयमासंयम अधिकारकी गाथा ही इस अधिकारको गाथा है। संयमके प्राप्त कर लेनेपर भी कषायके उदयानुसार जो परिणामोंका उतार-चढ़ाव होता है उसका प्ररूपण अल्पबहुत्त्व आदि भेदों द्वारा किया गया है। इस लब्धिका वर्णन चूणिसूत्रकारने अधःकरण और अपूर्वकरणके विवेचन द्वारा किया है, जो अध्यात्म प्रेमी उपशमसम्यक्त्वके साथ संघमासंयम धारण करते हैं उनके तीनों करण होते हैं, पर जो वेदकसम्यकदृष्टि संयमासंयमको धारण करते हैं उनके दो ही करण होते हैं। संयमको धारण करनेके लिये आवश्यक सामग्रीका भी कथन किया गया है।
१४. चारित्रमोहोपशमनाधिकार- इस अधिकारमें प्रथम आठ गाथाएँ आती हैं। पहली गाथाके द्वारा उपशमना कितने प्रकारकी होती है, किस-किस कर्मका उपशम होता है आदि प्रश्न किये गये हैं। दूसरी गाथाके द्वारा निरुद्ध चारित्रमोहप्रकृतिको स्थितिके कितने भागका उपशम करता है, कितने भागका संक्रमण करता है और कितने भागका उदीरणा करता है इत्यादि प्रश्नोंकी अव तारणा की गयी है। तीसरी गाथाके द्वारा चारित्रमोहनीयका उपशम कितने कालमें किया जाता है उसो उपशमित प्रकृतिको उदोरणा-संक्रमण कितने काल तक करता है इत्यादि प्रश्न किये गये हैं। चौथी गाथाके द्वारा आठ करणोंमेंसे उपशामकके कब, किस करणसे व्युछित्ति होती है या नहीं इत्यादि प्रश्नोंका अव तार किया गया है। इस प्रकार चार गाथाओंके द्वारा उपशामकके और शेष चार गाथाओंके द्वारा उपशामकके पतनके सम्बन्ध में प्रश्न किये गये हैं।
१५. चारित्रमोहक्षपणाधिकार- यह अन्तिम अधिकार बहुत विस्तृत है। इसमें चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयका वर्णन विस्तारसे किया है। यहां यह ध्यातव्य है कि चारित्रमोहनीयका क्षय अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करपके बिना संभव नहीं है। इस अधिकारमें २८ मूलगाथाएँ हैं ओर ८६ भाष्यगाथाएँ हैं। इस प्रकार कुल ११४ गाथाओंमें यह अधिकार व्याप्त है। इनमेंसे चार सूत्रमाथाएँ अधःप्रवृत्तिकरणके अन्तिम समयसे प्रतिबद्ध हैं। इनके आधारपर चूणिसूत्रों और जयधवलामें योग और कषायोंको उत्तरोत्तर विशद्धिका चित्रण किया गया है। आशय यह है कि चारित्रमोहनीयकर्मकी प्रकृतियोंका क्षय किस क्रमसे होता है और किस-किस प्रकृतिक क्षय होनेपर कहाँपर कितना स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व रहता है इत्यादि बातोंका वर्णन इस अधिकारमें आया है। ध्यान और कषायक्षयको प्रक्रिया भी इस अधिकारमें वर्णित है।
बायपावना को नीदर महावीरकी आरातीय परम्परासे प्राप्त हुआ है| वीरसेनाचार्य ने जयधवला-टीकामें लिखा है- "एदम्हादो विउलगिरिमत्ययस्थवड्डमाणदिवायरादो विणिग्यमिय गोदम लोहज्ज-जंबुसामियादि-आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहास रूवेण परिणामय" अर्यातविपुलाचलके शिखरपर विराजमान वर्धमान दिवाकरसे प्रकट होकर गौतम, लोहाचार्य, जम्बूस्वामी आदिकी आचार्यपरम्परासे आकर गुणधरको 'कम्मपडिपाहुड' का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने गाथारूपमें इस ज्ञान का प्रतिपादन किया | स्पष्ट है कि आचार्य गुणधरको केलियोंकी परम्परासे ज्ञान प्रास हुआ था| आचार्य गुणधर सूत्ररचनाशैलीके प्रकाण्ड विद्वान् हैं । धवला टीकामें आचार्य वीरसेनने उन्हें वाचक कहा है और वाचकका अर्थ पूर्वविद लिया है। अतएव इनकी रचना-प्रतिभा मंजुल अर्थको संक्षेपमें प्रस्तुत करनेकी थी। वस्तुतः आचार्य गुणधर 'कम्मपडिपाहुड' के ज्ञाता होनेके साथ ही अत्यन्त प्रतिभाशाली और विषविशेषज विद्वान थे। इनके कसायपाहुडकी प्रत्येक गाथाके एक-एक पदको लेकर एक-एक अधिकारका रचा जाना तथा तीन गाथाओंका पाँच अधिकारोंमें निबद्ध होना ही इनकी प्रतिभाकी गंभीरता और अनन्त अर्थगर्भित अभीव्यक्तीको सूचित करता है। वेदक अधिकारकी जो ज सकामेदिय' (गाथाङ्क ६२) गाथाके द्वारा चारों प्रकारके बन्ध, चारों प्रकारके संक्रमण, चारों प्रकारके उदय, चारों प्रकारकी उदीरणा और चारों प्रकारके सत्वसम्बन्धी अल्पबहुत्वकी सूचना निश्चयतः उसके गाम्भीर्य और अनन्तार्थभित्वकी साक्षी है। अर्थबहुलताकी दृष्टि से गुणधरकी शैली अत्यन्त गंभीर है। गुणधरके इस ग्रंथपर यदि चूर्णिसूत्र न लिखे जाते तो उनका अर्थ पश्चादवर्ती व्यक्ति योंके लिये दुर्बोध हो जाता।
आचार्य शिवशर्मके 'कम्मपयडि' और 'सतक' नामक दो ग्रंथ आज उपलब्ध हैं। इन दोनों ग्रंथोका उद्गम स्थान 'महाकम्मपडिपाहुड' है। 'कम्म पयडी के साथ जब हम गुणधरके 'कषायपाहुड' की तुलना करते हैं तो हमें इन दोनोंमें मौलिक अन्तर प्रतीत होता है। कम्मापयडिमें महाकम्मपडिपाहुडके चौबीस अनुयोगद्वारोंका समावेश नहीं है। किन्तु बन्धन, उदय और संक्रमणादि कुछ अनुयोगद्वार ही प्राप्त हैं। गुणधरने अपने 'कषायपाहुड' में समस्त 'पेज्जदोषपाहुड' का उपसंहार किया है। अतः यह स्पष्ट है कि 'कम्मपयडि की रचना शिवशर्मने गुणधरके पश्चात् ही की है। 'कम्मपयडि' और 'सतक’ इन दोनों ग्रंथोके अन्त में अपनी अल्पज्ञना प्रकट करते हुए शिवशर्मने दृष्टिवादके ज्ञाता आचार्यों से उसे शुद्ध कर लेनेकी प्रार्थना की है। वस्तुत: 'कम्मपयडि' एक संग्रह ग्रंथ है क्योंकि उसमें विभिन्न स्थानोंपर आई हुई प्राचीन गाथाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। कम्मपयडिकी चूणिमें उसके कर्ताने उसे 'कम्पयडिसंग्रहिणी' नाम दिया है। इसी प्रकार 'सतक' चुर्णीमें भी उसे संग्रह-ग्रन्थ कहा है। गुणधरकी यह रचना मौलिक है तथा कर्म-शिद्धान्तको बीजरूप में प्रस्तुत करती है।
कषायपाहुड कम्मपडिसे पूर्ववर्ती है। कम्मपर्याडके संक्रमकरणमें कषाय पाहुड़के संक्रमअर्थाअधिकारको १३ गाथाएँ साधारण पाठभेदके साथ अनुक्रमसे ज्यों-की-त्यों उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार कम्मपयडिके उपशमकरणमें कषाय पाहुडके दर्शनमोहोपशमना अर्थाधिकारकी चार गाथाएँ कुछ पाठभेदके साथ पायी जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर केवली और श्रुतकेवलियोंके अनन्सर पहले पूर्वविद हैं, जिन्होंने 'महाकम्मपयडिपाहुड' का संक्षेपमें उपसंहार किया। महान् अर्थको अल्पाक्षरोंमें निबद्ध करनेकी प्रतिभा उनमें विद्यमान थी। यही कारण है कि कसायपाहुडका उत्तरकालीन सभी वाङ्मयपर प्रभाव है।
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतघराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई० सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
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Shashank Shaha
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