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#AbhinandanSagarJiMaharaj1942DharmSagarji
Acharya Shri 108 Abhinandan Sagar Ji was born on 5 May 1942 in Sheshpur,Udaipur,Rajasthan.His name was Dhanraj in Planetary state.He received initiation from Acharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj.Total 32 Panchkalyanak happened in his contiguous.
श्री धनराजजी का जन्म शेषपुर ( सलुम्बर-उदयपुर)हुआ था। आपके पिताश्री अमरचन्दजी थे व माता रूपीबाई थी। आपकी जाति नरसिंहपुरा व गोत्र बोसा था । आपके तीन भाई व तीन बहिनें थी । आजीविका चलाने के लिए पान की दुकान थी। आप बाल ब्रह्मचारी थे । आपकी लौकिक शिक्षा कक्षा ८ वीं तक ही हुई किन्तु धार्मिक शिक्षा काफी है। ।
आपने सत्संगति ब उपदेशों के कारण वैराग्य लेने की सोची। संवत् २०२३ में मुनि श्री वर्धमानसागरजी से क्षुल्लक दीक्षा ले ली। फिर धर्म प्रचार करने के बाद सं० २०२५ में आपने आ० श्री शिवसागरजी से ऐलक दीक्षा ले ली। दीक्षा लेने के बाद आपने कई ग्रामों में भ्रमण करके धर्मोपदेश दिया । अन्त में सं० २०२५ में कार्तिक शुक्ला अष्टमी को मुनि श्री धर्मसागर जी से मुनि दीक्षा ले ली। आपने प्रतापगढ़, घाटोल, नठव्वा, गांमड़ी, दिल्ली, मुजफ्फरनगर, दाताय, श्रवणबेलगोला, आदि स्थानों में चातुर्मास किये।
आपने तेल, नमक, दही आदि का त्याग कर रखा है । आपने अपनी अल्प अवस्था में ही देश व समाज को काफी धर्मामृत का पान कराया है।
२३ वर्ष की आयु, सौम्य शान्त मुद्रा, ऐसी अवस्था में नग्न व्रत धारण कर उन्होंने तपोबल द्वारा मुनि धर्म का कठोरता से पालन किया ब अपनी दिनचर्या का अधिकांश समय जैनागम के अध्ययन, अध्यापन में व्यतीत करते हैं। भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव पर उन्होंने दिल्ली के विभिन्न स्थानों पर प्रवचन करके बड़ी जागृति की है।
श्रुतज्ञान का अचिन्त्य महात्म्य है । श्री जिनेन्द्र देव ने जिसे निरूपण किया है । अर्थ और
रुप से जिसकी अंग पूर्व रूप रचना गणधर देवों ने की है । जिस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं अंग पूर्व और अंग बाह्य । द्रव्य श्रुतज्ञान और भाव श्रुतज्ञान के भेद से श्रुतज्ञान के अनेक भेद हैं ।
दिगम्बर जैन साधु भगवान की वाणी औषधि के समान है, जो जन्म मरण रूपी रोगों को हरती है। जो विषय रूपी रोग का विवेचन करती है। और समस्त दु:खों का नाश करने वाली है, जो उस वाणी
अध्ययन करते हैं, वे निर्मल तप करके केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं। मुनिराज की ज्ञानोपयोग की प्रवृत्ति प्रशंसनीय है।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज का व्यक्तित्व अत्यन्त सामान्य, उदार, भोला होने के साथ ही चर्या के प्रति हता, सिद्धान्तों के प्रति निर्भीकता और धर्म के प्रति अहर्निश समर्पण से भरा-पूरा है। ऐसे आचार्य महाराज का जन्म राजस्थान प्रान्त में उदयपुर जिले के पूर्व में सलुम्बर तहसील से ईशान दिशा में 13 किमी. दूर "शेषपुर" नाम के गाँव में प्रथम दीपंचमी, दिन-मंगलवार, संवत् 1999 को हुआ । तदनुसार 5 मई 1942 को आचार्य महाराज का जन्म माँ श्रीमती रूपीबाई और पिता श्री अमरचंद जी के आंगन में हुआ। तभी अपार वर्ष- आनंद की अनुभूतिपूर्वक माता-पिता ने नवजात बालक की उज्ज्वलता को देखते हुए उसका नाम "धनराज रखा। संस्कार-आरंभ से ही धनराज को माँ अपने साथ जिनेन्द्र भगवान के दर्शन हेतु मंदिर ले जाती थी और बचपन से ही कभी भी धनराज ने अपनी माँ को किसी भी धार्मिक क्रिया में बाधा उत्पन्न नहीं करके अपितु हर्षपूर्वक उस माँ का सहयोग ही किया। अर्थात् बचपन से हो धनराज के जीवन में धर्म के संस्कारों ने महत्वपूर्ण स्थान लिया और धनराज की अभिरुचि भी स्वतः ही धर्म के प्रति निष्ठावान बनती गई
इसी श्रृंखला में धनराज जब मात्र 6 वर्ष के थे, तभी अपनी बाल सखा वेणीचंद्र, बृजलाल आदि के साथ 3 किमी. दूर "झल्लारा" में पैदल ही जैन पाठशाला जाते थे, जहाँ केशरिया जी वाले मोतीलाल जी मार्तण्ड एवं कुरावड़ के मोहनलाल जी पालीवाल सभी शिष्यों को अध्यापन कराते थे। धनराज ने भी 2 वर्ष तक झल्लारा में जैनधर्म का अध्ययन किया।धनराज करावली में अपनी दो बहनें रतनबाई और मेवाबाई के यहाँ भी छोटी अवस्था से ही जाते थे और वहाँ भी पं. छगनलाल जी राठोड़ा वाले पाठशाला चलाते थे, जिसमें धनराज उत्साह के साथ धर्म अध्ययन करते
लौकिक शिक्षा के क्रम में भी आपने शेषपुर एवं झल्लारा में प्रारंभिक पाँचवीं कक्षा तक अध्ययन किया और आगे की पढ़ाई हेतु 13 किमी. दूर सलुम्बर में जाकर एक किराये का कमरा लेकर आठवीं कक्षा तक अध्ययन किया। इस प्रकार सलुम्बर पहुँचकर भी आपने सदैव ही नित्य देव-दर्शन, णमोकार मंत्र का जाप्य, भक्तामर पाठ आदि का वाचन आदि संस्कारों को प्राप्त किया और धर्म के प्रति सदैव ही आपका श्रद्धान एवं समर्पण बना रहा। आपके हृदय में पापभीरुता एवं जिनेन्द्र भगवान के प्रति अकाट्य श्रद्धान रहा, जिसको आइये एक उदाहरण के माध्यम से जानते हैं।जब एक बार शेषपुर में छुट्टी के दिन धनराज और उनके सखा वेणीचंद भगवान का अभिषेक कर रहे थे, तभी गलती से धनराज के द्वारा प्रक्षालन करने में युक्त पद्मावती माता की प्रतिमा गिरकर कुछ खंडित हो गयी, जिसका धनराज को अत्यन्त पश्चाताप हुआ और आँखों से अश्रुपात होने लगा, तभी उन्होंने अपने मित्र व परिवारजन के साथ सलाह करके पण्डित चाँदमल जी को बुलाया और शांति विधान तथा मंत्रजाप्य करके प्रतिमा को जल में विसर्जित करा दिया। इसके बाद पण्डित जी व सभी परिवारजन केशरिया जी में भट्टारक यशकीर्ति जी के पास गये, जहाँ भट्टारक जी ने पुनः नवीन प्रतिमा विराजमान करने की सलाह दी एवं प्रायश्चित्त हेतु शांति मंत्र आदि दिया, जिसको धनराज ने पूर्ण विशुद्धि एवं ईमानदारी के साथ पूर्ण भी किया ।
सलुम्बर में पढ़ाई पूर्ण होने के उपरांत जब धनराज को ज्ञात हुआ कि झल्लारा में आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के शिष्य मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति जी महाराज आए हुए हैं, तो वे पैदल ही शेषपुर से अपने साथियों के साथ झल्लारा चले गये। मन में मुनि का दर्शन करके उनका आशीर्वाद पाने की विशेष उत्कंठा व्याप्त थी, लेकिन जब वहाँ पहुँचे, तो देखा महाराज जी उन्हीं को आशीर्वाद दे रहे हैं, जिन्होंने कोई मोटा धागा (जनेऊ) धारण किया हुआ है। फिर क्या था, धनराज को अपनी उत्कंठा तो पूर्ण करना ही था अतः उसने कहीं से मोटा धागा ढूंढ ही लिया और गले में डालकर मुनिराज के दर्शन और उनका आशीर्वाद तृप्ति के साथ प्राप्त किया। इस प्रकार युक्ति के साथ धनराज ने मुनि दर्शन के साथ उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास सफल कर लिया।
इसके साथ ही शेषपुर में भी जब क्षुल्लक श्री धर्मसागर जी महाराज (कुरावड़ वाले) पहुँचे, तो प्रतिदिन उनकी वैयावृत्ति, आहार, विहार आदि चर्या में रुचिपूर्वक हिस्सा लेना धनराज की विशेषता बन चुकी थी ।
विशेषता यह है कि धनराज जब आठवीं कक्षा में पढ़ाई करते थे, तभी से उन्होंने विभिन्न नियमों को अपने जीवन में अंगीकार करना शुरू कर दिया था। यथा उन्होंने छोटी उम्र में ही रात्रि भोजन त्याग, आलू-प्याज का त्याग, होटल में भोजन का त्याग तथा इसके साथ ही दशलक्षण पर्व व अष्टमी- चतुर्दशी आदि के अवसर पर आहार-अंतराय का पालन करते हुए एकाशन-उपवास करना आदि प्रारंभ कर दिया था।
एक बार जब धनराज एकाशन व्रत के दिन भोजन करने बैठे, तो उनकी पहली ग्रास में ही एक बड़ा बाल आ गया। माँ 'जब देखा, तो घबरा गई, उसने सोचा कि अब धनराज अंतराय कर देगा। तुरंत ही माँ ने बेटे को समझाना शुरू कर दिया और अपनी ममता के वशीभूत होकर उसको कहा कि बेटा इस पूरी थाली को तू छोड़ दे, मैं तेरे लिए दूसरी थाली लगा देती हूँ। जब धनराज ने देखा कि यदि मैंने अंतराय कर दिया, तो माँ अत्यन्त दुःखी हो जायेगी और इसकी ममता व करुणा को बहुत ठेस पहुँचेगी, अतः उन्होंने माँ की ममता का सम्मान करके, माँ की बात स्वीकार कर ली और दूसरी थाली में भोजन किया। यह धनराज के मन में मातृत्व के प्रति सम्मान का एक अनूठा एवं विवेकशील उदाहरण सभी के लिए अनुकरणीय है।
धनराज आठवीं तक सलुम्बर में लौकिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत अपने बड़े भाई हीरालाल के पास अकोला (महा.) में चले गये। वहाँ भाई के साथ उनकी पान की दुकान पर हाथ बटाने लगे। लेकिन यहाँ भी स्वयं अपने हाथों से भोजन बनाना और नियम व्रतों का पूर्ण पालन करना, धनराज की यह चर्या जारी रही। इसी मध्य धनराज के मन में मांगीतुंगी व मुक्तागिरी आदि तीर्थों की यात्रा का विचार आया और जब धनराज मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र का दर्शन कर मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पहुँचे, तो वहाँ पर उन्हें एक मुनि संघ का दर्शन हुआ। बस, यहाँ से धनराज की वैराग्यमयी कहानी का शुभारंभ हुआ। मुनिराज ने धनराज को वैराग्य का उपदेश दिया तब तत्क्षण ही धनराज ने व्यवसाय तक को भी छोड़ने का मन बना लिया और मन ही मन में ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया। इस प्रकार बहुत ही धार्मिक संस्कारों एवं संसार की असारता का चिंतन करते हुए पुनः आगे बड़वानी, अंदेश्वर आदि तीर्थक्षेत्रों का दर्शन करके धनराज शेषपुर में आ गये।
अप्रैल सन् 1966 में मुंगाणा (राज.) में 21 अप्रैल से 27 अप्रैल तक भगवान आदिनाथ जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन हुआ, जिसमें मुनि श्री वर्धमानसागर जी महाराज का सान्निध्य प्राप्त हुआ। यह समाचार जानकर धनराज भी शेषपुर से मुंगाणा के लिए प्रस्थान करने लगे। तब माँ ने उन्हें नई धोती-कमीज पहनने को दी और वे माँ की ममता और उनका आशीर्वाद समेटे घर से मुंगाणा प्रतिष्ठा महोत्सव में चले गये। यह बात कौन जानता था कि माँ ने अपने लाल को अंतिम बार नये वस्त्र पहनने को दिये थे। माँ की आँखों में तो वह लाल तारों की तरह ही टिमटिमा रहा था और सतत माँ अपने बेटे के लौटने का इंतजार कर रही थी। लेकिन धनराज तो गृहत्याग कर संसार समस्त बंधनों से मुक्त हो गये थे।
इधर विवाह की तैयारी उधर क्षुल्लक दीक्षा- धनराज के हृदय पटल में तो संसार की असारता के बीज अंकुरित हो चुके थे और ज्यों ही धनराज मुंगाणा के प्रतिष्ठा महोत्सव में पहुँचे, त्यों ही उन्होंने आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी के शिष्य मुनि श्री वर्धमानसागर जी महाराज से दीक्षा लेने की भावना अभिव्यक्त कर दी। मुनि श्री ने भी एक ही नजर में इस बालक का वैराग्यमन पढ़ लिया और कहा कि कल दीक्षाकल्याणक है, मैं तुम्हें दीक्षा दे दूँगा। बस, इधर समाज में धनराज की दीक्षा का महोत्सव शुरू हो गया और ठाट-बाट के साथ हाथी पर धनराज की बिनौरी निकाली गयी। देखते ही देखते दूसरा दिन आ गया और वैशाख शुक्ला पंचमी, दिन- सोमवार, सम्वत् 2022, तदनुसार दिनाँक 25 अप्रैल 1966 को धनराज की मध्यान्ह 1 बजे हजारों भक्तों की भीड़ के मध्य मुनि श्री के करकमलों से जैनेश्वरी "क्षुल्लक दीक्षा" सम्पन्न हुई और दीक्षार्थी धनराज के नये नाम
अप्रैल सन् 1966 में मुंगाणा (राज.) में 21 अप्रैल से 27 अप्रैल तक भगवान आदिनाथ जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन हुआ, जिसमें मुनि श्री वर्धमानसागर जी महाराज का सान्निध्य प्राप्त हुआ। यह समाचार जानकर धनराज भी शेषपुर से मुंगाणा के लिए प्रस्थान करने लगे। तब माँ ने उन्हें नई धोती-कमीज पहनने को दी और वे माँ की ममता और उनका आशीर्वाद समेटे घर से मुंगाणा प्रतिष्ठा महोत्सव में चले गये। यह बात कौन जानता था कि माँ ने अपने लाल को अंतिम बार नये वस्त्र पहनने को दिये थे। माँ की आँखों में तो वह लाल तारों की तरह ही टिमटिमा रहा था और सतत माँ अपने बेटे के लौटने का इंतजार कर रही थी। लेकिन धनराज तो गृहत्याग कर संसार समस्त बंधनों से मुक्त हो गये थे।
इधर विवाह की तैयारी उधर क्षुल्लक दीक्षा- धनराज के हृदय पटल में तो संसार की असारता के बीज अंकुरित हो चुके थे और ज्यों ही धनराज मुंगाणा के प्रतिष्ठा महोत्सव में पहुँचे, त्यों ही उन्होंने आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी के शिष्य मुनि श्री वर्धमानसागर जी महाराज से दीक्षा लेने की भावना अभिव्यक्त कर दी। मुनि श्री ने भी एक ही नजर में इस बालक का वैराग्यमन पढ़ लिया और कहा कि कल दीक्षाकल्याणक है, मैं तुम्हें दीक्षा दे दूँगा। बस, इधर समाज में धनराज की दीक्षा का महोत्सव शुरू हो गया और ठाट-बाट के साथ हाथी पर धनराज की बिनौरी निकाली गयी। देखते ही देखते दूसरा दिन आ गया और वैशाख शुक्ला पंचमी, दिन- सोमवार, सम्वत् 2022, तदनुसार दिनाँक 25 अप्रैल 1966 को धनराज की मध्यान्ह 1 बजे हजारों भक्तों की भीड़ के मध्य मुनि श्री के करकमलों से जैनेश्वरी "क्षुल्लक दीक्षा" सम्पन्न हुई और दीक्षार्थी धनराज के नये नाम "क्षुल्लक ऋषभकीर्ति" की समूचे पाण्डाल में जय-जयकार गूंज उठी।
सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि धनराज की दीक्षा हो गई, लेकिन दीक्षा का समाचार भी शेषपुरवासियों अर्थात् गृहस्थ माता-पिता आदि परिवारजनों को नहीं प्राप्त हुआ, वे तो धनराज के विवाह की तैयारियाँ कर रहे थे, क्योंकि धनराज का विवाह नयागाँव (तह - सलुम्बर) में तय भी हो चुका था। लेकिन जब ऐसी परिस्थितियों में धनराज की दीक्षा का जैसे ही समाचार प्राप्त हुआ, मानो परिवारजनों पर तो वज्रपात ही हो गया। दीक्षा का सुनते ही धनराज के बड़े भाई हीरालाल मुंगाणा आए और उन्होंने दीक्षा का विरोध किया। लेकिन सन्मार्ग में कोई कितना विरोधी बन सकता है, बस मन को ही शाँत कर हीरालाल अपनी आँखों के आँसू आँखों में ही यूँ सुखाकर पुनः लौट आये। इधर वधुपक्ष ने भी निराश होकरउस कन्या का अन्यत्र विवाह कर दिया।
अब क्षुल्लक ऋषभकीर्ति जी अपनी चर्याओं का पालन करते हुए मोक्षमार्ग में अग्रसर थे और उन्होंने अपना प्रथम चातुर्मास निठाऊआ गामडी में किया। पश्चात् सन् 1967 का द्वितीय चातुर्मास घाटोल में सम्पन्न किया। इसके बाद जब क्षुल्लक जी का विहार करावली गाँव में हुआ, जहाँ पर आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज का 40 पिच्छियों सहित विशाल संघ आया हुआ था। चूँकि करावली क्षुल्लक ऋषभकीर्ति जी की दो बहनों की नगरी थी, जहाँ वे बचपन से ही आया-जाया करते थे, अतः इस क्षुल्लक वेष में उनका स्वागत पूरे नगर में भव्यता के साथ किया। इस बात की जानकारी आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज को भी प्राप्त हुई और आचार्यश्री के संघस्थ आचार्यकल्प मुनि श्री श्रुतसागर जी महाराज ने क्षुल्लक ऋषभकीर्ति जी की प्रतिभा और चर्या को देखते हुए उन्हें संघ में रहने के लिए प्रेरित किया और क्षुल्लक ऋषभकीर्ति जी ने सहर्ष उनके वात्सल्य को स्वीकार करते हुए आचार्य संघ में प्रवेश कर लिया।
इसके पश्चात् जब संघ का विहार बांसवाड़ा में हुआ और आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज के करकमलों से क्षुल्लक ऋषभकीर्ति जी की ऐलक दीक्षा हुई और उनका नाम ऐलक अभिनंदनसागर रखा गया। ये शिवसागर जी महाराज बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की पट्ट परम्परा में प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से दीक्षित उनके शिष्य थे, जो इस परम्परा के द्वितीय पट्टाचार्य हुए हैं।
सन् 1969 में फाल्गनु कृ. अमावस्या के दिन महावीर जी (राज.) में आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज की एक-दो दिन की बीमारी से अचानक समाधि हो गई। तभी उनके आचार्य पट्ट पर सर्वसम्मति के साथ फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को मुनि श्री धर्मसागर जी महाराज को तृतीय पट्टाचार्य घोषित किया गया। इस आचार्य पदारोहण की क्रिया सम्पन्न होते ही महावीर जी में आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के करकमलों द्वारा 11 भव्य आत्माओं को जैनेश्वरी दीक्षा प्राप्त हुई। उसी में ऐलक अभिनंदनसागर जी महाराज ने भी फाल्गुन शुक्ला अष्टमी, 24 फरवरी सन् 1969 को महावीर जी (राज.) में
मुनिदीक्षा ग्रहण कर "मुनि श्री अभिनंदनसागर" यह नाम प्राप्त किया था। आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज का यह अनूठा उदाहरण है, जब किसी मुनि ने पट्टाचार्य पद पर आसीन होते ही इतनी भव्य जैनेश्वरी दीक्षाएँ प्रदान की हों।
पश्चात् संघ का प्रथम चातुर्मास सन् 1969 में जयपुर (राज.) में हुआ, जिसमें मुनि श्री अभिनंदनसागर जी मुनि श्री संभवसागर जी आदि सहित सम्पूर्ण साधु-संघ ने गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से जैनागम का अध्ययन करके वर्षायोग को सार्थक किया।
पाड़वा (राज.) में सन् 1988 में 14 अप्रैल से 21 अप्रैल तक समाज द्वारा भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन किया गया। इस प्रतिष्ठा महोत्सव में मुनि श्री अभिनंदनसागर जी महाराज का सान्निध्य प्राप्त हुआ। प्रतिष्ठा महोत्सव का निर्देशन प्रतिष्ठाचार्य पं. मोतीलाल जी मार्तण्ड कर रहे थे। तभी प्रतिष्ठा महोत्सव के मध्य ही सकल समाज ने मुनि श्री अभिनंदनसागर जी महाराज को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठापित करने का विचार किया, जिसकी संघस्थ साधुओं ने भी अनुशंसा कर दी। लेकिन मुनि श्री के मना कर देने पर समस्त समाज के लोग इस परम्परा के चतुर्थ पट्टाचार्य आचार्यश्री अजितसागर जी महाराज के समीप भीण्डर (राज.) गये और उनसे आज्ञा व आदेश लेकर आ गये। अब मुनिश्री गुरु आज्ञा के उपरांत उपाध्याय पद के लिए मना न कर सके और समस्त समाज की ओर से प्रतिष्ठाचार्य पं. मोतीलाल मार्तण्ड ने प्रतिष्ठा महोत्सव के मध्य केवलज्ञानकल्याणक के अवसर पर दिनाँक 20 अप्रैल 1988 को मुनि श्री अभिनंदनसागर जी महाराज को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठापित करके हर्ष उल्लास की अनुभूति की I
बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की पट्ट परम्परा में पंचम पट्टाचार्य श्री श्रेयांससागर जी महाराज की मार्च 1992 में बांसवाड़ा (राज.) में समाथि होने के उपरांत उस समय संघ के सबसे वरिष्ठ ब्रह्मचारी ब्र. सूरजमल जी परम्परा और संघ से जुड़े अनेक साधुओं के पास गये और आगामी आचार्य पट्ट के लिए सलाह की और सभी साधुओं द्वारा आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज को इस परम्परा का पट्टाचार्य बनाने की स्वीकृति प्राप्त हुई। तभी 8 मार्च 1992 को शुभ मुहूर्त में 42 पिच्छीधारी साधु-साध्वियों एवं जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के शिष्य ब्र. रवीन्द्र कुमार जी (वर्तमान पीठाधीश स्वस्ति श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी) व ब्र. सूरजमल जी आदि त्यागीवृतियों की उपस्थिति में उपाध्याय श्री अभिनंदनसागर जी महाराज को इस परम्परा का छठा पट्टाचार्य घोषित किया गया। तभी से लेकर आज तक इस परम्परा का उन्नयन आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज कुशलता के साथ कर रहे हैं। इस आचार्य पदारोहण समारोह में हजारों की संख्या में श्रद्धालु भक्तों ने पधारकर जय- जयकार के साथ अपनी अनुमोदना भी प्रस्तुत की थी।
आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज के हृदय में जहाँ करुणा और जीवदया की भावनाएँ सदा व्याप्त रहीं, वहीं उन्होंने समाज में हमेशा सामंजस्य की नीति से भक्तों को और समाज को जोड़ने का कार्य किया। आइये प्रस्तुत है इस सामंजस्य की नीति के कुछ उदाहरण-
(1) सन् 1970 में आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज का ससंघ पदार्पण टोंक (राज.) में हुआ। अभी वर्षायोग में तीन माह बाकी थे अतः उनके संघस्थ शिष्य मुनि श्री अभिनंदनसागर जी महाराज ने आस-पास के गाँव में विहार किया और जब वे उनियारा गाँव में पहुँचे, तो समाज का एक विवाद उनके समक्ष प्रस्तुत हुआ । यहाँ खण्डेलवाल जैन और अग्रवाल जैन समाज में मंदिर को लेकर कई दिनों से विवाद चल रहा था। इस पर मुनि श्री ने अपने अनुभव, तर्क और व्यवहार कौशल से दोनों ही पक्ष को समझाकर विवाद को समाप्त करवा दिया और समझौता करके खण्डेलवाल समाज के अधिकार में मंदिर और अग्रवाल समाज के अधिकार में नशिया जी दिलवा दी। इस प्रकार जहाँ विवाद के कारण कोर्ट जाने की तैयारी चल रही थी, वहीं मुनि श्री के प्रयास से सामंजस्य स्थापित हो गया और दोनों समाज में और आस-पास के क्षेत्र में प्रसन्नता का माहौल व्याप्त हो गया।
(2) सन् 1988 की बात है, शेषपुर (राजस्थान) की जैन समाज छोटी होने के कारण अनेक प्रयासों के बाद आचार्य महाराज (तत्कालीन उपाध्याय पदस्थ) का वर्षायोग नहीं करा पा रही थी अतः शेषपुर और समीप में स्थित धौलागिर खेड़ा की जैन समाज ने मिल करके सन् 1988 में आचार्य महाराज को वर्षायोग के लिए निवेदन किया अतः महाराज जी ने इस निवेदन को स्वीकार करके शेषपुर में वर्षायोग की स्थापना की और दशलक्षण पर्व तक वे शेषपुर में रहे पश्चात् वर्षायोग के शेष समय में वे धौलागिर खेड़ा पहुँच गये। इस प्रकार दोनों गाँव में 30-30 जैन परिवार की समाज थी अतः शेषपुर निवासी और 2 किमी. दूर स्थित धौलागिर खेड़ा के निवासी, दोनों ने ही वर्षायोग का पूरा लाभ उठाया और सभी की भावनाएँ सफल हुईं।
(3) आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के पट्ट परम्परा मेंआचार्य श्री अजितसागर जी महाराज की समाधि के उपरांत पट्टाचार्य को लेकर एक विवाद की स्थिति उत्पन्न हुई, जिसमें गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी सहित लगभग 90 पिच्छीधारी साधु-साध्वियों की स्वीकृतिपूर्वक लोहारिया (राज.) में अगले पट्टाचार्य पद पर श्री पट्टाचार्य के कारण समाज के मध्य कुछ असमंजस्य और विवाद की स्थिति बनी हुई थी। आगे चलकर आचार्यश्री श्रेयांससागर जी महाराज की समाधि जी महाराज को आचार्य श्री श्रेयांससागर जी महाराज का पट्ट प्रदान के उपरांत 8 मार्च 1992 के शुभ मुहूर्त में उपाध्याय श्री अभिनंदनसागर किया गया। अब पुनः समाज मे इस बात का असमंजस्य था कि आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज और आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज में किसको बड़ा माना जाये ? इसी के साथ सभी की भावना सामंजस्य की भी थी कि किसी तरह से यह विवाद की स्थिति मध्यस्थ रूप में आ जाये।
इसी समय में आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज संघ सहित गारियावास में विराजमान थे तथा आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज भीण्डर में विराजमान थे। अतः समाज के कुछ वरिष्ठ लोगों ने दोनों आचार्यों से चर्चा करके विवाद के समझौते के लिए एक कमेटी का गठन किया, तब आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज ने सहज ही सौहार्द्र भाव के साथ समझौते के लिए कदम बढ़ाया और कमेटी द्वारा दोनों आचार्यों का एक स्थान पर मिलन कराने की बात सुनिश्चित हुई। मिलन का स्थान अडिदा पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र तय किया गया अतः आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज उदयपुर से अडिदा पहुँचे और आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज भीण्डर से अडिदा पहुँचे।
इस समझौते के अवसर पर हस्तिनापुर से कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी (वर्तमान पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी) और धरियावद से हसमुख जैसे विद्वान भी सम्मिलित थे तथा दोनों आचार्यों के मिलन की इस विशेष खबर को सुनकर लगभग 300 श्रावकजन वहाँ एकत्रित हो गये। यह दिन था 14 मार्च 1997 का मिलन की घड़ी में दोनों ही आचार्य जैसे ही आमने-सामने आए तो चहुँओर से जय-जयकार के नारे होने लगे तथा दोनों ही आचार्यों ने भी मंद-मंद मुस्कान के साथ प्रसन्न मुद्रा में एक-दूसरे का अभिवादन करते हुए गले मिलकर समाज के मध्य वात्सल्य और सौहार्द्र का वातावरण प्रस्तुत किया।
Additional Information
Sant Suman Maalika
Samta-Mamta Ka Yudh
Suljhe pashu
Digamber Charya
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
#AbhinandanSagarJiMaharaj1942DharmSagarji
Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
आचार्य श्री १०८ अभिनन्दन सागरजी महाराज
आचार्य श्री १०८ धर्म सागरजी महाराज १९१४ Acharya Shri 108 Dharm Sagarji Maharaj 1914
Total-50 Chaturmas
Pratapgarh, Ghatol, Nathavwa, Gambadi, Delhi, Muzaffarnagar, Daitya, Shravanbelgola
1.Acharya Shri 108 Anekant Sagar ji Maharaj
2.Acharya Shri 108 Adarsh Sagarji Maharaj
3.Acharya Shri 108 Nirbhay Sagar Ji Maharaj
4.Acharya Shri 108 Udaar Sagar Ji Maharaj
5.Acharya Shri 108 Anubhav Sagar Ji Maharaj 1980
6.Acharya Shri 108 Aditya Sagar Ji Maharaj 1970
1.Muni shri Anukampa Sagar Ji Maharaj
2.Muni Shri Aagya Sagar Ji Maharaj
1. Aryika shri Abhedmati Mata Ji
2.Aryika Shri Ajitmati Mata Ji
3.Aryika Shri Chaityamati Mata Ji
4.Aryika Shri Saharshmati Mata Ji
5.Aryika Shri Prashastmati Mata Ji
6.Aryika Shri Prasannmati Mata Ji
DharmSagarJiMaharaj1914
Acharya Shri 108 Abhinandan Sagar Ji was born on 5 May 1942 in Sheshpur,Udaipur,Rajasthan.His name was Dhanraj in Planetary state.He received initiation from Acharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj.Total 32 Panchkalyanak happened in his contiguous.
1.Acharya Shri 108 Anekant Sagar ji Maharaj
2.Acharya Shri 108 Adarsh Sagarji Maharaj
3.Acharya Shri 108 Nirbhay Sagar Ji Maharaj
4.Acharya Shri 108 Udaar Sagar Ji Maharaj
5.Acharya Shri 108 Anubhav Sagar Ji Maharaj 1980
6.Acharya Shri 108 Aditya Sagar Ji Maharaj 1970
1.Muni shri Anukampa Sagar Ji Maharaj
2.Muni Shri Aagya Sagar Ji Maharaj
1. Aryika shri Abhedmati Mata Ji
2.Aryika Shri Ajitmati Mata Ji
3.Aryika Shri Chaityamati Mata Ji
4.Aryika Shri Saharshmati Mata Ji
5.Aryika Shri Prashastmati Mata Ji
6.Aryika Shri Prasannmati Mata Ji
Additional Information
Sant Suman Maalika
Samta-Mamta Ka Yudh
Suljhe pashu
Digamber Charya
Acharya Shri 108 Abhinandan Sagarji Maharaj
आचार्य श्री १०८ धर्म सागरजी महाराज १९१४ Acharya Shri 108 Dharm Sagarji Maharaj 1914
आचार्य श्री १०८ धर्म सागरजी महाराज १९१४ Acharya Shri 108 Dharm Sagarji Maharaj 1914
Total-50 Chaturmas
Pratapgarh, Ghatol, Nathavwa, Gambadi, Delhi, Muzaffarnagar, Daitya, Shravanbelgola
Acharya Shri 108 Abhinandan Sagar Ji Maharaj
#AbhinandanSagarJiMaharaj1942DharmSagarji
DharmSagarJiMaharaj1914
#AbhinandanSagarJiMaharaj1942DharmSagarji
AbhinandanSagarJiMaharaj1942DharmSagarji
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