हैशटैग
#AbhinavVagbhatt
अलंकारशास्त्रके रचयिताओंमें वाग्भट्टका महत्वपूर्ण स्थान है। ये व्या करण, छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक, चम्पू आदि विधाओंके मर्म विद्वान थे।
इनके पिताका नाम नेमिकुमार था। नेमिकुमारने राहडपुरमें भगवान नेमिनाथ का और नलोटपुरमें २२ देवकुलकाओं सहित बादिनाथका विशाल मंदिर निर्मित किया था। काव्यानुशासनमें लिखा है
नाभेयचेत्यसदने दिशि दक्षिणस्यां ।द्वाविंशतिविदधता जिनमन्दिराणि।
मन्ये निजाग्रवरप्रभुराहडस्य । पूर्णीकृतो जगति येन यशः शशांकः ॥
-काव्यानुशासन पृ. ३४
नेमिकुमारके पिताका नाम माकलप और माताका नाम महादेवी था। इनके राह और नेमिनार दोपुर जिगम नेमिकुमार लघु और राहड ज्येष्ठ थे । नेमिकुमार अपने ज्येष्ठ भ्राता राहडके परम भक्त थे और उन्हें श्रद्धा और प्रेमकी दृष्टिसे देखते थे।
कवि वाग्भट्ट भक्तिरसके अद्वितीय प्रेमी थे । उन्होंने अपने अराध्यके चरणों में निवेदन करते हुए बताया है कि मैं न मुक्तिको कामना करता हूं और न धनवैभवकी । मैं तो निरन्सर प्रभुके चरणोंका अनुराग चाहता हूँ
नो मुक्त्यै स्पयामि विभवे; कार्य न सांसारिकः,
कित्वायोज्य करी पुनरिदं त्वामीचमभ्यये।
स्वप्ने जागरणे स्थिती विचलने दुःखे सुखे मंदिरे,
कान्तारे निशि वासरे च सततं भकिममास्तु त्वमि ।
अर्थात् हे नाथ मैं मुक्तिपुरीकी कामना नहीं करता और न सांसारिक कार्योकी पूत्ति के लिए धन-सम्पत्तिकी ही आकांक्षा करता हूँ; किन्तु हे स्वामिन् हाथ जोड़ मेरी यही प्रार्थना है कि स्वप्नमें, जागरण में, स्थितिमें, चलने में, सुख-दुःख में, मन्दिर में, वन, पर्वत आदिमें, रात्रि और दिनमें आपकी ही भक्ति प्राप्त होती रहे । मैं आपके चरणकमलोंका सदा अमर बना रहूँ ।।
कवि वाग्भट्टने अपने ग्रंथों में अपने सम्प्रदायका उल्लेख नहीं किया है, पर काव्यानुशासनकी त्तिके अध्ययनसे उनका दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी होना सूचित होता है। उन्होंने समन्तभद्र के बहतस्वयं भूस्तोत्रके द्वितीय पयको "प्रजा पतियः प्रथम जिजीविषुः" आदि "आगमआसवचनं यथा" वाक्यके साथ उदत किया है । इसी प्रकार पृष्ठ ५पर यह ६५वा पञ्च भी उद्धृत्त है
नयास्तवस्यात्पदसत्यलांछिता रसोपविता इव लोहपातयः ।
भवन्त्यभि प्रेतगुणा यसस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ।।
इसी प्रकार पृष्ठ १५पर आचार्य वीरनन्दीके मंगल-पयको उद्धृत किया है। पृष्ठ १६पर नेमिनिर्वाण काव्यका निम्नलिखित पद्य उद्धृत है
गुणप्रतीतिः सुजनाज्जनस्य दोषेष्ववज्ञा खलजल्पितेषु ।
अतो ध्रुवं नेह मम प्रबन्ध प्रभूतदोषेऽव्ययशोवकाशः श२७
इन उद्धरणोंसे यह स्पष्ट है कि वे दिगम्बर सम्प्रदायके कवि हैं। इस ग्रन्थमें 'चन्द्रप्रभ' और 'नेमिनिर्वाण' के अतिरिक्त धनञ्जयको नाममाला और राजोतिपरित्यागके भी उद्धरण मिलते हैं ।
काव्यानुशासन और छन्दोनशासनके रचयिता वाग्भद्रका समय बाशाघरके पश्चात् होना चाहिए | कविने नेमिनिर्वाणके साथ राजीसिपरित्याग या राजीमतिविप्रलंभके उद्धरण प्रस्तुत किये हैं । काव्यानुशासनमें आये हुए निम्न लिखित उद्धरणसे भी वाग्भटके समयपर प्रकाश पड़ता है
"इति दण्डिवामनवाग्भटादिप्रणीता दशकाव्यगुणाः । वयं तु माधुर्योज प्रसादलक्षणांस्त्रीनेव गुणा मन्यामहे, शेषास्तेष्वेवान्तर्भवन्ति । तरथा-माधुर्ये कान्तिः सौकुमार्य च, औजसि इलेष: समापिरुदारता च । प्रसादेऽधंयक्तिः समता चान्तभवति ।"
इस अवतरणमें दण्डी, वामन और वाग्भट्टको मान्यताओंका कथन आया है। वाग्भदने वाग्भटालंकारको रचना जयसिंहके राज्यकालमें अर्थात् वि० सं० की १२वीं शताब्दिमें की है। अत्तएक काव्यानुशासनके रचयिता वाग्भट्टका समय १२वीं शताब्दिके पश्चात् होना चाहिए। आशाधरके 'राजीमतिविप्रलंभ' या 'राजीमतिपरित्याग' काव्यके उद्धरण आनेसे इन वाग्भट्टका समय आशाधरके पश्चात् अर्थात् वि की १४वीं शतीका मध्यभाग होना चाहिए ।
वाग्भट्ट केवल अलंकार या छन्द शास्त्रके ही साता नहीं हैं, अपितु उनके द्वारा प्रबन्धकाच्य, नाटक और महाकाव्य भी लिखे गये हैं | काव्यानुशासन की वृत्तिमें लिखा है
"विनिमितानेकनन्यनाटकच्छन्दोऽलंकारमहाकाव्यप्रमुखमहाप्रबन्धबन्धुरोऽ पारतारशास्त्रसागरसमुत्तरणतीर्थायमानशेमुषो 'महाकविश्रीवाग्भटो।"
इसकी ताइपत्रसंख्या ४२ और श्लोकसंख्या ५४० हैं। इसपर स्वोपज्ञवृत्ति भी । पायी जाती है । मंगलपद्यमें कविने बताया है
विभुं नाभेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् ।
श्रीमन्नेमिकुमारस्यात्मजोऽहं वधिम वाग्भटः ।।
यह छन्दग्रन्थ पाँच अध्यायोंमें विभक्त है-
१. संशा,
२. समवृत्ताख्य,
३. अर्द्धसमवृत्तास्य,
४. मात्रासमक और
५. मात्राछन्दक ।
काव्यानुशासनके समान इस ग्रंथ में दिये गये उदाहरणोंमें राहत और नेमि कुमारको कोत्तिका खुला गान किया गया है। छन्दशास्त्रको दृष्टिसे यह अन्य उपयोगी मालूम पड़ता है। काव्यानुशासन
यह रचना निर्णयसागर प्रेस बम्बईसे छप चुकी है। रस, अलंकार, गुण, छन्द और दोष आदिका कथन आया है । उदाहरणों में कविने बहुत ही सुन्दर सुन्दर पद्योंको प्रस्तुत किया है। यथा
कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तव वशी हं हं प्रतापी प्रिये
हं हं तहि विमुञ्च कातरमते शोर्यावलेपक्रियां ।
मोहोऽनेन विनिजितः प्रभुरसौ तस्किङ्कराः के बयं
इत्येवं रतिकामजल्पविषयः सोऽयं जिनः पातु यः ।।
अर्थात एक समय कामदेव और रति जंगलमें बिहार कर रहे थे कि अचा नक उनको दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्रपर चड़ी। जिनेन्द्रके सुभग शरीरको देखकर उनमें जो मनोरंजक संवाद हुआ उसीका अंकन उपर्युक्त पद्ममें किया गया है। जिनेन्द्रको मेरुवत् निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेवसे पूछती है कि हे नाथ, यह कौन है ? कामदेव उत्तर देता है यह जिन हैं-रागद्वेष आदि कर्म शत्रुओंको जीतने वाले । पुन: रति पूछती है कि ये तुम्हारे वशमें हुए हैं ? कामदेव उत्तर देता है-प्रिये वे मेरे वशमें नहीं हुए, क्योंकि प्रतापी हैं। पुन: रति कहती है कि यदि तुम्हारे वश में ये नहीं हैं तब तुम्हारा अलोक-विजयी होनेका अभिमान व्यर्थ है। कामदेव रतिसे पुनः कहता है कि इन जिनेन्द्रने हमारे प्रभु मोहराजको जीत लिया है। अतएव जिनेन्द्रको वश करनेकी मेरी शक्ति नहीं।
इसी प्रकार कारणमालालंकारके उदाहरणमें दिया गया पश्च भी बहुत सुन्दर है
जितेन्द्रियत्वं बिनयस्य कारणं, गुणप्रकर्षो विनयादवाप्यते। .
गुणप्रकर्षण जनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः ।।
इस प्रकार यह काव्यानुशासन काध्यशास्त्रको शिक्षा देता है। इसमें अल कारों के साथ गुणदोष और रीतियोंका भी कथन आया है।
'अष्टांगहृदय'के कर्ता वाग्भट्ट जनेतर मालूम पड़ते हैं ।
इस अवतरणसे स्पष्ट है कि वाग्भट्टने अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है; पर अभी तक उनके दो ही अन्य उपलब्ध हैं-छन्दोनुशासन और काव्यानुशासन । छन्दोनुशासनको पाण्डुलिपि पाटणके श्वेताम्बरीय ज्ञानभण्डारमें विद्यमान है। १. काश्मानुशासन २।३१ ।
अलंकारशास्त्रके रचयिताओंमें वाग्भट्टका महत्वपूर्ण स्थान है। ये व्या करण, छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक, चम्पू आदि विधाओंके मर्म विद्वान थे।
इनके पिताका नाम नेमिकुमार था। नेमिकुमारने राहडपुरमें भगवान नेमिनाथ का और नलोटपुरमें २२ देवकुलकाओं सहित बादिनाथका विशाल मंदिर निर्मित किया था। काव्यानुशासनमें लिखा है
नाभेयचेत्यसदने दिशि दक्षिणस्यां ।द्वाविंशतिविदधता जिनमन्दिराणि।
मन्ये निजाग्रवरप्रभुराहडस्य । पूर्णीकृतो जगति येन यशः शशांकः ॥
-काव्यानुशासन पृ. ३४
नेमिकुमारके पिताका नाम माकलप और माताका नाम महादेवी था। इनके राह और नेमिनार दोपुर जिगम नेमिकुमार लघु और राहड ज्येष्ठ थे । नेमिकुमार अपने ज्येष्ठ भ्राता राहडके परम भक्त थे और उन्हें श्रद्धा और प्रेमकी दृष्टिसे देखते थे।
कवि वाग्भट्ट भक्तिरसके अद्वितीय प्रेमी थे । उन्होंने अपने अराध्यके चरणों में निवेदन करते हुए बताया है कि मैं न मुक्तिको कामना करता हूं और न धनवैभवकी । मैं तो निरन्सर प्रभुके चरणोंका अनुराग चाहता हूँ
नो मुक्त्यै स्पयामि विभवे; कार्य न सांसारिकः,
कित्वायोज्य करी पुनरिदं त्वामीचमभ्यये।
स्वप्ने जागरणे स्थिती विचलने दुःखे सुखे मंदिरे,
कान्तारे निशि वासरे च सततं भकिममास्तु त्वमि ।
अर्थात् हे नाथ मैं मुक्तिपुरीकी कामना नहीं करता और न सांसारिक कार्योकी पूत्ति के लिए धन-सम्पत्तिकी ही आकांक्षा करता हूँ; किन्तु हे स्वामिन् हाथ जोड़ मेरी यही प्रार्थना है कि स्वप्नमें, जागरण में, स्थितिमें, चलने में, सुख-दुःख में, मन्दिर में, वन, पर्वत आदिमें, रात्रि और दिनमें आपकी ही भक्ति प्राप्त होती रहे । मैं आपके चरणकमलोंका सदा अमर बना रहूँ ।।
कवि वाग्भट्टने अपने ग्रंथों में अपने सम्प्रदायका उल्लेख नहीं किया है, पर काव्यानुशासनकी त्तिके अध्ययनसे उनका दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी होना सूचित होता है। उन्होंने समन्तभद्र के बहतस्वयं भूस्तोत्रके द्वितीय पयको "प्रजा पतियः प्रथम जिजीविषुः" आदि "आगमआसवचनं यथा" वाक्यके साथ उदत किया है । इसी प्रकार पृष्ठ ५पर यह ६५वा पञ्च भी उद्धृत्त है
नयास्तवस्यात्पदसत्यलांछिता रसोपविता इव लोहपातयः ।
भवन्त्यभि प्रेतगुणा यसस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ।।
इसी प्रकार पृष्ठ १५पर आचार्य वीरनन्दीके मंगल-पयको उद्धृत किया है। पृष्ठ १६पर नेमिनिर्वाण काव्यका निम्नलिखित पद्य उद्धृत है
गुणप्रतीतिः सुजनाज्जनस्य दोषेष्ववज्ञा खलजल्पितेषु ।
अतो ध्रुवं नेह मम प्रबन्ध प्रभूतदोषेऽव्ययशोवकाशः श२७
इन उद्धरणोंसे यह स्पष्ट है कि वे दिगम्बर सम्प्रदायके कवि हैं। इस ग्रन्थमें 'चन्द्रप्रभ' और 'नेमिनिर्वाण' के अतिरिक्त धनञ्जयको नाममाला और राजोतिपरित्यागके भी उद्धरण मिलते हैं ।
काव्यानुशासन और छन्दोनशासनके रचयिता वाग्भद्रका समय बाशाघरके पश्चात् होना चाहिए | कविने नेमिनिर्वाणके साथ राजीसिपरित्याग या राजीमतिविप्रलंभके उद्धरण प्रस्तुत किये हैं । काव्यानुशासनमें आये हुए निम्न लिखित उद्धरणसे भी वाग्भटके समयपर प्रकाश पड़ता है
"इति दण्डिवामनवाग्भटादिप्रणीता दशकाव्यगुणाः । वयं तु माधुर्योज प्रसादलक्षणांस्त्रीनेव गुणा मन्यामहे, शेषास्तेष्वेवान्तर्भवन्ति । तरथा-माधुर्ये कान्तिः सौकुमार्य च, औजसि इलेष: समापिरुदारता च । प्रसादेऽधंयक्तिः समता चान्तभवति ।"
इस अवतरणमें दण्डी, वामन और वाग्भट्टको मान्यताओंका कथन आया है। वाग्भदने वाग्भटालंकारको रचना जयसिंहके राज्यकालमें अर्थात् वि० सं० की १२वीं शताब्दिमें की है। अत्तएक काव्यानुशासनके रचयिता वाग्भट्टका समय १२वीं शताब्दिके पश्चात् होना चाहिए। आशाधरके 'राजीमतिविप्रलंभ' या 'राजीमतिपरित्याग' काव्यके उद्धरण आनेसे इन वाग्भट्टका समय आशाधरके पश्चात् अर्थात् वि की १४वीं शतीका मध्यभाग होना चाहिए ।
वाग्भट्ट केवल अलंकार या छन्द शास्त्रके ही साता नहीं हैं, अपितु उनके द्वारा प्रबन्धकाच्य, नाटक और महाकाव्य भी लिखे गये हैं | काव्यानुशासन की वृत्तिमें लिखा है
"विनिमितानेकनन्यनाटकच्छन्दोऽलंकारमहाकाव्यप्रमुखमहाप्रबन्धबन्धुरोऽ पारतारशास्त्रसागरसमुत्तरणतीर्थायमानशेमुषो 'महाकविश्रीवाग्भटो।"
इसकी ताइपत्रसंख्या ४२ और श्लोकसंख्या ५४० हैं। इसपर स्वोपज्ञवृत्ति भी । पायी जाती है । मंगलपद्यमें कविने बताया है
विभुं नाभेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् ।
श्रीमन्नेमिकुमारस्यात्मजोऽहं वधिम वाग्भटः ।।
यह छन्दग्रन्थ पाँच अध्यायोंमें विभक्त है-
१. संशा,
२. समवृत्ताख्य,
३. अर्द्धसमवृत्तास्य,
४. मात्रासमक और
५. मात्राछन्दक ।
काव्यानुशासनके समान इस ग्रंथ में दिये गये उदाहरणोंमें राहत और नेमि कुमारको कोत्तिका खुला गान किया गया है। छन्दशास्त्रको दृष्टिसे यह अन्य उपयोगी मालूम पड़ता है। काव्यानुशासन
यह रचना निर्णयसागर प्रेस बम्बईसे छप चुकी है। रस, अलंकार, गुण, छन्द और दोष आदिका कथन आया है । उदाहरणों में कविने बहुत ही सुन्दर सुन्दर पद्योंको प्रस्तुत किया है। यथा
कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तव वशी हं हं प्रतापी प्रिये
हं हं तहि विमुञ्च कातरमते शोर्यावलेपक्रियां ।
मोहोऽनेन विनिजितः प्रभुरसौ तस्किङ्कराः के बयं
इत्येवं रतिकामजल्पविषयः सोऽयं जिनः पातु यः ।।
अर्थात एक समय कामदेव और रति जंगलमें बिहार कर रहे थे कि अचा नक उनको दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्रपर चड़ी। जिनेन्द्रके सुभग शरीरको देखकर उनमें जो मनोरंजक संवाद हुआ उसीका अंकन उपर्युक्त पद्ममें किया गया है। जिनेन्द्रको मेरुवत् निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेवसे पूछती है कि हे नाथ, यह कौन है ? कामदेव उत्तर देता है यह जिन हैं-रागद्वेष आदि कर्म शत्रुओंको जीतने वाले । पुन: रति पूछती है कि ये तुम्हारे वशमें हुए हैं ? कामदेव उत्तर देता है-प्रिये वे मेरे वशमें नहीं हुए, क्योंकि प्रतापी हैं। पुन: रति कहती है कि यदि तुम्हारे वश में ये नहीं हैं तब तुम्हारा अलोक-विजयी होनेका अभिमान व्यर्थ है। कामदेव रतिसे पुनः कहता है कि इन जिनेन्द्रने हमारे प्रभु मोहराजको जीत लिया है। अतएव जिनेन्द्रको वश करनेकी मेरी शक्ति नहीं।
इसी प्रकार कारणमालालंकारके उदाहरणमें दिया गया पश्च भी बहुत सुन्दर है
जितेन्द्रियत्वं बिनयस्य कारणं, गुणप्रकर्षो विनयादवाप्यते। .
गुणप्रकर्षण जनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः ।।
इस प्रकार यह काव्यानुशासन काध्यशास्त्रको शिक्षा देता है। इसमें अल कारों के साथ गुणदोष और रीतियोंका भी कथन आया है।
'अष्टांगहृदय'के कर्ता वाग्भट्ट जनेतर मालूम पड़ते हैं ।
इस अवतरणसे स्पष्ट है कि वाग्भट्टने अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है; पर अभी तक उनके दो ही अन्य उपलब्ध हैं-छन्दोनुशासन और काव्यानुशासन । छन्दोनुशासनको पाण्डुलिपि पाटणके श्वेताम्बरीय ज्ञानभण्डारमें विद्यमान है। १. काश्मानुशासन २।३१ ।
#AbhinavVagbhatt
आचार्यतुल्य श्री १०८ अभिनव वाग्भट्ट 12वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 04 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
अलंकारशास्त्रके रचयिताओंमें वाग्भट्टका महत्वपूर्ण स्थान है। ये व्या करण, छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक, चम्पू आदि विधाओंके मर्म विद्वान थे।
इनके पिताका नाम नेमिकुमार था। नेमिकुमारने राहडपुरमें भगवान नेमिनाथ का और नलोटपुरमें २२ देवकुलकाओं सहित बादिनाथका विशाल मंदिर निर्मित किया था। काव्यानुशासनमें लिखा है
नाभेयचेत्यसदने दिशि दक्षिणस्यां ।द्वाविंशतिविदधता जिनमन्दिराणि।
मन्ये निजाग्रवरप्रभुराहडस्य । पूर्णीकृतो जगति येन यशः शशांकः ॥
-काव्यानुशासन पृ. ३४
नेमिकुमारके पिताका नाम माकलप और माताका नाम महादेवी था। इनके राह और नेमिनार दोपुर जिगम नेमिकुमार लघु और राहड ज्येष्ठ थे । नेमिकुमार अपने ज्येष्ठ भ्राता राहडके परम भक्त थे और उन्हें श्रद्धा और प्रेमकी दृष्टिसे देखते थे।
कवि वाग्भट्ट भक्तिरसके अद्वितीय प्रेमी थे । उन्होंने अपने अराध्यके चरणों में निवेदन करते हुए बताया है कि मैं न मुक्तिको कामना करता हूं और न धनवैभवकी । मैं तो निरन्सर प्रभुके चरणोंका अनुराग चाहता हूँ
नो मुक्त्यै स्पयामि विभवे; कार्य न सांसारिकः,
कित्वायोज्य करी पुनरिदं त्वामीचमभ्यये।
स्वप्ने जागरणे स्थिती विचलने दुःखे सुखे मंदिरे,
कान्तारे निशि वासरे च सततं भकिममास्तु त्वमि ।
अर्थात् हे नाथ मैं मुक्तिपुरीकी कामना नहीं करता और न सांसारिक कार्योकी पूत्ति के लिए धन-सम्पत्तिकी ही आकांक्षा करता हूँ; किन्तु हे स्वामिन् हाथ जोड़ मेरी यही प्रार्थना है कि स्वप्नमें, जागरण में, स्थितिमें, चलने में, सुख-दुःख में, मन्दिर में, वन, पर्वत आदिमें, रात्रि और दिनमें आपकी ही भक्ति प्राप्त होती रहे । मैं आपके चरणकमलोंका सदा अमर बना रहूँ ।।
कवि वाग्भट्टने अपने ग्रंथों में अपने सम्प्रदायका उल्लेख नहीं किया है, पर काव्यानुशासनकी त्तिके अध्ययनसे उनका दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी होना सूचित होता है। उन्होंने समन्तभद्र के बहतस्वयं भूस्तोत्रके द्वितीय पयको "प्रजा पतियः प्रथम जिजीविषुः" आदि "आगमआसवचनं यथा" वाक्यके साथ उदत किया है । इसी प्रकार पृष्ठ ५पर यह ६५वा पञ्च भी उद्धृत्त है
नयास्तवस्यात्पदसत्यलांछिता रसोपविता इव लोहपातयः ।
भवन्त्यभि प्रेतगुणा यसस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ।।
इसी प्रकार पृष्ठ १५पर आचार्य वीरनन्दीके मंगल-पयको उद्धृत किया है। पृष्ठ १६पर नेमिनिर्वाण काव्यका निम्नलिखित पद्य उद्धृत है
गुणप्रतीतिः सुजनाज्जनस्य दोषेष्ववज्ञा खलजल्पितेषु ।
अतो ध्रुवं नेह मम प्रबन्ध प्रभूतदोषेऽव्ययशोवकाशः श२७
इन उद्धरणोंसे यह स्पष्ट है कि वे दिगम्बर सम्प्रदायके कवि हैं। इस ग्रन्थमें 'चन्द्रप्रभ' और 'नेमिनिर्वाण' के अतिरिक्त धनञ्जयको नाममाला और राजोतिपरित्यागके भी उद्धरण मिलते हैं ।
काव्यानुशासन और छन्दोनशासनके रचयिता वाग्भद्रका समय बाशाघरके पश्चात् होना चाहिए | कविने नेमिनिर्वाणके साथ राजीसिपरित्याग या राजीमतिविप्रलंभके उद्धरण प्रस्तुत किये हैं । काव्यानुशासनमें आये हुए निम्न लिखित उद्धरणसे भी वाग्भटके समयपर प्रकाश पड़ता है
"इति दण्डिवामनवाग्भटादिप्रणीता दशकाव्यगुणाः । वयं तु माधुर्योज प्रसादलक्षणांस्त्रीनेव गुणा मन्यामहे, शेषास्तेष्वेवान्तर्भवन्ति । तरथा-माधुर्ये कान्तिः सौकुमार्य च, औजसि इलेष: समापिरुदारता च । प्रसादेऽधंयक्तिः समता चान्तभवति ।"
इस अवतरणमें दण्डी, वामन और वाग्भट्टको मान्यताओंका कथन आया है। वाग्भदने वाग्भटालंकारको रचना जयसिंहके राज्यकालमें अर्थात् वि० सं० की १२वीं शताब्दिमें की है। अत्तएक काव्यानुशासनके रचयिता वाग्भट्टका समय १२वीं शताब्दिके पश्चात् होना चाहिए। आशाधरके 'राजीमतिविप्रलंभ' या 'राजीमतिपरित्याग' काव्यके उद्धरण आनेसे इन वाग्भट्टका समय आशाधरके पश्चात् अर्थात् वि की १४वीं शतीका मध्यभाग होना चाहिए ।
वाग्भट्ट केवल अलंकार या छन्द शास्त्रके ही साता नहीं हैं, अपितु उनके द्वारा प्रबन्धकाच्य, नाटक और महाकाव्य भी लिखे गये हैं | काव्यानुशासन की वृत्तिमें लिखा है
"विनिमितानेकनन्यनाटकच्छन्दोऽलंकारमहाकाव्यप्रमुखमहाप्रबन्धबन्धुरोऽ पारतारशास्त्रसागरसमुत्तरणतीर्थायमानशेमुषो 'महाकविश्रीवाग्भटो।"
इसकी ताइपत्रसंख्या ४२ और श्लोकसंख्या ५४० हैं। इसपर स्वोपज्ञवृत्ति भी । पायी जाती है । मंगलपद्यमें कविने बताया है
विभुं नाभेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् ।
श्रीमन्नेमिकुमारस्यात्मजोऽहं वधिम वाग्भटः ।।
यह छन्दग्रन्थ पाँच अध्यायोंमें विभक्त है-
१. संशा,
२. समवृत्ताख्य,
३. अर्द्धसमवृत्तास्य,
४. मात्रासमक और
५. मात्राछन्दक ।
काव्यानुशासनके समान इस ग्रंथ में दिये गये उदाहरणोंमें राहत और नेमि कुमारको कोत्तिका खुला गान किया गया है। छन्दशास्त्रको दृष्टिसे यह अन्य उपयोगी मालूम पड़ता है। काव्यानुशासन
यह रचना निर्णयसागर प्रेस बम्बईसे छप चुकी है। रस, अलंकार, गुण, छन्द और दोष आदिका कथन आया है । उदाहरणों में कविने बहुत ही सुन्दर सुन्दर पद्योंको प्रस्तुत किया है। यथा
कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तव वशी हं हं प्रतापी प्रिये
हं हं तहि विमुञ्च कातरमते शोर्यावलेपक्रियां ।
मोहोऽनेन विनिजितः प्रभुरसौ तस्किङ्कराः के बयं
इत्येवं रतिकामजल्पविषयः सोऽयं जिनः पातु यः ।।
अर्थात एक समय कामदेव और रति जंगलमें बिहार कर रहे थे कि अचा नक उनको दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्रपर चड़ी। जिनेन्द्रके सुभग शरीरको देखकर उनमें जो मनोरंजक संवाद हुआ उसीका अंकन उपर्युक्त पद्ममें किया गया है। जिनेन्द्रको मेरुवत् निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेवसे पूछती है कि हे नाथ, यह कौन है ? कामदेव उत्तर देता है यह जिन हैं-रागद्वेष आदि कर्म शत्रुओंको जीतने वाले । पुन: रति पूछती है कि ये तुम्हारे वशमें हुए हैं ? कामदेव उत्तर देता है-प्रिये वे मेरे वशमें नहीं हुए, क्योंकि प्रतापी हैं। पुन: रति कहती है कि यदि तुम्हारे वश में ये नहीं हैं तब तुम्हारा अलोक-विजयी होनेका अभिमान व्यर्थ है। कामदेव रतिसे पुनः कहता है कि इन जिनेन्द्रने हमारे प्रभु मोहराजको जीत लिया है। अतएव जिनेन्द्रको वश करनेकी मेरी शक्ति नहीं।
इसी प्रकार कारणमालालंकारके उदाहरणमें दिया गया पश्च भी बहुत सुन्दर है
जितेन्द्रियत्वं बिनयस्य कारणं, गुणप्रकर्षो विनयादवाप्यते। .
गुणप्रकर्षण जनोऽनुरज्यते, जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः ।।
इस प्रकार यह काव्यानुशासन काध्यशास्त्रको शिक्षा देता है। इसमें अल कारों के साथ गुणदोष और रीतियोंका भी कथन आया है।
'अष्टांगहृदय'के कर्ता वाग्भट्ट जनेतर मालूम पड़ते हैं ।
इस अवतरणसे स्पष्ट है कि वाग्भट्टने अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है; पर अभी तक उनके दो ही अन्य उपलब्ध हैं-छन्दोनुशासन और काव्यानुशासन । छन्दोनुशासनको पाण्डुलिपि पाटणके श्वेताम्बरीय ज्ञानभण्डारमें विद्यमान है। १. काश्मानुशासन २।३१ ।
Acharyatulya Abhinav Vagbhatt 12th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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15000
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AbhinavVagbhatt
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