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रविषेणाचार्य ऐसे कलाकार कवि हैं, जिन्होंने संस्कृतमें लोकप्रिय पौराणिक चरितकाव्यका ग्रथन किया है। पौराणिक चरितकाव्य- रचयिताके रूपमें रविषेणका सारस्वताचार्यों में महत्वपूर्ण स्थान है।
आचार्य रविषेण किस संघ या गण-गच्छके थे, इसका उल्लेख उनके ग्रन्थ 'पद्मचरित' में उपलब्ध नहीं होता। सेनान्त नाम ही इस बातका सूचक प्रतीत होता है कि ये सेनसंघके आचार्य थे। पद्मचरितमे निर्दिष्ट गुरूपरम्परा से अवगत होता है कि इन्द्रसेनके शिष्य दिवाकरसेन थे और दिवाकरसेन के शिष्य अर्हतसेन। इन अर्हतसेनके शिष्य लक्ष्मणसेन हुए और लक्ष्मणसेनके शिष्य रविषेण। यथा-
ज्ञाताशेषकृतान्तसन्मुनिमनःसोपानपर्वावली
पारम्पर्यसमाधितं सुवचनं सारार्थमत्यद्भुतम्।
आसीदिन्द्रगुरोदिवाकरत्तिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनि
स्तस्माल्लक्ष्मणसेनसन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम्।।
सम्यग्दर्शनशुद्धिकारणगुरुश्रेयस्करं पुष्कलं
विस्पष्ट परमं पुराणममलं श्रीमत्प्रबोधिप्रदम्।
रामस्याद्भुविक्रमस्य सुकृतो माहात्म्यसङ्कीर्तन
श्रोतव्यं सततं विचक्षणजनैरात्मोपकारार्थीभि:॥
अर्थात् यह पद्मचरित समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता उत्तम मुनियोंके मनकी सोपान-परम्पराके समान नागा क्योंकी परम्परा से युक्त है, सुमाशीसोस परीपूर्ण है, सारपूर्ण है तथा अत्यन्त आश्चर्यकारी है। इन्द्रगुरुके शिष्य श्रीदिवाकर यति थे। उनके शिष्य अर्हयति हुए। उनके शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि थे और उनका शिष्य में रविषेण हूँ।
मेरे द्वारा रचित यह 'पद्मचरित' सम्यग्दर्शनको शुद्धताके कारणोंसे श्रेष्ठ है, कल्याणकारी है, विस्तृत है, अत्यन्त स्पष्ट है, उत्कृष्ट है, निर्मल है, श्रीसम्पन्न है, रत्नत्रयरूप बोधिका दायक है, तथा अद्भुत पराक्रमी पुण्यस्वरूप श्रीराम के माहात्म्यका उत्तम कीर्तन करनेवाला है, ऐसा यह पुराण आत्मोपकारके इच्छुक विद्वज्जनोंके द्वारा निरन्तर श्रवण करने योग्य है।
उपर्युक्त पद्योंसे रविषेणकी गुरु-परम्पराका परिज्ञान तो हो जाता है, पर जनके जन्मस्थान, बाल्पकाल, विवाहित जीवन आदिके सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी नहीं हो पाती।
रविषेणने पद्मचरितके ४२वे पर्वमें जिन वृक्षोंका वर्णन किया है वे वृक्ष दक्षिण भारतमें पाये जाते हैं। कविका भौगोलिक ज्ञान भी दक्षिण भारतका जितना स्पष्ट और अधिक है उत्तना अन्य भारतीय प्रदेशोंका नहीं। अतएव कविका जन्मस्थान दक्षिण भारतका भूभाग होना चाहिए।
आचार्य रविषेणके समय-निर्धारणमें विशेष कठिनाई नहीं है, क्योंकि रविषेणने स्वयं अपने पद्मचरितकी समाप्तिके समयका निर्देश किया है-
द्विशताभ्यधिके समासहस्रं समतीतेऽद्धचतुर्थवर्षयुक्ते।
जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धेश्चरितं पञ्चमुनेरिदं निबद्धम्।।
जिनसूर्य- भगवान् महावीरके निर्वाण प्राप्त करने के १२०३ वर्ष छ: माह बीत जानेपर पद्ममुनिका यह चरित निबद्ध किया। इस प्रकार इसकी रचना वि. सं. ७३४ (ई. सन् ६७७) में पूर्ण हुई है। वीर निर्वाण सं. कार्तिक कृष्णा ३० वि. सं. ४६९ पूर्वसे ही भगवान महावीरके मोक्ष जानेकी परम्परा प्रचलित है। इस तरह छ: मासका समय और जोड़ देने पर वैशाख शुक्ल पक्ष वि. सं. ७३४ रचना-तिथि आती है।
रविषेणव स्वयंके उल्लेखोंके अतिरिक्त समकालीन और उत्तरवर्ती आचार्याक निर्देश भी रांवषेणके समयपर प्रकाश पड़ता है।
इनके उत्तरवर्ती उद्योतनसूरिने अपनी कुवलयमालामें रविषेणको पद्मचरितके कर्ताके रूपमें स्मरण किया है। उद्योतनसुरिका समय ई. सन् ७७८ (वि. सं. ८३५) है। प्रतीत होता है कि रविषेणको ख्याति १०० वर्षों में ही पर्याप्त विस्तृत हो चुको थी। उद्योतनसूरिने लिखा है-
जेहि कए रमणिज्जे वरंग-पउमाणरिय वित्थारे।
कहव ण सलाहणिज्जे ते फइणो जडिय-रविसेणे।
जिन्होंने रमणीय एवं विस्तृत वरांगचरित और पद्मचरित लिखे, वे जडित तथा रविषेण कवि कैसे श्लाव्य नहीं, अपितु श्लाव्य हैं। हरिवंशपुराणके रचयिता प्रथम जिनसेनने भी रविषेणका पद्मचरितके कर्ताके रूपमें स्मरण किया है-
कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवर्त्तिता।
मूर्त्तिः काव्यमयी लोके रवेरिव रवै: प्रिया||
आचार्य रविषेणकी काव्यमयी मूर्ति सूर्यकी मूर्तिके समान लोकमें अत्यन्त प्रिय है। यतः सूर्य जिस प्रकार कमलोंको विकसित करता है उसी प्रकार रविषेणने पद्म- रामकेचरितको विस्तृत किया है। आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराण की रचना वि. सं. ८४०में की है। इससे स्पष्ट है कि रविषेण वि. सं. ८४० से पूर्ववर्ती हैं और यशस्वी कवि हैं। अतः बहिःसाक्ष्य भी रविषेणद्वारा स्वयं सूचित समयके साधक है।
पद्मचरितमें पुराण और काव्य इन दोनों के लक्षण सम्मिलित हैं। विमल सूरिकृत प्राकृत पउमचरियमका आधार रहनेपर भी इसमें मौलिकत्ताकी कमी नहीं है। कथानक और विषयवस्तुमें पर्याप्त परिवर्तन किया है। वस्तुतः इस ग्रन्थका प्रणयन उस समय हुआ है जब संस्कृतमें चरित-काव्योंकी परम्पराका पूर्ण विकास नहीं हुआ था। इसमें बन, नदी, पर्वत, ग्राम, ऋतु वर्णन, संध्या, सूर्योदय आदिका चित्रण महाकाव्यके समान ही किया गया है। कथाका आयाम पर्याप्त विस्तृत है। पद्म- रामके कई जन्मोंकी कथा तथा उनके परिकर में निवास करनेवाले सुग्रीव, विभीषण, हनुमानकी जीवन-व्यापी कथा भी इस चरित काव्य में सम्बद्ध है। कतिपय पात्रोंके जीवन-आख्यान तो इतने विस्तृत आये हैं, जिससे उन्हें स्वतंत्र काव्य या पुराण से कहा जा सकता है।
आधिकारिक कथावस्तु मुनि रामचन्द्रजीकी है और अवान्तर या प्रासंगिक कथाएँ वानर-वंश या विद्याधर-वंशके आख्यानके रूपमें आयीं हैं। इन दोनों वंशोंका कविने बहुत विस्तृत वर्णन किया है। यही कारण है कि चरितकाव्यके समस्त गुण इस ग्रन्थमें समाविष्ट हैं। अंगीरूपमें शान्त रसका परिपाक हुआ है। शृंगारके संयोग और वियोग दोनों ही पक्ष सीता-अपहरण एवं राम-विवाह के अनन्तर घटित हुए हैं। करुण-रसके चित्रण में अभूतपूर्व सफलता मिली हैं। युद्ध में भाई-बंधुओंके काम आनेपर कुटुम्बियोंके विलाप पाषाणहृदयको भी द्रवीभूत करने में समर्थ हैं। वर्णनोंके चित्रणमें कविको पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। नर्मदाका रमणीय दृश्य अनेक उत्प्रेक्षाओं द्वारा चित्रित हुआ है। नर्मदा मधुरशब्द करनेवाले नानापक्षियोंके समूहके साथ वार्तालाप करती हुई-सी प्रतीत होती है। फेनके समूहसे वह हँसती हुई-सी मालूम पड़ती है। तरंग रूपी भृकुटीके विलासके कारण वह क्रुद्ध होता हुई नायिका-सी, आवर्तरूपी बुंदबुदोंसे युक्त नायिकाकी नाभि जैसी, विशाल तटोंसे युक्त स्थूल नितम्ब जैसी एवं निर्मल जल-वस्त्र जैसे प्रतीत होते थे।
इस ग्रन्थमें १२३ पर्व हैं। इसे छह खण्डों में विभक्त किया जा सकता है-
१. विद्याधरकाण्ड
२. जन्म और विवाहकाण्ड
३. वन-भ्रमण
४. सीता-हरण और उसका अन्वेषण
५. युद्ध
६. उत्तरचरित
भगवान महावीरके प्रथम गणधर गौतमस्वामीको नमस्कार कर, उनसे रामकथा जानने की इच्छा प्रकट करनेपर, गौतमस्वामीने यह रामकथा कही है।
कथारम्भमें १. विद्याधरलोक २. राक्षसवंश ३. वानरवंश ४. सोमवंश ५. सूर्यवंश और ६, इक्ष्वाकुवंशके वर्णनके पश्चात् कथास्रोत सरिताको वेगवती धाराके समान आगे बढ़ता है।
रावणका जन्म (७-८ पर्व)- राक्षसवंशी राजा रत्नश्रवा तथा महारानी केकसीको रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण नामक तीन पुत्र एवं चन्द्रनखा नामक पुत्रीका लाभ हुआ। ये चारों सन्तान पैदा होते ही अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार अपनी-अपनी महत्ताका संकेत देने लगीं। रत्नश्रवाने जन्म के समय ही रावणको दिव्यहारसे युक्त एवं मौलिक मालामें प्रतिबिम्बित, उसके एक ही सिरके दश प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़नेके कारण उसका नाम दशानन रखा। विद्यासिद्धि (८ वा पर्व) अपने मौसेरे भाई इन्द्रकी विभूतिका श्रवण कर उसे परास्त करने का लक्ष्य रखकर वे तीनों भाई विद्यासिद्धि हेतु घनघोर तपश्चरण करने लगे। अन्त में अपनी दृढ़ता एवं एकाग्रता और निर्मोहिता एव निर्भीकताके कारण उन तीनों भाइयोंने अनेक विद्याओंको सिद्ध कर लिया। अपनी सफलताका प्रारम्भिक चरण मान वे तीनों भाई दिग्विजयकी तैयारी करने लगे।
दक्षिण विजय (९-११ पर्व)- रथनपुरका राजा इन्द्र अत्यन्त शक्तिशाली था। अतः उसे परास्त करनेके उद्देश्य से इन्होंने आक्रमणकी तैयारी की। रावण ने अपनी वीरता और कुशलतासे इन्द्रके सहायक यम, वरुण आदिको तो पहल ही परास्त कर दिया था। अब उसकी दृष्टि इन्द्रपर ही था। इन्द्र मानव होते हुए भी अपने लिये इन्द्र ही समझ रहा था। इसी कारण उसने प्रान्तीय शासकोंको यम, वरुण, सोम आदि संज्ञाओसे अभिहित किया था। उसने कारागारको नरकसंज्ञा और अर्थमंत्रीकी कुबेरसंज्ञा अभिहित की थी। रावण ने समस्त साधनपूर्ण सेना लेकर किष्किन्धापुर के राजा बलिको अपमानित किया और उसके साधुभाई सुग्रीवको अपना मित्र बनाया।
रथनूपुरके चारों ओर मायामयी परकोटा बना हुआ था। उसकी रक्षा अनेक विद्याधरोंके साथ मलकुवर करता था। यह परकोटा अभेद्य था। इसके भंदनका परिज्ञान नलकूवरको पस्नाका ज्ञात था और यह नारी रावणके रूपको देखते ही माहित हो गया। रावणने झूठा आश्वासन देकर परकोटाभेदनका उपाय ज्ञात कर लिया और अन्त में विजयके पश्चात् नलकूवरको वहाका राजा नियुक्त कर उसकी पत्नी को मां शब्दरो सम्बोधित कर एवं पतिव्रता बने रहनका उपदेश दें, वहाँस आग बढ़ा। अनेक प्रकारसे युद्ध होनेके पश्चात इन्द्र अपने मंत्रिमंडल सहित बंदी बना लिया गया, पर उसके पिता सहस्रशूरके अनुरोध पर रावणने उसे मुक्त किया और अपनी महत्ताका उदाहरण प्रस्तुत किया।
हनुमान-जन्म (१५-१८ पर्व)
आदित्यपुरके राजा प्रहलाद के पुत्र पवनञ्जयका विवाह राजा महेन्द्रकी पुत्री अंजनासे हुआ। पवनज्जय उसकी सुन्दरतासे आकृष्ट होनेपर भी, अंजनाकी एक सखी द्वारा अपनो निन्दा सुनकर वह अंजनासे रुष्ट हो गया और विवाह हो जानेपर उसने अंजनाका परित्याग कर दिया। जब पवनज्जय रावणको किसी युद्ध में सहायता देने के लिये जा रहा था, तो उसका शिविर एक नदीके तट पर स्थित हया। यहाँ चकवाके वियोग में एक चकवीको विलाप करते देख, उसे अंजनाकी स्मृति ही आयी और अपने कीये कार्यों पर पश्चात्ताप करने लगा। वह सेनाको वहीं छोड़ रात्रिमें ही अंजना के पास चला आया। प्रथम मिलनके फलस्वरूप अंजना गर्भवती हुई। पवनज्जय प्रभात होने के पूर्व ही बिना किसी से कहे-सुने अंजनाके भवनसे चला गया। अंजनाकी सास तथा अन्य परिवारके व्यक्तियोंने जब उसमें गर्भवतीके चिह्न देखे, तो परिवारके अपवादके भयसे उन्होंने अंजनाको घरसे बाहर निकाल दिया। वह दर-दर भटकती हुई एक निर्जन वन पहुंची। यहाँ उसने एक पुत्रको जन्म दिया। इसी समय आकाश मार्गसे राजा प्रतिसूर्य जा रहा था। उसने जब एक नारीका करुण चीत्कार सुना, तो उसका हृदय पिघाल गया और नीचे आकर परिचय जानना चाहा। इस परिचय के क्रममें जब उसे यह मालम हुआ कि यह उसकी भांजी है, तो उसे अपार हर्ष हुआ और उसे पुत्रसहित लेकर अपने घर हनुरुह द्वीपमें चला आया। मार्गमें चलते हुए हनुमान जगन बाल्य-चांचल्यके कारण विमानसे नीचे गिर पड़े, पर हनुमानको चाट न लगी और जिस शिला पर वे गिरे थे वह शिला चूर-चूर हो गयी। हनुरुह द्वीपमें बालकके संस्कार सम्पन्न किय गये। इसी कारण इसका नाम हनुमान रखा गया।
युद्धमें विजय प्राप्त करने के पश्चात् पवनञ्जय घर वापस लौटा, पर अंजनाको न पाकर तथा उसकी अपवादकी ज्ञातकर उसे अपार वेदना हई। फलतः वह घर छोड़कर चनकी खाक छानने चल दिया। वह वन-वन भटकता हुआ, वृक्ष और लताओसे अंजनाका पता पूछता हुआ उन्मत्तकी तरह भ्रमण करने लगा। कुछ समय पश्चात वह भ्रमण करता हुआ हनुरुह द्वीप पहुंचा और वहाँ अपनी पत्नी और पुत्रको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ तथा सभीके साथ आदित्यपुर लौट आया।
चन्द्रनखाका विवाह खरदूषण नामक राक्षसके साथ हुआ और इस दम्पत्तिके शबूक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
राजा दशरथका जन्म (१९-२१ पर्व)- इश्वाकुवंशमें अयोध्याके राजा अजके यहाँ दशरथका जन्म हुआ। दशरथका जन्म उत्तम नक्षत्र और उत्तम मुहूर्तमें हुआ। फलस्वरूप यह जन्मसे ही वीर, प्रतापी और यशस्वी भी। इनकी तीन रानियों थीं।
(क) दर्पपुरके राजाकी पुत्री अपराजिता या कौशल्या
(ख) पनपत्र नगरके राणी निलबंधूकी सुमित्रा
(ग) रत्नपुरके राजाको पुत्री सुप्रभा
एक दिन रावणको किसीसे विदित हुआ कि उसकी मृत्यु राजा जनक और दशरथकी सन्तानोंके द्वारा होगी। अतः रावण ने अपने भाई विभीषणको मिथिलानरेश जनक और अयोध्यानरेश दशरथको मारने के लिए भेजा, पर विभीषणके आनेके पूर्व ही नारदने उन दोनोंको सचेत कर दिया था। जिससे वे दोनों अपने-अपने भवनोंमें अपने अपने अनुरूप कृत्रिम मूर्ति छोड़कर बाहर निकल गये। विभीषणने इन पूसलोंको ही संचमुचका जनक और दशरथ समझा और उन्हींका मस्तक काटकर समुद्र में गिरा दिया तथा वापस लोटकर लंकामें वैभवपूर्वक राज्य करने लगा।
राजा दशरथकीविजय एवं कैकेयोसे परिणय (२१-२५ पर्व)- भ्रमण करते हुए राजा दशरथ अनेक सामन्तोंके साथ केकय देश पहुँचे और वहाँकी राजपुत्री कैकेयीको स्वयम्वरमें जीत लिया। स्वयंवरमें समागत राजाओंने इन्हें अज्ञातकुलशील समझकर इनका युद्ध करनेका निमन्त्रण दिया। दशरथने रणभूमिमें उतरकर वीरतापूर्वक युद्ध किया और कैकेयांने उनके रथका संचालन किया। जिससे महाराज दशरथ बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कैकेयांसे वर मांगनेको कहा। समय पाकर चारों रानियोंको चार पुत्र उत्पन्न हुए। कौशल्याने राम, सुमित्राने लक्ष्मण, कैकेयोने भरत और सुप्रभाने शत्रघ्नको जन्म दिया।
सीताका जन्म (२६-३० पर्च)- राजा जनकके यहाँ सीता नामक पुत्री और भामण्डल नामक पुत्रने जन्म लिया। पूर्वजन्मकी शत्रुताके कारण किसी विद्याधरकुमारने भामण्डलका अपहरण किया और उसे वनमें छोड़ दिया। इस कुमारका लालन-पालन चन्द्रगति नामक विद्याधरने किया। नारद किसी कारणवश सीतासे रुष्ट हो गये और उसका एक सुन्दर चित्रपट तैयार कर भामण्डलको भेंट किया। भामण्डल सीताके सुन्दर रूपको देखते ही आसक्त हो गया और विद्याधरों सहित मिथिला पर आक्रमण कर दिया, पर मनोहर नगर और वाटिकाको देखते ही उसे आतिस्मरण हो गया और उसे यह ज्ञात हो गया कि सीता उसकी सहोदरा है। अतएव उसने जनकके समक्ष अपना परिचय प्रस्तुत किया तथा उन्हें सीताका स्वयम्वर करनेका परामर्श दिया। स्वयम्वरमें बज्जावर्त धनुषको बढ़ानेकी शर्त रखी गयी। अन्य राजाओंके असमर्थ रहने पर रामने इस धनुषको चढ़ाया और सीताके साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ।
रामके बड़े होने पर दशरथको संसारसे विरक्ति हो गयी और वे रामको राजा बनाकर स्वयं मुनिदीक्षा ग्रहण करनेकी तैयारी करने लगे। जब कैकेयीको यह समाचार ज्ञात हुआ, तो उसने अपने सुरक्षित वरको मांग लिया, जिसके अनुसार भरतको अयोध्याका राज्य और रामको वनवास दिया गया।
३. वनभ्रमण
(क) रामका वनवास (४१ वां पर्व)- राम लक्ष्मण और सीताके साथ दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये। मार्ग में कितने हो प्रस्त राजाओंका अभय नद्वारा उद्धार किया। कैकेयी और भरत वनमें जाकर रामको लोट आनेका अनुरोध करने लगे, पर पिताकी इच्छाके विरुद्ध कार्य करना रामने स्वीकार नहीं किया।
(ख) युद्धोंका वर्णन (४२वां पर्व)- राम-लक्ष्मणने यहाँ पर अनेक शत्रुओं, धर्मविरोधियों, पापियों और अन्यायो अत्याचारियोंको सही मार्ग पर न अनेके कारण यमलोक भेज दिया। राजा वच्चकर्णको सिहोदरके चक्रसे बचाया, वाल्याविल्यको म्लेच्छके कारागारसे मुक्त किया एव भरतका विरोध करनेवाले अतिवीर्यका नर्तकीका चेशधारण कर लक्ष्मणने उसका मान खण्डित किया। लक्ष्मणका अनेक राजकुमारियोंके साथ विवाह हुआ। दण्डकबनमें निवास करते हुए 'राम-लक्ष्मणने मुनिको आहारदान दिया और जटायु नामक वृद्ध तपस्वीसे सम्पर्क स्थापित किया।
(ग) शम्बूकमरण एवं खरदूषणसे युद्ध (४३-४४ पर्व)- सूर्यहास नामक तलवारको पाने हेतु खरदूषणका पुत्र शम्बूक तपस्या कर रहा था, किन्तु भ्रमवश बाँसोंके भिड़ेमें छिपे हुए शम्बुकका लक्ष्मण द्वारा अस्त्रपरीक्षासे मरण हो गया। विलाप करती हुई उसकी माता चन्द्रनखा लक्ष्मणके रूपसे मोहित होकर कामतृप्तिकी भिक्षा माँगने लगी, किन्तु उसमें असफलता देख, पतिसे लक्ष्मणपर बलात्कारका दोषारोपण कर युद्ध करने का अनुरोध किया। दोनों पक्षोंमें भयंकर युद्ध हुआ, खरदूषण आदि अनेक राक्षस यमपुरी पहुंचा दिये गये।
४. सीताहरण और अन्वेषन (४५-५५ पर्व)- अपने बहनोईको सहायता करनेके हेतु आया हुआ रावण सीताके अनिन्द्य लावण्यको देखकर मोहित हो गया। उस समय राम-लक्ष्मण बाहर गये हए थे। अतः बलात् उसका अपहरण कर, अपने पुष्पक विमानमें बैठाकर लंकाकी ओर चल दिया। मार्गमें जटायु एवं रत्नजटो नामक विद्याधरोंस युद्ध करना पड़ा, पर इस युद्ध में रावणकी ही विजय रही।
राम जब युद्ध समाप्त कर वापस लौटे, तो कुटियाको सोत्तासे शन्य देखकर विलाप करने लगे। रामने अपने कार्यके सिद्धयर्थ वानरवंशी राजा सुग्रीवसे मित्रता की और उनकी सहायतासे सीताका पता लगाया।
५. युद्ध (५६-७८ पर्व)- सुग्रीव आदि विद्याधरोंकी सहायतासे रामकी समस्त सेना आकाशमार्ग द्वारा लंका पहंच गयी और रामने भयंकर युद्ध आरम्भ किया। सर्वप्रथम रामने रावणके पास संधिका प्रस्ताव भेजा, पर उसने उसे अस्वीकार कर दिया। रावणके अनैतिक व्यवहारसे दुःखी होकर विभीषण भी रामसे आकर मिल गया और रामने विभीषणको लंकाका राज्य देनेका संकल्प कर लिया। दोनों ओरसे भयंकर युद्ध हुआ और अन्तमें पापपर पुण्यकी विजय हुई। रामने रावणका बध कर पृथ्वीका निष्कटक बनाया।
६. उत्तरचरित
(क) राज्योंका वितरण एवं सोतात्याग (७१-१०३ पर्व)- रावणकी मृत्युके पश्चात् राम-लक्ष्मणने लंकावासियोंको आश्वासन दिया और युद्धसे अस्त-व्यस्त लंकाकी स्थितिको सम्भाला। अनन्त्तर अयोध्या लौट आनेपर अपने राज्यका समुचित बँटवारा किया।
समय पाकर सीता गर्भवती हुई किन्तु दुर्भाग्यस रावणके यहाँ निवास करनेके कारण प्रजा द्वारा निन्दा होनेसे, रामने सीताका निर्वासन कर दिया। सीता वन-वन भ्रमण करने लगी, उसने वज्रजंघ मुनिके आश्चममें लव और कुशको जन्म दिया।
(ख) जग्निपरीक्षा (१०४-१०९ पर्व)- दिग्विजयके समय लव और कुशका राम-लक्ष्मणके साथ घनघोर युद्ध हुआ। नारदने उपस्थित होकर राम-लक्ष्मणको लव और कुशका परिचय कराया। अग्निपरीक्षा द्वारा सीताकीशुद्धि की गयी। सीताके शीलके प्रभावसे अग्निका दहकता कुण्ड शीतल जल बन गया। रामने सीतासे पुनः गृहावासमें सम्मिलित होनेका अनुरोध किया, पर सीताने अनुरोधको ठुकरा दिया और आर्यिकाका व्रत ग्रहण कर लिया तथा तपश्चरण द्वारा द्वादशम स्वर्गका लाभ किया।
नारायण और बलभद्रके प्रेम-सौहार्दकी चर्चा स्वर्गलोक तक व्याप्त हो गयी। अतएव परीक्षार्थ दो देव अयोध्या आये और लक्ष्मणसे रामके मरणका असत्य समाचार कहा। लक्ष्मण सुनते ही निष्प्राण हो गये, इस समाचारसे राम अत्यन्त दुःखित हुये और लक्ष्मणके मोहमें उनके शवको लिये हुए छः मास तक घूमते रहे। अन्तमें कृतान्तवन्कके जीवने, जो स्वर्गमें देव हुआ था, रामको समझाया। रामने लक्ष्मणके शवको अन्त्येष्टि क्रिया की और राम जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण द्वारा मोक्ष पधारें।
इस कथावस्तुमें घटनाओं और आख्यानोंका नियोजन बड़े ही सुन्दररूपमें किया गया है। चरित-काव्यकी सफलताके लिए कथानकका जैसा गठन होना चाहिये वैसा इस ग्रन्थमें उपलब्ध है। कालक्रमसे विशृंखलित घटनाओंकी रीढ़की हड्डीके समान दृढ़ और सुसंगठित रूपमें उपस्थित किया है। रामकी मूलकथाके चारों ओर अन्य घटनाएँ लताके समान उगती, बढ़ती और फैलती हुई चली हैं। कथानकोंका उतार-चढ़ाव पर्याप्त सुगठित है। पात्रोंके भाग्य बदलते हैं। परिस्थितियाँ उन्हें कुछसे कुछ बना देती हैं। वे जीवनसंघर्ष में जूझकर घर्षणशील रूपकी अवतारणा करते हैं। निस्संदेह रविषेणने कथानक सूत्रोंको कलात्मक ढंगसे संजोया है।
पद्मचरितकी कथावस्तुमें निम्नलिखित तत्त्व उपलब्ध है-
(क) योग्यता
(ख) अवसर
(ग) सत्कार्यता
(घ) रूपाकृति
कथानकको अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियोंकी ओर मोड़ना योग्यताके अन्तर्गत आता है। रावणद्वारा 'दशरथ-जनक-संतति विनाशका कारण होगी' ऐसी शंका होने पर उनके विनाशकी योजना, साहसगति विद्यावर द्वारा सुग्रीवका वेष बनाकर उसके राज्य पर आधिपत्य करना, रामके वनवासमें छायाके समान लक्ष्मण द्वारा भाईकी सेवा करना आदि प्रसंगोंके गठन में कविने योग्यतातत्त्वका समावेश किया है। रावणका राम-लक्ष्मणको बलिष्ठ समझ अपने भाई एवं पुत्रोंके बन्दी होने पर विजयप्राप्त्यर्थ बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करनेके लिए प्रस्तुत होना कथानकको प्रतिकूलसे अनुकूल परिस्थितियोंकी ओर मोड़ना है। इसी प्रकार अग्निपरीक्षामें अग्नि-कुण्डका जल-कुण्ड होना भी योग्यतातत्त्वके अन्तर्गत है।
रसपुष्टिके लिए यथासमय रसमय प्रसंग या सन्दर्भोंका प्रस्तुतीकरण कथानकनियोजनमें अवसरतत्व है। पवनञ्जय विलाप करती हुई अंजनापर, दष्टिपात भी नहीं करता है, किन्तु सूर्यास्तके समय पतिवियोगमें विलपती हुई चकनीको देखकर अंजनाकी मानसिक स्थितिका अनुमान लगा, पवनज्जयका युद्धके लिए जाते हुए मार्ग से लौट आना अवसरतत्त्वके अन्तर्गत है। इसी प्रकार भरतद्वारा रामसे राज्य करनेका आग्रह करने पर भी रामकी अस्वीकृत्तिके कारण उन्हींकी आज्ञासे निश्चित समय तक राज्य स्वीकार करना भी कथानकका अवसरतत्त्व है। रथनूपुरके मायामयी परकोटेको तोड़नेके लिए नलकूवरकी पत्नीका प्रसाधन भी अवसरतत्त्वके अन्तर्गत है।
सत्कार्यतासे तात्पर्य इस प्रकारसे संदर्भोंके संयोजनसे है, जो स्वतन्त्ररूप में अपना अस्तित्व रखकर प्रसंगगर्भवको प्राप्त हो किसी कार्यविशेषकी अभिव्यंजना करते हैं। रावणद्वारा विद्यासिद्धिहेतु तपस्या करना, देनोंका उपद्रव कर उसको अपने लक्ष्यसे विचलित करनेका प्रयत्न करना, दशरथद्वारा कैकीयीको स्वयम्वरमें प्राप्त कर, युद्ध में सहयोग देनेपर वर प्रदान करना आदि प्रसंग स्वतन्त्र होते हुए भी मूलकथानकमें गीर्भित होकर कार्यविशेषकी अभिव्यंजना कर रहे हैं।
कथावस्तुमें इतिवृत्तका वस्तुव्यापारोंके साथ उचित एवं संतुलितरूपमें नियोजन द्वारा रूपाकृति उपस्थित करना, रूपाकृति नामक तत्व है। मूल कथानकके साथ अवान्तर कथाओंका संमिश्रण अंग-अंगीभाव द्वारा करना ही इस तत्वका कार्य है। कवि कथावस्तुका विस्तार न करके छोटी-छोटी कथाओं द्वारा भी रूपाकृति तत्त्वका नियोजन कर सकता है। 'पद्मचरितम्' में राम-लक्ष्मण वनमें निवास करते हैं, लक्ष्मणद्वारा शम्बूकका वध हो जाता है। शोकाकुलिता उसकी माता चन्द्रनखा राम-लक्ष्मणको देखकर मोहित हो, अभिलाषाकी पुर्ति न होनेपर रुष्ट हो जाती है और अपने पतिसे उल्टा-सीधा भिड़ा देती है। इस प्रकारकी अवान्तरकथाएँ पद्मचरितमें कई दशक हैं। इन अवान्तरकथाओंका वस्तूव्यापारोंके साथ अंग-अंगीभावसे संयोजन किया गया है। अतएव रूपाकृतितत्वका पूर्ण समावेश हुआ है।
रविषेणने कथा-वस्तु के साथ वानरवंश, राक्षसवंश आदिको व्याख्याएँ भी बुद्धिसंगत की हैं। निःसन्देह कविका यह ग्रन्थं प्राकृत 'पउमचरिय' पर आधृत होनेपर भी कई मौलिकताओंकी दृष्टि से अद्वितीय है।
वानरवंशकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें वाल्मीकिने लिखा है कि ब्रह्माका निर्देश पाकर अनेक देवताओंने अप्सराओं, यक्ष, ऋक्ष, नागकन्याओं, किन्नरियों, विद्याधरियों एवं वानरियोके संयोगसे सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये। माता-पिताके प्राकृतिक गुणोंसे युक्त होने के कारण ये स्वभावतः साहसी, पराक्रमी, धर्मात्मा, न्यायनीतिप्रिय एवं तेजस्वी हुए। ब्रह्मासे जामवान, इन्द्रसे बलि, सूर्यसे सुग्रीव, चित्रकर्मासे नल, अग्निसे नील, कुबेरसे गन्धगादन, बृहस्पतिसे तार, अश्वनीकुमारासे मयन्द और द्वीविंद, वरुणसे सुषेण एवं वायुसे हनुमानकी उत्पत्ति हुई।
रविषेणके मतानुसार देवत्ताओंसे वानरोंकी उत्पत्ति नहीं हुई है, न वानर और देवताओंका शारीरिक संयोग सम्बन्ध ही सिद्ध होता है। अतः ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, विश्वकर्मा, नल, अग्नि, कुबेर, वरुण, पवन आदि तत्तद् नामधारी मानवव्यक्तिविशेष हैं। इन व्यक्तिविशेषोंसे हो वानरजातिके व्यक्ति पैदा हुए हैं।
रविषेणके मत्तमें वानर एक मानवजातिविशेष हैं। जिन विद्याधर राजाओंने अपना ध्वज-चिन्ह वानर अपना लिया था, वे विद्याधर राजा वानरवशी कहलाने लगे। वानर पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं जो विद्याधरों या भुमिगोच रियोंके रूप में वर्णित हैं। इस प्रकार रविषेणने वाल्मीकिद्वारा कल्पित पशुजातिका गानवीकरण किया है।
इसी प्रकार राक्षसवंशके सम्बन्ध में भी रविषेणकी मान्यता वाल्मीकिसे भिन्न है। रविषेणने जिस प्रकार वानरद्वीपनिवासियोंको वानरवंशी माना है, उसी प्रकार राक्षसद्वीपवासियोंको राक्षसबंशी कहा है। बताया है कि विजयार्द्धके पश्चिम में एक द्वीप है, जहाँ विद्याधर राजाओंका निवास है। उस द्वीपका नाम राक्षस द्वीप है। अतः वहाँके निवासी राक्षस कहलाने लगे हैं। अमराख्य और भानुराख्य नामक तेजस्वी राजाओंकी परम्परामें मेघवाहन नामक पुत्रने जन्म लिया। इसके राक्षसनामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त प्रभावशाली एवं स्वधशाभिलाषी हुआ इस राक्षस राजासे प्रवर्तित वंश राक्षस वन कहलाने लगा। ये राक्षस जनसाधारणकी रक्षा करते थे, इसलिये भी राक्षस कहलाने लगे। अतएव रावणको राक्षम मानना भूल है। ये सम्भ्रान्त मानव थे, राक्षस नहीं। इस प्रकार कविने राक्षस और वानरवंशकी विशिष्ट व्याख्याएँ प्रस्तुत की है।
छन्द, अलंकार आदिकी दृष्टिसे भी यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है। इसमें ४१ प्रकारके छन्दोंका व्यवहार किया गया है।
क्रमसं. | नामछन्द | संख्या |
१ | अनुष्टुम् | १६४४० |
२ | अतिरुचिरा | ५ |
३ | अपरवक्र | १ |
४ | अश्वललितम | १ |
५ | आर्या | १२ |
६ | आर्यावृत्तम् | ८ |
७ | आर्याछन्द | ४९ |
८ | आर्यामीति | २७ |
९ | इन्द्रवज्रा | १२ |
१० | इन्द्रवदना | २ |
११ | उपजाति | १३४ |
१२ | उपेन्द्रवज्रा | ३३ |
१३ | कोकिलकच्छन्द | १ |
१४ | चण्डी | १ |
१५ | चतुष्पदिका | २ |
१६ | द्रुतविलम्बित | १० |
१७ | दोधक | १० |
१८ | त्रोटक | १ |
१९ | पृथ्वी | ३ |
२० | प्रहर्षिणो | १ |
२१ | पुष्पिताग्रा | ६ |
२२ | प्रमाणिका | १ |
२३ | भद्रक | १ |
२४ | मुजंगप्रयात | ५ |
२५ | मन्दाक्रान्ता | १५ |
२६ | मत्तमयूर | १ |
२७ | मालिनी | २१९ |
२८ | रथोद्धता | ४ |
२९ | रुचिरा | ७ |
३० | वंशस्थ | २५ |
३१ | वसन्ततिलका | ६ |
३२ | वियोगिनी | ७ |
३३ | विद्युन्माला | १ |
३४ | वंशपत्रपतितम् | १ |
३५ | स्रग्धरा | ५ |
३६ | शार्दूलविक्रीडितम् | २५ |
३७ | शालिनी | ७ |
३८ | शिखरिणी | ३ |
३९ | श्रकछन्द | १ |
४० | हरिणी | १ |
इस ग्रन्थमें इक्कीस छन्द इस प्रकारके आये हैं, जिनका निर्धारण सम्भव नहीं है। यथा १७/४०५-४०६, ४२/३७, ६४,७७, ११२/९५, ९६, ११४/५४, ५५, १२३/१७०-१७९,१८१,१८२। रविषेणाचार्यने संगीतात्मक संगीत विकासके लिये छन्दोयोजना की है। यतः विशिष्ट भावोंकी अभिव्यक्ति विशिष्ट छन्दोंके द्वारा ही उपयुक्त होती है। लयको व्यवस्था छन्दोंके निर्माणमें सहायक होती है। यही कारण है कि रविषेणने लय और स्वरोंका सुन्दर निर्वाह किया है। इनकी छन्दोयोजनाके निम्नलिखित उद्देश्य है-
१. संगीत-धर्मका प्रादुर्भाव
२. रागात्मक वृत्तियोंका अनुरंजन
३. विशेष मनोभावोंका क्षनुरंजन
४. प्रेषणीयताका समावेश
अलंकार-योजनाकी अपेक्षासे भी यह काव्य सफल है। इसमें अनुप्रास, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति, सन्देह, मीलित, सार, विरोधाभास भ्रान्तिमान, उल्लेख, उत्तर, स्मरण, परिकर, अनन्वय, विनोक्ति, दृष्टान्त, काव्यलिंग, निदर्शना, यथासंख्य, विशेषोक्ति, स्वभावोक्ति, प्रतीप, उदात्त, संसृष्टि आदि ३२ प्रकारके अलंकार प्रयुक्त हुए हैं। विशेषोक्ति, यथासंख्य ओर काव्यलिंगके उदाहरण दिये जा रहे हैं-
विशेषोक्ति-
शौर्यरक्षितलो कोऽपि नयानुगतमानसः।
लक्षम्यापि कृतसम्बन्धो न गर्वग्रहदूषितः।।
राजा श्रेणिक अपनी शूर-वीरतासे समस्त लोकोंकी रक्षा करता था, तो भी उसका मन सदा नीतिपूर्ण था। लक्ष्मीसे उसका सम्बन्ध था, फिर भी वह अहंकारग्रहसे दूषित नहीं होता था।
यहाँ पर कारण दर्शाते हुए भी कार्यामुख बताया गया है, अतः विशेषोक्ति अलंकार है।
यथासंख्य-
स्फूरद्यशःप्रतापाभ्यामाक्रान्तभुवनावय।
अभिरामदुरालोको शीततिग्मकराविव।।
बढ़ते हुये यश और प्रतापसे लोकको व्याप्त करनेवाले लव और कुश चन्द्र एवं सूर्यके समान सुन्दर तथा दुरालोक हो गये। यहाँ पर चन्द्र और सूर्यका अन्वय सुन्दर और दुरालोकके साथ क्रमशः ही किया गया है।
स्वभावोक्ति-
बीक्षमाणः सितान् दन्तान् दाडिमीपुष्पलोहिते।
अवटीटे मुखे तेषां भास्वत्काञ्चनतारके॥
इस पद्यमें वानरजातिके स्वाभाविक गुणोंका वर्णन होनेसे स्वभावोक्ति अलंकार है। इसी प्रकार नर्मदावर्णन, सुमेरुवर्णन, वनवर्णन आदिमें भी मानवीकरण किया गया है। आचार्यने अपने काव्यके आधारका स्वयं निरूपण करते हुये लिखा है-
वर्द्धमानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरम्।
इन्द्रभूति परिप्राप्तः सुधर्म धारणीभवम्।।
प्रभवं क्रमतः कीर्ति ततोऽनु(नू)तरवाग्मिनम्।
लिखितं तस्य संप्राप्य रवेर्यनोऽयमुदगतः।।
वर्द्धमान जिनेन्द्रके द्वारा कहा हुआ यह अर्थ इन्द्रभूति नामक गौतम गणधरको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् धारिणीके पुत्र सुधर्माचार्यको। तदनन्तर प्रभवको और पश्चात् श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिधर आचार्यको उक्त अर्थ प्राप्त हुआ। आचार्य रविषेणने इन्हीं कीर्तिधर आचार्यके वचनोंका अवलोकन कर, इस 'पद्मचरितम्' की रचना की है।
यहाँ यह विचारणीय है कि पद्ममें आया हुआ कीर्तिधर आचार्य कौन है और उसके द्वारा रामकथा सम्बन्धी कौन-सा काय लिखा गया है? जैन साहित्यके आलोक में उक्त प्रश्नोंका उत्तर प्राप्त नहीं होता है। श्रीनाथूरामजी प्रेमीने इस ग्रन्थकी रचना प्राकृत 'पउमचरियं’ के आधार पर मानी है। अतः संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि यह एक सफल काव्य है, जिसकी रचना कवि आचार्य रविषेणके द्वारा की गयी है।
भूगोलकी दृष्टि से भी यह ग्रन्थ अत्यधिक उपयोगी है। इसमें सष्टिको अनादिनिधन बताया गया है और उत्सर्पण एवं अवसर्पण कालमें होनेवाली वृद्धि हानिका कथन आया है। युगमानका वर्णन प्रायः 'तिलोयपण्पत्ति’ के समान है। भोगभूमि और कर्मभूमिकी व्यवस्था भी उसीके समान वर्णित है। बताया है कि भोगभूमिके पर्वत अत्यन्त ऊँचे, पाँच प्रकारके वर्णोसे उज्जवल, नाना प्रकारकी रत्नोंकी कान्तिसे व्याप्त एवं सर्वप्राणियोंको सुखोत्पादक होते हैं। नदियोंमें मगरमच्छ आदि नहीं रहते, पर कर्मभूमिमें यह व्यवस्था परिवर्तित हो जाती है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
रविषेणाचार्य ऐसे कलाकार कवि हैं, जिन्होंने संस्कृतमें लोकप्रिय पौराणिक चरितकाव्यका ग्रथन किया है। पौराणिक चरितकाव्य- रचयिताके रूपमें रविषेणका सारस्वताचार्यों में महत्वपूर्ण स्थान है।
आचार्य रविषेण किस संघ या गण-गच्छके थे, इसका उल्लेख उनके ग्रन्थ 'पद्मचरित' में उपलब्ध नहीं होता। सेनान्त नाम ही इस बातका सूचक प्रतीत होता है कि ये सेनसंघके आचार्य थे। पद्मचरितमे निर्दिष्ट गुरूपरम्परा से अवगत होता है कि इन्द्रसेनके शिष्य दिवाकरसेन थे और दिवाकरसेन के शिष्य अर्हतसेन। इन अर्हतसेनके शिष्य लक्ष्मणसेन हुए और लक्ष्मणसेनके शिष्य रविषेण। यथा-
ज्ञाताशेषकृतान्तसन्मुनिमनःसोपानपर्वावली
पारम्पर्यसमाधितं सुवचनं सारार्थमत्यद्भुतम्।
आसीदिन्द्रगुरोदिवाकरत्तिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनि
स्तस्माल्लक्ष्मणसेनसन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम्।।
सम्यग्दर्शनशुद्धिकारणगुरुश्रेयस्करं पुष्कलं
विस्पष्ट परमं पुराणममलं श्रीमत्प्रबोधिप्रदम्।
रामस्याद्भुविक्रमस्य सुकृतो माहात्म्यसङ्कीर्तन
श्रोतव्यं सततं विचक्षणजनैरात्मोपकारार्थीभि:॥
अर्थात् यह पद्मचरित समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता उत्तम मुनियोंके मनकी सोपान-परम्पराके समान नागा क्योंकी परम्परा से युक्त है, सुमाशीसोस परीपूर्ण है, सारपूर्ण है तथा अत्यन्त आश्चर्यकारी है। इन्द्रगुरुके शिष्य श्रीदिवाकर यति थे। उनके शिष्य अर्हयति हुए। उनके शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि थे और उनका शिष्य में रविषेण हूँ।
मेरे द्वारा रचित यह 'पद्मचरित' सम्यग्दर्शनको शुद्धताके कारणोंसे श्रेष्ठ है, कल्याणकारी है, विस्तृत है, अत्यन्त स्पष्ट है, उत्कृष्ट है, निर्मल है, श्रीसम्पन्न है, रत्नत्रयरूप बोधिका दायक है, तथा अद्भुत पराक्रमी पुण्यस्वरूप श्रीराम के माहात्म्यका उत्तम कीर्तन करनेवाला है, ऐसा यह पुराण आत्मोपकारके इच्छुक विद्वज्जनोंके द्वारा निरन्तर श्रवण करने योग्य है।
उपर्युक्त पद्योंसे रविषेणकी गुरु-परम्पराका परिज्ञान तो हो जाता है, पर जनके जन्मस्थान, बाल्पकाल, विवाहित जीवन आदिके सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी नहीं हो पाती।
रविषेणने पद्मचरितके ४२वे पर्वमें जिन वृक्षोंका वर्णन किया है वे वृक्ष दक्षिण भारतमें पाये जाते हैं। कविका भौगोलिक ज्ञान भी दक्षिण भारतका जितना स्पष्ट और अधिक है उत्तना अन्य भारतीय प्रदेशोंका नहीं। अतएव कविका जन्मस्थान दक्षिण भारतका भूभाग होना चाहिए।
आचार्य रविषेणके समय-निर्धारणमें विशेष कठिनाई नहीं है, क्योंकि रविषेणने स्वयं अपने पद्मचरितकी समाप्तिके समयका निर्देश किया है-
द्विशताभ्यधिके समासहस्रं समतीतेऽद्धचतुर्थवर्षयुक्ते।
जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धेश्चरितं पञ्चमुनेरिदं निबद्धम्।।
जिनसूर्य- भगवान् महावीरके निर्वाण प्राप्त करने के १२०३ वर्ष छ: माह बीत जानेपर पद्ममुनिका यह चरित निबद्ध किया। इस प्रकार इसकी रचना वि. सं. ७३४ (ई. सन् ६७७) में पूर्ण हुई है। वीर निर्वाण सं. कार्तिक कृष्णा ३० वि. सं. ४६९ पूर्वसे ही भगवान महावीरके मोक्ष जानेकी परम्परा प्रचलित है। इस तरह छ: मासका समय और जोड़ देने पर वैशाख शुक्ल पक्ष वि. सं. ७३४ रचना-तिथि आती है।
रविषेणव स्वयंके उल्लेखोंके अतिरिक्त समकालीन और उत्तरवर्ती आचार्याक निर्देश भी रांवषेणके समयपर प्रकाश पड़ता है।
इनके उत्तरवर्ती उद्योतनसूरिने अपनी कुवलयमालामें रविषेणको पद्मचरितके कर्ताके रूपमें स्मरण किया है। उद्योतनसुरिका समय ई. सन् ७७८ (वि. सं. ८३५) है। प्रतीत होता है कि रविषेणको ख्याति १०० वर्षों में ही पर्याप्त विस्तृत हो चुको थी। उद्योतनसूरिने लिखा है-
जेहि कए रमणिज्जे वरंग-पउमाणरिय वित्थारे।
कहव ण सलाहणिज्जे ते फइणो जडिय-रविसेणे।
जिन्होंने रमणीय एवं विस्तृत वरांगचरित और पद्मचरित लिखे, वे जडित तथा रविषेण कवि कैसे श्लाव्य नहीं, अपितु श्लाव्य हैं। हरिवंशपुराणके रचयिता प्रथम जिनसेनने भी रविषेणका पद्मचरितके कर्ताके रूपमें स्मरण किया है-
कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवर्त्तिता।
मूर्त्तिः काव्यमयी लोके रवेरिव रवै: प्रिया||
आचार्य रविषेणकी काव्यमयी मूर्ति सूर्यकी मूर्तिके समान लोकमें अत्यन्त प्रिय है। यतः सूर्य जिस प्रकार कमलोंको विकसित करता है उसी प्रकार रविषेणने पद्म- रामकेचरितको विस्तृत किया है। आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराण की रचना वि. सं. ८४०में की है। इससे स्पष्ट है कि रविषेण वि. सं. ८४० से पूर्ववर्ती हैं और यशस्वी कवि हैं। अतः बहिःसाक्ष्य भी रविषेणद्वारा स्वयं सूचित समयके साधक है।
पद्मचरितमें पुराण और काव्य इन दोनों के लक्षण सम्मिलित हैं। विमल सूरिकृत प्राकृत पउमचरियमका आधार रहनेपर भी इसमें मौलिकत्ताकी कमी नहीं है। कथानक और विषयवस्तुमें पर्याप्त परिवर्तन किया है। वस्तुतः इस ग्रन्थका प्रणयन उस समय हुआ है जब संस्कृतमें चरित-काव्योंकी परम्पराका पूर्ण विकास नहीं हुआ था। इसमें बन, नदी, पर्वत, ग्राम, ऋतु वर्णन, संध्या, सूर्योदय आदिका चित्रण महाकाव्यके समान ही किया गया है। कथाका आयाम पर्याप्त विस्तृत है। पद्म- रामके कई जन्मोंकी कथा तथा उनके परिकर में निवास करनेवाले सुग्रीव, विभीषण, हनुमानकी जीवन-व्यापी कथा भी इस चरित काव्य में सम्बद्ध है। कतिपय पात्रोंके जीवन-आख्यान तो इतने विस्तृत आये हैं, जिससे उन्हें स्वतंत्र काव्य या पुराण से कहा जा सकता है।
आधिकारिक कथावस्तु मुनि रामचन्द्रजीकी है और अवान्तर या प्रासंगिक कथाएँ वानर-वंश या विद्याधर-वंशके आख्यानके रूपमें आयीं हैं। इन दोनों वंशोंका कविने बहुत विस्तृत वर्णन किया है। यही कारण है कि चरितकाव्यके समस्त गुण इस ग्रन्थमें समाविष्ट हैं। अंगीरूपमें शान्त रसका परिपाक हुआ है। शृंगारके संयोग और वियोग दोनों ही पक्ष सीता-अपहरण एवं राम-विवाह के अनन्तर घटित हुए हैं। करुण-रसके चित्रण में अभूतपूर्व सफलता मिली हैं। युद्ध में भाई-बंधुओंके काम आनेपर कुटुम्बियोंके विलाप पाषाणहृदयको भी द्रवीभूत करने में समर्थ हैं। वर्णनोंके चित्रणमें कविको पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। नर्मदाका रमणीय दृश्य अनेक उत्प्रेक्षाओं द्वारा चित्रित हुआ है। नर्मदा मधुरशब्द करनेवाले नानापक्षियोंके समूहके साथ वार्तालाप करती हुई-सी प्रतीत होती है। फेनके समूहसे वह हँसती हुई-सी मालूम पड़ती है। तरंग रूपी भृकुटीके विलासके कारण वह क्रुद्ध होता हुई नायिका-सी, आवर्तरूपी बुंदबुदोंसे युक्त नायिकाकी नाभि जैसी, विशाल तटोंसे युक्त स्थूल नितम्ब जैसी एवं निर्मल जल-वस्त्र जैसे प्रतीत होते थे।
इस ग्रन्थमें १२३ पर्व हैं। इसे छह खण्डों में विभक्त किया जा सकता है-
१. विद्याधरकाण्ड
२. जन्म और विवाहकाण्ड
३. वन-भ्रमण
४. सीता-हरण और उसका अन्वेषण
५. युद्ध
६. उत्तरचरित
भगवान महावीरके प्रथम गणधर गौतमस्वामीको नमस्कार कर, उनसे रामकथा जानने की इच्छा प्रकट करनेपर, गौतमस्वामीने यह रामकथा कही है।
कथारम्भमें १. विद्याधरलोक २. राक्षसवंश ३. वानरवंश ४. सोमवंश ५. सूर्यवंश और ६, इक्ष्वाकुवंशके वर्णनके पश्चात् कथास्रोत सरिताको वेगवती धाराके समान आगे बढ़ता है।
रावणका जन्म (७-८ पर्व)- राक्षसवंशी राजा रत्नश्रवा तथा महारानी केकसीको रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण नामक तीन पुत्र एवं चन्द्रनखा नामक पुत्रीका लाभ हुआ। ये चारों सन्तान पैदा होते ही अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार अपनी-अपनी महत्ताका संकेत देने लगीं। रत्नश्रवाने जन्म के समय ही रावणको दिव्यहारसे युक्त एवं मौलिक मालामें प्रतिबिम्बित, उसके एक ही सिरके दश प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़नेके कारण उसका नाम दशानन रखा। विद्यासिद्धि (८ वा पर्व) अपने मौसेरे भाई इन्द्रकी विभूतिका श्रवण कर उसे परास्त करने का लक्ष्य रखकर वे तीनों भाई विद्यासिद्धि हेतु घनघोर तपश्चरण करने लगे। अन्त में अपनी दृढ़ता एवं एकाग्रता और निर्मोहिता एव निर्भीकताके कारण उन तीनों भाइयोंने अनेक विद्याओंको सिद्ध कर लिया। अपनी सफलताका प्रारम्भिक चरण मान वे तीनों भाई दिग्विजयकी तैयारी करने लगे।
दक्षिण विजय (९-११ पर्व)- रथनपुरका राजा इन्द्र अत्यन्त शक्तिशाली था। अतः उसे परास्त करनेके उद्देश्य से इन्होंने आक्रमणकी तैयारी की। रावण ने अपनी वीरता और कुशलतासे इन्द्रके सहायक यम, वरुण आदिको तो पहल ही परास्त कर दिया था। अब उसकी दृष्टि इन्द्रपर ही था। इन्द्र मानव होते हुए भी अपने लिये इन्द्र ही समझ रहा था। इसी कारण उसने प्रान्तीय शासकोंको यम, वरुण, सोम आदि संज्ञाओसे अभिहित किया था। उसने कारागारको नरकसंज्ञा और अर्थमंत्रीकी कुबेरसंज्ञा अभिहित की थी। रावण ने समस्त साधनपूर्ण सेना लेकर किष्किन्धापुर के राजा बलिको अपमानित किया और उसके साधुभाई सुग्रीवको अपना मित्र बनाया।
रथनूपुरके चारों ओर मायामयी परकोटा बना हुआ था। उसकी रक्षा अनेक विद्याधरोंके साथ मलकुवर करता था। यह परकोटा अभेद्य था। इसके भंदनका परिज्ञान नलकूवरको पस्नाका ज्ञात था और यह नारी रावणके रूपको देखते ही माहित हो गया। रावणने झूठा आश्वासन देकर परकोटाभेदनका उपाय ज्ञात कर लिया और अन्त में विजयके पश्चात् नलकूवरको वहाका राजा नियुक्त कर उसकी पत्नी को मां शब्दरो सम्बोधित कर एवं पतिव्रता बने रहनका उपदेश दें, वहाँस आग बढ़ा। अनेक प्रकारसे युद्ध होनेके पश्चात इन्द्र अपने मंत्रिमंडल सहित बंदी बना लिया गया, पर उसके पिता सहस्रशूरके अनुरोध पर रावणने उसे मुक्त किया और अपनी महत्ताका उदाहरण प्रस्तुत किया।
हनुमान-जन्म (१५-१८ पर्व)
आदित्यपुरके राजा प्रहलाद के पुत्र पवनञ्जयका विवाह राजा महेन्द्रकी पुत्री अंजनासे हुआ। पवनज्जय उसकी सुन्दरतासे आकृष्ट होनेपर भी, अंजनाकी एक सखी द्वारा अपनो निन्दा सुनकर वह अंजनासे रुष्ट हो गया और विवाह हो जानेपर उसने अंजनाका परित्याग कर दिया। जब पवनज्जय रावणको किसी युद्ध में सहायता देने के लिये जा रहा था, तो उसका शिविर एक नदीके तट पर स्थित हया। यहाँ चकवाके वियोग में एक चकवीको विलाप करते देख, उसे अंजनाकी स्मृति ही आयी और अपने कीये कार्यों पर पश्चात्ताप करने लगा। वह सेनाको वहीं छोड़ रात्रिमें ही अंजना के पास चला आया। प्रथम मिलनके फलस्वरूप अंजना गर्भवती हुई। पवनज्जय प्रभात होने के पूर्व ही बिना किसी से कहे-सुने अंजनाके भवनसे चला गया। अंजनाकी सास तथा अन्य परिवारके व्यक्तियोंने जब उसमें गर्भवतीके चिह्न देखे, तो परिवारके अपवादके भयसे उन्होंने अंजनाको घरसे बाहर निकाल दिया। वह दर-दर भटकती हुई एक निर्जन वन पहुंची। यहाँ उसने एक पुत्रको जन्म दिया। इसी समय आकाश मार्गसे राजा प्रतिसूर्य जा रहा था। उसने जब एक नारीका करुण चीत्कार सुना, तो उसका हृदय पिघाल गया और नीचे आकर परिचय जानना चाहा। इस परिचय के क्रममें जब उसे यह मालम हुआ कि यह उसकी भांजी है, तो उसे अपार हर्ष हुआ और उसे पुत्रसहित लेकर अपने घर हनुरुह द्वीपमें चला आया। मार्गमें चलते हुए हनुमान जगन बाल्य-चांचल्यके कारण विमानसे नीचे गिर पड़े, पर हनुमानको चाट न लगी और जिस शिला पर वे गिरे थे वह शिला चूर-चूर हो गयी। हनुरुह द्वीपमें बालकके संस्कार सम्पन्न किय गये। इसी कारण इसका नाम हनुमान रखा गया।
युद्धमें विजय प्राप्त करने के पश्चात् पवनञ्जय घर वापस लौटा, पर अंजनाको न पाकर तथा उसकी अपवादकी ज्ञातकर उसे अपार वेदना हई। फलतः वह घर छोड़कर चनकी खाक छानने चल दिया। वह वन-वन भटकता हुआ, वृक्ष और लताओसे अंजनाका पता पूछता हुआ उन्मत्तकी तरह भ्रमण करने लगा। कुछ समय पश्चात वह भ्रमण करता हुआ हनुरुह द्वीप पहुंचा और वहाँ अपनी पत्नी और पुत्रको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ तथा सभीके साथ आदित्यपुर लौट आया।
चन्द्रनखाका विवाह खरदूषण नामक राक्षसके साथ हुआ और इस दम्पत्तिके शबूक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
राजा दशरथका जन्म (१९-२१ पर्व)- इश्वाकुवंशमें अयोध्याके राजा अजके यहाँ दशरथका जन्म हुआ। दशरथका जन्म उत्तम नक्षत्र और उत्तम मुहूर्तमें हुआ। फलस्वरूप यह जन्मसे ही वीर, प्रतापी और यशस्वी भी। इनकी तीन रानियों थीं।
(क) दर्पपुरके राजाकी पुत्री अपराजिता या कौशल्या
(ख) पनपत्र नगरके राणी निलबंधूकी सुमित्रा
(ग) रत्नपुरके राजाको पुत्री सुप्रभा
एक दिन रावणको किसीसे विदित हुआ कि उसकी मृत्यु राजा जनक और दशरथकी सन्तानोंके द्वारा होगी। अतः रावण ने अपने भाई विभीषणको मिथिलानरेश जनक और अयोध्यानरेश दशरथको मारने के लिए भेजा, पर विभीषणके आनेके पूर्व ही नारदने उन दोनोंको सचेत कर दिया था। जिससे वे दोनों अपने-अपने भवनोंमें अपने अपने अनुरूप कृत्रिम मूर्ति छोड़कर बाहर निकल गये। विभीषणने इन पूसलोंको ही संचमुचका जनक और दशरथ समझा और उन्हींका मस्तक काटकर समुद्र में गिरा दिया तथा वापस लोटकर लंकामें वैभवपूर्वक राज्य करने लगा।
राजा दशरथकीविजय एवं कैकेयोसे परिणय (२१-२५ पर्व)- भ्रमण करते हुए राजा दशरथ अनेक सामन्तोंके साथ केकय देश पहुँचे और वहाँकी राजपुत्री कैकेयीको स्वयम्वरमें जीत लिया। स्वयंवरमें समागत राजाओंने इन्हें अज्ञातकुलशील समझकर इनका युद्ध करनेका निमन्त्रण दिया। दशरथने रणभूमिमें उतरकर वीरतापूर्वक युद्ध किया और कैकेयांने उनके रथका संचालन किया। जिससे महाराज दशरथ बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कैकेयांसे वर मांगनेको कहा। समय पाकर चारों रानियोंको चार पुत्र उत्पन्न हुए। कौशल्याने राम, सुमित्राने लक्ष्मण, कैकेयोने भरत और सुप्रभाने शत्रघ्नको जन्म दिया।
सीताका जन्म (२६-३० पर्च)- राजा जनकके यहाँ सीता नामक पुत्री और भामण्डल नामक पुत्रने जन्म लिया। पूर्वजन्मकी शत्रुताके कारण किसी विद्याधरकुमारने भामण्डलका अपहरण किया और उसे वनमें छोड़ दिया। इस कुमारका लालन-पालन चन्द्रगति नामक विद्याधरने किया। नारद किसी कारणवश सीतासे रुष्ट हो गये और उसका एक सुन्दर चित्रपट तैयार कर भामण्डलको भेंट किया। भामण्डल सीताके सुन्दर रूपको देखते ही आसक्त हो गया और विद्याधरों सहित मिथिला पर आक्रमण कर दिया, पर मनोहर नगर और वाटिकाको देखते ही उसे आतिस्मरण हो गया और उसे यह ज्ञात हो गया कि सीता उसकी सहोदरा है। अतएव उसने जनकके समक्ष अपना परिचय प्रस्तुत किया तथा उन्हें सीताका स्वयम्वर करनेका परामर्श दिया। स्वयम्वरमें बज्जावर्त धनुषको बढ़ानेकी शर्त रखी गयी। अन्य राजाओंके असमर्थ रहने पर रामने इस धनुषको चढ़ाया और सीताके साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ।
रामके बड़े होने पर दशरथको संसारसे विरक्ति हो गयी और वे रामको राजा बनाकर स्वयं मुनिदीक्षा ग्रहण करनेकी तैयारी करने लगे। जब कैकेयीको यह समाचार ज्ञात हुआ, तो उसने अपने सुरक्षित वरको मांग लिया, जिसके अनुसार भरतको अयोध्याका राज्य और रामको वनवास दिया गया।
३. वनभ्रमण
(क) रामका वनवास (४१ वां पर्व)- राम लक्ष्मण और सीताके साथ दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये। मार्ग में कितने हो प्रस्त राजाओंका अभय नद्वारा उद्धार किया। कैकेयी और भरत वनमें जाकर रामको लोट आनेका अनुरोध करने लगे, पर पिताकी इच्छाके विरुद्ध कार्य करना रामने स्वीकार नहीं किया।
(ख) युद्धोंका वर्णन (४२वां पर्व)- राम-लक्ष्मणने यहाँ पर अनेक शत्रुओं, धर्मविरोधियों, पापियों और अन्यायो अत्याचारियोंको सही मार्ग पर न अनेके कारण यमलोक भेज दिया। राजा वच्चकर्णको सिहोदरके चक्रसे बचाया, वाल्याविल्यको म्लेच्छके कारागारसे मुक्त किया एव भरतका विरोध करनेवाले अतिवीर्यका नर्तकीका चेशधारण कर लक्ष्मणने उसका मान खण्डित किया। लक्ष्मणका अनेक राजकुमारियोंके साथ विवाह हुआ। दण्डकबनमें निवास करते हुए 'राम-लक्ष्मणने मुनिको आहारदान दिया और जटायु नामक वृद्ध तपस्वीसे सम्पर्क स्थापित किया।
(ग) शम्बूकमरण एवं खरदूषणसे युद्ध (४३-४४ पर्व)- सूर्यहास नामक तलवारको पाने हेतु खरदूषणका पुत्र शम्बूक तपस्या कर रहा था, किन्तु भ्रमवश बाँसोंके भिड़ेमें छिपे हुए शम्बुकका लक्ष्मण द्वारा अस्त्रपरीक्षासे मरण हो गया। विलाप करती हुई उसकी माता चन्द्रनखा लक्ष्मणके रूपसे मोहित होकर कामतृप्तिकी भिक्षा माँगने लगी, किन्तु उसमें असफलता देख, पतिसे लक्ष्मणपर बलात्कारका दोषारोपण कर युद्ध करने का अनुरोध किया। दोनों पक्षोंमें भयंकर युद्ध हुआ, खरदूषण आदि अनेक राक्षस यमपुरी पहुंचा दिये गये।
४. सीताहरण और अन्वेषन (४५-५५ पर्व)- अपने बहनोईको सहायता करनेके हेतु आया हुआ रावण सीताके अनिन्द्य लावण्यको देखकर मोहित हो गया। उस समय राम-लक्ष्मण बाहर गये हए थे। अतः बलात् उसका अपहरण कर, अपने पुष्पक विमानमें बैठाकर लंकाकी ओर चल दिया। मार्गमें जटायु एवं रत्नजटो नामक विद्याधरोंस युद्ध करना पड़ा, पर इस युद्ध में रावणकी ही विजय रही।
राम जब युद्ध समाप्त कर वापस लौटे, तो कुटियाको सोत्तासे शन्य देखकर विलाप करने लगे। रामने अपने कार्यके सिद्धयर्थ वानरवंशी राजा सुग्रीवसे मित्रता की और उनकी सहायतासे सीताका पता लगाया।
५. युद्ध (५६-७८ पर्व)- सुग्रीव आदि विद्याधरोंकी सहायतासे रामकी समस्त सेना आकाशमार्ग द्वारा लंका पहंच गयी और रामने भयंकर युद्ध आरम्भ किया। सर्वप्रथम रामने रावणके पास संधिका प्रस्ताव भेजा, पर उसने उसे अस्वीकार कर दिया। रावणके अनैतिक व्यवहारसे दुःखी होकर विभीषण भी रामसे आकर मिल गया और रामने विभीषणको लंकाका राज्य देनेका संकल्प कर लिया। दोनों ओरसे भयंकर युद्ध हुआ और अन्तमें पापपर पुण्यकी विजय हुई। रामने रावणका बध कर पृथ्वीका निष्कटक बनाया।
६. उत्तरचरित
(क) राज्योंका वितरण एवं सोतात्याग (७१-१०३ पर्व)- रावणकी मृत्युके पश्चात् राम-लक्ष्मणने लंकावासियोंको आश्वासन दिया और युद्धसे अस्त-व्यस्त लंकाकी स्थितिको सम्भाला। अनन्त्तर अयोध्या लौट आनेपर अपने राज्यका समुचित बँटवारा किया।
समय पाकर सीता गर्भवती हुई किन्तु दुर्भाग्यस रावणके यहाँ निवास करनेके कारण प्रजा द्वारा निन्दा होनेसे, रामने सीताका निर्वासन कर दिया। सीता वन-वन भ्रमण करने लगी, उसने वज्रजंघ मुनिके आश्चममें लव और कुशको जन्म दिया।
(ख) जग्निपरीक्षा (१०४-१०९ पर्व)- दिग्विजयके समय लव और कुशका राम-लक्ष्मणके साथ घनघोर युद्ध हुआ। नारदने उपस्थित होकर राम-लक्ष्मणको लव और कुशका परिचय कराया। अग्निपरीक्षा द्वारा सीताकीशुद्धि की गयी। सीताके शीलके प्रभावसे अग्निका दहकता कुण्ड शीतल जल बन गया। रामने सीतासे पुनः गृहावासमें सम्मिलित होनेका अनुरोध किया, पर सीताने अनुरोधको ठुकरा दिया और आर्यिकाका व्रत ग्रहण कर लिया तथा तपश्चरण द्वारा द्वादशम स्वर्गका लाभ किया।
नारायण और बलभद्रके प्रेम-सौहार्दकी चर्चा स्वर्गलोक तक व्याप्त हो गयी। अतएव परीक्षार्थ दो देव अयोध्या आये और लक्ष्मणसे रामके मरणका असत्य समाचार कहा। लक्ष्मण सुनते ही निष्प्राण हो गये, इस समाचारसे राम अत्यन्त दुःखित हुये और लक्ष्मणके मोहमें उनके शवको लिये हुए छः मास तक घूमते रहे। अन्तमें कृतान्तवन्कके जीवने, जो स्वर्गमें देव हुआ था, रामको समझाया। रामने लक्ष्मणके शवको अन्त्येष्टि क्रिया की और राम जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण द्वारा मोक्ष पधारें।
इस कथावस्तुमें घटनाओं और आख्यानोंका नियोजन बड़े ही सुन्दररूपमें किया गया है। चरित-काव्यकी सफलताके लिए कथानकका जैसा गठन होना चाहिये वैसा इस ग्रन्थमें उपलब्ध है। कालक्रमसे विशृंखलित घटनाओंकी रीढ़की हड्डीके समान दृढ़ और सुसंगठित रूपमें उपस्थित किया है। रामकी मूलकथाके चारों ओर अन्य घटनाएँ लताके समान उगती, बढ़ती और फैलती हुई चली हैं। कथानकोंका उतार-चढ़ाव पर्याप्त सुगठित है। पात्रोंके भाग्य बदलते हैं। परिस्थितियाँ उन्हें कुछसे कुछ बना देती हैं। वे जीवनसंघर्ष में जूझकर घर्षणशील रूपकी अवतारणा करते हैं। निस्संदेह रविषेणने कथानक सूत्रोंको कलात्मक ढंगसे संजोया है।
पद्मचरितकी कथावस्तुमें निम्नलिखित तत्त्व उपलब्ध है-
(क) योग्यता
(ख) अवसर
(ग) सत्कार्यता
(घ) रूपाकृति
कथानकको अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियोंकी ओर मोड़ना योग्यताके अन्तर्गत आता है। रावणद्वारा 'दशरथ-जनक-संतति विनाशका कारण होगी' ऐसी शंका होने पर उनके विनाशकी योजना, साहसगति विद्यावर द्वारा सुग्रीवका वेष बनाकर उसके राज्य पर आधिपत्य करना, रामके वनवासमें छायाके समान लक्ष्मण द्वारा भाईकी सेवा करना आदि प्रसंगोंके गठन में कविने योग्यतातत्त्वका समावेश किया है। रावणका राम-लक्ष्मणको बलिष्ठ समझ अपने भाई एवं पुत्रोंके बन्दी होने पर विजयप्राप्त्यर्थ बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करनेके लिए प्रस्तुत होना कथानकको प्रतिकूलसे अनुकूल परिस्थितियोंकी ओर मोड़ना है। इसी प्रकार अग्निपरीक्षामें अग्नि-कुण्डका जल-कुण्ड होना भी योग्यतातत्त्वके अन्तर्गत है।
रसपुष्टिके लिए यथासमय रसमय प्रसंग या सन्दर्भोंका प्रस्तुतीकरण कथानकनियोजनमें अवसरतत्व है। पवनञ्जय विलाप करती हुई अंजनापर, दष्टिपात भी नहीं करता है, किन्तु सूर्यास्तके समय पतिवियोगमें विलपती हुई चकनीको देखकर अंजनाकी मानसिक स्थितिका अनुमान लगा, पवनज्जयका युद्धके लिए जाते हुए मार्ग से लौट आना अवसरतत्त्वके अन्तर्गत है। इसी प्रकार भरतद्वारा रामसे राज्य करनेका आग्रह करने पर भी रामकी अस्वीकृत्तिके कारण उन्हींकी आज्ञासे निश्चित समय तक राज्य स्वीकार करना भी कथानकका अवसरतत्त्व है। रथनूपुरके मायामयी परकोटेको तोड़नेके लिए नलकूवरकी पत्नीका प्रसाधन भी अवसरतत्त्वके अन्तर्गत है।
सत्कार्यतासे तात्पर्य इस प्रकारसे संदर्भोंके संयोजनसे है, जो स्वतन्त्ररूप में अपना अस्तित्व रखकर प्रसंगगर्भवको प्राप्त हो किसी कार्यविशेषकी अभिव्यंजना करते हैं। रावणद्वारा विद्यासिद्धिहेतु तपस्या करना, देनोंका उपद्रव कर उसको अपने लक्ष्यसे विचलित करनेका प्रयत्न करना, दशरथद्वारा कैकीयीको स्वयम्वरमें प्राप्त कर, युद्ध में सहयोग देनेपर वर प्रदान करना आदि प्रसंग स्वतन्त्र होते हुए भी मूलकथानकमें गीर्भित होकर कार्यविशेषकी अभिव्यंजना कर रहे हैं।
कथावस्तुमें इतिवृत्तका वस्तुव्यापारोंके साथ उचित एवं संतुलितरूपमें नियोजन द्वारा रूपाकृति उपस्थित करना, रूपाकृति नामक तत्व है। मूल कथानकके साथ अवान्तर कथाओंका संमिश्रण अंग-अंगीभाव द्वारा करना ही इस तत्वका कार्य है। कवि कथावस्तुका विस्तार न करके छोटी-छोटी कथाओं द्वारा भी रूपाकृति तत्त्वका नियोजन कर सकता है। 'पद्मचरितम्' में राम-लक्ष्मण वनमें निवास करते हैं, लक्ष्मणद्वारा शम्बूकका वध हो जाता है। शोकाकुलिता उसकी माता चन्द्रनखा राम-लक्ष्मणको देखकर मोहित हो, अभिलाषाकी पुर्ति न होनेपर रुष्ट हो जाती है और अपने पतिसे उल्टा-सीधा भिड़ा देती है। इस प्रकारकी अवान्तरकथाएँ पद्मचरितमें कई दशक हैं। इन अवान्तरकथाओंका वस्तूव्यापारोंके साथ अंग-अंगीभावसे संयोजन किया गया है। अतएव रूपाकृतितत्वका पूर्ण समावेश हुआ है।
रविषेणने कथा-वस्तु के साथ वानरवंश, राक्षसवंश आदिको व्याख्याएँ भी बुद्धिसंगत की हैं। निःसन्देह कविका यह ग्रन्थं प्राकृत 'पउमचरिय' पर आधृत होनेपर भी कई मौलिकताओंकी दृष्टि से अद्वितीय है।
वानरवंशकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें वाल्मीकिने लिखा है कि ब्रह्माका निर्देश पाकर अनेक देवताओंने अप्सराओं, यक्ष, ऋक्ष, नागकन्याओं, किन्नरियों, विद्याधरियों एवं वानरियोके संयोगसे सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये। माता-पिताके प्राकृतिक गुणोंसे युक्त होने के कारण ये स्वभावतः साहसी, पराक्रमी, धर्मात्मा, न्यायनीतिप्रिय एवं तेजस्वी हुए। ब्रह्मासे जामवान, इन्द्रसे बलि, सूर्यसे सुग्रीव, चित्रकर्मासे नल, अग्निसे नील, कुबेरसे गन्धगादन, बृहस्पतिसे तार, अश्वनीकुमारासे मयन्द और द्वीविंद, वरुणसे सुषेण एवं वायुसे हनुमानकी उत्पत्ति हुई।
रविषेणके मतानुसार देवत्ताओंसे वानरोंकी उत्पत्ति नहीं हुई है, न वानर और देवताओंका शारीरिक संयोग सम्बन्ध ही सिद्ध होता है। अतः ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, विश्वकर्मा, नल, अग्नि, कुबेर, वरुण, पवन आदि तत्तद् नामधारी मानवव्यक्तिविशेष हैं। इन व्यक्तिविशेषोंसे हो वानरजातिके व्यक्ति पैदा हुए हैं।
रविषेणके मत्तमें वानर एक मानवजातिविशेष हैं। जिन विद्याधर राजाओंने अपना ध्वज-चिन्ह वानर अपना लिया था, वे विद्याधर राजा वानरवशी कहलाने लगे। वानर पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं जो विद्याधरों या भुमिगोच रियोंके रूप में वर्णित हैं। इस प्रकार रविषेणने वाल्मीकिद्वारा कल्पित पशुजातिका गानवीकरण किया है।
इसी प्रकार राक्षसवंशके सम्बन्ध में भी रविषेणकी मान्यता वाल्मीकिसे भिन्न है। रविषेणने जिस प्रकार वानरद्वीपनिवासियोंको वानरवंशी माना है, उसी प्रकार राक्षसद्वीपवासियोंको राक्षसबंशी कहा है। बताया है कि विजयार्द्धके पश्चिम में एक द्वीप है, जहाँ विद्याधर राजाओंका निवास है। उस द्वीपका नाम राक्षस द्वीप है। अतः वहाँके निवासी राक्षस कहलाने लगे हैं। अमराख्य और भानुराख्य नामक तेजस्वी राजाओंकी परम्परामें मेघवाहन नामक पुत्रने जन्म लिया। इसके राक्षसनामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त प्रभावशाली एवं स्वधशाभिलाषी हुआ इस राक्षस राजासे प्रवर्तित वंश राक्षस वन कहलाने लगा। ये राक्षस जनसाधारणकी रक्षा करते थे, इसलिये भी राक्षस कहलाने लगे। अतएव रावणको राक्षम मानना भूल है। ये सम्भ्रान्त मानव थे, राक्षस नहीं। इस प्रकार कविने राक्षस और वानरवंशकी विशिष्ट व्याख्याएँ प्रस्तुत की है।
छन्द, अलंकार आदिकी दृष्टिसे भी यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है। इसमें ४१ प्रकारके छन्दोंका व्यवहार किया गया है।
क्रमसं. | नामछन्द | संख्या |
१ | अनुष्टुम् | १६४४० |
२ | अतिरुचिरा | ५ |
३ | अपरवक्र | १ |
४ | अश्वललितम | १ |
५ | आर्या | १२ |
६ | आर्यावृत्तम् | ८ |
७ | आर्याछन्द | ४९ |
८ | आर्यामीति | २७ |
९ | इन्द्रवज्रा | १२ |
१० | इन्द्रवदना | २ |
११ | उपजाति | १३४ |
१२ | उपेन्द्रवज्रा | ३३ |
१३ | कोकिलकच्छन्द | १ |
१४ | चण्डी | १ |
१५ | चतुष्पदिका | २ |
१६ | द्रुतविलम्बित | १० |
१७ | दोधक | १० |
१८ | त्रोटक | १ |
१९ | पृथ्वी | ३ |
२० | प्रहर्षिणो | १ |
२१ | पुष्पिताग्रा | ६ |
२२ | प्रमाणिका | १ |
२३ | भद्रक | १ |
२४ | मुजंगप्रयात | ५ |
२५ | मन्दाक्रान्ता | १५ |
२६ | मत्तमयूर | १ |
२७ | मालिनी | २१९ |
२८ | रथोद्धता | ४ |
२९ | रुचिरा | ७ |
३० | वंशस्थ | २५ |
३१ | वसन्ततिलका | ६ |
३२ | वियोगिनी | ७ |
३३ | विद्युन्माला | १ |
३४ | वंशपत्रपतितम् | १ |
३५ | स्रग्धरा | ५ |
३६ | शार्दूलविक्रीडितम् | २५ |
३७ | शालिनी | ७ |
३८ | शिखरिणी | ३ |
३९ | श्रकछन्द | १ |
४० | हरिणी | १ |
इस ग्रन्थमें इक्कीस छन्द इस प्रकारके आये हैं, जिनका निर्धारण सम्भव नहीं है। यथा १७/४०५-४०६, ४२/३७, ६४,७७, ११२/९५, ९६, ११४/५४, ५५, १२३/१७०-१७९,१८१,१८२। रविषेणाचार्यने संगीतात्मक संगीत विकासके लिये छन्दोयोजना की है। यतः विशिष्ट भावोंकी अभिव्यक्ति विशिष्ट छन्दोंके द्वारा ही उपयुक्त होती है। लयको व्यवस्था छन्दोंके निर्माणमें सहायक होती है। यही कारण है कि रविषेणने लय और स्वरोंका सुन्दर निर्वाह किया है। इनकी छन्दोयोजनाके निम्नलिखित उद्देश्य है-
१. संगीत-धर्मका प्रादुर्भाव
२. रागात्मक वृत्तियोंका अनुरंजन
३. विशेष मनोभावोंका क्षनुरंजन
४. प्रेषणीयताका समावेश
अलंकार-योजनाकी अपेक्षासे भी यह काव्य सफल है। इसमें अनुप्रास, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति, सन्देह, मीलित, सार, विरोधाभास भ्रान्तिमान, उल्लेख, उत्तर, स्मरण, परिकर, अनन्वय, विनोक्ति, दृष्टान्त, काव्यलिंग, निदर्शना, यथासंख्य, विशेषोक्ति, स्वभावोक्ति, प्रतीप, उदात्त, संसृष्टि आदि ३२ प्रकारके अलंकार प्रयुक्त हुए हैं। विशेषोक्ति, यथासंख्य ओर काव्यलिंगके उदाहरण दिये जा रहे हैं-
विशेषोक्ति-
शौर्यरक्षितलो कोऽपि नयानुगतमानसः।
लक्षम्यापि कृतसम्बन्धो न गर्वग्रहदूषितः।।
राजा श्रेणिक अपनी शूर-वीरतासे समस्त लोकोंकी रक्षा करता था, तो भी उसका मन सदा नीतिपूर्ण था। लक्ष्मीसे उसका सम्बन्ध था, फिर भी वह अहंकारग्रहसे दूषित नहीं होता था।
यहाँ पर कारण दर्शाते हुए भी कार्यामुख बताया गया है, अतः विशेषोक्ति अलंकार है।
यथासंख्य-
स्फूरद्यशःप्रतापाभ्यामाक्रान्तभुवनावय।
अभिरामदुरालोको शीततिग्मकराविव।।
बढ़ते हुये यश और प्रतापसे लोकको व्याप्त करनेवाले लव और कुश चन्द्र एवं सूर्यके समान सुन्दर तथा दुरालोक हो गये। यहाँ पर चन्द्र और सूर्यका अन्वय सुन्दर और दुरालोकके साथ क्रमशः ही किया गया है।
स्वभावोक्ति-
बीक्षमाणः सितान् दन्तान् दाडिमीपुष्पलोहिते।
अवटीटे मुखे तेषां भास्वत्काञ्चनतारके॥
इस पद्यमें वानरजातिके स्वाभाविक गुणोंका वर्णन होनेसे स्वभावोक्ति अलंकार है। इसी प्रकार नर्मदावर्णन, सुमेरुवर्णन, वनवर्णन आदिमें भी मानवीकरण किया गया है। आचार्यने अपने काव्यके आधारका स्वयं निरूपण करते हुये लिखा है-
वर्द्धमानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरम्।
इन्द्रभूति परिप्राप्तः सुधर्म धारणीभवम्।।
प्रभवं क्रमतः कीर्ति ततोऽनु(नू)तरवाग्मिनम्।
लिखितं तस्य संप्राप्य रवेर्यनोऽयमुदगतः।।
वर्द्धमान जिनेन्द्रके द्वारा कहा हुआ यह अर्थ इन्द्रभूति नामक गौतम गणधरको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् धारिणीके पुत्र सुधर्माचार्यको। तदनन्तर प्रभवको और पश्चात् श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिधर आचार्यको उक्त अर्थ प्राप्त हुआ। आचार्य रविषेणने इन्हीं कीर्तिधर आचार्यके वचनोंका अवलोकन कर, इस 'पद्मचरितम्' की रचना की है।
यहाँ यह विचारणीय है कि पद्ममें आया हुआ कीर्तिधर आचार्य कौन है और उसके द्वारा रामकथा सम्बन्धी कौन-सा काय लिखा गया है? जैन साहित्यके आलोक में उक्त प्रश्नोंका उत्तर प्राप्त नहीं होता है। श्रीनाथूरामजी प्रेमीने इस ग्रन्थकी रचना प्राकृत 'पउमचरियं’ के आधार पर मानी है। अतः संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि यह एक सफल काव्य है, जिसकी रचना कवि आचार्य रविषेणके द्वारा की गयी है।
भूगोलकी दृष्टि से भी यह ग्रन्थ अत्यधिक उपयोगी है। इसमें सष्टिको अनादिनिधन बताया गया है और उत्सर्पण एवं अवसर्पण कालमें होनेवाली वृद्धि हानिका कथन आया है। युगमानका वर्णन प्रायः 'तिलोयपण्पत्ति’ के समान है। भोगभूमि और कर्मभूमिकी व्यवस्था भी उसीके समान वर्णित है। बताया है कि भोगभूमिके पर्वत अत्यन्त ऊँचे, पाँच प्रकारके वर्णोसे उज्जवल, नाना प्रकारकी रत्नोंकी कान्तिसे व्याप्त एवं सर्वप्राणियोंको सुखोत्पादक होते हैं। नदियोंमें मगरमच्छ आदि नहीं रहते, पर कर्मभूमिमें यह व्यवस्था परिवर्तित हो जाती है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
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डॉ. नेमीचंद्र शास्त्री (ज्योतिषाचार्य) की पुस्तक तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा_२।
आचार्य श्री रविषेण (प्राचीन)
रविषेणाचार्य ऐसे कलाकार कवि हैं, जिन्होंने संस्कृतमें लोकप्रिय पौराणिक चरितकाव्यका ग्रथन किया है। पौराणिक चरितकाव्य- रचयिताके रूपमें रविषेणका सारस्वताचार्यों में महत्वपूर्ण स्थान है।
आचार्य रविषेण किस संघ या गण-गच्छके थे, इसका उल्लेख उनके ग्रन्थ 'पद्मचरित' में उपलब्ध नहीं होता। सेनान्त नाम ही इस बातका सूचक प्रतीत होता है कि ये सेनसंघके आचार्य थे। पद्मचरितमे निर्दिष्ट गुरूपरम्परा से अवगत होता है कि इन्द्रसेनके शिष्य दिवाकरसेन थे और दिवाकरसेन के शिष्य अर्हतसेन। इन अर्हतसेनके शिष्य लक्ष्मणसेन हुए और लक्ष्मणसेनके शिष्य रविषेण। यथा-
ज्ञाताशेषकृतान्तसन्मुनिमनःसोपानपर्वावली
पारम्पर्यसमाधितं सुवचनं सारार्थमत्यद्भुतम्।
आसीदिन्द्रगुरोदिवाकरत्तिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनि
स्तस्माल्लक्ष्मणसेनसन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम्।।
सम्यग्दर्शनशुद्धिकारणगुरुश्रेयस्करं पुष्कलं
विस्पष्ट परमं पुराणममलं श्रीमत्प्रबोधिप्रदम्।
रामस्याद्भुविक्रमस्य सुकृतो माहात्म्यसङ्कीर्तन
श्रोतव्यं सततं विचक्षणजनैरात्मोपकारार्थीभि:॥
अर्थात् यह पद्मचरित समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता उत्तम मुनियोंके मनकी सोपान-परम्पराके समान नागा क्योंकी परम्परा से युक्त है, सुमाशीसोस परीपूर्ण है, सारपूर्ण है तथा अत्यन्त आश्चर्यकारी है। इन्द्रगुरुके शिष्य श्रीदिवाकर यति थे। उनके शिष्य अर्हयति हुए। उनके शिष्य लक्ष्मणसेन मुनि थे और उनका शिष्य में रविषेण हूँ।
मेरे द्वारा रचित यह 'पद्मचरित' सम्यग्दर्शनको शुद्धताके कारणोंसे श्रेष्ठ है, कल्याणकारी है, विस्तृत है, अत्यन्त स्पष्ट है, उत्कृष्ट है, निर्मल है, श्रीसम्पन्न है, रत्नत्रयरूप बोधिका दायक है, तथा अद्भुत पराक्रमी पुण्यस्वरूप श्रीराम के माहात्म्यका उत्तम कीर्तन करनेवाला है, ऐसा यह पुराण आत्मोपकारके इच्छुक विद्वज्जनोंके द्वारा निरन्तर श्रवण करने योग्य है।
उपर्युक्त पद्योंसे रविषेणकी गुरु-परम्पराका परिज्ञान तो हो जाता है, पर जनके जन्मस्थान, बाल्पकाल, विवाहित जीवन आदिके सम्बन्धमें कुछ भी जानकारी नहीं हो पाती।
रविषेणने पद्मचरितके ४२वे पर्वमें जिन वृक्षोंका वर्णन किया है वे वृक्ष दक्षिण भारतमें पाये जाते हैं। कविका भौगोलिक ज्ञान भी दक्षिण भारतका जितना स्पष्ट और अधिक है उत्तना अन्य भारतीय प्रदेशोंका नहीं। अतएव कविका जन्मस्थान दक्षिण भारतका भूभाग होना चाहिए।
आचार्य रविषेणके समय-निर्धारणमें विशेष कठिनाई नहीं है, क्योंकि रविषेणने स्वयं अपने पद्मचरितकी समाप्तिके समयका निर्देश किया है-
द्विशताभ्यधिके समासहस्रं समतीतेऽद्धचतुर्थवर्षयुक्ते।
जिनभास्करवर्द्धमानसिद्धेश्चरितं पञ्चमुनेरिदं निबद्धम्।।
जिनसूर्य- भगवान् महावीरके निर्वाण प्राप्त करने के १२०३ वर्ष छ: माह बीत जानेपर पद्ममुनिका यह चरित निबद्ध किया। इस प्रकार इसकी रचना वि. सं. ७३४ (ई. सन् ६७७) में पूर्ण हुई है। वीर निर्वाण सं. कार्तिक कृष्णा ३० वि. सं. ४६९ पूर्वसे ही भगवान महावीरके मोक्ष जानेकी परम्परा प्रचलित है। इस तरह छ: मासका समय और जोड़ देने पर वैशाख शुक्ल पक्ष वि. सं. ७३४ रचना-तिथि आती है।
रविषेणव स्वयंके उल्लेखोंके अतिरिक्त समकालीन और उत्तरवर्ती आचार्याक निर्देश भी रांवषेणके समयपर प्रकाश पड़ता है।
इनके उत्तरवर्ती उद्योतनसूरिने अपनी कुवलयमालामें रविषेणको पद्मचरितके कर्ताके रूपमें स्मरण किया है। उद्योतनसुरिका समय ई. सन् ७७८ (वि. सं. ८३५) है। प्रतीत होता है कि रविषेणको ख्याति १०० वर्षों में ही पर्याप्त विस्तृत हो चुको थी। उद्योतनसूरिने लिखा है-
जेहि कए रमणिज्जे वरंग-पउमाणरिय वित्थारे।
कहव ण सलाहणिज्जे ते फइणो जडिय-रविसेणे।
जिन्होंने रमणीय एवं विस्तृत वरांगचरित और पद्मचरित लिखे, वे जडित तथा रविषेण कवि कैसे श्लाव्य नहीं, अपितु श्लाव्य हैं। हरिवंशपुराणके रचयिता प्रथम जिनसेनने भी रविषेणका पद्मचरितके कर्ताके रूपमें स्मरण किया है-
कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवर्त्तिता।
मूर्त्तिः काव्यमयी लोके रवेरिव रवै: प्रिया||
आचार्य रविषेणकी काव्यमयी मूर्ति सूर्यकी मूर्तिके समान लोकमें अत्यन्त प्रिय है। यतः सूर्य जिस प्रकार कमलोंको विकसित करता है उसी प्रकार रविषेणने पद्म- रामकेचरितको विस्तृत किया है। आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराण की रचना वि. सं. ८४०में की है। इससे स्पष्ट है कि रविषेण वि. सं. ८४० से पूर्ववर्ती हैं और यशस्वी कवि हैं। अतः बहिःसाक्ष्य भी रविषेणद्वारा स्वयं सूचित समयके साधक है।
पद्मचरितमें पुराण और काव्य इन दोनों के लक्षण सम्मिलित हैं। विमल सूरिकृत प्राकृत पउमचरियमका आधार रहनेपर भी इसमें मौलिकत्ताकी कमी नहीं है। कथानक और विषयवस्तुमें पर्याप्त परिवर्तन किया है। वस्तुतः इस ग्रन्थका प्रणयन उस समय हुआ है जब संस्कृतमें चरित-काव्योंकी परम्पराका पूर्ण विकास नहीं हुआ था। इसमें बन, नदी, पर्वत, ग्राम, ऋतु वर्णन, संध्या, सूर्योदय आदिका चित्रण महाकाव्यके समान ही किया गया है। कथाका आयाम पर्याप्त विस्तृत है। पद्म- रामके कई जन्मोंकी कथा तथा उनके परिकर में निवास करनेवाले सुग्रीव, विभीषण, हनुमानकी जीवन-व्यापी कथा भी इस चरित काव्य में सम्बद्ध है। कतिपय पात्रोंके जीवन-आख्यान तो इतने विस्तृत आये हैं, जिससे उन्हें स्वतंत्र काव्य या पुराण से कहा जा सकता है।
आधिकारिक कथावस्तु मुनि रामचन्द्रजीकी है और अवान्तर या प्रासंगिक कथाएँ वानर-वंश या विद्याधर-वंशके आख्यानके रूपमें आयीं हैं। इन दोनों वंशोंका कविने बहुत विस्तृत वर्णन किया है। यही कारण है कि चरितकाव्यके समस्त गुण इस ग्रन्थमें समाविष्ट हैं। अंगीरूपमें शान्त रसका परिपाक हुआ है। शृंगारके संयोग और वियोग दोनों ही पक्ष सीता-अपहरण एवं राम-विवाह के अनन्तर घटित हुए हैं। करुण-रसके चित्रण में अभूतपूर्व सफलता मिली हैं। युद्ध में भाई-बंधुओंके काम आनेपर कुटुम्बियोंके विलाप पाषाणहृदयको भी द्रवीभूत करने में समर्थ हैं। वर्णनोंके चित्रणमें कविको पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। नर्मदाका रमणीय दृश्य अनेक उत्प्रेक्षाओं द्वारा चित्रित हुआ है। नर्मदा मधुरशब्द करनेवाले नानापक्षियोंके समूहके साथ वार्तालाप करती हुई-सी प्रतीत होती है। फेनके समूहसे वह हँसती हुई-सी मालूम पड़ती है। तरंग रूपी भृकुटीके विलासके कारण वह क्रुद्ध होता हुई नायिका-सी, आवर्तरूपी बुंदबुदोंसे युक्त नायिकाकी नाभि जैसी, विशाल तटोंसे युक्त स्थूल नितम्ब जैसी एवं निर्मल जल-वस्त्र जैसे प्रतीत होते थे।
इस ग्रन्थमें १२३ पर्व हैं। इसे छह खण्डों में विभक्त किया जा सकता है-
१. विद्याधरकाण्ड
२. जन्म और विवाहकाण्ड
३. वन-भ्रमण
४. सीता-हरण और उसका अन्वेषण
५. युद्ध
६. उत्तरचरित
भगवान महावीरके प्रथम गणधर गौतमस्वामीको नमस्कार कर, उनसे रामकथा जानने की इच्छा प्रकट करनेपर, गौतमस्वामीने यह रामकथा कही है।
कथारम्भमें १. विद्याधरलोक २. राक्षसवंश ३. वानरवंश ४. सोमवंश ५. सूर्यवंश और ६, इक्ष्वाकुवंशके वर्णनके पश्चात् कथास्रोत सरिताको वेगवती धाराके समान आगे बढ़ता है।
रावणका जन्म (७-८ पर्व)- राक्षसवंशी राजा रत्नश्रवा तथा महारानी केकसीको रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण नामक तीन पुत्र एवं चन्द्रनखा नामक पुत्रीका लाभ हुआ। ये चारों सन्तान पैदा होते ही अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार अपनी-अपनी महत्ताका संकेत देने लगीं। रत्नश्रवाने जन्म के समय ही रावणको दिव्यहारसे युक्त एवं मौलिक मालामें प्रतिबिम्बित, उसके एक ही सिरके दश प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़नेके कारण उसका नाम दशानन रखा। विद्यासिद्धि (८ वा पर्व) अपने मौसेरे भाई इन्द्रकी विभूतिका श्रवण कर उसे परास्त करने का लक्ष्य रखकर वे तीनों भाई विद्यासिद्धि हेतु घनघोर तपश्चरण करने लगे। अन्त में अपनी दृढ़ता एवं एकाग्रता और निर्मोहिता एव निर्भीकताके कारण उन तीनों भाइयोंने अनेक विद्याओंको सिद्ध कर लिया। अपनी सफलताका प्रारम्भिक चरण मान वे तीनों भाई दिग्विजयकी तैयारी करने लगे।
दक्षिण विजय (९-११ पर्व)- रथनपुरका राजा इन्द्र अत्यन्त शक्तिशाली था। अतः उसे परास्त करनेके उद्देश्य से इन्होंने आक्रमणकी तैयारी की। रावण ने अपनी वीरता और कुशलतासे इन्द्रके सहायक यम, वरुण आदिको तो पहल ही परास्त कर दिया था। अब उसकी दृष्टि इन्द्रपर ही था। इन्द्र मानव होते हुए भी अपने लिये इन्द्र ही समझ रहा था। इसी कारण उसने प्रान्तीय शासकोंको यम, वरुण, सोम आदि संज्ञाओसे अभिहित किया था। उसने कारागारको नरकसंज्ञा और अर्थमंत्रीकी कुबेरसंज्ञा अभिहित की थी। रावण ने समस्त साधनपूर्ण सेना लेकर किष्किन्धापुर के राजा बलिको अपमानित किया और उसके साधुभाई सुग्रीवको अपना मित्र बनाया।
रथनूपुरके चारों ओर मायामयी परकोटा बना हुआ था। उसकी रक्षा अनेक विद्याधरोंके साथ मलकुवर करता था। यह परकोटा अभेद्य था। इसके भंदनका परिज्ञान नलकूवरको पस्नाका ज्ञात था और यह नारी रावणके रूपको देखते ही माहित हो गया। रावणने झूठा आश्वासन देकर परकोटाभेदनका उपाय ज्ञात कर लिया और अन्त में विजयके पश्चात् नलकूवरको वहाका राजा नियुक्त कर उसकी पत्नी को मां शब्दरो सम्बोधित कर एवं पतिव्रता बने रहनका उपदेश दें, वहाँस आग बढ़ा। अनेक प्रकारसे युद्ध होनेके पश्चात इन्द्र अपने मंत्रिमंडल सहित बंदी बना लिया गया, पर उसके पिता सहस्रशूरके अनुरोध पर रावणने उसे मुक्त किया और अपनी महत्ताका उदाहरण प्रस्तुत किया।
हनुमान-जन्म (१५-१८ पर्व)
आदित्यपुरके राजा प्रहलाद के पुत्र पवनञ्जयका विवाह राजा महेन्द्रकी पुत्री अंजनासे हुआ। पवनज्जय उसकी सुन्दरतासे आकृष्ट होनेपर भी, अंजनाकी एक सखी द्वारा अपनो निन्दा सुनकर वह अंजनासे रुष्ट हो गया और विवाह हो जानेपर उसने अंजनाका परित्याग कर दिया। जब पवनज्जय रावणको किसी युद्ध में सहायता देने के लिये जा रहा था, तो उसका शिविर एक नदीके तट पर स्थित हया। यहाँ चकवाके वियोग में एक चकवीको विलाप करते देख, उसे अंजनाकी स्मृति ही आयी और अपने कीये कार्यों पर पश्चात्ताप करने लगा। वह सेनाको वहीं छोड़ रात्रिमें ही अंजना के पास चला आया। प्रथम मिलनके फलस्वरूप अंजना गर्भवती हुई। पवनज्जय प्रभात होने के पूर्व ही बिना किसी से कहे-सुने अंजनाके भवनसे चला गया। अंजनाकी सास तथा अन्य परिवारके व्यक्तियोंने जब उसमें गर्भवतीके चिह्न देखे, तो परिवारके अपवादके भयसे उन्होंने अंजनाको घरसे बाहर निकाल दिया। वह दर-दर भटकती हुई एक निर्जन वन पहुंची। यहाँ उसने एक पुत्रको जन्म दिया। इसी समय आकाश मार्गसे राजा प्रतिसूर्य जा रहा था। उसने जब एक नारीका करुण चीत्कार सुना, तो उसका हृदय पिघाल गया और नीचे आकर परिचय जानना चाहा। इस परिचय के क्रममें जब उसे यह मालम हुआ कि यह उसकी भांजी है, तो उसे अपार हर्ष हुआ और उसे पुत्रसहित लेकर अपने घर हनुरुह द्वीपमें चला आया। मार्गमें चलते हुए हनुमान जगन बाल्य-चांचल्यके कारण विमानसे नीचे गिर पड़े, पर हनुमानको चाट न लगी और जिस शिला पर वे गिरे थे वह शिला चूर-चूर हो गयी। हनुरुह द्वीपमें बालकके संस्कार सम्पन्न किय गये। इसी कारण इसका नाम हनुमान रखा गया।
युद्धमें विजय प्राप्त करने के पश्चात् पवनञ्जय घर वापस लौटा, पर अंजनाको न पाकर तथा उसकी अपवादकी ज्ञातकर उसे अपार वेदना हई। फलतः वह घर छोड़कर चनकी खाक छानने चल दिया। वह वन-वन भटकता हुआ, वृक्ष और लताओसे अंजनाका पता पूछता हुआ उन्मत्तकी तरह भ्रमण करने लगा। कुछ समय पश्चात वह भ्रमण करता हुआ हनुरुह द्वीप पहुंचा और वहाँ अपनी पत्नी और पुत्रको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ तथा सभीके साथ आदित्यपुर लौट आया।
चन्द्रनखाका विवाह खरदूषण नामक राक्षसके साथ हुआ और इस दम्पत्तिके शबूक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
राजा दशरथका जन्म (१९-२१ पर्व)- इश्वाकुवंशमें अयोध्याके राजा अजके यहाँ दशरथका जन्म हुआ। दशरथका जन्म उत्तम नक्षत्र और उत्तम मुहूर्तमें हुआ। फलस्वरूप यह जन्मसे ही वीर, प्रतापी और यशस्वी भी। इनकी तीन रानियों थीं।
(क) दर्पपुरके राजाकी पुत्री अपराजिता या कौशल्या
(ख) पनपत्र नगरके राणी निलबंधूकी सुमित्रा
(ग) रत्नपुरके राजाको पुत्री सुप्रभा
एक दिन रावणको किसीसे विदित हुआ कि उसकी मृत्यु राजा जनक और दशरथकी सन्तानोंके द्वारा होगी। अतः रावण ने अपने भाई विभीषणको मिथिलानरेश जनक और अयोध्यानरेश दशरथको मारने के लिए भेजा, पर विभीषणके आनेके पूर्व ही नारदने उन दोनोंको सचेत कर दिया था। जिससे वे दोनों अपने-अपने भवनोंमें अपने अपने अनुरूप कृत्रिम मूर्ति छोड़कर बाहर निकल गये। विभीषणने इन पूसलोंको ही संचमुचका जनक और दशरथ समझा और उन्हींका मस्तक काटकर समुद्र में गिरा दिया तथा वापस लोटकर लंकामें वैभवपूर्वक राज्य करने लगा।
राजा दशरथकीविजय एवं कैकेयोसे परिणय (२१-२५ पर्व)- भ्रमण करते हुए राजा दशरथ अनेक सामन्तोंके साथ केकय देश पहुँचे और वहाँकी राजपुत्री कैकेयीको स्वयम्वरमें जीत लिया। स्वयंवरमें समागत राजाओंने इन्हें अज्ञातकुलशील समझकर इनका युद्ध करनेका निमन्त्रण दिया। दशरथने रणभूमिमें उतरकर वीरतापूर्वक युद्ध किया और कैकेयांने उनके रथका संचालन किया। जिससे महाराज दशरथ बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कैकेयांसे वर मांगनेको कहा। समय पाकर चारों रानियोंको चार पुत्र उत्पन्न हुए। कौशल्याने राम, सुमित्राने लक्ष्मण, कैकेयोने भरत और सुप्रभाने शत्रघ्नको जन्म दिया।
सीताका जन्म (२६-३० पर्च)- राजा जनकके यहाँ सीता नामक पुत्री और भामण्डल नामक पुत्रने जन्म लिया। पूर्वजन्मकी शत्रुताके कारण किसी विद्याधरकुमारने भामण्डलका अपहरण किया और उसे वनमें छोड़ दिया। इस कुमारका लालन-पालन चन्द्रगति नामक विद्याधरने किया। नारद किसी कारणवश सीतासे रुष्ट हो गये और उसका एक सुन्दर चित्रपट तैयार कर भामण्डलको भेंट किया। भामण्डल सीताके सुन्दर रूपको देखते ही आसक्त हो गया और विद्याधरों सहित मिथिला पर आक्रमण कर दिया, पर मनोहर नगर और वाटिकाको देखते ही उसे आतिस्मरण हो गया और उसे यह ज्ञात हो गया कि सीता उसकी सहोदरा है। अतएव उसने जनकके समक्ष अपना परिचय प्रस्तुत किया तथा उन्हें सीताका स्वयम्वर करनेका परामर्श दिया। स्वयम्वरमें बज्जावर्त धनुषको बढ़ानेकी शर्त रखी गयी। अन्य राजाओंके असमर्थ रहने पर रामने इस धनुषको चढ़ाया और सीताके साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ।
रामके बड़े होने पर दशरथको संसारसे विरक्ति हो गयी और वे रामको राजा बनाकर स्वयं मुनिदीक्षा ग्रहण करनेकी तैयारी करने लगे। जब कैकेयीको यह समाचार ज्ञात हुआ, तो उसने अपने सुरक्षित वरको मांग लिया, जिसके अनुसार भरतको अयोध्याका राज्य और रामको वनवास दिया गया।
३. वनभ्रमण
(क) रामका वनवास (४१ वां पर्व)- राम लक्ष्मण और सीताके साथ दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये। मार्ग में कितने हो प्रस्त राजाओंका अभय नद्वारा उद्धार किया। कैकेयी और भरत वनमें जाकर रामको लोट आनेका अनुरोध करने लगे, पर पिताकी इच्छाके विरुद्ध कार्य करना रामने स्वीकार नहीं किया।
(ख) युद्धोंका वर्णन (४२वां पर्व)- राम-लक्ष्मणने यहाँ पर अनेक शत्रुओं, धर्मविरोधियों, पापियों और अन्यायो अत्याचारियोंको सही मार्ग पर न अनेके कारण यमलोक भेज दिया। राजा वच्चकर्णको सिहोदरके चक्रसे बचाया, वाल्याविल्यको म्लेच्छके कारागारसे मुक्त किया एव भरतका विरोध करनेवाले अतिवीर्यका नर्तकीका चेशधारण कर लक्ष्मणने उसका मान खण्डित किया। लक्ष्मणका अनेक राजकुमारियोंके साथ विवाह हुआ। दण्डकबनमें निवास करते हुए 'राम-लक्ष्मणने मुनिको आहारदान दिया और जटायु नामक वृद्ध तपस्वीसे सम्पर्क स्थापित किया।
(ग) शम्बूकमरण एवं खरदूषणसे युद्ध (४३-४४ पर्व)- सूर्यहास नामक तलवारको पाने हेतु खरदूषणका पुत्र शम्बूक तपस्या कर रहा था, किन्तु भ्रमवश बाँसोंके भिड़ेमें छिपे हुए शम्बुकका लक्ष्मण द्वारा अस्त्रपरीक्षासे मरण हो गया। विलाप करती हुई उसकी माता चन्द्रनखा लक्ष्मणके रूपसे मोहित होकर कामतृप्तिकी भिक्षा माँगने लगी, किन्तु उसमें असफलता देख, पतिसे लक्ष्मणपर बलात्कारका दोषारोपण कर युद्ध करने का अनुरोध किया। दोनों पक्षोंमें भयंकर युद्ध हुआ, खरदूषण आदि अनेक राक्षस यमपुरी पहुंचा दिये गये।
४. सीताहरण और अन्वेषन (४५-५५ पर्व)- अपने बहनोईको सहायता करनेके हेतु आया हुआ रावण सीताके अनिन्द्य लावण्यको देखकर मोहित हो गया। उस समय राम-लक्ष्मण बाहर गये हए थे। अतः बलात् उसका अपहरण कर, अपने पुष्पक विमानमें बैठाकर लंकाकी ओर चल दिया। मार्गमें जटायु एवं रत्नजटो नामक विद्याधरोंस युद्ध करना पड़ा, पर इस युद्ध में रावणकी ही विजय रही।
राम जब युद्ध समाप्त कर वापस लौटे, तो कुटियाको सोत्तासे शन्य देखकर विलाप करने लगे। रामने अपने कार्यके सिद्धयर्थ वानरवंशी राजा सुग्रीवसे मित्रता की और उनकी सहायतासे सीताका पता लगाया।
५. युद्ध (५६-७८ पर्व)- सुग्रीव आदि विद्याधरोंकी सहायतासे रामकी समस्त सेना आकाशमार्ग द्वारा लंका पहंच गयी और रामने भयंकर युद्ध आरम्भ किया। सर्वप्रथम रामने रावणके पास संधिका प्रस्ताव भेजा, पर उसने उसे अस्वीकार कर दिया। रावणके अनैतिक व्यवहारसे दुःखी होकर विभीषण भी रामसे आकर मिल गया और रामने विभीषणको लंकाका राज्य देनेका संकल्प कर लिया। दोनों ओरसे भयंकर युद्ध हुआ और अन्तमें पापपर पुण्यकी विजय हुई। रामने रावणका बध कर पृथ्वीका निष्कटक बनाया।
६. उत्तरचरित
(क) राज्योंका वितरण एवं सोतात्याग (७१-१०३ पर्व)- रावणकी मृत्युके पश्चात् राम-लक्ष्मणने लंकावासियोंको आश्वासन दिया और युद्धसे अस्त-व्यस्त लंकाकी स्थितिको सम्भाला। अनन्त्तर अयोध्या लौट आनेपर अपने राज्यका समुचित बँटवारा किया।
समय पाकर सीता गर्भवती हुई किन्तु दुर्भाग्यस रावणके यहाँ निवास करनेके कारण प्रजा द्वारा निन्दा होनेसे, रामने सीताका निर्वासन कर दिया। सीता वन-वन भ्रमण करने लगी, उसने वज्रजंघ मुनिके आश्चममें लव और कुशको जन्म दिया।
(ख) जग्निपरीक्षा (१०४-१०९ पर्व)- दिग्विजयके समय लव और कुशका राम-लक्ष्मणके साथ घनघोर युद्ध हुआ। नारदने उपस्थित होकर राम-लक्ष्मणको लव और कुशका परिचय कराया। अग्निपरीक्षा द्वारा सीताकीशुद्धि की गयी। सीताके शीलके प्रभावसे अग्निका दहकता कुण्ड शीतल जल बन गया। रामने सीतासे पुनः गृहावासमें सम्मिलित होनेका अनुरोध किया, पर सीताने अनुरोधको ठुकरा दिया और आर्यिकाका व्रत ग्रहण कर लिया तथा तपश्चरण द्वारा द्वादशम स्वर्गका लाभ किया।
नारायण और बलभद्रके प्रेम-सौहार्दकी चर्चा स्वर्गलोक तक व्याप्त हो गयी। अतएव परीक्षार्थ दो देव अयोध्या आये और लक्ष्मणसे रामके मरणका असत्य समाचार कहा। लक्ष्मण सुनते ही निष्प्राण हो गये, इस समाचारसे राम अत्यन्त दुःखित हुये और लक्ष्मणके मोहमें उनके शवको लिये हुए छः मास तक घूमते रहे। अन्तमें कृतान्तवन्कके जीवने, जो स्वर्गमें देव हुआ था, रामको समझाया। रामने लक्ष्मणके शवको अन्त्येष्टि क्रिया की और राम जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण द्वारा मोक्ष पधारें।
इस कथावस्तुमें घटनाओं और आख्यानोंका नियोजन बड़े ही सुन्दररूपमें किया गया है। चरित-काव्यकी सफलताके लिए कथानकका जैसा गठन होना चाहिये वैसा इस ग्रन्थमें उपलब्ध है। कालक्रमसे विशृंखलित घटनाओंकी रीढ़की हड्डीके समान दृढ़ और सुसंगठित रूपमें उपस्थित किया है। रामकी मूलकथाके चारों ओर अन्य घटनाएँ लताके समान उगती, बढ़ती और फैलती हुई चली हैं। कथानकोंका उतार-चढ़ाव पर्याप्त सुगठित है। पात्रोंके भाग्य बदलते हैं। परिस्थितियाँ उन्हें कुछसे कुछ बना देती हैं। वे जीवनसंघर्ष में जूझकर घर्षणशील रूपकी अवतारणा करते हैं। निस्संदेह रविषेणने कथानक सूत्रोंको कलात्मक ढंगसे संजोया है।
पद्मचरितकी कथावस्तुमें निम्नलिखित तत्त्व उपलब्ध है-
(क) योग्यता
(ख) अवसर
(ग) सत्कार्यता
(घ) रूपाकृति
कथानकको अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियोंकी ओर मोड़ना योग्यताके अन्तर्गत आता है। रावणद्वारा 'दशरथ-जनक-संतति विनाशका कारण होगी' ऐसी शंका होने पर उनके विनाशकी योजना, साहसगति विद्यावर द्वारा सुग्रीवका वेष बनाकर उसके राज्य पर आधिपत्य करना, रामके वनवासमें छायाके समान लक्ष्मण द्वारा भाईकी सेवा करना आदि प्रसंगोंके गठन में कविने योग्यतातत्त्वका समावेश किया है। रावणका राम-लक्ष्मणको बलिष्ठ समझ अपने भाई एवं पुत्रोंके बन्दी होने पर विजयप्राप्त्यर्थ बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करनेके लिए प्रस्तुत होना कथानकको प्रतिकूलसे अनुकूल परिस्थितियोंकी ओर मोड़ना है। इसी प्रकार अग्निपरीक्षामें अग्नि-कुण्डका जल-कुण्ड होना भी योग्यतातत्त्वके अन्तर्गत है।
रसपुष्टिके लिए यथासमय रसमय प्रसंग या सन्दर्भोंका प्रस्तुतीकरण कथानकनियोजनमें अवसरतत्व है। पवनञ्जय विलाप करती हुई अंजनापर, दष्टिपात भी नहीं करता है, किन्तु सूर्यास्तके समय पतिवियोगमें विलपती हुई चकनीको देखकर अंजनाकी मानसिक स्थितिका अनुमान लगा, पवनज्जयका युद्धके लिए जाते हुए मार्ग से लौट आना अवसरतत्त्वके अन्तर्गत है। इसी प्रकार भरतद्वारा रामसे राज्य करनेका आग्रह करने पर भी रामकी अस्वीकृत्तिके कारण उन्हींकी आज्ञासे निश्चित समय तक राज्य स्वीकार करना भी कथानकका अवसरतत्त्व है। रथनूपुरके मायामयी परकोटेको तोड़नेके लिए नलकूवरकी पत्नीका प्रसाधन भी अवसरतत्त्वके अन्तर्गत है।
सत्कार्यतासे तात्पर्य इस प्रकारसे संदर्भोंके संयोजनसे है, जो स्वतन्त्ररूप में अपना अस्तित्व रखकर प्रसंगगर्भवको प्राप्त हो किसी कार्यविशेषकी अभिव्यंजना करते हैं। रावणद्वारा विद्यासिद्धिहेतु तपस्या करना, देनोंका उपद्रव कर उसको अपने लक्ष्यसे विचलित करनेका प्रयत्न करना, दशरथद्वारा कैकीयीको स्वयम्वरमें प्राप्त कर, युद्ध में सहयोग देनेपर वर प्रदान करना आदि प्रसंग स्वतन्त्र होते हुए भी मूलकथानकमें गीर्भित होकर कार्यविशेषकी अभिव्यंजना कर रहे हैं।
कथावस्तुमें इतिवृत्तका वस्तुव्यापारोंके साथ उचित एवं संतुलितरूपमें नियोजन द्वारा रूपाकृति उपस्थित करना, रूपाकृति नामक तत्व है। मूल कथानकके साथ अवान्तर कथाओंका संमिश्रण अंग-अंगीभाव द्वारा करना ही इस तत्वका कार्य है। कवि कथावस्तुका विस्तार न करके छोटी-छोटी कथाओं द्वारा भी रूपाकृति तत्त्वका नियोजन कर सकता है। 'पद्मचरितम्' में राम-लक्ष्मण वनमें निवास करते हैं, लक्ष्मणद्वारा शम्बूकका वध हो जाता है। शोकाकुलिता उसकी माता चन्द्रनखा राम-लक्ष्मणको देखकर मोहित हो, अभिलाषाकी पुर्ति न होनेपर रुष्ट हो जाती है और अपने पतिसे उल्टा-सीधा भिड़ा देती है। इस प्रकारकी अवान्तरकथाएँ पद्मचरितमें कई दशक हैं। इन अवान्तरकथाओंका वस्तूव्यापारोंके साथ अंग-अंगीभावसे संयोजन किया गया है। अतएव रूपाकृतितत्वका पूर्ण समावेश हुआ है।
रविषेणने कथा-वस्तु के साथ वानरवंश, राक्षसवंश आदिको व्याख्याएँ भी बुद्धिसंगत की हैं। निःसन्देह कविका यह ग्रन्थं प्राकृत 'पउमचरिय' पर आधृत होनेपर भी कई मौलिकताओंकी दृष्टि से अद्वितीय है।
वानरवंशकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें वाल्मीकिने लिखा है कि ब्रह्माका निर्देश पाकर अनेक देवताओंने अप्सराओं, यक्ष, ऋक्ष, नागकन्याओं, किन्नरियों, विद्याधरियों एवं वानरियोके संयोगसे सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये। माता-पिताके प्राकृतिक गुणोंसे युक्त होने के कारण ये स्वभावतः साहसी, पराक्रमी, धर्मात्मा, न्यायनीतिप्रिय एवं तेजस्वी हुए। ब्रह्मासे जामवान, इन्द्रसे बलि, सूर्यसे सुग्रीव, चित्रकर्मासे नल, अग्निसे नील, कुबेरसे गन्धगादन, बृहस्पतिसे तार, अश्वनीकुमारासे मयन्द और द्वीविंद, वरुणसे सुषेण एवं वायुसे हनुमानकी उत्पत्ति हुई।
रविषेणके मतानुसार देवत्ताओंसे वानरोंकी उत्पत्ति नहीं हुई है, न वानर और देवताओंका शारीरिक संयोग सम्बन्ध ही सिद्ध होता है। अतः ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, विश्वकर्मा, नल, अग्नि, कुबेर, वरुण, पवन आदि तत्तद् नामधारी मानवव्यक्तिविशेष हैं। इन व्यक्तिविशेषोंसे हो वानरजातिके व्यक्ति पैदा हुए हैं।
रविषेणके मत्तमें वानर एक मानवजातिविशेष हैं। जिन विद्याधर राजाओंने अपना ध्वज-चिन्ह वानर अपना लिया था, वे विद्याधर राजा वानरवशी कहलाने लगे। वानर पशु नहीं हैं, मनुष्य हैं जो विद्याधरों या भुमिगोच रियोंके रूप में वर्णित हैं। इस प्रकार रविषेणने वाल्मीकिद्वारा कल्पित पशुजातिका गानवीकरण किया है।
इसी प्रकार राक्षसवंशके सम्बन्ध में भी रविषेणकी मान्यता वाल्मीकिसे भिन्न है। रविषेणने जिस प्रकार वानरद्वीपनिवासियोंको वानरवंशी माना है, उसी प्रकार राक्षसद्वीपवासियोंको राक्षसबंशी कहा है। बताया है कि विजयार्द्धके पश्चिम में एक द्वीप है, जहाँ विद्याधर राजाओंका निवास है। उस द्वीपका नाम राक्षस द्वीप है। अतः वहाँके निवासी राक्षस कहलाने लगे हैं। अमराख्य और भानुराख्य नामक तेजस्वी राजाओंकी परम्परामें मेघवाहन नामक पुत्रने जन्म लिया। इसके राक्षसनामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त प्रभावशाली एवं स्वधशाभिलाषी हुआ इस राक्षस राजासे प्रवर्तित वंश राक्षस वन कहलाने लगा। ये राक्षस जनसाधारणकी रक्षा करते थे, इसलिये भी राक्षस कहलाने लगे। अतएव रावणको राक्षम मानना भूल है। ये सम्भ्रान्त मानव थे, राक्षस नहीं। इस प्रकार कविने राक्षस और वानरवंशकी विशिष्ट व्याख्याएँ प्रस्तुत की है।
छन्द, अलंकार आदिकी दृष्टिसे भी यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है। इसमें ४१ प्रकारके छन्दोंका व्यवहार किया गया है।
क्रमसं. | नामछन्द | संख्या |
१ | अनुष्टुम् | १६४४० |
२ | अतिरुचिरा | ५ |
३ | अपरवक्र | १ |
४ | अश्वललितम | १ |
५ | आर्या | १२ |
६ | आर्यावृत्तम् | ८ |
७ | आर्याछन्द | ४९ |
८ | आर्यामीति | २७ |
९ | इन्द्रवज्रा | १२ |
१० | इन्द्रवदना | २ |
११ | उपजाति | १३४ |
१२ | उपेन्द्रवज्रा | ३३ |
१३ | कोकिलकच्छन्द | १ |
१४ | चण्डी | १ |
१५ | चतुष्पदिका | २ |
१६ | द्रुतविलम्बित | १० |
१७ | दोधक | १० |
१८ | त्रोटक | १ |
१९ | पृथ्वी | ३ |
२० | प्रहर्षिणो | १ |
२१ | पुष्पिताग्रा | ६ |
२२ | प्रमाणिका | १ |
२३ | भद्रक | १ |
२४ | मुजंगप्रयात | ५ |
२५ | मन्दाक्रान्ता | १५ |
२६ | मत्तमयूर | १ |
२७ | मालिनी | २१९ |
२८ | रथोद्धता | ४ |
२९ | रुचिरा | ७ |
३० | वंशस्थ | २५ |
३१ | वसन्ततिलका | ६ |
३२ | वियोगिनी | ७ |
३३ | विद्युन्माला | १ |
३४ | वंशपत्रपतितम् | १ |
३५ | स्रग्धरा | ५ |
३६ | शार्दूलविक्रीडितम् | २५ |
३७ | शालिनी | ७ |
३८ | शिखरिणी | ३ |
३९ | श्रकछन्द | १ |
४० | हरिणी | १ |
इस ग्रन्थमें इक्कीस छन्द इस प्रकारके आये हैं, जिनका निर्धारण सम्भव नहीं है। यथा १७/४०५-४०६, ४२/३७, ६४,७७, ११२/९५, ९६, ११४/५४, ५५, १२३/१७०-१७९,१८१,१८२। रविषेणाचार्यने संगीतात्मक संगीत विकासके लिये छन्दोयोजना की है। यतः विशिष्ट भावोंकी अभिव्यक्ति विशिष्ट छन्दोंके द्वारा ही उपयुक्त होती है। लयको व्यवस्था छन्दोंके निर्माणमें सहायक होती है। यही कारण है कि रविषेणने लय और स्वरोंका सुन्दर निर्वाह किया है। इनकी छन्दोयोजनाके निम्नलिखित उद्देश्य है-
१. संगीत-धर्मका प्रादुर्भाव
२. रागात्मक वृत्तियोंका अनुरंजन
३. विशेष मनोभावोंका क्षनुरंजन
४. प्रेषणीयताका समावेश
अलंकार-योजनाकी अपेक्षासे भी यह काव्य सफल है। इसमें अनुप्रास, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति, सन्देह, मीलित, सार, विरोधाभास भ्रान्तिमान, उल्लेख, उत्तर, स्मरण, परिकर, अनन्वय, विनोक्ति, दृष्टान्त, काव्यलिंग, निदर्शना, यथासंख्य, विशेषोक्ति, स्वभावोक्ति, प्रतीप, उदात्त, संसृष्टि आदि ३२ प्रकारके अलंकार प्रयुक्त हुए हैं। विशेषोक्ति, यथासंख्य ओर काव्यलिंगके उदाहरण दिये जा रहे हैं-
विशेषोक्ति-
शौर्यरक्षितलो कोऽपि नयानुगतमानसः।
लक्षम्यापि कृतसम्बन्धो न गर्वग्रहदूषितः।।
राजा श्रेणिक अपनी शूर-वीरतासे समस्त लोकोंकी रक्षा करता था, तो भी उसका मन सदा नीतिपूर्ण था। लक्ष्मीसे उसका सम्बन्ध था, फिर भी वह अहंकारग्रहसे दूषित नहीं होता था।
यहाँ पर कारण दर्शाते हुए भी कार्यामुख बताया गया है, अतः विशेषोक्ति अलंकार है।
यथासंख्य-
स्फूरद्यशःप्रतापाभ्यामाक्रान्तभुवनावय।
अभिरामदुरालोको शीततिग्मकराविव।।
बढ़ते हुये यश और प्रतापसे लोकको व्याप्त करनेवाले लव और कुश चन्द्र एवं सूर्यके समान सुन्दर तथा दुरालोक हो गये। यहाँ पर चन्द्र और सूर्यका अन्वय सुन्दर और दुरालोकके साथ क्रमशः ही किया गया है।
स्वभावोक्ति-
बीक्षमाणः सितान् दन्तान् दाडिमीपुष्पलोहिते।
अवटीटे मुखे तेषां भास्वत्काञ्चनतारके॥
इस पद्यमें वानरजातिके स्वाभाविक गुणोंका वर्णन होनेसे स्वभावोक्ति अलंकार है। इसी प्रकार नर्मदावर्णन, सुमेरुवर्णन, वनवर्णन आदिमें भी मानवीकरण किया गया है। आचार्यने अपने काव्यके आधारका स्वयं निरूपण करते हुये लिखा है-
वर्द्धमानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरम्।
इन्द्रभूति परिप्राप्तः सुधर्म धारणीभवम्।।
प्रभवं क्रमतः कीर्ति ततोऽनु(नू)तरवाग्मिनम्।
लिखितं तस्य संप्राप्य रवेर्यनोऽयमुदगतः।।
वर्द्धमान जिनेन्द्रके द्वारा कहा हुआ यह अर्थ इन्द्रभूति नामक गौतम गणधरको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् धारिणीके पुत्र सुधर्माचार्यको। तदनन्तर प्रभवको और पश्चात् श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिधर आचार्यको उक्त अर्थ प्राप्त हुआ। आचार्य रविषेणने इन्हीं कीर्तिधर आचार्यके वचनोंका अवलोकन कर, इस 'पद्मचरितम्' की रचना की है।
यहाँ यह विचारणीय है कि पद्ममें आया हुआ कीर्तिधर आचार्य कौन है और उसके द्वारा रामकथा सम्बन्धी कौन-सा काय लिखा गया है? जैन साहित्यके आलोक में उक्त प्रश्नोंका उत्तर प्राप्त नहीं होता है। श्रीनाथूरामजी प्रेमीने इस ग्रन्थकी रचना प्राकृत 'पउमचरियं’ के आधार पर मानी है। अतः संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि यह एक सफल काव्य है, जिसकी रचना कवि आचार्य रविषेणके द्वारा की गयी है।
भूगोलकी दृष्टि से भी यह ग्रन्थ अत्यधिक उपयोगी है। इसमें सष्टिको अनादिनिधन बताया गया है और उत्सर्पण एवं अवसर्पण कालमें होनेवाली वृद्धि हानिका कथन आया है। युगमानका वर्णन प्रायः 'तिलोयपण्पत्ति’ के समान है। भोगभूमि और कर्मभूमिकी व्यवस्था भी उसीके समान वर्णित है। बताया है कि भोगभूमिके पर्वत अत्यन्त ऊँचे, पाँच प्रकारके वर्णोसे उज्जवल, नाना प्रकारकी रत्नोंकी कान्तिसे व्याप्त एवं सर्वप्राणियोंको सुखोत्पादक होते हैं। नदियोंमें मगरमच्छ आदि नहीं रहते, पर कर्मभूमिमें यह व्यवस्था परिवर्तित हो जाती है।
सारस्वसाचार्योंने धर्म-दर्शन, आचार-शास्त्र, न्याय-शास्त्र, काव्य एवं पुराण प्रभृति विषयक ग्रन्थों की रचना करने के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण मान्य ग्रन्थों को टोकाएं, भाष्य एवं वृत्तियों मो रची हैं। इन आचार्योंने मौलिक ग्रन्य प्रणयनके साथ आगमको वशतिता और नई मौलिकताको जन्म देनेकी भीतरी बेचेनीसे प्रेरित हो ऐसे टीका-ग्रन्थों का सृजन किया है, जिन्हें मौलिकताको श्रेणी में परिगणित किया जाना स्वाभाविक है। जहाँ श्रुतधराचार्योने दृष्टिप्रबाद सम्बन्धी रचनाएं लिखकर कर्मसिद्धान्तको लिपिबद्ध किया है, वहाँ सारस्वता याोंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा द्वारा बिभिन्न विषयक वाङ्मयकी रचना की है। अतएव यह मानना अनुचित्त नहीं है कि सारस्वताचार्यों द्वारा रचित वाङ्मयकी पृष्ठभूमि अधिक विस्तृत और विशाल है।
सारस्वताचार्यो में कई प्रमुख विशेषताएं समाविष्ट हैं। यहाँ उनकी समस्त विशेषताओंका निरूपण तो सम्भव नहीं, पर कतिपय प्रमुख विशेषताओंका निर्देश किया जायेगा-
१. आगमक्के मान्य सिद्धान्तोंको प्रतिष्ठाके हेतु तविषयक ग्रन्थोंका प्रणयन।
२. श्रुतधराचार्यों द्वारा संकेतित कर्म-सिद्धान्त, आचार-सिद्धान्त एवं दर्शन विषयक स्वसन्त्र अन्योंका निर्माण।
३ लोकोपयोगी पुराण, काव्य, व्याकरण, ज्योतिष प्रभृति विषयोंसे सम्बद्ध पन्योंका प्रणयन और परम्परासे प्रात सिद्धान्तोंका पल्लवन।
४. युगानुसारी विशिष्ट प्रवृत्तियोंका समावेश करनेके हेतु स्वतन्त्र एवं मौलिक ग्रन्योंका निर्माण ।
५. महनीय और सूत्ररूपमें निबद्ध रचनाओंपर भाष्य एव विवृतियोंका लखन ।
६. संस्कृतकी प्रबन्धकाव्य-परम्पराका अवलम्बन लेकर पौराणिक चरिस और बाख्यानोंका प्रथन एवं जैन पौराणिक विश्वास, ऐतिह्य वंशानुक्रम, सम सामायिक घटनाएं एवं प्राचीन लोककथाओंके साथ ऋतु-परिवर्तन, सृष्टि व्यवस्था, आत्माका आवागमन, स्वर्ग-नरक, प्रमुख तथ्यों एवं सिद्धान्तोका संयोजन।
७. अन्य दार्शनिकों एवं ताकिकोंकी समकक्षता प्रदर्शित करने तथा विभिन्न एकान्तवादोंकी समीक्षाके हेतु स्यावादको प्रतिष्ठा करनेवालो रचनाओंका सृजन।
सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख स्वामीसमन्तभद्र हैं। इनकी समकक्षता श्रुत घराचार्यों से की जा सकती है। विभिन्न विषयक ग्रन्थ-रचनामें थे अद्वितीय हैं।
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