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#AcharyaShriJaisenSwami
Acharya Shri 108 Jaisen Swami was a twelfth century Digambara Jain Acharya who wrote Tattparyavritti (or the Purport), a commentary on Acharya Kundakunda's Pravachanasara.
श्री कुंदकुंददेव के समयसार आदि ग्रंथों के द्वितीय टीकाकार श्री जयसेनाचार्य भी एक प्रसिद्ध आचार्य हैं। इन्होंने समयसार की टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि के नाम का भी उल्लेख किया है और उनकी टीका के कई एक कलशकाव्यों को भी यथास्थान उद्धृकृत किया है अत: यह पूर्णतया निश्चित है कि श्री जयसेनाचार्य के सामने श्री अमृतचन्द्रसूरि की आत्मख्याति टीका आदि टीकायें विद्यमान थीं फिर भी शैली और अर्थ की दृष्टि से इनकी तात्पर्यवृत्ति टीकायें श्रीअमृतचन्द्रसूरि की अपेक्षा भिन्न हैं।
आचार्य श्री जयसेनस्वामी श्री अमृतचन्द्रसूरि के समान कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के टीकाकार हुए हैं। समयसार की टीका में इन्होंने अमृतचन्द्र के नाम का उल्लेख किया है इससे यह ज्ञात होता है कि जयसेन स्वामी ने अमृतचन्द्रसूरि की टीका का आधार लेकर ही किया है।
जयसेनाचार्य ने कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय इन तीनों ग्रन्थों पर अपनी टीकाएँ लिखी हैं। इन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र सूरि की टीका से भिन्न शैली में अपनी टीकाएं लिखी हैं। इनकी टीकाओं की विशेषता यह है कि प्रत्येक गाथा के पदों का शब्दार्थ पहले स्पष्ट करते हैं, उसके पश्चात् अयमत्राभिप्राय: लिखकर उसका विशेष अर्थ खोलते हैं। सभी ग्रन्थों में इन्होंने अपनी टीका का नाम तात्पर्यवृत्ति रखा है। अमृतचन्द्र जी के क्लिष्ट शब्दों को ही सरल शब्दों में बतलाना इनका प्रमुख लक्ष्य रहा है। कहीं पर भी अमृतचन्द्र जी के विपरीत इनका अर्थ नहीं देखने में आता है। यह आज के मन्दबुद्धि शिष्या के लिए अनुकरणीय आदर्श है कि पूर्वाचार्यों के शब्दों में निजी स्वार्थवश तोड़-मरोड़ करना एक नैतिक अपराध भी है और नरक निगोद का द्वार तो खुल ही जाता है।
भगवान कुन्दकुन्द के भावों को नय शैली में और गुणस्थानों में खोलना जयसेन जी की प्रमुख विशेषता रही है। कोई भी प्राणी समयसार जैसे ग्रन्थों को पढ़कर बहक न जाए इसके लिए जयसेनाचार्य की टीका पढ़ना अति आवश्यक है। इन्होंने अपनी टीका में अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी दिए हैं जो कि पूर्वाचार्यों के प्रति उनकी श्रद्धा, आस्था और अध्ययनशीलता का परिचायक है।
समयसार में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने जहाँ ४१५ गाथाओं पर आत्मख्याति टीका लिखी है, वहाँ जयसेनाचार्य ने ४४५ गाथाओं पर तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है। ये टीका करने से पूर्व प्रत्येक अधिकार की भूमिका में गाथाओं की संख्या खोल देते हैं जैसे कि प्रवचनसार के प्रारम्भ में ही इन्होंने बताया है कि मध्यम रुचि वाले शिष्यों को समझाने के लिए मुख्य तथा गौणरूप से अन्तरंग तत्त्व और बाह्य तत्त्व के वर्णन करने के लिए १०१ गाथाओं में ज्ञानाधिकार कहेंगे..... इत्यादि।
प्रवचनसार की भूमिका में श्रीजयसेनाचार्य ने यह भी बताया है कि किसी निकट भव्य शिवकुमार को सम्बोधित करने के लिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने यह ग्रन्थ लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि महामुनिराज कुन्दकुन्द भी शिष्य परिकर रखते थे और शिष्यों का हित चिन्तन भी करते थे।
इनकी टीकाओं में उद्धृत श्लोकों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इन्होंने द्रव्यसंग्रह, तत्त्वानुशासन, चारित्रसार, त्रिलोकसार और लोकविभाग आदि ग्रन्थों का उद्धरण देकर अपनी टीकाओं में प्रयुक्त किया है। चारित्रसार के रचयिता चामुण्डराय हैं और इन्हीं के समकालीन आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने त्रिलोकसार की रचना की है। चामुण्डराय ने अपना चामुण्डपुराण शक संवत् ९०० (ईसवी सन् ९७८) में समाप्त किया है अत: निश्चित है कि जयसेन ईसवी सन् ९७८ के पश्चात् ही हुए हैं। उनके समय की यह सीमा पूर्वार्ध सीमा के रूप में मानी जा सकती है।
जयसेन ने पंचास्तिकाय की टीका (पृष्ठ ८) में वीरनन्दि के आचारसार ग्रन्थ के दो पद्य उद्धृत किए हैं। कर्नाटक कवि चारिते के अनुसार इन वीरनन्दि ने अपने आचारसार पर एक कन्नड़ टीका शक संवत् १०७६ (ईसवी सन् ११५४) में लिखी है अत: जयसेन ईस्वी सन् ११५४ के पश्चात् ही हुए होंगे।
डॉ. ए. एन उपाध्ये ने लिखा है कि नयकीर्ति के शिष्य बालचन्द्र ने कुन्दकुन्द के तीनों प्राभृतों पर कन्नड़ में टीका लिखी है और उनकी टीका का मूल आधार जयसेन की टीकाएँ हैं। इनकी टीका का रचनाकाल ईस्वी सन् की ११वीं शताब्दी का उत्तरार्ध या १२वीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जा सकता है।
कुल मिलाकर श्री जयसेन स्वामी ने साहित्य जगत में अपना अपूर्व योगदान दिया है और आज की दिग्भ्रमित जनता का सन्मार्ग निर्देशन किया है।
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आचार्य श्री १०८ जयसेन स्वामी
Sanjul Jain created wiki page for Acharya Shri on 06-April-2021
Acharya Shri 108 Jaisen Swami was a twelfth century Digambara Jain Acharya who wrote Tattparyavritti (or the Purport), a commentary on Acharya Kundakunda's Pravachanasara.
Acharya Jaisen's Period-From the observation of the verses quoted in his commentaries, it is known that he has used them in his commentaries by quoting texts like Dravasanagraha, Tattvanushasana, Charitrasar, Triloksar and Lokavigha. The author of Charitrasar is Chamundarai and his contemporary Acharya Shri Nemichandra Siddhantchakravarti has composed Triloksar. Chamundarai ended his Chamund Purana in Saka Samvat 900 (AD 96), so it is certain that Jayasen has taken place only after 9 CE.
This time limit can be considered as the first half range. Jayasena has quoted two verses of Veeranandi's Acharasar Granth in Panchastikaya's commentary (page 4). According to the Carnatic poet Charithe, Veeranandi has written a Kannada commentary on Shakva Samvat 108 (AD 1154) on his ethics, so Jayasen must have been there only after AD 1156.
Dr. A. N Upadhyay has written that Balachandra, a disciple of Nayakirti, has written a commentary on the three Prabhritas of Kundakunda in Kannada and the basis of his commentary is Jayasena's commentaries. The creation of his commentary can be considered to be late 11th century AD or early 12th century AD. Overall, Acharya Jaisen Swamy has contributed immensely to the world of literature and has guided the cause of the downtrodden masses of today.
https://en.wikipedia.org/wiki/Jayasena
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