हैशटैग
#amrutchandrasurijimaharaj
सारस्वताचार्योंमें टीकाकार अमृतचन्द्रसूरिका यही स्थान है, जो स्थान संस्कृतकाव्यरचयिताओंमें कालिदासके टीकाकार मल्लिनाथका है। कहा जाता है कि यदि मल्लिनाथ न होते, तो कालिदासके ग्रंथोंके रहस्यको समझना कठिन हो जाता। उसी तरह यदि अमृतचन्द्रसूरि न होते, तो आचार्य कुन्दकुन्दके रहस्यको समझना कठिन हो जाता। अतएव कुन्दकुन्द आचायके व्याख्याताके रूपमें और मौलिक ग्रन्थरचयिताके रूपमें अमृतचन्द्रसूरिका महत्त्वपूर्ण स्थान है। निश्चयतः इन आचार्यकी विद्वत्ता, वाग्मिता और प्राञ्जल शैली अप्रतिम है। इनका परिचय किसी भी कृतिमें प्राप्त नहीं होता है, पर कुछ ऐसे संकेत अवश्य मिलते हैं, जिनसे इनके व्यक्तित्वका निश्चय किया जा सकता है।
अध्यात्मिक विद्वानोंमें कुन्दकुन्दके पश्चात् यदि आदरपूर्वक किसीका नाम लिया जा सकता है, तो वे अमृतचन्द्रसूरि ही हैं। इन्होंने टीकाओंके अन्त में जो संक्षिप्त परिचय दिया है उससे अवगत होता है कि ये बड़े निस्पृह आध्यात्मिक आचार्य थे। 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' के अन्तमें लिखा है-
वर्णैः कृतानि चित्रे: पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि।
वाक्यैः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्मामिः ।। २२६ ॥
अर्थात् नाना प्रकारके वर्णोसे पद बन गये, पदोंसे वाक्य बन गये और वाक्योंसे यह पवित्र शास्त्र बन गया। इसमें मेरा कर्तृत्व कुछ भी नहीं है।
इसमें अमृतचन्द्रसूरिकी कितनी निस्पृहता और आध्यात्मिकता टपक रही है। अतः वे अपनेको आत्मभावोंका ही कर्ता मानते हैं, परवस्तुका नहीं। इससे उनकी आध्यात्मिकता तो सिद्ध होती ही है, साथ ही वे आचार्य या मुनिपदसे विभूषित भी व्यक्त होते हैं।
पंडित आशाधरने अमृतचन्द्रसूरिका उल्लेख ठक्कुरपदके साथ किया है-
'एतच्च विस्तरेण ठकुरामृतचन्द्रसूरिविरचितसमयसारटीकायां दृष्टव्यम्।' अनगारधर्मामृतटीका, पृ. ५८८।
यहाँ 'ठक्कुर' शब्द विचारणीय है। ठक्कुरका प्रयोग जागीरदार या जमीदारोंके लिए होता है। हरिभद्रसूरिने अपनी 'समराइच्चकहा' में ठक्कुर पदका प्रयोग किया है। यह पद क्षत्रिय और ब्राह्मण इन दोनोंके लिए समान रूपमें प्रयुक्त होता है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अमृतचन्द्रसूरि क्षत्रिय थे या ब्राह्मण। इतना निश्चित है कि वे किसी सम्मानित कुलके व्यक्ति थे।
संस्कृत और प्राकृत इन दोनों ही भाषाओंपर इनका पूर्ण अधिकार था। ये मूलसंघके आचार्य थे।
पण्डित आशाधरजीने अमृतचन्द्रसूरिका उल्लेख किया है और आशाधरजी का समय वि. सं. १३०० है। अत: अमृतचन्द्रसूरिका समय वि. सं. १३०० के पहले होना चाहिये। अमतचन्द्रसूरिने प्रवचनसारकी टीकामें चार गाथायें उद्धात की हैं। "णिद्धा णिद्धेण" और "णिद्धस्स णिद्धेण" ये दो गाथाएँ क्रमसे एक साथ उद्धृत की हैं और 'जावदिया वयणवहा' तथा 'परसमयाणं वयण' आदि दो गाथाएँ ‘तदुक्तम्' कहकर क्रमसे एक साथ टीकाके अन्त (पृ. ३७२) में उद्धत हैं। पहलेकी दोनों गाथाएँ गोम्मटसार जीवकाण्डकी क्रमशः ६१२ तथा ६१४ संख्यक हैं और दूसरी दोनों गाथाएँ गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ८५४ और ८९५ संख्यक है। इन गाथाओंके सम्बन्धमै डॉ. उपाध्येने लिखा है कि कि गोम्मटसार कर्मकाण्डमें वे दोनों गाथाएँ उसी क्रमसे पायी जाती हैं और उनमें शाब्दिक समानता भी है। अतएव यह अनुमान लगाना असंगत नहीं है कि अमृतचन्द्रने इन गाथाओंको गोम्मटसार कर्मकाण्डसे लिया है। बहुत सम्भव है कि ये दोनों गाथाएँ 'धवला' और 'जयधवला' टीकामें भी मिल जाएं। इन दोनोंमेंसे 'जावदिया वयणवहा' गाथा सम्मतितर्क (३।४७) में भी पायी जाती है। डॉ. उपाध्येने लिखा है कि अमृतचन्द्र सिद्धसेनके सन्मतितर्कसे परिचित अवश्य थे, पर उन्होंने उक्त गाथा वहाँसे उद्धत नहीं की है। इसके प्रमुख दो कारण हैं। पहली बात तो यह है कि सिद्धसेनकी गाथाका रूप महाराष्ट्री है जबकि अमृतचन्द्रके द्वारा उद्धत गाथाएँ शौरसेनीमें हैं। दूसरी बात यह है कि अमृतचन्द्रने दोनों गाधाओंको एक साथ उद्धृत किया है जबकि सिद्धसेनके ग्रंथ में उनसे एक ही पायी जाती है। अत: डॉ. उपाध्येने अमृतचन्द्रका समय गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्डके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके बाद अर्थात् ई. सन की दशवी शताब्दीके लगभग माना है।
डॉ. उपाध्येके अभिमतकी समीक्षा पण्डित परमानन्दजीने की है। उनका कथन है कि वि. सं. १०५५ में बने हुए धर्मरत्नाकर ग्रंथमें आचार्य अमृतचन्द्रके कुछ पद्य उद्धृत हैं, तो अमृतचन्द्र वि. की ११ वीं शतीके पूर्वार्द्धमें रचे गये गोम्मटसारसे कैसे पद्य उद्धृत कर सकते हैं? प्रवचनसारकी प्रस्तावना लिखते समय डॉ. उपाध्येके सामने धर्मरत्नाकरवाली बात नहीं थी। तथा अमृतचन्द्रके द्वारा प्रवचनसारकी टीकामें उद्धृत चारों गाथाओंमेंसे प्रथम दो गाथाएँ 'षट्खण्डागम’ की धवलाटीकासे उद्धृत की गयी हैं, किन्तु दुसरी दो गाथाओंमेंसे प्रथम गाथा सिद्धसेनके सन्मतितर्कमें भी है, पर उसके साथवाली दूसरी गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्डके अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिलती। अत: धर्म रत्नाकरमें अमृतचन्द्रके पद्योंको उद्धृत देखकर यह माननेके लिए बाध्य होना पड़ता है कि गोम्मटसारमें वह गाथा किसी अन्य स्रोतसे ग्रहण की गयी है। अथवा यह भी सम्भव है कि गोम्मटसारमें ही दोनों उक्त गाथाएँ अमृतचन्द्रके प्रवचनसारकी टोकासे ली गयी हों, क्योंकि गोम्मटसार एक संग्रहग्रन्थ है। यदि गोम्मटसारकी रचना अमृतचन्द्रके पश्चात् हुई है, तो निश्चयत: ये दोनों गाथाएँ प्रवचनसारकी टीकासे ली गयी हैं। अत: अमृतचन्द्रका समय आचार्य नेमिचन्द्रके पहले है। श्री पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने अमृतचन्द्रके सम्बन्धमें जो नया प्रकाश प्राप्त किया है उसके आधारपर उन्होंने बताया है कि माधवचन्द्रके शिष्य अमृतचन्द्र विहार करते हुए बाँभणबाड़ेमें आये। कविने रल्हणके पुत्र सिंह या सिद्ध नामक कविकी 'पज्जुण्णचरिउ' बनानेको प्रेरणा की। उस समय वहाँका राजा गुहिलवंशी भुल्लण था, जो मालवनरेश वल्लालका माण्डलिक था, जिसका राज्यकाल वि. सं. १२०० के आस-पास है। यदि इस उल्लेखके आधारपर मल्लहधारि माधवचन्द्रक शिष्य अमृतचन्द्रको इन अमृतचन्द्रसे अभिन्न मान लिया जाये, तो अमृतचन्द्रका समय ११ वीं शताब्दीका उत्तरार्घ या १२ वीं शताब्दीका पूर्वाद्धं सिद्ध होता है।
आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णवमें अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपायका 'मिध्यात्ववेदरागा' आदि पद्म 'उक्तञ्च’ रूपसे उद्धृत किया है। अतएव अमृतचन्द्र, शुभचन्द्रसे भी पूर्ववर्ती हैं और पद्मप्रभ मलधारिदेवने शुभचन्द्रके ज्ञानार्णवका एक श्लोक उद्धृत किया है। अतएव शुभचन्द्र पद्मप्रभसे पूर्ववर्ती हैं। पद्मप्रभका समय वि. की १२ वीं शतीका अन्त माना जाता है। अतः अमृतचन्द्रका समय इसके पहले होना चाहिये। हमारा अनुमान है कि इनका समय ई. सन्की १० वीं शताब्दीका अन्तिम भाग है। पट्टावलीमें अमृतचन्द्रके पट्टारोहणका समय वि. सं. ९६२ दिया है, जो ठीक प्रतीत होता है। पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें जयसेनके धर्मरत्नाकरके कई पद्य पाये जाते हैं और धर्मरत्नाकरका रचनाकाल वि. सं. १०५५ है, अतएवं अमृतचन्द्रकी यह उत्तरसीमा समय है।
अमृतचन्द्रसूरिको निम्नलिखित रचनाएँ मानी जाती हैं। इनकी रचनाओं को दो कोटिमें रखा जा सकता है- मौलिक और टीकाग्रन्थ।
मौलिक रचनाएँ- १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २.तत्त्वार्थसार, ३. समयसारकलश।
टीकाग्रंथ- ४. समयसारटीका, ५. प्रवचनसारटीका, ६. पंचास्तिकायटीका।
१. पुरुषार्थसिद्धायुपाय- यह श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें २२६ पद्य हैं। आर्यावृत्तमें लिखा गया है। प्रारम्भके आठ पद्योंमें ग्रन्थकी उत्थानिका दी गयी है। इस उत्थानिकामें निश्चय और व्यवहार नयका स्वरूप, कर्मोंका कर्ता और भोक्ता आत्मा, जीवपरिणमन एवं पुरुषार्थसिद्धयुपायका अर्थ बतलाया गया है। ग्रन्थ पाँच भागोंमें विभक्त है
१. सम्यक्त्व-विवेचन,
२. सम्यक ज्ञानव्याख्यान,
३. सम्यकचारित्रव्याख्यान,
४. संल्लेखनाधर्मव्याख्यान,
५. सकलचारित्रव्याख्यान।
यह आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुखस्वरूप है, चेतनायुक्त है, अमूर्तिक है और स्पर्श, गंध, रस, वर्णसे रहित है। यह अनादिकालसे अशुद्ध हो रही है। रागादिरूप भावकर्मोंके कारण पुद्गलद्रव्य आत्मामें प्रविष्ट हो कर्मबन्धरूप परिणमन करता है। कर्मबन्धकी इस प्रक्रियाका वर्णन करते हुए कहा है-
जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्र प्रपद्य पुनरन्थे।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेने॥१२।।
जिस समय जीव राग-द्वेष-मोहभावरूप परिणमन करता है, उस समय उन भावोंका निमित पाकर पुद्गलद्रव्य स्वतः ही कर्मअवस्थाको धारण कर लेते हैं। जो प्रशस्त रागादिरूप परिणमन करता है उसके शुभ कर्मबन्ध होता है और जो अप्रशस्त राग-द्वेष-मोहरूप परिणमन करता है उसके पापबन्ध होता है। आचार्यने कर्मबन्धके प्रति निमित्तीकारणका कपन करते हुए कहा है-
परिणममानस्य चितश्चिदात्मके: स्वयमपि स्वकेर्भावः।
भवति हि निमित्तमात्रं पोद्गलिक कर्म तस्यापि ॥१३।।
इस प्रकार राग-द्वेष, कर्म बन्धके स्वरूप विश्लेषण के पश्चात् श्रावकधर्मका व्याख्यान किया गया है। आरम्भमें रत्नत्रयको मोक्षमार्ग बतलाकर गृहस्थको यथाशक्ति इसके सेवन करनेपर जोर दिया है। और बताया है कि सम्यक्त्वके बिना ग्यारह अंगपर्यन्त किया हुआ पठन-पाठन ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है तथा महाव्रतादिकोंकी साधनासे अन्तिम ग्रंवेयकपर्यन्त बन्धयोग्य विशुद्ध परिणामोंसे भी असंयमी कहलाता है। परन्तु सम्यक्त्वसहित थोड़ा-सा ज्ञान भी सम्यकज्ञान और अल्पत्याग भी सम्यक्चारीत्र कहलाता है। जिस प्रकार अंकरहित शून्य कुछ भी कार्यसाधक नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्त्वरहित ज्ञान और चारित्र भी कार्यसाधक नहीं होता। इस तरह सम्यक्त्वका महत्त्व बतलाते हुए उसके स्वरूपका विवेचन किया है-
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कत्तव्यम्।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत्।।
जीव-अजीव आदि तत्त्वरूप पदार्थोंका विपरीत आग्रह रहित श्रद्धान करना सम्यक्त्व कहलाता है।
सम्यक्त्वकी परिभाषाके अनन्तर निःशंकित्त, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टित्व, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठों अंगोंके स्वरूपका विवेचन किया है।
पदार्थका जो स्वरूप जिनागममें मिलता है, उसे यथावत् जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनमें कार्यकारणभावका सम्बन्ध है। सम्यग्ज्ञान कार्य है और सम्यग्दर्शन कारण। इन दोनोंके एक कालमें उत्पन्न होनेपर भी दीपक और प्रकाशके समान कार्य-कारणभाव घटित होता है। अतएव तत्त्वार्थश्रद्धान प्राप्त करनेके अनन्तर संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित हो पदार्थोंके स्वरूपको अवगत करने के लिए प्रवृत्त होना चाहिये। ग्रन्थका ज्ञान आठ प्रकारसे प्राप्त किया जाता है- १. शब्दाचार, २. अर्थाचार, ३. उभयाचार, ४. कालाचार, ५. विनयाचार ६. उपधानाचार, ७. बहुमानाचार, ८ अनिन्ह्वाचार ज्ञानप्राप्तिके ये आठ अंग हैं।
तृतीय अधिकारमें सम्यकचारित्रका व्याख्यान किया गया है और सकलचारित्र और विकलचारित्र कहकर मुनिधर्म और श्रावकधर्मका विवेचन किया है। पंचव्रतोंके प्रसंग अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रम्हचर्य और अपरिग्रहका मुनि एवं गृहस्थकी अपेक्षासे स्वरूप बतलाया गया है। कषायसे 'अपने' और 'पर' के भावप्राण और द्रव्यप्राणका घात करना हिंसा है। हिंसा और अहिंसाका सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए लिखा है-
अप्रादुर्भाव: खलु रागादीनां भवत्यहिसेति।
तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।।
युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि।
न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव।।
यस्मात्सकषायःसनहन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम्।
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु॥
निश्चयतः रागादि भावोंका प्रकट न होना अहिंसा है और रागादिभावोंको उत्पत्ति होना हिंसा है। रागादि भावोंके न रहनेपर सन्त पुरुषोंके केवल प्राणपीड़नसे हिंसा नहीं होती। रागादि भावोंके वशमें प्रवृत्त हुई अयतनाचाररूप प्रमाद अवस्थामें जीव भरे अथवा न मरे हिंसा अवश्य होती है। आशय यह है कि हिंसाशब्दका अर्थ घात करना है। यह घात दो प्रकारका है- एक आत्मघात दुसरा परघात। जिस समय आत्मामें कषायभावोंकी उत्पत्ति होती है उसी समय आत्मघात हो जाता है। पश्चात् यदि अन्य जीवकी आयु पूरी हो गयी हो अथवा पापका उदयं आया हो, तो उनका भी घात हो जाता है। अन्यथा आयुकर्म पूर्ण न हुआ हो, पापका उदय न आया हो तो कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि उनका घात उनके कर्मोंके अधीन है। परन्तु आत्मघात तो कषायों की उत्पत्ति होते ही हो जाता है और आत्म तथा परघात दोनों ही हिंसा हैं। इस प्रकार रागदि कषायभावको हिंसा बताया है। इन रागादिभावोंके सद्भाव के कारण ही हिसा न करनेपर भी हिंसाका सद्भाव बताया है तथा कई भंगों द्वारा हिंसा-अहिंसाका विवेचन किया है।
१. एक व्यक्ति पाप करता है और अनेक व्यक्ति फल भोगते हैं।
२. अनेक व्यक्ति हिंसा करते हैं और एक व्यक्ति फल भोगता है।
३. हिंसा करनेपर भी अहिंसक बना रहता है।
४. प्राणघात न करने पर भी हिंसक हो जाता है।
इस प्रकार अनेक भंगों द्वारा हिंसाके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है। हिंसाके कारण, मद्य, माँस, मधु और पंचउदम्बर फलोंके त्यागका उपदेश दिया गया है। इस प्रसंगमें मद्य, माँस, मधु और पंचउदम्बर फलोंके दोषोंका भी विश्लेषण किया गया है। इसके पश्चात् अनृतका वर्णन आया है। अनृतके अन्तर्गत गर्हित, सविद्य और अप्रिय वचन सम्मिलित है। अर्हीतवचनोंमें शास्त्रविरुद्ध कहे जानेवाले वचनोंको शामिल किया गया है। छेदन-भेदन, मारण, कर्षण, वाणिज्य, चौर्य आदि वचन सावद्यवचन कहलाते हैं। अरतिकर, भीतिकर, खेदकर, वैरकर, शोककर, कलहकर आदि सन्ताप देनेवाले वचन अप्रियवचन कहलाते हैं। स्तेयका विवेचन करते हुए घनके साथ अधिकार अपहरणको भी स्तेय बतलाया है। रागादिकके आवेगसे मैथुनरूप प्रवृत्ति करना अब्रह्म है। इस अब्रह्मके त्यागको ब्रह्मचर्यव्रत कहा है। मूर्छाको परिग्रहलक्षण बतलाकर अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहके भेद-प्रभेदोंको निरूपण किया है। पंचव्रतोंके पश्चात रात्रिभोजनत्यागका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। पञ्चव्रत्तोंका पालन करनेके लिए सात शीलव्रतोंका पालन करना चाहिये। जिस प्रकार परकोटा नगर की रक्षा करता है, उसी प्रकार तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत पन्चव्रतोंकी रक्षा करते हैं। गुणव्रतके तीन भेद बतलाये हैं- दिक्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत। अनर्थदण्डव्रतके अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और दुःश्रुति इन पांच भेदोंका स्वरूपसहित विवेचन किया गया है। शिक्षाव्रतके सामायिक, प्रौषधोपवास, अतिथिसंविभाग और भोगोपभोगपरिमाण इन चारोंका विवेचन किया है।
चतुर्थ संल्लेखना-अधिकरणमें संल्लेखनाका स्वरूप, आवश्यकता और उसकी विधिका वर्णन किया गया है। पंचम-सकलचारित्रव्याख्यानाधिकारमें मुनियोंके श्रत्त चरित्रका वर्णन किया है। इसमें द्वादश तप, दशधर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजयका वर्णन किया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रंथमें श्रावक धर्मका वर्णन आया है।
यह ग्रन्थ ९ अधिकारोंमें विभक्त है। प्रथम अधिकारमें ५४ पद्य, द्वितीय अधिकारमें २३८ पद्य , तृतीय अधिकारमें ७७ पद्य, चतुर्थ अधिकारमें १०५ पद्य, पंचम आंधकारमें ५४ पद्य, षष्ठ अधिकारमें ५२ पद्य, सप्तम अधिकारमें ६० पद्य, अष्टम अधिकारमें ५५ पद्य और नवम अधिकारमें २३ पद्य हैं। इन अधिकारोंके नाम क्रमश: निम्न प्रकार है-
१. मोक्षमार्गाधिकार- जीवाधिकार
२. जीवतत्त्वनिरूपणाधिकार
३. अजीवाधिकार,
४. अस्त्रवत्तत्त्वाधिकार,
५. बन्धतत्त्वाविकार,
६. संवरतत्त्वाधिकार,
७. निर्जरातत्त्वाधिकार,
८. मोक्षतत्त्वाधिकार,
९. उपसंहार,
इस ग्रन्थको आचार्यने मोक्षमार्गका प्रकाश करनेवाला दीपक बतलाया है; क्योंकि इसमें युक्ति और आगमसे सुनिश्चित सम्यग्दर्शन, सम्यम्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका स्वरूप प्रतिपादित किया है। सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप बतलाते हुए जीवादितत्त्वोंका विशद विवेचन किया है। जीव, अजीव, आस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व बतलाये हैं। इनमें जीवतत्त्व उपादेय है और अजीवतत्त्व हेय है। अजीवका जीवके साथ सम्बन्ध क्यों होता है, इसका कारण बतलानेके लिए आस्त्रवका और अजीवका सम्बन्ध होनेसे जीवकी क्या दशा होती है, यह बतलानेके लिए बन्धका कथन किया है। हेय-अजीवतत्वका सम्बन्ध जीवसे किस प्रकार छूट सकता है, यह बतलाने के लिए संवर और निर्जराका कथन तथा अजीवतत्त्वका सम्बन्ध छूटनेपर जीवकी क्या दशा होती है, यह दिखलानेके लिए मोक्षतत्त्वका कथन किया है। इन सात तत्त्वोंके सम्यक-परिज्ञानके लिए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपोंका तथा प्रमाण और नयोंका विस्तारसे वर्णन किया है। प्रथम अधिकारके अन्तमें निर्देश स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान तथा सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्व अनुयोगोंका भी उल्लेख किया है।
द्वितीय अधिकारमें जीवके औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक इन पाँच स्वतत्त्वोंका वर्णन किया गया है। जीवका लक्षण बतलानेके लिए उपयोगका निरूपण आया है। उपयोगके साकार और अनाकारके मेदसे दी भेद बतलाते हुए ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगका वर्णन किया है। पश्चात् जीवके संसारी और भुक्तके भेदसे दो भेद कर संसारी जीवोंका वर्णन गुणस्थान आदि बीस प्ररूपणाओके द्वारा किया है।
तृतीय अधिकारमें अजीवतत्त्वका वर्णन करते हुए पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव इन छह द्रव्योंका स्वरूप, इनके देश, काल, पुद्गलोंके भेद, अणु और स्कन्धका स्वरूप, पुद्गल द्रव्यकी पर्याएँ तथा स्कन्ध बननेकी प्रक्रियाका वर्णन किया गया है।
चतुर्थ अधिकारमें आस्रवतत्वका वर्णन है। कर्मोंके आस्रववोंका विस्तार सहित वर्णन किया है। शुभास्रवके वर्णनप्रसंगमें व्रत्तोंका निर्देश आया है। पंचम अधिकारमें बन्धका स्वरूप, बन्धके कारण और बन्धके भेद वर्णित हैं। इसमें कर्मोंकी मूल तथा उत्तर प्रकृत्तियोंके नाम, लक्षण तथा उनकी स्थिति आदिका कथन किया है।
षष्ठ अधिकारमें संवरतत्वका वर्णन है। इसमें संवरका स्वरूप तथा उसके कारणभूत गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह, जय और चारित्रका वर्णन किया गया है। साप्तम अधिकारमें निर्जराका वर्णन आया है। इसमें निर्जराके भेद तथा निर्जराके कारणभूत तपोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है।
अष्टम अधिकारमें मोक्षका वर्णन है। मोक्षके लक्षण तथा उसकी प्राप्तिके क्रमका सुन्दर विवेचन किया है।
नवम अधिकारमें ग्रंथका उपसंहार करते हुए प्रमाण, नय, निक्षेप और निर्देश आदिके द्वारा सात तत्त्वोंको जानकर मोक्षमार्गका आश्रय लेनेका कथन किया है। निश्चय और व्यवहारके भेदसे मोक्षमार्ग दो प्रकारका है। निश्चयमोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहारमोक्षमार्ग साधन है। अपनी शुद्धात्माकी जो श्रद्धा, ज्ञान और उपेक्षण-राग-द्वेषसे रहित प्रवर्तन है वह निश्चयमोक्षमार्ग है और देव-शास्त्रगुरुका श्रद्धान व्यवहारमोक्षमार्ग है। व्यवहारमोक्षमार्ग अन्तमें चलकर निश्चयमोक्षमार्ग में विलीन हो जाता है और उससे साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति होती है। अतः मोक्षप्राप्तिका साक्षात् कारण निश्चयमोक्षमार्ग है। व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका साधक होनेके कारण परम्परासे मोक्षमार्ग है। अतएव साधकको निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गको अपनाकर मोक्षकी प्राप्ति करनी चाहिये। बताया है-
स्यात्सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूप:
पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः॥
एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः
स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्ग:॥
पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्ररूप है और द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सदा अद्वितीय रहने वाला एक ज्ञानी आत्मा ही मोक्ष-मार्ग है।
यों तो तस्वार्थसार तत्त्वार्थसूत्रका ही व्याख्यान अथवा सार है, फिर भी इसके विषय-स्रोत गृद्धपिच्छाचार्यके तत्त्वार्थसूत्रके अतिरिक्त पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि, अकलंकदेवका तत्त्वार्थवार्त्तिक, प्राकृतपंचसंग्रह आदि ग्रंथ हैं। प्रथम अधिकार तत्त्वार्थसूत्रके आधार पर ही रचा गया है। द्वितीय अधिकारकी विषयवस्तुका आधार पंचसंग्रह और तत्त्वार्थवार्त्तिक हैं। तत्त्वार्थसूत्रके द्वितीय तृतीय और चतुर्थ अध्यायमें वर्णित समस्त प्रमेयोंको तत्त्वार्थसारके द्वितीय अधिकारमें समाविष्ट किया गया है। सर्वार्थसिद्धिसे भी अनेक विषय गृहीत हैं।
तृतीय अधिकारमें वर्णित अजीवतत्व और षड्द्रव्योंके निरूपणका आधार तत्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्त्तिकका पञ्चम अध्याय है।
चतुर्थ अधिकरणके प्रमेयोंका स्रोत तत्वार्थसूत्रके षष्ठ और सप्तम अध्याय हैं। अनेक प्रमेय अध्यायोंसे तत्त्वार्थवार्त्तिकक भी संग्रहीत हैं। पञ्चम अधिकारका आधार तत्वार्थसूत्र और उससे सम्बन्धित टीकाओंका अष्टम अध्याय है। अष्टम अधिकारके प्रमेय तत्वार्थवार्तिकसे ग्रहण किये गये हैं। यहाँ हम तुलना द्वारा अपने उपयुक्त कथनकी पुष्टि करते हैं-
जवणालियामसूरीचंदद्धअइमुत्तफुल्लतुल्लाइं।
इंदियसंठाणाई फासं पुण णेगसंठाणं।।१।६५ – पंचसंग्रह
यवनालमसू रातिमुक्तेन्द्द्धधंसमाः क्रमात्।
श्रोत्राक्षिघ्राणजिह्वाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थितिः॥२।५०॥ त. सा., अधिकार-२
खुल्ला वराडसंखा अक्खुणअरिट्ठगा य गंडोला।
कुक्खिमिसिप्पिआई णेया वेइंदिया जीवा ॥१॥७०|| - पंचसंग्रह
शम्बूक: शंखशुक्तिर्वा गण्डूपदकपर्दकाः।
कुक्षिकृम्यादयश्चैते द्वीन्द्रिया: प्राणिनो मताः ।२।५३।। त. सा., अधिकार-२
कुंथुपिपोलयमंकुणविच्छियजूविंदगोवगोम्हीया।
उत्तिगमट्टियाई णेया तेइंदिया णीवा ॥१।७१॥ -पंचसंग्रह
कुंथुः पिपीलिका कुम्भी वृश्चिकश्चैन्द्रगोपकः।
घुणमत्कुमपूकाद्यास्त्रीन्द्रियाः सन्ति जन्तवः।।२।५४।। त. सा.
'अधोत्पादः क्व तेषामिति? अत्रोच्यते प्रथमायासंज्ञिन उत्पद्यते, प्रथमा द्वित्तीययो: सरीसृपाः, तिसृषु पक्षिणः, चतसृषूरगाः, पञ्चसु सिंहाः, षरसु स्त्रियः, सप्तसु मत्स्य-मनुष्याः। न च देवा नारका वा नरकेषु उत्पद्यन्ते।'
-तत्त्वार्थवातिक, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृष्ठ-१६८
धर्मामसंज्ञिनो यान्ति वंशान्ताश्व सरीसृपाः।
मेघान्ताश्च विहङ्गाध अज्जनान्ताश्च भोगिनः।। -तत्त्वार्थसार। २।१४६
तामरिहा च सिंहास्तु मेवानगन्नास्त योषितः।
नरा मत्स्याश्च गच्छन्ति माघवीं ताश्व पापिनः।। -तत्त्वार्थसार। २।१४७
आद्यभावादन्ताभाव इति चेत्, न, दुष्टत्वादन्त्यवीजवत - तत्त्वार्थवातिक, ज्ञानपीठ संस्करण पृ. ६४१
आद्यभावान्न भाचस्य कर्मबन्धनसन्सतेः।
अन्ताभावः प्रसज्येत दृष्टत्वादन्त्यबीजवत्।। - तत्त्वार्थसार। ८।६
पुनबंधप्रसंगो जानतः पश्यत्तश्च कारुण्यादिति चेत्, न, सस्त्रिवपरिक्षयात्- तत्त्वार्थवार्तिक, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृ. ६४३
जानतः पश्यतश्चो्दध्र्व जगत्कारुण्यतः पुनः।
तस्य बन्धप्रसङ्गो न सर्वास्तवपरिक्षयात्॥ -तत्त्वार्थसार। ८।९
अकस्मादिति चेत्, अनिर्मोक्षप्रसङ्गः। - तत्त्वार्थवातिक पृ. ६४३
अकस्माच्च न बन्धः स्यादनिर्मोक्षप्रसङ्गत:।
बन्धोपपत्तिस्तत्र स्यान्मुचिप्राप्तेरनन्तरम् ।। -तत्त्वार्थसार ८।१०
गौरवाभावाच्च ।।८।। -तत्त्वार्थवातिक पृ.-६४३
तथातिगौरवाभावान्न पातोऽस्य प्रसज्जते।
वृत्तसम्बन्धविच्छेदो पतत्यानफलं गुरु ।। -तत्त्वार्थसार। ८।१२
शरीरानुविधायित्वे तदभावाद्विसर्पणप्रसङ्ग इति चेत्, न, कारणाभावात् ॥१३॥ - तत्त्वार्थवातिक पृ.-७४३
शरीराविधायित्वे तद्भावाद्विसर्पणम्।
लोकाकाशप्रमाणस्य तावन्नाकारणत्वतः।। - तत्त्वार्थसार ८।१६
दृष्टत्वाच्च निगलादिवियोगे देवदत्ताधवस्थानवत्। - तत्त्वार्थवातिक पृ.-६४४
कस्यचिच्छसलामोक्षे तत्रावस्थानदर्शनात्।
अवस्थानं न मुक्तानामूद्धव्रज्यात्मकत्वसः॥ -तत्त्वार्थसार ८।१९
समयसार-कलश यर्थार्थतः कुन्दकुन्दके समयसारपर कलशरूपमें लिखा गया है। इसका विषय-वर्गीकरण भी कुन्दकुन्दके विषयके समान ही है। इसमें कुल २७८ पद्य हैं, जो निम्न अधिकारों में विभक्त हैं-
१. पूर्वरङ्ग
२.जीवाजीवाधिकार
३. कर्तृकर्माधिकार
४. पुण्यपापाधिकार
५. आस्त्रवाधिकार
६. संवराधिकार
७. निर्जराधिकार
८. बन्धाधिकार
९. मोक्षाधिकार
१०. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
११. स्थाद्वादाधिकार
१२. साध्य-साधकाधिकार
आरम्भमें ही आत्म-तत्त्वको नमस्कार करते हुए बताया है-
नमः समयसाराय स्वानुभत्या चकासते।
चिस्वभावाच भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे।- पद्य-१।
मैं समयसार- समस्त पदार्थों में श्रेष्ठ उस आत्मतत्त्वको नमस्कार करता हू, जो स्वानुभूतिसे स्वयंप्रकाश है, चैतन्यस्वभाववाला है, शुद्ध सत्ता-रूप है और समस्त पदार्थोंको जाननेवाला है अथवा चैतन्यस्वभावसे भिन्न समस्त रागादि विकारीको न करनेवाला है। इस द्रव्य का आरम्भमें ही शुद्ध आत्मतत्त्वको नमस्कार किया गया है। समयसारकी व्याख्याका प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है-
परपरिणसिहेतोर्मोहनाम्नोनुभावा-
दविरतमनुभाग्यव्याप्तिकल्माषितायाः।
ममपरमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते-
भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः।।३।।
इस समयसारकी व्याख्यासे मेरी अनुभूतिकी परम विशुद्धता प्रकट हो। यद्यपि मेरी वह अनुभूति शुद्ध चैतन्यमात्र मुर्तिसे युक्त है अर्थात् परम ज्ञायक भावसे सहित है तथापि वर्तमानमें परपरिणतिका कारण जो मोहनामका कर्म है, उसके उदयरूप विपाकसे निरन्सर रागादिकी व्याप्तिसे कल्माषित-मलिन हो रही है। अर्थात इस व्याख्यासे मेरो अनुभूतिमें परम विशुद्धसा उत्पन्न होगी। निश्चय और व्यवहार नयके विवादको समाप्त करते हुए बताया है-
उभयनविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाले
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहः।
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चे
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव॥४॥
अर्थात् निश्चय और व्यवहार नयके विषयमें परस्पर विरोध है, क्योंकि निश्चयनय अमेदको ग्रहण करता है और व्यवहारनय भेदको। किन्तु इस विरोध का परिहार करनेवाला स्याद्वादवचन है, उस वचनमें वे ही रमण कर सकते हैं, जिन्होंने मोहका वमन कर दिया है और वे ही पुरुष शीघ्र ही उस समयसार का अवलोकन करते हैं, जो कि अतिशयसे परमज्योतिस्वरूप है। नवीन नहीं अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे नित्य हैं और एकान्तपक्षसे जिसका खण्डन नहीं हो सकता।
शुद्धनयकी दृष्टिसे आत्मा अपने एकपनमें नियत है। स्वकीय गुणपर्यायोंमें व्याप्त होकर रहता है तथा पूर्णज्ञानका पिण्ड है। ऐसे आत्मतत्त्वका आत्मातिरिक द्रव्योंसे भिन्न अवलोकन करता है, इसीका नाम सम्यकदर्शन है। इसके होते ही जो आत्मज्ञान होता है वह सम्यकज्ञान कहलाता है। जब तक आत्मामें परसे भिन्न अपनी यथार्थ प्रतीति नहीं होती तब तक यथार्थ मान नहीं होता। अतएव नवतत्त्वकी संततिको छोड़कर केवल एक आत्माको ही परसे भिन्न शुखरूपमें अनुभूत करना ही यथार्थ पुरुषार्थ है। बताया है-
एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः
पूर्णज्ञानधनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक।
सम्यादर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्माध्यमेकोऽस्तु नः||६||
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने समयसारके समान ही विषयोंका विवेचन करते हुए आरमाका कर्तृत्व, भोक्तव आदिका निरूपण किया है। अन्तमें आत्माकी आश्चर्यकारक महिमाका वर्णन करते हुए लिखा है- "जब विभावशक्तिकी अपेक्षासे विचार करते हैं तब मात्मामें कषाधका उपद्रव दिखाई देता है और जब स्वभावदशाका विचार करते हैं तो शान्तिका प्रसार अनुभवमें भाता है। कर्मबन्धकी अपेक्षा संसारकी जन्म-मरण रूप बाधा दिखाई देती है और शुद्ध स्वरूपका विचार करनेपर मुक्ति का स्पर्श अनुभव में आता है। स्वपरिज्ञायक भावकी अपेक्षा करनेपर आत्मा लोकत्रयका ज्ञाता है और शायकभावको अपेक्षा एक चैतन्यमात्र अनुभव में माता है। इस प्रकार अनेक विरुद्ध धर्मोंके समावेश गोरा आलाकमावली इमु महिमा दिखाई पड़ती है-
कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो
भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकत्तः।
जगत्रितयमेकतः स्फुरति चिचकास्त्येकतः
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः॥२७३।।
समयसारकी अपेक्षा समयसारकलश अतिगहन हैं। निश्चयतः आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने अध्यात्ममंगा प्रवाहित की है। इस गंगामें अवगाहन करनेवाले सभी प्रकारसे शान्तिलाभ करते हैं।
अमृतचन्द्रकी समयसार-टीका आत्मख्यातिके नामसे प्रसिद्ध है। यह आचार्य की प्रांजल शैलीका उत्कृष्ट नमूना है। उन्होंने गाथाके शब्दोंका व्याख्यान न कर उसके अभिप्रायको अपनी परिष्कृत गद्यशैलीमें व्यक्त किया है। जहाँ उन्हें गाथा के मूलभावमें कोई कमी दिखलाई पड़ी है वहां उन्होंने समयसारकलश नामसे पद्य भी लिख दिया है। यह समयसारकलश आत्मख्यातिटीकामें मिश्रित हो जानेपर भी उसका ग्रंथरूपमें पृथक अस्तित्व भी है। टीकामें समस्यन्तपद भी विद्यमान हैं तथा अनेक शब्दोंके निर्वचन भी दिये गये हैं और भावको स्पष्ट करनेका पूर्ण प्रयास किया है। जहाँ कुन्दकुन्दके ग्रन्थों में प्रमेय अस्पष्ट थे वहाँ कलश अथवा आत्मख्याति टीकाद्वारा ही स्पष्टता लाकर जैनतत्त्वज्ञानको समृद्ध किया है।
अमृतचंद्रने ही समय करके वर्गीकारण कीया है तथा समयपाहुडको समयसार नाम देनेका श्रेय भी इन्हींको प्राप्त है। टीकाको नाटकके समान अड़ोंमें विभाजित किया है। प्रथम अखसे पूर्वके प्रारम्भिक भागको पूर्वरत्न कहा गया है। जिस प्रकार नाटकमें पात्रोंका निष्क्रमण और प्रवेश होता है उसी प्रकार प्रहांपर भी प्रवेश और निष्क्रमण कराया गया है। प्रथम अङ्कजीवा जीवाधिकार है। इसमें जीवकी अजीवसे भिन्न बतलाया है और अन्तमें लिखा है- "जोवाजीवो पृथग्भूत्वा निष्क्रान्ती" अर्थात् जीव और अजीव पृथक-पृथक् होकर चले गये। दूसरे कर्तृकर्म अधिकारके आरम्भमें लिखा है- "जीव-अजीव ही कर्ता और कर्मका वेष धारणकर प्रवेश करते हैं तथा अन्त में लिखा है- "जीव और अजीव कर्ता एवं कर्मका वेष छोड़कर निकल गये।" तीसरे पुण्यं पाप अधिकारके आदिमें लिखा है- "एक ही कर्म पुण्य और पापके रूपमें दो पात्रोंका वैष धारण करके प्रवेश करता है" और अन्तमें लिखा है पुण्य और पापके रूपसे दो पात्रोंका वेषधारण करनेवाला कर्म एक पात्ररूप होकर निकल गया अर्थात् कर्म में पुण्य-पापका भेद मिथ्या है, दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। इसी प्रकार आस्तव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष अधिकारोंमें उन-उन तत्वोंका प्रवेश और निर्गमन कराया गया है। वस्तुत: यह संसार एक रंगमंच है जिसपर जीव और अजीव नानारूप धारण करके अभिनय करते हैं। यहां अभिनयका आचरण करनेवाला या सूत्रधार पौद्गलिक कर्म है।
यह टीका पर्याप्त विस्तृत और गहन है। यहां उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की जाती हैं-
"अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वनानेन, स्वपरयोरेकत्व दर्शनेन, स्वपरयोरेकस्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृसिस्वभाव मप्यहत्तया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते। शानी तु शुद्धात्मशानं सद्भावात्स्वपरयोनि भागज्ञानेन स्वपरयोविभागदर्शनेन स्वपरयोविभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वाभावा दपसूतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतयानुभवन् कर्मफलमुदितं जेयमात्रत्वात् जानास्येव न पुनस्तस्याहत्तयानुभवितुमशक्यत्वाद्वेचते ॥३१६॥"
प्रवचनसारकी टीकाका नाम तत्वदीपिका है। यह टीका भी प्रांजल शेलीमें समयसारकी टीकाके समान ही लिखी गयी है। इससे मी उनकी आध्यात्मिक रसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको तर्कपूर्वक सिद्ध करनेकी असाधारण शक्ति, तत्वतत्त्वार्थका गम्भीरज्ञान, निवच्य व्यवहारका क्रमबद्ध निरूपण आदि अनेक विशेषताएँ विद्यमान हैं। मूलग्रंथकारने जिन भावोंको छोड भी दिया है उनका भी प्रकटीकरण टीकाकारने किया है। टीका समस्यन्त गद्यमें लिखी गयी है, शैली पर्याप्त प्रौढ़ है और शब्दार्थके स्थानपर विषयको स्पष्ट करनेवाली है। यथा-
"यतो न खल्विन्द्रियाण्यालम्ब्यावग्रहेहावायपूर्वकप्रक्रमेण केवली विजानाति, स्वयमेव समस्तावरणक्षयक्षण एवानाद्यनन्ताहेतुकासाधारणभूतज्ञानस्वभावमेव कारणल्वेनोपादाय तदुपरि प्रविकसकेवलज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमते, ततोऽ स्थाक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया समक्षसंवेदनालम्बनभूताः सर्व द्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा एव भवन्ति।"
पंचास्तिकायकी १७३ गाथाओंपर आचार्य अमृतचन्द्रने टीका लिखी है। टीकाकारने इस ग्रंथकी चार भागमें विभाजित किया है-
१. पीठिका
२. प्रथम श्रुतस्कन्ध
३. द्वितीय श्रुतस्कन्ध
४. चूलिका
पीठिका में २६ गाथाएँ हैं और उनकी व्याख्या उक्त दोनों ग्रन्थोंके समान ही की गयी है। प्रथम श्रुतस्कन्धमें ७८ गाथाओंकी व्याख्या है। द्वितीय श्रुतस्कन्धमें ४९ गाथाओंकी व्याख्या दी गयी है। चूलिकामें बीस गाथाओंकी टीका है। इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने पंचास्तिकायके विषयको भी अपनी टीकामें विस्तृत और स्पष्ट बनानेका पूर्ण प्रयास किया है। इस टीकाका नाम भी तत्त्वदीपिका है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
सारस्वताचार्योंमें टीकाकार अमृतचन्द्रसूरिका यही स्थान है, जो स्थान संस्कृतकाव्यरचयिताओंमें कालिदासके टीकाकार मल्लिनाथका है। कहा जाता है कि यदि मल्लिनाथ न होते, तो कालिदासके ग्रंथोंके रहस्यको समझना कठिन हो जाता। उसी तरह यदि अमृतचन्द्रसूरि न होते, तो आचार्य कुन्दकुन्दके रहस्यको समझना कठिन हो जाता। अतएव कुन्दकुन्द आचायके व्याख्याताके रूपमें और मौलिक ग्रन्थरचयिताके रूपमें अमृतचन्द्रसूरिका महत्त्वपूर्ण स्थान है। निश्चयतः इन आचार्यकी विद्वत्ता, वाग्मिता और प्राञ्जल शैली अप्रतिम है। इनका परिचय किसी भी कृतिमें प्राप्त नहीं होता है, पर कुछ ऐसे संकेत अवश्य मिलते हैं, जिनसे इनके व्यक्तित्वका निश्चय किया जा सकता है।
अध्यात्मिक विद्वानोंमें कुन्दकुन्दके पश्चात् यदि आदरपूर्वक किसीका नाम लिया जा सकता है, तो वे अमृतचन्द्रसूरि ही हैं। इन्होंने टीकाओंके अन्त में जो संक्षिप्त परिचय दिया है उससे अवगत होता है कि ये बड़े निस्पृह आध्यात्मिक आचार्य थे। 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' के अन्तमें लिखा है-
वर्णैः कृतानि चित्रे: पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि।
वाक्यैः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्मामिः ।। २२६ ॥
अर्थात् नाना प्रकारके वर्णोसे पद बन गये, पदोंसे वाक्य बन गये और वाक्योंसे यह पवित्र शास्त्र बन गया। इसमें मेरा कर्तृत्व कुछ भी नहीं है।
इसमें अमृतचन्द्रसूरिकी कितनी निस्पृहता और आध्यात्मिकता टपक रही है। अतः वे अपनेको आत्मभावोंका ही कर्ता मानते हैं, परवस्तुका नहीं। इससे उनकी आध्यात्मिकता तो सिद्ध होती ही है, साथ ही वे आचार्य या मुनिपदसे विभूषित भी व्यक्त होते हैं।
पंडित आशाधरने अमृतचन्द्रसूरिका उल्लेख ठक्कुरपदके साथ किया है-
'एतच्च विस्तरेण ठकुरामृतचन्द्रसूरिविरचितसमयसारटीकायां दृष्टव्यम्।' अनगारधर्मामृतटीका, पृ. ५८८।
यहाँ 'ठक्कुर' शब्द विचारणीय है। ठक्कुरका प्रयोग जागीरदार या जमीदारोंके लिए होता है। हरिभद्रसूरिने अपनी 'समराइच्चकहा' में ठक्कुर पदका प्रयोग किया है। यह पद क्षत्रिय और ब्राह्मण इन दोनोंके लिए समान रूपमें प्रयुक्त होता है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अमृतचन्द्रसूरि क्षत्रिय थे या ब्राह्मण। इतना निश्चित है कि वे किसी सम्मानित कुलके व्यक्ति थे।
संस्कृत और प्राकृत इन दोनों ही भाषाओंपर इनका पूर्ण अधिकार था। ये मूलसंघके आचार्य थे।
पण्डित आशाधरजीने अमृतचन्द्रसूरिका उल्लेख किया है और आशाधरजी का समय वि. सं. १३०० है। अत: अमृतचन्द्रसूरिका समय वि. सं. १३०० के पहले होना चाहिये। अमतचन्द्रसूरिने प्रवचनसारकी टीकामें चार गाथायें उद्धात की हैं। "णिद्धा णिद्धेण" और "णिद्धस्स णिद्धेण" ये दो गाथाएँ क्रमसे एक साथ उद्धृत की हैं और 'जावदिया वयणवहा' तथा 'परसमयाणं वयण' आदि दो गाथाएँ ‘तदुक्तम्' कहकर क्रमसे एक साथ टीकाके अन्त (पृ. ३७२) में उद्धत हैं। पहलेकी दोनों गाथाएँ गोम्मटसार जीवकाण्डकी क्रमशः ६१२ तथा ६१४ संख्यक हैं और दूसरी दोनों गाथाएँ गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ८५४ और ८९५ संख्यक है। इन गाथाओंके सम्बन्धमै डॉ. उपाध्येने लिखा है कि कि गोम्मटसार कर्मकाण्डमें वे दोनों गाथाएँ उसी क्रमसे पायी जाती हैं और उनमें शाब्दिक समानता भी है। अतएव यह अनुमान लगाना असंगत नहीं है कि अमृतचन्द्रने इन गाथाओंको गोम्मटसार कर्मकाण्डसे लिया है। बहुत सम्भव है कि ये दोनों गाथाएँ 'धवला' और 'जयधवला' टीकामें भी मिल जाएं। इन दोनोंमेंसे 'जावदिया वयणवहा' गाथा सम्मतितर्क (३।४७) में भी पायी जाती है। डॉ. उपाध्येने लिखा है कि अमृतचन्द्र सिद्धसेनके सन्मतितर्कसे परिचित अवश्य थे, पर उन्होंने उक्त गाथा वहाँसे उद्धत नहीं की है। इसके प्रमुख दो कारण हैं। पहली बात तो यह है कि सिद्धसेनकी गाथाका रूप महाराष्ट्री है जबकि अमृतचन्द्रके द्वारा उद्धत गाथाएँ शौरसेनीमें हैं। दूसरी बात यह है कि अमृतचन्द्रने दोनों गाधाओंको एक साथ उद्धृत किया है जबकि सिद्धसेनके ग्रंथ में उनसे एक ही पायी जाती है। अत: डॉ. उपाध्येने अमृतचन्द्रका समय गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्डके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके बाद अर्थात् ई. सन की दशवी शताब्दीके लगभग माना है।
डॉ. उपाध्येके अभिमतकी समीक्षा पण्डित परमानन्दजीने की है। उनका कथन है कि वि. सं. १०५५ में बने हुए धर्मरत्नाकर ग्रंथमें आचार्य अमृतचन्द्रके कुछ पद्य उद्धृत हैं, तो अमृतचन्द्र वि. की ११ वीं शतीके पूर्वार्द्धमें रचे गये गोम्मटसारसे कैसे पद्य उद्धृत कर सकते हैं? प्रवचनसारकी प्रस्तावना लिखते समय डॉ. उपाध्येके सामने धर्मरत्नाकरवाली बात नहीं थी। तथा अमृतचन्द्रके द्वारा प्रवचनसारकी टीकामें उद्धृत चारों गाथाओंमेंसे प्रथम दो गाथाएँ 'षट्खण्डागम’ की धवलाटीकासे उद्धृत की गयी हैं, किन्तु दुसरी दो गाथाओंमेंसे प्रथम गाथा सिद्धसेनके सन्मतितर्कमें भी है, पर उसके साथवाली दूसरी गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्डके अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिलती। अत: धर्म रत्नाकरमें अमृतचन्द्रके पद्योंको उद्धृत देखकर यह माननेके लिए बाध्य होना पड़ता है कि गोम्मटसारमें वह गाथा किसी अन्य स्रोतसे ग्रहण की गयी है। अथवा यह भी सम्भव है कि गोम्मटसारमें ही दोनों उक्त गाथाएँ अमृतचन्द्रके प्रवचनसारकी टोकासे ली गयी हों, क्योंकि गोम्मटसार एक संग्रहग्रन्थ है। यदि गोम्मटसारकी रचना अमृतचन्द्रके पश्चात् हुई है, तो निश्चयत: ये दोनों गाथाएँ प्रवचनसारकी टीकासे ली गयी हैं। अत: अमृतचन्द्रका समय आचार्य नेमिचन्द्रके पहले है। श्री पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने अमृतचन्द्रके सम्बन्धमें जो नया प्रकाश प्राप्त किया है उसके आधारपर उन्होंने बताया है कि माधवचन्द्रके शिष्य अमृतचन्द्र विहार करते हुए बाँभणबाड़ेमें आये। कविने रल्हणके पुत्र सिंह या सिद्ध नामक कविकी 'पज्जुण्णचरिउ' बनानेको प्रेरणा की। उस समय वहाँका राजा गुहिलवंशी भुल्लण था, जो मालवनरेश वल्लालका माण्डलिक था, जिसका राज्यकाल वि. सं. १२०० के आस-पास है। यदि इस उल्लेखके आधारपर मल्लहधारि माधवचन्द्रक शिष्य अमृतचन्द्रको इन अमृतचन्द्रसे अभिन्न मान लिया जाये, तो अमृतचन्द्रका समय ११ वीं शताब्दीका उत्तरार्घ या १२ वीं शताब्दीका पूर्वाद्धं सिद्ध होता है।
आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णवमें अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपायका 'मिध्यात्ववेदरागा' आदि पद्म 'उक्तञ्च’ रूपसे उद्धृत किया है। अतएव अमृतचन्द्र, शुभचन्द्रसे भी पूर्ववर्ती हैं और पद्मप्रभ मलधारिदेवने शुभचन्द्रके ज्ञानार्णवका एक श्लोक उद्धृत किया है। अतएव शुभचन्द्र पद्मप्रभसे पूर्ववर्ती हैं। पद्मप्रभका समय वि. की १२ वीं शतीका अन्त माना जाता है। अतः अमृतचन्द्रका समय इसके पहले होना चाहिये। हमारा अनुमान है कि इनका समय ई. सन्की १० वीं शताब्दीका अन्तिम भाग है। पट्टावलीमें अमृतचन्द्रके पट्टारोहणका समय वि. सं. ९६२ दिया है, जो ठीक प्रतीत होता है। पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें जयसेनके धर्मरत्नाकरके कई पद्य पाये जाते हैं और धर्मरत्नाकरका रचनाकाल वि. सं. १०५५ है, अतएवं अमृतचन्द्रकी यह उत्तरसीमा समय है।
अमृतचन्द्रसूरिको निम्नलिखित रचनाएँ मानी जाती हैं। इनकी रचनाओं को दो कोटिमें रखा जा सकता है- मौलिक और टीकाग्रन्थ।
मौलिक रचनाएँ- १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २.तत्त्वार्थसार, ३. समयसारकलश।
टीकाग्रंथ- ४. समयसारटीका, ५. प्रवचनसारटीका, ६. पंचास्तिकायटीका।
१. पुरुषार्थसिद्धायुपाय- यह श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें २२६ पद्य हैं। आर्यावृत्तमें लिखा गया है। प्रारम्भके आठ पद्योंमें ग्रन्थकी उत्थानिका दी गयी है। इस उत्थानिकामें निश्चय और व्यवहार नयका स्वरूप, कर्मोंका कर्ता और भोक्ता आत्मा, जीवपरिणमन एवं पुरुषार्थसिद्धयुपायका अर्थ बतलाया गया है। ग्रन्थ पाँच भागोंमें विभक्त है
१. सम्यक्त्व-विवेचन,
२. सम्यक ज्ञानव्याख्यान,
३. सम्यकचारित्रव्याख्यान,
४. संल्लेखनाधर्मव्याख्यान,
५. सकलचारित्रव्याख्यान।
यह आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुखस्वरूप है, चेतनायुक्त है, अमूर्तिक है और स्पर्श, गंध, रस, वर्णसे रहित है। यह अनादिकालसे अशुद्ध हो रही है। रागादिरूप भावकर्मोंके कारण पुद्गलद्रव्य आत्मामें प्रविष्ट हो कर्मबन्धरूप परिणमन करता है। कर्मबन्धकी इस प्रक्रियाका वर्णन करते हुए कहा है-
जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्र प्रपद्य पुनरन्थे।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेने॥१२।।
जिस समय जीव राग-द्वेष-मोहभावरूप परिणमन करता है, उस समय उन भावोंका निमित पाकर पुद्गलद्रव्य स्वतः ही कर्मअवस्थाको धारण कर लेते हैं। जो प्रशस्त रागादिरूप परिणमन करता है उसके शुभ कर्मबन्ध होता है और जो अप्रशस्त राग-द्वेष-मोहरूप परिणमन करता है उसके पापबन्ध होता है। आचार्यने कर्मबन्धके प्रति निमित्तीकारणका कपन करते हुए कहा है-
परिणममानस्य चितश्चिदात्मके: स्वयमपि स्वकेर्भावः।
भवति हि निमित्तमात्रं पोद्गलिक कर्म तस्यापि ॥१३।।
इस प्रकार राग-द्वेष, कर्म बन्धके स्वरूप विश्लेषण के पश्चात् श्रावकधर्मका व्याख्यान किया गया है। आरम्भमें रत्नत्रयको मोक्षमार्ग बतलाकर गृहस्थको यथाशक्ति इसके सेवन करनेपर जोर दिया है। और बताया है कि सम्यक्त्वके बिना ग्यारह अंगपर्यन्त किया हुआ पठन-पाठन ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है तथा महाव्रतादिकोंकी साधनासे अन्तिम ग्रंवेयकपर्यन्त बन्धयोग्य विशुद्ध परिणामोंसे भी असंयमी कहलाता है। परन्तु सम्यक्त्वसहित थोड़ा-सा ज्ञान भी सम्यकज्ञान और अल्पत्याग भी सम्यक्चारीत्र कहलाता है। जिस प्रकार अंकरहित शून्य कुछ भी कार्यसाधक नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्त्वरहित ज्ञान और चारित्र भी कार्यसाधक नहीं होता। इस तरह सम्यक्त्वका महत्त्व बतलाते हुए उसके स्वरूपका विवेचन किया है-
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कत्तव्यम्।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत्।।
जीव-अजीव आदि तत्त्वरूप पदार्थोंका विपरीत आग्रह रहित श्रद्धान करना सम्यक्त्व कहलाता है।
सम्यक्त्वकी परिभाषाके अनन्तर निःशंकित्त, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टित्व, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठों अंगोंके स्वरूपका विवेचन किया है।
पदार्थका जो स्वरूप जिनागममें मिलता है, उसे यथावत् जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनमें कार्यकारणभावका सम्बन्ध है। सम्यग्ज्ञान कार्य है और सम्यग्दर्शन कारण। इन दोनोंके एक कालमें उत्पन्न होनेपर भी दीपक और प्रकाशके समान कार्य-कारणभाव घटित होता है। अतएव तत्त्वार्थश्रद्धान प्राप्त करनेके अनन्तर संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित हो पदार्थोंके स्वरूपको अवगत करने के लिए प्रवृत्त होना चाहिये। ग्रन्थका ज्ञान आठ प्रकारसे प्राप्त किया जाता है- १. शब्दाचार, २. अर्थाचार, ३. उभयाचार, ४. कालाचार, ५. विनयाचार ६. उपधानाचार, ७. बहुमानाचार, ८ अनिन्ह्वाचार ज्ञानप्राप्तिके ये आठ अंग हैं।
तृतीय अधिकारमें सम्यकचारित्रका व्याख्यान किया गया है और सकलचारित्र और विकलचारित्र कहकर मुनिधर्म और श्रावकधर्मका विवेचन किया है। पंचव्रतोंके प्रसंग अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रम्हचर्य और अपरिग्रहका मुनि एवं गृहस्थकी अपेक्षासे स्वरूप बतलाया गया है। कषायसे 'अपने' और 'पर' के भावप्राण और द्रव्यप्राणका घात करना हिंसा है। हिंसा और अहिंसाका सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए लिखा है-
अप्रादुर्भाव: खलु रागादीनां भवत्यहिसेति।
तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।।
युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि।
न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव।।
यस्मात्सकषायःसनहन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम्।
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु॥
निश्चयतः रागादि भावोंका प्रकट न होना अहिंसा है और रागादिभावोंको उत्पत्ति होना हिंसा है। रागादि भावोंके न रहनेपर सन्त पुरुषोंके केवल प्राणपीड़नसे हिंसा नहीं होती। रागादि भावोंके वशमें प्रवृत्त हुई अयतनाचाररूप प्रमाद अवस्थामें जीव भरे अथवा न मरे हिंसा अवश्य होती है। आशय यह है कि हिंसाशब्दका अर्थ घात करना है। यह घात दो प्रकारका है- एक आत्मघात दुसरा परघात। जिस समय आत्मामें कषायभावोंकी उत्पत्ति होती है उसी समय आत्मघात हो जाता है। पश्चात् यदि अन्य जीवकी आयु पूरी हो गयी हो अथवा पापका उदयं आया हो, तो उनका भी घात हो जाता है। अन्यथा आयुकर्म पूर्ण न हुआ हो, पापका उदय न आया हो तो कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि उनका घात उनके कर्मोंके अधीन है। परन्तु आत्मघात तो कषायों की उत्पत्ति होते ही हो जाता है और आत्म तथा परघात दोनों ही हिंसा हैं। इस प्रकार रागदि कषायभावको हिंसा बताया है। इन रागादिभावोंके सद्भाव के कारण ही हिसा न करनेपर भी हिंसाका सद्भाव बताया है तथा कई भंगों द्वारा हिंसा-अहिंसाका विवेचन किया है।
१. एक व्यक्ति पाप करता है और अनेक व्यक्ति फल भोगते हैं।
२. अनेक व्यक्ति हिंसा करते हैं और एक व्यक्ति फल भोगता है।
३. हिंसा करनेपर भी अहिंसक बना रहता है।
४. प्राणघात न करने पर भी हिंसक हो जाता है।
इस प्रकार अनेक भंगों द्वारा हिंसाके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है। हिंसाके कारण, मद्य, माँस, मधु और पंचउदम्बर फलोंके त्यागका उपदेश दिया गया है। इस प्रसंगमें मद्य, माँस, मधु और पंचउदम्बर फलोंके दोषोंका भी विश्लेषण किया गया है। इसके पश्चात् अनृतका वर्णन आया है। अनृतके अन्तर्गत गर्हित, सविद्य और अप्रिय वचन सम्मिलित है। अर्हीतवचनोंमें शास्त्रविरुद्ध कहे जानेवाले वचनोंको शामिल किया गया है। छेदन-भेदन, मारण, कर्षण, वाणिज्य, चौर्य आदि वचन सावद्यवचन कहलाते हैं। अरतिकर, भीतिकर, खेदकर, वैरकर, शोककर, कलहकर आदि सन्ताप देनेवाले वचन अप्रियवचन कहलाते हैं। स्तेयका विवेचन करते हुए घनके साथ अधिकार अपहरणको भी स्तेय बतलाया है। रागादिकके आवेगसे मैथुनरूप प्रवृत्ति करना अब्रह्म है। इस अब्रह्मके त्यागको ब्रह्मचर्यव्रत कहा है। मूर्छाको परिग्रहलक्षण बतलाकर अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहके भेद-प्रभेदोंको निरूपण किया है। पंचव्रतोंके पश्चात रात्रिभोजनत्यागका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। पञ्चव्रत्तोंका पालन करनेके लिए सात शीलव्रतोंका पालन करना चाहिये। जिस प्रकार परकोटा नगर की रक्षा करता है, उसी प्रकार तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत पन्चव्रतोंकी रक्षा करते हैं। गुणव्रतके तीन भेद बतलाये हैं- दिक्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत। अनर्थदण्डव्रतके अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और दुःश्रुति इन पांच भेदोंका स्वरूपसहित विवेचन किया गया है। शिक्षाव्रतके सामायिक, प्रौषधोपवास, अतिथिसंविभाग और भोगोपभोगपरिमाण इन चारोंका विवेचन किया है।
चतुर्थ संल्लेखना-अधिकरणमें संल्लेखनाका स्वरूप, आवश्यकता और उसकी विधिका वर्णन किया गया है। पंचम-सकलचारित्रव्याख्यानाधिकारमें मुनियोंके श्रत्त चरित्रका वर्णन किया है। इसमें द्वादश तप, दशधर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजयका वर्णन किया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रंथमें श्रावक धर्मका वर्णन आया है।
यह ग्रन्थ ९ अधिकारोंमें विभक्त है। प्रथम अधिकारमें ५४ पद्य, द्वितीय अधिकारमें २३८ पद्य , तृतीय अधिकारमें ७७ पद्य, चतुर्थ अधिकारमें १०५ पद्य, पंचम आंधकारमें ५४ पद्य, षष्ठ अधिकारमें ५२ पद्य, सप्तम अधिकारमें ६० पद्य, अष्टम अधिकारमें ५५ पद्य और नवम अधिकारमें २३ पद्य हैं। इन अधिकारोंके नाम क्रमश: निम्न प्रकार है-
१. मोक्षमार्गाधिकार- जीवाधिकार
२. जीवतत्त्वनिरूपणाधिकार
३. अजीवाधिकार,
४. अस्त्रवत्तत्त्वाधिकार,
५. बन्धतत्त्वाविकार,
६. संवरतत्त्वाधिकार,
७. निर्जरातत्त्वाधिकार,
८. मोक्षतत्त्वाधिकार,
९. उपसंहार,
इस ग्रन्थको आचार्यने मोक्षमार्गका प्रकाश करनेवाला दीपक बतलाया है; क्योंकि इसमें युक्ति और आगमसे सुनिश्चित सम्यग्दर्शन, सम्यम्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका स्वरूप प्रतिपादित किया है। सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप बतलाते हुए जीवादितत्त्वोंका विशद विवेचन किया है। जीव, अजीव, आस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व बतलाये हैं। इनमें जीवतत्त्व उपादेय है और अजीवतत्त्व हेय है। अजीवका जीवके साथ सम्बन्ध क्यों होता है, इसका कारण बतलानेके लिए आस्त्रवका और अजीवका सम्बन्ध होनेसे जीवकी क्या दशा होती है, यह बतलानेके लिए बन्धका कथन किया है। हेय-अजीवतत्वका सम्बन्ध जीवसे किस प्रकार छूट सकता है, यह बतलाने के लिए संवर और निर्जराका कथन तथा अजीवतत्त्वका सम्बन्ध छूटनेपर जीवकी क्या दशा होती है, यह दिखलानेके लिए मोक्षतत्त्वका कथन किया है। इन सात तत्त्वोंके सम्यक-परिज्ञानके लिए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपोंका तथा प्रमाण और नयोंका विस्तारसे वर्णन किया है। प्रथम अधिकारके अन्तमें निर्देश स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान तथा सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्व अनुयोगोंका भी उल्लेख किया है।
द्वितीय अधिकारमें जीवके औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक इन पाँच स्वतत्त्वोंका वर्णन किया गया है। जीवका लक्षण बतलानेके लिए उपयोगका निरूपण आया है। उपयोगके साकार और अनाकारके मेदसे दी भेद बतलाते हुए ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगका वर्णन किया है। पश्चात् जीवके संसारी और भुक्तके भेदसे दो भेद कर संसारी जीवोंका वर्णन गुणस्थान आदि बीस प्ररूपणाओके द्वारा किया है।
तृतीय अधिकारमें अजीवतत्त्वका वर्णन करते हुए पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव इन छह द्रव्योंका स्वरूप, इनके देश, काल, पुद्गलोंके भेद, अणु और स्कन्धका स्वरूप, पुद्गल द्रव्यकी पर्याएँ तथा स्कन्ध बननेकी प्रक्रियाका वर्णन किया गया है।
चतुर्थ अधिकारमें आस्रवतत्वका वर्णन है। कर्मोंके आस्रववोंका विस्तार सहित वर्णन किया है। शुभास्रवके वर्णनप्रसंगमें व्रत्तोंका निर्देश आया है। पंचम अधिकारमें बन्धका स्वरूप, बन्धके कारण और बन्धके भेद वर्णित हैं। इसमें कर्मोंकी मूल तथा उत्तर प्रकृत्तियोंके नाम, लक्षण तथा उनकी स्थिति आदिका कथन किया है।
षष्ठ अधिकारमें संवरतत्वका वर्णन है। इसमें संवरका स्वरूप तथा उसके कारणभूत गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह, जय और चारित्रका वर्णन किया गया है। साप्तम अधिकारमें निर्जराका वर्णन आया है। इसमें निर्जराके भेद तथा निर्जराके कारणभूत तपोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है।
अष्टम अधिकारमें मोक्षका वर्णन है। मोक्षके लक्षण तथा उसकी प्राप्तिके क्रमका सुन्दर विवेचन किया है।
नवम अधिकारमें ग्रंथका उपसंहार करते हुए प्रमाण, नय, निक्षेप और निर्देश आदिके द्वारा सात तत्त्वोंको जानकर मोक्षमार्गका आश्रय लेनेका कथन किया है। निश्चय और व्यवहारके भेदसे मोक्षमार्ग दो प्रकारका है। निश्चयमोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहारमोक्षमार्ग साधन है। अपनी शुद्धात्माकी जो श्रद्धा, ज्ञान और उपेक्षण-राग-द्वेषसे रहित प्रवर्तन है वह निश्चयमोक्षमार्ग है और देव-शास्त्रगुरुका श्रद्धान व्यवहारमोक्षमार्ग है। व्यवहारमोक्षमार्ग अन्तमें चलकर निश्चयमोक्षमार्ग में विलीन हो जाता है और उससे साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति होती है। अतः मोक्षप्राप्तिका साक्षात् कारण निश्चयमोक्षमार्ग है। व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका साधक होनेके कारण परम्परासे मोक्षमार्ग है। अतएव साधकको निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गको अपनाकर मोक्षकी प्राप्ति करनी चाहिये। बताया है-
स्यात्सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूप:
पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः॥
एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः
स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्ग:॥
पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्ररूप है और द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सदा अद्वितीय रहने वाला एक ज्ञानी आत्मा ही मोक्ष-मार्ग है।
यों तो तस्वार्थसार तत्त्वार्थसूत्रका ही व्याख्यान अथवा सार है, फिर भी इसके विषय-स्रोत गृद्धपिच्छाचार्यके तत्त्वार्थसूत्रके अतिरिक्त पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि, अकलंकदेवका तत्त्वार्थवार्त्तिक, प्राकृतपंचसंग्रह आदि ग्रंथ हैं। प्रथम अधिकार तत्त्वार्थसूत्रके आधार पर ही रचा गया है। द्वितीय अधिकारकी विषयवस्तुका आधार पंचसंग्रह और तत्त्वार्थवार्त्तिक हैं। तत्त्वार्थसूत्रके द्वितीय तृतीय और चतुर्थ अध्यायमें वर्णित समस्त प्रमेयोंको तत्त्वार्थसारके द्वितीय अधिकारमें समाविष्ट किया गया है। सर्वार्थसिद्धिसे भी अनेक विषय गृहीत हैं।
तृतीय अधिकारमें वर्णित अजीवतत्व और षड्द्रव्योंके निरूपणका आधार तत्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्त्तिकका पञ्चम अध्याय है।
चतुर्थ अधिकरणके प्रमेयोंका स्रोत तत्वार्थसूत्रके षष्ठ और सप्तम अध्याय हैं। अनेक प्रमेय अध्यायोंसे तत्त्वार्थवार्त्तिकक भी संग्रहीत हैं। पञ्चम अधिकारका आधार तत्वार्थसूत्र और उससे सम्बन्धित टीकाओंका अष्टम अध्याय है। अष्टम अधिकारके प्रमेय तत्वार्थवार्तिकसे ग्रहण किये गये हैं। यहाँ हम तुलना द्वारा अपने उपयुक्त कथनकी पुष्टि करते हैं-
जवणालियामसूरीचंदद्धअइमुत्तफुल्लतुल्लाइं।
इंदियसंठाणाई फासं पुण णेगसंठाणं।।१।६५ – पंचसंग्रह
यवनालमसू रातिमुक्तेन्द्द्धधंसमाः क्रमात्।
श्रोत्राक्षिघ्राणजिह्वाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थितिः॥२।५०॥ त. सा., अधिकार-२
खुल्ला वराडसंखा अक्खुणअरिट्ठगा य गंडोला।
कुक्खिमिसिप्पिआई णेया वेइंदिया जीवा ॥१॥७०|| - पंचसंग्रह
शम्बूक: शंखशुक्तिर्वा गण्डूपदकपर्दकाः।
कुक्षिकृम्यादयश्चैते द्वीन्द्रिया: प्राणिनो मताः ।२।५३।। त. सा., अधिकार-२
कुंथुपिपोलयमंकुणविच्छियजूविंदगोवगोम्हीया।
उत्तिगमट्टियाई णेया तेइंदिया णीवा ॥१।७१॥ -पंचसंग्रह
कुंथुः पिपीलिका कुम्भी वृश्चिकश्चैन्द्रगोपकः।
घुणमत्कुमपूकाद्यास्त्रीन्द्रियाः सन्ति जन्तवः।।२।५४।। त. सा.
'अधोत्पादः क्व तेषामिति? अत्रोच्यते प्रथमायासंज्ञिन उत्पद्यते, प्रथमा द्वित्तीययो: सरीसृपाः, तिसृषु पक्षिणः, चतसृषूरगाः, पञ्चसु सिंहाः, षरसु स्त्रियः, सप्तसु मत्स्य-मनुष्याः। न च देवा नारका वा नरकेषु उत्पद्यन्ते।'
-तत्त्वार्थवातिक, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृष्ठ-१६८
धर्मामसंज्ञिनो यान्ति वंशान्ताश्व सरीसृपाः।
मेघान्ताश्च विहङ्गाध अज्जनान्ताश्च भोगिनः।। -तत्त्वार्थसार। २।१४६
तामरिहा च सिंहास्तु मेवानगन्नास्त योषितः।
नरा मत्स्याश्च गच्छन्ति माघवीं ताश्व पापिनः।। -तत्त्वार्थसार। २।१४७
आद्यभावादन्ताभाव इति चेत्, न, दुष्टत्वादन्त्यवीजवत - तत्त्वार्थवातिक, ज्ञानपीठ संस्करण पृ. ६४१
आद्यभावान्न भाचस्य कर्मबन्धनसन्सतेः।
अन्ताभावः प्रसज्येत दृष्टत्वादन्त्यबीजवत्।। - तत्त्वार्थसार। ८।६
पुनबंधप्रसंगो जानतः पश्यत्तश्च कारुण्यादिति चेत्, न, सस्त्रिवपरिक्षयात्- तत्त्वार्थवार्तिक, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृ. ६४३
जानतः पश्यतश्चो्दध्र्व जगत्कारुण्यतः पुनः।
तस्य बन्धप्रसङ्गो न सर्वास्तवपरिक्षयात्॥ -तत्त्वार्थसार। ८।९
अकस्मादिति चेत्, अनिर्मोक्षप्रसङ्गः। - तत्त्वार्थवातिक पृ. ६४३
अकस्माच्च न बन्धः स्यादनिर्मोक्षप्रसङ्गत:।
बन्धोपपत्तिस्तत्र स्यान्मुचिप्राप्तेरनन्तरम् ।। -तत्त्वार्थसार ८।१०
गौरवाभावाच्च ।।८।। -तत्त्वार्थवातिक पृ.-६४३
तथातिगौरवाभावान्न पातोऽस्य प्रसज्जते।
वृत्तसम्बन्धविच्छेदो पतत्यानफलं गुरु ।। -तत्त्वार्थसार। ८।१२
शरीरानुविधायित्वे तदभावाद्विसर्पणप्रसङ्ग इति चेत्, न, कारणाभावात् ॥१३॥ - तत्त्वार्थवातिक पृ.-७४३
शरीराविधायित्वे तद्भावाद्विसर्पणम्।
लोकाकाशप्रमाणस्य तावन्नाकारणत्वतः।। - तत्त्वार्थसार ८।१६
दृष्टत्वाच्च निगलादिवियोगे देवदत्ताधवस्थानवत्। - तत्त्वार्थवातिक पृ.-६४४
कस्यचिच्छसलामोक्षे तत्रावस्थानदर्शनात्।
अवस्थानं न मुक्तानामूद्धव्रज्यात्मकत्वसः॥ -तत्त्वार्थसार ८।१९
समयसार-कलश यर्थार्थतः कुन्दकुन्दके समयसारपर कलशरूपमें लिखा गया है। इसका विषय-वर्गीकरण भी कुन्दकुन्दके विषयके समान ही है। इसमें कुल २७८ पद्य हैं, जो निम्न अधिकारों में विभक्त हैं-
१. पूर्वरङ्ग
२.जीवाजीवाधिकार
३. कर्तृकर्माधिकार
४. पुण्यपापाधिकार
५. आस्त्रवाधिकार
६. संवराधिकार
७. निर्जराधिकार
८. बन्धाधिकार
९. मोक्षाधिकार
१०. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
११. स्थाद्वादाधिकार
१२. साध्य-साधकाधिकार
आरम्भमें ही आत्म-तत्त्वको नमस्कार करते हुए बताया है-
नमः समयसाराय स्वानुभत्या चकासते।
चिस्वभावाच भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे।- पद्य-१।
मैं समयसार- समस्त पदार्थों में श्रेष्ठ उस आत्मतत्त्वको नमस्कार करता हू, जो स्वानुभूतिसे स्वयंप्रकाश है, चैतन्यस्वभाववाला है, शुद्ध सत्ता-रूप है और समस्त पदार्थोंको जाननेवाला है अथवा चैतन्यस्वभावसे भिन्न समस्त रागादि विकारीको न करनेवाला है। इस द्रव्य का आरम्भमें ही शुद्ध आत्मतत्त्वको नमस्कार किया गया है। समयसारकी व्याख्याका प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है-
परपरिणसिहेतोर्मोहनाम्नोनुभावा-
दविरतमनुभाग्यव्याप्तिकल्माषितायाः।
ममपरमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते-
भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः।।३।।
इस समयसारकी व्याख्यासे मेरी अनुभूतिकी परम विशुद्धता प्रकट हो। यद्यपि मेरी वह अनुभूति शुद्ध चैतन्यमात्र मुर्तिसे युक्त है अर्थात् परम ज्ञायक भावसे सहित है तथापि वर्तमानमें परपरिणतिका कारण जो मोहनामका कर्म है, उसके उदयरूप विपाकसे निरन्सर रागादिकी व्याप्तिसे कल्माषित-मलिन हो रही है। अर्थात इस व्याख्यासे मेरो अनुभूतिमें परम विशुद्धसा उत्पन्न होगी। निश्चय और व्यवहार नयके विवादको समाप्त करते हुए बताया है-
उभयनविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाले
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहः।
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चे
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव॥४॥
अर्थात् निश्चय और व्यवहार नयके विषयमें परस्पर विरोध है, क्योंकि निश्चयनय अमेदको ग्रहण करता है और व्यवहारनय भेदको। किन्तु इस विरोध का परिहार करनेवाला स्याद्वादवचन है, उस वचनमें वे ही रमण कर सकते हैं, जिन्होंने मोहका वमन कर दिया है और वे ही पुरुष शीघ्र ही उस समयसार का अवलोकन करते हैं, जो कि अतिशयसे परमज्योतिस्वरूप है। नवीन नहीं अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे नित्य हैं और एकान्तपक्षसे जिसका खण्डन नहीं हो सकता।
शुद्धनयकी दृष्टिसे आत्मा अपने एकपनमें नियत है। स्वकीय गुणपर्यायोंमें व्याप्त होकर रहता है तथा पूर्णज्ञानका पिण्ड है। ऐसे आत्मतत्त्वका आत्मातिरिक द्रव्योंसे भिन्न अवलोकन करता है, इसीका नाम सम्यकदर्शन है। इसके होते ही जो आत्मज्ञान होता है वह सम्यकज्ञान कहलाता है। जब तक आत्मामें परसे भिन्न अपनी यथार्थ प्रतीति नहीं होती तब तक यथार्थ मान नहीं होता। अतएव नवतत्त्वकी संततिको छोड़कर केवल एक आत्माको ही परसे भिन्न शुखरूपमें अनुभूत करना ही यथार्थ पुरुषार्थ है। बताया है-
एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः
पूर्णज्ञानधनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक।
सम्यादर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्माध्यमेकोऽस्तु नः||६||
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने समयसारके समान ही विषयोंका विवेचन करते हुए आरमाका कर्तृत्व, भोक्तव आदिका निरूपण किया है। अन्तमें आत्माकी आश्चर्यकारक महिमाका वर्णन करते हुए लिखा है- "जब विभावशक्तिकी अपेक्षासे विचार करते हैं तब मात्मामें कषाधका उपद्रव दिखाई देता है और जब स्वभावदशाका विचार करते हैं तो शान्तिका प्रसार अनुभवमें भाता है। कर्मबन्धकी अपेक्षा संसारकी जन्म-मरण रूप बाधा दिखाई देती है और शुद्ध स्वरूपका विचार करनेपर मुक्ति का स्पर्श अनुभव में आता है। स्वपरिज्ञायक भावकी अपेक्षा करनेपर आत्मा लोकत्रयका ज्ञाता है और शायकभावको अपेक्षा एक चैतन्यमात्र अनुभव में माता है। इस प्रकार अनेक विरुद्ध धर्मोंके समावेश गोरा आलाकमावली इमु महिमा दिखाई पड़ती है-
कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो
भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकत्तः।
जगत्रितयमेकतः स्फुरति चिचकास्त्येकतः
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः॥२७३।।
समयसारकी अपेक्षा समयसारकलश अतिगहन हैं। निश्चयतः आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने अध्यात्ममंगा प्रवाहित की है। इस गंगामें अवगाहन करनेवाले सभी प्रकारसे शान्तिलाभ करते हैं।
अमृतचन्द्रकी समयसार-टीका आत्मख्यातिके नामसे प्रसिद्ध है। यह आचार्य की प्रांजल शैलीका उत्कृष्ट नमूना है। उन्होंने गाथाके शब्दोंका व्याख्यान न कर उसके अभिप्रायको अपनी परिष्कृत गद्यशैलीमें व्यक्त किया है। जहाँ उन्हें गाथा के मूलभावमें कोई कमी दिखलाई पड़ी है वहां उन्होंने समयसारकलश नामसे पद्य भी लिख दिया है। यह समयसारकलश आत्मख्यातिटीकामें मिश्रित हो जानेपर भी उसका ग्रंथरूपमें पृथक अस्तित्व भी है। टीकामें समस्यन्तपद भी विद्यमान हैं तथा अनेक शब्दोंके निर्वचन भी दिये गये हैं और भावको स्पष्ट करनेका पूर्ण प्रयास किया है। जहाँ कुन्दकुन्दके ग्रन्थों में प्रमेय अस्पष्ट थे वहाँ कलश अथवा आत्मख्याति टीकाद्वारा ही स्पष्टता लाकर जैनतत्त्वज्ञानको समृद्ध किया है।
अमृतचंद्रने ही समय करके वर्गीकारण कीया है तथा समयपाहुडको समयसार नाम देनेका श्रेय भी इन्हींको प्राप्त है। टीकाको नाटकके समान अड़ोंमें विभाजित किया है। प्रथम अखसे पूर्वके प्रारम्भिक भागको पूर्वरत्न कहा गया है। जिस प्रकार नाटकमें पात्रोंका निष्क्रमण और प्रवेश होता है उसी प्रकार प्रहांपर भी प्रवेश और निष्क्रमण कराया गया है। प्रथम अङ्कजीवा जीवाधिकार है। इसमें जीवकी अजीवसे भिन्न बतलाया है और अन्तमें लिखा है- "जोवाजीवो पृथग्भूत्वा निष्क्रान्ती" अर्थात् जीव और अजीव पृथक-पृथक् होकर चले गये। दूसरे कर्तृकर्म अधिकारके आरम्भमें लिखा है- "जीव-अजीव ही कर्ता और कर्मका वेष धारणकर प्रवेश करते हैं तथा अन्त में लिखा है- "जीव और अजीव कर्ता एवं कर्मका वेष छोड़कर निकल गये।" तीसरे पुण्यं पाप अधिकारके आदिमें लिखा है- "एक ही कर्म पुण्य और पापके रूपमें दो पात्रोंका वैष धारण करके प्रवेश करता है" और अन्तमें लिखा है पुण्य और पापके रूपसे दो पात्रोंका वेषधारण करनेवाला कर्म एक पात्ररूप होकर निकल गया अर्थात् कर्म में पुण्य-पापका भेद मिथ्या है, दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। इसी प्रकार आस्तव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष अधिकारोंमें उन-उन तत्वोंका प्रवेश और निर्गमन कराया गया है। वस्तुत: यह संसार एक रंगमंच है जिसपर जीव और अजीव नानारूप धारण करके अभिनय करते हैं। यहां अभिनयका आचरण करनेवाला या सूत्रधार पौद्गलिक कर्म है।
यह टीका पर्याप्त विस्तृत और गहन है। यहां उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की जाती हैं-
"अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वनानेन, स्वपरयोरेकत्व दर्शनेन, स्वपरयोरेकस्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृसिस्वभाव मप्यहत्तया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते। शानी तु शुद्धात्मशानं सद्भावात्स्वपरयोनि भागज्ञानेन स्वपरयोविभागदर्शनेन स्वपरयोविभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वाभावा दपसूतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतयानुभवन् कर्मफलमुदितं जेयमात्रत्वात् जानास्येव न पुनस्तस्याहत्तयानुभवितुमशक्यत्वाद्वेचते ॥३१६॥"
प्रवचनसारकी टीकाका नाम तत्वदीपिका है। यह टीका भी प्रांजल शेलीमें समयसारकी टीकाके समान ही लिखी गयी है। इससे मी उनकी आध्यात्मिक रसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको तर्कपूर्वक सिद्ध करनेकी असाधारण शक्ति, तत्वतत्त्वार्थका गम्भीरज्ञान, निवच्य व्यवहारका क्रमबद्ध निरूपण आदि अनेक विशेषताएँ विद्यमान हैं। मूलग्रंथकारने जिन भावोंको छोड भी दिया है उनका भी प्रकटीकरण टीकाकारने किया है। टीका समस्यन्त गद्यमें लिखी गयी है, शैली पर्याप्त प्रौढ़ है और शब्दार्थके स्थानपर विषयको स्पष्ट करनेवाली है। यथा-
"यतो न खल्विन्द्रियाण्यालम्ब्यावग्रहेहावायपूर्वकप्रक्रमेण केवली विजानाति, स्वयमेव समस्तावरणक्षयक्षण एवानाद्यनन्ताहेतुकासाधारणभूतज्ञानस्वभावमेव कारणल्वेनोपादाय तदुपरि प्रविकसकेवलज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमते, ततोऽ स्थाक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया समक्षसंवेदनालम्बनभूताः सर्व द्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा एव भवन्ति।"
पंचास्तिकायकी १७३ गाथाओंपर आचार्य अमृतचन्द्रने टीका लिखी है। टीकाकारने इस ग्रंथकी चार भागमें विभाजित किया है-
१. पीठिका
२. प्रथम श्रुतस्कन्ध
३. द्वितीय श्रुतस्कन्ध
४. चूलिका
पीठिका में २६ गाथाएँ हैं और उनकी व्याख्या उक्त दोनों ग्रन्थोंके समान ही की गयी है। प्रथम श्रुतस्कन्धमें ७८ गाथाओंकी व्याख्या है। द्वितीय श्रुतस्कन्धमें ४९ गाथाओंकी व्याख्या दी गयी है। चूलिकामें बीस गाथाओंकी टीका है। इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने पंचास्तिकायके विषयको भी अपनी टीकामें विस्तृत और स्पष्ट बनानेका पूर्ण प्रयास किया है। इस टीकाका नाम भी तत्त्वदीपिका है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#amrutchandrasurijimaharaj
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री अमृतचंद्रसूरि 11वीं शताब्दी (प्राचीन)
सारस्वताचार्योंमें टीकाकार अमृतचन्द्रसूरिका यही स्थान है, जो स्थान संस्कृतकाव्यरचयिताओंमें कालिदासके टीकाकार मल्लिनाथका है। कहा जाता है कि यदि मल्लिनाथ न होते, तो कालिदासके ग्रंथोंके रहस्यको समझना कठिन हो जाता। उसी तरह यदि अमृतचन्द्रसूरि न होते, तो आचार्य कुन्दकुन्दके रहस्यको समझना कठिन हो जाता। अतएव कुन्दकुन्द आचायके व्याख्याताके रूपमें और मौलिक ग्रन्थरचयिताके रूपमें अमृतचन्द्रसूरिका महत्त्वपूर्ण स्थान है। निश्चयतः इन आचार्यकी विद्वत्ता, वाग्मिता और प्राञ्जल शैली अप्रतिम है। इनका परिचय किसी भी कृतिमें प्राप्त नहीं होता है, पर कुछ ऐसे संकेत अवश्य मिलते हैं, जिनसे इनके व्यक्तित्वका निश्चय किया जा सकता है।
अध्यात्मिक विद्वानोंमें कुन्दकुन्दके पश्चात् यदि आदरपूर्वक किसीका नाम लिया जा सकता है, तो वे अमृतचन्द्रसूरि ही हैं। इन्होंने टीकाओंके अन्त में जो संक्षिप्त परिचय दिया है उससे अवगत होता है कि ये बड़े निस्पृह आध्यात्मिक आचार्य थे। 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' के अन्तमें लिखा है-
वर्णैः कृतानि चित्रे: पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि।
वाक्यैः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्मामिः ।। २२६ ॥
अर्थात् नाना प्रकारके वर्णोसे पद बन गये, पदोंसे वाक्य बन गये और वाक्योंसे यह पवित्र शास्त्र बन गया। इसमें मेरा कर्तृत्व कुछ भी नहीं है।
इसमें अमृतचन्द्रसूरिकी कितनी निस्पृहता और आध्यात्मिकता टपक रही है। अतः वे अपनेको आत्मभावोंका ही कर्ता मानते हैं, परवस्तुका नहीं। इससे उनकी आध्यात्मिकता तो सिद्ध होती ही है, साथ ही वे आचार्य या मुनिपदसे विभूषित भी व्यक्त होते हैं।
पंडित आशाधरने अमृतचन्द्रसूरिका उल्लेख ठक्कुरपदके साथ किया है-
'एतच्च विस्तरेण ठकुरामृतचन्द्रसूरिविरचितसमयसारटीकायां दृष्टव्यम्।' अनगारधर्मामृतटीका, पृ. ५८८।
यहाँ 'ठक्कुर' शब्द विचारणीय है। ठक्कुरका प्रयोग जागीरदार या जमीदारोंके लिए होता है। हरिभद्रसूरिने अपनी 'समराइच्चकहा' में ठक्कुर पदका प्रयोग किया है। यह पद क्षत्रिय और ब्राह्मण इन दोनोंके लिए समान रूपमें प्रयुक्त होता है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अमृतचन्द्रसूरि क्षत्रिय थे या ब्राह्मण। इतना निश्चित है कि वे किसी सम्मानित कुलके व्यक्ति थे।
संस्कृत और प्राकृत इन दोनों ही भाषाओंपर इनका पूर्ण अधिकार था। ये मूलसंघके आचार्य थे।
पण्डित आशाधरजीने अमृतचन्द्रसूरिका उल्लेख किया है और आशाधरजी का समय वि. सं. १३०० है। अत: अमृतचन्द्रसूरिका समय वि. सं. १३०० के पहले होना चाहिये। अमतचन्द्रसूरिने प्रवचनसारकी टीकामें चार गाथायें उद्धात की हैं। "णिद्धा णिद्धेण" और "णिद्धस्स णिद्धेण" ये दो गाथाएँ क्रमसे एक साथ उद्धृत की हैं और 'जावदिया वयणवहा' तथा 'परसमयाणं वयण' आदि दो गाथाएँ ‘तदुक्तम्' कहकर क्रमसे एक साथ टीकाके अन्त (पृ. ३७२) में उद्धत हैं। पहलेकी दोनों गाथाएँ गोम्मटसार जीवकाण्डकी क्रमशः ६१२ तथा ६१४ संख्यक हैं और दूसरी दोनों गाथाएँ गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ८५४ और ८९५ संख्यक है। इन गाथाओंके सम्बन्धमै डॉ. उपाध्येने लिखा है कि कि गोम्मटसार कर्मकाण्डमें वे दोनों गाथाएँ उसी क्रमसे पायी जाती हैं और उनमें शाब्दिक समानता भी है। अतएव यह अनुमान लगाना असंगत नहीं है कि अमृतचन्द्रने इन गाथाओंको गोम्मटसार कर्मकाण्डसे लिया है। बहुत सम्भव है कि ये दोनों गाथाएँ 'धवला' और 'जयधवला' टीकामें भी मिल जाएं। इन दोनोंमेंसे 'जावदिया वयणवहा' गाथा सम्मतितर्क (३।४७) में भी पायी जाती है। डॉ. उपाध्येने लिखा है कि अमृतचन्द्र सिद्धसेनके सन्मतितर्कसे परिचित अवश्य थे, पर उन्होंने उक्त गाथा वहाँसे उद्धत नहीं की है। इसके प्रमुख दो कारण हैं। पहली बात तो यह है कि सिद्धसेनकी गाथाका रूप महाराष्ट्री है जबकि अमृतचन्द्रके द्वारा उद्धत गाथाएँ शौरसेनीमें हैं। दूसरी बात यह है कि अमृतचन्द्रने दोनों गाधाओंको एक साथ उद्धृत किया है जबकि सिद्धसेनके ग्रंथ में उनसे एक ही पायी जाती है। अत: डॉ. उपाध्येने अमृतचन्द्रका समय गोम्मटसार जीवकाण्ड व कर्मकाण्डके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके बाद अर्थात् ई. सन की दशवी शताब्दीके लगभग माना है।
डॉ. उपाध्येके अभिमतकी समीक्षा पण्डित परमानन्दजीने की है। उनका कथन है कि वि. सं. १०५५ में बने हुए धर्मरत्नाकर ग्रंथमें आचार्य अमृतचन्द्रके कुछ पद्य उद्धृत हैं, तो अमृतचन्द्र वि. की ११ वीं शतीके पूर्वार्द्धमें रचे गये गोम्मटसारसे कैसे पद्य उद्धृत कर सकते हैं? प्रवचनसारकी प्रस्तावना लिखते समय डॉ. उपाध्येके सामने धर्मरत्नाकरवाली बात नहीं थी। तथा अमृतचन्द्रके द्वारा प्रवचनसारकी टीकामें उद्धृत चारों गाथाओंमेंसे प्रथम दो गाथाएँ 'षट्खण्डागम’ की धवलाटीकासे उद्धृत की गयी हैं, किन्तु दुसरी दो गाथाओंमेंसे प्रथम गाथा सिद्धसेनके सन्मतितर्कमें भी है, पर उसके साथवाली दूसरी गाथा गोम्मटसार कर्मकाण्डके अतिरिक्त अन्यत्र नहीं मिलती। अत: धर्म रत्नाकरमें अमृतचन्द्रके पद्योंको उद्धृत देखकर यह माननेके लिए बाध्य होना पड़ता है कि गोम्मटसारमें वह गाथा किसी अन्य स्रोतसे ग्रहण की गयी है। अथवा यह भी सम्भव है कि गोम्मटसारमें ही दोनों उक्त गाथाएँ अमृतचन्द्रके प्रवचनसारकी टोकासे ली गयी हों, क्योंकि गोम्मटसार एक संग्रहग्रन्थ है। यदि गोम्मटसारकी रचना अमृतचन्द्रके पश्चात् हुई है, तो निश्चयत: ये दोनों गाथाएँ प्रवचनसारकी टीकासे ली गयी हैं। अत: अमृतचन्द्रका समय आचार्य नेमिचन्द्रके पहले है। श्री पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने अमृतचन्द्रके सम्बन्धमें जो नया प्रकाश प्राप्त किया है उसके आधारपर उन्होंने बताया है कि माधवचन्द्रके शिष्य अमृतचन्द्र विहार करते हुए बाँभणबाड़ेमें आये। कविने रल्हणके पुत्र सिंह या सिद्ध नामक कविकी 'पज्जुण्णचरिउ' बनानेको प्रेरणा की। उस समय वहाँका राजा गुहिलवंशी भुल्लण था, जो मालवनरेश वल्लालका माण्डलिक था, जिसका राज्यकाल वि. सं. १२०० के आस-पास है। यदि इस उल्लेखके आधारपर मल्लहधारि माधवचन्द्रक शिष्य अमृतचन्द्रको इन अमृतचन्द्रसे अभिन्न मान लिया जाये, तो अमृतचन्द्रका समय ११ वीं शताब्दीका उत्तरार्घ या १२ वीं शताब्दीका पूर्वाद्धं सिद्ध होता है।
आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ज्ञानार्णवमें अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपायका 'मिध्यात्ववेदरागा' आदि पद्म 'उक्तञ्च’ रूपसे उद्धृत किया है। अतएव अमृतचन्द्र, शुभचन्द्रसे भी पूर्ववर्ती हैं और पद्मप्रभ मलधारिदेवने शुभचन्द्रके ज्ञानार्णवका एक श्लोक उद्धृत किया है। अतएव शुभचन्द्र पद्मप्रभसे पूर्ववर्ती हैं। पद्मप्रभका समय वि. की १२ वीं शतीका अन्त माना जाता है। अतः अमृतचन्द्रका समय इसके पहले होना चाहिये। हमारा अनुमान है कि इनका समय ई. सन्की १० वीं शताब्दीका अन्तिम भाग है। पट्टावलीमें अमृतचन्द्रके पट्टारोहणका समय वि. सं. ९६२ दिया है, जो ठीक प्रतीत होता है। पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें जयसेनके धर्मरत्नाकरके कई पद्य पाये जाते हैं और धर्मरत्नाकरका रचनाकाल वि. सं. १०५५ है, अतएवं अमृतचन्द्रकी यह उत्तरसीमा समय है।
अमृतचन्द्रसूरिको निम्नलिखित रचनाएँ मानी जाती हैं। इनकी रचनाओं को दो कोटिमें रखा जा सकता है- मौलिक और टीकाग्रन्थ।
मौलिक रचनाएँ- १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २.तत्त्वार्थसार, ३. समयसारकलश।
टीकाग्रंथ- ४. समयसारटीका, ५. प्रवचनसारटीका, ६. पंचास्तिकायटीका।
१. पुरुषार्थसिद्धायुपाय- यह श्रावकाचार सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें २२६ पद्य हैं। आर्यावृत्तमें लिखा गया है। प्रारम्भके आठ पद्योंमें ग्रन्थकी उत्थानिका दी गयी है। इस उत्थानिकामें निश्चय और व्यवहार नयका स्वरूप, कर्मोंका कर्ता और भोक्ता आत्मा, जीवपरिणमन एवं पुरुषार्थसिद्धयुपायका अर्थ बतलाया गया है। ग्रन्थ पाँच भागोंमें विभक्त है
१. सम्यक्त्व-विवेचन,
२. सम्यक ज्ञानव्याख्यान,
३. सम्यकचारित्रव्याख्यान,
४. संल्लेखनाधर्मव्याख्यान,
५. सकलचारित्रव्याख्यान।
यह आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुखस्वरूप है, चेतनायुक्त है, अमूर्तिक है और स्पर्श, गंध, रस, वर्णसे रहित है। यह अनादिकालसे अशुद्ध हो रही है। रागादिरूप भावकर्मोंके कारण पुद्गलद्रव्य आत्मामें प्रविष्ट हो कर्मबन्धरूप परिणमन करता है। कर्मबन्धकी इस प्रक्रियाका वर्णन करते हुए कहा है-
जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्र प्रपद्य पुनरन्थे।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेने॥१२।।
जिस समय जीव राग-द्वेष-मोहभावरूप परिणमन करता है, उस समय उन भावोंका निमित पाकर पुद्गलद्रव्य स्वतः ही कर्मअवस्थाको धारण कर लेते हैं। जो प्रशस्त रागादिरूप परिणमन करता है उसके शुभ कर्मबन्ध होता है और जो अप्रशस्त राग-द्वेष-मोहरूप परिणमन करता है उसके पापबन्ध होता है। आचार्यने कर्मबन्धके प्रति निमित्तीकारणका कपन करते हुए कहा है-
परिणममानस्य चितश्चिदात्मके: स्वयमपि स्वकेर्भावः।
भवति हि निमित्तमात्रं पोद्गलिक कर्म तस्यापि ॥१३।।
इस प्रकार राग-द्वेष, कर्म बन्धके स्वरूप विश्लेषण के पश्चात् श्रावकधर्मका व्याख्यान किया गया है। आरम्भमें रत्नत्रयको मोक्षमार्ग बतलाकर गृहस्थको यथाशक्ति इसके सेवन करनेपर जोर दिया है। और बताया है कि सम्यक्त्वके बिना ग्यारह अंगपर्यन्त किया हुआ पठन-पाठन ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है तथा महाव्रतादिकोंकी साधनासे अन्तिम ग्रंवेयकपर्यन्त बन्धयोग्य विशुद्ध परिणामोंसे भी असंयमी कहलाता है। परन्तु सम्यक्त्वसहित थोड़ा-सा ज्ञान भी सम्यकज्ञान और अल्पत्याग भी सम्यक्चारीत्र कहलाता है। जिस प्रकार अंकरहित शून्य कुछ भी कार्यसाधक नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्त्वरहित ज्ञान और चारित्र भी कार्यसाधक नहीं होता। इस तरह सम्यक्त्वका महत्त्व बतलाते हुए उसके स्वरूपका विवेचन किया है-
जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कत्तव्यम्।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत्।।
जीव-अजीव आदि तत्त्वरूप पदार्थोंका विपरीत आग्रह रहित श्रद्धान करना सम्यक्त्व कहलाता है।
सम्यक्त्वकी परिभाषाके अनन्तर निःशंकित्त, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टित्व, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन आठों अंगोंके स्वरूपका विवेचन किया है।
पदार्थका जो स्वरूप जिनागममें मिलता है, उसे यथावत् जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनमें कार्यकारणभावका सम्बन्ध है। सम्यग्ज्ञान कार्य है और सम्यग्दर्शन कारण। इन दोनोंके एक कालमें उत्पन्न होनेपर भी दीपक और प्रकाशके समान कार्य-कारणभाव घटित होता है। अतएव तत्त्वार्थश्रद्धान प्राप्त करनेके अनन्तर संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित हो पदार्थोंके स्वरूपको अवगत करने के लिए प्रवृत्त होना चाहिये। ग्रन्थका ज्ञान आठ प्रकारसे प्राप्त किया जाता है- १. शब्दाचार, २. अर्थाचार, ३. उभयाचार, ४. कालाचार, ५. विनयाचार ६. उपधानाचार, ७. बहुमानाचार, ८ अनिन्ह्वाचार ज्ञानप्राप्तिके ये आठ अंग हैं।
तृतीय अधिकारमें सम्यकचारित्रका व्याख्यान किया गया है और सकलचारित्र और विकलचारित्र कहकर मुनिधर्म और श्रावकधर्मका विवेचन किया है। पंचव्रतोंके प्रसंग अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रम्हचर्य और अपरिग्रहका मुनि एवं गृहस्थकी अपेक्षासे स्वरूप बतलाया गया है। कषायसे 'अपने' और 'पर' के भावप्राण और द्रव्यप्राणका घात करना हिंसा है। हिंसा और अहिंसाका सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए लिखा है-
अप्रादुर्भाव: खलु रागादीनां भवत्यहिसेति।
तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।।
युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि।
न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव।।
यस्मात्सकषायःसनहन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम्।
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु॥
निश्चयतः रागादि भावोंका प्रकट न होना अहिंसा है और रागादिभावोंको उत्पत्ति होना हिंसा है। रागादि भावोंके न रहनेपर सन्त पुरुषोंके केवल प्राणपीड़नसे हिंसा नहीं होती। रागादि भावोंके वशमें प्रवृत्त हुई अयतनाचाररूप प्रमाद अवस्थामें जीव भरे अथवा न मरे हिंसा अवश्य होती है। आशय यह है कि हिंसाशब्दका अर्थ घात करना है। यह घात दो प्रकारका है- एक आत्मघात दुसरा परघात। जिस समय आत्मामें कषायभावोंकी उत्पत्ति होती है उसी समय आत्मघात हो जाता है। पश्चात् यदि अन्य जीवकी आयु पूरी हो गयी हो अथवा पापका उदयं आया हो, तो उनका भी घात हो जाता है। अन्यथा आयुकर्म पूर्ण न हुआ हो, पापका उदय न आया हो तो कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि उनका घात उनके कर्मोंके अधीन है। परन्तु आत्मघात तो कषायों की उत्पत्ति होते ही हो जाता है और आत्म तथा परघात दोनों ही हिंसा हैं। इस प्रकार रागदि कषायभावको हिंसा बताया है। इन रागादिभावोंके सद्भाव के कारण ही हिसा न करनेपर भी हिंसाका सद्भाव बताया है तथा कई भंगों द्वारा हिंसा-अहिंसाका विवेचन किया है।
१. एक व्यक्ति पाप करता है और अनेक व्यक्ति फल भोगते हैं।
२. अनेक व्यक्ति हिंसा करते हैं और एक व्यक्ति फल भोगता है।
३. हिंसा करनेपर भी अहिंसक बना रहता है।
४. प्राणघात न करने पर भी हिंसक हो जाता है।
इस प्रकार अनेक भंगों द्वारा हिंसाके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है। हिंसाके कारण, मद्य, माँस, मधु और पंचउदम्बर फलोंके त्यागका उपदेश दिया गया है। इस प्रसंगमें मद्य, माँस, मधु और पंचउदम्बर फलोंके दोषोंका भी विश्लेषण किया गया है। इसके पश्चात् अनृतका वर्णन आया है। अनृतके अन्तर्गत गर्हित, सविद्य और अप्रिय वचन सम्मिलित है। अर्हीतवचनोंमें शास्त्रविरुद्ध कहे जानेवाले वचनोंको शामिल किया गया है। छेदन-भेदन, मारण, कर्षण, वाणिज्य, चौर्य आदि वचन सावद्यवचन कहलाते हैं। अरतिकर, भीतिकर, खेदकर, वैरकर, शोककर, कलहकर आदि सन्ताप देनेवाले वचन अप्रियवचन कहलाते हैं। स्तेयका विवेचन करते हुए घनके साथ अधिकार अपहरणको भी स्तेय बतलाया है। रागादिकके आवेगसे मैथुनरूप प्रवृत्ति करना अब्रह्म है। इस अब्रह्मके त्यागको ब्रह्मचर्यव्रत कहा है। मूर्छाको परिग्रहलक्षण बतलाकर अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहके भेद-प्रभेदोंको निरूपण किया है। पंचव्रतोंके पश्चात रात्रिभोजनत्यागका महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। पञ्चव्रत्तोंका पालन करनेके लिए सात शीलव्रतोंका पालन करना चाहिये। जिस प्रकार परकोटा नगर की रक्षा करता है, उसी प्रकार तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत पन्चव्रतोंकी रक्षा करते हैं। गुणव्रतके तीन भेद बतलाये हैं- दिक्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत। अनर्थदण्डव्रतके अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और दुःश्रुति इन पांच भेदोंका स्वरूपसहित विवेचन किया गया है। शिक्षाव्रतके सामायिक, प्रौषधोपवास, अतिथिसंविभाग और भोगोपभोगपरिमाण इन चारोंका विवेचन किया है।
चतुर्थ संल्लेखना-अधिकरणमें संल्लेखनाका स्वरूप, आवश्यकता और उसकी विधिका वर्णन किया गया है। पंचम-सकलचारित्रव्याख्यानाधिकारमें मुनियोंके श्रत्त चरित्रका वर्णन किया है। इसमें द्वादश तप, दशधर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजयका वर्णन किया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रंथमें श्रावक धर्मका वर्णन आया है।
यह ग्रन्थ ९ अधिकारोंमें विभक्त है। प्रथम अधिकारमें ५४ पद्य, द्वितीय अधिकारमें २३८ पद्य , तृतीय अधिकारमें ७७ पद्य, चतुर्थ अधिकारमें १०५ पद्य, पंचम आंधकारमें ५४ पद्य, षष्ठ अधिकारमें ५२ पद्य, सप्तम अधिकारमें ६० पद्य, अष्टम अधिकारमें ५५ पद्य और नवम अधिकारमें २३ पद्य हैं। इन अधिकारोंके नाम क्रमश: निम्न प्रकार है-
१. मोक्षमार्गाधिकार- जीवाधिकार
२. जीवतत्त्वनिरूपणाधिकार
३. अजीवाधिकार,
४. अस्त्रवत्तत्त्वाधिकार,
५. बन्धतत्त्वाविकार,
६. संवरतत्त्वाधिकार,
७. निर्जरातत्त्वाधिकार,
८. मोक्षतत्त्वाधिकार,
९. उपसंहार,
इस ग्रन्थको आचार्यने मोक्षमार्गका प्रकाश करनेवाला दीपक बतलाया है; क्योंकि इसमें युक्ति और आगमसे सुनिश्चित सम्यग्दर्शन, सम्यम्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका स्वरूप प्रतिपादित किया है। सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप बतलाते हुए जीवादितत्त्वोंका विशद विवेचन किया है। जीव, अजीव, आस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व बतलाये हैं। इनमें जीवतत्त्व उपादेय है और अजीवतत्त्व हेय है। अजीवका जीवके साथ सम्बन्ध क्यों होता है, इसका कारण बतलानेके लिए आस्त्रवका और अजीवका सम्बन्ध होनेसे जीवकी क्या दशा होती है, यह बतलानेके लिए बन्धका कथन किया है। हेय-अजीवतत्वका सम्बन्ध जीवसे किस प्रकार छूट सकता है, यह बतलाने के लिए संवर और निर्जराका कथन तथा अजीवतत्त्वका सम्बन्ध छूटनेपर जीवकी क्या दशा होती है, यह दिखलानेके लिए मोक्षतत्त्वका कथन किया है। इन सात तत्त्वोंके सम्यक-परिज्ञानके लिए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपोंका तथा प्रमाण और नयोंका विस्तारसे वर्णन किया है। प्रथम अधिकारके अन्तमें निर्देश स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान तथा सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्व अनुयोगोंका भी उल्लेख किया है।
द्वितीय अधिकारमें जीवके औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक इन पाँच स्वतत्त्वोंका वर्णन किया गया है। जीवका लक्षण बतलानेके लिए उपयोगका निरूपण आया है। उपयोगके साकार और अनाकारके मेदसे दी भेद बतलाते हुए ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगका वर्णन किया है। पश्चात् जीवके संसारी और भुक्तके भेदसे दो भेद कर संसारी जीवोंका वर्णन गुणस्थान आदि बीस प्ररूपणाओके द्वारा किया है।
तृतीय अधिकारमें अजीवतत्त्वका वर्णन करते हुए पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल और जीव इन छह द्रव्योंका स्वरूप, इनके देश, काल, पुद्गलोंके भेद, अणु और स्कन्धका स्वरूप, पुद्गल द्रव्यकी पर्याएँ तथा स्कन्ध बननेकी प्रक्रियाका वर्णन किया गया है।
चतुर्थ अधिकारमें आस्रवतत्वका वर्णन है। कर्मोंके आस्रववोंका विस्तार सहित वर्णन किया है। शुभास्रवके वर्णनप्रसंगमें व्रत्तोंका निर्देश आया है। पंचम अधिकारमें बन्धका स्वरूप, बन्धके कारण और बन्धके भेद वर्णित हैं। इसमें कर्मोंकी मूल तथा उत्तर प्रकृत्तियोंके नाम, लक्षण तथा उनकी स्थिति आदिका कथन किया है।
षष्ठ अधिकारमें संवरतत्वका वर्णन है। इसमें संवरका स्वरूप तथा उसके कारणभूत गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह, जय और चारित्रका वर्णन किया गया है। साप्तम अधिकारमें निर्जराका वर्णन आया है। इसमें निर्जराके भेद तथा निर्जराके कारणभूत तपोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है।
अष्टम अधिकारमें मोक्षका वर्णन है। मोक्षके लक्षण तथा उसकी प्राप्तिके क्रमका सुन्दर विवेचन किया है।
नवम अधिकारमें ग्रंथका उपसंहार करते हुए प्रमाण, नय, निक्षेप और निर्देश आदिके द्वारा सात तत्त्वोंको जानकर मोक्षमार्गका आश्रय लेनेका कथन किया है। निश्चय और व्यवहारके भेदसे मोक्षमार्ग दो प्रकारका है। निश्चयमोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहारमोक्षमार्ग साधन है। अपनी शुद्धात्माकी जो श्रद्धा, ज्ञान और उपेक्षण-राग-द्वेषसे रहित प्रवर्तन है वह निश्चयमोक्षमार्ग है और देव-शास्त्रगुरुका श्रद्धान व्यवहारमोक्षमार्ग है। व्यवहारमोक्षमार्ग अन्तमें चलकर निश्चयमोक्षमार्ग में विलीन हो जाता है और उससे साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति होती है। अतः मोक्षप्राप्तिका साक्षात् कारण निश्चयमोक्षमार्ग है। व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चयमोक्षमार्गका साधक होनेके कारण परम्परासे मोक्षमार्ग है। अतएव साधकको निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गको अपनाकर मोक्षकी प्राप्ति करनी चाहिये। बताया है-
स्यात्सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूप:
पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः॥
एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः
स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्ग:॥
पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्ररूप है और द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सदा अद्वितीय रहने वाला एक ज्ञानी आत्मा ही मोक्ष-मार्ग है।
यों तो तस्वार्थसार तत्त्वार्थसूत्रका ही व्याख्यान अथवा सार है, फिर भी इसके विषय-स्रोत गृद्धपिच्छाचार्यके तत्त्वार्थसूत्रके अतिरिक्त पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि, अकलंकदेवका तत्त्वार्थवार्त्तिक, प्राकृतपंचसंग्रह आदि ग्रंथ हैं। प्रथम अधिकार तत्त्वार्थसूत्रके आधार पर ही रचा गया है। द्वितीय अधिकारकी विषयवस्तुका आधार पंचसंग्रह और तत्त्वार्थवार्त्तिक हैं। तत्त्वार्थसूत्रके द्वितीय तृतीय और चतुर्थ अध्यायमें वर्णित समस्त प्रमेयोंको तत्त्वार्थसारके द्वितीय अधिकारमें समाविष्ट किया गया है। सर्वार्थसिद्धिसे भी अनेक विषय गृहीत हैं।
तृतीय अधिकारमें वर्णित अजीवतत्व और षड्द्रव्योंके निरूपणका आधार तत्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्त्तिकका पञ्चम अध्याय है।
चतुर्थ अधिकरणके प्रमेयोंका स्रोत तत्वार्थसूत्रके षष्ठ और सप्तम अध्याय हैं। अनेक प्रमेय अध्यायोंसे तत्त्वार्थवार्त्तिकक भी संग्रहीत हैं। पञ्चम अधिकारका आधार तत्वार्थसूत्र और उससे सम्बन्धित टीकाओंका अष्टम अध्याय है। अष्टम अधिकारके प्रमेय तत्वार्थवार्तिकसे ग्रहण किये गये हैं। यहाँ हम तुलना द्वारा अपने उपयुक्त कथनकी पुष्टि करते हैं-
जवणालियामसूरीचंदद्धअइमुत्तफुल्लतुल्लाइं।
इंदियसंठाणाई फासं पुण णेगसंठाणं।।१।६५ – पंचसंग्रह
यवनालमसू रातिमुक्तेन्द्द्धधंसमाः क्रमात्।
श्रोत्राक्षिघ्राणजिह्वाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थितिः॥२।५०॥ त. सा., अधिकार-२
खुल्ला वराडसंखा अक्खुणअरिट्ठगा य गंडोला।
कुक्खिमिसिप्पिआई णेया वेइंदिया जीवा ॥१॥७०|| - पंचसंग्रह
शम्बूक: शंखशुक्तिर्वा गण्डूपदकपर्दकाः।
कुक्षिकृम्यादयश्चैते द्वीन्द्रिया: प्राणिनो मताः ।२।५३।। त. सा., अधिकार-२
कुंथुपिपोलयमंकुणविच्छियजूविंदगोवगोम्हीया।
उत्तिगमट्टियाई णेया तेइंदिया णीवा ॥१।७१॥ -पंचसंग्रह
कुंथुः पिपीलिका कुम्भी वृश्चिकश्चैन्द्रगोपकः।
घुणमत्कुमपूकाद्यास्त्रीन्द्रियाः सन्ति जन्तवः।।२।५४।। त. सा.
'अधोत्पादः क्व तेषामिति? अत्रोच्यते प्रथमायासंज्ञिन उत्पद्यते, प्रथमा द्वित्तीययो: सरीसृपाः, तिसृषु पक्षिणः, चतसृषूरगाः, पञ्चसु सिंहाः, षरसु स्त्रियः, सप्तसु मत्स्य-मनुष्याः। न च देवा नारका वा नरकेषु उत्पद्यन्ते।'
-तत्त्वार्थवातिक, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृष्ठ-१६८
धर्मामसंज्ञिनो यान्ति वंशान्ताश्व सरीसृपाः।
मेघान्ताश्च विहङ्गाध अज्जनान्ताश्च भोगिनः।। -तत्त्वार्थसार। २।१४६
तामरिहा च सिंहास्तु मेवानगन्नास्त योषितः।
नरा मत्स्याश्च गच्छन्ति माघवीं ताश्व पापिनः।। -तत्त्वार्थसार। २।१४७
आद्यभावादन्ताभाव इति चेत्, न, दुष्टत्वादन्त्यवीजवत - तत्त्वार्थवातिक, ज्ञानपीठ संस्करण पृ. ६४१
आद्यभावान्न भाचस्य कर्मबन्धनसन्सतेः।
अन्ताभावः प्रसज्येत दृष्टत्वादन्त्यबीजवत्।। - तत्त्वार्थसार। ८।६
पुनबंधप्रसंगो जानतः पश्यत्तश्च कारुण्यादिति चेत्, न, सस्त्रिवपरिक्षयात्- तत्त्वार्थवार्तिक, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृ. ६४३
जानतः पश्यतश्चो्दध्र्व जगत्कारुण्यतः पुनः।
तस्य बन्धप्रसङ्गो न सर्वास्तवपरिक्षयात्॥ -तत्त्वार्थसार। ८।९
अकस्मादिति चेत्, अनिर्मोक्षप्रसङ्गः। - तत्त्वार्थवातिक पृ. ६४३
अकस्माच्च न बन्धः स्यादनिर्मोक्षप्रसङ्गत:।
बन्धोपपत्तिस्तत्र स्यान्मुचिप्राप्तेरनन्तरम् ।। -तत्त्वार्थसार ८।१०
गौरवाभावाच्च ।।८।। -तत्त्वार्थवातिक पृ.-६४३
तथातिगौरवाभावान्न पातोऽस्य प्रसज्जते।
वृत्तसम्बन्धविच्छेदो पतत्यानफलं गुरु ।। -तत्त्वार्थसार। ८।१२
शरीरानुविधायित्वे तदभावाद्विसर्पणप्रसङ्ग इति चेत्, न, कारणाभावात् ॥१३॥ - तत्त्वार्थवातिक पृ.-७४३
शरीराविधायित्वे तद्भावाद्विसर्पणम्।
लोकाकाशप्रमाणस्य तावन्नाकारणत्वतः।। - तत्त्वार्थसार ८।१६
दृष्टत्वाच्च निगलादिवियोगे देवदत्ताधवस्थानवत्। - तत्त्वार्थवातिक पृ.-६४४
कस्यचिच्छसलामोक्षे तत्रावस्थानदर्शनात्।
अवस्थानं न मुक्तानामूद्धव्रज्यात्मकत्वसः॥ -तत्त्वार्थसार ८।१९
समयसार-कलश यर्थार्थतः कुन्दकुन्दके समयसारपर कलशरूपमें लिखा गया है। इसका विषय-वर्गीकरण भी कुन्दकुन्दके विषयके समान ही है। इसमें कुल २७८ पद्य हैं, जो निम्न अधिकारों में विभक्त हैं-
१. पूर्वरङ्ग
२.जीवाजीवाधिकार
३. कर्तृकर्माधिकार
४. पुण्यपापाधिकार
५. आस्त्रवाधिकार
६. संवराधिकार
७. निर्जराधिकार
८. बन्धाधिकार
९. मोक्षाधिकार
१०. सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार
११. स्थाद्वादाधिकार
१२. साध्य-साधकाधिकार
आरम्भमें ही आत्म-तत्त्वको नमस्कार करते हुए बताया है-
नमः समयसाराय स्वानुभत्या चकासते।
चिस्वभावाच भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे।- पद्य-१।
मैं समयसार- समस्त पदार्थों में श्रेष्ठ उस आत्मतत्त्वको नमस्कार करता हू, जो स्वानुभूतिसे स्वयंप्रकाश है, चैतन्यस्वभाववाला है, शुद्ध सत्ता-रूप है और समस्त पदार्थोंको जाननेवाला है अथवा चैतन्यस्वभावसे भिन्न समस्त रागादि विकारीको न करनेवाला है। इस द्रव्य का आरम्भमें ही शुद्ध आत्मतत्त्वको नमस्कार किया गया है। समयसारकी व्याख्याका प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है-
परपरिणसिहेतोर्मोहनाम्नोनुभावा-
दविरतमनुभाग्यव्याप्तिकल्माषितायाः।
ममपरमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते-
भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः।।३।।
इस समयसारकी व्याख्यासे मेरी अनुभूतिकी परम विशुद्धता प्रकट हो। यद्यपि मेरी वह अनुभूति शुद्ध चैतन्यमात्र मुर्तिसे युक्त है अर्थात् परम ज्ञायक भावसे सहित है तथापि वर्तमानमें परपरिणतिका कारण जो मोहनामका कर्म है, उसके उदयरूप विपाकसे निरन्सर रागादिकी व्याप्तिसे कल्माषित-मलिन हो रही है। अर्थात इस व्याख्यासे मेरो अनुभूतिमें परम विशुद्धसा उत्पन्न होगी। निश्चय और व्यवहार नयके विवादको समाप्त करते हुए बताया है-
उभयनविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाले
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहः।
सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चे
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव॥४॥
अर्थात् निश्चय और व्यवहार नयके विषयमें परस्पर विरोध है, क्योंकि निश्चयनय अमेदको ग्रहण करता है और व्यवहारनय भेदको। किन्तु इस विरोध का परिहार करनेवाला स्याद्वादवचन है, उस वचनमें वे ही रमण कर सकते हैं, जिन्होंने मोहका वमन कर दिया है और वे ही पुरुष शीघ्र ही उस समयसार का अवलोकन करते हैं, जो कि अतिशयसे परमज्योतिस्वरूप है। नवीन नहीं अर्थात् द्रव्यदृष्टिसे नित्य हैं और एकान्तपक्षसे जिसका खण्डन नहीं हो सकता।
शुद्धनयकी दृष्टिसे आत्मा अपने एकपनमें नियत है। स्वकीय गुणपर्यायोंमें व्याप्त होकर रहता है तथा पूर्णज्ञानका पिण्ड है। ऐसे आत्मतत्त्वका आत्मातिरिक द्रव्योंसे भिन्न अवलोकन करता है, इसीका नाम सम्यकदर्शन है। इसके होते ही जो आत्मज्ञान होता है वह सम्यकज्ञान कहलाता है। जब तक आत्मामें परसे भिन्न अपनी यथार्थ प्रतीति नहीं होती तब तक यथार्थ मान नहीं होता। अतएव नवतत्त्वकी संततिको छोड़कर केवल एक आत्माको ही परसे भिन्न शुखरूपमें अनुभूत करना ही यथार्थ पुरुषार्थ है। बताया है-
एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः
पूर्णज्ञानधनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक।
सम्यादर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं
तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्माध्यमेकोऽस्तु नः||६||
इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने समयसारके समान ही विषयोंका विवेचन करते हुए आरमाका कर्तृत्व, भोक्तव आदिका निरूपण किया है। अन्तमें आत्माकी आश्चर्यकारक महिमाका वर्णन करते हुए लिखा है- "जब विभावशक्तिकी अपेक्षासे विचार करते हैं तब मात्मामें कषाधका उपद्रव दिखाई देता है और जब स्वभावदशाका विचार करते हैं तो शान्तिका प्रसार अनुभवमें भाता है। कर्मबन्धकी अपेक्षा संसारकी जन्म-मरण रूप बाधा दिखाई देती है और शुद्ध स्वरूपका विचार करनेपर मुक्ति का स्पर्श अनुभव में आता है। स्वपरिज्ञायक भावकी अपेक्षा करनेपर आत्मा लोकत्रयका ज्ञाता है और शायकभावको अपेक्षा एक चैतन्यमात्र अनुभव में माता है। इस प्रकार अनेक विरुद्ध धर्मोंके समावेश गोरा आलाकमावली इमु महिमा दिखाई पड़ती है-
कषायकलिरेकतः स्खलति शान्तिरस्त्येकतो
भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकत्तः।
जगत्रितयमेकतः स्फुरति चिचकास्त्येकतः
स्वभावमहिमात्मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः॥२७३।।
समयसारकी अपेक्षा समयसारकलश अतिगहन हैं। निश्चयतः आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने अध्यात्ममंगा प्रवाहित की है। इस गंगामें अवगाहन करनेवाले सभी प्रकारसे शान्तिलाभ करते हैं।
अमृतचन्द्रकी समयसार-टीका आत्मख्यातिके नामसे प्रसिद्ध है। यह आचार्य की प्रांजल शैलीका उत्कृष्ट नमूना है। उन्होंने गाथाके शब्दोंका व्याख्यान न कर उसके अभिप्रायको अपनी परिष्कृत गद्यशैलीमें व्यक्त किया है। जहाँ उन्हें गाथा के मूलभावमें कोई कमी दिखलाई पड़ी है वहां उन्होंने समयसारकलश नामसे पद्य भी लिख दिया है। यह समयसारकलश आत्मख्यातिटीकामें मिश्रित हो जानेपर भी उसका ग्रंथरूपमें पृथक अस्तित्व भी है। टीकामें समस्यन्तपद भी विद्यमान हैं तथा अनेक शब्दोंके निर्वचन भी दिये गये हैं और भावको स्पष्ट करनेका पूर्ण प्रयास किया है। जहाँ कुन्दकुन्दके ग्रन्थों में प्रमेय अस्पष्ट थे वहाँ कलश अथवा आत्मख्याति टीकाद्वारा ही स्पष्टता लाकर जैनतत्त्वज्ञानको समृद्ध किया है।
अमृतचंद्रने ही समय करके वर्गीकारण कीया है तथा समयपाहुडको समयसार नाम देनेका श्रेय भी इन्हींको प्राप्त है। टीकाको नाटकके समान अड़ोंमें विभाजित किया है। प्रथम अखसे पूर्वके प्रारम्भिक भागको पूर्वरत्न कहा गया है। जिस प्रकार नाटकमें पात्रोंका निष्क्रमण और प्रवेश होता है उसी प्रकार प्रहांपर भी प्रवेश और निष्क्रमण कराया गया है। प्रथम अङ्कजीवा जीवाधिकार है। इसमें जीवकी अजीवसे भिन्न बतलाया है और अन्तमें लिखा है- "जोवाजीवो पृथग्भूत्वा निष्क्रान्ती" अर्थात् जीव और अजीव पृथक-पृथक् होकर चले गये। दूसरे कर्तृकर्म अधिकारके आरम्भमें लिखा है- "जीव-अजीव ही कर्ता और कर्मका वेष धारणकर प्रवेश करते हैं तथा अन्त में लिखा है- "जीव और अजीव कर्ता एवं कर्मका वेष छोड़कर निकल गये।" तीसरे पुण्यं पाप अधिकारके आदिमें लिखा है- "एक ही कर्म पुण्य और पापके रूपमें दो पात्रोंका वैष धारण करके प्रवेश करता है" और अन्तमें लिखा है पुण्य और पापके रूपसे दो पात्रोंका वेषधारण करनेवाला कर्म एक पात्ररूप होकर निकल गया अर्थात् कर्म में पुण्य-पापका भेद मिथ्या है, दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। इसी प्रकार आस्तव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष अधिकारोंमें उन-उन तत्वोंका प्रवेश और निर्गमन कराया गया है। वस्तुत: यह संसार एक रंगमंच है जिसपर जीव और अजीव नानारूप धारण करके अभिनय करते हैं। यहां अभिनयका आचरण करनेवाला या सूत्रधार पौद्गलिक कर्म है।
यह टीका पर्याप्त विस्तृत और गहन है। यहां उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की जाती हैं-
"अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वनानेन, स्वपरयोरेकत्व दर्शनेन, स्वपरयोरेकस्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृसिस्वभाव मप्यहत्तया अनुभवन् कर्मफलं वेदयते। शानी तु शुद्धात्मशानं सद्भावात्स्वपरयोनि भागज्ञानेन स्वपरयोविभागदर्शनेन स्वपरयोविभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वाभावा दपसूतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतयानुभवन् कर्मफलमुदितं जेयमात्रत्वात् जानास्येव न पुनस्तस्याहत्तयानुभवितुमशक्यत्वाद्वेचते ॥३१६॥"
प्रवचनसारकी टीकाका नाम तत्वदीपिका है। यह टीका भी प्रांजल शेलीमें समयसारकी टीकाके समान ही लिखी गयी है। इससे मी उनकी आध्यात्मिक रसिकता, आत्मानुभव, प्रखर विद्वत्ता, वस्तुस्वरूपको तर्कपूर्वक सिद्ध करनेकी असाधारण शक्ति, तत्वतत्त्वार्थका गम्भीरज्ञान, निवच्य व्यवहारका क्रमबद्ध निरूपण आदि अनेक विशेषताएँ विद्यमान हैं। मूलग्रंथकारने जिन भावोंको छोड भी दिया है उनका भी प्रकटीकरण टीकाकारने किया है। टीका समस्यन्त गद्यमें लिखी गयी है, शैली पर्याप्त प्रौढ़ है और शब्दार्थके स्थानपर विषयको स्पष्ट करनेवाली है। यथा-
"यतो न खल्विन्द्रियाण्यालम्ब्यावग्रहेहावायपूर्वकप्रक्रमेण केवली विजानाति, स्वयमेव समस्तावरणक्षयक्षण एवानाद्यनन्ताहेतुकासाधारणभूतज्ञानस्वभावमेव कारणल्वेनोपादाय तदुपरि प्रविकसकेवलज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमते, ततोऽ स्थाक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया समक्षसंवेदनालम्बनभूताः सर्व द्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा एव भवन्ति।"
पंचास्तिकायकी १७३ गाथाओंपर आचार्य अमृतचन्द्रने टीका लिखी है। टीकाकारने इस ग्रंथकी चार भागमें विभाजित किया है-
१. पीठिका
२. प्रथम श्रुतस्कन्ध
३. द्वितीय श्रुतस्कन्ध
४. चूलिका
पीठिका में २६ गाथाएँ हैं और उनकी व्याख्या उक्त दोनों ग्रन्थोंके समान ही की गयी है। प्रथम श्रुतस्कन्धमें ७८ गाथाओंकी व्याख्या है। द्वितीय श्रुतस्कन्धमें ४९ गाथाओंकी व्याख्या दी गयी है। चूलिकामें बीस गाथाओंकी टीका है। इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्रसूरिने पंचास्तिकायके विषयको भी अपनी टीकामें विस्तृत और स्पष्ट बनानेका पूर्ण प्रयास किया है। इस टीकाका नाम भी तत्त्वदीपिका है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Amrutchandrasuri 11th Century (Prachin)
Acharya Shri Amrutchandrasuri
#amrutchandrasurijimaharaj
15000
#amrutchandrasurijimaharaj
amrutchandrasurijimaharaj
You cannot copy content of this page