हैशटैग
#grudhpichacharyajimaharaj
श्रुतधराचार्यों की परंपरामें आचार्य गृद्धपिन्छ का नाम आता है। तत्वार्थसुत्रके रचयिता आचार्य गृद्धपिन्छ हैं। इनका अपरनाम उमास्वामी या उमास्वाति भी प्राप्त होता है। आचार्य वीरसेनने जीवस्थानके काल अनुयोगद्वारमें तत्वार्थसूत्र और उसके कर्ता गृद्धपिच्छाचार्यके नामोल्लेखके साथ उनके तत्त्वार्थसूत्रका एक सूत्र उद्धृत किया है-
'तह गिद्धपिछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि "वर्तनापरिणामक्रियाः पर त्वापरत्वे च कालस्य इदि दव्वकालो परुविदो।'
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि तत्वार्थसूत्रके रचयिता गृद्धपिन्छाचार्य हैं। इस नामका समर्थन आचार्य विद्यानन्दके तत्वार्थश्लोकवातिकसे भी होता है-
'एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्समुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता।'
यहाँ विद्यानन्दने भी तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम गृद्धपिच्छाचार्य बतलाया है।
तत्त्वार्थसूत्रके किसी टीकाकारने भी निम्न पद्यमें तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताका नाम गृद्धपिच्छाचार्य दिया है-
'तत्त्वार्थसूत्रकर्तार गृद्धपिच्छोपलक्षितम्।
वन्दे गणीन्द्रसंजासमुमास्वामिमुनीश्वरम्॥'
इसमें गृद्धपिच्छाचार्य नामके साथ उनका दूसरा नाम 'उमास्वामिमुनीश्वर भी बतलाया गया है। वादिराजने भी अपने पार्श्वनाथचरित्रमें गृद्धपिच्छ नामका उल्लेख किया है-
'अतुच्छगुणसम्पातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि तम्।
पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः।।'
आकाशमें उड़नेकी इच्छा करनेवाले पक्षी जिस प्रकार अपने पंखोंका सहारा लेते हैं उसी प्रकार मोक्षरूपी नगरको जानेके लिए भव्यलोग जिस मुनीश्वरका सहारा लेते हैं उस महामना अगणित गुणोंके भण्डारस्वरूप गृद्धपिच्छ नामक मुनिमहराजके लिए मेरा सविनय नमस्कार है ।
इन प्रमाणोल्लेखोंसे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छाचार्य हैं।
श्रवणबेलगोलाके एक अभिलेखमें गृद्धपिच्छ नामकी सार्थकता और कुन्दकुन्दके वंशमें उनकी उत्पत्ति बतलाते हुए उनका उमास्वाति नाम भी दिया है। यथा-
अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलात्थंवेदो।
सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजात्तं मुनिपुङ्गवेन॥
स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृदमपक्षान्।
तदा प्रभृत्येव बुघा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगद्धपिच्छम्।।
अन्य शिलालेख में भी गृद्धपिच्छाका उल्लेख प्राप्त होता है-
अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्मपिच्छः।
तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी।
आचार्य कुन्दकुन्दके पवित्र वंशमें सकलार्थक ज्ञाता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशांगवाणीको सूत्रोंमें निबद्ध किया। इन आचार्यने प्राणिरक्षाके हेतु गृद्धपिच्छोंको धारण किया। इसी कारण वे गृद्धपिच्छाचार्य के नामसे प्रसिद्ध हुए। आमलेखीय प्रमाणमें गृद्धपिच्छाचार्यको श्रुतकेवलिदेशीय भी कहा गया है। इससे उनका आगमसम्बन्धी सातिशय ज्ञान प्रकट होता है।
तत्वार्थसूत्रके रचयिता गृद्धपिच्छाचार्यका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें ४०, ४२,४३,४७ और ५० संख्यकमें भी पाया जाता है। अभिलेखसंख्या १०५ और १०८ में तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम उमास्वाति भी आया है और गृद्धपिच्छा उनका दूसरा नाम बतलाया है। यथा-
श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार।
यन्मुक्तिमार्गाचरणोधताना पाथेयमग्ध्यं भवति प्रजानां।।
तस्यैव शिष्योऽजनि गृद्धपिच्छ-द्वित्तीयसंज्ञस्य बलाकपिच्छः।
यत्सूक्तिरलानि भवन्ति लोके मुफ्त्यङ्गनामोहनमण्डनानि॥
यत्तियोंके अधिपति श्रीमान् उमास्वातिने तत्त्वार्थसूत्रको प्रकट किया, जो मोक्षमार्गके आचरणमें उद्यत मुमुक्षुजनोंके लिए उत्कृष्ट पाथेय है। उन्हींका गृद्धपिच्छ दूसरा नाम है। इन गृद्धपिच्छाचार्य के एक शिष्य बलाकपिच्छ थे, जिनके सुक्तिरत्न मुक्त्यङ्गनाके मोहन करनेके लिए आभूषणों का काम देते हैं।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्य और अभिलेखोंका अध्ययन करनेसे यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थ सूत्रके रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपरनाम उमास्वामि या उमास्वाति हैं।
कुछ विद्वानोंने तत्त्वार्थसुत्रका रचयिता कुन्दकुन्दको माना है।आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तारने इस मतकी समीक्षा की है।
तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताके सम्बन्धमें एक अन्य मत यह है कि वाचक उमास्वाति इस सूत्रग्नन्थके रचयिता हैं। पण्डित सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन) की प्रस्तावनामें वाचक उमास्वातिको तत्वार्थसुत्रका कर्ता माना है, गृद्धपिच्छ उमास्वातिको नहीं। वे कहते हैं कि गृद्धपिच्छ उमास्वाति नामके आचार्य हुए अवश्य हैं, पर उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र या तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रकी रचना नहीं की है। उन्होंने इस सूत्रग्रंथका उल्लेख 'तत्वार्थाधिगम' शास्त्रके नामसे किया है। पर यह नाम तत्त्वार्थसूत्रका न होकर उसके 'तत्त्वार्थाधिगम’ भाष्यका है।
तत्वार्थाधिगमभाष्यकी रचनाके पूर्व तत्वार्थसूत्रपर अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी थी। सर्वार्थसिद्धिका निम्न सूत्र तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमें कुछ परिवर्धन के साथ पाया जाता है, जिससे भाष्यकी सर्वार्थसिद्धिसे उत्तरकालीनता अवगत होती है-
(क) मतिश्रुतयोनिबन्धो दत्यानगोष'।
(ख) मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्याषु।
यहाँ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यमें सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठकी अपेक्षा द्रव्यपदके साथ विशेषणरूपसे 'सर्व' पद स्वीकार किया गया है। किन्तु जब वे ही भाष्यकार इस सूत्रके उत्तरार्धको १/२० के माध्यमें उद्धृत करते हैं तो उसका रूप सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ ले लेता है। यथा- 'अत्राह- मतिश्रुतयोस्तुल्यविषयत्वं वक्ष्यति "द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु’इति।
इससे ज्ञात होता है कि भाष्यके पूर्व तत्त्वार्थसूत्रपर सर्वसिद्धि-टीका लिखी जा चुकी थी और उसमें तत्त्वार्थसूत्रका एक सूत्रपात्र निर्धारित किया जा चुका था। सिद्धसेनगणी और हरिभद्गने भी तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके इस अंशको इसी रूपमें स्वीकार किया है। अब प्रश्न यह है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकारने जब उल्लिखित सूत्रके उत्तरार्धका 'सर्व द्रव्येष्वसर्वपर्यायषु' पाठ स्वीकार किया, तब उसे उद्धृत करते समय उसमेंसे 'सर्व' पद क्यों छोड़ दिया? यदि 'सर्व' पदको 'द्रव्य' पदक विशेषणके रूपमें आवश्यकता थी तो उन्होंने उद्धृत करते समय क्यों नहीं इस बातका ध्यान रखा? यह ऐसा प्रश्न है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। बहुत सम्भव है कि उन्होंने प्राचीन सूत्रपाठकी परम्पराको ध्यानमें रखकर ही प्रथम अध्यायके २०वें सूत्रके माध्यमें उसे दिया, जो सर्वार्थसिद्धिमें उपलब्ध था। इससे विदित्त होता है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखते समय वाचक उमास्वातिके समक्ष सर्वार्थसिद्धि अथवा उसमें मान्य सूत्रपाठ रहा है।
अर्थविकासकी दृष्टीसे विचार करने पर प्रतीत होगा कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकी सर्वार्थासाद्धीके बाद लिखा गया है। कालके उपकारप्रकरणमें सर्वार्थसिद्धिमें परत्व और अपरत्व ये दो ही भेद किये गये हैं, जबकि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में उसके तीन भेद उपलब्ध होते हैं। अतएव प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलालजीका यह अभिमत कि तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्वार्थाधिगमभाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं, समीचोन प्रतीत नहीं होता।
तत्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ हो जानेपर भी ऐसे अधिकतर सूत्र हैं जो दोनों परम्पराओंमें मान्य हैं और उनमें भी कुछ ऐसे सूत्र अपने मूलरूपमें उपलब्ध हैं, जिनके रचयिताको स्थितिपर प्रकाश पड़ता है। पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री ने (१) तीर्थंकरप्रकृतिके बन्धके कारणोंका प्रतिपादक सूत्र,(२)वाइस परीषहाका प्रतिपादक सूत्र, (३) केवलीजिनके ११ परिषहोंके सद्भावका प्रतिपादक सूत्र और (४) एक जीवके एक साथ परीषहसंख्याबोधक सूत्र- इन चार सूत्रोंको उपस्थित कर तत्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके रचयिताओंको भिन्न भिन्न व्यक्ति सिद्ध किया है। पण्डित फूलचन्द्रजीने 'उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये' पदके पण्डित सुखलालजी द्वारा किये गये अर्थको समीक्षा करते हुए लिखा है- 'पण्डितजी, भाष्यकार और सुत्रकार एक हो व्यक्ति है- इस पक्षमें उसका अर्थ लगानेका प्रयत्न करते हैं, किंतु इस पदका सीधा अर्थ है- उमास्वातिवाचकद्वारा बनाया हुआ सूत्रभाष्य। यहाँ "उमास्वातिवाचकोपज्ञ' पदका सम्बन्ध सूत्रसे न होकर उसके भाष्यसे है। दुसरा प्रमाण पण्डितजीने ९वें अध्यायके २२वे सूत्रकी सिद्धसेनीय टीका उपस्थित की है, किंतु यह प्रमाण भी सन्देहास्पद है, क्योंकि सिद्धसेन गणिकी टीकाको जो प्राचीन प्रतियां उपलब्ध होती हैं उनमें "स्वकृतसूत्रसन्निवेशमाश्रित्योक्तम्" पाठके स्थानमें "कृतस्तत्र सूत्रसन्निवेशमाश्रित्योक्तम्" पाठ भी उपलब्ध होता है। बहुत सम्भव है कि किसी लिपिकारने तत्वार्थसुत्रका वाचक उमास्वाति कर्तृत्व दिखलाने के अभिप्रायसे 'कुतस्तत्र' का संशोधन कर 'स्वकृत्त' पाठ बनाया हो और बादमें यह पाठ चल पड़ा हो।
अतः तत्त्वार्थ अथवा तत्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य दो पृथक्-पृथक् रचनाएँ हैं। तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धिसे पूर्ववर्ती और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उससे उत्तरवर्ती रचना है। अतएव तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके कर्ता वाचक उमास्वाति रहे होंगे। पर मूल तत्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिन्छाचार्य हैं। इस नामका उल्लेख नवीं शताब्दीके आचार्य वीरसेन और विद्यानन्द जैसे आचार्योंके साहित्यमें मिलता है। उत्तरकालमें अभिलेखों और ग्रन्थोंमें उमास्वामी और उमास्वाति इन दो नामोंसे भी इनका उल्लेख किया गया है। लगभग इसी समय श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हुए सिद्धसेन गणिके उल्लेखोंसे तत्वार्थाधिगमभाष्यका रचयिता वाचक उमास्वातिको माना गया और इन्हें ही तत्त्वार्थसूत्रका रचयिता भी बता दिया गया । पर मूल और भाष्य दोनोंका अन्तःपरीक्षण करनेपर वे दोनों पृथक-पृथक दो विभिन्नकालीन कर्तृक सिद्ध होते हैं, जैसा कि ऊपरके विवंचनसे प्रकट है।
गृद्धपिन्छाचार्य किस अत्वयमें हुए, यह विचारणीय है। नन्दिसंघकी पट्टावलि और श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंसे यह प्रमाणित होता है कि गृद्धपिन्छाचार्य कुन्दकुन्दके अन्वयमें हुए हैं। नन्दिसंघकी पट्टावलि विक्रमके राज्याभिषेकसे प्रारम्भ होती है। वह निम्न प्रकार है-
१. भद्रबाहु द्वितीय (४),
२. गुप्तिगुप्त (२६),
३. माघनन्दि (३६),
४. जिनचन्द्र (४०),
५. कुन्दकुन्दाचार्य (४९),
६. उमास्वामि (१०९),
७. लोहाचार्य (१४२),
८. यशःकीर्ती (१५३),
९. यशोनन्दि (२११),
१०. देवनन्दि (२५८),
११. जयनन्दि (३०८),
१२. गुणनन्दि (३५८),
१३. वज्रनन्दि (३६४),
१४. कुमारनन्दि (३८६),
१५. लोकचन्द (४२७),
१६. प्रभाचन्द्र (४५३),
१७. नेमिचन्द्र (४७२),
१८. भानुनन्दि (४८७),
१९. सिंहनन्दि (५०८),
२०. वसुनन्दि (५२५),
२१. वीरनन्दि (५३१),
२२. रत्ननन्दि (५६१),
२३. माणिक्यनन्दि (५८५),
२४. मेघचन्द्र (६०१),
२५. शान्तिकीर्ति (६२७),
२६. मेरुकीर्ति (६४२),।
उपर्युक्त पट्टावलिमें आया हुआ गुप्तिगुप्तका नाम अर्हद्वलिके लिये आया है। अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध है कि नन्दिसंघकी स्थापना अर्हद्वलिने की थी, और इसके प्रथम पट्टधर आचार्य माघनन्दि हुए। इस क्रमसे गृद्धपिच्छ नन्दिसंघके पट्टपर बैठनेवाले आचार्योंमें चतुर्थ आते हैं और इनका समय वीर निर्वाण सं. ५७१ सिद्ध होता है। अतएव गृद्धपिन्छके गुरुका नाम कुन्दकुन्दाचार्य होना चाहिये। श्रवणबेलगोलाके अभिलेख न. १०८ में गृद्धपिन्छ उमास्वामिका शिष्य बलाकपिच्छाचार्यको बतलाया है। अत: इनके शिष्य बलाकपिच्छ हैं।
तत्वार्थसूत्र के निर्माणमें कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंका सर्वाधिक उपयोग किया गया है| आचार्य कुन्दकुन्दने अपने पंचास्तिकाय में लिखा है-
दव्व सल्लक्खणियं उपादव्वयधुवत्तसंजुत्तं।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्ण ति सव्वण्हू।।
इस गाथाके आधारपर तत्त्वार्थसूत्रमें तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं। ये तीनों सूत्र क्रमश: गाथाके प्रथम, द्वितीय और तृतीय पाद हैं-
(१) सदद्रव्यलक्षणम्।
(२) उत्पादव्वयघ्रोव्ययुक्तं सत्।
(३) गुणपर्ययवद् द्रव्यम्।
अतएव गृद्धपिन्छने कुन्दकुन्दका शाब्दिक और वस्तुगत अनुसरण किया है। अत: आश्चर्य नहीं कि गृद्धपिन्छके गुरु कुन्दकुन्द रहे हों। श्रवणबेलगोलाके उक्त अभिलेखानुसार गृद्धपिन्छके शिष्य बलाकपिच्छ हैं। इनकी गणना नन्दिसंघके आचार्योंमें है।
यद्यपि पंडित सुखलालजीने इन्हें ही तत्वार्थाधिगमभाष्यका कर्ता मानकर उच्चैगिर शाखाका आचार्य माना है और यह शाखा कल्पसूत्रकी स्थविरावलिके अनुसार आर्यशान्तिश्रेणिकसे निकली है। आर्यशान्तिश्रेणिक आर्यसुहस्तिसे चौथी पीढ़ी में आते हैं, तथा वह शान्तिश्चेणिक आर्यवज्रके गुरु आर्यसिंहगिरिके गुरुभाई होनेसे, आर्यवज्रकी पहली पीढ़ी में आते हैं। तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकी प्रशस्तिमें वाचक उमास्वातिने अपनेको शिवश्रीनामक वाचकमुख्यका प्रशिष्य और एकादशांगवेत्ता धोषनन्दि श्रमणका दीक्षा शिष्य तथा प्रसिद्धकीर्तिवाले महावाचक श्रमण श्रीमुण्डपादका विद्या-अशिष्य बतलाया है।
पर यह गुरुशिष्य-परम्परा तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार वाचक उमास्वातिकी है, तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिन्छकी नहीं। गृद्धपिन्छ उमास्वामि कुन्दकुन्दान्वयमें हुये हैं और ये कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तराधिकारी भी हैं।
इनका समय नन्दिसंघकी पट्टावलिके अनुसार वीर- निर्वाण सम्वत् ५७१ है, जो कि वि. सं. १०१ आता है। "विद्वज्जनबोधक' में निम्नलिखित पद्य आया है-
वर्षसप्तशते चैव सप्तत्या च विस्मृतौ।
उमास्वामिमुनिर्जात कुन्दकुन्दस्तथैव चे।।
अर्थात् वीर निर्वाण संवत् ७७० में उमास्वामि मुनि हुए, तथा उसी समय कुन्दकुन्दाचार्य भी हुये। नन्दिसंघकी पट्टावलिमें बताया है कि उमास्वामी ४० वर्ष ८ महीने आचार्यपदपर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु ८४ वर्षकी थी और विक्रम संवत् १४२ में उनके पट्टपर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए। प्रो. हार्नले, डा. पीटरसन और डा. सतीशचन्द्रने इस पट्टावलिके आधारपर उमास्वारिको ईसकी प्रथम शताब्दी का माना है।
'विद्धज्जनबोधक' के अनुसार उमास्वातिका समय विक्रम सम्वत् ३०० आता है और वह पट्टावलिके समयसे १५० वर्ष पीछे पड़ता है।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें ६८३ वर्षकी श्रुतधर आचार्योंकी परम्परा दी है और इसके बाद अंगपूर्वके एकदेशधारी विनयधर, श्रीदत्त और अर्हद्दत्तका नामोल्लेखकर नन्दिसंघ आदि संघोंकी स्थापना करनेवाले अर्हद्वलिका नाम दिया है। श्रुतावतारमें इसके पश्चात् माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतलिके उल्लेख हैं। उसके बाद कुन्दकुन्दका नाम आया है। अत: आचार्य गृद्धपिच्छ कुन्दकुन्दके पश्चात् अर्थात् ६८३ वर्ष के अनन्तर हुए हैं। यदि इस अनन्तरकालको १०० वर्ष मान लिया जाये, तो वीर-निर्वाण सम्वत् ७८३ के लगभग आचार्य गृद्धपिच्छका समय होगा।
यद्यपि श्रुतधर आचार्यों की परम्परा का निर्देश धवला, आदिपुराण', नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावालि और त्रिलोकप्रज्ञात' आदिमें आया है, पर ये सभी परम्पराएँ ६८३ वर्ष तकका ही निर्देश करती हैं। इसके आगेके आचार्योंका कथन नहीं मिलता। अतएवं श्रुतावतार आदिके आधारसे गृद्धपिच्छका समय निर्णीत नहीं किया जा सकता है।
डॉ. ए. एन उपाध्येने बहुत ऊहापोहके पश्चात् कुन्कुन्दके समयका निर्णय किया है, और जिससे गृद्धपिच्छ, आचार्य कुन्दकुन्दके शिष्य प्रकट होते हैं। उपाध्येजीके मतानुसार कुन्दकुन्दका समय ई. प्रथम शताब्दीके लगभग है। अतः गृद्धपिच्छाचार्य उसके पश्चात् ही हुए हैं।
कुन्दकुन्दका समय निर्णीत हो जानेके पश्चात् आचार्य गुद्धपिच्छका समय अवगत करने में कठिनाई नहीं है। यतः पट्टावलियों और शिलालेखों में आचार्य कुन्दकुन्दके पश्चात् गृद्धपिच्छका नाम आया है। अतएव इनका समय ई. प्रथम शताब्दीका अन्तिम भाग और द्वितीय शताब्दीका पूर्वभाग घटित होता है।
निष्कर्ष यह कि पट्टावलियों, प्रशस्तियों और अभिलेखोंके अध्ययनसे गृद्धपिच्छका समय ई. सन् द्वितीय शताब्दी प्रतीत होता है।
आचार्य गृद्धपिच्छकी एकमात्र रचना 'तत्त्वार्थसूत्र' है। इस सूत्रग्रन्यका प्राचीन नाम 'तत्त्वार्थ’ रहा है। 'तत्वार्थ' की तीन टीकाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनके साथ तत्वार्थपद लगा है, पूज्यपादकी 'तत्वार्थवृत्ति', जिसका दूसरा नाम 'सर्वार्थसिद्धि' है, अकलंकका तत्वार्थवार्तक' और विद्यानन्दका तत्वार्थश्लोकवार्तिक। अतएव इस ग्रंथका प्राचीन नाम 'तत्वार्थ’ ही रहा है। सूत्रशैलीमें निबद्ध होनेसे उत्तरकालमें इसका 'तत्त्वार्थसूत्र' नाम प्रचलित हुआ। इस ग्रंथकी रचनाके हेतुका वर्णन करते हुए, तत्वार्थसूत्रके कन्नड-टीकाकार बालचंद्रने लिखा है-
"सौराष्ट्रदेशके मध्य उर्जयन्तगिरिके निकट गिरिनगर नामके पत्तनमें आसन्नभव्य स्वहितार्थी द्विजकुलोत्पन्न श्वेताम्बरभक्त सिद्धय्य नामका एक विद्वान् श्वेताम्बर शास्त्रोंका जाननेवाला था। उसने 'दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' यह सूत्र बनाकर एक पटियेपर लिख दिया था। एक दिन चर्याक लिये गृद्धपिच्छाचार्य मुनि वहाँ आये और उन्होंने उस सूत्रके पहले 'सम्यक' पद जोड़ दिया। जब वह विद्वान बाहरसे लौटा और उसने पटिये पर 'सम्यक' शब्द लगा देखा, तो वह अपनी मातासे मुनिराजके आनेका समाचार मालूम करके खोजता हुआ उनके पास पहुँचा और पूछने लगा- "आत्माका हित क्या है”। इसके बादका प्रश्नोत्तर प्राय: वही सब है, जो 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रारम्भमें आचार्य पूज्यपादने दिया है। प्रभाचन्द्राचार्यने सर्वार्थसिद्धिपर एक टिप्पण लिखा है और कहा टिप्पणमें उन पदोंकी व्याख्या की है, जो "सर्वार्थसिद्धि' में छूट गये हैं। इस टिप्पणमें प्रभाचन्द्रने प्रश्नकर्ता भव्यका नाम तो सिद्धय्य ही दिया है, किन्तु कथा नहीं दी है। उक्त कथामें कितना तथ्यांश है, यह नहीं कहा जा सकता।
श्रुतसागरसूरिने 'तत्त्वार्थवृत्ति' के प्रारम्भमें लिखा है कि किसी समय आचार्य उमास्वामि गृद्धपिच्छ आश्रममें बैठे हुए थे। उस समय द्वैपायक नामक भव्यने यहाँ आकर उनसे प्रश्न किया-भगवन् ! आत्माके लिये हितकारी क्या है? भव्यके ऐसा प्रश्न करनेपर आचार्यवर्यने मंगलपूर्वक उत्तर दिया, मोक्ष। यह सुनकर द्वैपायकने पुनः पूछा- उसका स्वरूप क्या है, और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है? उत्तरस्वरूप आचार्यवर्यने कहा कि यद्यपि प्रवादिजन इसे अन्यथा प्रकारसे मानते हैं, कोई श्रद्धानमात्रको मोक्षमार्ग मानते हैं, कोई ज्ञाननिरपेक्ष चारित्रको मोक्षमार्ग मानते हैं। परन्तु जिस प्रकार ओषधिक केवल ज्ञान, श्रद्धान या प्रयोगसे रोगकी निवृत्ति नहीं हो सकती है, उसी प्रकार केवल श्रद्धान, केवल ज्ञान या केवल चारित्रसे मोक्षको प्राप्ति नहीं हो सकती। भव्यने पूछा- तो फिर किस प्रकार उसकी प्राप्ति होती है? इसीके उत्तरस्वरूप आचार्य ने "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग" यह सत्र रचा है और इसके पश्चात् अन्य सूत्रोंकी रचना हुई है। ऐसी ही उत्थानिका प्रायः तत्त्वार्थवर्तिकमें भी आयी है। अतः उपयुक्त कथामें कुछ तथ्य तो अवश्य प्रतीत होता है।
कनड़ी टीकाके रचयिता बालचन्द्र विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके पूर्वार्द्धमें हुए है।
पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' 'तत्वार्थसूत्र' की उपलब्ध टीकाओंमें आद्य एवं प्राचीन टीका है। इसके आरम्भमें ग्रन्थ-रचनाका जो संक्षिप्त इतिवृत्त निबद्ध है उसके आधारसे स्पष्ट रूपमें कहा जा सकता है कि तत्त्वार्यसूत्रकारने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना किसी आसनभव्यके प्रश्न के उत्तरमें की है। इस भव्यका नामोल्लेख सर्वार्थसिद्धिकारने नहीं किया। उत्तवर्ती लेखकोंने किया है। उनका आधार क्या है, कुछ कहा नहीं जा सकता। वह अन्वेषणीय है। इतना स्पष्ट तथ्य है कि तत्त्वार्थसूत्र किसी आसनभव्य मुमुक्षुके हितार्थ लिखा गया है।
इस ग्रन्थमें जिनागमके मूल तत्त्वोंको बहुत ही संक्षेपमे निबद्ध किया है। इसमें कुल दश अध्याय और ३५७ सूत्र हैं। संस्कृत-भाषामें सूत्रशैलीमें लिखित यह पहला सूत्रग्रन्थ है। इसमें करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगका सार समाहित है। इसकी सबसे बड़ी महत्ता यह है कि इसमें साम्प्रदायिकता नहीं है। अतएव यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंको थोड़ेसे पाठभेदको छोड़कर समानरूपसे प्रिय है। इसकी महत्ताका सबसे बड़ा दुसरा प्रमाण यह है कि दोनों ही सम्प्रदायोंके महान् आचार्योंने इसपर टीकाएँ लिखी हैं। पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दने दार्शनिक टीकाएँ लिखकर इस ग्रंथका महत्व व्यक्त किया है। विद्यानन्दने अपनी 'आप्तपरीक्षा' में इसे बहुमूल्य रत्नोंका उत्पादक, सलिलनिधि- समुद्र कहा है-
श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राभुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य,
प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत्।
स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथिसपृथुपथं स्वामिमोमांसितं तत,
विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धथे।
प्रकृष्ट रत्नोंके उद्भवके स्थानभूत श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रकी उत्पत्ति के प्रारम्भकालमें महान मोक्षपथको प्रसिद्ध करनेवाले और तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्रको शास्त्रकार गृद्धपिन्छाचार्यने समस्त कर्ममलके भेदन करनेके अभिप्रायसे रचा है और जिसकी स्वामीने मीमांसा की है, उसी स्तोत्रका सत्यवाक्यार्थ ( यथार्थता) को सिद्धिके लिए मुझ विद्यानन्दने अपनी शक्तिके अनुसार किसी प्रकार व्याख्यान किया है।
तत्त्वार्थसूत्र जैन धर्मका सारग्रन्थ होनेसे इसके मात्र पाठ या श्रवणका फल एक उपवास बताया गया है, जो उसके महत्त्वको सूचित करता है। वर्तमानमें इस ग्रन्थको जैन परम्परामें वही स्थान प्राप्त है, जो हिन्दु धर्ममें 'भगवद्गीता' को, इस्लाममें 'कूरान' को और ईसाई धर्ममें 'बाइबिल' को प्राप्त है। इससे पूर्व प्राकृत भाषामें ही जैन ग्रंथोंकी रचना की जाती थी। इसी भाषामें भगवान महावीरकी देशना हुई थी और इसी भाषामें गोतम गणधरने अंगों और पूर्वोकी रचना की थी। पर जब देशमें संस्कृत-भाषाका महत्त्व वृद्धिंगत हुआ और विविध दर्शनोंके मन्तव्य सूत्ररूपमें निबद्ध किये जाने लगे, तो जैन परम्पराके आचार्योंका ध्यान भी उस ओर आकृष्ट हुआ और उसीके फलस्वरूप तत्वार्थसूत्र जैसे महत्त्वपूर्ण संस्कृत-सुत्रग्रन्थकी रचना हुई। इस तरह जैन वाङ्मय में संस्कृत-भाषाके सर्वप्रथम सूत्रकार गृद्धपिच्छ है और सबसे पहला संस्कृत-सूत्रग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र है।
तत्त्वार्थसूत्र धर्म एवं दर्शनका सूत्रग्रन्थ है। इसकी रचना वैशेषिक दर्शनके 'वैशेषिकसूत्र' ग्रन्थके समान हुई हैं। वैशेषिक दर्शन के प्रारम्भमें द्वव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव इन सात पदार्थोंके तत्त्वज्ञानसे मोक्ष प्राप्तिकी बात कही गयी है। अत: इस सूत्रग्रन्थमें मुख्यरूपसे उक्त सात पदार्थों का विवेचन आया है। सांख्य दर्शनमें प्रकृति और पुरुषका विचार करते हुए जगतके मुलभूत पदार्थोका ही विचार किया है। इसी प्रकार वेदान्तदर्शनमें जगतके मूलभूत तत्व ब्रह्मकी मीमांसा की गयी है। न्यायदर्शनमें प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इन सोलह पदार्थों के तत्वज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति बतलायी है। न्यायदर्शनमें अर्थपरोक्षाके साधनोंका ही कथन आया है। योगदर्शनमें जीवनमें अशुद्धता लानेवाली चित्तवृत्तियोंका और उनके निरोधका तथा तत्सम्बन्धी प्रक्रियाका प्रतिपादन आया है। इस प्रकार पूर्वोक्त दर्शनोंका विषय ज्ञेयप्रधान या ज्ञानसाधनप्रधान अथवा चारित्रप्रधान है।
पर 'तत्त्वार्थसूत्र' में ज्ञान, ज्ञय और चारित्रका समानरूपसे विवेचन आया है। इसका प्रधान कारण यह है कि जहां वैशेषिक आदि दर्शनों में केवल तत्त्वज्ञानसे 'निःश्रेयस्’ प्राप्ति बतलायी गयी है वहाँ जैनदर्शनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके समुच्चयको मोक्षका मार्ग कहा है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायके द्वितीयसूत्रमें जीव, अजीव, अस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंके सम्यक्दर्शन और छठे सूत्रमें इनके यथार्थज्ञानकी सम्यक्ज्ञान कहा है। तत्त्वार्थसूत्रकारने हेय और उपादेयरूपमें केवल इन्हीं सात तत्त्वोंको श्रद्धेय एवं अधिगम्य बतलाया है। मोक्षमार्गमें इन्हींका उपयोग है। अन्य अनन्त पदार्थोका नहीं। इससे पूर्व समयसारमें भी निश्चयनय और व्यवहारन्यसे इन्हीं सातों तत्त्वोंका निरूपण किया है।
अतएव आचार्य गृद्धपिन्छने इस तत्त्वार्थसूत्रमें दश अध्याओंकी परिकल्पना करके प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्यायमें जीवतत्त्वका, पंचम अध्यायमें अजीवतत्वका, षष्ट और सप्तम अध्यायोंमें आस्रवतत्वका, अष्टम अध्यायमें बन्धतत्त्वका, नवम अध्यायमें संवर और निर्जरातत्वोंका एवं दशम अध्यायमें मोक्षतत्वका विवेचन किया है। प्रथम अध्यायके आरम्भमें सम्यग्दर्शनका स्वरूप और उसके भेदोंकी व्याख्या करनेके पश्चात् "प्रमाणनयैरघिगमः" [१-६] सूत्रसे ज्ञान-विषयक चर्चाका प्रारम्भ होता है। प्रमाणका कथन तो सभी भारतीय दर्शनों में आया है, पर नयका विवेचन इस ग्रन्थका अपना वैशिष्टय है और यह है जैनदर्शनके अनेकान्तवादको देन। नय प्रमाणका ही भेद है। सकलग्राही ज्ञानको प्रमाण और वस्तुके एक अंशको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं।
तत्वार्थसूत्रमें ज्ञानको ही प्रमाण माना है और ज्ञानके पाँच भेद बतलाये हैं- (१) मति, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मनःपर्यय और (५) केवलज्ञान। प्रमाणके दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। उक्त ज्ञानों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो परोक्ष हैं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होती है। शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि ये आत्मासे ही उत्पन्न होते हैं- उनमें इन्द्रियादिको अपेक्षा नहीं होती। तत्वार्थसूत्रमें उक्त पाँचों ज्ञानोंका प्रतिपादन किया है। मतिज्ञानकी उत्पत्तिके साधन, उनके भेद- प्रभेद, उनकी उत्पत्तिका क्रम, श्रुतज्ञानके भेद, अवधिज्ञान और मनःपयंयज्ञानके भेद तथा उनमें पारस्परिक अन्तर, पाँचों ज्ञानोंका विषय एवं एकसाथ एक जीवमें कितने ज्ञानोंका रहना सम्भव है आदिका कथन इसमें आया है। अन्तमें मति, श्रुत और अवधिज्ञानके मिथ्या होनेके कारणका भी विवेचन कर नयोंके भेद परिगणित किये गये हैं। इस अध्याय ३३ सूत्र हैं।
द्वितीय अध्यायमें ५३ सूत्रों द्वारा जीवतत्त्वका कथन किया है। सर्वप्रथम जीवके स्वतत्त्वरूप पंच भावों और उनके भेदोंका निरूपण आया है। पश्चात् जीवके संसारी और मुक्त भेद बतलाकर संसारी जीवोंके भेद- प्रभेदोंका कथन किया गया है। जीवोंकी इन्द्रियोंके भेद-प्रभेद, उनके विषय, संसारी जीवोंमें इन्द्रियों की स्थिति, मृत्यु और जन्म के बीच की स्थिति, जन्मके भेद, उनकी योनियां, जीवोमें जन्मोंका विभाग, शरीरके भेद उनके स्वामी, एक जीवके एक साथ सम्भव हो सकनेवाले शरीर, लिंगका विभाग तथा पूरी आयु भोगकर मरण करनेवाले जीवोंका कथन किया है।
तृतीय अध्याय ३९ सूत्रोंमें निबद्ध है। इसमें अधोलोक और मध्यलोकका वर्णन माया है। अधोलोकका कथन करते हुए सात पृथिवियों तथा उनका आधार बतलाकर उनमें नरकोंकी संख्या और उन नरकोंमें बसनेवाले नारकी जीवोंको दशा एवं उनकी दीर्घ आयु आदि बतलायी गयी है। मध्यलोकके वर्णनमें द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदियों एवं क्षेत्रोंका वर्णन करनेके पश्चात् मध्य लोकमें निवास करनेवाले मनुष्य और तिर्यञ्चोंकी आयु भी बतलायी गयो है।
चतुर्थ अध्यायमें ४२ सूत्रों द्वारा ऊर्ध्वलोक या देवलोकका वर्णन किया गया है। इसमें देवोंके विविध भेदों, ज्योतिमण्डल, तथा स्वर्गलोकका वर्णन है।
दार्शनिक दृष्टिसे पंचम अध्याय महत्वपूर्ण है। यह ४२ सूत्रोंमें निबद्ध है। इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छ: द्रव्योंका वर्णन आया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशोंकी संख्या उनके द्वारा अवगाहित क्षेत्र और प्रत्येक द्रव्यका कार्य आदि बतलाये हैं। पुदगलका स्वरूप बतलाते हुए उसके भेद, उसकी उत्पत्तिके कारण, पुदगलिक बन्धकी योग्यता अयोग्यता आदि कथन है। अन्तमें सत, द्रव्य, गुण, नित्य और परिणामका स्वरूप प्रतिपादित कर कालको भी द्रव्य बतलाया है।
षष्ठ अध्याय २७ सूत्रोंमें ग्रंथित है। इस अध्यायमें आस्रवतत्वका स्वरूप उसके भेद-प्रभेद और किन-किन कार्योके करनेसे किस-किस कर्मका अस्त्रव होता है, का वर्णन आया है।
सप्तम अध्यायमें ३९ सूत्रों द्वारा व्रतका स्वरूप, उसके भेद, व्रतोंको स्थिर करनेवाली भावनाएं, हिसादि पाँच पापोंका स्वरूप सप्त शील, सल्लेखना, प्रत्येक व्रत और शीलके अतिचार, दानका स्वरूप एवं दानके फलमें तारतम्य होनेके कारणका कथन आया है।
अष्टम अध्यायमें २६ सूत्र हैं। कर्म-बन्धके मूल हेतु बतलाकर उसके स्वरूप तथा भदोंका विस्तारपूर्वक कथन करते हुए आठों कर्मोंके नाम प्रत्येक कर्मकी उत्तरप्रकृतियां, प्रत्येक कर्मके स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका स्वरूप बतलाया है।
नवम अध्यायमें ४७ सूत्रों द्वारा संवरका स्वरूप, संवरके हेतु, गुप्ति, समिति, दश धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा बाईस परीषह, चारित्र और अन्तरंग तथा बहिरंग तपके भेद बतलाये गये हैं। ध्यानका स्वरूप, काल, ध्याता, ध्यानके भेद एवं पांच प्रकारके निग्रन्थ साधुओंका वर्णन आया है।
दशम अध्याय में केवल ९ सूत्र हैं। इसमें केवलज्ञानके हेतु, मोक्षका स्वरूप, मुक्तिके पश्चात् जीवके उर्ध्वगमनका दृष्टान्सपूर्वक सयुक्तिक समर्थन तथा मुक्त जीवोंका वर्णन आया है।
इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रका वर्ण्य विषय जैनधर्मके मूलभूत समस्त सिद्धान्तोंसे सम्बद्ध है। इसे जैन सिद्धान्तकी कुंजी कहा जा सकता है।
तत्त्वार्थसूत्रके सूत्र कुन्दकुन्दके नियमसार, पंचास्तिकाय, भावपाहुड, षट्खण्डागम प्रवचनसार, आदिके आधारपर निर्मित हुए हैं। "सम्यग्दर्शनज्ञाचारित्राणि मोक्षमार्ग" [१-१] सूत्रका मूल स्रोत नियमसार है। कुन्दकुन्दने अपने नियम सारको प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि जिनशासनमें मार्ग और मार्गफलको उपादेम कहा है| मोक्षके उपायको मार्ग कहते हैं और उसका फल निर्वाण है। ज्ञान, दर्शन और चारित्रको नियम कहा जाता है तथा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका परिहार करनेके लिए उसके साथ 'सार' पद लगाया है। तस्वार्थसूत्र में भी मिथ्यादर्शनादिका परिहार करनेके लिए, दर्शनादिकके साथ सम्यक् पद लगाया है।
मग्गो मागफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं।
मागो मोक्खउवायो तस्स फलं होइ णिव्याणं।।
णियमेण य जं कज्जं तण्णियमं णाणदसणचारित्तं।
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।
तत्त्वार्थसूत्रके द्वितीय सूत्र तथा चतुर्थ सूत्रका आधार भी कुन्दकुन्दके ग्रन्थ हैं। कुन्दकुन्दने सम्यकदर्शनका स्वरूप बत्तलाते हुए लिखा है-
"अत्तागमतंचचाणं सद्दणादो हवेइ सम्मत्तं।।"
आप्त, आगम और तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यकदर्शन कहते हैं और तत्त्वार्थ आगममें कहे हुए पदार्थ हैं।
तत्वार्थसूत्रकारने नियमसारके उक्त सन्दर्भको स्रोत मानकर 'तत्वार्थश्रद्धानं सम्यकदर्शनम्" [१-२] सूत्र लिखा है। वस्तुतः मह सूत्र "तच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्त” का अनुवाद है। सात तत्वोंके नाम कुन्दकुन्दके 'भावपाहुड' आदि ग्रन्थों में मिलते हैं। "सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरमावाल्पबहुत्वैश्च" [१-८) सूत्रका स्रोत 'षट्खण्डागम'का निम्नलिखित सूत्र है-
"संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्तायुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि।" [१-१-७]
गृद्धपिच्छाचार्यने षटखण्डागमके इन आठ अनुयोगद्वारोंको लेकर उक्त सूत्रकी रचना की है। मति, श्रुत आदि पांच ज्ञानोंका जैसा वर्णन तत्त्वासूत्रमें आया है वह स्रोतकी दृष्टिसे षटखण्डागमके वर्गणाखण्डके अन्तर्गत कर्मप्रकृति- अनुयोगद्वारसे अधिक निकट प्रतीत होता है। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्रमें 'मत्तिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता [१/१३] को मतिज्ञानके नामान्तर कहा है। इसका स्रोत षट्खण्डागमके कर्म प्रकृति अनुयोगदारका 'सण्णा सदी मदी चिन्ता चेदि' [५-५-४१) सूत्र है। इसी प्रकार 'भवप्रत्ययोऽधिदेवनारकाणाम् [तत्त्वार्थसूत्र १/२१] का स्रोत षट्खण्डागमके कर्म प्रकृति-अनुयोगद्धारका 'ज तं भवपच्चइयं तं देव-णेरइयाणं" [५-५-५४] सुत्र है।
तत्वार्थसूत्रमें पांच जानोंको प्रमाण मानकर उनके प्रत्यक्ष ओर परोक्ष भेद किये गये हैं। इन भेदोंका स्रोत प्रवचनसारकी निम्नलिखित गाथा है-
जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख ति मणिदमत्थेसु।
जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पञ्चाक्ख।
अर्थात पदार्थविषयक जो ज्ञान परकी सहायतासे होता है, वह परोक्ष कहलाता है और जो ज्ञान केवल आत्माके द्वारा जाना जाता है वह प्रत्यक्ष कहलाता है।
द्वितीय अध्यायकै प्रारम्भमें प्रतिपादित पांच भावोंके बोधक सूत्रका स्रोत पञ्चास्तिकायकी निम्न लिखित गाथा है-
उदयेण उचसमेण य खयेण दुहि मिस्सदेहि परिणामे|
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु अत्थेसु विच्छिपणा॥
पञ्चम अध्यायमें प्रतिपादित द्रव्य, गुण, पर्याय, अस्तिकाय आदि विषयोंके स्रोत आचार्य कुन्दकुन्दके पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और नियमसारकी अनेक गाथाओंमें प्राप्य हैं। तत्त्वार्थसूत्रमें द्रव्यलक्षणका निरूपण दो प्रकारसे आया है। उसके लिए सत्की परिभाषाके पश्चात् "सदद्रव्यलक्षणम्" (५।२९) और "गुणपर्ययवद्रद्रव्यम्" (५।३८) सूत्रोंकी रचना की है। ये सभी सूत्र कुन्दकुन्दकी निम्न गाथासे सुजित हैं-
"दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्त संजुतं।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णाति सव्वण्हू।।
पंचम अध्यायमें ‘स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः', 'न जघन्यगुणाना', 'गुणसाम्ये सदृशानाम'; 'दूधिकादिगुणनां तु [५-३३,३४,३५,३६] सूत्रोंद्वारा स्निग्ध और रुक्ष गुणवाले परमाणुओंके बन्धका विधान आया है। वे सुत्र प्रवचनसारकी निम्न गाथाओंपरसे रचे गये हैं-
णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा।
समदी दुगधिगा जदि वज्झंति हि आदिपरिहीणा।
णिद्धत्तणेण दुगुणी चदुगुणणिद्वेण बंधमणुभवदि।
लुक्खेण घा तिगुणिदो अणु वज्झदि पंचगुणजुत्तो।।
दुपदेसादी खंधा सुहमा वा बादरा ससंठाणा।
पुढविजलतेउवाक रामपरिणामेहि आयते।।
अपने शक्त्यशोमें परिणमन करनेवाले परमाणु यदि स्निग्ध हों अथवा कक्ष हो, दो, चार, छह, आदि अशोंकी गणनाको अपेक्षा सम हों, अथवा तीन, पांच, सात आदि अंशोको अपेक्षा विषम हों, अपने अंशोंसे दो अधिक हो, और जघन्य अंशमे रहित हो तो परस्पर बन्धको प्राप्त होते हैं।
स्निग्ध गुणके दो अंशोंको धारण करनेवाले परमाणु चतुर्गुण स्निग्धके साथ बंधते हैं। रूक्षगुणके तीन अंशोंको धारण करनेवाला परमाणु पांचगुणयुक्त रूक्ष अंशको धारण करनेवाले परमाणुके साथ बन्धको प्राप्त होता है।
दो प्रदेशोंको आदि लेकर सख्यात, असंख्यात और अनन्तपर्यन्त प्रदेशोंको धारण करनेवाले सूक्ष्म अथवा बादर विभिन्न आकारोसे सहित तथा पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप स्कन्ध अपने-अपने स्निग्ध और रुक्ष गुणोंके परिणमनसे होते हैं।
इसी प्रकार "बन्धेऽघिको पारिणामिको" [५/३७] सुत्रका स्रोत षटखण्डागम के वर्गणाखण्डका बन्ध-विधान है।
तत्त्वार्थसूत्रके षष्ठ अध्यायमें तीर्थकरनामकर्मके बन्धमें कारणभूत सोलह कारणोंका निर्देशक सूत्र निम्न प्रकार है-
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनविचारोऽभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागसपसी साधुसमाधिवैयावृत्यकरणमहंदाचार्य-बहुश्रुतप्रवचनभक्ति रावश्यकापरिहाणिर्गिनभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य।। [६-२४]
अर्थात् १. दर्शनविशुद्धि, २. क्नियसम्पन्नता, ३. शीलव्रतोंमें अनतिचार, ४. अभीक्षणज्ञानोपयोग, ५. संवेग, ६. शक्तितः त्याग, ७. शक्तितः तप, ८. साधुसमाधि, ९. वैयावृत्यकरण, १०. अर्हदभक्ति, ११. आचार्यभक्ति, १२. बहुश्रु ततभक्ति, १३. प्रवचनभक्ति, १४. आवश्यकापरिहाणि, १५. मार्गप्रभावना और १६. प्रवचनवत्सलत्व ये सोलह भावनाएँ तीर्थकरनामकर्मके बन्धकी कारण है।
उपर्युक्त सूत्रका स्रोत ‘षटखण्डागम'के 'बंधसामित्तबिचओ' का निम्न सूत्र है- 'दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाय सोलव्वदसु निरदिचारदाए आवासएसु अपरिहोणदाए खण-लव-पंडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधातवे साहूणं पासुअपरिचालदाए साहूण समाहिसधारणाए साहूण वज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतमत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तिए गवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभियखणं अभिक्खणं णाणोवजोगजतदाए, इच्नेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं काम बघति।
दोनों सूत्रों के अध्ययनसे स्पष्ट ज्ञान होता है कि गृद्धपिन्छाचार्यन प्राकृतसूत्रका संस्कृत रूपान्सर कर दिया है।
तत्वार्थसूत्रके नवम अध्यायमें बारह अनुप्रेक्षाओंका कथन आया है। इनका स्रोत 'भगवती आराधना', 'मूलाचार' पूर्व कुन्दकन्दाचार्यको 'बारसअणुवेक्खा' है। इन तीनों ग्रन्थोंमें द्वादश अनुप्रेक्षाओंको गिनाने वाली गाथा एक ही है। तत्त्वार्थसूत्रकारने द्वादश अनुप्रेक्षाओंके क्रममें मात्र कुछ अन्तर किया है तथा प्रथमानुप्रेक्षाका नाम अनित्य रखा है, जबकि इन ग्रन्थोंमें अध्रुव है।
तत्त्वार्थसूत्रके नवम अध्यायके नवम सूत्रमें २२ परीषदोंके नाम गिनाये गए हैं। उनमें एक 'नगन्य' परिषह भा है। 'नाग्न्य'का अर्थ नंगापना है। यहाँ आचार्यने अचेलकी अपेक्षा ‘नागन्य' पदके प्रयोगको अधिक महत्व दिया है। इससे ज्ञात होता है कि सूत्रकर्ताको साधुओंकी नग्नता इष्ट थी और उन्हें उसका परीषह सहना ही चाहिए, यह भी मान्य था।
इस तरह षटुखण्डागम और कन्दकुन्द-साहित्यमें तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंके अनेक बीज वर्तमान हैं।
तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ उपलब्ध होते हैं। पहला सुत्रपाठ यह है जिसपर पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानन्दने टीकाएं लिखी है। यह पाठ दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है। दूसरा पाठ वह है, जिसपर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य पाया जाता है तथा सिद्धसेन गणि और हरिभद्रने अपनी टीकाए लिखी हैं। इस दूसरे सुत्रपाठका प्रचार श्वेताम्बर परम्परा है। इन दोनों सुत्रपाठोंमें जो अन्तर है, वह निम्न प्रकार अवगत किया जा सकता है-
दोनों पाठोंके अनुसार दशों अध्यायोंके सूत्रोंकी संख्या-
प्रथमपाठ- ३३+५३+३९+४२+४२+२७+३९+२६+४७+९ = ३५७
द्वितीयपाठ- ३५+५२+१८+५३+४४+२६+३४+२६+४९+७=३४४
दोनों पाठोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि प्रथम अध्यायमें दो सूत्रोंकी हीनाधिकता है। प्रथम पाठको अपेक्षा द्वितीय पाठमें दो सूत्र अधिक है। प्रथम सूत्र "द्विविधोऽवधिः' [१/२१]-अवघीज्ञानके दो मेद हैं| इस सूत्रमें कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है। अन्तिम दो सूत्रविचारनीय हैं- "नेगमसंग्रहव्यवहारजुसूत्रशब्दा नयाः" [१/३४] आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ' ।१।३५] ये दोनों सूत्र द्वितीय पाठमें मिलते है। प्रथम पाठमें नयके सात भेद माने गये हैं, और इन सातोंके नामोंको बतलाने वाला एकही सूत्र है। पर दूसरे पाठके अनुसार नयके मूल पाँच भेद हैं, और उनमेंसे प्रथम 'नेगमनय’ के दो भेद है और 'शब्दनय’ के साम्प्रत, समभिरूढ और एवंभूत ये तीन मेद हैं। सप्तनयकि परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों हि अगमोंमें पायी जाती है। तत्त्वार्थसूत्रमें यह जो द्वितीय मान्यता आयी है, उसका समन्वय दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओंके साथ सम्भव नहीं है। यह तो एक नयी परम्परा है, जिसका आरम्भ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसे होता है।
पन्द्रहवें सूत्र में मत्तिज्ञानका तीसरा भेद भाष्यके अनुसार 'अपाय' है और सर्वार्थसिद्धिके अनुसार ‘अवाय' है। पंडित सुखलालजी द्वारा सम्पादित 'तत्त्वार्थसूत्रमें'अपाय के स्थानपर 'अवाय पाठ ही मिलता है। नन्दिसूत्र में भी 'अवाय' पाठ है । अकलंकदेवने अपने तत्वावातिकमें दोनों पाठों में केवल शब्द भेद बतलाया है । किन्तु उभयपरम्परासम्मत प्राचीन पाठ 'अवाय' ही है, 'अपाय' नहीं । सोलहवें सूत्र 'बहुबहुविष' मादिमें प्रथम पाठमें 'अनिसृतानुक्त' पाठ है और दूसरी मान्यतामें 'अनिस्तासन्दिग्ध' पाठ है। इसी प्रकार अवधि ज्ञानके दूसरे मेदके प्रतिपादक सुत्रमें प्रथमपाठमें 'क्षयोपशमनिमित्तः' पाठ है और दूसरेमें 'ययोतनिमित्तः' पाठ है। इन दोनों पाठोंके बाशयमें कोई अन्तर नहीं है।
द्वितीय अध्यायमें प्रथमपाठके अनुसार 'तेजसमंपि' [२/४८] तथा शेषास्त्रिवेदाः राप२] ये दो सूत्र अधिक हैं। इसी तरह दूसरे सूत्रपाठमें 'उपगेगः स्पर्शादिषु' [१९] सूत्र अधिक है। शेष सूत्रोंमें समानता होते हुए भी कतिपय स्थलोंमें अन्तर पाया जाता है। प्रथम सूत्रपाठमें 'जीवभव्याभव्यत्वानि च’ [२/७] पाया जाता है, और द्वितीय सूत्रपाठमें इसके स्थानपर 'जीवभव्याभव्यत्वादोनि च' [२/७] सूत्र है। प्रथम पाठमें जिन पारिणामिक भावोंका ग्रहण 'च' शब्दसे किया है, द्वितीय पाठमें उन्हींका ग्रहण आदि पदसे किया है। अकलंकदेवने आदिपदको सदोष बतलाया है।
संसारी जीवोंके त्रस और स्थावर ये दो भेद आये हैं। स्थावरके पांच भेद हैं। इनकी मान्यता दोनों सूत्रपाठोंमें तुल्य है, पर त्रसका अर्थ भाष्यमें बताया है कि जो चलता है, वह त्रस है। इस अपेक्षासे दुसरे सूत्रपाठमें तेजसकायिक और वायुकायिकको भी त्रस कहा गया है, क्योंकि वायु और अग्नि कायमें चलनक्रिया पायी जाती है। अतएव द्वितीय अध्यायके तेरह और चौदहवें सूत्रमें अन्तर पड़ गया है। द्वितीय अध्यायके अन्य सुत्रोंमें भी कतिपय स्थलोपर अन्तर विद्यमान है।
प्रथमसूत्रपाठ | द्वितीय सूत्रपाठ |
१. एकसमयाऽविग्रहा ॥२९॥ | एकसमयोऽविग्रहः ||३०|| |
२. एकं द्धौ त्रीन्वाऽनाहारक ॥३०॥ | एक द्वौ वाऽनाहारक: ॥३१॥ |
३. जरायुथाइयोतानां गर्भः ॥३३॥ | अराखण्डपोतजानां गर्भ: ॥३४॥ |
४. देवनारकाणामुपपाद: ॥३४|| | नारकदेवानामुपपात: ॥३५॥ |
५. परं परं सूक्ष्मम् ॥३७॥ | पर परं सूक्ष्मम् ॥३८॥ |
६. औपपादिक-चरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५३॥ | औषपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥५२॥ |
इन सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तर रहनेके कारण सैद्धान्तिक दृष्टी भी मतभिन्नता है।
तृतीय अध्यायमें प्रथम पाठक अनुसार द्वितीय पाठसे २१ सूत्र अधिक है। द्वितीय पाठमें वे सूत्र नहीं हैं। तृतीय अध्यायके प्रथम सूत्रक पाठमें थोड़ा अन्तर पाया जाता है। द्वितीय पाठमें 'अघोऽघ' और 'पृथुतराः' पाठ है जबकि पहलेमें 'पृथुतराः' पाठ नहीं है। अकलंकदेवने अपने तत्वार्थवात्तिकमें इस पाठकी आलोचना की है और उसे सदोष बताया है।
चतुर्थ अध्यायमें स्वगोंके संख्या-सूचक सूत्र में अन्तर है। प्रथम पाठने अनुसार सोलह स्वर्ग गिनाये गये हैं, पर द्वितीय पाठके अनुसार बारह हो स्वर्ग परिगणित हैं। स्वर्गके देवोंमें प्रविचारको बतलाने धाले सूत्र में शेषाः स्पर्शरूप शब्दमन:प्रवीचारा' [४/८] के स्थानपर शेषाः प्रविचारा द्वयोद्वयोः' [४/९] पाठ आया है। इस द्वितीयपाठमें 'द्वयोद्धयोः पाठ अधिक है। अकलंकने इस पाठकी आलोचनाकर इसे आर्षविरुद्ध बतलाया है। प्रथम सूत्रपाठमें लौकान्तिक देवोंकी स्थितिका प्रतिपादक सूत्र आया है, पर द्वित्तीय सूत्रपाठमें वह नहीं है।
पाँचवें अध्यायमें द्वितीय सूत्रपाठमें "द्रव्याषि जीवाश्च" यह एक सूत्र है। किन्तु प्रथम सूत्रपाठमें 'द्रव्याणि' [५/२] और 'जीवाश्य' [५/३] ये दो सूत्र हैं। तत्त्वार्थवार्तिकमें अकलंकदेवने 'द्रव्याणि जीवाः'- इस प्रकारके एक सूत्रकी मीमांसा करते हुए एक ही सूत्र रखने का समर्थन किया है। इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठके 'असंख्ययाः प्रदेशाः धर्माधर्मकजीवानाम' [५/८] ये दो सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें स्वीकृत हैं। प्रथम सूत्रपाठमें 'सद् द्रव्यलक्षणम्' [५/२९] यह सुत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें यह सूत्र नहीं मिलता। इस सूत्रका आशय भाष्यकारने अवश्य स्पष्ट किया है।
इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठमें "बन्धेऽधिको पारिणामिको" [५१३६) सूत्र आया है । इसके स्थानपर द्वितीय सत्रपाठमें "बन्धे समधिको पारिणामिको" [५३६] सूत्र है । आचार्य अकलंकदेवनं 'समधिको' पाठको आलोचना करते हए उसे आर्षविरुद्ध बतलाया है और अपने पसके समर्थनमें खटखण्डागमका प्रमाण दिया है।
प्रथम सत्रपाठके "कालश्च" [५/३९] सूत्रकै स्थानपर दूसरे सूत्रपाठमें "कालाक्चेत्येके" [५।३८] सत्र आया है। इस अन्तरका कारण यह है कि दिगम्बर परम्परामें कालको द्रव्य माना गया है। पर श्वेताम्बर परम्परामें कालद्रव्यके सम्बन्धमें मतभेद है।
द्वितीय सूत्रपाठके 'अनादिरादिमांश्च' [५।४२], 'रूपिष्वादिमान् [५/४३] और 'योगोपयोगी जोवेषु' [५/४४] ये तीन सूत्र प्रथम सूत्रपाठमें नहीं है। इन सूत्रोंमें आये हुए सिद्धान्तोंकी समीक्षा अकलंकदेवने की है।
षष्ठ अध्यायमें आये हुए सूत्र दोनों ही सूत्रपाठोंमें सिद्धान्तको दृष्टिले समान हैं। पर कहीं-कहीं प्रथम सूधपाने एक ही सूत्रके दो सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें मिलते हैं । प्रथम सूत्रपाठमें "शुमः पुण्यस्याशुभः पापस्य" [६/३] सूत्र आया है। द्वितीय सूत्रपाठमें इसके "शुभः पुण्यस्य" [६/३] और "अशुमः पापस्य" [६/४] ये दो सूत्र मिलते हैं। इसी प्रकार प्रथम सत्रपाठमें "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" [६/१७] और "स्वमावमार्दवञ्च" [६/१८] ये दो सूत्र आये है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें इन दोनोंके स्थानपर "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवाजच च मानुषस्य" [६/१८] यह एक सत्र प्राप्त होता है।
इस षष्ठ अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठमें "सम्यक्त्वञ्च" [६/२१] सूत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें यह सूत्र नहीं मिलता है।
सप्तम अध्यायमें कई सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तर आया है। कुछ सूत्र ऐसे भी हैं जो प्रथम सूत्रपाठमें उपलब्ध हैं, पर द्वितीयमें नहीं। प्रथम सूत्रपाठमें व्रतोंको स्थिर करनेके लिए अहिंसादिवतोंकी पांच-पांच भावनाएँ बतलायी गयी है। इन भावनाओंका अनुचिन्तन करनेसे व्रत स्थिर रहते हैं। अतः प्रथम सूत्रपाठमें अहिंसाव्रतकी "वाडमनोगप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकित्तपानभोजनानि पञ्च" [७/४] सत्पाणुव्रत्तकी "क्रोध-लोभ-भिरुत्व-हास्यप्रत्याख्यानान्यनुवोचिभाषणञ्च पञ्च" [७/४] अचौर्यव्रतकी “शून्यागार-विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैक्ष्य-शुद्धी-सधर्माविसंवादाः पञ्च।" [७/६], ब्रह्मचर्य व्रतकी "स्त्रीरागकथाश्रवण तन्मनोहानिरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरस-स्वशरीसंस्कारस्यामाः पञ्च" [७/७] और परिग्रहत्यागव्रतके "मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषय-राग-द्वेष-वर्जनानी पञ्च" [७/८] भावनाबोधक सूत्र आये हैं। ये पांचों सुन द्वितीय सूत्रपाठमें नहीं है। किन्तु तृतीय सूत्रके भाष्यमें इनका भाव आ गया है।
अष्टम अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठमें "सकषायत्वाञ्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्ग लानादत्ते स बन्धः" [८/२] सत्र आया है। द्वितीय सुत्रपाठमें इसके दो रूप मिलते है। प्रथम सूत्रमें "सकषायवाज्जीवः कर्मणो योग्यान्दपुद्गलानादत्ते" [८/२] अंश आया है और दूसरे सूत्रमें "सबन्धः"[८/३] सूत्र आया है। इस प्रकार एक हीसूत्रके दो सूत्र रूप द्वितीय सूत्रपाठमें हो गये हैं। प्रथम सूत्रपाठमें “मति-श्रुतावधि-मनः पर्यय केवलानाम" [८/६] सूत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें इसका संक्षिप्त रूप "मत्यादोनाम" [८/७] उपलब्ध होता है| आचार्य अकलंकदेवने "मत्यादीनाम्" पाठकी समीक्षा कर प्रथम सूत्रपाठमें आये हुए सूत्रको तर्कसंगत बत्तलाया है। इसी प्रकार प्रथमसूत्रपाठके "दान-लाभ-भोगोपभोग-दोर्याणाम् [८/१३] सूत्रके स्थानपर द्वितीय सूत्रपाठमें "दानादोनाम" [८/१४] संक्षिप्त सूत्र आया है। भाष्यकारने "अन्तरायः पञ्चविधः। तद्यथा-दानस्यान्तरायः लाभस्यान्तरायः, भोगस्यान्तराय उपभोगस्यान्तरायः, वीर्यान्सराय इति" उपर्युक प्रथम सूत्रपाठमें आये हुए अन्तरायके मेदोंका नामोल्लेख किया है। पुण्यप्रकृतियोंका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रोंमें मौलिक अन्तर आया है। प्रथम सूत्रपाठमें पुष्यप्रकृतियोंकी गणना करते हुए लिखा है "सद्धेध-शुभायुनर्नाम-गोत्राणि पुण्यम्" [८/२५] और "अतोऽन्यत् पापम" [८/२६] कहार पापप्रकृसियोंकी मगना को है। द्वित्तीय सूत्रपाठमें पुण्यप्रकृतियोंका कथन करते हुए “सद्धेधसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुष वेदशुमायुनामगोत्राणि पुण्यम्" [८/२६) लिखा है। इस सूत्रके भाष्यमें "अतोऽन्यत् पापम्" कहकर पापप्रकृतियोंकी गणना की है। मूल मुनापार में पत्रकतियोंकी परिगणना करानेवाला कोई सूत्र नहीं आया है।
नवम अध्यायके अनेक सूत्रों में शाब्दिक भेद पाया जाता है। प्रथम सूत्र पाठमें "सामायिक-छेदोपस्थापना-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यातमिति चारित्रम्' [९।१८] सूत्र आया है। द्वितीय सूत्रपाठमें इस सूत्रका रूप प्रारम्भमें ज्यों-का-त्यों है, पर अन्तमें ययाख्यातानि चारित्रम' कर दिया गया है। ध्यान का स्वरूप धतलाते हुए प्रथम सुत्रपाठमें "उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधी ध्यानमान्तमुहूर्तात्" सूत्र आया है। पर द्वितीय सुत्रपाठमें इस सूत्रके दो रूप उपलब्ध होते है। प्रथम सूत्र "उत्तमसहननस्यैकाग्रचिन्ताभिरोधो ध्यानम्" [९।२७] और द्वितीय सूत्र "आ मुहूर्तात" [९/२८] प्राप्त होता है। इस प्रकार एक ही सूत्र दो सत्रों में विभक्त है। धर्मध्यानका कथन करने वाले प्रसंगमें धर्मध्यानके स्वामीको लेकर दोनों सूत्रपाठोंमें मौलिक अन्तर है। प्रथम सूत्रपाठमें धर्मध्यानके प्रतिपादक "आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्म्यंमं" [९/३६] सूत्रके अन्तमें स्वामीका विधायक 'अप्रमत्तसंयत्तस्य' अंश नहीं है। जबकि द्वितीय सूत्रपाठमें है तथा दूसरे सूत्रपाठमें इस सूत्रके बाद जो ''उपशा स्तभीणकषाययोश्च" [९/३८] सूत्र आया है वह भी प्रथम सूत्रपाठमें नहीं है |
दशम अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठका "बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्या कुत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः'' [१०/२] सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें 'वन्हत्वभावनिर्जराभ्याम् [१०।२] तथा "कुत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः" इन दो सूत्रोंके रूप में मिलता है। इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठके दशम अध्यायके तृताय-चतुर्थ सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें एक सूत्रके रूपमें संयुक्त मिलते हैं। "ओपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च" [१०/३) सूत्रके स्थानपर "औपशमिकादिभव्यत्वाभावाच्चान्यन केवलसम्यक्त्वज्ञान दर्शनसिद्धत्वेभ्यः" [१०/४] पाठ मिलता है। प्रथम सूत्रपाठके सप्तम और अष्टम सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें नहीं हैं। उनकी पूर्ति भाष्यमें की गयी है।
इस प्रकार दोनों सूत्रपाठोंका समीक्षात्मक अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि गृद्धपिन्छाचार्यके मूल सूत्रपाठमें वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखते समय मूल सूत्रपाठमें यत्किञ्चित् अन्तर कर किन्हीं सूत्रोंको छोड़ दिया और कुछ नये सूत्र जोड़ दिये हैं। तत्वार्थाधिगमभाष्यका अध्ययन करनेसे यह भी स्पष्ट होता है कि भाष्यमें जो सूत्रपाठ आये हैं उनमेसे सिद्धसेनगणीकी टीकामें अनेक पाठभेदोंका उल्लेख किया गया है। अत्त: भाष्यसम्मत सूत्रपाठसे सिद्धसेनगणि और हरिभद्रके सूत्रपाठोंमें अन्तर पाया जाता है।
तत्वार्थसूत्रके मङ्गलाचरणके विषयमें पर्याप्त विवाद रहा। कुछ विद्वानोंका मत था कि सर्वार्थसिद्धिकी उत्थानिकामें दिय गये प्रश्नोत्तरको देखते हुए तत्वार्थसूत्रकारने मङ्गलाचरण किये बिना ही तत्वार्थसूत्रकी रचना की है। 'मोक्षमार्गस्य नतारम्’ आदि मङ्गल-पद्यको जो तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण बताया जाता है वह सर्वार्थसिद्धिके आरम्भमें निबद्ध होने तथा सर्वार्थसिद्धि कारकी उसपर व्याख्या उपलब्ध न होनेसे उसीका मङ्गलाचरण है, तत्त्वार्थसूत्रका नहीं। पर इसके विपरीत दूसरे अनेक विद्वानोंका मत है कि सूत्रकारने तत्त्वार्णसूत्रके आरम्भमें मङ्गलाचरण किया है और वह 'मोक्षमार्गस्य नेतारम' आदि श्लोक उसीका मङ्गलाचरण है। सर्वार्थसिद्धी वह मूल सृत हुआ है। तत्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिन्छ परम आस्तिक थे। वे मङ्गलाचरण की प्राचीन परम्पराका उल्लंघन नहीं कर सकते। अतः 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि पद्य उन्हीं द्वारा तत्वार्थसूत्रके आरम्भमें निबद्ध मङ्गलाचरण है। टीकाकार पूज्यपाद-देवनन्दिने उसे अपनी टीका सर्वार्थसिद्धिमें अपना लिया है और इससे उसको उन्होंने व्याख्या भी नहीं की।
डॉक्टर दरबारीलाल कोठियाने 'तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण' शीर्षक दो विस्तृत निबन्धोंमें आचार्य विद्यानन्दके प्रचुर ग्रन्थोल्लेखों एवं अन्य प्रमाणों से सबलताके साथ सिद्ध किया है कि तत्त्वार्थसूत्रके आरम्भ में 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः [१/१] सूत्रसे पहले मङ्गलाचरण किया गया है और वह उक्त महत्त्वपूर्ण मङ्गलश्लोक ही है, जिसे विद्यानन्दने सूत्रकार एवं शास्त्रकार-रचित 'स्तोत्र' प्रकट करते हुए तीर्थोपम', 'प्रचित-मथुपच' और 'स्वामिमोमांसित' बतलाया है। विद्यानन्दके इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि स्वामी समन्तभद्रने इसी मङ्गलश्लोकके व्याख्यानमें अपनी महत्वपूर्ण कृति 'आप्त मीमांसा' लिखो और स्वयं विद्यानन्दने भी उसोके व्याख्यानमें आप्तपरीक्षा रची। सूत्रकार एवं शास्त्रकार पदोंसे विद्यानन्दका अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्रकारसे है, तत्वार्थवृत्तिकारसे नहीं है। सर्वार्थसिद्धिमें उसे अपना मङ्गलाचरण बना लिया गया है और इसी कारण उसकी व्याख्या भी नहीं की गयी।
अत: 'मोक्षमार्गस्प नेतारम्' आदि मङ्गल-पद्म तत्त्वार्थसूत्रका ही आचार्य गृद्धपिन्छ द्वारा रचित मङ्गलाचरण है।
गृद्धपिच्छाचार्यके तत्त्वार्थसूत्रका अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि उन्होंने 'षट्खण्डागम', 'कषायपाहुड', 'कुन्दकुन्द-साहित्य', 'भगवत्ती आराधना' 'मूलाचार' आदि ग्रन्थोंका सम्यक् परिशोलन कर इस सूत्रग्रन्थको रचना की है। द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोगका कोई भी विषय उनसे छूटने नहीं पाया है। आधुनिक विषयोंको दृष्टि से भूगोल, खगोल, आचार, अध्यात्म, द्रव्य, गुण, पर्याय, पदार्थ, सृष्टिविद्या, कर्म-विज्ञान आदि विषय भी चर्चित हैं। आगमके अन्य प्रतिपाद्य पदार्थो का भी प्रतिपादन इस सूत्रग्रन्ध में पाया जाता है। अतएव गृद्धपिन्छाचार्य श्रुतधरपरम्पराके बहुज्ञ आचार्य हैं। अनेक विषयोंको संक्षेपमें प्रस्तुत कर 'गागरमें सागर भर देनेकी कहावत उन्होंन चरितार्थ की है।
शैलीकी दृष्टि से यह अन्य वैशेषिकदर्शनके वैशेषिकसूत्रशैलीमें लिखा गया है। वैशेषिकसूत्रोंमें जहाँ अपने मन्तव्यके समर्थन हेतु तर्क प्रस्तुत किये गये हैं वहाँ तत्त्वार्थसूत्रमें भी सिद्धान्तोंके समर्थनमें तर्क दिये गये हैं।
सूत्रशैलोकी जो विशेषताएँ पहले कही जा चुकी हैं, वे सभी विशेषताएँ इस सूत्रग्रंथमें विद्यमान हैं। यह रचना इतनी सुसम्बद्ध और प्रामाणिक है कि भगवान महावीरकी द्वादशाङ्गवाणीके समान इसे महत्व प्राप्त है। गृद्धपिन्छचार्य स्वसमय और परसमयके निष्णात ज्ञाता थे। उन्होंने दार्शनिक विषयोंकी सूत्रशैलीमें बड़ी स्पष्टताके साथ प्रस्तुत किया है। संस्कृत-भाषामें सूत्रग्रन्थकी रचनाकर इन्होंने जैन परम्परामें नये युगका आरम्भ किया है। ये ऐसे श्रुतधराचार्य हैं, जिन्होंने एक ओर नवोपलब्ध दृष्टि प्राप्तकर परम्परासे प्राप्त तथ्योंको युगानुरूपमें प्रस्तुत किया है तो दूसरी ओर सांस्कृतिक और आगमिक व्यवस्थाके दायित्वका निर्वाह भी भलीभाँति किया है। फलतः इनके पश्चात् संस्कृत भाषामें भी दार्शनिक, सैद्धान्तिक और काव्यादि अन्योंका प्रणयन हुआ।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
श्रुतधराचार्यों की परंपरामें आचार्य गृद्धपिन्छ का नाम आता है। तत्वार्थसुत्रके रचयिता आचार्य गृद्धपिन्छ हैं। इनका अपरनाम उमास्वामी या उमास्वाति भी प्राप्त होता है। आचार्य वीरसेनने जीवस्थानके काल अनुयोगद्वारमें तत्वार्थसूत्र और उसके कर्ता गृद्धपिच्छाचार्यके नामोल्लेखके साथ उनके तत्त्वार्थसूत्रका एक सूत्र उद्धृत किया है-
'तह गिद्धपिछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि "वर्तनापरिणामक्रियाः पर त्वापरत्वे च कालस्य इदि दव्वकालो परुविदो।'
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि तत्वार्थसूत्रके रचयिता गृद्धपिन्छाचार्य हैं। इस नामका समर्थन आचार्य विद्यानन्दके तत्वार्थश्लोकवातिकसे भी होता है-
'एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्समुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता।'
यहाँ विद्यानन्दने भी तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम गृद्धपिच्छाचार्य बतलाया है।
तत्त्वार्थसूत्रके किसी टीकाकारने भी निम्न पद्यमें तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताका नाम गृद्धपिच्छाचार्य दिया है-
'तत्त्वार्थसूत्रकर्तार गृद्धपिच्छोपलक्षितम्।
वन्दे गणीन्द्रसंजासमुमास्वामिमुनीश्वरम्॥'
इसमें गृद्धपिच्छाचार्य नामके साथ उनका दूसरा नाम 'उमास्वामिमुनीश्वर भी बतलाया गया है। वादिराजने भी अपने पार्श्वनाथचरित्रमें गृद्धपिच्छ नामका उल्लेख किया है-
'अतुच्छगुणसम्पातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि तम्।
पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः।।'
आकाशमें उड़नेकी इच्छा करनेवाले पक्षी जिस प्रकार अपने पंखोंका सहारा लेते हैं उसी प्रकार मोक्षरूपी नगरको जानेके लिए भव्यलोग जिस मुनीश्वरका सहारा लेते हैं उस महामना अगणित गुणोंके भण्डारस्वरूप गृद्धपिच्छ नामक मुनिमहराजके लिए मेरा सविनय नमस्कार है ।
इन प्रमाणोल्लेखोंसे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छाचार्य हैं।
श्रवणबेलगोलाके एक अभिलेखमें गृद्धपिच्छ नामकी सार्थकता और कुन्दकुन्दके वंशमें उनकी उत्पत्ति बतलाते हुए उनका उमास्वाति नाम भी दिया है। यथा-
अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलात्थंवेदो।
सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजात्तं मुनिपुङ्गवेन॥
स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृदमपक्षान्।
तदा प्रभृत्येव बुघा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगद्धपिच्छम्।।
अन्य शिलालेख में भी गृद्धपिच्छाका उल्लेख प्राप्त होता है-
अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्मपिच्छः।
तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी।
आचार्य कुन्दकुन्दके पवित्र वंशमें सकलार्थक ज्ञाता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशांगवाणीको सूत्रोंमें निबद्ध किया। इन आचार्यने प्राणिरक्षाके हेतु गृद्धपिच्छोंको धारण किया। इसी कारण वे गृद्धपिच्छाचार्य के नामसे प्रसिद्ध हुए। आमलेखीय प्रमाणमें गृद्धपिच्छाचार्यको श्रुतकेवलिदेशीय भी कहा गया है। इससे उनका आगमसम्बन्धी सातिशय ज्ञान प्रकट होता है।
तत्वार्थसूत्रके रचयिता गृद्धपिच्छाचार्यका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें ४०, ४२,४३,४७ और ५० संख्यकमें भी पाया जाता है। अभिलेखसंख्या १०५ और १०८ में तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम उमास्वाति भी आया है और गृद्धपिच्छा उनका दूसरा नाम बतलाया है। यथा-
श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार।
यन्मुक्तिमार्गाचरणोधताना पाथेयमग्ध्यं भवति प्रजानां।।
तस्यैव शिष्योऽजनि गृद्धपिच्छ-द्वित्तीयसंज्ञस्य बलाकपिच्छः।
यत्सूक्तिरलानि भवन्ति लोके मुफ्त्यङ्गनामोहनमण्डनानि॥
यत्तियोंके अधिपति श्रीमान् उमास्वातिने तत्त्वार्थसूत्रको प्रकट किया, जो मोक्षमार्गके आचरणमें उद्यत मुमुक्षुजनोंके लिए उत्कृष्ट पाथेय है। उन्हींका गृद्धपिच्छ दूसरा नाम है। इन गृद्धपिच्छाचार्य के एक शिष्य बलाकपिच्छ थे, जिनके सुक्तिरत्न मुक्त्यङ्गनाके मोहन करनेके लिए आभूषणों का काम देते हैं।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्य और अभिलेखोंका अध्ययन करनेसे यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थ सूत्रके रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपरनाम उमास्वामि या उमास्वाति हैं।
कुछ विद्वानोंने तत्त्वार्थसुत्रका रचयिता कुन्दकुन्दको माना है।आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तारने इस मतकी समीक्षा की है।
तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताके सम्बन्धमें एक अन्य मत यह है कि वाचक उमास्वाति इस सूत्रग्नन्थके रचयिता हैं। पण्डित सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन) की प्रस्तावनामें वाचक उमास्वातिको तत्वार्थसुत्रका कर्ता माना है, गृद्धपिच्छ उमास्वातिको नहीं। वे कहते हैं कि गृद्धपिच्छ उमास्वाति नामके आचार्य हुए अवश्य हैं, पर उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र या तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रकी रचना नहीं की है। उन्होंने इस सूत्रग्रंथका उल्लेख 'तत्वार्थाधिगम' शास्त्रके नामसे किया है। पर यह नाम तत्त्वार्थसूत्रका न होकर उसके 'तत्त्वार्थाधिगम’ भाष्यका है।
तत्वार्थाधिगमभाष्यकी रचनाके पूर्व तत्वार्थसूत्रपर अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी थी। सर्वार्थसिद्धिका निम्न सूत्र तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमें कुछ परिवर्धन के साथ पाया जाता है, जिससे भाष्यकी सर्वार्थसिद्धिसे उत्तरकालीनता अवगत होती है-
(क) मतिश्रुतयोनिबन्धो दत्यानगोष'।
(ख) मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्याषु।
यहाँ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यमें सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठकी अपेक्षा द्रव्यपदके साथ विशेषणरूपसे 'सर्व' पद स्वीकार किया गया है। किन्तु जब वे ही भाष्यकार इस सूत्रके उत्तरार्धको १/२० के माध्यमें उद्धृत करते हैं तो उसका रूप सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ ले लेता है। यथा- 'अत्राह- मतिश्रुतयोस्तुल्यविषयत्वं वक्ष्यति "द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु’इति।
इससे ज्ञात होता है कि भाष्यके पूर्व तत्त्वार्थसूत्रपर सर्वसिद्धि-टीका लिखी जा चुकी थी और उसमें तत्त्वार्थसूत्रका एक सूत्रपात्र निर्धारित किया जा चुका था। सिद्धसेनगणी और हरिभद्गने भी तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके इस अंशको इसी रूपमें स्वीकार किया है। अब प्रश्न यह है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकारने जब उल्लिखित सूत्रके उत्तरार्धका 'सर्व द्रव्येष्वसर्वपर्यायषु' पाठ स्वीकार किया, तब उसे उद्धृत करते समय उसमेंसे 'सर्व' पद क्यों छोड़ दिया? यदि 'सर्व' पदको 'द्रव्य' पदक विशेषणके रूपमें आवश्यकता थी तो उन्होंने उद्धृत करते समय क्यों नहीं इस बातका ध्यान रखा? यह ऐसा प्रश्न है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। बहुत सम्भव है कि उन्होंने प्राचीन सूत्रपाठकी परम्पराको ध्यानमें रखकर ही प्रथम अध्यायके २०वें सूत्रके माध्यमें उसे दिया, जो सर्वार्थसिद्धिमें उपलब्ध था। इससे विदित्त होता है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखते समय वाचक उमास्वातिके समक्ष सर्वार्थसिद्धि अथवा उसमें मान्य सूत्रपाठ रहा है।
अर्थविकासकी दृष्टीसे विचार करने पर प्रतीत होगा कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकी सर्वार्थासाद्धीके बाद लिखा गया है। कालके उपकारप्रकरणमें सर्वार्थसिद्धिमें परत्व और अपरत्व ये दो ही भेद किये गये हैं, जबकि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में उसके तीन भेद उपलब्ध होते हैं। अतएव प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलालजीका यह अभिमत कि तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्वार्थाधिगमभाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं, समीचोन प्रतीत नहीं होता।
तत्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ हो जानेपर भी ऐसे अधिकतर सूत्र हैं जो दोनों परम्पराओंमें मान्य हैं और उनमें भी कुछ ऐसे सूत्र अपने मूलरूपमें उपलब्ध हैं, जिनके रचयिताको स्थितिपर प्रकाश पड़ता है। पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री ने (१) तीर्थंकरप्रकृतिके बन्धके कारणोंका प्रतिपादक सूत्र,(२)वाइस परीषहाका प्रतिपादक सूत्र, (३) केवलीजिनके ११ परिषहोंके सद्भावका प्रतिपादक सूत्र और (४) एक जीवके एक साथ परीषहसंख्याबोधक सूत्र- इन चार सूत्रोंको उपस्थित कर तत्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके रचयिताओंको भिन्न भिन्न व्यक्ति सिद्ध किया है। पण्डित फूलचन्द्रजीने 'उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये' पदके पण्डित सुखलालजी द्वारा किये गये अर्थको समीक्षा करते हुए लिखा है- 'पण्डितजी, भाष्यकार और सुत्रकार एक हो व्यक्ति है- इस पक्षमें उसका अर्थ लगानेका प्रयत्न करते हैं, किंतु इस पदका सीधा अर्थ है- उमास्वातिवाचकद्वारा बनाया हुआ सूत्रभाष्य। यहाँ "उमास्वातिवाचकोपज्ञ' पदका सम्बन्ध सूत्रसे न होकर उसके भाष्यसे है। दुसरा प्रमाण पण्डितजीने ९वें अध्यायके २२वे सूत्रकी सिद्धसेनीय टीका उपस्थित की है, किंतु यह प्रमाण भी सन्देहास्पद है, क्योंकि सिद्धसेन गणिकी टीकाको जो प्राचीन प्रतियां उपलब्ध होती हैं उनमें "स्वकृतसूत्रसन्निवेशमाश्रित्योक्तम्" पाठके स्थानमें "कृतस्तत्र सूत्रसन्निवेशमाश्रित्योक्तम्" पाठ भी उपलब्ध होता है। बहुत सम्भव है कि किसी लिपिकारने तत्वार्थसुत्रका वाचक उमास्वाति कर्तृत्व दिखलाने के अभिप्रायसे 'कुतस्तत्र' का संशोधन कर 'स्वकृत्त' पाठ बनाया हो और बादमें यह पाठ चल पड़ा हो।
अतः तत्त्वार्थ अथवा तत्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य दो पृथक्-पृथक् रचनाएँ हैं। तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धिसे पूर्ववर्ती और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उससे उत्तरवर्ती रचना है। अतएव तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके कर्ता वाचक उमास्वाति रहे होंगे। पर मूल तत्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिन्छाचार्य हैं। इस नामका उल्लेख नवीं शताब्दीके आचार्य वीरसेन और विद्यानन्द जैसे आचार्योंके साहित्यमें मिलता है। उत्तरकालमें अभिलेखों और ग्रन्थोंमें उमास्वामी और उमास्वाति इन दो नामोंसे भी इनका उल्लेख किया गया है। लगभग इसी समय श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हुए सिद्धसेन गणिके उल्लेखोंसे तत्वार्थाधिगमभाष्यका रचयिता वाचक उमास्वातिको माना गया और इन्हें ही तत्त्वार्थसूत्रका रचयिता भी बता दिया गया । पर मूल और भाष्य दोनोंका अन्तःपरीक्षण करनेपर वे दोनों पृथक-पृथक दो विभिन्नकालीन कर्तृक सिद्ध होते हैं, जैसा कि ऊपरके विवंचनसे प्रकट है।
गृद्धपिन्छाचार्य किस अत्वयमें हुए, यह विचारणीय है। नन्दिसंघकी पट्टावलि और श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंसे यह प्रमाणित होता है कि गृद्धपिन्छाचार्य कुन्दकुन्दके अन्वयमें हुए हैं। नन्दिसंघकी पट्टावलि विक्रमके राज्याभिषेकसे प्रारम्भ होती है। वह निम्न प्रकार है-
१. भद्रबाहु द्वितीय (४),
२. गुप्तिगुप्त (२६),
३. माघनन्दि (३६),
४. जिनचन्द्र (४०),
५. कुन्दकुन्दाचार्य (४९),
६. उमास्वामि (१०९),
७. लोहाचार्य (१४२),
८. यशःकीर्ती (१५३),
९. यशोनन्दि (२११),
१०. देवनन्दि (२५८),
११. जयनन्दि (३०८),
१२. गुणनन्दि (३५८),
१३. वज्रनन्दि (३६४),
१४. कुमारनन्दि (३८६),
१५. लोकचन्द (४२७),
१६. प्रभाचन्द्र (४५३),
१७. नेमिचन्द्र (४७२),
१८. भानुनन्दि (४८७),
१९. सिंहनन्दि (५०८),
२०. वसुनन्दि (५२५),
२१. वीरनन्दि (५३१),
२२. रत्ननन्दि (५६१),
२३. माणिक्यनन्दि (५८५),
२४. मेघचन्द्र (६०१),
२५. शान्तिकीर्ति (६२७),
२६. मेरुकीर्ति (६४२),।
उपर्युक्त पट्टावलिमें आया हुआ गुप्तिगुप्तका नाम अर्हद्वलिके लिये आया है। अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध है कि नन्दिसंघकी स्थापना अर्हद्वलिने की थी, और इसके प्रथम पट्टधर आचार्य माघनन्दि हुए। इस क्रमसे गृद्धपिच्छ नन्दिसंघके पट्टपर बैठनेवाले आचार्योंमें चतुर्थ आते हैं और इनका समय वीर निर्वाण सं. ५७१ सिद्ध होता है। अतएव गृद्धपिन्छके गुरुका नाम कुन्दकुन्दाचार्य होना चाहिये। श्रवणबेलगोलाके अभिलेख न. १०८ में गृद्धपिन्छ उमास्वामिका शिष्य बलाकपिच्छाचार्यको बतलाया है। अत: इनके शिष्य बलाकपिच्छ हैं।
तत्वार्थसूत्र के निर्माणमें कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंका सर्वाधिक उपयोग किया गया है| आचार्य कुन्दकुन्दने अपने पंचास्तिकाय में लिखा है-
दव्व सल्लक्खणियं उपादव्वयधुवत्तसंजुत्तं।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्ण ति सव्वण्हू।।
इस गाथाके आधारपर तत्त्वार्थसूत्रमें तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं। ये तीनों सूत्र क्रमश: गाथाके प्रथम, द्वितीय और तृतीय पाद हैं-
(१) सदद्रव्यलक्षणम्।
(२) उत्पादव्वयघ्रोव्ययुक्तं सत्।
(३) गुणपर्ययवद् द्रव्यम्।
अतएव गृद्धपिन्छने कुन्दकुन्दका शाब्दिक और वस्तुगत अनुसरण किया है। अत: आश्चर्य नहीं कि गृद्धपिन्छके गुरु कुन्दकुन्द रहे हों। श्रवणबेलगोलाके उक्त अभिलेखानुसार गृद्धपिन्छके शिष्य बलाकपिच्छ हैं। इनकी गणना नन्दिसंघके आचार्योंमें है।
यद्यपि पंडित सुखलालजीने इन्हें ही तत्वार्थाधिगमभाष्यका कर्ता मानकर उच्चैगिर शाखाका आचार्य माना है और यह शाखा कल्पसूत्रकी स्थविरावलिके अनुसार आर्यशान्तिश्रेणिकसे निकली है। आर्यशान्तिश्रेणिक आर्यसुहस्तिसे चौथी पीढ़ी में आते हैं, तथा वह शान्तिश्चेणिक आर्यवज्रके गुरु आर्यसिंहगिरिके गुरुभाई होनेसे, आर्यवज्रकी पहली पीढ़ी में आते हैं। तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकी प्रशस्तिमें वाचक उमास्वातिने अपनेको शिवश्रीनामक वाचकमुख्यका प्रशिष्य और एकादशांगवेत्ता धोषनन्दि श्रमणका दीक्षा शिष्य तथा प्रसिद्धकीर्तिवाले महावाचक श्रमण श्रीमुण्डपादका विद्या-अशिष्य बतलाया है।
पर यह गुरुशिष्य-परम्परा तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार वाचक उमास्वातिकी है, तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिन्छकी नहीं। गृद्धपिन्छ उमास्वामि कुन्दकुन्दान्वयमें हुये हैं और ये कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तराधिकारी भी हैं।
इनका समय नन्दिसंघकी पट्टावलिके अनुसार वीर- निर्वाण सम्वत् ५७१ है, जो कि वि. सं. १०१ आता है। "विद्वज्जनबोधक' में निम्नलिखित पद्य आया है-
वर्षसप्तशते चैव सप्तत्या च विस्मृतौ।
उमास्वामिमुनिर्जात कुन्दकुन्दस्तथैव चे।।
अर्थात् वीर निर्वाण संवत् ७७० में उमास्वामि मुनि हुए, तथा उसी समय कुन्दकुन्दाचार्य भी हुये। नन्दिसंघकी पट्टावलिमें बताया है कि उमास्वामी ४० वर्ष ८ महीने आचार्यपदपर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु ८४ वर्षकी थी और विक्रम संवत् १४२ में उनके पट्टपर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए। प्रो. हार्नले, डा. पीटरसन और डा. सतीशचन्द्रने इस पट्टावलिके आधारपर उमास्वारिको ईसकी प्रथम शताब्दी का माना है।
'विद्धज्जनबोधक' के अनुसार उमास्वातिका समय विक्रम सम्वत् ३०० आता है और वह पट्टावलिके समयसे १५० वर्ष पीछे पड़ता है।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें ६८३ वर्षकी श्रुतधर आचार्योंकी परम्परा दी है और इसके बाद अंगपूर्वके एकदेशधारी विनयधर, श्रीदत्त और अर्हद्दत्तका नामोल्लेखकर नन्दिसंघ आदि संघोंकी स्थापना करनेवाले अर्हद्वलिका नाम दिया है। श्रुतावतारमें इसके पश्चात् माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतलिके उल्लेख हैं। उसके बाद कुन्दकुन्दका नाम आया है। अत: आचार्य गृद्धपिच्छ कुन्दकुन्दके पश्चात् अर्थात् ६८३ वर्ष के अनन्तर हुए हैं। यदि इस अनन्तरकालको १०० वर्ष मान लिया जाये, तो वीर-निर्वाण सम्वत् ७८३ के लगभग आचार्य गृद्धपिच्छका समय होगा।
यद्यपि श्रुतधर आचार्यों की परम्परा का निर्देश धवला, आदिपुराण', नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावालि और त्रिलोकप्रज्ञात' आदिमें आया है, पर ये सभी परम्पराएँ ६८३ वर्ष तकका ही निर्देश करती हैं। इसके आगेके आचार्योंका कथन नहीं मिलता। अतएवं श्रुतावतार आदिके आधारसे गृद्धपिच्छका समय निर्णीत नहीं किया जा सकता है।
डॉ. ए. एन उपाध्येने बहुत ऊहापोहके पश्चात् कुन्कुन्दके समयका निर्णय किया है, और जिससे गृद्धपिच्छ, आचार्य कुन्दकुन्दके शिष्य प्रकट होते हैं। उपाध्येजीके मतानुसार कुन्दकुन्दका समय ई. प्रथम शताब्दीके लगभग है। अतः गृद्धपिच्छाचार्य उसके पश्चात् ही हुए हैं।
कुन्दकुन्दका समय निर्णीत हो जानेके पश्चात् आचार्य गुद्धपिच्छका समय अवगत करने में कठिनाई नहीं है। यतः पट्टावलियों और शिलालेखों में आचार्य कुन्दकुन्दके पश्चात् गृद्धपिच्छका नाम आया है। अतएव इनका समय ई. प्रथम शताब्दीका अन्तिम भाग और द्वितीय शताब्दीका पूर्वभाग घटित होता है।
निष्कर्ष यह कि पट्टावलियों, प्रशस्तियों और अभिलेखोंके अध्ययनसे गृद्धपिच्छका समय ई. सन् द्वितीय शताब्दी प्रतीत होता है।
आचार्य गृद्धपिच्छकी एकमात्र रचना 'तत्त्वार्थसूत्र' है। इस सूत्रग्रन्यका प्राचीन नाम 'तत्त्वार्थ’ रहा है। 'तत्वार्थ' की तीन टीकाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनके साथ तत्वार्थपद लगा है, पूज्यपादकी 'तत्वार्थवृत्ति', जिसका दूसरा नाम 'सर्वार्थसिद्धि' है, अकलंकका तत्वार्थवार्तक' और विद्यानन्दका तत्वार्थश्लोकवार्तिक। अतएव इस ग्रंथका प्राचीन नाम 'तत्वार्थ’ ही रहा है। सूत्रशैलीमें निबद्ध होनेसे उत्तरकालमें इसका 'तत्त्वार्थसूत्र' नाम प्रचलित हुआ। इस ग्रंथकी रचनाके हेतुका वर्णन करते हुए, तत्वार्थसूत्रके कन्नड-टीकाकार बालचंद्रने लिखा है-
"सौराष्ट्रदेशके मध्य उर्जयन्तगिरिके निकट गिरिनगर नामके पत्तनमें आसन्नभव्य स्वहितार्थी द्विजकुलोत्पन्न श्वेताम्बरभक्त सिद्धय्य नामका एक विद्वान् श्वेताम्बर शास्त्रोंका जाननेवाला था। उसने 'दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' यह सूत्र बनाकर एक पटियेपर लिख दिया था। एक दिन चर्याक लिये गृद्धपिच्छाचार्य मुनि वहाँ आये और उन्होंने उस सूत्रके पहले 'सम्यक' पद जोड़ दिया। जब वह विद्वान बाहरसे लौटा और उसने पटिये पर 'सम्यक' शब्द लगा देखा, तो वह अपनी मातासे मुनिराजके आनेका समाचार मालूम करके खोजता हुआ उनके पास पहुँचा और पूछने लगा- "आत्माका हित क्या है”। इसके बादका प्रश्नोत्तर प्राय: वही सब है, जो 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रारम्भमें आचार्य पूज्यपादने दिया है। प्रभाचन्द्राचार्यने सर्वार्थसिद्धिपर एक टिप्पण लिखा है और कहा टिप्पणमें उन पदोंकी व्याख्या की है, जो "सर्वार्थसिद्धि' में छूट गये हैं। इस टिप्पणमें प्रभाचन्द्रने प्रश्नकर्ता भव्यका नाम तो सिद्धय्य ही दिया है, किन्तु कथा नहीं दी है। उक्त कथामें कितना तथ्यांश है, यह नहीं कहा जा सकता।
श्रुतसागरसूरिने 'तत्त्वार्थवृत्ति' के प्रारम्भमें लिखा है कि किसी समय आचार्य उमास्वामि गृद्धपिच्छ आश्रममें बैठे हुए थे। उस समय द्वैपायक नामक भव्यने यहाँ आकर उनसे प्रश्न किया-भगवन् ! आत्माके लिये हितकारी क्या है? भव्यके ऐसा प्रश्न करनेपर आचार्यवर्यने मंगलपूर्वक उत्तर दिया, मोक्ष। यह सुनकर द्वैपायकने पुनः पूछा- उसका स्वरूप क्या है, और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है? उत्तरस्वरूप आचार्यवर्यने कहा कि यद्यपि प्रवादिजन इसे अन्यथा प्रकारसे मानते हैं, कोई श्रद्धानमात्रको मोक्षमार्ग मानते हैं, कोई ज्ञाननिरपेक्ष चारित्रको मोक्षमार्ग मानते हैं। परन्तु जिस प्रकार ओषधिक केवल ज्ञान, श्रद्धान या प्रयोगसे रोगकी निवृत्ति नहीं हो सकती है, उसी प्रकार केवल श्रद्धान, केवल ज्ञान या केवल चारित्रसे मोक्षको प्राप्ति नहीं हो सकती। भव्यने पूछा- तो फिर किस प्रकार उसकी प्राप्ति होती है? इसीके उत्तरस्वरूप आचार्य ने "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग" यह सत्र रचा है और इसके पश्चात् अन्य सूत्रोंकी रचना हुई है। ऐसी ही उत्थानिका प्रायः तत्त्वार्थवर्तिकमें भी आयी है। अतः उपयुक्त कथामें कुछ तथ्य तो अवश्य प्रतीत होता है।
कनड़ी टीकाके रचयिता बालचन्द्र विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके पूर्वार्द्धमें हुए है।
पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' 'तत्वार्थसूत्र' की उपलब्ध टीकाओंमें आद्य एवं प्राचीन टीका है। इसके आरम्भमें ग्रन्थ-रचनाका जो संक्षिप्त इतिवृत्त निबद्ध है उसके आधारसे स्पष्ट रूपमें कहा जा सकता है कि तत्त्वार्यसूत्रकारने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना किसी आसनभव्यके प्रश्न के उत्तरमें की है। इस भव्यका नामोल्लेख सर्वार्थसिद्धिकारने नहीं किया। उत्तवर्ती लेखकोंने किया है। उनका आधार क्या है, कुछ कहा नहीं जा सकता। वह अन्वेषणीय है। इतना स्पष्ट तथ्य है कि तत्त्वार्थसूत्र किसी आसनभव्य मुमुक्षुके हितार्थ लिखा गया है।
इस ग्रन्थमें जिनागमके मूल तत्त्वोंको बहुत ही संक्षेपमे निबद्ध किया है। इसमें कुल दश अध्याय और ३५७ सूत्र हैं। संस्कृत-भाषामें सूत्रशैलीमें लिखित यह पहला सूत्रग्रन्थ है। इसमें करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगका सार समाहित है। इसकी सबसे बड़ी महत्ता यह है कि इसमें साम्प्रदायिकता नहीं है। अतएव यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंको थोड़ेसे पाठभेदको छोड़कर समानरूपसे प्रिय है। इसकी महत्ताका सबसे बड़ा दुसरा प्रमाण यह है कि दोनों ही सम्प्रदायोंके महान् आचार्योंने इसपर टीकाएँ लिखी हैं। पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दने दार्शनिक टीकाएँ लिखकर इस ग्रंथका महत्व व्यक्त किया है। विद्यानन्दने अपनी 'आप्तपरीक्षा' में इसे बहुमूल्य रत्नोंका उत्पादक, सलिलनिधि- समुद्र कहा है-
श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राभुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य,
प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत्।
स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथिसपृथुपथं स्वामिमोमांसितं तत,
विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धथे।
प्रकृष्ट रत्नोंके उद्भवके स्थानभूत श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रकी उत्पत्ति के प्रारम्भकालमें महान मोक्षपथको प्रसिद्ध करनेवाले और तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्रको शास्त्रकार गृद्धपिन्छाचार्यने समस्त कर्ममलके भेदन करनेके अभिप्रायसे रचा है और जिसकी स्वामीने मीमांसा की है, उसी स्तोत्रका सत्यवाक्यार्थ ( यथार्थता) को सिद्धिके लिए मुझ विद्यानन्दने अपनी शक्तिके अनुसार किसी प्रकार व्याख्यान किया है।
तत्त्वार्थसूत्र जैन धर्मका सारग्रन्थ होनेसे इसके मात्र पाठ या श्रवणका फल एक उपवास बताया गया है, जो उसके महत्त्वको सूचित करता है। वर्तमानमें इस ग्रन्थको जैन परम्परामें वही स्थान प्राप्त है, जो हिन्दु धर्ममें 'भगवद्गीता' को, इस्लाममें 'कूरान' को और ईसाई धर्ममें 'बाइबिल' को प्राप्त है। इससे पूर्व प्राकृत भाषामें ही जैन ग्रंथोंकी रचना की जाती थी। इसी भाषामें भगवान महावीरकी देशना हुई थी और इसी भाषामें गोतम गणधरने अंगों और पूर्वोकी रचना की थी। पर जब देशमें संस्कृत-भाषाका महत्त्व वृद्धिंगत हुआ और विविध दर्शनोंके मन्तव्य सूत्ररूपमें निबद्ध किये जाने लगे, तो जैन परम्पराके आचार्योंका ध्यान भी उस ओर आकृष्ट हुआ और उसीके फलस्वरूप तत्वार्थसूत्र जैसे महत्त्वपूर्ण संस्कृत-सुत्रग्रन्थकी रचना हुई। इस तरह जैन वाङ्मय में संस्कृत-भाषाके सर्वप्रथम सूत्रकार गृद्धपिच्छ है और सबसे पहला संस्कृत-सूत्रग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र है।
तत्त्वार्थसूत्र धर्म एवं दर्शनका सूत्रग्रन्थ है। इसकी रचना वैशेषिक दर्शनके 'वैशेषिकसूत्र' ग्रन्थके समान हुई हैं। वैशेषिक दर्शन के प्रारम्भमें द्वव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव इन सात पदार्थोंके तत्त्वज्ञानसे मोक्ष प्राप्तिकी बात कही गयी है। अत: इस सूत्रग्रन्थमें मुख्यरूपसे उक्त सात पदार्थों का विवेचन आया है। सांख्य दर्शनमें प्रकृति और पुरुषका विचार करते हुए जगतके मुलभूत पदार्थोका ही विचार किया है। इसी प्रकार वेदान्तदर्शनमें जगतके मूलभूत तत्व ब्रह्मकी मीमांसा की गयी है। न्यायदर्शनमें प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इन सोलह पदार्थों के तत्वज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति बतलायी है। न्यायदर्शनमें अर्थपरोक्षाके साधनोंका ही कथन आया है। योगदर्शनमें जीवनमें अशुद्धता लानेवाली चित्तवृत्तियोंका और उनके निरोधका तथा तत्सम्बन्धी प्रक्रियाका प्रतिपादन आया है। इस प्रकार पूर्वोक्त दर्शनोंका विषय ज्ञेयप्रधान या ज्ञानसाधनप्रधान अथवा चारित्रप्रधान है।
पर 'तत्त्वार्थसूत्र' में ज्ञान, ज्ञय और चारित्रका समानरूपसे विवेचन आया है। इसका प्रधान कारण यह है कि जहां वैशेषिक आदि दर्शनों में केवल तत्त्वज्ञानसे 'निःश्रेयस्’ प्राप्ति बतलायी गयी है वहाँ जैनदर्शनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके समुच्चयको मोक्षका मार्ग कहा है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायके द्वितीयसूत्रमें जीव, अजीव, अस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंके सम्यक्दर्शन और छठे सूत्रमें इनके यथार्थज्ञानकी सम्यक्ज्ञान कहा है। तत्त्वार्थसूत्रकारने हेय और उपादेयरूपमें केवल इन्हीं सात तत्त्वोंको श्रद्धेय एवं अधिगम्य बतलाया है। मोक्षमार्गमें इन्हींका उपयोग है। अन्य अनन्त पदार्थोका नहीं। इससे पूर्व समयसारमें भी निश्चयनय और व्यवहारन्यसे इन्हीं सातों तत्त्वोंका निरूपण किया है।
अतएव आचार्य गृद्धपिन्छने इस तत्त्वार्थसूत्रमें दश अध्याओंकी परिकल्पना करके प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्यायमें जीवतत्त्वका, पंचम अध्यायमें अजीवतत्वका, षष्ट और सप्तम अध्यायोंमें आस्रवतत्वका, अष्टम अध्यायमें बन्धतत्त्वका, नवम अध्यायमें संवर और निर्जरातत्वोंका एवं दशम अध्यायमें मोक्षतत्वका विवेचन किया है। प्रथम अध्यायके आरम्भमें सम्यग्दर्शनका स्वरूप और उसके भेदोंकी व्याख्या करनेके पश्चात् "प्रमाणनयैरघिगमः" [१-६] सूत्रसे ज्ञान-विषयक चर्चाका प्रारम्भ होता है। प्रमाणका कथन तो सभी भारतीय दर्शनों में आया है, पर नयका विवेचन इस ग्रन्थका अपना वैशिष्टय है और यह है जैनदर्शनके अनेकान्तवादको देन। नय प्रमाणका ही भेद है। सकलग्राही ज्ञानको प्रमाण और वस्तुके एक अंशको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं।
तत्वार्थसूत्रमें ज्ञानको ही प्रमाण माना है और ज्ञानके पाँच भेद बतलाये हैं- (१) मति, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मनःपर्यय और (५) केवलज्ञान। प्रमाणके दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। उक्त ज्ञानों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो परोक्ष हैं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होती है। शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि ये आत्मासे ही उत्पन्न होते हैं- उनमें इन्द्रियादिको अपेक्षा नहीं होती। तत्वार्थसूत्रमें उक्त पाँचों ज्ञानोंका प्रतिपादन किया है। मतिज्ञानकी उत्पत्तिके साधन, उनके भेद- प्रभेद, उनकी उत्पत्तिका क्रम, श्रुतज्ञानके भेद, अवधिज्ञान और मनःपयंयज्ञानके भेद तथा उनमें पारस्परिक अन्तर, पाँचों ज्ञानोंका विषय एवं एकसाथ एक जीवमें कितने ज्ञानोंका रहना सम्भव है आदिका कथन इसमें आया है। अन्तमें मति, श्रुत और अवधिज्ञानके मिथ्या होनेके कारणका भी विवेचन कर नयोंके भेद परिगणित किये गये हैं। इस अध्याय ३३ सूत्र हैं।
द्वितीय अध्यायमें ५३ सूत्रों द्वारा जीवतत्त्वका कथन किया है। सर्वप्रथम जीवके स्वतत्त्वरूप पंच भावों और उनके भेदोंका निरूपण आया है। पश्चात् जीवके संसारी और मुक्त भेद बतलाकर संसारी जीवोंके भेद- प्रभेदोंका कथन किया गया है। जीवोंकी इन्द्रियोंके भेद-प्रभेद, उनके विषय, संसारी जीवोंमें इन्द्रियों की स्थिति, मृत्यु और जन्म के बीच की स्थिति, जन्मके भेद, उनकी योनियां, जीवोमें जन्मोंका विभाग, शरीरके भेद उनके स्वामी, एक जीवके एक साथ सम्भव हो सकनेवाले शरीर, लिंगका विभाग तथा पूरी आयु भोगकर मरण करनेवाले जीवोंका कथन किया है।
तृतीय अध्याय ३९ सूत्रोंमें निबद्ध है। इसमें अधोलोक और मध्यलोकका वर्णन माया है। अधोलोकका कथन करते हुए सात पृथिवियों तथा उनका आधार बतलाकर उनमें नरकोंकी संख्या और उन नरकोंमें बसनेवाले नारकी जीवोंको दशा एवं उनकी दीर्घ आयु आदि बतलायी गयी है। मध्यलोकके वर्णनमें द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदियों एवं क्षेत्रोंका वर्णन करनेके पश्चात् मध्य लोकमें निवास करनेवाले मनुष्य और तिर्यञ्चोंकी आयु भी बतलायी गयो है।
चतुर्थ अध्यायमें ४२ सूत्रों द्वारा ऊर्ध्वलोक या देवलोकका वर्णन किया गया है। इसमें देवोंके विविध भेदों, ज्योतिमण्डल, तथा स्वर्गलोकका वर्णन है।
दार्शनिक दृष्टिसे पंचम अध्याय महत्वपूर्ण है। यह ४२ सूत्रोंमें निबद्ध है। इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छ: द्रव्योंका वर्णन आया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशोंकी संख्या उनके द्वारा अवगाहित क्षेत्र और प्रत्येक द्रव्यका कार्य आदि बतलाये हैं। पुदगलका स्वरूप बतलाते हुए उसके भेद, उसकी उत्पत्तिके कारण, पुदगलिक बन्धकी योग्यता अयोग्यता आदि कथन है। अन्तमें सत, द्रव्य, गुण, नित्य और परिणामका स्वरूप प्रतिपादित कर कालको भी द्रव्य बतलाया है।
षष्ठ अध्याय २७ सूत्रोंमें ग्रंथित है। इस अध्यायमें आस्रवतत्वका स्वरूप उसके भेद-प्रभेद और किन-किन कार्योके करनेसे किस-किस कर्मका अस्त्रव होता है, का वर्णन आया है।
सप्तम अध्यायमें ३९ सूत्रों द्वारा व्रतका स्वरूप, उसके भेद, व्रतोंको स्थिर करनेवाली भावनाएं, हिसादि पाँच पापोंका स्वरूप सप्त शील, सल्लेखना, प्रत्येक व्रत और शीलके अतिचार, दानका स्वरूप एवं दानके फलमें तारतम्य होनेके कारणका कथन आया है।
अष्टम अध्यायमें २६ सूत्र हैं। कर्म-बन्धके मूल हेतु बतलाकर उसके स्वरूप तथा भदोंका विस्तारपूर्वक कथन करते हुए आठों कर्मोंके नाम प्रत्येक कर्मकी उत्तरप्रकृतियां, प्रत्येक कर्मके स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका स्वरूप बतलाया है।
नवम अध्यायमें ४७ सूत्रों द्वारा संवरका स्वरूप, संवरके हेतु, गुप्ति, समिति, दश धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा बाईस परीषह, चारित्र और अन्तरंग तथा बहिरंग तपके भेद बतलाये गये हैं। ध्यानका स्वरूप, काल, ध्याता, ध्यानके भेद एवं पांच प्रकारके निग्रन्थ साधुओंका वर्णन आया है।
दशम अध्याय में केवल ९ सूत्र हैं। इसमें केवलज्ञानके हेतु, मोक्षका स्वरूप, मुक्तिके पश्चात् जीवके उर्ध्वगमनका दृष्टान्सपूर्वक सयुक्तिक समर्थन तथा मुक्त जीवोंका वर्णन आया है।
इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रका वर्ण्य विषय जैनधर्मके मूलभूत समस्त सिद्धान्तोंसे सम्बद्ध है। इसे जैन सिद्धान्तकी कुंजी कहा जा सकता है।
तत्त्वार्थसूत्रके सूत्र कुन्दकुन्दके नियमसार, पंचास्तिकाय, भावपाहुड, षट्खण्डागम प्रवचनसार, आदिके आधारपर निर्मित हुए हैं। "सम्यग्दर्शनज्ञाचारित्राणि मोक्षमार्ग" [१-१] सूत्रका मूल स्रोत नियमसार है। कुन्दकुन्दने अपने नियम सारको प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि जिनशासनमें मार्ग और मार्गफलको उपादेम कहा है| मोक्षके उपायको मार्ग कहते हैं और उसका फल निर्वाण है। ज्ञान, दर्शन और चारित्रको नियम कहा जाता है तथा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका परिहार करनेके लिए उसके साथ 'सार' पद लगाया है। तस्वार्थसूत्र में भी मिथ्यादर्शनादिका परिहार करनेके लिए, दर्शनादिकके साथ सम्यक् पद लगाया है।
मग्गो मागफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं।
मागो मोक्खउवायो तस्स फलं होइ णिव्याणं।।
णियमेण य जं कज्जं तण्णियमं णाणदसणचारित्तं।
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।
तत्त्वार्थसूत्रके द्वितीय सूत्र तथा चतुर्थ सूत्रका आधार भी कुन्दकुन्दके ग्रन्थ हैं। कुन्दकुन्दने सम्यकदर्शनका स्वरूप बत्तलाते हुए लिखा है-
"अत्तागमतंचचाणं सद्दणादो हवेइ सम्मत्तं।।"
आप्त, आगम और तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यकदर्शन कहते हैं और तत्त्वार्थ आगममें कहे हुए पदार्थ हैं।
तत्वार्थसूत्रकारने नियमसारके उक्त सन्दर्भको स्रोत मानकर 'तत्वार्थश्रद्धानं सम्यकदर्शनम्" [१-२] सूत्र लिखा है। वस्तुतः मह सूत्र "तच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्त” का अनुवाद है। सात तत्वोंके नाम कुन्दकुन्दके 'भावपाहुड' आदि ग्रन्थों में मिलते हैं। "सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरमावाल्पबहुत्वैश्च" [१-८) सूत्रका स्रोत 'षट्खण्डागम'का निम्नलिखित सूत्र है-
"संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्तायुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि।" [१-१-७]
गृद्धपिच्छाचार्यने षटखण्डागमके इन आठ अनुयोगद्वारोंको लेकर उक्त सूत्रकी रचना की है। मति, श्रुत आदि पांच ज्ञानोंका जैसा वर्णन तत्त्वासूत्रमें आया है वह स्रोतकी दृष्टिसे षटखण्डागमके वर्गणाखण्डके अन्तर्गत कर्मप्रकृति- अनुयोगद्वारसे अधिक निकट प्रतीत होता है। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्रमें 'मत्तिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता [१/१३] को मतिज्ञानके नामान्तर कहा है। इसका स्रोत षट्खण्डागमके कर्म प्रकृति अनुयोगदारका 'सण्णा सदी मदी चिन्ता चेदि' [५-५-४१) सूत्र है। इसी प्रकार 'भवप्रत्ययोऽधिदेवनारकाणाम् [तत्त्वार्थसूत्र १/२१] का स्रोत षट्खण्डागमके कर्म प्रकृति-अनुयोगद्धारका 'ज तं भवपच्चइयं तं देव-णेरइयाणं" [५-५-५४] सुत्र है।
तत्वार्थसूत्रमें पांच जानोंको प्रमाण मानकर उनके प्रत्यक्ष ओर परोक्ष भेद किये गये हैं। इन भेदोंका स्रोत प्रवचनसारकी निम्नलिखित गाथा है-
जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख ति मणिदमत्थेसु।
जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पञ्चाक्ख।
अर्थात पदार्थविषयक जो ज्ञान परकी सहायतासे होता है, वह परोक्ष कहलाता है और जो ज्ञान केवल आत्माके द्वारा जाना जाता है वह प्रत्यक्ष कहलाता है।
द्वितीय अध्यायकै प्रारम्भमें प्रतिपादित पांच भावोंके बोधक सूत्रका स्रोत पञ्चास्तिकायकी निम्न लिखित गाथा है-
उदयेण उचसमेण य खयेण दुहि मिस्सदेहि परिणामे|
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु अत्थेसु विच्छिपणा॥
पञ्चम अध्यायमें प्रतिपादित द्रव्य, गुण, पर्याय, अस्तिकाय आदि विषयोंके स्रोत आचार्य कुन्दकुन्दके पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और नियमसारकी अनेक गाथाओंमें प्राप्य हैं। तत्त्वार्थसूत्रमें द्रव्यलक्षणका निरूपण दो प्रकारसे आया है। उसके लिए सत्की परिभाषाके पश्चात् "सदद्रव्यलक्षणम्" (५।२९) और "गुणपर्ययवद्रद्रव्यम्" (५।३८) सूत्रोंकी रचना की है। ये सभी सूत्र कुन्दकुन्दकी निम्न गाथासे सुजित हैं-
"दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्त संजुतं।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णाति सव्वण्हू।।
पंचम अध्यायमें ‘स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः', 'न जघन्यगुणाना', 'गुणसाम्ये सदृशानाम'; 'दूधिकादिगुणनां तु [५-३३,३४,३५,३६] सूत्रोंद्वारा स्निग्ध और रुक्ष गुणवाले परमाणुओंके बन्धका विधान आया है। वे सुत्र प्रवचनसारकी निम्न गाथाओंपरसे रचे गये हैं-
णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा।
समदी दुगधिगा जदि वज्झंति हि आदिपरिहीणा।
णिद्धत्तणेण दुगुणी चदुगुणणिद्वेण बंधमणुभवदि।
लुक्खेण घा तिगुणिदो अणु वज्झदि पंचगुणजुत्तो।।
दुपदेसादी खंधा सुहमा वा बादरा ससंठाणा।
पुढविजलतेउवाक रामपरिणामेहि आयते।।
अपने शक्त्यशोमें परिणमन करनेवाले परमाणु यदि स्निग्ध हों अथवा कक्ष हो, दो, चार, छह, आदि अशोंकी गणनाको अपेक्षा सम हों, अथवा तीन, पांच, सात आदि अंशोको अपेक्षा विषम हों, अपने अंशोंसे दो अधिक हो, और जघन्य अंशमे रहित हो तो परस्पर बन्धको प्राप्त होते हैं।
स्निग्ध गुणके दो अंशोंको धारण करनेवाले परमाणु चतुर्गुण स्निग्धके साथ बंधते हैं। रूक्षगुणके तीन अंशोंको धारण करनेवाला परमाणु पांचगुणयुक्त रूक्ष अंशको धारण करनेवाले परमाणुके साथ बन्धको प्राप्त होता है।
दो प्रदेशोंको आदि लेकर सख्यात, असंख्यात और अनन्तपर्यन्त प्रदेशोंको धारण करनेवाले सूक्ष्म अथवा बादर विभिन्न आकारोसे सहित तथा पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप स्कन्ध अपने-अपने स्निग्ध और रुक्ष गुणोंके परिणमनसे होते हैं।
इसी प्रकार "बन्धेऽघिको पारिणामिको" [५/३७] सुत्रका स्रोत षटखण्डागम के वर्गणाखण्डका बन्ध-विधान है।
तत्त्वार्थसूत्रके षष्ठ अध्यायमें तीर्थकरनामकर्मके बन्धमें कारणभूत सोलह कारणोंका निर्देशक सूत्र निम्न प्रकार है-
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनविचारोऽभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागसपसी साधुसमाधिवैयावृत्यकरणमहंदाचार्य-बहुश्रुतप्रवचनभक्ति रावश्यकापरिहाणिर्गिनभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य।। [६-२४]
अर्थात् १. दर्शनविशुद्धि, २. क्नियसम्पन्नता, ३. शीलव्रतोंमें अनतिचार, ४. अभीक्षणज्ञानोपयोग, ५. संवेग, ६. शक्तितः त्याग, ७. शक्तितः तप, ८. साधुसमाधि, ९. वैयावृत्यकरण, १०. अर्हदभक्ति, ११. आचार्यभक्ति, १२. बहुश्रु ततभक्ति, १३. प्रवचनभक्ति, १४. आवश्यकापरिहाणि, १५. मार्गप्रभावना और १६. प्रवचनवत्सलत्व ये सोलह भावनाएँ तीर्थकरनामकर्मके बन्धकी कारण है।
उपर्युक्त सूत्रका स्रोत ‘षटखण्डागम'के 'बंधसामित्तबिचओ' का निम्न सूत्र है- 'दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाय सोलव्वदसु निरदिचारदाए आवासएसु अपरिहोणदाए खण-लव-पंडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधातवे साहूणं पासुअपरिचालदाए साहूण समाहिसधारणाए साहूण वज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतमत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तिए गवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभियखणं अभिक्खणं णाणोवजोगजतदाए, इच्नेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं काम बघति।
दोनों सूत्रों के अध्ययनसे स्पष्ट ज्ञान होता है कि गृद्धपिन्छाचार्यन प्राकृतसूत्रका संस्कृत रूपान्सर कर दिया है।
तत्वार्थसूत्रके नवम अध्यायमें बारह अनुप्रेक्षाओंका कथन आया है। इनका स्रोत 'भगवती आराधना', 'मूलाचार' पूर्व कुन्दकन्दाचार्यको 'बारसअणुवेक्खा' है। इन तीनों ग्रन्थोंमें द्वादश अनुप्रेक्षाओंको गिनाने वाली गाथा एक ही है। तत्त्वार्थसूत्रकारने द्वादश अनुप्रेक्षाओंके क्रममें मात्र कुछ अन्तर किया है तथा प्रथमानुप्रेक्षाका नाम अनित्य रखा है, जबकि इन ग्रन्थोंमें अध्रुव है।
तत्त्वार्थसूत्रके नवम अध्यायके नवम सूत्रमें २२ परीषदोंके नाम गिनाये गए हैं। उनमें एक 'नगन्य' परिषह भा है। 'नाग्न्य'का अर्थ नंगापना है। यहाँ आचार्यने अचेलकी अपेक्षा ‘नागन्य' पदके प्रयोगको अधिक महत्व दिया है। इससे ज्ञात होता है कि सूत्रकर्ताको साधुओंकी नग्नता इष्ट थी और उन्हें उसका परीषह सहना ही चाहिए, यह भी मान्य था।
इस तरह षटुखण्डागम और कन्दकुन्द-साहित्यमें तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंके अनेक बीज वर्तमान हैं।
तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ उपलब्ध होते हैं। पहला सुत्रपाठ यह है जिसपर पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानन्दने टीकाएं लिखी है। यह पाठ दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है। दूसरा पाठ वह है, जिसपर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य पाया जाता है तथा सिद्धसेन गणि और हरिभद्रने अपनी टीकाए लिखी हैं। इस दूसरे सुत्रपाठका प्रचार श्वेताम्बर परम्परा है। इन दोनों सुत्रपाठोंमें जो अन्तर है, वह निम्न प्रकार अवगत किया जा सकता है-
दोनों पाठोंके अनुसार दशों अध्यायोंके सूत्रोंकी संख्या-
प्रथमपाठ- ३३+५३+३९+४२+४२+२७+३९+२६+४७+९ = ३५७
द्वितीयपाठ- ३५+५२+१८+५३+४४+२६+३४+२६+४९+७=३४४
दोनों पाठोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि प्रथम अध्यायमें दो सूत्रोंकी हीनाधिकता है। प्रथम पाठको अपेक्षा द्वितीय पाठमें दो सूत्र अधिक है। प्रथम सूत्र "द्विविधोऽवधिः' [१/२१]-अवघीज्ञानके दो मेद हैं| इस सूत्रमें कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है। अन्तिम दो सूत्रविचारनीय हैं- "नेगमसंग्रहव्यवहारजुसूत्रशब्दा नयाः" [१/३४] आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ' ।१।३५] ये दोनों सूत्र द्वितीय पाठमें मिलते है। प्रथम पाठमें नयके सात भेद माने गये हैं, और इन सातोंके नामोंको बतलाने वाला एकही सूत्र है। पर दूसरे पाठके अनुसार नयके मूल पाँच भेद हैं, और उनमेंसे प्रथम 'नेगमनय’ के दो भेद है और 'शब्दनय’ के साम्प्रत, समभिरूढ और एवंभूत ये तीन मेद हैं। सप्तनयकि परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों हि अगमोंमें पायी जाती है। तत्त्वार्थसूत्रमें यह जो द्वितीय मान्यता आयी है, उसका समन्वय दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओंके साथ सम्भव नहीं है। यह तो एक नयी परम्परा है, जिसका आरम्भ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसे होता है।
पन्द्रहवें सूत्र में मत्तिज्ञानका तीसरा भेद भाष्यके अनुसार 'अपाय' है और सर्वार्थसिद्धिके अनुसार ‘अवाय' है। पंडित सुखलालजी द्वारा सम्पादित 'तत्त्वार्थसूत्रमें'अपाय के स्थानपर 'अवाय पाठ ही मिलता है। नन्दिसूत्र में भी 'अवाय' पाठ है । अकलंकदेवने अपने तत्वावातिकमें दोनों पाठों में केवल शब्द भेद बतलाया है । किन्तु उभयपरम्परासम्मत प्राचीन पाठ 'अवाय' ही है, 'अपाय' नहीं । सोलहवें सूत्र 'बहुबहुविष' मादिमें प्रथम पाठमें 'अनिसृतानुक्त' पाठ है और दूसरी मान्यतामें 'अनिस्तासन्दिग्ध' पाठ है। इसी प्रकार अवधि ज्ञानके दूसरे मेदके प्रतिपादक सुत्रमें प्रथमपाठमें 'क्षयोपशमनिमित्तः' पाठ है और दूसरेमें 'ययोतनिमित्तः' पाठ है। इन दोनों पाठोंके बाशयमें कोई अन्तर नहीं है।
द्वितीय अध्यायमें प्रथमपाठके अनुसार 'तेजसमंपि' [२/४८] तथा शेषास्त्रिवेदाः राप२] ये दो सूत्र अधिक हैं। इसी तरह दूसरे सूत्रपाठमें 'उपगेगः स्पर्शादिषु' [१९] सूत्र अधिक है। शेष सूत्रोंमें समानता होते हुए भी कतिपय स्थलोंमें अन्तर पाया जाता है। प्रथम सूत्रपाठमें 'जीवभव्याभव्यत्वानि च’ [२/७] पाया जाता है, और द्वितीय सूत्रपाठमें इसके स्थानपर 'जीवभव्याभव्यत्वादोनि च' [२/७] सूत्र है। प्रथम पाठमें जिन पारिणामिक भावोंका ग्रहण 'च' शब्दसे किया है, द्वितीय पाठमें उन्हींका ग्रहण आदि पदसे किया है। अकलंकदेवने आदिपदको सदोष बतलाया है।
संसारी जीवोंके त्रस और स्थावर ये दो भेद आये हैं। स्थावरके पांच भेद हैं। इनकी मान्यता दोनों सूत्रपाठोंमें तुल्य है, पर त्रसका अर्थ भाष्यमें बताया है कि जो चलता है, वह त्रस है। इस अपेक्षासे दुसरे सूत्रपाठमें तेजसकायिक और वायुकायिकको भी त्रस कहा गया है, क्योंकि वायु और अग्नि कायमें चलनक्रिया पायी जाती है। अतएव द्वितीय अध्यायके तेरह और चौदहवें सूत्रमें अन्तर पड़ गया है। द्वितीय अध्यायके अन्य सुत्रोंमें भी कतिपय स्थलोपर अन्तर विद्यमान है।
प्रथमसूत्रपाठ | द्वितीय सूत्रपाठ |
१. एकसमयाऽविग्रहा ॥२९॥ | एकसमयोऽविग्रहः ||३०|| |
२. एकं द्धौ त्रीन्वाऽनाहारक ॥३०॥ | एक द्वौ वाऽनाहारक: ॥३१॥ |
३. जरायुथाइयोतानां गर्भः ॥३३॥ | अराखण्डपोतजानां गर्भ: ॥३४॥ |
४. देवनारकाणामुपपाद: ॥३४|| | नारकदेवानामुपपात: ॥३५॥ |
५. परं परं सूक्ष्मम् ॥३७॥ | पर परं सूक्ष्मम् ॥३८॥ |
६. औपपादिक-चरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५३॥ | औषपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥५२॥ |
इन सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तर रहनेके कारण सैद्धान्तिक दृष्टी भी मतभिन्नता है।
तृतीय अध्यायमें प्रथम पाठक अनुसार द्वितीय पाठसे २१ सूत्र अधिक है। द्वितीय पाठमें वे सूत्र नहीं हैं। तृतीय अध्यायके प्रथम सूत्रक पाठमें थोड़ा अन्तर पाया जाता है। द्वितीय पाठमें 'अघोऽघ' और 'पृथुतराः' पाठ है जबकि पहलेमें 'पृथुतराः' पाठ नहीं है। अकलंकदेवने अपने तत्वार्थवात्तिकमें इस पाठकी आलोचना की है और उसे सदोष बताया है।
चतुर्थ अध्यायमें स्वगोंके संख्या-सूचक सूत्र में अन्तर है। प्रथम पाठने अनुसार सोलह स्वर्ग गिनाये गये हैं, पर द्वितीय पाठके अनुसार बारह हो स्वर्ग परिगणित हैं। स्वर्गके देवोंमें प्रविचारको बतलाने धाले सूत्र में शेषाः स्पर्शरूप शब्दमन:प्रवीचारा' [४/८] के स्थानपर शेषाः प्रविचारा द्वयोद्वयोः' [४/९] पाठ आया है। इस द्वितीयपाठमें 'द्वयोद्धयोः पाठ अधिक है। अकलंकने इस पाठकी आलोचनाकर इसे आर्षविरुद्ध बतलाया है। प्रथम सूत्रपाठमें लौकान्तिक देवोंकी स्थितिका प्रतिपादक सूत्र आया है, पर द्वित्तीय सूत्रपाठमें वह नहीं है।
पाँचवें अध्यायमें द्वितीय सूत्रपाठमें "द्रव्याषि जीवाश्च" यह एक सूत्र है। किन्तु प्रथम सूत्रपाठमें 'द्रव्याणि' [५/२] और 'जीवाश्य' [५/३] ये दो सूत्र हैं। तत्त्वार्थवार्तिकमें अकलंकदेवने 'द्रव्याणि जीवाः'- इस प्रकारके एक सूत्रकी मीमांसा करते हुए एक ही सूत्र रखने का समर्थन किया है। इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठके 'असंख्ययाः प्रदेशाः धर्माधर्मकजीवानाम' [५/८] ये दो सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें स्वीकृत हैं। प्रथम सूत्रपाठमें 'सद् द्रव्यलक्षणम्' [५/२९] यह सुत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें यह सूत्र नहीं मिलता। इस सूत्रका आशय भाष्यकारने अवश्य स्पष्ट किया है।
इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठमें "बन्धेऽधिको पारिणामिको" [५१३६) सूत्र आया है । इसके स्थानपर द्वितीय सत्रपाठमें "बन्धे समधिको पारिणामिको" [५३६] सूत्र है । आचार्य अकलंकदेवनं 'समधिको' पाठको आलोचना करते हए उसे आर्षविरुद्ध बतलाया है और अपने पसके समर्थनमें खटखण्डागमका प्रमाण दिया है।
प्रथम सत्रपाठके "कालश्च" [५/३९] सूत्रकै स्थानपर दूसरे सूत्रपाठमें "कालाक्चेत्येके" [५।३८] सत्र आया है। इस अन्तरका कारण यह है कि दिगम्बर परम्परामें कालको द्रव्य माना गया है। पर श्वेताम्बर परम्परामें कालद्रव्यके सम्बन्धमें मतभेद है।
द्वितीय सूत्रपाठके 'अनादिरादिमांश्च' [५।४२], 'रूपिष्वादिमान् [५/४३] और 'योगोपयोगी जोवेषु' [५/४४] ये तीन सूत्र प्रथम सूत्रपाठमें नहीं है। इन सूत्रोंमें आये हुए सिद्धान्तोंकी समीक्षा अकलंकदेवने की है।
षष्ठ अध्यायमें आये हुए सूत्र दोनों ही सूत्रपाठोंमें सिद्धान्तको दृष्टिले समान हैं। पर कहीं-कहीं प्रथम सूधपाने एक ही सूत्रके दो सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें मिलते हैं । प्रथम सूत्रपाठमें "शुमः पुण्यस्याशुभः पापस्य" [६/३] सूत्र आया है। द्वितीय सूत्रपाठमें इसके "शुभः पुण्यस्य" [६/३] और "अशुमः पापस्य" [६/४] ये दो सूत्र मिलते हैं। इसी प्रकार प्रथम सत्रपाठमें "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" [६/१७] और "स्वमावमार्दवञ्च" [६/१८] ये दो सूत्र आये है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें इन दोनोंके स्थानपर "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवाजच च मानुषस्य" [६/१८] यह एक सत्र प्राप्त होता है।
इस षष्ठ अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठमें "सम्यक्त्वञ्च" [६/२१] सूत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें यह सूत्र नहीं मिलता है।
सप्तम अध्यायमें कई सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तर आया है। कुछ सूत्र ऐसे भी हैं जो प्रथम सूत्रपाठमें उपलब्ध हैं, पर द्वितीयमें नहीं। प्रथम सूत्रपाठमें व्रतोंको स्थिर करनेके लिए अहिंसादिवतोंकी पांच-पांच भावनाएँ बतलायी गयी है। इन भावनाओंका अनुचिन्तन करनेसे व्रत स्थिर रहते हैं। अतः प्रथम सूत्रपाठमें अहिंसाव्रतकी "वाडमनोगप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकित्तपानभोजनानि पञ्च" [७/४] सत्पाणुव्रत्तकी "क्रोध-लोभ-भिरुत्व-हास्यप्रत्याख्यानान्यनुवोचिभाषणञ्च पञ्च" [७/४] अचौर्यव्रतकी “शून्यागार-विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैक्ष्य-शुद्धी-सधर्माविसंवादाः पञ्च।" [७/६], ब्रह्मचर्य व्रतकी "स्त्रीरागकथाश्रवण तन्मनोहानिरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरस-स्वशरीसंस्कारस्यामाः पञ्च" [७/७] और परिग्रहत्यागव्रतके "मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषय-राग-द्वेष-वर्जनानी पञ्च" [७/८] भावनाबोधक सूत्र आये हैं। ये पांचों सुन द्वितीय सूत्रपाठमें नहीं है। किन्तु तृतीय सूत्रके भाष्यमें इनका भाव आ गया है।
अष्टम अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठमें "सकषायत्वाञ्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्ग लानादत्ते स बन्धः" [८/२] सत्र आया है। द्वितीय सुत्रपाठमें इसके दो रूप मिलते है। प्रथम सूत्रमें "सकषायवाज्जीवः कर्मणो योग्यान्दपुद्गलानादत्ते" [८/२] अंश आया है और दूसरे सूत्रमें "सबन्धः"[८/३] सूत्र आया है। इस प्रकार एक हीसूत्रके दो सूत्र रूप द्वितीय सूत्रपाठमें हो गये हैं। प्रथम सूत्रपाठमें “मति-श्रुतावधि-मनः पर्यय केवलानाम" [८/६] सूत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें इसका संक्षिप्त रूप "मत्यादोनाम" [८/७] उपलब्ध होता है| आचार्य अकलंकदेवने "मत्यादीनाम्" पाठकी समीक्षा कर प्रथम सूत्रपाठमें आये हुए सूत्रको तर्कसंगत बत्तलाया है। इसी प्रकार प्रथमसूत्रपाठके "दान-लाभ-भोगोपभोग-दोर्याणाम् [८/१३] सूत्रके स्थानपर द्वितीय सूत्रपाठमें "दानादोनाम" [८/१४] संक्षिप्त सूत्र आया है। भाष्यकारने "अन्तरायः पञ्चविधः। तद्यथा-दानस्यान्तरायः लाभस्यान्तरायः, भोगस्यान्तराय उपभोगस्यान्तरायः, वीर्यान्सराय इति" उपर्युक प्रथम सूत्रपाठमें आये हुए अन्तरायके मेदोंका नामोल्लेख किया है। पुण्यप्रकृतियोंका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रोंमें मौलिक अन्तर आया है। प्रथम सूत्रपाठमें पुष्यप्रकृतियोंकी गणना करते हुए लिखा है "सद्धेध-शुभायुनर्नाम-गोत्राणि पुण्यम्" [८/२५] और "अतोऽन्यत् पापम" [८/२६] कहार पापप्रकृसियोंकी मगना को है। द्वित्तीय सूत्रपाठमें पुण्यप्रकृतियोंका कथन करते हुए “सद्धेधसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुष वेदशुमायुनामगोत्राणि पुण्यम्" [८/२६) लिखा है। इस सूत्रके भाष्यमें "अतोऽन्यत् पापम्" कहकर पापप्रकृतियोंकी गणना की है। मूल मुनापार में पत्रकतियोंकी परिगणना करानेवाला कोई सूत्र नहीं आया है।
नवम अध्यायके अनेक सूत्रों में शाब्दिक भेद पाया जाता है। प्रथम सूत्र पाठमें "सामायिक-छेदोपस्थापना-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यातमिति चारित्रम्' [९।१८] सूत्र आया है। द्वितीय सूत्रपाठमें इस सूत्रका रूप प्रारम्भमें ज्यों-का-त्यों है, पर अन्तमें ययाख्यातानि चारित्रम' कर दिया गया है। ध्यान का स्वरूप धतलाते हुए प्रथम सुत्रपाठमें "उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधी ध्यानमान्तमुहूर्तात्" सूत्र आया है। पर द्वितीय सुत्रपाठमें इस सूत्रके दो रूप उपलब्ध होते है। प्रथम सूत्र "उत्तमसहननस्यैकाग्रचिन्ताभिरोधो ध्यानम्" [९।२७] और द्वितीय सूत्र "आ मुहूर्तात" [९/२८] प्राप्त होता है। इस प्रकार एक ही सूत्र दो सत्रों में विभक्त है। धर्मध्यानका कथन करने वाले प्रसंगमें धर्मध्यानके स्वामीको लेकर दोनों सूत्रपाठोंमें मौलिक अन्तर है। प्रथम सूत्रपाठमें धर्मध्यानके प्रतिपादक "आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्म्यंमं" [९/३६] सूत्रके अन्तमें स्वामीका विधायक 'अप्रमत्तसंयत्तस्य' अंश नहीं है। जबकि द्वितीय सूत्रपाठमें है तथा दूसरे सूत्रपाठमें इस सूत्रके बाद जो ''उपशा स्तभीणकषाययोश्च" [९/३८] सूत्र आया है वह भी प्रथम सूत्रपाठमें नहीं है |
दशम अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठका "बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्या कुत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः'' [१०/२] सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें 'वन्हत्वभावनिर्जराभ्याम् [१०।२] तथा "कुत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः" इन दो सूत्रोंके रूप में मिलता है। इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठके दशम अध्यायके तृताय-चतुर्थ सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें एक सूत्रके रूपमें संयुक्त मिलते हैं। "ओपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च" [१०/३) सूत्रके स्थानपर "औपशमिकादिभव्यत्वाभावाच्चान्यन केवलसम्यक्त्वज्ञान दर्शनसिद्धत्वेभ्यः" [१०/४] पाठ मिलता है। प्रथम सूत्रपाठके सप्तम और अष्टम सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें नहीं हैं। उनकी पूर्ति भाष्यमें की गयी है।
इस प्रकार दोनों सूत्रपाठोंका समीक्षात्मक अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि गृद्धपिन्छाचार्यके मूल सूत्रपाठमें वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखते समय मूल सूत्रपाठमें यत्किञ्चित् अन्तर कर किन्हीं सूत्रोंको छोड़ दिया और कुछ नये सूत्र जोड़ दिये हैं। तत्वार्थाधिगमभाष्यका अध्ययन करनेसे यह भी स्पष्ट होता है कि भाष्यमें जो सूत्रपाठ आये हैं उनमेसे सिद्धसेनगणीकी टीकामें अनेक पाठभेदोंका उल्लेख किया गया है। अत्त: भाष्यसम्मत सूत्रपाठसे सिद्धसेनगणि और हरिभद्रके सूत्रपाठोंमें अन्तर पाया जाता है।
तत्वार्थसूत्रके मङ्गलाचरणके विषयमें पर्याप्त विवाद रहा। कुछ विद्वानोंका मत था कि सर्वार्थसिद्धिकी उत्थानिकामें दिय गये प्रश्नोत्तरको देखते हुए तत्वार्थसूत्रकारने मङ्गलाचरण किये बिना ही तत्वार्थसूत्रकी रचना की है। 'मोक्षमार्गस्य नतारम्’ आदि मङ्गल-पद्यको जो तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण बताया जाता है वह सर्वार्थसिद्धिके आरम्भमें निबद्ध होने तथा सर्वार्थसिद्धि कारकी उसपर व्याख्या उपलब्ध न होनेसे उसीका मङ्गलाचरण है, तत्त्वार्थसूत्रका नहीं। पर इसके विपरीत दूसरे अनेक विद्वानोंका मत है कि सूत्रकारने तत्त्वार्णसूत्रके आरम्भमें मङ्गलाचरण किया है और वह 'मोक्षमार्गस्य नेतारम' आदि श्लोक उसीका मङ्गलाचरण है। सर्वार्थसिद्धी वह मूल सृत हुआ है। तत्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिन्छ परम आस्तिक थे। वे मङ्गलाचरण की प्राचीन परम्पराका उल्लंघन नहीं कर सकते। अतः 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि पद्य उन्हीं द्वारा तत्वार्थसूत्रके आरम्भमें निबद्ध मङ्गलाचरण है। टीकाकार पूज्यपाद-देवनन्दिने उसे अपनी टीका सर्वार्थसिद्धिमें अपना लिया है और इससे उसको उन्होंने व्याख्या भी नहीं की।
डॉक्टर दरबारीलाल कोठियाने 'तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण' शीर्षक दो विस्तृत निबन्धोंमें आचार्य विद्यानन्दके प्रचुर ग्रन्थोल्लेखों एवं अन्य प्रमाणों से सबलताके साथ सिद्ध किया है कि तत्त्वार्थसूत्रके आरम्भ में 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः [१/१] सूत्रसे पहले मङ्गलाचरण किया गया है और वह उक्त महत्त्वपूर्ण मङ्गलश्लोक ही है, जिसे विद्यानन्दने सूत्रकार एवं शास्त्रकार-रचित 'स्तोत्र' प्रकट करते हुए तीर्थोपम', 'प्रचित-मथुपच' और 'स्वामिमोमांसित' बतलाया है। विद्यानन्दके इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि स्वामी समन्तभद्रने इसी मङ्गलश्लोकके व्याख्यानमें अपनी महत्वपूर्ण कृति 'आप्त मीमांसा' लिखो और स्वयं विद्यानन्दने भी उसोके व्याख्यानमें आप्तपरीक्षा रची। सूत्रकार एवं शास्त्रकार पदोंसे विद्यानन्दका अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्रकारसे है, तत्वार्थवृत्तिकारसे नहीं है। सर्वार्थसिद्धिमें उसे अपना मङ्गलाचरण बना लिया गया है और इसी कारण उसकी व्याख्या भी नहीं की गयी।
अत: 'मोक्षमार्गस्प नेतारम्' आदि मङ्गल-पद्म तत्त्वार्थसूत्रका ही आचार्य गृद्धपिन्छ द्वारा रचित मङ्गलाचरण है।
गृद्धपिच्छाचार्यके तत्त्वार्थसूत्रका अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि उन्होंने 'षट्खण्डागम', 'कषायपाहुड', 'कुन्दकुन्द-साहित्य', 'भगवत्ती आराधना' 'मूलाचार' आदि ग्रन्थोंका सम्यक् परिशोलन कर इस सूत्रग्रन्थको रचना की है। द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोगका कोई भी विषय उनसे छूटने नहीं पाया है। आधुनिक विषयोंको दृष्टि से भूगोल, खगोल, आचार, अध्यात्म, द्रव्य, गुण, पर्याय, पदार्थ, सृष्टिविद्या, कर्म-विज्ञान आदि विषय भी चर्चित हैं। आगमके अन्य प्रतिपाद्य पदार्थो का भी प्रतिपादन इस सूत्रग्रन्ध में पाया जाता है। अतएव गृद्धपिन्छाचार्य श्रुतधरपरम्पराके बहुज्ञ आचार्य हैं। अनेक विषयोंको संक्षेपमें प्रस्तुत कर 'गागरमें सागर भर देनेकी कहावत उन्होंन चरितार्थ की है।
शैलीकी दृष्टि से यह अन्य वैशेषिकदर्शनके वैशेषिकसूत्रशैलीमें लिखा गया है। वैशेषिकसूत्रोंमें जहाँ अपने मन्तव्यके समर्थन हेतु तर्क प्रस्तुत किये गये हैं वहाँ तत्त्वार्थसूत्रमें भी सिद्धान्तोंके समर्थनमें तर्क दिये गये हैं।
सूत्रशैलोकी जो विशेषताएँ पहले कही जा चुकी हैं, वे सभी विशेषताएँ इस सूत्रग्रंथमें विद्यमान हैं। यह रचना इतनी सुसम्बद्ध और प्रामाणिक है कि भगवान महावीरकी द्वादशाङ्गवाणीके समान इसे महत्व प्राप्त है। गृद्धपिन्छचार्य स्वसमय और परसमयके निष्णात ज्ञाता थे। उन्होंने दार्शनिक विषयोंकी सूत्रशैलीमें बड़ी स्पष्टताके साथ प्रस्तुत किया है। संस्कृत-भाषामें सूत्रग्रन्थकी रचनाकर इन्होंने जैन परम्परामें नये युगका आरम्भ किया है। ये ऐसे श्रुतधराचार्य हैं, जिन्होंने एक ओर नवोपलब्ध दृष्टि प्राप्तकर परम्परासे प्राप्त तथ्योंको युगानुरूपमें प्रस्तुत किया है तो दूसरी ओर सांस्कृतिक और आगमिक व्यवस्थाके दायित्वका निर्वाह भी भलीभाँति किया है। फलतः इनके पश्चात् संस्कृत भाषामें भी दार्शनिक, सैद्धान्तिक और काव्यादि अन्योंका प्रणयन हुआ।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#grudhpichacharyajimaharaj
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री गृधपिचाचार्य महाराजजी (प्राचीन- द्वितीय शताब्दी)
श्रुतधराचार्यों की परंपरामें आचार्य गृद्धपिन्छ का नाम आता है। तत्वार्थसुत्रके रचयिता आचार्य गृद्धपिन्छ हैं। इनका अपरनाम उमास्वामी या उमास्वाति भी प्राप्त होता है। आचार्य वीरसेनने जीवस्थानके काल अनुयोगद्वारमें तत्वार्थसूत्र और उसके कर्ता गृद्धपिच्छाचार्यके नामोल्लेखके साथ उनके तत्त्वार्थसूत्रका एक सूत्र उद्धृत किया है-
'तह गिद्धपिछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि "वर्तनापरिणामक्रियाः पर त्वापरत्वे च कालस्य इदि दव्वकालो परुविदो।'
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि तत्वार्थसूत्रके रचयिता गृद्धपिन्छाचार्य हैं। इस नामका समर्थन आचार्य विद्यानन्दके तत्वार्थश्लोकवातिकसे भी होता है-
'एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्समुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता।'
यहाँ विद्यानन्दने भी तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम गृद्धपिच्छाचार्य बतलाया है।
तत्त्वार्थसूत्रके किसी टीकाकारने भी निम्न पद्यमें तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताका नाम गृद्धपिच्छाचार्य दिया है-
'तत्त्वार्थसूत्रकर्तार गृद्धपिच्छोपलक्षितम्।
वन्दे गणीन्द्रसंजासमुमास्वामिमुनीश्वरम्॥'
इसमें गृद्धपिच्छाचार्य नामके साथ उनका दूसरा नाम 'उमास्वामिमुनीश्वर भी बतलाया गया है। वादिराजने भी अपने पार्श्वनाथचरित्रमें गृद्धपिच्छ नामका उल्लेख किया है-
'अतुच्छगुणसम्पातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मि तम्।
पक्षीकुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः।।'
आकाशमें उड़नेकी इच्छा करनेवाले पक्षी जिस प्रकार अपने पंखोंका सहारा लेते हैं उसी प्रकार मोक्षरूपी नगरको जानेके लिए भव्यलोग जिस मुनीश्वरका सहारा लेते हैं उस महामना अगणित गुणोंके भण्डारस्वरूप गृद्धपिच्छ नामक मुनिमहराजके लिए मेरा सविनय नमस्कार है ।
इन प्रमाणोल्लेखोंसे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिच्छाचार्य हैं।
श्रवणबेलगोलाके एक अभिलेखमें गृद्धपिच्छ नामकी सार्थकता और कुन्दकुन्दके वंशमें उनकी उत्पत्ति बतलाते हुए उनका उमास्वाति नाम भी दिया है। यथा-
अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलात्थंवेदो।
सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजात्तं मुनिपुङ्गवेन॥
स प्राणिसंरक्षणसावधानो बभार योगी किल गृदमपक्षान्।
तदा प्रभृत्येव बुघा यमाहुराचार्यशब्दोत्तरगद्धपिच्छम्।।
अन्य शिलालेख में भी गृद्धपिच्छाका उल्लेख प्राप्त होता है-
अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्मपिच्छः।
तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी।
आचार्य कुन्दकुन्दके पवित्र वंशमें सकलार्थक ज्ञाता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशांगवाणीको सूत्रोंमें निबद्ध किया। इन आचार्यने प्राणिरक्षाके हेतु गृद्धपिच्छोंको धारण किया। इसी कारण वे गृद्धपिच्छाचार्य के नामसे प्रसिद्ध हुए। आमलेखीय प्रमाणमें गृद्धपिच्छाचार्यको श्रुतकेवलिदेशीय भी कहा गया है। इससे उनका आगमसम्बन्धी सातिशय ज्ञान प्रकट होता है।
तत्वार्थसूत्रके रचयिता गृद्धपिच्छाचार्यका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें ४०, ४२,४३,४७ और ५० संख्यकमें भी पाया जाता है। अभिलेखसंख्या १०५ और १०८ में तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम उमास्वाति भी आया है और गृद्धपिच्छा उनका दूसरा नाम बतलाया है। यथा-
श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार।
यन्मुक्तिमार्गाचरणोधताना पाथेयमग्ध्यं भवति प्रजानां।।
तस्यैव शिष्योऽजनि गृद्धपिच्छ-द्वित्तीयसंज्ञस्य बलाकपिच्छः।
यत्सूक्तिरलानि भवन्ति लोके मुफ्त्यङ्गनामोहनमण्डनानि॥
यत्तियोंके अधिपति श्रीमान् उमास्वातिने तत्त्वार्थसूत्रको प्रकट किया, जो मोक्षमार्गके आचरणमें उद्यत मुमुक्षुजनोंके लिए उत्कृष्ट पाथेय है। उन्हींका गृद्धपिच्छ दूसरा नाम है। इन गृद्धपिच्छाचार्य के एक शिष्य बलाकपिच्छ थे, जिनके सुक्तिरत्न मुक्त्यङ्गनाके मोहन करनेके लिए आभूषणों का काम देते हैं।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्य और अभिलेखोंका अध्ययन करनेसे यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थ सूत्रके रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपरनाम उमास्वामि या उमास्वाति हैं।
कुछ विद्वानोंने तत्त्वार्थसुत्रका रचयिता कुन्दकुन्दको माना है।आचार्य श्री जुगलकिशोर मुख्तारने इस मतकी समीक्षा की है।
तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताके सम्बन्धमें एक अन्य मत यह है कि वाचक उमास्वाति इस सूत्रग्नन्थके रचयिता हैं। पण्डित सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन) की प्रस्तावनामें वाचक उमास्वातिको तत्वार्थसुत्रका कर्ता माना है, गृद्धपिच्छ उमास्वातिको नहीं। वे कहते हैं कि गृद्धपिच्छ उमास्वाति नामके आचार्य हुए अवश्य हैं, पर उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र या तत्त्वार्थाधिगम शास्त्रकी रचना नहीं की है। उन्होंने इस सूत्रग्रंथका उल्लेख 'तत्वार्थाधिगम' शास्त्रके नामसे किया है। पर यह नाम तत्त्वार्थसूत्रका न होकर उसके 'तत्त्वार्थाधिगम’ भाष्यका है।
तत्वार्थाधिगमभाष्यकी रचनाके पूर्व तत्वार्थसूत्रपर अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी थी। सर्वार्थसिद्धिका निम्न सूत्र तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमें कुछ परिवर्धन के साथ पाया जाता है, जिससे भाष्यकी सर्वार्थसिद्धिसे उत्तरकालीनता अवगत होती है-
(क) मतिश्रुतयोनिबन्धो दत्यानगोष'।
(ख) मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्याषु।
यहाँ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यमें सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठकी अपेक्षा द्रव्यपदके साथ विशेषणरूपसे 'सर्व' पद स्वीकार किया गया है। किन्तु जब वे ही भाष्यकार इस सूत्रके उत्तरार्धको १/२० के माध्यमें उद्धृत करते हैं तो उसका रूप सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ ले लेता है। यथा- 'अत्राह- मतिश्रुतयोस्तुल्यविषयत्वं वक्ष्यति "द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु’इति।
इससे ज्ञात होता है कि भाष्यके पूर्व तत्त्वार्थसूत्रपर सर्वसिद्धि-टीका लिखी जा चुकी थी और उसमें तत्त्वार्थसूत्रका एक सूत्रपात्र निर्धारित किया जा चुका था। सिद्धसेनगणी और हरिभद्गने भी तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके इस अंशको इसी रूपमें स्वीकार किया है। अब प्रश्न यह है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकारने जब उल्लिखित सूत्रके उत्तरार्धका 'सर्व द्रव्येष्वसर्वपर्यायषु' पाठ स्वीकार किया, तब उसे उद्धृत करते समय उसमेंसे 'सर्व' पद क्यों छोड़ दिया? यदि 'सर्व' पदको 'द्रव्य' पदक विशेषणके रूपमें आवश्यकता थी तो उन्होंने उद्धृत करते समय क्यों नहीं इस बातका ध्यान रखा? यह ऐसा प्रश्न है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। बहुत सम्भव है कि उन्होंने प्राचीन सूत्रपाठकी परम्पराको ध्यानमें रखकर ही प्रथम अध्यायके २०वें सूत्रके माध्यमें उसे दिया, जो सर्वार्थसिद्धिमें उपलब्ध था। इससे विदित्त होता है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखते समय वाचक उमास्वातिके समक्ष सर्वार्थसिद्धि अथवा उसमें मान्य सूत्रपाठ रहा है।
अर्थविकासकी दृष्टीसे विचार करने पर प्रतीत होगा कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकी सर्वार्थासाद्धीके बाद लिखा गया है। कालके उपकारप्रकरणमें सर्वार्थसिद्धिमें परत्व और अपरत्व ये दो ही भेद किये गये हैं, जबकि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में उसके तीन भेद उपलब्ध होते हैं। अतएव प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलालजीका यह अभिमत कि तत्त्वार्थसूत्रकार और तत्वार्थाधिगमभाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं, समीचोन प्रतीत नहीं होता।
तत्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ हो जानेपर भी ऐसे अधिकतर सूत्र हैं जो दोनों परम्पराओंमें मान्य हैं और उनमें भी कुछ ऐसे सूत्र अपने मूलरूपमें उपलब्ध हैं, जिनके रचयिताको स्थितिपर प्रकाश पड़ता है। पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री ने (१) तीर्थंकरप्रकृतिके बन्धके कारणोंका प्रतिपादक सूत्र,(२)वाइस परीषहाका प्रतिपादक सूत्र, (३) केवलीजिनके ११ परिषहोंके सद्भावका प्रतिपादक सूत्र और (४) एक जीवके एक साथ परीषहसंख्याबोधक सूत्र- इन चार सूत्रोंको उपस्थित कर तत्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके रचयिताओंको भिन्न भिन्न व्यक्ति सिद्ध किया है। पण्डित फूलचन्द्रजीने 'उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये' पदके पण्डित सुखलालजी द्वारा किये गये अर्थको समीक्षा करते हुए लिखा है- 'पण्डितजी, भाष्यकार और सुत्रकार एक हो व्यक्ति है- इस पक्षमें उसका अर्थ लगानेका प्रयत्न करते हैं, किंतु इस पदका सीधा अर्थ है- उमास्वातिवाचकद्वारा बनाया हुआ सूत्रभाष्य। यहाँ "उमास्वातिवाचकोपज्ञ' पदका सम्बन्ध सूत्रसे न होकर उसके भाष्यसे है। दुसरा प्रमाण पण्डितजीने ९वें अध्यायके २२वे सूत्रकी सिद्धसेनीय टीका उपस्थित की है, किंतु यह प्रमाण भी सन्देहास्पद है, क्योंकि सिद्धसेन गणिकी टीकाको जो प्राचीन प्रतियां उपलब्ध होती हैं उनमें "स्वकृतसूत्रसन्निवेशमाश्रित्योक्तम्" पाठके स्थानमें "कृतस्तत्र सूत्रसन्निवेशमाश्रित्योक्तम्" पाठ भी उपलब्ध होता है। बहुत सम्भव है कि किसी लिपिकारने तत्वार्थसुत्रका वाचक उमास्वाति कर्तृत्व दिखलाने के अभिप्रायसे 'कुतस्तत्र' का संशोधन कर 'स्वकृत्त' पाठ बनाया हो और बादमें यह पाठ चल पड़ा हो।
अतः तत्त्वार्थ अथवा तत्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य दो पृथक्-पृथक् रचनाएँ हैं। तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धिसे पूर्ववर्ती और तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उससे उत्तरवर्ती रचना है। अतएव तत्त्वार्थाधिगमभाष्यके कर्ता वाचक उमास्वाति रहे होंगे। पर मूल तत्वार्थसूत्रके कर्ता गृद्धपिन्छाचार्य हैं। इस नामका उल्लेख नवीं शताब्दीके आचार्य वीरसेन और विद्यानन्द जैसे आचार्योंके साहित्यमें मिलता है। उत्तरकालमें अभिलेखों और ग्रन्थोंमें उमास्वामी और उमास्वाति इन दो नामोंसे भी इनका उल्लेख किया गया है। लगभग इसी समय श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हुए सिद्धसेन गणिके उल्लेखोंसे तत्वार्थाधिगमभाष्यका रचयिता वाचक उमास्वातिको माना गया और इन्हें ही तत्त्वार्थसूत्रका रचयिता भी बता दिया गया । पर मूल और भाष्य दोनोंका अन्तःपरीक्षण करनेपर वे दोनों पृथक-पृथक दो विभिन्नकालीन कर्तृक सिद्ध होते हैं, जैसा कि ऊपरके विवंचनसे प्रकट है।
गृद्धपिन्छाचार्य किस अत्वयमें हुए, यह विचारणीय है। नन्दिसंघकी पट्टावलि और श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंसे यह प्रमाणित होता है कि गृद्धपिन्छाचार्य कुन्दकुन्दके अन्वयमें हुए हैं। नन्दिसंघकी पट्टावलि विक्रमके राज्याभिषेकसे प्रारम्भ होती है। वह निम्न प्रकार है-
१. भद्रबाहु द्वितीय (४),
२. गुप्तिगुप्त (२६),
३. माघनन्दि (३६),
४. जिनचन्द्र (४०),
५. कुन्दकुन्दाचार्य (४९),
६. उमास्वामि (१०९),
७. लोहाचार्य (१४२),
८. यशःकीर्ती (१५३),
९. यशोनन्दि (२११),
१०. देवनन्दि (२५८),
११. जयनन्दि (३०८),
१२. गुणनन्दि (३५८),
१३. वज्रनन्दि (३६४),
१४. कुमारनन्दि (३८६),
१५. लोकचन्द (४२७),
१६. प्रभाचन्द्र (४५३),
१७. नेमिचन्द्र (४७२),
१८. भानुनन्दि (४८७),
१९. सिंहनन्दि (५०८),
२०. वसुनन्दि (५२५),
२१. वीरनन्दि (५३१),
२२. रत्ननन्दि (५६१),
२३. माणिक्यनन्दि (५८५),
२४. मेघचन्द्र (६०१),
२५. शान्तिकीर्ति (६२७),
२६. मेरुकीर्ति (६४२),।
उपर्युक्त पट्टावलिमें आया हुआ गुप्तिगुप्तका नाम अर्हद्वलिके लिये आया है। अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध है कि नन्दिसंघकी स्थापना अर्हद्वलिने की थी, और इसके प्रथम पट्टधर आचार्य माघनन्दि हुए। इस क्रमसे गृद्धपिच्छ नन्दिसंघके पट्टपर बैठनेवाले आचार्योंमें चतुर्थ आते हैं और इनका समय वीर निर्वाण सं. ५७१ सिद्ध होता है। अतएव गृद्धपिन्छके गुरुका नाम कुन्दकुन्दाचार्य होना चाहिये। श्रवणबेलगोलाके अभिलेख न. १०८ में गृद्धपिन्छ उमास्वामिका शिष्य बलाकपिच्छाचार्यको बतलाया है। अत: इनके शिष्य बलाकपिच्छ हैं।
तत्वार्थसूत्र के निर्माणमें कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंका सर्वाधिक उपयोग किया गया है| आचार्य कुन्दकुन्दने अपने पंचास्तिकाय में लिखा है-
दव्व सल्लक्खणियं उपादव्वयधुवत्तसंजुत्तं।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्ण ति सव्वण्हू।।
इस गाथाके आधारपर तत्त्वार्थसूत्रमें तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं। ये तीनों सूत्र क्रमश: गाथाके प्रथम, द्वितीय और तृतीय पाद हैं-
(१) सदद्रव्यलक्षणम्।
(२) उत्पादव्वयघ्रोव्ययुक्तं सत्।
(३) गुणपर्ययवद् द्रव्यम्।
अतएव गृद्धपिन्छने कुन्दकुन्दका शाब्दिक और वस्तुगत अनुसरण किया है। अत: आश्चर्य नहीं कि गृद्धपिन्छके गुरु कुन्दकुन्द रहे हों। श्रवणबेलगोलाके उक्त अभिलेखानुसार गृद्धपिन्छके शिष्य बलाकपिच्छ हैं। इनकी गणना नन्दिसंघके आचार्योंमें है।
यद्यपि पंडित सुखलालजीने इन्हें ही तत्वार्थाधिगमभाष्यका कर्ता मानकर उच्चैगिर शाखाका आचार्य माना है और यह शाखा कल्पसूत्रकी स्थविरावलिके अनुसार आर्यशान्तिश्रेणिकसे निकली है। आर्यशान्तिश्रेणिक आर्यसुहस्तिसे चौथी पीढ़ी में आते हैं, तथा वह शान्तिश्चेणिक आर्यवज्रके गुरु आर्यसिंहगिरिके गुरुभाई होनेसे, आर्यवज्रकी पहली पीढ़ी में आते हैं। तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकी प्रशस्तिमें वाचक उमास्वातिने अपनेको शिवश्रीनामक वाचकमुख्यका प्रशिष्य और एकादशांगवेत्ता धोषनन्दि श्रमणका दीक्षा शिष्य तथा प्रसिद्धकीर्तिवाले महावाचक श्रमण श्रीमुण्डपादका विद्या-अशिष्य बतलाया है।
पर यह गुरुशिष्य-परम्परा तत्त्वार्थाधिगमभाष्यकार वाचक उमास्वातिकी है, तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिन्छकी नहीं। गृद्धपिन्छ उमास्वामि कुन्दकुन्दान्वयमें हुये हैं और ये कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तराधिकारी भी हैं।
इनका समय नन्दिसंघकी पट्टावलिके अनुसार वीर- निर्वाण सम्वत् ५७१ है, जो कि वि. सं. १०१ आता है। "विद्वज्जनबोधक' में निम्नलिखित पद्य आया है-
वर्षसप्तशते चैव सप्तत्या च विस्मृतौ।
उमास्वामिमुनिर्जात कुन्दकुन्दस्तथैव चे।।
अर्थात् वीर निर्वाण संवत् ७७० में उमास्वामि मुनि हुए, तथा उसी समय कुन्दकुन्दाचार्य भी हुये। नन्दिसंघकी पट्टावलिमें बताया है कि उमास्वामी ४० वर्ष ८ महीने आचार्यपदपर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु ८४ वर्षकी थी और विक्रम संवत् १४२ में उनके पट्टपर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए। प्रो. हार्नले, डा. पीटरसन और डा. सतीशचन्द्रने इस पट्टावलिके आधारपर उमास्वारिको ईसकी प्रथम शताब्दी का माना है।
'विद्धज्जनबोधक' के अनुसार उमास्वातिका समय विक्रम सम्वत् ३०० आता है और वह पट्टावलिके समयसे १५० वर्ष पीछे पड़ता है।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें ६८३ वर्षकी श्रुतधर आचार्योंकी परम्परा दी है और इसके बाद अंगपूर्वके एकदेशधारी विनयधर, श्रीदत्त और अर्हद्दत्तका नामोल्लेखकर नन्दिसंघ आदि संघोंकी स्थापना करनेवाले अर्हद्वलिका नाम दिया है। श्रुतावतारमें इसके पश्चात् माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतलिके उल्लेख हैं। उसके बाद कुन्दकुन्दका नाम आया है। अत: आचार्य गृद्धपिच्छ कुन्दकुन्दके पश्चात् अर्थात् ६८३ वर्ष के अनन्तर हुए हैं। यदि इस अनन्तरकालको १०० वर्ष मान लिया जाये, तो वीर-निर्वाण सम्वत् ७८३ के लगभग आचार्य गृद्धपिच्छका समय होगा।
यद्यपि श्रुतधर आचार्यों की परम्परा का निर्देश धवला, आदिपुराण', नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावालि और त्रिलोकप्रज्ञात' आदिमें आया है, पर ये सभी परम्पराएँ ६८३ वर्ष तकका ही निर्देश करती हैं। इसके आगेके आचार्योंका कथन नहीं मिलता। अतएवं श्रुतावतार आदिके आधारसे गृद्धपिच्छका समय निर्णीत नहीं किया जा सकता है।
डॉ. ए. एन उपाध्येने बहुत ऊहापोहके पश्चात् कुन्कुन्दके समयका निर्णय किया है, और जिससे गृद्धपिच्छ, आचार्य कुन्दकुन्दके शिष्य प्रकट होते हैं। उपाध्येजीके मतानुसार कुन्दकुन्दका समय ई. प्रथम शताब्दीके लगभग है। अतः गृद्धपिच्छाचार्य उसके पश्चात् ही हुए हैं।
कुन्दकुन्दका समय निर्णीत हो जानेके पश्चात् आचार्य गुद्धपिच्छका समय अवगत करने में कठिनाई नहीं है। यतः पट्टावलियों और शिलालेखों में आचार्य कुन्दकुन्दके पश्चात् गृद्धपिच्छका नाम आया है। अतएव इनका समय ई. प्रथम शताब्दीका अन्तिम भाग और द्वितीय शताब्दीका पूर्वभाग घटित होता है।
निष्कर्ष यह कि पट्टावलियों, प्रशस्तियों और अभिलेखोंके अध्ययनसे गृद्धपिच्छका समय ई. सन् द्वितीय शताब्दी प्रतीत होता है।
आचार्य गृद्धपिच्छकी एकमात्र रचना 'तत्त्वार्थसूत्र' है। इस सूत्रग्रन्यका प्राचीन नाम 'तत्त्वार्थ’ रहा है। 'तत्वार्थ' की तीन टीकाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनके साथ तत्वार्थपद लगा है, पूज्यपादकी 'तत्वार्थवृत्ति', जिसका दूसरा नाम 'सर्वार्थसिद्धि' है, अकलंकका तत्वार्थवार्तक' और विद्यानन्दका तत्वार्थश्लोकवार्तिक। अतएव इस ग्रंथका प्राचीन नाम 'तत्वार्थ’ ही रहा है। सूत्रशैलीमें निबद्ध होनेसे उत्तरकालमें इसका 'तत्त्वार्थसूत्र' नाम प्रचलित हुआ। इस ग्रंथकी रचनाके हेतुका वर्णन करते हुए, तत्वार्थसूत्रके कन्नड-टीकाकार बालचंद्रने लिखा है-
"सौराष्ट्रदेशके मध्य उर्जयन्तगिरिके निकट गिरिनगर नामके पत्तनमें आसन्नभव्य स्वहितार्थी द्विजकुलोत्पन्न श्वेताम्बरभक्त सिद्धय्य नामका एक विद्वान् श्वेताम्बर शास्त्रोंका जाननेवाला था। उसने 'दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' यह सूत्र बनाकर एक पटियेपर लिख दिया था। एक दिन चर्याक लिये गृद्धपिच्छाचार्य मुनि वहाँ आये और उन्होंने उस सूत्रके पहले 'सम्यक' पद जोड़ दिया। जब वह विद्वान बाहरसे लौटा और उसने पटिये पर 'सम्यक' शब्द लगा देखा, तो वह अपनी मातासे मुनिराजके आनेका समाचार मालूम करके खोजता हुआ उनके पास पहुँचा और पूछने लगा- "आत्माका हित क्या है”। इसके बादका प्रश्नोत्तर प्राय: वही सब है, जो 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रारम्भमें आचार्य पूज्यपादने दिया है। प्रभाचन्द्राचार्यने सर्वार्थसिद्धिपर एक टिप्पण लिखा है और कहा टिप्पणमें उन पदोंकी व्याख्या की है, जो "सर्वार्थसिद्धि' में छूट गये हैं। इस टिप्पणमें प्रभाचन्द्रने प्रश्नकर्ता भव्यका नाम तो सिद्धय्य ही दिया है, किन्तु कथा नहीं दी है। उक्त कथामें कितना तथ्यांश है, यह नहीं कहा जा सकता।
श्रुतसागरसूरिने 'तत्त्वार्थवृत्ति' के प्रारम्भमें लिखा है कि किसी समय आचार्य उमास्वामि गृद्धपिच्छ आश्रममें बैठे हुए थे। उस समय द्वैपायक नामक भव्यने यहाँ आकर उनसे प्रश्न किया-भगवन् ! आत्माके लिये हितकारी क्या है? भव्यके ऐसा प्रश्न करनेपर आचार्यवर्यने मंगलपूर्वक उत्तर दिया, मोक्ष। यह सुनकर द्वैपायकने पुनः पूछा- उसका स्वरूप क्या है, और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है? उत्तरस्वरूप आचार्यवर्यने कहा कि यद्यपि प्रवादिजन इसे अन्यथा प्रकारसे मानते हैं, कोई श्रद्धानमात्रको मोक्षमार्ग मानते हैं, कोई ज्ञाननिरपेक्ष चारित्रको मोक्षमार्ग मानते हैं। परन्तु जिस प्रकार ओषधिक केवल ज्ञान, श्रद्धान या प्रयोगसे रोगकी निवृत्ति नहीं हो सकती है, उसी प्रकार केवल श्रद्धान, केवल ज्ञान या केवल चारित्रसे मोक्षको प्राप्ति नहीं हो सकती। भव्यने पूछा- तो फिर किस प्रकार उसकी प्राप्ति होती है? इसीके उत्तरस्वरूप आचार्य ने "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग" यह सत्र रचा है और इसके पश्चात् अन्य सूत्रोंकी रचना हुई है। ऐसी ही उत्थानिका प्रायः तत्त्वार्थवर्तिकमें भी आयी है। अतः उपयुक्त कथामें कुछ तथ्य तो अवश्य प्रतीत होता है।
कनड़ी टीकाके रचयिता बालचन्द्र विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके पूर्वार्द्धमें हुए है।
पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' 'तत्वार्थसूत्र' की उपलब्ध टीकाओंमें आद्य एवं प्राचीन टीका है। इसके आरम्भमें ग्रन्थ-रचनाका जो संक्षिप्त इतिवृत्त निबद्ध है उसके आधारसे स्पष्ट रूपमें कहा जा सकता है कि तत्त्वार्यसूत्रकारने तत्त्वार्थसूत्रकी रचना किसी आसनभव्यके प्रश्न के उत्तरमें की है। इस भव्यका नामोल्लेख सर्वार्थसिद्धिकारने नहीं किया। उत्तवर्ती लेखकोंने किया है। उनका आधार क्या है, कुछ कहा नहीं जा सकता। वह अन्वेषणीय है। इतना स्पष्ट तथ्य है कि तत्त्वार्थसूत्र किसी आसनभव्य मुमुक्षुके हितार्थ लिखा गया है।
इस ग्रन्थमें जिनागमके मूल तत्त्वोंको बहुत ही संक्षेपमे निबद्ध किया है। इसमें कुल दश अध्याय और ३५७ सूत्र हैं। संस्कृत-भाषामें सूत्रशैलीमें लिखित यह पहला सूत्रग्रन्थ है। इसमें करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगका सार समाहित है। इसकी सबसे बड़ी महत्ता यह है कि इसमें साम्प्रदायिकता नहीं है। अतएव यह श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंको थोड़ेसे पाठभेदको छोड़कर समानरूपसे प्रिय है। इसकी महत्ताका सबसे बड़ा दुसरा प्रमाण यह है कि दोनों ही सम्प्रदायोंके महान् आचार्योंने इसपर टीकाएँ लिखी हैं। पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दने दार्शनिक टीकाएँ लिखकर इस ग्रंथका महत्व व्यक्त किया है। विद्यानन्दने अपनी 'आप्तपरीक्षा' में इसे बहुमूल्य रत्नोंका उत्पादक, सलिलनिधि- समुद्र कहा है-
श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राभुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य,
प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत्।
स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथिसपृथुपथं स्वामिमोमांसितं तत,
विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धथे।
प्रकृष्ट रत्नोंके उद्भवके स्थानभूत श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रकी उत्पत्ति के प्रारम्भकालमें महान मोक्षपथको प्रसिद्ध करनेवाले और तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्रको शास्त्रकार गृद्धपिन्छाचार्यने समस्त कर्ममलके भेदन करनेके अभिप्रायसे रचा है और जिसकी स्वामीने मीमांसा की है, उसी स्तोत्रका सत्यवाक्यार्थ ( यथार्थता) को सिद्धिके लिए मुझ विद्यानन्दने अपनी शक्तिके अनुसार किसी प्रकार व्याख्यान किया है।
तत्त्वार्थसूत्र जैन धर्मका सारग्रन्थ होनेसे इसके मात्र पाठ या श्रवणका फल एक उपवास बताया गया है, जो उसके महत्त्वको सूचित करता है। वर्तमानमें इस ग्रन्थको जैन परम्परामें वही स्थान प्राप्त है, जो हिन्दु धर्ममें 'भगवद्गीता' को, इस्लाममें 'कूरान' को और ईसाई धर्ममें 'बाइबिल' को प्राप्त है। इससे पूर्व प्राकृत भाषामें ही जैन ग्रंथोंकी रचना की जाती थी। इसी भाषामें भगवान महावीरकी देशना हुई थी और इसी भाषामें गोतम गणधरने अंगों और पूर्वोकी रचना की थी। पर जब देशमें संस्कृत-भाषाका महत्त्व वृद्धिंगत हुआ और विविध दर्शनोंके मन्तव्य सूत्ररूपमें निबद्ध किये जाने लगे, तो जैन परम्पराके आचार्योंका ध्यान भी उस ओर आकृष्ट हुआ और उसीके फलस्वरूप तत्वार्थसूत्र जैसे महत्त्वपूर्ण संस्कृत-सुत्रग्रन्थकी रचना हुई। इस तरह जैन वाङ्मय में संस्कृत-भाषाके सर्वप्रथम सूत्रकार गृद्धपिच्छ है और सबसे पहला संस्कृत-सूत्रग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र है।
तत्त्वार्थसूत्र धर्म एवं दर्शनका सूत्रग्रन्थ है। इसकी रचना वैशेषिक दर्शनके 'वैशेषिकसूत्र' ग्रन्थके समान हुई हैं। वैशेषिक दर्शन के प्रारम्भमें द्वव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव इन सात पदार्थोंके तत्त्वज्ञानसे मोक्ष प्राप्तिकी बात कही गयी है। अत: इस सूत्रग्रन्थमें मुख्यरूपसे उक्त सात पदार्थों का विवेचन आया है। सांख्य दर्शनमें प्रकृति और पुरुषका विचार करते हुए जगतके मुलभूत पदार्थोका ही विचार किया है। इसी प्रकार वेदान्तदर्शनमें जगतके मूलभूत तत्व ब्रह्मकी मीमांसा की गयी है। न्यायदर्शनमें प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इन सोलह पदार्थों के तत्वज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति बतलायी है। न्यायदर्शनमें अर्थपरोक्षाके साधनोंका ही कथन आया है। योगदर्शनमें जीवनमें अशुद्धता लानेवाली चित्तवृत्तियोंका और उनके निरोधका तथा तत्सम्बन्धी प्रक्रियाका प्रतिपादन आया है। इस प्रकार पूर्वोक्त दर्शनोंका विषय ज्ञेयप्रधान या ज्ञानसाधनप्रधान अथवा चारित्रप्रधान है।
पर 'तत्त्वार्थसूत्र' में ज्ञान, ज्ञय और चारित्रका समानरूपसे विवेचन आया है। इसका प्रधान कारण यह है कि जहां वैशेषिक आदि दर्शनों में केवल तत्त्वज्ञानसे 'निःश्रेयस्’ प्राप्ति बतलायी गयी है वहाँ जैनदर्शनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके समुच्चयको मोक्षका मार्ग कहा है। तत्त्वार्थसूत्रके प्रथम अध्यायके द्वितीयसूत्रमें जीव, अजीव, अस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंके सम्यक्दर्शन और छठे सूत्रमें इनके यथार्थज्ञानकी सम्यक्ज्ञान कहा है। तत्त्वार्थसूत्रकारने हेय और उपादेयरूपमें केवल इन्हीं सात तत्त्वोंको श्रद्धेय एवं अधिगम्य बतलाया है। मोक्षमार्गमें इन्हींका उपयोग है। अन्य अनन्त पदार्थोका नहीं। इससे पूर्व समयसारमें भी निश्चयनय और व्यवहारन्यसे इन्हीं सातों तत्त्वोंका निरूपण किया है।
अतएव आचार्य गृद्धपिन्छने इस तत्त्वार्थसूत्रमें दश अध्याओंकी परिकल्पना करके प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ अध्यायमें जीवतत्त्वका, पंचम अध्यायमें अजीवतत्वका, षष्ट और सप्तम अध्यायोंमें आस्रवतत्वका, अष्टम अध्यायमें बन्धतत्त्वका, नवम अध्यायमें संवर और निर्जरातत्वोंका एवं दशम अध्यायमें मोक्षतत्वका विवेचन किया है। प्रथम अध्यायके आरम्भमें सम्यग्दर्शनका स्वरूप और उसके भेदोंकी व्याख्या करनेके पश्चात् "प्रमाणनयैरघिगमः" [१-६] सूत्रसे ज्ञान-विषयक चर्चाका प्रारम्भ होता है। प्रमाणका कथन तो सभी भारतीय दर्शनों में आया है, पर नयका विवेचन इस ग्रन्थका अपना वैशिष्टय है और यह है जैनदर्शनके अनेकान्तवादको देन। नय प्रमाणका ही भेद है। सकलग्राही ज्ञानको प्रमाण और वस्तुके एक अंशको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं।
तत्वार्थसूत्रमें ज्ञानको ही प्रमाण माना है और ज्ञानके पाँच भेद बतलाये हैं- (१) मति, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मनःपर्यय और (५) केवलज्ञान। प्रमाणके दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। उक्त ज्ञानों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो परोक्ष हैं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होती है। शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि ये आत्मासे ही उत्पन्न होते हैं- उनमें इन्द्रियादिको अपेक्षा नहीं होती। तत्वार्थसूत्रमें उक्त पाँचों ज्ञानोंका प्रतिपादन किया है। मतिज्ञानकी उत्पत्तिके साधन, उनके भेद- प्रभेद, उनकी उत्पत्तिका क्रम, श्रुतज्ञानके भेद, अवधिज्ञान और मनःपयंयज्ञानके भेद तथा उनमें पारस्परिक अन्तर, पाँचों ज्ञानोंका विषय एवं एकसाथ एक जीवमें कितने ज्ञानोंका रहना सम्भव है आदिका कथन इसमें आया है। अन्तमें मति, श्रुत और अवधिज्ञानके मिथ्या होनेके कारणका भी विवेचन कर नयोंके भेद परिगणित किये गये हैं। इस अध्याय ३३ सूत्र हैं।
द्वितीय अध्यायमें ५३ सूत्रों द्वारा जीवतत्त्वका कथन किया है। सर्वप्रथम जीवके स्वतत्त्वरूप पंच भावों और उनके भेदोंका निरूपण आया है। पश्चात् जीवके संसारी और मुक्त भेद बतलाकर संसारी जीवोंके भेद- प्रभेदोंका कथन किया गया है। जीवोंकी इन्द्रियोंके भेद-प्रभेद, उनके विषय, संसारी जीवोंमें इन्द्रियों की स्थिति, मृत्यु और जन्म के बीच की स्थिति, जन्मके भेद, उनकी योनियां, जीवोमें जन्मोंका विभाग, शरीरके भेद उनके स्वामी, एक जीवके एक साथ सम्भव हो सकनेवाले शरीर, लिंगका विभाग तथा पूरी आयु भोगकर मरण करनेवाले जीवोंका कथन किया है।
तृतीय अध्याय ३९ सूत्रोंमें निबद्ध है। इसमें अधोलोक और मध्यलोकका वर्णन माया है। अधोलोकका कथन करते हुए सात पृथिवियों तथा उनका आधार बतलाकर उनमें नरकोंकी संख्या और उन नरकोंमें बसनेवाले नारकी जीवोंको दशा एवं उनकी दीर्घ आयु आदि बतलायी गयी है। मध्यलोकके वर्णनमें द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदियों एवं क्षेत्रोंका वर्णन करनेके पश्चात् मध्य लोकमें निवास करनेवाले मनुष्य और तिर्यञ्चोंकी आयु भी बतलायी गयो है।
चतुर्थ अध्यायमें ४२ सूत्रों द्वारा ऊर्ध्वलोक या देवलोकका वर्णन किया गया है। इसमें देवोंके विविध भेदों, ज्योतिमण्डल, तथा स्वर्गलोकका वर्णन है।
दार्शनिक दृष्टिसे पंचम अध्याय महत्वपूर्ण है। यह ४२ सूत्रोंमें निबद्ध है। इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छ: द्रव्योंका वर्णन आया है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशोंकी संख्या उनके द्वारा अवगाहित क्षेत्र और प्रत्येक द्रव्यका कार्य आदि बतलाये हैं। पुदगलका स्वरूप बतलाते हुए उसके भेद, उसकी उत्पत्तिके कारण, पुदगलिक बन्धकी योग्यता अयोग्यता आदि कथन है। अन्तमें सत, द्रव्य, गुण, नित्य और परिणामका स्वरूप प्रतिपादित कर कालको भी द्रव्य बतलाया है।
षष्ठ अध्याय २७ सूत्रोंमें ग्रंथित है। इस अध्यायमें आस्रवतत्वका स्वरूप उसके भेद-प्रभेद और किन-किन कार्योके करनेसे किस-किस कर्मका अस्त्रव होता है, का वर्णन आया है।
सप्तम अध्यायमें ३९ सूत्रों द्वारा व्रतका स्वरूप, उसके भेद, व्रतोंको स्थिर करनेवाली भावनाएं, हिसादि पाँच पापोंका स्वरूप सप्त शील, सल्लेखना, प्रत्येक व्रत और शीलके अतिचार, दानका स्वरूप एवं दानके फलमें तारतम्य होनेके कारणका कथन आया है।
अष्टम अध्यायमें २६ सूत्र हैं। कर्म-बन्धके मूल हेतु बतलाकर उसके स्वरूप तथा भदोंका विस्तारपूर्वक कथन करते हुए आठों कर्मोंके नाम प्रत्येक कर्मकी उत्तरप्रकृतियां, प्रत्येक कर्मके स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका स्वरूप बतलाया है।
नवम अध्यायमें ४७ सूत्रों द्वारा संवरका स्वरूप, संवरके हेतु, गुप्ति, समिति, दश धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा बाईस परीषह, चारित्र और अन्तरंग तथा बहिरंग तपके भेद बतलाये गये हैं। ध्यानका स्वरूप, काल, ध्याता, ध्यानके भेद एवं पांच प्रकारके निग्रन्थ साधुओंका वर्णन आया है।
दशम अध्याय में केवल ९ सूत्र हैं। इसमें केवलज्ञानके हेतु, मोक्षका स्वरूप, मुक्तिके पश्चात् जीवके उर्ध्वगमनका दृष्टान्सपूर्वक सयुक्तिक समर्थन तथा मुक्त जीवोंका वर्णन आया है।
इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रका वर्ण्य विषय जैनधर्मके मूलभूत समस्त सिद्धान्तोंसे सम्बद्ध है। इसे जैन सिद्धान्तकी कुंजी कहा जा सकता है।
तत्त्वार्थसूत्रके सूत्र कुन्दकुन्दके नियमसार, पंचास्तिकाय, भावपाहुड, षट्खण्डागम प्रवचनसार, आदिके आधारपर निर्मित हुए हैं। "सम्यग्दर्शनज्ञाचारित्राणि मोक्षमार्ग" [१-१] सूत्रका मूल स्रोत नियमसार है। कुन्दकुन्दने अपने नियम सारको प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि जिनशासनमें मार्ग और मार्गफलको उपादेम कहा है| मोक्षके उपायको मार्ग कहते हैं और उसका फल निर्वाण है। ज्ञान, दर्शन और चारित्रको नियम कहा जाता है तथा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रका परिहार करनेके लिए उसके साथ 'सार' पद लगाया है। तस्वार्थसूत्र में भी मिथ्यादर्शनादिका परिहार करनेके लिए, दर्शनादिकके साथ सम्यक् पद लगाया है।
मग्गो मागफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं।
मागो मोक्खउवायो तस्स फलं होइ णिव्याणं।।
णियमेण य जं कज्जं तण्णियमं णाणदसणचारित्तं।
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।
तत्त्वार्थसूत्रके द्वितीय सूत्र तथा चतुर्थ सूत्रका आधार भी कुन्दकुन्दके ग्रन्थ हैं। कुन्दकुन्दने सम्यकदर्शनका स्वरूप बत्तलाते हुए लिखा है-
"अत्तागमतंचचाणं सद्दणादो हवेइ सम्मत्तं।।"
आप्त, आगम और तत्त्वोंके श्रद्धानको सम्यकदर्शन कहते हैं और तत्त्वार्थ आगममें कहे हुए पदार्थ हैं।
तत्वार्थसूत्रकारने नियमसारके उक्त सन्दर्भको स्रोत मानकर 'तत्वार्थश्रद्धानं सम्यकदर्शनम्" [१-२] सूत्र लिखा है। वस्तुतः मह सूत्र "तच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्त” का अनुवाद है। सात तत्वोंके नाम कुन्दकुन्दके 'भावपाहुड' आदि ग्रन्थों में मिलते हैं। "सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरमावाल्पबहुत्वैश्च" [१-८) सूत्रका स्रोत 'षट्खण्डागम'का निम्नलिखित सूत्र है-
"संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्तायुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि।" [१-१-७]
गृद्धपिच्छाचार्यने षटखण्डागमके इन आठ अनुयोगद्वारोंको लेकर उक्त सूत्रकी रचना की है। मति, श्रुत आदि पांच ज्ञानोंका जैसा वर्णन तत्त्वासूत्रमें आया है वह स्रोतकी दृष्टिसे षटखण्डागमके वर्गणाखण्डके अन्तर्गत कर्मप्रकृति- अनुयोगद्वारसे अधिक निकट प्रतीत होता है। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्रमें 'मत्तिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता [१/१३] को मतिज्ञानके नामान्तर कहा है। इसका स्रोत षट्खण्डागमके कर्म प्रकृति अनुयोगदारका 'सण्णा सदी मदी चिन्ता चेदि' [५-५-४१) सूत्र है। इसी प्रकार 'भवप्रत्ययोऽधिदेवनारकाणाम् [तत्त्वार्थसूत्र १/२१] का स्रोत षट्खण्डागमके कर्म प्रकृति-अनुयोगद्धारका 'ज तं भवपच्चइयं तं देव-णेरइयाणं" [५-५-५४] सुत्र है।
तत्वार्थसूत्रमें पांच जानोंको प्रमाण मानकर उनके प्रत्यक्ष ओर परोक्ष भेद किये गये हैं। इन भेदोंका स्रोत प्रवचनसारकी निम्नलिखित गाथा है-
जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख ति मणिदमत्थेसु।
जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पञ्चाक्ख।
अर्थात पदार्थविषयक जो ज्ञान परकी सहायतासे होता है, वह परोक्ष कहलाता है और जो ज्ञान केवल आत्माके द्वारा जाना जाता है वह प्रत्यक्ष कहलाता है।
द्वितीय अध्यायकै प्रारम्भमें प्रतिपादित पांच भावोंके बोधक सूत्रका स्रोत पञ्चास्तिकायकी निम्न लिखित गाथा है-
उदयेण उचसमेण य खयेण दुहि मिस्सदेहि परिणामे|
जुत्ता ते जीवगुणा बहुसु अत्थेसु विच्छिपणा॥
पञ्चम अध्यायमें प्रतिपादित द्रव्य, गुण, पर्याय, अस्तिकाय आदि विषयोंके स्रोत आचार्य कुन्दकुन्दके पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और नियमसारकी अनेक गाथाओंमें प्राप्य हैं। तत्त्वार्थसूत्रमें द्रव्यलक्षणका निरूपण दो प्रकारसे आया है। उसके लिए सत्की परिभाषाके पश्चात् "सदद्रव्यलक्षणम्" (५।२९) और "गुणपर्ययवद्रद्रव्यम्" (५।३८) सूत्रोंकी रचना की है। ये सभी सूत्र कुन्दकुन्दकी निम्न गाथासे सुजित हैं-
"दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्त संजुतं।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णाति सव्वण्हू।।
पंचम अध्यायमें ‘स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः', 'न जघन्यगुणाना', 'गुणसाम्ये सदृशानाम'; 'दूधिकादिगुणनां तु [५-३३,३४,३५,३६] सूत्रोंद्वारा स्निग्ध और रुक्ष गुणवाले परमाणुओंके बन्धका विधान आया है। वे सुत्र प्रवचनसारकी निम्न गाथाओंपरसे रचे गये हैं-
णिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा।
समदी दुगधिगा जदि वज्झंति हि आदिपरिहीणा।
णिद्धत्तणेण दुगुणी चदुगुणणिद्वेण बंधमणुभवदि।
लुक्खेण घा तिगुणिदो अणु वज्झदि पंचगुणजुत्तो।।
दुपदेसादी खंधा सुहमा वा बादरा ससंठाणा।
पुढविजलतेउवाक रामपरिणामेहि आयते।।
अपने शक्त्यशोमें परिणमन करनेवाले परमाणु यदि स्निग्ध हों अथवा कक्ष हो, दो, चार, छह, आदि अशोंकी गणनाको अपेक्षा सम हों, अथवा तीन, पांच, सात आदि अंशोको अपेक्षा विषम हों, अपने अंशोंसे दो अधिक हो, और जघन्य अंशमे रहित हो तो परस्पर बन्धको प्राप्त होते हैं।
स्निग्ध गुणके दो अंशोंको धारण करनेवाले परमाणु चतुर्गुण स्निग्धके साथ बंधते हैं। रूक्षगुणके तीन अंशोंको धारण करनेवाला परमाणु पांचगुणयुक्त रूक्ष अंशको धारण करनेवाले परमाणुके साथ बन्धको प्राप्त होता है।
दो प्रदेशोंको आदि लेकर सख्यात, असंख्यात और अनन्तपर्यन्त प्रदेशोंको धारण करनेवाले सूक्ष्म अथवा बादर विभिन्न आकारोसे सहित तथा पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप स्कन्ध अपने-अपने स्निग्ध और रुक्ष गुणोंके परिणमनसे होते हैं।
इसी प्रकार "बन्धेऽघिको पारिणामिको" [५/३७] सुत्रका स्रोत षटखण्डागम के वर्गणाखण्डका बन्ध-विधान है।
तत्त्वार्थसूत्रके षष्ठ अध्यायमें तीर्थकरनामकर्मके बन्धमें कारणभूत सोलह कारणोंका निर्देशक सूत्र निम्न प्रकार है-
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनविचारोऽभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागसपसी साधुसमाधिवैयावृत्यकरणमहंदाचार्य-बहुश्रुतप्रवचनभक्ति रावश्यकापरिहाणिर्गिनभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य।। [६-२४]
अर्थात् १. दर्शनविशुद्धि, २. क्नियसम्पन्नता, ३. शीलव्रतोंमें अनतिचार, ४. अभीक्षणज्ञानोपयोग, ५. संवेग, ६. शक्तितः त्याग, ७. शक्तितः तप, ८. साधुसमाधि, ९. वैयावृत्यकरण, १०. अर्हदभक्ति, ११. आचार्यभक्ति, १२. बहुश्रु ततभक्ति, १३. प्रवचनभक्ति, १४. आवश्यकापरिहाणि, १५. मार्गप्रभावना और १६. प्रवचनवत्सलत्व ये सोलह भावनाएँ तीर्थकरनामकर्मके बन्धकी कारण है।
उपर्युक्त सूत्रका स्रोत ‘षटखण्डागम'के 'बंधसामित्तबिचओ' का निम्न सूत्र है- 'दंसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाय सोलव्वदसु निरदिचारदाए आवासएसु अपरिहोणदाए खण-लव-पंडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधातवे साहूणं पासुअपरिचालदाए साहूण समाहिसधारणाए साहूण वज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतमत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तिए गवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभियखणं अभिक्खणं णाणोवजोगजतदाए, इच्नेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं काम बघति।
दोनों सूत्रों के अध्ययनसे स्पष्ट ज्ञान होता है कि गृद्धपिन्छाचार्यन प्राकृतसूत्रका संस्कृत रूपान्सर कर दिया है।
तत्वार्थसूत्रके नवम अध्यायमें बारह अनुप्रेक्षाओंका कथन आया है। इनका स्रोत 'भगवती आराधना', 'मूलाचार' पूर्व कुन्दकन्दाचार्यको 'बारसअणुवेक्खा' है। इन तीनों ग्रन्थोंमें द्वादश अनुप्रेक्षाओंको गिनाने वाली गाथा एक ही है। तत्त्वार्थसूत्रकारने द्वादश अनुप्रेक्षाओंके क्रममें मात्र कुछ अन्तर किया है तथा प्रथमानुप्रेक्षाका नाम अनित्य रखा है, जबकि इन ग्रन्थोंमें अध्रुव है।
तत्त्वार्थसूत्रके नवम अध्यायके नवम सूत्रमें २२ परीषदोंके नाम गिनाये गए हैं। उनमें एक 'नगन्य' परिषह भा है। 'नाग्न्य'का अर्थ नंगापना है। यहाँ आचार्यने अचेलकी अपेक्षा ‘नागन्य' पदके प्रयोगको अधिक महत्व दिया है। इससे ज्ञात होता है कि सूत्रकर्ताको साधुओंकी नग्नता इष्ट थी और उन्हें उसका परीषह सहना ही चाहिए, यह भी मान्य था।
इस तरह षटुखण्डागम और कन्दकुन्द-साहित्यमें तत्वार्थसूत्रके सूत्रोंके अनेक बीज वर्तमान हैं।
तत्त्वार्थसूत्रके दो सूत्रपाठ उपलब्ध होते हैं। पहला सुत्रपाठ यह है जिसपर पूज्यपाद, अकलंकदेव और विद्यानन्दने टीकाएं लिखी है। यह पाठ दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है। दूसरा पाठ वह है, जिसपर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य पाया जाता है तथा सिद्धसेन गणि और हरिभद्रने अपनी टीकाए लिखी हैं। इस दूसरे सुत्रपाठका प्रचार श्वेताम्बर परम्परा है। इन दोनों सुत्रपाठोंमें जो अन्तर है, वह निम्न प्रकार अवगत किया जा सकता है-
दोनों पाठोंके अनुसार दशों अध्यायोंके सूत्रोंकी संख्या-
प्रथमपाठ- ३३+५३+३९+४२+४२+२७+३९+२६+४७+९ = ३५७
द्वितीयपाठ- ३५+५२+१८+५३+४४+२६+३४+२६+४९+७=३४४
दोनों पाठोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि प्रथम अध्यायमें दो सूत्रोंकी हीनाधिकता है। प्रथम पाठको अपेक्षा द्वितीय पाठमें दो सूत्र अधिक है। प्रथम सूत्र "द्विविधोऽवधिः' [१/२१]-अवघीज्ञानके दो मेद हैं| इस सूत्रमें कोई सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है। अन्तिम दो सूत्रविचारनीय हैं- "नेगमसंग्रहव्यवहारजुसूत्रशब्दा नयाः" [१/३४] आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ' ।१।३५] ये दोनों सूत्र द्वितीय पाठमें मिलते है। प्रथम पाठमें नयके सात भेद माने गये हैं, और इन सातोंके नामोंको बतलाने वाला एकही सूत्र है। पर दूसरे पाठके अनुसार नयके मूल पाँच भेद हैं, और उनमेंसे प्रथम 'नेगमनय’ के दो भेद है और 'शब्दनय’ के साम्प्रत, समभिरूढ और एवंभूत ये तीन मेद हैं। सप्तनयकि परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। यह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों हि अगमोंमें पायी जाती है। तत्त्वार्थसूत्रमें यह जो द्वितीय मान्यता आयी है, उसका समन्वय दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओंके साथ सम्भव नहीं है। यह तो एक नयी परम्परा है, जिसका आरम्भ तत्त्वार्थाधिगमभाष्यसे होता है।
पन्द्रहवें सूत्र में मत्तिज्ञानका तीसरा भेद भाष्यके अनुसार 'अपाय' है और सर्वार्थसिद्धिके अनुसार ‘अवाय' है। पंडित सुखलालजी द्वारा सम्पादित 'तत्त्वार्थसूत्रमें'अपाय के स्थानपर 'अवाय पाठ ही मिलता है। नन्दिसूत्र में भी 'अवाय' पाठ है । अकलंकदेवने अपने तत्वावातिकमें दोनों पाठों में केवल शब्द भेद बतलाया है । किन्तु उभयपरम्परासम्मत प्राचीन पाठ 'अवाय' ही है, 'अपाय' नहीं । सोलहवें सूत्र 'बहुबहुविष' मादिमें प्रथम पाठमें 'अनिसृतानुक्त' पाठ है और दूसरी मान्यतामें 'अनिस्तासन्दिग्ध' पाठ है। इसी प्रकार अवधि ज्ञानके दूसरे मेदके प्रतिपादक सुत्रमें प्रथमपाठमें 'क्षयोपशमनिमित्तः' पाठ है और दूसरेमें 'ययोतनिमित्तः' पाठ है। इन दोनों पाठोंके बाशयमें कोई अन्तर नहीं है।
द्वितीय अध्यायमें प्रथमपाठके अनुसार 'तेजसमंपि' [२/४८] तथा शेषास्त्रिवेदाः राप२] ये दो सूत्र अधिक हैं। इसी तरह दूसरे सूत्रपाठमें 'उपगेगः स्पर्शादिषु' [१९] सूत्र अधिक है। शेष सूत्रोंमें समानता होते हुए भी कतिपय स्थलोंमें अन्तर पाया जाता है। प्रथम सूत्रपाठमें 'जीवभव्याभव्यत्वानि च’ [२/७] पाया जाता है, और द्वितीय सूत्रपाठमें इसके स्थानपर 'जीवभव्याभव्यत्वादोनि च' [२/७] सूत्र है। प्रथम पाठमें जिन पारिणामिक भावोंका ग्रहण 'च' शब्दसे किया है, द्वितीय पाठमें उन्हींका ग्रहण आदि पदसे किया है। अकलंकदेवने आदिपदको सदोष बतलाया है।
संसारी जीवोंके त्रस और स्थावर ये दो भेद आये हैं। स्थावरके पांच भेद हैं। इनकी मान्यता दोनों सूत्रपाठोंमें तुल्य है, पर त्रसका अर्थ भाष्यमें बताया है कि जो चलता है, वह त्रस है। इस अपेक्षासे दुसरे सूत्रपाठमें तेजसकायिक और वायुकायिकको भी त्रस कहा गया है, क्योंकि वायु और अग्नि कायमें चलनक्रिया पायी जाती है। अतएव द्वितीय अध्यायके तेरह और चौदहवें सूत्रमें अन्तर पड़ गया है। द्वितीय अध्यायके अन्य सुत्रोंमें भी कतिपय स्थलोपर अन्तर विद्यमान है।
प्रथमसूत्रपाठ | द्वितीय सूत्रपाठ |
१. एकसमयाऽविग्रहा ॥२९॥ | एकसमयोऽविग्रहः ||३०|| |
२. एकं द्धौ त्रीन्वाऽनाहारक ॥३०॥ | एक द्वौ वाऽनाहारक: ॥३१॥ |
३. जरायुथाइयोतानां गर्भः ॥३३॥ | अराखण्डपोतजानां गर्भ: ॥३४॥ |
४. देवनारकाणामुपपाद: ॥३४|| | नारकदेवानामुपपात: ॥३५॥ |
५. परं परं सूक्ष्मम् ॥३७॥ | पर परं सूक्ष्मम् ॥३८॥ |
६. औपपादिक-चरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५३॥ | औषपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ॥५२॥ |
इन सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तर रहनेके कारण सैद्धान्तिक दृष्टी भी मतभिन्नता है।
तृतीय अध्यायमें प्रथम पाठक अनुसार द्वितीय पाठसे २१ सूत्र अधिक है। द्वितीय पाठमें वे सूत्र नहीं हैं। तृतीय अध्यायके प्रथम सूत्रक पाठमें थोड़ा अन्तर पाया जाता है। द्वितीय पाठमें 'अघोऽघ' और 'पृथुतराः' पाठ है जबकि पहलेमें 'पृथुतराः' पाठ नहीं है। अकलंकदेवने अपने तत्वार्थवात्तिकमें इस पाठकी आलोचना की है और उसे सदोष बताया है।
चतुर्थ अध्यायमें स्वगोंके संख्या-सूचक सूत्र में अन्तर है। प्रथम पाठने अनुसार सोलह स्वर्ग गिनाये गये हैं, पर द्वितीय पाठके अनुसार बारह हो स्वर्ग परिगणित हैं। स्वर्गके देवोंमें प्रविचारको बतलाने धाले सूत्र में शेषाः स्पर्शरूप शब्दमन:प्रवीचारा' [४/८] के स्थानपर शेषाः प्रविचारा द्वयोद्वयोः' [४/९] पाठ आया है। इस द्वितीयपाठमें 'द्वयोद्धयोः पाठ अधिक है। अकलंकने इस पाठकी आलोचनाकर इसे आर्षविरुद्ध बतलाया है। प्रथम सूत्रपाठमें लौकान्तिक देवोंकी स्थितिका प्रतिपादक सूत्र आया है, पर द्वित्तीय सूत्रपाठमें वह नहीं है।
पाँचवें अध्यायमें द्वितीय सूत्रपाठमें "द्रव्याषि जीवाश्च" यह एक सूत्र है। किन्तु प्रथम सूत्रपाठमें 'द्रव्याणि' [५/२] और 'जीवाश्य' [५/३] ये दो सूत्र हैं। तत्त्वार्थवार्तिकमें अकलंकदेवने 'द्रव्याणि जीवाः'- इस प्रकारके एक सूत्रकी मीमांसा करते हुए एक ही सूत्र रखने का समर्थन किया है। इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठके 'असंख्ययाः प्रदेशाः धर्माधर्मकजीवानाम' [५/८] ये दो सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें स्वीकृत हैं। प्रथम सूत्रपाठमें 'सद् द्रव्यलक्षणम्' [५/२९] यह सुत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें यह सूत्र नहीं मिलता। इस सूत्रका आशय भाष्यकारने अवश्य स्पष्ट किया है।
इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठमें "बन्धेऽधिको पारिणामिको" [५१३६) सूत्र आया है । इसके स्थानपर द्वितीय सत्रपाठमें "बन्धे समधिको पारिणामिको" [५३६] सूत्र है । आचार्य अकलंकदेवनं 'समधिको' पाठको आलोचना करते हए उसे आर्षविरुद्ध बतलाया है और अपने पसके समर्थनमें खटखण्डागमका प्रमाण दिया है।
प्रथम सत्रपाठके "कालश्च" [५/३९] सूत्रकै स्थानपर दूसरे सूत्रपाठमें "कालाक्चेत्येके" [५।३८] सत्र आया है। इस अन्तरका कारण यह है कि दिगम्बर परम्परामें कालको द्रव्य माना गया है। पर श्वेताम्बर परम्परामें कालद्रव्यके सम्बन्धमें मतभेद है।
द्वितीय सूत्रपाठके 'अनादिरादिमांश्च' [५।४२], 'रूपिष्वादिमान् [५/४३] और 'योगोपयोगी जोवेषु' [५/४४] ये तीन सूत्र प्रथम सूत्रपाठमें नहीं है। इन सूत्रोंमें आये हुए सिद्धान्तोंकी समीक्षा अकलंकदेवने की है।
षष्ठ अध्यायमें आये हुए सूत्र दोनों ही सूत्रपाठोंमें सिद्धान्तको दृष्टिले समान हैं। पर कहीं-कहीं प्रथम सूधपाने एक ही सूत्रके दो सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें मिलते हैं । प्रथम सूत्रपाठमें "शुमः पुण्यस्याशुभः पापस्य" [६/३] सूत्र आया है। द्वितीय सूत्रपाठमें इसके "शुभः पुण्यस्य" [६/३] और "अशुमः पापस्य" [६/४] ये दो सूत्र मिलते हैं। इसी प्रकार प्रथम सत्रपाठमें "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" [६/१७] और "स्वमावमार्दवञ्च" [६/१८] ये दो सूत्र आये है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें इन दोनोंके स्थानपर "अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवाजच च मानुषस्य" [६/१८] यह एक सत्र प्राप्त होता है।
इस षष्ठ अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठमें "सम्यक्त्वञ्च" [६/२१] सूत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें यह सूत्र नहीं मिलता है।
सप्तम अध्यायमें कई सूत्रोंमें शाब्दिक अन्तर आया है। कुछ सूत्र ऐसे भी हैं जो प्रथम सूत्रपाठमें उपलब्ध हैं, पर द्वितीयमें नहीं। प्रथम सूत्रपाठमें व्रतोंको स्थिर करनेके लिए अहिंसादिवतोंकी पांच-पांच भावनाएँ बतलायी गयी है। इन भावनाओंका अनुचिन्तन करनेसे व्रत स्थिर रहते हैं। अतः प्रथम सूत्रपाठमें अहिंसाव्रतकी "वाडमनोगप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकित्तपानभोजनानि पञ्च" [७/४] सत्पाणुव्रत्तकी "क्रोध-लोभ-भिरुत्व-हास्यप्रत्याख्यानान्यनुवोचिभाषणञ्च पञ्च" [७/४] अचौर्यव्रतकी “शून्यागार-विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैक्ष्य-शुद्धी-सधर्माविसंवादाः पञ्च।" [७/६], ब्रह्मचर्य व्रतकी "स्त्रीरागकथाश्रवण तन्मनोहानिरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरस-स्वशरीसंस्कारस्यामाः पञ्च" [७/७] और परिग्रहत्यागव्रतके "मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषय-राग-द्वेष-वर्जनानी पञ्च" [७/८] भावनाबोधक सूत्र आये हैं। ये पांचों सुन द्वितीय सूत्रपाठमें नहीं है। किन्तु तृतीय सूत्रके भाष्यमें इनका भाव आ गया है।
अष्टम अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठमें "सकषायत्वाञ्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्ग लानादत्ते स बन्धः" [८/२] सत्र आया है। द्वितीय सुत्रपाठमें इसके दो रूप मिलते है। प्रथम सूत्रमें "सकषायवाज्जीवः कर्मणो योग्यान्दपुद्गलानादत्ते" [८/२] अंश आया है और दूसरे सूत्रमें "सबन्धः"[८/३] सूत्र आया है। इस प्रकार एक हीसूत्रके दो सूत्र रूप द्वितीय सूत्रपाठमें हो गये हैं। प्रथम सूत्रपाठमें “मति-श्रुतावधि-मनः पर्यय केवलानाम" [८/६] सूत्र आया है। पर द्वितीय सूत्रपाठमें इसका संक्षिप्त रूप "मत्यादोनाम" [८/७] उपलब्ध होता है| आचार्य अकलंकदेवने "मत्यादीनाम्" पाठकी समीक्षा कर प्रथम सूत्रपाठमें आये हुए सूत्रको तर्कसंगत बत्तलाया है। इसी प्रकार प्रथमसूत्रपाठके "दान-लाभ-भोगोपभोग-दोर्याणाम् [८/१३] सूत्रके स्थानपर द्वितीय सूत्रपाठमें "दानादोनाम" [८/१४] संक्षिप्त सूत्र आया है। भाष्यकारने "अन्तरायः पञ्चविधः। तद्यथा-दानस्यान्तरायः लाभस्यान्तरायः, भोगस्यान्तराय उपभोगस्यान्तरायः, वीर्यान्सराय इति" उपर्युक प्रथम सूत्रपाठमें आये हुए अन्तरायके मेदोंका नामोल्लेख किया है। पुण्यप्रकृतियोंका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रोंमें मौलिक अन्तर आया है। प्रथम सूत्रपाठमें पुष्यप्रकृतियोंकी गणना करते हुए लिखा है "सद्धेध-शुभायुनर्नाम-गोत्राणि पुण्यम्" [८/२५] और "अतोऽन्यत् पापम" [८/२६] कहार पापप्रकृसियोंकी मगना को है। द्वित्तीय सूत्रपाठमें पुण्यप्रकृतियोंका कथन करते हुए “सद्धेधसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुष वेदशुमायुनामगोत्राणि पुण्यम्" [८/२६) लिखा है। इस सूत्रके भाष्यमें "अतोऽन्यत् पापम्" कहकर पापप्रकृतियोंकी गणना की है। मूल मुनापार में पत्रकतियोंकी परिगणना करानेवाला कोई सूत्र नहीं आया है।
नवम अध्यायके अनेक सूत्रों में शाब्दिक भेद पाया जाता है। प्रथम सूत्र पाठमें "सामायिक-छेदोपस्थापना-परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यथाख्यातमिति चारित्रम्' [९।१८] सूत्र आया है। द्वितीय सूत्रपाठमें इस सूत्रका रूप प्रारम्भमें ज्यों-का-त्यों है, पर अन्तमें ययाख्यातानि चारित्रम' कर दिया गया है। ध्यान का स्वरूप धतलाते हुए प्रथम सुत्रपाठमें "उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधी ध्यानमान्तमुहूर्तात्" सूत्र आया है। पर द्वितीय सुत्रपाठमें इस सूत्रके दो रूप उपलब्ध होते है। प्रथम सूत्र "उत्तमसहननस्यैकाग्रचिन्ताभिरोधो ध्यानम्" [९।२७] और द्वितीय सूत्र "आ मुहूर्तात" [९/२८] प्राप्त होता है। इस प्रकार एक ही सूत्र दो सत्रों में विभक्त है। धर्मध्यानका कथन करने वाले प्रसंगमें धर्मध्यानके स्वामीको लेकर दोनों सूत्रपाठोंमें मौलिक अन्तर है। प्रथम सूत्रपाठमें धर्मध्यानके प्रतिपादक "आज्ञापाय-विपाक-संस्थानविचयाय धर्म्यंमं" [९/३६] सूत्रके अन्तमें स्वामीका विधायक 'अप्रमत्तसंयत्तस्य' अंश नहीं है। जबकि द्वितीय सूत्रपाठमें है तथा दूसरे सूत्रपाठमें इस सूत्रके बाद जो ''उपशा स्तभीणकषाययोश्च" [९/३८] सूत्र आया है वह भी प्रथम सूत्रपाठमें नहीं है |
दशम अध्यायमें प्रथम सूत्रपाठका "बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्या कुत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः'' [१०/२] सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें 'वन्हत्वभावनिर्जराभ्याम् [१०।२] तथा "कुत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः" इन दो सूत्रोंके रूप में मिलता है। इसी प्रकार प्रथम सूत्रपाठके दशम अध्यायके तृताय-चतुर्थ सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें एक सूत्रके रूपमें संयुक्त मिलते हैं। "ओपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च" [१०/३) सूत्रके स्थानपर "औपशमिकादिभव्यत्वाभावाच्चान्यन केवलसम्यक्त्वज्ञान दर्शनसिद्धत्वेभ्यः" [१०/४] पाठ मिलता है। प्रथम सूत्रपाठके सप्तम और अष्टम सूत्र द्वितीय सूत्रपाठमें नहीं हैं। उनकी पूर्ति भाष्यमें की गयी है।
इस प्रकार दोनों सूत्रपाठोंका समीक्षात्मक अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि गृद्धपिन्छाचार्यके मूल सूत्रपाठमें वाचक उमास्वातिने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य लिखते समय मूल सूत्रपाठमें यत्किञ्चित् अन्तर कर किन्हीं सूत्रोंको छोड़ दिया और कुछ नये सूत्र जोड़ दिये हैं। तत्वार्थाधिगमभाष्यका अध्ययन करनेसे यह भी स्पष्ट होता है कि भाष्यमें जो सूत्रपाठ आये हैं उनमेसे सिद्धसेनगणीकी टीकामें अनेक पाठभेदोंका उल्लेख किया गया है। अत्त: भाष्यसम्मत सूत्रपाठसे सिद्धसेनगणि और हरिभद्रके सूत्रपाठोंमें अन्तर पाया जाता है।
तत्वार्थसूत्रके मङ्गलाचरणके विषयमें पर्याप्त विवाद रहा। कुछ विद्वानोंका मत था कि सर्वार्थसिद्धिकी उत्थानिकामें दिय गये प्रश्नोत्तरको देखते हुए तत्वार्थसूत्रकारने मङ्गलाचरण किये बिना ही तत्वार्थसूत्रकी रचना की है। 'मोक्षमार्गस्य नतारम्’ आदि मङ्गल-पद्यको जो तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण बताया जाता है वह सर्वार्थसिद्धिके आरम्भमें निबद्ध होने तथा सर्वार्थसिद्धि कारकी उसपर व्याख्या उपलब्ध न होनेसे उसीका मङ्गलाचरण है, तत्त्वार्थसूत्रका नहीं। पर इसके विपरीत दूसरे अनेक विद्वानोंका मत है कि सूत्रकारने तत्त्वार्णसूत्रके आरम्भमें मङ्गलाचरण किया है और वह 'मोक्षमार्गस्य नेतारम' आदि श्लोक उसीका मङ्गलाचरण है। सर्वार्थसिद्धी वह मूल सृत हुआ है। तत्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिन्छ परम आस्तिक थे। वे मङ्गलाचरण की प्राचीन परम्पराका उल्लंघन नहीं कर सकते। अतः 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' आदि पद्य उन्हीं द्वारा तत्वार्थसूत्रके आरम्भमें निबद्ध मङ्गलाचरण है। टीकाकार पूज्यपाद-देवनन्दिने उसे अपनी टीका सर्वार्थसिद्धिमें अपना लिया है और इससे उसको उन्होंने व्याख्या भी नहीं की।
डॉक्टर दरबारीलाल कोठियाने 'तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण' शीर्षक दो विस्तृत निबन्धोंमें आचार्य विद्यानन्दके प्रचुर ग्रन्थोल्लेखों एवं अन्य प्रमाणों से सबलताके साथ सिद्ध किया है कि तत्त्वार्थसूत्रके आरम्भ में 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः [१/१] सूत्रसे पहले मङ्गलाचरण किया गया है और वह उक्त महत्त्वपूर्ण मङ्गलश्लोक ही है, जिसे विद्यानन्दने सूत्रकार एवं शास्त्रकार-रचित 'स्तोत्र' प्रकट करते हुए तीर्थोपम', 'प्रचित-मथुपच' और 'स्वामिमोमांसित' बतलाया है। विद्यानन्दके इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि स्वामी समन्तभद्रने इसी मङ्गलश्लोकके व्याख्यानमें अपनी महत्वपूर्ण कृति 'आप्त मीमांसा' लिखो और स्वयं विद्यानन्दने भी उसोके व्याख्यानमें आप्तपरीक्षा रची। सूत्रकार एवं शास्त्रकार पदोंसे विद्यानन्दका अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्रकारसे है, तत्वार्थवृत्तिकारसे नहीं है। सर्वार्थसिद्धिमें उसे अपना मङ्गलाचरण बना लिया गया है और इसी कारण उसकी व्याख्या भी नहीं की गयी।
अत: 'मोक्षमार्गस्प नेतारम्' आदि मङ्गल-पद्म तत्त्वार्थसूत्रका ही आचार्य गृद्धपिन्छ द्वारा रचित मङ्गलाचरण है।
गृद्धपिच्छाचार्यके तत्त्वार्थसूत्रका अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि उन्होंने 'षट्खण्डागम', 'कषायपाहुड', 'कुन्दकुन्द-साहित्य', 'भगवत्ती आराधना' 'मूलाचार' आदि ग्रन्थोंका सम्यक् परिशोलन कर इस सूत्रग्रन्थको रचना की है। द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोगका कोई भी विषय उनसे छूटने नहीं पाया है। आधुनिक विषयोंको दृष्टि से भूगोल, खगोल, आचार, अध्यात्म, द्रव्य, गुण, पर्याय, पदार्थ, सृष्टिविद्या, कर्म-विज्ञान आदि विषय भी चर्चित हैं। आगमके अन्य प्रतिपाद्य पदार्थो का भी प्रतिपादन इस सूत्रग्रन्ध में पाया जाता है। अतएव गृद्धपिन्छाचार्य श्रुतधरपरम्पराके बहुज्ञ आचार्य हैं। अनेक विषयोंको संक्षेपमें प्रस्तुत कर 'गागरमें सागर भर देनेकी कहावत उन्होंन चरितार्थ की है।
शैलीकी दृष्टि से यह अन्य वैशेषिकदर्शनके वैशेषिकसूत्रशैलीमें लिखा गया है। वैशेषिकसूत्रोंमें जहाँ अपने मन्तव्यके समर्थन हेतु तर्क प्रस्तुत किये गये हैं वहाँ तत्त्वार्थसूत्रमें भी सिद्धान्तोंके समर्थनमें तर्क दिये गये हैं।
सूत्रशैलोकी जो विशेषताएँ पहले कही जा चुकी हैं, वे सभी विशेषताएँ इस सूत्रग्रंथमें विद्यमान हैं। यह रचना इतनी सुसम्बद्ध और प्रामाणिक है कि भगवान महावीरकी द्वादशाङ्गवाणीके समान इसे महत्व प्राप्त है। गृद्धपिन्छचार्य स्वसमय और परसमयके निष्णात ज्ञाता थे। उन्होंने दार्शनिक विषयोंकी सूत्रशैलीमें बड़ी स्पष्टताके साथ प्रस्तुत किया है। संस्कृत-भाषामें सूत्रग्रन्थकी रचनाकर इन्होंने जैन परम्परामें नये युगका आरम्भ किया है। ये ऐसे श्रुतधराचार्य हैं, जिन्होंने एक ओर नवोपलब्ध दृष्टि प्राप्तकर परम्परासे प्राप्त तथ्योंको युगानुरूपमें प्रस्तुत किया है तो दूसरी ओर सांस्कृतिक और आगमिक व्यवस्थाके दायित्वका निर्वाह भी भलीभाँति किया है। फलतः इनके पश्चात् संस्कृत भाषामें भी दार्शनिक, सैद्धान्तिक और काव्यादि अन्योंका प्रणयन हुआ।
श्रुतधराचार्यसे अभिप्राय हमारा उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त, साहित्य, कमराहिम, बायाससाहित्यका साथ दिगम्बर आचार्यों के चारित्र और गुणोंका जोबन में निर्वाह करते हुए किया है। यों तो प्रथमानुयोग, करणा नुयोग, चरणानुयोग और ध्यानुयोगका पूर्व परम्पराके भाधारपर प्रन्धरूपमें प्रणयन करनेका कार्य सभी आचार्य करते रहे हैं, पर केवली और श्रुत केवलियोंकी परम्पराको प्राप्त कर जो अंग या पूर्वो के एकदेशशाता आचार्य हुए हैं उनका इतिवृत्त श्रुतधर आचार्यों को परम्पराके अन्तर्गत प्रस्तुत किया जायगा | अतएव इन आचार्यों में गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतवाल, यति वृषम, उच्चारणाचार्य, आयमंक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, गृपिच्छाचार्य और बप्पदेवकी गणना की जा सकती है ।
श्रुतधराचार्य युगसंस्थापक और युगान्तरकारी आचार्य है। इन्होंने प्रतिभाके कोण होनेपर नष्ट होतो हुई श्रुतपरम्पराको मूर्त रूप देनेका कार्य किया है। यदि श्रतधर आचार्य इस प्रकारका प्रयास नहीं करते तो आज जो जिनवाणी अवशिष्ट है, वह दिखलायी नहीं पड़ती। श्रुतधराचार्य दिगम्बर आचार्यों के मूलगुण और उत्तरगुणों से युक्त थे और परम्पराको जीवित रखनेको दृष्टिसे वे ग्रन्थ-प्रणयनमें संलग्न रहते थे 1 श्रुतकी यह परम्परा अर्थश्रुत और द्रव्यश्रुतके रूपमें ई. सन् पूर्वकी शताब्दियोंसे आरम्भ होकर ई. सनकी चतुर्थ पंचम शताब्दी तक चलती रही है ।अतएव श्रुतघर परम्परामें कर्मसिद्धान्त, लोका. नुयोग एवं सूत्र रूपमें ऐसा निबद साहित्य, जिसपर उत्तरकालमें टीकाएँ, विव त्तियाँ एवं भाष्य लिखे गये हैं, का निरूपण समाविष्ट रहेगा।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara_2.
Acharya Shri Grudhpichacharya Maharajji (Prachin- 2nd Century)
Acharya Shri Grudhpichacharya Maharaj Ji
#grudhpichacharyajimaharaj
15000
#grudhpichacharyajimaharaj
grudhpichacharyajimaharaj