हैशटैग
#amitgatijiprathamjimaharaj
जैन साहित्य में अमितगति नामके दो आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं। सारस्वसाचार्यों मे आचार्य अमितगति का नाम आता हैं। माधवसेनके शिष्य और नेमिषेणके प्रशिष्य हैं। और जिन्होंने सुभाषितरत्न सन्दोह, धर्मपरीक्षा, उपासकाचार, संस्कृतपञ्चसंग्रह आदि ग्रन्थ रचे हैं। दूसरे अमितमति वे हैं, जो नेमिषेणके गुरू तथा देवसेनसूरिके शिष्य हैं और जिनका गुणकीर्तन सुभाषितरलसन्दोहकी अन्तिम प्रशस्तिमें उसके रचयिता अमितगतिने स्वयं किया है। इस तरह सुभाषितरत्नसन्दोहके कर्ता अमितगति द्वारा उल्लिखित एवं नेमिषेणके गुरु तथा देवसेनके शिष्य अमितगति प्रथम अमितगति हैं और इनका उल्लेख करनेवाले तथा दो पोढ़ी पीछे होनेवाले माधवसेनके शिष्य और नेमिषेणके प्रशिष्य सुभाषितरत्नसन्दोहकार अमितगति द्विसीय अमितगति हैं। इन अभितगतिने प्रथम अमिसगतिको 'त्यक्तनिः शेषशङ्गः' विशेषण देकर अपनेको उनसे पृथक् सिद्ध किया है। प्रथम अमितगतिने स्वयं उक्त विशेषण अपने साथ लगाया है। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारका अभिमस है- "यह कृति (योगसार प्राभृत) निश्चितरूपसे अमिगति प्रथमकी कृति है, जिसका प्रमाण अमितगतिके साथ नि:संङ्गात्मा विशेषणका प्रयोग है, जिसे ग्रन्थकारने स्वयं अपने लिये प्रयुक्त किया है।___ यह विशेषण अमितगति द्वितीयके लिये कहीं भी प्रयुक्त नहीं हुआ है बल्कि स्वयं अमितगति द्वितीयने इस विशेषणको . 'त्यक्त-नि:शेषसम:' रूपमें अमितगति प्रथमके लिये प्रयुक्त किया है। जैसा की मारोहक प्रति निम्नपद्यसे जाना जाता है और जिससे उत्तः निश्चय एवं विर्णयको भरपूर पुष्टि होती है-
आशोविध्वस्त कम्तोविपुलशमभृतः श्रीमत: कान्तकीर्ते:
सूरेर्यातस्य पारं श्रुतसलिलनिधेर्देवसेनस्य शिष्यः।
विज्ञाताशेषशास्त्री व्रतसमितिभतामग्रणीरस्तकोपः
श्रीमान्मान्या मुनीनाममितगतियतिस्त्यक्तनिःशेषसंगः।
इस पद्यमें अमितगति प्रथमके गुरु देवसेनका नामोल्लेख करते हुए उन्हें विध्वस्तकामदेव, विपुलशमभृत, कान्तकीर्ति और श्रुतसमुद्रका परगामी आचार्य लिखा है तथा उनके शिष्य अमितगति योगीको अशेषशास्त्रोंका ज्ञाता, महाव्रत-समितियोके धारकोमें अग्रणी, क्रोधरहित, मुनिमान्य और समस्त वाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्यागी सूचित किया है। पिछला विशेषण सर्वोपरि मुख्य जान पड़ता है। इसीसे अमितगतिने उसे निःसंङ्गात्माके रूपमें अपने लिये प्रयुक्त किया है।
इस प्रकार द्वितीय अमितगतिसे अमितगति प्रथमका निःसङ्गात्मा' विशेषण द्वारा पार्थक्य सिद्ध है। इसके अतिरिक्त अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा आदि ग्रंथोंमें अमितगति प्रथमके महान गुणोंकी स्तुति की है। अतः अमितगति प्रथम उनसे पूर्ववर्ती हैं।
अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोहको वि सं. १०५० में पौष शुक्ला पञ्चमीके दिन समाप्त किया है। इसके पश्चात् धर्मपरीक्षाको वि. सं. १०७० में और पञ्चसंग्रहको वि. सं. १०७३ में पूरा किया हैं। अतएव अमितगति द्वितीयका समय वि. सं. १०५० है। इनके द्वारा उल्लिखित अमितगति प्रथम इनसे दो पीढी पूर्व होनेसे उनका समय वि.सं. १००० निश्चिस होता है।
इनका एकमात्र योगसारप्राभृत नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो प्रकाशित हो चुका है। यह ग्रन्थ १ अधिकारोंमें विभक्त है- १. जीवाधिकार, २, अजीवाधिकार, ३. आस्रवाधिकार, ४. बन्धाधिकार, ५. संवराधिकार, ६. निर्जराधिकार,७. मोक्षाधिकार और ८. चारित्राधिकार और नवम अधिकारको नवाधिकार या नवमाधिकारके नामसे उल्लिखित किया है । इस अधिकारकी संज्ञा चूलिकाधिकारके रूपमें की गयी है।
प्रथम अधिकारमें मङ्गलाचरणके अनन्तर स्वभावकी उपलब्धिके हेतु जीव और अजीवके लक्षणोंके जाननेकी प्रेरणा की है, क्योंकि दो प्रकारके पदार्थोंसे भिन्न संसारने तीसरे प्रकारका का नया नहीं है। सभीका अन्तर्भाव इन दो पदार्थोंमें हो जाता है। जीव-अजीवको वास्तविक रूपमें जान लेनेसे जीवकी अजीवमें अनुरक्ति तथा आसक्ति नहीं रहती है और आत्मलीनतासे रागद्वेषका क्षय हो जाता है। अन्तर जीवके उपयोग लक्षण और उसके भेद-प्रभेदोंका निर्देश करके केवलज्ञान और केवलदर्शन नामके दोनों उपयोगोंका कर्मोंके क्षयसे और शेष उपयोगोंका कर्मों के क्षयोपशमसे उदित होना बताया है। आत्माको ज्ञानप्रमाण, ज्ञानको ज्ञेयप्रमाण, सवंगत और ज्ञेयको लोकालोकप्रमाण बतलाकर ज्ञानकी आत्मप्रदेशोंके तुल्य गिद्ध किया है। ज्ञान ज्ञेयको जानता हआ भी ज्ञेयरूप परिणत नहीं होता है। आचार्यने इस अधिकार में केवलज्ञानकी त्रिकालगोचर, सभी सत्-असत् विषयोंका ज्ञाता, युगपदभासक सिद्ध किया है।
आत्मा सम्यक्चारित्रको कब प्राप्त करती है, इस कथनके पश्चात् निश्चय और व्यवहारचारित्रका स्वरूप बतलाया है। इस प्रकार प्रथम अधिकारमें आत्माके शुद्धस्वरूपका निरूपण किया गया है।
दुसरे अधिकारम घर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पांचों अजीव द्रव्योंका कथन किया है। ये पांचों अजीयद्रव्य परस्पर मिलते-जुलते एकदुसरेको अपनेमें अवकाश देते हुए कभी भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते। इनमें पुद्गलकी छोड़कर शेष सब अमूर्तिक और निष्क्रिय हैं। जीवसहित ये पाँचों द्रव्य कहलाते हैं, क्योंकि गणपयंयवद्रव्यं इस लक्षणसे युक्त है। इसके पश्चात् द्रव्यको नियुक्तिपरक लिखकर सभी द्रव्योंको सत्तात्मक कहा है।
पश्चात् पुद्गलके स्कन्ध, देश, प्रदेश और अणु मे चार भेद बतलाये गये हैं। सभी द्रव्योंके मूर्त और अमुर्तके भेदसे दो भेद बतलाकर उनका स्वरूपांकन किया है। कर्मरूप परिणत होनेवाली कर्मवर्गणाओंका भी प्रतिपादन किया है। मिथ्यात्व आदि १३ गुणस्थान मी पौद्गलिक तथा अचेतन हैं। देह-चेतन को एक मानना मोहका परिणाम है। जो इन्द्रियगोचर है, वह सब आत्मबाह्य है। जीव कभी कर्मरूप और कर्म कभी जीवरूप नहीं होता है।
तृतीय अधिकारों मन-वाचन-कायकी साग प्रतियोमा जन रूप वर्णन आया है। निश्चय और व्यवहारनयकी दृष्टिसे आत्मा और कर्मके कर्तुत्व और भोक्तृत्वपर प्रकाश डाला गया है। एकको उपादानरूपसे दूसरेका कर्ता मानने तथा एकके कर्मफलका दूसरेको भोक्ता माननेपर, जो आपत्ति प्रस्तुत होती है, उसे दर्शाया है। कषायस्रोतसे आया हुआ कर्म ही जीवमें स्थित होता है। तदनन्तर ग्राही जीव कर्मसंतति हेतु इन्द्रियजन्य सुख, कर्मोके आस्त्रवबन्धके कारण आदिका कथन किया है।
चतुर्थ अधिकारमें बन्धका लक्षण लिखकर उसे जीवकी पराधीनताका कारण बताया है। बन्धके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारों भेदोंका निर्देश करते हुए कौन जीव कर्म बांधता है कोन नहीं बांधता, इसका सोदाहरण स्पष्टीकरण किया है। इसी प्रकार रागी, वीतरागी, ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मबन्धके होने न होने का भी निर्देश किया है। ज्ञानी जानता है, अज्ञानी वेदता है। इसलिए एक अबन्धक और दूसरा बन्धक होता है। पर द्रव्यगत दोषसे कोई वीतरागी बन्धको प्राप्त नहीं करता।
पञ्चम अधिकारमें संवरका लक्षण बतलाकर द्रव्य-भावके भेदसे उसके दो भेद बतलाये हैं। कषायोंके निरोधको भावसंवर और कषायोंका निरोघ होनेपर द्रव्यकर्मोके आस्त्रवविच्छेदको द्वव्यसंवर बतलाया है। कषाय और द्रव्यकर्म दोनोंके अभावसे पूर्ण शुद्धि प्राप्त होती है। इस प्रकार इस अधिकारमें संवरका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है।
षष्ठ अधिकारमें निर्जरातत्त्वका कथन आया है। निर्जराकी नियुक्तिके पश्चात् उसके पाकजा और अपाकजा दो भेद बतलाये हैं। संवरके बिना निर्जरा अकार्यकारी हैं। ध्यान और तप द्वारा योगी कर्मों की निर्जरा करता है और कर्ममलको धो डालता है।
सप्तम अधिकार में मोक्षतत्वका निरूपण किया गया है। आत्मा शुद्धात्माके ध्यान बिना मोहादिदोषोंका नाश नहीं कर पाता। ध्यानवज्जसे कर्मग्रन्थका छेदन सम्भव है। इसी अधिकारमें जीवके शुद्ध और अशुद्ध इन दो भेदोंका कथन भी आया है। कर्मसे युक्त संसारी जीव अशुद्ध है और कर्मरहित मुक्त जीव शुद्ध है। शुद्ध जीवको 'अपुनभंद' कहनेके हेतुका निर्देश किया है। साथ ही मुक्ति में आत्मा किस रूपमें निवास करती है, यह भी बतलाया है। ध्यान विधिसे कर्मों का उन्मूलन होता है, अतएव ध्यानकी महिमाका वर्णन किया गया है। ध्यानको बाह्यसामग्रीके साथ, ध्यानप्राप्तिके लिए बुद्धिका आगम, अनुमान और ध्यानाभ्यासरससे संशोधन आवश्यक बतलाया है। इस प्रकार इस अधिकारमें ध्यानको विभिन्न स्थितियों का निरूपण आया है।
अष्टम अधिकारमें चारित्रका निरूपण है। इसमें श्रमण बननेकी योग्यता और आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए श्रमणोंके २८ मूलगुणोंके नाम दिये गये हैं, जिनका योगी निष्प्रमाद रूपसे पालन करता है। जो इनके पालन करने में प्रमाद करता है, उस योगीको छेदोपस्थापक कहा है। श्रमणोंके दो भेद बतलाये हैं, सूरि और निर्यापक। इन दोनोंका विवेचन किया गया है। इस अधिकारमें श्रमणोंकी चर्वाका कथन आया है।
नवम अधिकारमें मुक्तात्माको सदानन्दरूप स्थितिका उल्लेख करते हुए चेतनस्वभावकी अविनश्वरतापर प्रकाश डाला गया है। योगीके योगका लक्षण बतलाकर योगसे उत्पन्न सुखकी विशिष्टता, सुख-दुःखका संक्षिप्त लक्षण और उस लक्षणकी दृष्टिसे पुण्यसे उत्पन्न होनेवाले भोगोंको भी दुःखरूप निदिष्ट किया है। संसारके विषयभोगोंको निस्सारता तथा भोक्ताकी स्थितिका विवेचन किया है। भोग संसारसे सच्ची विरक्ति कब प्राप्त होती है और निर्वाणतत्वमे परमभक्ति किस प्रकार उपलब्ध होती है, इसे भी बतलाया है। इस प्रकार इस ग्रन्थमें आत्मोपलब्धिके साधन, विषयभोगोंकी अस्थिरता और ध्यानकी महत्तापर प्रकाश डाला गया है।
योगसम्बन्धी ग्रन्थों में इस योगसारप्राभृतका महत्त्वपूर्ण स्थान है। नि: सन्देह योग के अध्ययन, मनन और चिन्तनके लिए यह नितान्त उपादेय है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
जैन साहित्य में अमितगति नामके दो आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं। सारस्वसाचार्यों मे आचार्य अमितगति का नाम आता हैं। माधवसेनके शिष्य और नेमिषेणके प्रशिष्य हैं। और जिन्होंने सुभाषितरत्न सन्दोह, धर्मपरीक्षा, उपासकाचार, संस्कृतपञ्चसंग्रह आदि ग्रन्थ रचे हैं। दूसरे अमितमति वे हैं, जो नेमिषेणके गुरू तथा देवसेनसूरिके शिष्य हैं और जिनका गुणकीर्तन सुभाषितरलसन्दोहकी अन्तिम प्रशस्तिमें उसके रचयिता अमितगतिने स्वयं किया है। इस तरह सुभाषितरत्नसन्दोहके कर्ता अमितगति द्वारा उल्लिखित एवं नेमिषेणके गुरु तथा देवसेनके शिष्य अमितगति प्रथम अमितगति हैं और इनका उल्लेख करनेवाले तथा दो पोढ़ी पीछे होनेवाले माधवसेनके शिष्य और नेमिषेणके प्रशिष्य सुभाषितरत्नसन्दोहकार अमितगति द्विसीय अमितगति हैं। इन अभितगतिने प्रथम अमिसगतिको 'त्यक्तनिः शेषशङ्गः' विशेषण देकर अपनेको उनसे पृथक् सिद्ध किया है। प्रथम अमितगतिने स्वयं उक्त विशेषण अपने साथ लगाया है। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारका अभिमस है- "यह कृति (योगसार प्राभृत) निश्चितरूपसे अमिगति प्रथमकी कृति है, जिसका प्रमाण अमितगतिके साथ नि:संङ्गात्मा विशेषणका प्रयोग है, जिसे ग्रन्थकारने स्वयं अपने लिये प्रयुक्त किया है।___ यह विशेषण अमितगति द्वितीयके लिये कहीं भी प्रयुक्त नहीं हुआ है बल्कि स्वयं अमितगति द्वितीयने इस विशेषणको . 'त्यक्त-नि:शेषसम:' रूपमें अमितगति प्रथमके लिये प्रयुक्त किया है। जैसा की मारोहक प्रति निम्नपद्यसे जाना जाता है और जिससे उत्तः निश्चय एवं विर्णयको भरपूर पुष्टि होती है-
आशोविध्वस्त कम्तोविपुलशमभृतः श्रीमत: कान्तकीर्ते:
सूरेर्यातस्य पारं श्रुतसलिलनिधेर्देवसेनस्य शिष्यः।
विज्ञाताशेषशास्त्री व्रतसमितिभतामग्रणीरस्तकोपः
श्रीमान्मान्या मुनीनाममितगतियतिस्त्यक्तनिःशेषसंगः।
इस पद्यमें अमितगति प्रथमके गुरु देवसेनका नामोल्लेख करते हुए उन्हें विध्वस्तकामदेव, विपुलशमभृत, कान्तकीर्ति और श्रुतसमुद्रका परगामी आचार्य लिखा है तथा उनके शिष्य अमितगति योगीको अशेषशास्त्रोंका ज्ञाता, महाव्रत-समितियोके धारकोमें अग्रणी, क्रोधरहित, मुनिमान्य और समस्त वाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्यागी सूचित किया है। पिछला विशेषण सर्वोपरि मुख्य जान पड़ता है। इसीसे अमितगतिने उसे निःसंङ्गात्माके रूपमें अपने लिये प्रयुक्त किया है।
इस प्रकार द्वितीय अमितगतिसे अमितगति प्रथमका निःसङ्गात्मा' विशेषण द्वारा पार्थक्य सिद्ध है। इसके अतिरिक्त अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा आदि ग्रंथोंमें अमितगति प्रथमके महान गुणोंकी स्तुति की है। अतः अमितगति प्रथम उनसे पूर्ववर्ती हैं।
अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोहको वि सं. १०५० में पौष शुक्ला पञ्चमीके दिन समाप्त किया है। इसके पश्चात् धर्मपरीक्षाको वि. सं. १०७० में और पञ्चसंग्रहको वि. सं. १०७३ में पूरा किया हैं। अतएव अमितगति द्वितीयका समय वि. सं. १०५० है। इनके द्वारा उल्लिखित अमितगति प्रथम इनसे दो पीढी पूर्व होनेसे उनका समय वि.सं. १००० निश्चिस होता है।
इनका एकमात्र योगसारप्राभृत नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो प्रकाशित हो चुका है। यह ग्रन्थ १ अधिकारोंमें विभक्त है- १. जीवाधिकार, २, अजीवाधिकार, ३. आस्रवाधिकार, ४. बन्धाधिकार, ५. संवराधिकार, ६. निर्जराधिकार,७. मोक्षाधिकार और ८. चारित्राधिकार और नवम अधिकारको नवाधिकार या नवमाधिकारके नामसे उल्लिखित किया है । इस अधिकारकी संज्ञा चूलिकाधिकारके रूपमें की गयी है।
प्रथम अधिकारमें मङ्गलाचरणके अनन्तर स्वभावकी उपलब्धिके हेतु जीव और अजीवके लक्षणोंके जाननेकी प्रेरणा की है, क्योंकि दो प्रकारके पदार्थोंसे भिन्न संसारने तीसरे प्रकारका का नया नहीं है। सभीका अन्तर्भाव इन दो पदार्थोंमें हो जाता है। जीव-अजीवको वास्तविक रूपमें जान लेनेसे जीवकी अजीवमें अनुरक्ति तथा आसक्ति नहीं रहती है और आत्मलीनतासे रागद्वेषका क्षय हो जाता है। अन्तर जीवके उपयोग लक्षण और उसके भेद-प्रभेदोंका निर्देश करके केवलज्ञान और केवलदर्शन नामके दोनों उपयोगोंका कर्मोंके क्षयसे और शेष उपयोगोंका कर्मों के क्षयोपशमसे उदित होना बताया है। आत्माको ज्ञानप्रमाण, ज्ञानको ज्ञेयप्रमाण, सवंगत और ज्ञेयको लोकालोकप्रमाण बतलाकर ज्ञानकी आत्मप्रदेशोंके तुल्य गिद्ध किया है। ज्ञान ज्ञेयको जानता हआ भी ज्ञेयरूप परिणत नहीं होता है। आचार्यने इस अधिकार में केवलज्ञानकी त्रिकालगोचर, सभी सत्-असत् विषयोंका ज्ञाता, युगपदभासक सिद्ध किया है।
आत्मा सम्यक्चारित्रको कब प्राप्त करती है, इस कथनके पश्चात् निश्चय और व्यवहारचारित्रका स्वरूप बतलाया है। इस प्रकार प्रथम अधिकारमें आत्माके शुद्धस्वरूपका निरूपण किया गया है।
दुसरे अधिकारम घर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पांचों अजीव द्रव्योंका कथन किया है। ये पांचों अजीयद्रव्य परस्पर मिलते-जुलते एकदुसरेको अपनेमें अवकाश देते हुए कभी भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते। इनमें पुद्गलकी छोड़कर शेष सब अमूर्तिक और निष्क्रिय हैं। जीवसहित ये पाँचों द्रव्य कहलाते हैं, क्योंकि गणपयंयवद्रव्यं इस लक्षणसे युक्त है। इसके पश्चात् द्रव्यको नियुक्तिपरक लिखकर सभी द्रव्योंको सत्तात्मक कहा है।
पश्चात् पुद्गलके स्कन्ध, देश, प्रदेश और अणु मे चार भेद बतलाये गये हैं। सभी द्रव्योंके मूर्त और अमुर्तके भेदसे दो भेद बतलाकर उनका स्वरूपांकन किया है। कर्मरूप परिणत होनेवाली कर्मवर्गणाओंका भी प्रतिपादन किया है। मिथ्यात्व आदि १३ गुणस्थान मी पौद्गलिक तथा अचेतन हैं। देह-चेतन को एक मानना मोहका परिणाम है। जो इन्द्रियगोचर है, वह सब आत्मबाह्य है। जीव कभी कर्मरूप और कर्म कभी जीवरूप नहीं होता है।
तृतीय अधिकारों मन-वाचन-कायकी साग प्रतियोमा जन रूप वर्णन आया है। निश्चय और व्यवहारनयकी दृष्टिसे आत्मा और कर्मके कर्तुत्व और भोक्तृत्वपर प्रकाश डाला गया है। एकको उपादानरूपसे दूसरेका कर्ता मानने तथा एकके कर्मफलका दूसरेको भोक्ता माननेपर, जो आपत्ति प्रस्तुत होती है, उसे दर्शाया है। कषायस्रोतसे आया हुआ कर्म ही जीवमें स्थित होता है। तदनन्तर ग्राही जीव कर्मसंतति हेतु इन्द्रियजन्य सुख, कर्मोके आस्त्रवबन्धके कारण आदिका कथन किया है।
चतुर्थ अधिकारमें बन्धका लक्षण लिखकर उसे जीवकी पराधीनताका कारण बताया है। बन्धके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारों भेदोंका निर्देश करते हुए कौन जीव कर्म बांधता है कोन नहीं बांधता, इसका सोदाहरण स्पष्टीकरण किया है। इसी प्रकार रागी, वीतरागी, ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मबन्धके होने न होने का भी निर्देश किया है। ज्ञानी जानता है, अज्ञानी वेदता है। इसलिए एक अबन्धक और दूसरा बन्धक होता है। पर द्रव्यगत दोषसे कोई वीतरागी बन्धको प्राप्त नहीं करता।
पञ्चम अधिकारमें संवरका लक्षण बतलाकर द्रव्य-भावके भेदसे उसके दो भेद बतलाये हैं। कषायोंके निरोधको भावसंवर और कषायोंका निरोघ होनेपर द्रव्यकर्मोके आस्त्रवविच्छेदको द्वव्यसंवर बतलाया है। कषाय और द्रव्यकर्म दोनोंके अभावसे पूर्ण शुद्धि प्राप्त होती है। इस प्रकार इस अधिकारमें संवरका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है।
षष्ठ अधिकारमें निर्जरातत्त्वका कथन आया है। निर्जराकी नियुक्तिके पश्चात् उसके पाकजा और अपाकजा दो भेद बतलाये हैं। संवरके बिना निर्जरा अकार्यकारी हैं। ध्यान और तप द्वारा योगी कर्मों की निर्जरा करता है और कर्ममलको धो डालता है।
सप्तम अधिकार में मोक्षतत्वका निरूपण किया गया है। आत्मा शुद्धात्माके ध्यान बिना मोहादिदोषोंका नाश नहीं कर पाता। ध्यानवज्जसे कर्मग्रन्थका छेदन सम्भव है। इसी अधिकारमें जीवके शुद्ध और अशुद्ध इन दो भेदोंका कथन भी आया है। कर्मसे युक्त संसारी जीव अशुद्ध है और कर्मरहित मुक्त जीव शुद्ध है। शुद्ध जीवको 'अपुनभंद' कहनेके हेतुका निर्देश किया है। साथ ही मुक्ति में आत्मा किस रूपमें निवास करती है, यह भी बतलाया है। ध्यान विधिसे कर्मों का उन्मूलन होता है, अतएव ध्यानकी महिमाका वर्णन किया गया है। ध्यानको बाह्यसामग्रीके साथ, ध्यानप्राप्तिके लिए बुद्धिका आगम, अनुमान और ध्यानाभ्यासरससे संशोधन आवश्यक बतलाया है। इस प्रकार इस अधिकारमें ध्यानको विभिन्न स्थितियों का निरूपण आया है।
अष्टम अधिकारमें चारित्रका निरूपण है। इसमें श्रमण बननेकी योग्यता और आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए श्रमणोंके २८ मूलगुणोंके नाम दिये गये हैं, जिनका योगी निष्प्रमाद रूपसे पालन करता है। जो इनके पालन करने में प्रमाद करता है, उस योगीको छेदोपस्थापक कहा है। श्रमणोंके दो भेद बतलाये हैं, सूरि और निर्यापक। इन दोनोंका विवेचन किया गया है। इस अधिकारमें श्रमणोंकी चर्वाका कथन आया है।
नवम अधिकारमें मुक्तात्माको सदानन्दरूप स्थितिका उल्लेख करते हुए चेतनस्वभावकी अविनश्वरतापर प्रकाश डाला गया है। योगीके योगका लक्षण बतलाकर योगसे उत्पन्न सुखकी विशिष्टता, सुख-दुःखका संक्षिप्त लक्षण और उस लक्षणकी दृष्टिसे पुण्यसे उत्पन्न होनेवाले भोगोंको भी दुःखरूप निदिष्ट किया है। संसारके विषयभोगोंको निस्सारता तथा भोक्ताकी स्थितिका विवेचन किया है। भोग संसारसे सच्ची विरक्ति कब प्राप्त होती है और निर्वाणतत्वमे परमभक्ति किस प्रकार उपलब्ध होती है, इसे भी बतलाया है। इस प्रकार इस ग्रन्थमें आत्मोपलब्धिके साधन, विषयभोगोंकी अस्थिरता और ध्यानकी महत्तापर प्रकाश डाला गया है।
योगसम्बन्धी ग्रन्थों में इस योगसारप्राभृतका महत्त्वपूर्ण स्थान है। नि: सन्देह योग के अध्ययन, मनन और चिन्तनके लिए यह नितान्त उपादेय है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#amitgatijiprathamjimaharaj
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री अमितगति प्रथम 1000 ई. (प्राचीन)
जैन साहित्य में अमितगति नामके दो आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं। सारस्वसाचार्यों मे आचार्य अमितगति का नाम आता हैं। माधवसेनके शिष्य और नेमिषेणके प्रशिष्य हैं। और जिन्होंने सुभाषितरत्न सन्दोह, धर्मपरीक्षा, उपासकाचार, संस्कृतपञ्चसंग्रह आदि ग्रन्थ रचे हैं। दूसरे अमितमति वे हैं, जो नेमिषेणके गुरू तथा देवसेनसूरिके शिष्य हैं और जिनका गुणकीर्तन सुभाषितरलसन्दोहकी अन्तिम प्रशस्तिमें उसके रचयिता अमितगतिने स्वयं किया है। इस तरह सुभाषितरत्नसन्दोहके कर्ता अमितगति द्वारा उल्लिखित एवं नेमिषेणके गुरु तथा देवसेनके शिष्य अमितगति प्रथम अमितगति हैं और इनका उल्लेख करनेवाले तथा दो पोढ़ी पीछे होनेवाले माधवसेनके शिष्य और नेमिषेणके प्रशिष्य सुभाषितरत्नसन्दोहकार अमितगति द्विसीय अमितगति हैं। इन अभितगतिने प्रथम अमिसगतिको 'त्यक्तनिः शेषशङ्गः' विशेषण देकर अपनेको उनसे पृथक् सिद्ध किया है। प्रथम अमितगतिने स्वयं उक्त विशेषण अपने साथ लगाया है। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारका अभिमस है- "यह कृति (योगसार प्राभृत) निश्चितरूपसे अमिगति प्रथमकी कृति है, जिसका प्रमाण अमितगतिके साथ नि:संङ्गात्मा विशेषणका प्रयोग है, जिसे ग्रन्थकारने स्वयं अपने लिये प्रयुक्त किया है।___ यह विशेषण अमितगति द्वितीयके लिये कहीं भी प्रयुक्त नहीं हुआ है बल्कि स्वयं अमितगति द्वितीयने इस विशेषणको . 'त्यक्त-नि:शेषसम:' रूपमें अमितगति प्रथमके लिये प्रयुक्त किया है। जैसा की मारोहक प्रति निम्नपद्यसे जाना जाता है और जिससे उत्तः निश्चय एवं विर्णयको भरपूर पुष्टि होती है-
आशोविध्वस्त कम्तोविपुलशमभृतः श्रीमत: कान्तकीर्ते:
सूरेर्यातस्य पारं श्रुतसलिलनिधेर्देवसेनस्य शिष्यः।
विज्ञाताशेषशास्त्री व्रतसमितिभतामग्रणीरस्तकोपः
श्रीमान्मान्या मुनीनाममितगतियतिस्त्यक्तनिःशेषसंगः।
इस पद्यमें अमितगति प्रथमके गुरु देवसेनका नामोल्लेख करते हुए उन्हें विध्वस्तकामदेव, विपुलशमभृत, कान्तकीर्ति और श्रुतसमुद्रका परगामी आचार्य लिखा है तथा उनके शिष्य अमितगति योगीको अशेषशास्त्रोंका ज्ञाता, महाव्रत-समितियोके धारकोमें अग्रणी, क्रोधरहित, मुनिमान्य और समस्त वाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्यागी सूचित किया है। पिछला विशेषण सर्वोपरि मुख्य जान पड़ता है। इसीसे अमितगतिने उसे निःसंङ्गात्माके रूपमें अपने लिये प्रयुक्त किया है।
इस प्रकार द्वितीय अमितगतिसे अमितगति प्रथमका निःसङ्गात्मा' विशेषण द्वारा पार्थक्य सिद्ध है। इसके अतिरिक्त अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा आदि ग्रंथोंमें अमितगति प्रथमके महान गुणोंकी स्तुति की है। अतः अमितगति प्रथम उनसे पूर्ववर्ती हैं।
अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोहको वि सं. १०५० में पौष शुक्ला पञ्चमीके दिन समाप्त किया है। इसके पश्चात् धर्मपरीक्षाको वि. सं. १०७० में और पञ्चसंग्रहको वि. सं. १०७३ में पूरा किया हैं। अतएव अमितगति द्वितीयका समय वि. सं. १०५० है। इनके द्वारा उल्लिखित अमितगति प्रथम इनसे दो पीढी पूर्व होनेसे उनका समय वि.सं. १००० निश्चिस होता है।
इनका एकमात्र योगसारप्राभृत नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो प्रकाशित हो चुका है। यह ग्रन्थ १ अधिकारोंमें विभक्त है- १. जीवाधिकार, २, अजीवाधिकार, ३. आस्रवाधिकार, ४. बन्धाधिकार, ५. संवराधिकार, ६. निर्जराधिकार,७. मोक्षाधिकार और ८. चारित्राधिकार और नवम अधिकारको नवाधिकार या नवमाधिकारके नामसे उल्लिखित किया है । इस अधिकारकी संज्ञा चूलिकाधिकारके रूपमें की गयी है।
प्रथम अधिकारमें मङ्गलाचरणके अनन्तर स्वभावकी उपलब्धिके हेतु जीव और अजीवके लक्षणोंके जाननेकी प्रेरणा की है, क्योंकि दो प्रकारके पदार्थोंसे भिन्न संसारने तीसरे प्रकारका का नया नहीं है। सभीका अन्तर्भाव इन दो पदार्थोंमें हो जाता है। जीव-अजीवको वास्तविक रूपमें जान लेनेसे जीवकी अजीवमें अनुरक्ति तथा आसक्ति नहीं रहती है और आत्मलीनतासे रागद्वेषका क्षय हो जाता है। अन्तर जीवके उपयोग लक्षण और उसके भेद-प्रभेदोंका निर्देश करके केवलज्ञान और केवलदर्शन नामके दोनों उपयोगोंका कर्मोंके क्षयसे और शेष उपयोगोंका कर्मों के क्षयोपशमसे उदित होना बताया है। आत्माको ज्ञानप्रमाण, ज्ञानको ज्ञेयप्रमाण, सवंगत और ज्ञेयको लोकालोकप्रमाण बतलाकर ज्ञानकी आत्मप्रदेशोंके तुल्य गिद्ध किया है। ज्ञान ज्ञेयको जानता हआ भी ज्ञेयरूप परिणत नहीं होता है। आचार्यने इस अधिकार में केवलज्ञानकी त्रिकालगोचर, सभी सत्-असत् विषयोंका ज्ञाता, युगपदभासक सिद्ध किया है।
आत्मा सम्यक्चारित्रको कब प्राप्त करती है, इस कथनके पश्चात् निश्चय और व्यवहारचारित्रका स्वरूप बतलाया है। इस प्रकार प्रथम अधिकारमें आत्माके शुद्धस्वरूपका निरूपण किया गया है।
दुसरे अधिकारम घर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पांचों अजीव द्रव्योंका कथन किया है। ये पांचों अजीयद्रव्य परस्पर मिलते-जुलते एकदुसरेको अपनेमें अवकाश देते हुए कभी भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ते। इनमें पुद्गलकी छोड़कर शेष सब अमूर्तिक और निष्क्रिय हैं। जीवसहित ये पाँचों द्रव्य कहलाते हैं, क्योंकि गणपयंयवद्रव्यं इस लक्षणसे युक्त है। इसके पश्चात् द्रव्यको नियुक्तिपरक लिखकर सभी द्रव्योंको सत्तात्मक कहा है।
पश्चात् पुद्गलके स्कन्ध, देश, प्रदेश और अणु मे चार भेद बतलाये गये हैं। सभी द्रव्योंके मूर्त और अमुर्तके भेदसे दो भेद बतलाकर उनका स्वरूपांकन किया है। कर्मरूप परिणत होनेवाली कर्मवर्गणाओंका भी प्रतिपादन किया है। मिथ्यात्व आदि १३ गुणस्थान मी पौद्गलिक तथा अचेतन हैं। देह-चेतन को एक मानना मोहका परिणाम है। जो इन्द्रियगोचर है, वह सब आत्मबाह्य है। जीव कभी कर्मरूप और कर्म कभी जीवरूप नहीं होता है।
तृतीय अधिकारों मन-वाचन-कायकी साग प्रतियोमा जन रूप वर्णन आया है। निश्चय और व्यवहारनयकी दृष्टिसे आत्मा और कर्मके कर्तुत्व और भोक्तृत्वपर प्रकाश डाला गया है। एकको उपादानरूपसे दूसरेका कर्ता मानने तथा एकके कर्मफलका दूसरेको भोक्ता माननेपर, जो आपत्ति प्रस्तुत होती है, उसे दर्शाया है। कषायस्रोतसे आया हुआ कर्म ही जीवमें स्थित होता है। तदनन्तर ग्राही जीव कर्मसंतति हेतु इन्द्रियजन्य सुख, कर्मोके आस्त्रवबन्धके कारण आदिका कथन किया है।
चतुर्थ अधिकारमें बन्धका लक्षण लिखकर उसे जीवकी पराधीनताका कारण बताया है। बन्धके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चारों भेदोंका निर्देश करते हुए कौन जीव कर्म बांधता है कोन नहीं बांधता, इसका सोदाहरण स्पष्टीकरण किया है। इसी प्रकार रागी, वीतरागी, ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मबन्धके होने न होने का भी निर्देश किया है। ज्ञानी जानता है, अज्ञानी वेदता है। इसलिए एक अबन्धक और दूसरा बन्धक होता है। पर द्रव्यगत दोषसे कोई वीतरागी बन्धको प्राप्त नहीं करता।
पञ्चम अधिकारमें संवरका लक्षण बतलाकर द्रव्य-भावके भेदसे उसके दो भेद बतलाये हैं। कषायोंके निरोधको भावसंवर और कषायोंका निरोघ होनेपर द्रव्यकर्मोके आस्त्रवविच्छेदको द्वव्यसंवर बतलाया है। कषाय और द्रव्यकर्म दोनोंके अभावसे पूर्ण शुद्धि प्राप्त होती है। इस प्रकार इस अधिकारमें संवरका विस्तारपूर्वक विचार किया गया है।
षष्ठ अधिकारमें निर्जरातत्त्वका कथन आया है। निर्जराकी नियुक्तिके पश्चात् उसके पाकजा और अपाकजा दो भेद बतलाये हैं। संवरके बिना निर्जरा अकार्यकारी हैं। ध्यान और तप द्वारा योगी कर्मों की निर्जरा करता है और कर्ममलको धो डालता है।
सप्तम अधिकार में मोक्षतत्वका निरूपण किया गया है। आत्मा शुद्धात्माके ध्यान बिना मोहादिदोषोंका नाश नहीं कर पाता। ध्यानवज्जसे कर्मग्रन्थका छेदन सम्भव है। इसी अधिकारमें जीवके शुद्ध और अशुद्ध इन दो भेदोंका कथन भी आया है। कर्मसे युक्त संसारी जीव अशुद्ध है और कर्मरहित मुक्त जीव शुद्ध है। शुद्ध जीवको 'अपुनभंद' कहनेके हेतुका निर्देश किया है। साथ ही मुक्ति में आत्मा किस रूपमें निवास करती है, यह भी बतलाया है। ध्यान विधिसे कर्मों का उन्मूलन होता है, अतएव ध्यानकी महिमाका वर्णन किया गया है। ध्यानको बाह्यसामग्रीके साथ, ध्यानप्राप्तिके लिए बुद्धिका आगम, अनुमान और ध्यानाभ्यासरससे संशोधन आवश्यक बतलाया है। इस प्रकार इस अधिकारमें ध्यानको विभिन्न स्थितियों का निरूपण आया है।
अष्टम अधिकारमें चारित्रका निरूपण है। इसमें श्रमण बननेकी योग्यता और आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए श्रमणोंके २८ मूलगुणोंके नाम दिये गये हैं, जिनका योगी निष्प्रमाद रूपसे पालन करता है। जो इनके पालन करने में प्रमाद करता है, उस योगीको छेदोपस्थापक कहा है। श्रमणोंके दो भेद बतलाये हैं, सूरि और निर्यापक। इन दोनोंका विवेचन किया गया है। इस अधिकारमें श्रमणोंकी चर्वाका कथन आया है।
नवम अधिकारमें मुक्तात्माको सदानन्दरूप स्थितिका उल्लेख करते हुए चेतनस्वभावकी अविनश्वरतापर प्रकाश डाला गया है। योगीके योगका लक्षण बतलाकर योगसे उत्पन्न सुखकी विशिष्टता, सुख-दुःखका संक्षिप्त लक्षण और उस लक्षणकी दृष्टिसे पुण्यसे उत्पन्न होनेवाले भोगोंको भी दुःखरूप निदिष्ट किया है। संसारके विषयभोगोंको निस्सारता तथा भोक्ताकी स्थितिका विवेचन किया है। भोग संसारसे सच्ची विरक्ति कब प्राप्त होती है और निर्वाणतत्वमे परमभक्ति किस प्रकार उपलब्ध होती है, इसे भी बतलाया है। इस प्रकार इस ग्रन्थमें आत्मोपलब्धिके साधन, विषयभोगोंकी अस्थिरता और ध्यानकी महत्तापर प्रकाश डाला गया है।
योगसम्बन्धी ग्रन्थों में इस योगसारप्राभृतका महत्त्वपूर्ण स्थान है। नि: सन्देह योग के अध्ययन, मनन और चिन्तनके लिए यह नितान्त उपादेय है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Amitgati Pratham 1000 A.D. (Prachin)
Acharya Shri Amitgati Pratham
#amitgatijiprathamjimaharaj
15000
#amitgatijiprathamjimaharaj
amitgatijiprathamjimaharaj
You cannot copy content of this page