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#Ajitsen
अलंकारचिन्तामणिनामक ग्रंथके रचयिता अजितसेननामके आचार्य है । इन्होंने इस ग्रंथके एक संदर्भमें अपने नामका अंकन निम्न प्रकार किया है.
'अत्र एकाद्यक्रमेण पठिते सति अजितसेनेन कृतश्चिन्तामणिः"
डॉ० ज्योतिप्रसादजीने' अजितसेनका परिचय देते हुए लिखा है कि अजितसेन यतीश्वर दक्षिणदेशान्तर्गत सुलुबप्रदेशके निवासी सेनगण पोरारि गच्छके मुनि संभवतया पावसेनके शिष्य और पद्मसेनके गुरु महासेनके सधर्मा या गुरु थे।
अजितसेनके नामसे श्रृंगारमञ्जरीनामक एक लघुकाय अलंकार-शास्त्र का ग्रंथ भी प्राप्त है। इस ग्रन्थमें तीन परिच्छेद है । कुछ भंडारोंकी सूचियों में यह ग्रंथ 'रायभूप'को कृतिके रूप में उल्लिखित है। किन्तु स्वयं ग्रंथको प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इस शृंगारमंजरीकी रचना आचार्य अजितसेनने शीलविभूषणा रानी बिटुलदेवीके पुत्र और 'राय' नामसे विख्यात सोमवंशी जैन नरेश कामरायके पढ़नेके लिए संक्षेपमें की है।
एक प्रतिके अन्त में श्रीमदजितसेनाचार्यविरचिते.......' तथा दूसरीके अन्त में 'श्रीसेनगणाग्रगण्यतपोलक्ष्मीविराजितसेनदेवयतीश्वरविरचित:' लिखा है । निःसन्देह विजयवर्गीने राजा कामरायके निमित्त श्रृंगारणंवचन्द्रिका ग्रंथ लिखा है । सोमबंशी कदम्बोंकी एक शाखा बंगवंशके नामसे प्रसिद्ध हुई। दक्षिण कन्नड़ जिले तुलप्रदेशके अन्तर्गत बंगवाडिपर इस बंशका राज्य था । १खों-१३वीं शती में तुलदेशीय जैन राजवंशोंमें यह वंश सर्वमान्य सम्मान प्राप्त किये हुए था। इस वंशके एक प्रसिद्ध नरेश वीर नरसिंहवंगराज (१९५७ १२०८ ई०)के पश्चात् चन्द्रशेखरवंग और पाण्ड्यवंगने क्रमश: राज्य किया । तदनन्तर पाण्ड्यदंगकी बहन रानी बिटुलदेवी (१२३९-४४ ई०) राज्यको संचा लिका रही । और सन् १२४५में इस रानी बिट्टलाम्बाका पुत्र उफ कामराय प्रथम बंगनरेन्द्र राजा हुआ। विजयवर्णीने उसे गुणार्णव भोर राजेन्द्रपूजित लिखा है।
डॉ. ज्योतिप्रसादजीने ऐतहासिक दृष्टिसे अजित्तसेनके समयपर विचार किया है। उन्होंने अजितसेनको अलंकारशास्त्रका वेत्ता, कवि और चिन्तक विद्वान बतलाया है। इसमें सन्देह नहीं कि अजितसेन सेनसंघके आचार्य थे । शृंगारमञ्जरीके कर्ताने भी अपनेको सेनगण-अग्रणी कहा है । अतः इन दोनों ग्रंथोंके कर्ता एक ही अजित सेन प्रतीत होते हैं।
अजितसेनने अलंकारचिन्तामणिमें समन्तभद्र, जिनसेन, हरिचन्द्र, वाग्भट्ट, अहदास आदि आचार्योंके ग्रंथों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं ! रिचन्द्रका समय दशम शती, बाग्भट्टका ११वीं शती और अईदासका १३वीं शतीका अन्तिम चरण है । अतएव अजितसेनका समय १३वीं शती होना चाहिये। डॉ. ज्योति प्रसादजीका कथन है कि अजितसेनने ई० सन् १२४५के लगभग शृंगारमचरी की रचना का है, जिसका अध्ययन युबकनरेश कामराय प्रथम वंगनरेन्द्रने किया । और उसे अलंकारशास्त्र अध्ययनमें इतना रस आया कि उसने ई. सन् १२५० के लगभग विजयकीतिके शिष्य विजयवर्णसि शृंगारार्गवचन्द्रिकाकी रचना कराई। आश्चर्य नहीं कि उसने अपने आदिविद्यागुरु अजितसेनको भी इसी विषयपर एक अन्य विशद ग्रंथ लिखनेको प्रेरणा को हो और उन्होंने अलंकारचिन्तामणिके द्वारा शिष्यकी इच्छा पूरी की हो।
अहंदासके मुनिसुव्रतकाव्यका समय लगभग १२४० ई० है और इस काव्य ग्रंथकी रचना महाकवि पं आशाधरके सागारधर्मामृतके बाद हुई है । आशा धरने सागरधर्मामृतको ई० सन् १२२८में पूर्ण किया है। अतएव अलंकार चिन्तामणिका रचनाकाल ई० १२५०-६०के मध्य है।
अजितसेनकी दो रचनाएं 'शृंगारमन्जरी' और 'अलंकारचिन्तामणि' है। अलंकारचिन्तामणि पाँच परिच्छेदों में विभाजित है।
प्रथम परिच्छेदमें १०६ लोक हैं। इसमें कवि-शिक्षापर प्रकाश डाला गया है । कवि-शिक्षाकी दृष्टिसे यह ग्रंथ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। महाकान्यनिर्माताको कितने विषयोंका वर्णन किस रूप में करना चाहिए, इसकी सम्यक विवेचना की गई है। नदी, वन, पर्वत, सरोवर, आखेट, ऋतु आदिके वर्णनमें किन-किन तथ्योंको स्थान देना चाहिए, इसपर प्रकाश डाला गया है । काव्य आरंभ करते समय किन शब्दोंका प्रयोग करना मंगलमय है, इसपर भी विचार किया गया है । यह प्रकरण अलं. कारशास्त्रकी दृष्टि से विशेष उपादेय है।
द्वितीय परिच्छेदमें शब्दालंकारके चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक ये चार भेद बतलाकर चित्रालंकारका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है।
तृतीय परिच्छेदमें वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमकका विस्तारसहित निरूपण आया है।
चतुर्थ परिच्छेदमें उपमा, अनन्वय, सपमेयोपमा, स्मृति, रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान, अपह्नव, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, अतिशय, सहोक्ति, बिनोकि, समासोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, ब्याजोक्ति, मीलन, सामान्य, तद्गुण, अतद्गुण, विरोध, विशेष, नायक, विभाग, विशेषाक्ति, संगति, नि, अन्योन्य, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रसिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निर्देशना, व्यतिरेक श्लेष, परिकर, आक्षेप, व्याजस्तुति, अप्रस्तुतस्तुति, पर्यायोक्ति, प्रतीप, अनु मान, काव्यलिंग, अर्थान्तरन्यास, यथासंख्य, अर्थापत्ति, परिसंख्या, उत्तर, विकल्प, समुच्चय, समाधि, भाविक, प्रेम, रस्य, ऊर्जस्वी, प्रत्यनीक, व्याघात, पर्याय, सूक्ष्म, लदात्त, परिवृत्ति, कारणमाला, एकावली, माला, सार, संसृष्टि और संकर इन ७० अर्थालंकारोंका स्वरूप वर्णित है।
पञ्चम परिच्छेदमें नव रस, घार रीतियां, द्राक्षापाक और शय्यापाक शब्दका स्वरूप, शब्दके भेद-रूड, योगिक और मिश्र, वाच्य, लक्ष्य और व्यंग्याथ, जहल्लक्षणा, अजहरूक्षणा, सारोपा लक्षणा और साध्यवसाना लक्षणा, फौशिकी, आयभटी, सात्वती और भारती वृत्तियां, शब्दचित्र, अर्थ-चित्र, व्यंग्यार्थक परिचायक संयोगादि गुण, दोष और अन्त में नायक-नायिका भेद-प्रभेद विस्तार-पूर्वक निरूपित हैं।
वक्रोक्ति अलंकारका कथन दो संदर्भोमें आया है ततीय परिच्छेद और चतुर्थ परिच्छेद । इसमें पुनरुक्तिको शंका नहीं की जा सकती है, यत: वक्रोक्ति शब्द शक्तिमूलक और अर्थशक्तिमूलक होता है । तृतीय परिच्छेदमें शब्दशक्ति मूलक और चतुर्थ परिच्छेदमें अपशक्तिमूलक वक्रोक्ति निरूपित है।
इस अलंकारप्रथमें नाटकसम्बन्धी विषय और ध्वनिसम्बन्धी विषयोंको छोड़ शेष सभी अलंकारशास्त्रसम्बन्धी विषयोंका कथन किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ दो भागों में विभक्त किया जा सकता है लक्षण और लक्ष्य उदाहरण | लक्षणसम्बन्धी सभी पद्य अजित्तसेनके द्वारा विरचित हैं और उदा हरणसम्बन्धी श्लोक महापुराण, जिनशतक, धर्मशर्माभ्युदय और मुनिसुबत काच्य आदि ग्रन्थोंसे लिये हैं। इसकी सूचना भी ग्रन्थकारने निम्नलिखित पद्यमें
अत्रोदाहरणं पूर्वपुरागादिसुभाषितम् ।
पुण्यपूरुषसंस्तोत्रपर स्तोत्रमिदं ततः॥५॥
अपने मतको पुष्टिके लिए 'वाग्भटालंकार के लक्षण और उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं | इनका निरूपण 'उक्तंच' लिखकर किया है।
शब्दालंकारोंके वर्णनको दृष्टि से यह ग्रंथ अद्वितीय है। विषयोंका विशद वर्णन प्रत्येक पाठकको यह अपनी लोर आकृष्ट करता है।
अलंकारचिन्तामणिनामक ग्रंथके रचयिता अजितसेननामके आचार्य है । इन्होंने इस ग्रंथके एक संदर्भमें अपने नामका अंकन निम्न प्रकार किया है.
'अत्र एकाद्यक्रमेण पठिते सति अजितसेनेन कृतश्चिन्तामणिः"
डॉ० ज्योतिप्रसादजीने' अजितसेनका परिचय देते हुए लिखा है कि अजितसेन यतीश्वर दक्षिणदेशान्तर्गत सुलुबप्रदेशके निवासी सेनगण पोरारि गच्छके मुनि संभवतया पावसेनके शिष्य और पद्मसेनके गुरु महासेनके सधर्मा या गुरु थे।
अजितसेनके नामसे श्रृंगारमञ्जरीनामक एक लघुकाय अलंकार-शास्त्र का ग्रंथ भी प्राप्त है। इस ग्रन्थमें तीन परिच्छेद है । कुछ भंडारोंकी सूचियों में यह ग्रंथ 'रायभूप'को कृतिके रूप में उल्लिखित है। किन्तु स्वयं ग्रंथको प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इस शृंगारमंजरीकी रचना आचार्य अजितसेनने शीलविभूषणा रानी बिटुलदेवीके पुत्र और 'राय' नामसे विख्यात सोमवंशी जैन नरेश कामरायके पढ़नेके लिए संक्षेपमें की है।
एक प्रतिके अन्त में श्रीमदजितसेनाचार्यविरचिते.......' तथा दूसरीके अन्त में 'श्रीसेनगणाग्रगण्यतपोलक्ष्मीविराजितसेनदेवयतीश्वरविरचित:' लिखा है । निःसन्देह विजयवर्गीने राजा कामरायके निमित्त श्रृंगारणंवचन्द्रिका ग्रंथ लिखा है । सोमबंशी कदम्बोंकी एक शाखा बंगवंशके नामसे प्रसिद्ध हुई। दक्षिण कन्नड़ जिले तुलप्रदेशके अन्तर्गत बंगवाडिपर इस बंशका राज्य था । १खों-१३वीं शती में तुलदेशीय जैन राजवंशोंमें यह वंश सर्वमान्य सम्मान प्राप्त किये हुए था। इस वंशके एक प्रसिद्ध नरेश वीर नरसिंहवंगराज (१९५७ १२०८ ई०)के पश्चात् चन्द्रशेखरवंग और पाण्ड्यवंगने क्रमश: राज्य किया । तदनन्तर पाण्ड्यदंगकी बहन रानी बिटुलदेवी (१२३९-४४ ई०) राज्यको संचा लिका रही । और सन् १२४५में इस रानी बिट्टलाम्बाका पुत्र उफ कामराय प्रथम बंगनरेन्द्र राजा हुआ। विजयवर्णीने उसे गुणार्णव भोर राजेन्द्रपूजित लिखा है।
डॉ. ज्योतिप्रसादजीने ऐतहासिक दृष्टिसे अजित्तसेनके समयपर विचार किया है। उन्होंने अजितसेनको अलंकारशास्त्रका वेत्ता, कवि और चिन्तक विद्वान बतलाया है। इसमें सन्देह नहीं कि अजितसेन सेनसंघके आचार्य थे । शृंगारमञ्जरीके कर्ताने भी अपनेको सेनगण-अग्रणी कहा है । अतः इन दोनों ग्रंथोंके कर्ता एक ही अजित सेन प्रतीत होते हैं।
अजितसेनने अलंकारचिन्तामणिमें समन्तभद्र, जिनसेन, हरिचन्द्र, वाग्भट्ट, अहदास आदि आचार्योंके ग्रंथों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं ! रिचन्द्रका समय दशम शती, बाग्भट्टका ११वीं शती और अईदासका १३वीं शतीका अन्तिम चरण है । अतएव अजितसेनका समय १३वीं शती होना चाहिये। डॉ. ज्योति प्रसादजीका कथन है कि अजितसेनने ई० सन् १२४५के लगभग शृंगारमचरी की रचना का है, जिसका अध्ययन युबकनरेश कामराय प्रथम वंगनरेन्द्रने किया । और उसे अलंकारशास्त्र अध्ययनमें इतना रस आया कि उसने ई. सन् १२५० के लगभग विजयकीतिके शिष्य विजयवर्णसि शृंगारार्गवचन्द्रिकाकी रचना कराई। आश्चर्य नहीं कि उसने अपने आदिविद्यागुरु अजितसेनको भी इसी विषयपर एक अन्य विशद ग्रंथ लिखनेको प्रेरणा को हो और उन्होंने अलंकारचिन्तामणिके द्वारा शिष्यकी इच्छा पूरी की हो।
अहंदासके मुनिसुव्रतकाव्यका समय लगभग १२४० ई० है और इस काव्य ग्रंथकी रचना महाकवि पं आशाधरके सागारधर्मामृतके बाद हुई है । आशा धरने सागरधर्मामृतको ई० सन् १२२८में पूर्ण किया है। अतएव अलंकार चिन्तामणिका रचनाकाल ई० १२५०-६०के मध्य है।
अजितसेनकी दो रचनाएं 'शृंगारमन्जरी' और 'अलंकारचिन्तामणि' है। अलंकारचिन्तामणि पाँच परिच्छेदों में विभाजित है।
प्रथम परिच्छेदमें १०६ लोक हैं। इसमें कवि-शिक्षापर प्रकाश डाला गया है । कवि-शिक्षाकी दृष्टिसे यह ग्रंथ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। महाकान्यनिर्माताको कितने विषयोंका वर्णन किस रूप में करना चाहिए, इसकी सम्यक विवेचना की गई है। नदी, वन, पर्वत, सरोवर, आखेट, ऋतु आदिके वर्णनमें किन-किन तथ्योंको स्थान देना चाहिए, इसपर प्रकाश डाला गया है । काव्य आरंभ करते समय किन शब्दोंका प्रयोग करना मंगलमय है, इसपर भी विचार किया गया है । यह प्रकरण अलं. कारशास्त्रकी दृष्टि से विशेष उपादेय है।
द्वितीय परिच्छेदमें शब्दालंकारके चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक ये चार भेद बतलाकर चित्रालंकारका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है।
तृतीय परिच्छेदमें वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमकका विस्तारसहित निरूपण आया है।
चतुर्थ परिच्छेदमें उपमा, अनन्वय, सपमेयोपमा, स्मृति, रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान, अपह्नव, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, अतिशय, सहोक्ति, बिनोकि, समासोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, ब्याजोक्ति, मीलन, सामान्य, तद्गुण, अतद्गुण, विरोध, विशेष, नायक, विभाग, विशेषाक्ति, संगति, नि, अन्योन्य, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रसिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निर्देशना, व्यतिरेक श्लेष, परिकर, आक्षेप, व्याजस्तुति, अप्रस्तुतस्तुति, पर्यायोक्ति, प्रतीप, अनु मान, काव्यलिंग, अर्थान्तरन्यास, यथासंख्य, अर्थापत्ति, परिसंख्या, उत्तर, विकल्प, समुच्चय, समाधि, भाविक, प्रेम, रस्य, ऊर्जस्वी, प्रत्यनीक, व्याघात, पर्याय, सूक्ष्म, लदात्त, परिवृत्ति, कारणमाला, एकावली, माला, सार, संसृष्टि और संकर इन ७० अर्थालंकारोंका स्वरूप वर्णित है।
पञ्चम परिच्छेदमें नव रस, घार रीतियां, द्राक्षापाक और शय्यापाक शब्दका स्वरूप, शब्दके भेद-रूड, योगिक और मिश्र, वाच्य, लक्ष्य और व्यंग्याथ, जहल्लक्षणा, अजहरूक्षणा, सारोपा लक्षणा और साध्यवसाना लक्षणा, फौशिकी, आयभटी, सात्वती और भारती वृत्तियां, शब्दचित्र, अर्थ-चित्र, व्यंग्यार्थक परिचायक संयोगादि गुण, दोष और अन्त में नायक-नायिका भेद-प्रभेद विस्तार-पूर्वक निरूपित हैं।
वक्रोक्ति अलंकारका कथन दो संदर्भोमें आया है ततीय परिच्छेद और चतुर्थ परिच्छेद । इसमें पुनरुक्तिको शंका नहीं की जा सकती है, यत: वक्रोक्ति शब्द शक्तिमूलक और अर्थशक्तिमूलक होता है । तृतीय परिच्छेदमें शब्दशक्ति मूलक और चतुर्थ परिच्छेदमें अपशक्तिमूलक वक्रोक्ति निरूपित है।
इस अलंकारप्रथमें नाटकसम्बन्धी विषय और ध्वनिसम्बन्धी विषयोंको छोड़ शेष सभी अलंकारशास्त्रसम्बन्धी विषयोंका कथन किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ दो भागों में विभक्त किया जा सकता है लक्षण और लक्ष्य उदाहरण | लक्षणसम्बन्धी सभी पद्य अजित्तसेनके द्वारा विरचित हैं और उदा हरणसम्बन्धी श्लोक महापुराण, जिनशतक, धर्मशर्माभ्युदय और मुनिसुबत काच्य आदि ग्रन्थोंसे लिये हैं। इसकी सूचना भी ग्रन्थकारने निम्नलिखित पद्यमें
अत्रोदाहरणं पूर्वपुरागादिसुभाषितम् ।
पुण्यपूरुषसंस्तोत्रपर स्तोत्रमिदं ततः॥५॥
अपने मतको पुष्टिके लिए 'वाग्भटालंकार के लक्षण और उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं | इनका निरूपण 'उक्तंच' लिखकर किया है।
शब्दालंकारोंके वर्णनको दृष्टि से यह ग्रंथ अद्वितीय है। विषयोंका विशद वर्णन प्रत्येक पाठकको यह अपनी लोर आकृष्ट करता है।
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आचार्यतुल्य श्री १०८ अजितसेन 13वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 04 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
अलंकारचिन्तामणिनामक ग्रंथके रचयिता अजितसेननामके आचार्य है । इन्होंने इस ग्रंथके एक संदर्भमें अपने नामका अंकन निम्न प्रकार किया है.
'अत्र एकाद्यक्रमेण पठिते सति अजितसेनेन कृतश्चिन्तामणिः"
डॉ० ज्योतिप्रसादजीने' अजितसेनका परिचय देते हुए लिखा है कि अजितसेन यतीश्वर दक्षिणदेशान्तर्गत सुलुबप्रदेशके निवासी सेनगण पोरारि गच्छके मुनि संभवतया पावसेनके शिष्य और पद्मसेनके गुरु महासेनके सधर्मा या गुरु थे।
अजितसेनके नामसे श्रृंगारमञ्जरीनामक एक लघुकाय अलंकार-शास्त्र का ग्रंथ भी प्राप्त है। इस ग्रन्थमें तीन परिच्छेद है । कुछ भंडारोंकी सूचियों में यह ग्रंथ 'रायभूप'को कृतिके रूप में उल्लिखित है। किन्तु स्वयं ग्रंथको प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इस शृंगारमंजरीकी रचना आचार्य अजितसेनने शीलविभूषणा रानी बिटुलदेवीके पुत्र और 'राय' नामसे विख्यात सोमवंशी जैन नरेश कामरायके पढ़नेके लिए संक्षेपमें की है।
एक प्रतिके अन्त में श्रीमदजितसेनाचार्यविरचिते.......' तथा दूसरीके अन्त में 'श्रीसेनगणाग्रगण्यतपोलक्ष्मीविराजितसेनदेवयतीश्वरविरचित:' लिखा है । निःसन्देह विजयवर्गीने राजा कामरायके निमित्त श्रृंगारणंवचन्द्रिका ग्रंथ लिखा है । सोमबंशी कदम्बोंकी एक शाखा बंगवंशके नामसे प्रसिद्ध हुई। दक्षिण कन्नड़ जिले तुलप्रदेशके अन्तर्गत बंगवाडिपर इस बंशका राज्य था । १खों-१३वीं शती में तुलदेशीय जैन राजवंशोंमें यह वंश सर्वमान्य सम्मान प्राप्त किये हुए था। इस वंशके एक प्रसिद्ध नरेश वीर नरसिंहवंगराज (१९५७ १२०८ ई०)के पश्चात् चन्द्रशेखरवंग और पाण्ड्यवंगने क्रमश: राज्य किया । तदनन्तर पाण्ड्यदंगकी बहन रानी बिटुलदेवी (१२३९-४४ ई०) राज्यको संचा लिका रही । और सन् १२४५में इस रानी बिट्टलाम्बाका पुत्र उफ कामराय प्रथम बंगनरेन्द्र राजा हुआ। विजयवर्णीने उसे गुणार्णव भोर राजेन्द्रपूजित लिखा है।
डॉ. ज्योतिप्रसादजीने ऐतहासिक दृष्टिसे अजित्तसेनके समयपर विचार किया है। उन्होंने अजितसेनको अलंकारशास्त्रका वेत्ता, कवि और चिन्तक विद्वान बतलाया है। इसमें सन्देह नहीं कि अजितसेन सेनसंघके आचार्य थे । शृंगारमञ्जरीके कर्ताने भी अपनेको सेनगण-अग्रणी कहा है । अतः इन दोनों ग्रंथोंके कर्ता एक ही अजित सेन प्रतीत होते हैं।
अजितसेनने अलंकारचिन्तामणिमें समन्तभद्र, जिनसेन, हरिचन्द्र, वाग्भट्ट, अहदास आदि आचार्योंके ग्रंथों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं ! रिचन्द्रका समय दशम शती, बाग्भट्टका ११वीं शती और अईदासका १३वीं शतीका अन्तिम चरण है । अतएव अजितसेनका समय १३वीं शती होना चाहिये। डॉ. ज्योति प्रसादजीका कथन है कि अजितसेनने ई० सन् १२४५के लगभग शृंगारमचरी की रचना का है, जिसका अध्ययन युबकनरेश कामराय प्रथम वंगनरेन्द्रने किया । और उसे अलंकारशास्त्र अध्ययनमें इतना रस आया कि उसने ई. सन् १२५० के लगभग विजयकीतिके शिष्य विजयवर्णसि शृंगारार्गवचन्द्रिकाकी रचना कराई। आश्चर्य नहीं कि उसने अपने आदिविद्यागुरु अजितसेनको भी इसी विषयपर एक अन्य विशद ग्रंथ लिखनेको प्रेरणा को हो और उन्होंने अलंकारचिन्तामणिके द्वारा शिष्यकी इच्छा पूरी की हो।
अहंदासके मुनिसुव्रतकाव्यका समय लगभग १२४० ई० है और इस काव्य ग्रंथकी रचना महाकवि पं आशाधरके सागारधर्मामृतके बाद हुई है । आशा धरने सागरधर्मामृतको ई० सन् १२२८में पूर्ण किया है। अतएव अलंकार चिन्तामणिका रचनाकाल ई० १२५०-६०के मध्य है।
अजितसेनकी दो रचनाएं 'शृंगारमन्जरी' और 'अलंकारचिन्तामणि' है। अलंकारचिन्तामणि पाँच परिच्छेदों में विभाजित है।
प्रथम परिच्छेदमें १०६ लोक हैं। इसमें कवि-शिक्षापर प्रकाश डाला गया है । कवि-शिक्षाकी दृष्टिसे यह ग्रंथ बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। महाकान्यनिर्माताको कितने विषयोंका वर्णन किस रूप में करना चाहिए, इसकी सम्यक विवेचना की गई है। नदी, वन, पर्वत, सरोवर, आखेट, ऋतु आदिके वर्णनमें किन-किन तथ्योंको स्थान देना चाहिए, इसपर प्रकाश डाला गया है । काव्य आरंभ करते समय किन शब्दोंका प्रयोग करना मंगलमय है, इसपर भी विचार किया गया है । यह प्रकरण अलं. कारशास्त्रकी दृष्टि से विशेष उपादेय है।
द्वितीय परिच्छेदमें शब्दालंकारके चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक ये चार भेद बतलाकर चित्रालंकारका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है।
तृतीय परिच्छेदमें वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमकका विस्तारसहित निरूपण आया है।
चतुर्थ परिच्छेदमें उपमा, अनन्वय, सपमेयोपमा, स्मृति, रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान, अपह्नव, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, अतिशय, सहोक्ति, बिनोकि, समासोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, ब्याजोक्ति, मीलन, सामान्य, तद्गुण, अतद्गुण, विरोध, विशेष, नायक, विभाग, विशेषाक्ति, संगति, नि, अन्योन्य, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रसिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निर्देशना, व्यतिरेक श्लेष, परिकर, आक्षेप, व्याजस्तुति, अप्रस्तुतस्तुति, पर्यायोक्ति, प्रतीप, अनु मान, काव्यलिंग, अर्थान्तरन्यास, यथासंख्य, अर्थापत्ति, परिसंख्या, उत्तर, विकल्प, समुच्चय, समाधि, भाविक, प्रेम, रस्य, ऊर्जस्वी, प्रत्यनीक, व्याघात, पर्याय, सूक्ष्म, लदात्त, परिवृत्ति, कारणमाला, एकावली, माला, सार, संसृष्टि और संकर इन ७० अर्थालंकारोंका स्वरूप वर्णित है।
पञ्चम परिच्छेदमें नव रस, घार रीतियां, द्राक्षापाक और शय्यापाक शब्दका स्वरूप, शब्दके भेद-रूड, योगिक और मिश्र, वाच्य, लक्ष्य और व्यंग्याथ, जहल्लक्षणा, अजहरूक्षणा, सारोपा लक्षणा और साध्यवसाना लक्षणा, फौशिकी, आयभटी, सात्वती और भारती वृत्तियां, शब्दचित्र, अर्थ-चित्र, व्यंग्यार्थक परिचायक संयोगादि गुण, दोष और अन्त में नायक-नायिका भेद-प्रभेद विस्तार-पूर्वक निरूपित हैं।
वक्रोक्ति अलंकारका कथन दो संदर्भोमें आया है ततीय परिच्छेद और चतुर्थ परिच्छेद । इसमें पुनरुक्तिको शंका नहीं की जा सकती है, यत: वक्रोक्ति शब्द शक्तिमूलक और अर्थशक्तिमूलक होता है । तृतीय परिच्छेदमें शब्दशक्ति मूलक और चतुर्थ परिच्छेदमें अपशक्तिमूलक वक्रोक्ति निरूपित है।
इस अलंकारप्रथमें नाटकसम्बन्धी विषय और ध्वनिसम्बन्धी विषयोंको छोड़ शेष सभी अलंकारशास्त्रसम्बन्धी विषयोंका कथन किया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ दो भागों में विभक्त किया जा सकता है लक्षण और लक्ष्य उदाहरण | लक्षणसम्बन्धी सभी पद्य अजित्तसेनके द्वारा विरचित हैं और उदा हरणसम्बन्धी श्लोक महापुराण, जिनशतक, धर्मशर्माभ्युदय और मुनिसुबत काच्य आदि ग्रन्थोंसे लिये हैं। इसकी सूचना भी ग्रन्थकारने निम्नलिखित पद्यमें
अत्रोदाहरणं पूर्वपुरागादिसुभाषितम् ।
पुण्यपूरुषसंस्तोत्रपर स्तोत्रमिदं ततः॥५॥
अपने मतको पुष्टिके लिए 'वाग्भटालंकार के लक्षण और उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं | इनका निरूपण 'उक्तंच' लिखकर किया है।
शब्दालंकारोंके वर्णनको दृष्टि से यह ग्रंथ अद्वितीय है। विषयोंका विशद वर्णन प्रत्येक पाठकको यह अपनी लोर आकृष्ट करता है।
Acharyatulya Ajitsen 13th Century (Prachin)
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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