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#kumarnandijimaharaj
सारस्वसाचार्यों मे इनका नाम आता है। आज कुमारनन्दिकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है। पर उनके तथा उनके ग्रन्थके उल्लेख कई स्थानोंपर प्राप्त होते हैं। आचार्य विद्यानन्दने अपने ग्रंथ प्रमाण-परीक्षा, पत्र-परीक्षा और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें कुमारनन्दिका उल्लेख किया है। प्रमाण-परीक्षामें लिखा है-
तथा चाभ्यधायि कुमारनन्दिभट्टारकै:
अन्यथानुपपत्त्येकलक्षण लिङ्गमंग्यते।
प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः।।
पत्रपरीक्षामें कुमारनन्दि और उनके 'वदन्याय' ग्रन्थ दोनोंका भी उल्लेख प्राप्त होता है। लिखा है-
तथैव हि कुमारनन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याये निगदितत्वात्।
तदाह-
प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा।
प्रतिज्ञा प्रोच्यते तज्झैस्तथोदाहरणादिकम।।
अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते।
प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें भी उनके वदन्यायका निर्देश आया है-
कुमारनन्दिनश्चाहुदिन्यायविचक्षणाः।
आचार्य विद्यानन्दके उक्त उद्धरणोंसे प्रकट है कि कुमारनन्दि विद्यानन्दके पूर्ववर्ती आचार्य हैं। इन्होंने वादन्यायका प्रणयन किया था, जिसकी कतिपय कारिकाएँ विद्यानन्दके अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत की हैं।
नागमंगल ताम्रपत्र में भी कुमारनन्दिका उल्लेख आया है, जो श्रीपुरके जिनालयके लिए शक सं. ६९८ (वि. सं. ८३३) में लिखा गया है। इसमें चंद्रनंदिके शिष्म कुमारनन्दि, कुमारनन्दिके शिष्य कीर्तिनन्दि और कीर्तिनन्दिके शिष्य विमलचन्द्रका उल्लेख है। अतएव नागमंगल ताम्रपत्रमें उल्लिखित कुमारनन्दि यदि प्रस्तुत कुमारनन्दि ही हैं, तो इनका समय वि. सं. की ८ वीं शताब्दी होना चाहिये। ताम्रपत्रकी पंक्तियाँ निम्नप्रकार है-
"अष्टानवत्युत्तरे षट्छतेषु शकवर्षेष्वतोतेष्वास्मानः प्रवर्द्धमान-विजयवीर्य संवत्सरे पंचशसमे प्रवर्त्तमाने मान्यपुरमधिवसत्ति विजयस्कंदावारे श्रीमूलमूलशर्णाभिनंदितनन्दिसंघान्वय एरेगित्तुन्नाम्नि गणे मूलिकल्गच्छे स्वच्छतरगुणिकिरग्रंथ सति-प्रल्हानिरास चंद्रे चन्द्रनन्दिनामगुरुरासीत्। तस्य शिष्यस्समस्तविबुधलोकपरिरक्षण-क्षमात्मशक्तिः परमेश्वरलालनीयमहिमा कुमारवद्विति (ने) यः कुमारनन्दिनाममुनिपतिरभवत्। तस्यान्तेवासि समधिगत सकलतत्वार्थ-समर्पित-बुधसार्ध-नसम्पत्सम्पादितकीर्तिः कीर्तिनन्द्याचार्यों नाम महामुनिस्समजनि तस्य प्रियविषय: शिष्यजनकमलाकर-प्रबोधनक; मिथ्याज्ञान संततसनुतस्वसन्मानान्तक-सद्धर्म-व्योमावभासनभास्करः विमलचन्द्राचार्यस्स मुदपादि। तस्य महर्षेधर्मोपदेशनया___।"
इस ताम्रपत्रमें कुमारनन्दिको समस्त विद्धल्लोकका परिरक्षक और मुनिपति कहा है। इससे सम्भावना है कि विद्यानन्द द्वारा उल्लिखित और वादन्यायके कर्ता तार्किक कुमारनन्दिका ही इसमें गुणकीर्तन है। जो हो, इतना स्पष्ट है कि आचार्य कुमारनन्दि एक प्रभावशाली तार्किक एवं 'वादन्यायविचक्षण' ग्रन्थकार थे।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
सारस्वसाचार्यों मे इनका नाम आता है। आज कुमारनन्दिकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है। पर उनके तथा उनके ग्रन्थके उल्लेख कई स्थानोंपर प्राप्त होते हैं। आचार्य विद्यानन्दने अपने ग्रंथ प्रमाण-परीक्षा, पत्र-परीक्षा और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें कुमारनन्दिका उल्लेख किया है। प्रमाण-परीक्षामें लिखा है-
तथा चाभ्यधायि कुमारनन्दिभट्टारकै:
अन्यथानुपपत्त्येकलक्षण लिङ्गमंग्यते।
प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः।।
पत्रपरीक्षामें कुमारनन्दि और उनके 'वदन्याय' ग्रन्थ दोनोंका भी उल्लेख प्राप्त होता है। लिखा है-
तथैव हि कुमारनन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याये निगदितत्वात्।
तदाह-
प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा।
प्रतिज्ञा प्रोच्यते तज्झैस्तथोदाहरणादिकम।।
अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते।
प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें भी उनके वदन्यायका निर्देश आया है-
कुमारनन्दिनश्चाहुदिन्यायविचक्षणाः।
आचार्य विद्यानन्दके उक्त उद्धरणोंसे प्रकट है कि कुमारनन्दि विद्यानन्दके पूर्ववर्ती आचार्य हैं। इन्होंने वादन्यायका प्रणयन किया था, जिसकी कतिपय कारिकाएँ विद्यानन्दके अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत की हैं।
नागमंगल ताम्रपत्र में भी कुमारनन्दिका उल्लेख आया है, जो श्रीपुरके जिनालयके लिए शक सं. ६९८ (वि. सं. ८३३) में लिखा गया है। इसमें चंद्रनंदिके शिष्म कुमारनन्दि, कुमारनन्दिके शिष्य कीर्तिनन्दि और कीर्तिनन्दिके शिष्य विमलचन्द्रका उल्लेख है। अतएव नागमंगल ताम्रपत्रमें उल्लिखित कुमारनन्दि यदि प्रस्तुत कुमारनन्दि ही हैं, तो इनका समय वि. सं. की ८ वीं शताब्दी होना चाहिये। ताम्रपत्रकी पंक्तियाँ निम्नप्रकार है-
"अष्टानवत्युत्तरे षट्छतेषु शकवर्षेष्वतोतेष्वास्मानः प्रवर्द्धमान-विजयवीर्य संवत्सरे पंचशसमे प्रवर्त्तमाने मान्यपुरमधिवसत्ति विजयस्कंदावारे श्रीमूलमूलशर्णाभिनंदितनन्दिसंघान्वय एरेगित्तुन्नाम्नि गणे मूलिकल्गच्छे स्वच्छतरगुणिकिरग्रंथ सति-प्रल्हानिरास चंद्रे चन्द्रनन्दिनामगुरुरासीत्। तस्य शिष्यस्समस्तविबुधलोकपरिरक्षण-क्षमात्मशक्तिः परमेश्वरलालनीयमहिमा कुमारवद्विति (ने) यः कुमारनन्दिनाममुनिपतिरभवत्। तस्यान्तेवासि समधिगत सकलतत्वार्थ-समर्पित-बुधसार्ध-नसम्पत्सम्पादितकीर्तिः कीर्तिनन्द्याचार्यों नाम महामुनिस्समजनि तस्य प्रियविषय: शिष्यजनकमलाकर-प्रबोधनक; मिथ्याज्ञान संततसनुतस्वसन्मानान्तक-सद्धर्म-व्योमावभासनभास्करः विमलचन्द्राचार्यस्स मुदपादि। तस्य महर्षेधर्मोपदेशनया___।"
इस ताम्रपत्रमें कुमारनन्दिको समस्त विद्धल्लोकका परिरक्षक और मुनिपति कहा है। इससे सम्भावना है कि विद्यानन्द द्वारा उल्लिखित और वादन्यायके कर्ता तार्किक कुमारनन्दिका ही इसमें गुणकीर्तन है। जो हो, इतना स्पष्ट है कि आचार्य कुमारनन्दि एक प्रभावशाली तार्किक एवं 'वादन्यायविचक्षण' ग्रन्थकार थे।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
#kumarnandijimaharaj
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री कुमारनंदी (प्राचीन)
सारस्वसाचार्यों मे इनका नाम आता है। आज कुमारनन्दिकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है। पर उनके तथा उनके ग्रन्थके उल्लेख कई स्थानोंपर प्राप्त होते हैं। आचार्य विद्यानन्दने अपने ग्रंथ प्रमाण-परीक्षा, पत्र-परीक्षा और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें कुमारनन्दिका उल्लेख किया है। प्रमाण-परीक्षामें लिखा है-
तथा चाभ्यधायि कुमारनन्दिभट्टारकै:
अन्यथानुपपत्त्येकलक्षण लिङ्गमंग्यते।
प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः।।
पत्रपरीक्षामें कुमारनन्दि और उनके 'वदन्याय' ग्रन्थ दोनोंका भी उल्लेख प्राप्त होता है। लिखा है-
तथैव हि कुमारनन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याये निगदितत्वात्।
तदाह-
प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा।
प्रतिज्ञा प्रोच्यते तज्झैस्तथोदाहरणादिकम।।
अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिंगमंग्यते।
प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें भी उनके वदन्यायका निर्देश आया है-
कुमारनन्दिनश्चाहुदिन्यायविचक्षणाः।
आचार्य विद्यानन्दके उक्त उद्धरणोंसे प्रकट है कि कुमारनन्दि विद्यानन्दके पूर्ववर्ती आचार्य हैं। इन्होंने वादन्यायका प्रणयन किया था, जिसकी कतिपय कारिकाएँ विद्यानन्दके अपने ग्रन्थोंमें उद्धृत की हैं।
नागमंगल ताम्रपत्र में भी कुमारनन्दिका उल्लेख आया है, जो श्रीपुरके जिनालयके लिए शक सं. ६९८ (वि. सं. ८३३) में लिखा गया है। इसमें चंद्रनंदिके शिष्म कुमारनन्दि, कुमारनन्दिके शिष्य कीर्तिनन्दि और कीर्तिनन्दिके शिष्य विमलचन्द्रका उल्लेख है। अतएव नागमंगल ताम्रपत्रमें उल्लिखित कुमारनन्दि यदि प्रस्तुत कुमारनन्दि ही हैं, तो इनका समय वि. सं. की ८ वीं शताब्दी होना चाहिये। ताम्रपत्रकी पंक्तियाँ निम्नप्रकार है-
"अष्टानवत्युत्तरे षट्छतेषु शकवर्षेष्वतोतेष्वास्मानः प्रवर्द्धमान-विजयवीर्य संवत्सरे पंचशसमे प्रवर्त्तमाने मान्यपुरमधिवसत्ति विजयस्कंदावारे श्रीमूलमूलशर्णाभिनंदितनन्दिसंघान्वय एरेगित्तुन्नाम्नि गणे मूलिकल्गच्छे स्वच्छतरगुणिकिरग्रंथ सति-प्रल्हानिरास चंद्रे चन्द्रनन्दिनामगुरुरासीत्। तस्य शिष्यस्समस्तविबुधलोकपरिरक्षण-क्षमात्मशक्तिः परमेश्वरलालनीयमहिमा कुमारवद्विति (ने) यः कुमारनन्दिनाममुनिपतिरभवत्। तस्यान्तेवासि समधिगत सकलतत्वार्थ-समर्पित-बुधसार्ध-नसम्पत्सम्पादितकीर्तिः कीर्तिनन्द्याचार्यों नाम महामुनिस्समजनि तस्य प्रियविषय: शिष्यजनकमलाकर-प्रबोधनक; मिथ्याज्ञान संततसनुतस्वसन्मानान्तक-सद्धर्म-व्योमावभासनभास्करः विमलचन्द्राचार्यस्स मुदपादि। तस्य महर्षेधर्मोपदेशनया___।"
इस ताम्रपत्रमें कुमारनन्दिको समस्त विद्धल्लोकका परिरक्षक और मुनिपति कहा है। इससे सम्भावना है कि विद्यानन्द द्वारा उल्लिखित और वादन्यायके कर्ता तार्किक कुमारनन्दिका ही इसमें गुणकीर्तन है। जो हो, इतना स्पष्ट है कि आचार्य कुमारनन्दि एक प्रभावशाली तार्किक एवं 'वादन्यायविचक्षण' ग्रन्थकार थे।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
Dr. Nemichandra Shastri's (Jyotishacharya) book Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara- 2
Acharya Shri Kumarnandi (Prachin)
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