हैशटैग
#PaaySagarJiMaharaj1890AcharyashriShantiSagarJi
Acharya Shri was born on Phalgun Shukla Panchami Veer Nirman. 2415 in the year. 1890 in Painapur,Bihar. He took initiation(Ailak Diksha) in Kartik Sudi Veer nirman 2475 in the year 1923 from Acharya Shri Shantisagarji Maharaj in the Jain temple of Gokak.He received initiation in Sonagiri Siddhakshetra from Acharya Shri Shantisagarji Maharaj .
आचार्य श्री १०८ पाय सागर जी महाराज का जन्म ऐनापुर ग्राम में हुआ था।उन्होंने अपने बारे में बताया की वो एक नाटक कम्पनी का प्रमुख अभिनेता थे। आपसी अनबन होने के कारण उन्होंने कम्पनी छोड़ दी थी ।और वो कुछ दिन तक क्रांतिकारी सरीके रहे।मैंने मिल मालिको के विरोध में मजदूरों के सत्याग्रह की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया।इसके बाद मेरमण सांसारिक विडंबना से उचटा।अपने कूलधर्म जैनधर्म का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था ।यहाँ तक की णमोकार मंत्र कोभिनाही जानता था।इसलिए मैंने जटाविभूतिधारी रुद्राक्ष माला -अलंकृत चिदम्बर बाबा का रूप धारण किया औरिन साधुत्व का अभिनय करता हुआ काशी पंहुचा।गंगा जी में गहरे गोते लगाये।वह पर हर्प्रकर के साधुओं से मिला।में लोकिक कार्यों में पूर्ण दक्ष था,इसलिए साधु बनने पर पर भी मेरी विचार शक्ति मृत नहीं हुई।वह मुर्छित अवश्य थी।जब में जटा विभूति धारी सधुके रूप में शोलापुर पंहुचा तब मेरी द्रष्टि में यह बात आई कि पाखंडी साधु के रूप में फिर कर आत्म वंचना तथा पर प्रतारणा के कार्य में लगे रहना महा मुर्खता है।मैंने भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के शास्त्रों का परिशीलन किया था,उस शास्त्र ने साहस प्रदान किया कि में उस साधुत्व के वेष का त्याग कर सका।अब में सुन्दर वस्त्रादि से सुसज्जित गुंडे के रूप में यत्र तत्र विचरण करने लगा शायद ही कोई ऐसा दोष हो जो मुझमे न हो।मैं अत्यंत विषयान्ध व्यक्ति बन गया।
सुयोग कि बात है ।उग्र तपस्वी दिग. आचार्य शान्तिसागर जी महाराज का कोन्नुर आना हुआ।उस समय में सायकिल हाथ में लिए बना ठना उनके पास से निकला ।सेकड़ों जैनी उन मुनिराज कि प्रणाम करते।मैं वहां एक कोने में खड़ा हो गया।मेरी नजर उन पर पड़ी ।मैंने उन्हें ह्रदय से उन्हें प्रणाम नहीं किया ।नाम मात्र को हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया।उस समय उनके साथ वाले लोगों ने महाराज जी को मेरे विषय में बताया और कहा -"महाराज ये जैन कुलोत्पन्न है।महान व्यसनी है।इसे धर्म का कुछ नहीं सुहाता ।मेरी निंदा महाराज जी के कानो में पहुची किन्तु उनके मुख मंडल पर अपूर्व शांति थी ।नेत्रों में मेरेप्रती करूणा थीऔर बलबान आकर्षण शक्ति थी।महाराज ने लोगों को शांत किया ।उनके मुह से ये शब्द निकले ,'इसने आज हमारे दर्शन किये है इसलिए इसे कुछ न कुछ लाभ अवश्य होगा '
मैं उनके मुखमंडल को बड़े ध्यान से टकटकी लगाये देख रहा था।सचमुच में शांति के सागर दिखे'। में भारत भर घूमकर बड़े बड़े नामधारी साधु देखे थे,मुझे ऐसा लगा कि आज सचमुच में मुझे इस साधु के रूप में अपूर्व निधि मिली।मैंने उन्हें अध्यात्मिक जादूगर के रूप में देखा ।मेरे मन में आंतरिक वैराग्य का बीज पहले से ही था उनके संपर्क ने उसमे प्राण दाल दिए।
मैंने उनके जीवन का बहुत सूक्ष्मता से अधयन्न किया।उठते बैठते ,बोलते चलते उनकी साडी प्रवृतियों की बारीकी से जांच की।उस समय मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि आज मुझ आद्यात्मिक अंधे को सचमुच में नेत्रों की उपलब्धि हो गयी है।मैंने उनसे मांस ,मधु,मद्य के सेवन के त्याग का नियम ले लिया।हिंसा आदि पापों के त्याग और देव दर्शन करने का नियम लिया।मेरी आत्मा पर उनका इतना प्रभाव पड़ा कि मैंने उनसे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का नियमले लिया।लोगो ने मेरे पुराने जीवन को देख कर विरोध किया परन्तु मेरे निवेदन करने पर उन्होंने मुझे ऐलक दीक्षा प्रदान की।चन्द्र सागर जी ने आक्षेप किया की इसे तो प्रतिमाओं का स्वरुप भी नहीं पता ये ऐलक पद का निर्वाह केसे करेगा। उस समय मैंने महाराज जी से कहा की मैं शेड्वाल की पाठशाला में जाकर अधयन्न करना चाहता हूँ।उस समय सबको यह भय था की ये वापस आएगा या भी नहीं ।तब मेरी जमानत बालगोंडा ने ली।अद्यान्न करके आने पर मेरा प्रवचन हुआ जिस से साडी जनता बहुत प्रभावित हुई ।उसके बाद मेरी दीक्षा मुनि नेमी सागर जी के साथ एक ही दिन हुई।"
विशेष :- जब ये आहार करते थे तो आहार के बीच में इतने ध्यान मग्न हो जाते थे की लोगो को बोल कर बताना पड़ता था की महाराज जी आहार चल रहे है। अंत समय में रोगों ने इन्हें घेर लिया फिर भी संयम के पथ से कभी नहीं हटे और कहते थे ये मेरे पूर्व कर्म का उदय है।इनका जीवन बहुत ही शिक्षाप्रद रहा है।
Below information from book-Digambar Jain Sadhu
आपका जन्म पैनापुर में फाल्गुन शुक्ला पंचमी वीर नि० सं० २४१५ शक सं० १८९० को हुआ था। आपने गोकाक के जैन मन्दिर में श्रीमद् प्राचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज से कार्तिक सुदी ४ वीर सं० २४५० सन् १९२३ में ऐलक दीक्षा ली । सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पर प्राचार्य श्री से वी० सं० २४५६ में मुनि दीक्षा ग्रहण की।
१२-१०-५६ में आपने अपना प्राचार्य पद मुनि अनन्तकीतिजी को सौंप दिया तथा स्तवन निधी तीर्थक्षेत्र पर समाधि पूर्वक शरीरं को छोड़ा। आप कुशल वक्ता दीर्घ तपस्वी और कुशल आचार्य थे । आपने अनेकों श्रावकों को दीक्षा देकर सत्पथ में लगाया । धन्य है आपका जीवन ।
#PaaySagarJiMaharaj1890AcharyashriShantiSagarJi
आचार्य श्री १०८ पाय सागरजी महाराज
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
Dhaval Patil - 9623981049
https://www.facebook.com/dhaval.patil.9461/
Information and Book provided by Rajesh Ji Pancholiya
Dhaval Patil - 9623981049
https://www.facebook.com/dhaval.patil.9461/
Information and Book provided by Rajesh Ji Pancholiya
Upadted by Sanjul Jain on 07-May-2021
AcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872DevendraKirtiJi
Acharya Shri was born on Phalgun Shukla Panchami Veer Nirman. 2415 in the year. 1890 in Painapur,Bihar. He took initiation(Ailak Diksha) in Kartik Sudi Veer nirman 2475 in the year 1923 from Acharya Shri Shantisagarji Maharaj in the Jain temple of Gokak.He received initiation in Sonagiri Siddhakshetra from Acharya Shri Shantisagarji Maharaj .
Acharya Shri 108 Paya Sagar Ji Maharaj was born in Ainapur village. He was the lead actor of a drama company and left the company due to a mutual feud. But he remained a revolutionary for a few days. He encouraged the workers' satyagraha against the mill owners. After this, faced the Meraman worldly irony. He did not have much knowledge of his Kuldharma(religion) Jainism. He could not even recite the Namokar Mantra(a religious chant in Jainism). So he took the form of a Jatavibhutihari Rudraksha Mala - Ornamented Chidambar Baba and reached Kashi, performing the act of saintliness. He dived deep in Ganga ji and met the sages of Harparkar. He was fully skilled in public affairs and did not loose his contemplating power even after becoming a saint.
When he reached Sholapur in the form of a Jati Vibhuti Dhari Sadhu, then it came to his mind that as a hypocritical sage, it is idiotic to continue in the act of self-deprivation and repatriation. He studied the scriptures of different sects that provided the courage so that he could renounce the guise of saintliness. Now as a goon equipped with beautiful clothes, wandering around, there was hardly any fault that was not in him, or so he believed. He became a very concerned person.
It is a matter of coincidence that, Digambar Jain Acharya Shri 108 Shantisagar ji Maharaj came to Konnur. Paya Sagar ji was passing by and stood there and watched as hundreds of Jains saluted him. Heheartily bowed down with folded hands. The people accompanying Acharya Shri told him the negative things about Paya Sagar ji. His condemnation reached the ears of Maharaj ji but there was unending peace on his face. There was compassion and power of attraction. Maharaj ji pacified the people and said, 'He has seen us today so there will definitely be some benefit".
Maharaj ji's calmness, humility and spiritual magic planted the seed of inner quietness in his mind.
Hence he gave life to service and adopted the rule of renunciation of alcohol consumption, renunciation of sins etc. of violence and devas appeared. He was so deeply affected that he even took the rule of lifelong celibacy fast from Maharaj ji. People kept bringing up his old life but on request, he was given the initiation. At that time he told Maharaj ji that he wanted to study in Shedwal's school and at that time everyone was afraid that it will come back or not. But Balgonda took his bail. On coming back after studying, he had a sermon which impacted the public very much. After that he was initiated with the title of Muni and became Muni Nemi Sagar ji on the same day.
When he used to take his Aahaar(meal), he sometimes got so lost in contemplation that people had to reind him of the ongoing Aahaar. In the end, diseases devoured him, yet never he turned from the path of restraint and used to say that this was the result of his former karma. His life had been very instructive.
Acharya Shri 108 Paay Sagarji Maharaj
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
आचार्य श्री १०८ शांति सागरजी महाराज १८७२ (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri 108 Shanti Sagarji Maharaj 1872 (Charitrachakravarti)
Acharya Shri 108 Shanti Sagar Ji Maharaj (Charitra Chakraborty)
Dhaval Patil - 9623981049
https://www.facebook.com/dhaval.patil.9461/
Information and Book provided by Rajesh Ji Pancholiya
Upadted by Sanjul Jain on 07-May-2021
#PaaySagarJiMaharaj1890AcharyashriShantiSagarJi
AcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872DevendraKirtiJi
AcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872DevendraKirtiJi
1000
#PaaySagarJiMaharaj1890AcharyashriShantiSagarJi
PaaySagarJiMaharaj1890AcharyashriShantiSagarJi
You cannot copy content of this page