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#SudharmSagarAcharyaAcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872
Acharya Shri Sudharmasagarji Maharaj
The name of the household phase of Shri 108 Acharya Sudharmasagarji Maharaj was Nandlalji. he was born on the day of Bhadrapad Shukla Dashmi i.e.Sugandha Dashami in Chawali (Ghagra) V. Education and Marriage:
He got his primary education in his village. For this time, he studied Shastri (theory, justice, grammar, literature) in Digambar Jain College Mathura and Seth Hirachandra Guman Chandra Jain Boding House Bombay and obtained the Shastri degree by taking the examinations of Jain Mahasabha and Bombay Examination.
आचार्य श्री सुधर्मसागरजी महाराज
श्री १०८ आचार्य सुधर्मसागरजी महाराज का गृहस्थ आवस्था का नाम नन्दलालजी था । आपका जन्म चावली (घागरा) वि० सं० १९४२ में भाद्रपद शुक्ला दशमी यानी सुगन्ध दशमी के दिन हुआ था।
शिक्षा और विवाह:
आपकी आरम्भिक शिक्षा अपने गांव में ही हुई । इसके बार आपने दिगम्बर जैन महाविद्यालय मथुरा और सेठ हीराचन्द्र गुमानचन्द्र जैन बोडिंग हाऊस बम्बई में रहकर शास्त्री ( सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, साहित्य ) का अध्ययन किया और जैन महासभा तथा बम्बई परीक्षालय की परीक्षा देकर शास्त्री उपाधि प्राप्त की।
सामाजिक-धार्मिक कार्य:
आपने अपने अमित अध्ययन, अनुभव , अभ्यास, अध्यवसाय से हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया । धाप श्रेष्ठ वक्ता और सुयोग्य लेखक तथा टीकाकार एवं सम्पादक थे। सामाजिक-धार्मिक विषयों पर आपने सुरुचिपूर्ण लघु पुस्तकें भी लिखीं। आप कवि थे, आपकी कतिपय पूजन आज भी समाज में प्रतीव चाव से पढ़ी जाती हैं। आपने ईडर और बम्बई में रह कर वहां के शास्त्र भण्डारों को सम्हाला । आपने ज्ञान का लाभ समाज को दिया। आपने अनेक भीलों से मांस भक्षण छुड़ाया, शिकार खेलना बन्द करवाया। ठाकुर कुरासिंह को जैन ही नहीं बनाया बल्कि उनके द्वारा जैन मन्दिर भी बनवाया। बनाने का सर्व श्रेय आपको ही है । आपने चारित्रचक्रवात श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से द्वितीय प्रतिमा ली थी आपके ही प्रयत्न से सम्मेदशिवर सिद्धक्षेत्र पर आचार्यश्री का ससंघ बिहार हुआ था और संघपति सेठ पूनमचन्द्रजी घासीलालजी द्वारा अतीव समारोह पूर्वक पंचकल्याणक महोत्सव भी हुआ था। वि० सं० १९८४ में सम्मेदशिखर में आपने आचार्य शान्तिसागरजी से ब्रह्मचर्य प्रतिमा के व्रत ले लिये । अब आपका नाम ब्रह्मचारी ज्ञानचन्द्र हो गया। इस समय आपने दो घण्टे तक जैन धर्म का धारावाहिक तात्विक विवेचन भी किया था।
___ कुण्डलपुर क्षेत्र में आपने दशम प्रतिमा के व्रत स्वीकार किये और कुछ काल बाद आचार्यश्री से ही क्षुल्लक दीक्षा ले ली और पापका नाम क्षुल्लक ज्ञानसागर हो गया। प्रात्मकल्याण के साथ ही आपने कुछ ग्रन्थों की टीकायें लिखीं, जिनमें रगरगसागर, पुरुषार्थानुशासन, रत्नमाला, उमास्वामी श्रावकाचार के नाम उल्लेखनीय हैं । आपने गुजराती में जो ग्रन्थ लिखे उनमें जीव-विचार, कर्म विचार प्रमुख हैं । आपके ही आदेश से प्रापके भाईशों ने पंचपरमेष्टियों के स्वरूप की बोधक ३ फीट ऊँची प्रतिमाएं गजपन्था में विराजमान कराई तथा देहली के धर्मपुरा में भी अष्ट प्रातिहार्य मुक्त ३ फीट ऊँची प्रतिमा आपकी प्रेरणा से भाईयों में विराजमान कराई ।
संघ-हित श्रेष्ठ कार्य :
क्षुल्लक ज्ञानसागरजी ने संघ-हित एक श्रेष्ठ कार्य यह किया कि उन्होंने सभी मुनिराजों को संस्कृत का अध्ययन कराया, क्षुल्लक व ऐलकों को भी संस्कृत शिक्षण लेने के लिए कहा। आचार्य शान्तिसागरजी आपके इस सत्कार्य की सराहना करते थे। तपोनिधि आचार्य कुन्थुसागरजी ने जो संस्कृत में ग्रन्थ लिखे उसकी पृष्ठ भूमि में आपकी मनोभावना थी । अध्यापन के साथ संघ के हित में आपने अनुभवी वैद्य का भी कार्य वैसे ही किया जैसे आपके पिताजी पड़ोसियों के लिए सहज भाव से करते थे।
जब प्रतापगढ़ में सेठ पूनमचन्द घासीलालजी ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराई तब केवलज्ञान कल्याणक के समय आपने फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशी वीर निर्वाण संवत् २४६० में श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी से मुक्तिदायिनी मुनि दीक्षा लेली। प्राचार्यश्री ने आपको सुधर्मसागर कहकर सम्बोधित किया। आपके साथ ही क्षुल्लक नेमिकीर्तिजी,मुनि आदिसागर बने और ब्र० सालिगरामजी क्षुल्लक अजितकीतिजी बने थे। यह कार्य लगभग चालीस हजार मानव मेदिनी के समक्ष हुआ । अब आप समन्तभद्र आचार्य के शब्दों में विषयवासना से परे ज्ञान-ध्यान, तप-रत साधु हो गये थे।
संघ के समस्त कार्य आचार्य श्री शान्तिसागरको ने आपको ही सौंप रखे थे अतएव उन्होंने आपकी अनिच्छा होते हुए भी आपको आचार्य पद सौंप दिया, आपने बहुत अनुनय-विनय की और पद से
दिगम्बर जैन साधु मुक्ति चाही, पर आचार्य श्री ने प्रापको ही अपना रस्तराधिकारी बनाया । पौष शुक्ला दशमी रविवार को आप अनेक मुनिराजों, बतियों तथा अनेक स्थानों की समाज के समक्ष आचार्य घोषित किये गये। इस समय अनेक विद्वान, श्रेष्ठ राज्याधिकारी उपस्थित थे। सभी ने ताली बजाकर नाम की जय बोल कर आपको अपना आचार्य माना। कुशलगढ़ जैन समाज के इस कुशलतादायी कार्य को सभी ने सराहना की।
समाधिमरण व शोभा यात्रा :
आपने आचार्य पद पर आसीन रहते संग को अनुशासनबद्ध किया। झाबुआ निवासियों से आचार्यश्री के रूप में आपने दो माह पहले ही कह दिया था कि अब मेरा शरीर अधिक से अधिक दो माह तक टिकेगा। आप सर्वदा धार्मिक कार्यों में सावधान रहते थे। समाधिमरण के लिए तैयारी कर रहे थे । पौष शुक्ला द्वादशी सोमवार वि० सं० १९९५ में, जब दोपहर को संघ के साधु आहारचर्या से आये तब उन्होंने प्राचार्यश्री की समाधि वेला समीप देखो, आपको क्षयरोग था पर दो दिन से वह था भी; इसमें सन्देह होने लगा था। तीन दिन पहले से आपने खान-पान, प्रमादजनित क्रियाओं को त्याग दिया था । अन्तिम समय में आपने जिनेन्द्रदर्शन की इच्छा प्रकट की तो भट्टारक यशकीति ने भगवान आदिनाथ के दर्शन कराये । आपने गद्गद् हो भक्ति भाव लिये कहा हे प्रभो ! मेरे आठों कर्म नष्ट हों और मुझे मुक्तिश्री मिले। इसी दिन संध्या के समय अत्यन्त सावधानी के . साथ आपने समाधिमरण का लाभ लिया।
श्री १०८ आचार्य सुधर्मसागरजी के स्वर्गवास का समाचार क्षणभर में दाहोद, इन्दौर, रतलाम, थोंदला, झाबुना आदि स्थानों पर पहुंचा । अतीव साज सज्जा के साथ पदमासन में आचार्य का दिव्य शरीर नगर के प्रमुख मार्गों में से निकला । संघ स्नात पं० लालारामजी जलधारा देते विमान के सबसे आगे थे । मुनि और आयिका, श्रावक श्रोत्र श्राविका का चतुर्विध संघ साथ था। एक ब्राह्मण ने आचार्य श्री की पूजा की, शंखनाद कर उनको स्वर्गवासी घोषित किया । शास्त्रोक्त पद्धति से दाहसंस्कार हुआ । शोक सभा में पं० लालारामजी ने भाषण ही नहीं दिया बल्कि उनके पदचिन्हों पर चलने के लिए द्वितीय प्रतिमा के व्रत भी लिये जहां आपका अन्तिम संस्कार हुआ था वहां तीन दिन बाजे बजे, जागरण-भजन कीर्तन हुए, महाराज की पूजा हुई। घोषणा:
___ राज्य की ओर से घोषणा हुई कि आचार्य सुधर्मसागरजी का स्मृतिदिवस मनाने के लिए अवकाश रहेगा, हिंसा नहीं होगी । संघ की ओर से घोषणा हुई, आचार्यश्री के स्मृति-दिवस पर प्रतिवर्ष रथोत्सव होगा। मुनिसंघ ने स्वेच्छा से सुधर्मसागर संघ की स्थापना करने का भाव प्रकट किया।
#SudharmSagarAcharyaAcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872
आचार्य श्री १०८ सुधर्म सागरजी महाराज
Charitrachakravarti Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj 1872
आचार्य श्री शांति सागरजी महाराज 1872 (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri Shanti Sagarji Maharaj 1872(Charitrachakravarti)
Dhaval Patil Pune-9623981049
https://www.facebook.com/dhaval.patil.9461/
Information and Book provided by Rajesh Ji Pancholiya
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Upadted by Sanjul Jain on 08-May-2021
AcharyaShriShantiSagarJiMaharaj1872DevendraKirtiJi
Acharya Shri Sudharmasagarji Maharaj
The name of the household phase of Shri 108 Acharya Sudharmasagarji Maharaj was Nandlalji. he was born on the day of Bhadrapad Shukla Dashmi i.e.Sugandha Dashami in Chawali (Ghagra) V. Education and Marriage:
He got his primary education in his village. For this time, he studied Shastri (theory, justice, grammar, literature) in Digambar Jain College Mathura and Seth Hirachandra Guman Chandra Jain Boding House Bombay and obtained the Shastri degree by taking the examinations of Jain Mahasabha and Bombay Examination.
Acharya Shri Sudharmasagarji Maharaj
The name of the household phase of Shri 108 Acharya Sudharmasagarji Maharaj was Nandlalji. Papaka was born on the day of Bhadrapad Shukla Dashmi i.e.Sugandha Dashami in Chawali (Ghagra) V. Education and Marriage:
He got his primary education in his village. For this time, he studied Shastri (theory, justice, grammar, literature) in Digambar Jain College Mathura and Seth Hirachandra Guman Chandra Jain Boding House Bombay and obtained the Shastri degree by taking the examinations of Jain Mahasabha and Bombay Examination.
vorse
Socio-religious work:
He gained knowledge of Hindi, Sanskrit, English, Marathi, Gujarati languages through his immense study, experience, practice, perseverance. Dhap was a great orator and well-known writer and commentator and editor. He also wrote elegant short books on socio-religious subjects. You were a poet, some of your poojas are still read with great enthusiasm in society. You lived in Eider and Bombay and managed the scriptures there. You gave the benefit of knowledge to the society. You rescued meat eaters from many Bhils, and stopped hunting. Thakur Kurasingh was not only made a Jain but he also built a Jain temple.
Digambar Jain monk
[All credit for making ८६ is yours. You had taken the second statue from Charitrachakravat Shri 108 Acharya Shantisagarji Maharaj, due to your efforts, Acharyashree's association was held in Siddhakshetra in Bihar and the Panchakalyanak festival was also organized by Sanghpati Seth Poonam Chandraji Ghasilalji. You took the vows of Brahmacharya statue from Acharya Shantisagarji in Sammedashish in V.S. Now your name became Brahmachari Gyan Chandra. At this time, you also gave a serial discussion of Jainism for two hours.
___ In Kundalpur area, you accepted the tenth statue fast and after some time, took Achalak Diksha from Acharyashree and the name of Papaka became Thulak Jnanasagar. Along with Prakritikalyan, you wrote commentaries of some texts, among which the names of Ragarasagar, Purusarthanushasan, Ratnamala, Umaswamy Shravakachara are notable. Among the texts you wrote in Gujarati, Jeeva-ide, Karma-idea are prominent. The brothers received by your order made the idol 3 feet high statue of Panchparmeshtiya seated in Gajapantha and in Dharmapura of Dehli, Ashta kept a free 3 feet high statue in your brothers with your inspiration. Best interests of the Union:
The erstwhile Gyanasagarji did a great work in the interest of the Sangh that he made Sanskrit study to all the monarchs, and asked the Tullakas and Ailaks to take Sanskrit teaching as well. Acharya Shantisagarji used to appreciate your hospitality. Taponidhi Acharya Kunthusagarji wrote the texts in Sanskrit, you had a feeling in the background. Along with teaching, you also did the work of an experienced physician in the interest of the Sangh in the same way as your father used to do for the neighbors in a comfortable manner. Muni and Acharya:
___ When Seth Poonamchand Ghasilalji made the Panchakalyakan reputation in Pratapgarh, then at the time of Keval Gyan Kalyanak you took Muktadayini Muni Diksha from Acharya Shri 108 Shantasagarji in Falgun Shukla Trayodashi Veer Nirvana Samvat 280. Acharya Shri addressed you as Sudharm Sagar. Along with you, Chhulak Nemikirtiji, Muni Adisagar became and Br Saligramji Chhulak Ajitkitiji. This work was done before about forty thousand human Medini. Now, in the words of the Acharya Samantabhadra , he had become a sage-obsessed, meditating, meditating beyond the subject.
All the work of the Sangh was handed over to you by Acharya Shantisagar, so despite his reluctance he handed over the post of Acharya, you made a lot of persuasion and post
Digambar Jain monk wanted liberation, but Acharya Shri made Prapco his own patron. On Paush Shukla Dashami Sunday, you were declared Acharya in front of many monires, lights and many places in the society. At this time, many scholars, top officials were present. Everyone clapped and chanted the name Jai and considered you their teacher. This efficient work of Kushalgarh Jain society was appreciated by all. Clearance and Shobha Yatra:
You disciplined the company while occupying the position of Acharya. You had told the residents of Jhabua as Acharyashree two months ago that now my body will last for more than two months. You were always careful in religious work. Were preparing for the resolution. Paush Shukla Dwadashi on Monday V.V. There was doubt in it. Three days ago, you gave up eating, drinking, and ritualistic activities. In the last time, when you expressed your desire for Jinendra Darshan, then Bhattarak Yashkiti made darshan of Lord Adinath. You are proud, have said devotion, O God! May all my eight deeds be destroyed and I get Muktashri. On the same day in the evening, very careful. You also took advantage of the resolution.
The news of Sri 108 Principal Sudharm Sagarji's exile reached the places of Dahod, Indore, Ratlam, Thondala, Jhabuna etc. in a moment. In Padmasana, with divine decoration, the principal body of the Principal emerged from the main streets of the city. Sangh Pt.Lalaramji was at the forefront of the aircraft delivering water stream. Muni and Ayika, the quartet union of the listener Shrotra Shravika, were with him. A Brahmin worshiped Acharya Shree, shankhanad and declared him a resident. Cremated by the scripture method. Pt. Lalaramji not only gave a speech in the condolence meeting, but also took the second statue vow to follow in his footsteps, where your last rites were performed, at three o'clock at the last place, Jagran-Bhajan Kirtan, Maharaj was worshiped. Declaration:
___ It was announced by the state that there will be a holiday to commemorate the birthday of Acharya Sudharmasagar, there will be no violence. The announcement was made by the Sangh, every year Rathotsava will be held on Acharyashree's Memorial Day. Munisingh expressed his willingness to voluntarily establish the Sudharmasagar Sangh.
Acharya Shri 108 Sudharm Sagarji Maharaj
आचार्य श्री शांति सागरजी महाराज 1872 (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri Shanti Sagarji Maharaj 1872(Charitrachakravarti)
आचार्य श्री शांति सागरजी महाराज 1872 (चरित्रचक्रवर्ती) Acharya Shri Shanti Sagarji Maharaj 1872(Charitrachakravarti)
Charitrachakravarti Acharya Shri Shanti Sagar Ji Maharaj 1872
Charitrachakravat Shri 108 Acharya Shantisagarji Maharaj
Dhaval Patil Pune-9623981049
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Information and Book provided by Rajesh Ji Pancholiya
Upadted by Sanjul Jain on 08-May-2021
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