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#Devsen
देवसेन अपनश-भाषाके प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने बाल्मीकि, व्यास, श्रीहर्ष, कालिदास, वाण, मयूर, हलिय, गोविन्द, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त, भूपाल नामक कवियोंका उल्लेख किया है। कवि देवसेन मुनि हैं। ये देवसेन गणी या गणघर कहलाते थे। ये निरिक अमिय और सितन गणपरके शिष्य थे। विमलसेन शील, रत्नत्रय, उत्तमक्षमादि दशधर्म, संयम आदिसे युक्त थे। ये महान तपस्वी, पंचाचारके धारक, पंच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त मुनिगणोंके द्वारा वन्दनीय और लोकप्रसिद्ध थे। दुर्द्धर पंचमहायतोंको धारण करनेके कारण मलधारीदेवके नामसे प्रसिद्ध थे। यही विमलसेन 'सुलोयणाचरिउ'के रचयिता देवसेनके गुरु थे ।
देवसेनका व्यक्तित्व आत्माराधक, तपस्वी और जितेन्द्रिय साधकका व्यक्तित्व है। उन्होंने पूर्वाचार्योसे आये हुए सुलोचनाके चरितको 'मम्मल' राजाकी नगरीमें निवास करते हुए लिखा है।
कविने यह कृति राक्षस-संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवारके दिन पूर्ण की है।साठ संवत्सरोंमें राक्षस-संवत्सर उनचासवा है। ज्योतिषकी गणनाके अनुसार इस तिथि और इस दिन दो बार राक्षस-संवत्सर आता है। प्रथम बार २९ जुलाई सन् १७७५ ई० (वि. सं. ११३२ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी) और दूसरी बार १६ जुलाई सन् १३१५ ई० (वि० सं० १३७२ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी) में राक्षस संवत्सर आता है। इन दोनों समयों में २४० वर्षाका अन्तर है। शेष संवतोंमें श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवारका दिन नहीं पड़ता। कविने अपने पूर्ववर्ती जिन कवियोंका उल्लेख किया है उनमें सबसे उत्तरकालीन कवि पुष्पदन्त हैं। अतः देवसेन भी पुष्पदन्तके बाद और वि० सं० १३७२ के पूर्व उत्पन्न हुए माने जा सकते हैं।
'कुबलयमाला'के कर्ता 'उद्योतनसूरि'ने सुलोचनाकथाका निर्देश किया है। जिनसेन, धवल और पुष्पदन्त कवियों ने भी सुलोचनाकथा लिखी है । कवि देवसेनने अपना यह सुलोचनाचरित कुन्दकुन्दके सुलोचनाचरितके आधार पर लिखा है । कुन्दकुन्दने गाथाबद्ध शैलीमें यह चरित लिखा था और देव सेनने इसे पद्धडियाछन्दमें अनूदित किया है। लिखा है
जं गाहावर्धे आसि उत्त, सिरिकुन्दकुदगणिणा णिरुत्त
तं त्यहि पद्धड़ियहि करेमि, परि किपि न गूढउ अत्थू देमि ।
तेण वि कवि गउ संसा लहंति, जे अत्यु देखि वसहि खिति ।
समय-निर्णयके लिये जैन-साहित्यमें हुए समस्त देवसेनोंपर विचार कर लेना आवश्यक है। जैन-साहित्यमें कई देवसेन हुए हैं। एक देवसेन वह हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरिपर्वतपर अंकित शक संवत् ६२२ के शिलालेखमें आता है। दूसरे देवसेन धवलाटोकाके कर्ता आचार्य बीरसेनके शिष्य थे, जिनका उल्लेख आचार्य जिनसेनने जयघवलादीकाकी प्रशस्तिके ४४वें पञ्च किया है। तीसरे देवसेन 'दर्शनसार के रचयिता हैं | चतुर्थ देवसेन वह हैं, जिनका उल्लेख सुभाषितरत्नसंदोह और धर्मपरीक्षादिके कत्र्ता आचार्य अमितगतिने अपनी गुरुपरम्परामें किया है । दुबकुपड़के वि० सं० ११४५ के अभिलेखमें उल्लिखित देव सेन पंचम हैं। ये लाइवागडसंघके आचार्य थे | छठे देवसेनका उल्लेख माथुरसंघके भट्टारक गुणकी तिके शिष्य यशःकोत्तिने विक सं० १४९७ में अपने पाण्डवपुराणमें किया है।
इन सभी देवसेनोंमें ऐसा एक भी देवसेन नहीं दिखलाई पड़ता है, जिसे विमलसेनका शिष्य माना जाम। भारप्रहक की देवसनीपनेको विमल सेनका शिष्य लिखा है। अतः भावसंग्रह और सुलोचनाचरिसके कर्ता दोनों एक ही व्यक्ति जान पड़ते हैं । इस प्रकार कविका समय बि० को १२वीं शती मालूम पड़ता है।
प्रथम बार राक्षस संवत्सर श्नावण शुक्ला चतुर्दशी और बुधबारका योग २९ जुलाई, सन् १०७५ में घटित होता है । अतएव सुलोचनाचरितके रचयिता कबि देवसेन का समय वि० सं० ११३२ ठीक प्रतीत होता है।
कविने 'सुलोयणाचरिउको रचना २८ सन्धियोंमें की है। काव्यको दृष्टिसे यह रचना उपादेय है। कथामें बताया गया है कि भरत चक्रवर्तीके प्रधान सेनापत्ति जयकुमारकी पत्नीका नाम सुलोचना था। वह राजा अकम्पन और सुप्रभाकी पुत्री थी। सुलोचना अनुपम सुन्दरी थी। इसके स्वयंवरमें अनेक देशोंके बड़े-बड़े राजा सम्मिलित हुए। सुलोचनाको देखकर वे मुग्ध हो गये। उनका हृदय विक्षन्ध हो उठा और उसकी प्राप्तिको इच्छा करने लगे। स्वयं घरमें सुलोचनाने जयको चुना | परिणामस्वरूप चक्रवर्ती भरतका पुत्र अर्क कोत्ति ऋद्ध हो उठा । और उसने इस में अपना अपमान समझा | अपने अप मानका बदला लेने के लिये अकोत्ति और जयमें युद्ध हुआ और अन्त में जय विजयी हुआ।
कवि देवसेन निरभिमानी है । वह हृदय खोलकर यह स्वीकार करता है कि चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्तने जिस सरस्वतीकी रक्षा की थी उसी सर स्वतीरूपी गौके दुग्धका पान कर कविने अपनी इस कृतिको लिखा है--
च उभुइ-रायंभु-पमुहेंहि रखिय दुहिर जा पुष्फयंतेण ।
सरसइ-सुरहोए पयं पियं सिरिदेवसेगण ।।१०।११॥
मंगल-स्तवनके अनन्तर कविने गुरु विमलसेनका स्तवन किया है। पूर्व कालीन कवियोंका उल्लेख करके पश्चात् सध्जन दुर्जनका स्मरण किया गया है । काध्यमें मगध, राजगृह आदिके काव्यमय वर्णन उपलब्ध होते हैं। श्रृङ्गार, वीर और भयानक रसोंका सांगोपांग चित्रण हुआ है।
युद्ध-वर्णन तो कविका अत्यन्त सजीव है । युद्धको अनेक क्रियाओंको अभि व्यक्त करने के लिए तदनुकूल शब्दोंकी योजना की गई है। झर-झर रुधिरका बहना, चर-चर चर्मका फटना, कड़कड़ हड्डियों का टूटना या मुड़ना आदि वाक्य युद्धके दृश्यका सजीव चित्र उपस्थित करते हैं
असि णिहसण उद्विय सिहि जालई, जोह मुफक जालिय सर जालई ।
पहरि-पहरि आमिल्लिय सद्दई, अरि वर घड थक्कय सम्मद्दई ।
झरझरंत पाह्य बहुस्तई णं कुसंभ रय राएं रत्तई ।
चश्यरत फाडिय चल चम्मई, कसमसंत चरिय तणु चम्मई ।
कइयईत मोडिय चण हडई, मंस खण्ड पोसिय भेरुंडई।
दडदडत धाविय बहुरडई, हुंकरंत धरणि बडिय मुंडई ।६।११
कविने जय और अकीतिके युद्धवर्णन प्रसंगमें भुजंगप्रयातछन्द द्वारा योद्धाओंकी गतिविधिका बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है
भड़ो को वि खग्गेण बग्ग खलतो, रणे सम्मुहे सम्मुहो आहणतो।
भड़ो को वि वाण वाणो दलंतो, समद्धाइज दुद्धरा पं कयंतो ।
भडो को नि कोतेण कोंतं सरंतो, करे गीढ चक्को अरी संपर्छतो।
भडो को वि खंडेहिं खंडी कयंगो, भडंत मुक्को संगालो अभंगो ।
भडो को वि संगामभमी घुलतो, विवण्णोह गिद्धावलो णीय अंतो ।
भडो को वि घाएण गिवट्ट सोसो, असी बावरेई अरी साण भीसो ।
भडो को वि रसम्पवाहे तरतो, फुरतप्पएणं तडि सिम्धपत्तो।
भडो को वि हत्थी बिसाणेहि भिण्णे, भड़ो को वि कंठछिण्णो गिसपणो । ६।१२
कविते तीर्थकर आदिनाथके साथ देखादेखी दीक्षा ग्रहण करनेवाले राजा. ओंके भ्रष्ट होनेपर उनके चरित्रका बहुत ही सुन्दर अंकन किया है। जो तपस्या कोको नष्ट कर मोक्ष देनेवाली है उस तपस्याका पाखण्डो लोग दुरुपयोग करते हैं और वे मनमाने ढंगसे पन्थ और सम्प्रदायोंका प्रवर्तन करते हैं।
कविने अपनी भाषा-शैलीको सशक्त बनाने के लिए अनुरणात्मक शब्दोंका प्रयोग किया है। इन बन्धोंके पढ़ते हो शब्दोंका रूपचित्र प्रस्तुत हो जाता है।
अठारहवीं सन्धिमें 'दोहयम' छन्दका प्रयोग किया है । तुकप्रेमके कारण दोहेके प्रथम और तृतीय चरण में भी तुक मिलाई गयो है । यहाँ अनुरणात्मक बन्धोंके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं।
उम उमिय उमा बसयागहिर सहाई, दो दो तिकय दिविलु उठ्ठियणिणदाई । भं भंत उच्च सर भेरी घहीराई, घण घायरुण रुणिय जय घट साराई। कडरडिय करडेहिं भुषणेक्कपूराई, धुम धुमिय मद्दलहि वज्जियई तुराई ।६।१०
यह 'सुलोयणाचरिच' अपभ्रंशका शास्त्रीय महाकाव्य है। इसमें माधुर्म, प्रसाद बौर ओज़ इन सीनों गुणोंके साथ सभी प्रमुख मलङ्कारोंकी योजना की गयो है। छन्दों में, खंड्य, जंभेट्टिया, दुबई, उवखंडय, आरणाल, गलिलय, दोहय, वसा, मंजरी आदि छन्द सन्धिमा प्रारम्भमें प्रयुक्त हैं। इनके अतिरिक्त पद्धडिया, पादाकुलक, समानिका, मदनावतार, भुजगप्रयात, सग्गिणी, कामिनी, बिज्जुमाला, सोमराजी, सरासगी, णिसेणी, बसंतचच्चर, मृतमध्या, मन्दरावली, मदनशेखर आदि छन्द प्रयुक्त हुए हैं।
भावोंकी अभिव्यंजना भी सशक्त रूपमें की गयी है । युद्धके समयकी सुलो चनाकी विचारधाराका कवि वर्णन करता हुआ कहता है
इमं जंपिकणं पउत्तं जयेणं, तुम एह कण्णा मनोहारवण्णा ।
सुरक्खेइ गुणं पुरेणइ कणं, तब जोह लक्खा अणेय असंखा ।।
पिय तत्य रम्मोवरे चित्तकम्मे, अरंभीय चिता सुज हुल्लयत्ता ।
णियं सोययंती इणं चितवंती, अहं पावयम्मा भलम्बा बधम्मा ॥
इस प्रकार चिन्ता, रोष, सहानुभूति, ममता, राग, प्रेम, दया आदिको सहज अभिव्यंजना की गयी है।
देवसेन अपनश-भाषाके प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने बाल्मीकि, व्यास, श्रीहर्ष, कालिदास, वाण, मयूर, हलिय, गोविन्द, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त, भूपाल नामक कवियोंका उल्लेख किया है। कवि देवसेन मुनि हैं। ये देवसेन गणी या गणघर कहलाते थे। ये निरिक अमिय और सितन गणपरके शिष्य थे। विमलसेन शील, रत्नत्रय, उत्तमक्षमादि दशधर्म, संयम आदिसे युक्त थे। ये महान तपस्वी, पंचाचारके धारक, पंच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त मुनिगणोंके द्वारा वन्दनीय और लोकप्रसिद्ध थे। दुर्द्धर पंचमहायतोंको धारण करनेके कारण मलधारीदेवके नामसे प्रसिद्ध थे। यही विमलसेन 'सुलोयणाचरिउ'के रचयिता देवसेनके गुरु थे ।
देवसेनका व्यक्तित्व आत्माराधक, तपस्वी और जितेन्द्रिय साधकका व्यक्तित्व है। उन्होंने पूर्वाचार्योसे आये हुए सुलोचनाके चरितको 'मम्मल' राजाकी नगरीमें निवास करते हुए लिखा है।
कविने यह कृति राक्षस-संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवारके दिन पूर्ण की है।साठ संवत्सरोंमें राक्षस-संवत्सर उनचासवा है। ज्योतिषकी गणनाके अनुसार इस तिथि और इस दिन दो बार राक्षस-संवत्सर आता है। प्रथम बार २९ जुलाई सन् १७७५ ई० (वि. सं. ११३२ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी) और दूसरी बार १६ जुलाई सन् १३१५ ई० (वि० सं० १३७२ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी) में राक्षस संवत्सर आता है। इन दोनों समयों में २४० वर्षाका अन्तर है। शेष संवतोंमें श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवारका दिन नहीं पड़ता। कविने अपने पूर्ववर्ती जिन कवियोंका उल्लेख किया है उनमें सबसे उत्तरकालीन कवि पुष्पदन्त हैं। अतः देवसेन भी पुष्पदन्तके बाद और वि० सं० १३७२ के पूर्व उत्पन्न हुए माने जा सकते हैं।
'कुबलयमाला'के कर्ता 'उद्योतनसूरि'ने सुलोचनाकथाका निर्देश किया है। जिनसेन, धवल और पुष्पदन्त कवियों ने भी सुलोचनाकथा लिखी है । कवि देवसेनने अपना यह सुलोचनाचरित कुन्दकुन्दके सुलोचनाचरितके आधार पर लिखा है । कुन्दकुन्दने गाथाबद्ध शैलीमें यह चरित लिखा था और देव सेनने इसे पद्धडियाछन्दमें अनूदित किया है। लिखा है
जं गाहावर्धे आसि उत्त, सिरिकुन्दकुदगणिणा णिरुत्त
तं त्यहि पद्धड़ियहि करेमि, परि किपि न गूढउ अत्थू देमि ।
तेण वि कवि गउ संसा लहंति, जे अत्यु देखि वसहि खिति ।
समय-निर्णयके लिये जैन-साहित्यमें हुए समस्त देवसेनोंपर विचार कर लेना आवश्यक है। जैन-साहित्यमें कई देवसेन हुए हैं। एक देवसेन वह हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरिपर्वतपर अंकित शक संवत् ६२२ के शिलालेखमें आता है। दूसरे देवसेन धवलाटोकाके कर्ता आचार्य बीरसेनके शिष्य थे, जिनका उल्लेख आचार्य जिनसेनने जयघवलादीकाकी प्रशस्तिके ४४वें पञ्च किया है। तीसरे देवसेन 'दर्शनसार के रचयिता हैं | चतुर्थ देवसेन वह हैं, जिनका उल्लेख सुभाषितरत्नसंदोह और धर्मपरीक्षादिके कत्र्ता आचार्य अमितगतिने अपनी गुरुपरम्परामें किया है । दुबकुपड़के वि० सं० ११४५ के अभिलेखमें उल्लिखित देव सेन पंचम हैं। ये लाइवागडसंघके आचार्य थे | छठे देवसेनका उल्लेख माथुरसंघके भट्टारक गुणकी तिके शिष्य यशःकोत्तिने विक सं० १४९७ में अपने पाण्डवपुराणमें किया है।
इन सभी देवसेनोंमें ऐसा एक भी देवसेन नहीं दिखलाई पड़ता है, जिसे विमलसेनका शिष्य माना जाम। भारप्रहक की देवसनीपनेको विमल सेनका शिष्य लिखा है। अतः भावसंग्रह और सुलोचनाचरिसके कर्ता दोनों एक ही व्यक्ति जान पड़ते हैं । इस प्रकार कविका समय बि० को १२वीं शती मालूम पड़ता है।
प्रथम बार राक्षस संवत्सर श्नावण शुक्ला चतुर्दशी और बुधबारका योग २९ जुलाई, सन् १०७५ में घटित होता है । अतएव सुलोचनाचरितके रचयिता कबि देवसेन का समय वि० सं० ११३२ ठीक प्रतीत होता है।
कविने 'सुलोयणाचरिउको रचना २८ सन्धियोंमें की है। काव्यको दृष्टिसे यह रचना उपादेय है। कथामें बताया गया है कि भरत चक्रवर्तीके प्रधान सेनापत्ति जयकुमारकी पत्नीका नाम सुलोचना था। वह राजा अकम्पन और सुप्रभाकी पुत्री थी। सुलोचना अनुपम सुन्दरी थी। इसके स्वयंवरमें अनेक देशोंके बड़े-बड़े राजा सम्मिलित हुए। सुलोचनाको देखकर वे मुग्ध हो गये। उनका हृदय विक्षन्ध हो उठा और उसकी प्राप्तिको इच्छा करने लगे। स्वयं घरमें सुलोचनाने जयको चुना | परिणामस्वरूप चक्रवर्ती भरतका पुत्र अर्क कोत्ति ऋद्ध हो उठा । और उसने इस में अपना अपमान समझा | अपने अप मानका बदला लेने के लिये अकोत्ति और जयमें युद्ध हुआ और अन्त में जय विजयी हुआ।
कवि देवसेन निरभिमानी है । वह हृदय खोलकर यह स्वीकार करता है कि चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्तने जिस सरस्वतीकी रक्षा की थी उसी सर स्वतीरूपी गौके दुग्धका पान कर कविने अपनी इस कृतिको लिखा है--
च उभुइ-रायंभु-पमुहेंहि रखिय दुहिर जा पुष्फयंतेण ।
सरसइ-सुरहोए पयं पियं सिरिदेवसेगण ।।१०।११॥
मंगल-स्तवनके अनन्तर कविने गुरु विमलसेनका स्तवन किया है। पूर्व कालीन कवियोंका उल्लेख करके पश्चात् सध्जन दुर्जनका स्मरण किया गया है । काध्यमें मगध, राजगृह आदिके काव्यमय वर्णन उपलब्ध होते हैं। श्रृङ्गार, वीर और भयानक रसोंका सांगोपांग चित्रण हुआ है।
युद्ध-वर्णन तो कविका अत्यन्त सजीव है । युद्धको अनेक क्रियाओंको अभि व्यक्त करने के लिए तदनुकूल शब्दोंकी योजना की गई है। झर-झर रुधिरका बहना, चर-चर चर्मका फटना, कड़कड़ हड्डियों का टूटना या मुड़ना आदि वाक्य युद्धके दृश्यका सजीव चित्र उपस्थित करते हैं
असि णिहसण उद्विय सिहि जालई, जोह मुफक जालिय सर जालई ।
पहरि-पहरि आमिल्लिय सद्दई, अरि वर घड थक्कय सम्मद्दई ।
झरझरंत पाह्य बहुस्तई णं कुसंभ रय राएं रत्तई ।
चश्यरत फाडिय चल चम्मई, कसमसंत चरिय तणु चम्मई ।
कइयईत मोडिय चण हडई, मंस खण्ड पोसिय भेरुंडई।
दडदडत धाविय बहुरडई, हुंकरंत धरणि बडिय मुंडई ।६।११
कविने जय और अकीतिके युद्धवर्णन प्रसंगमें भुजंगप्रयातछन्द द्वारा योद्धाओंकी गतिविधिका बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है
भड़ो को वि खग्गेण बग्ग खलतो, रणे सम्मुहे सम्मुहो आहणतो।
भड़ो को वि वाण वाणो दलंतो, समद्धाइज दुद्धरा पं कयंतो ।
भडो को नि कोतेण कोंतं सरंतो, करे गीढ चक्को अरी संपर्छतो।
भडो को वि खंडेहिं खंडी कयंगो, भडंत मुक्को संगालो अभंगो ।
भडो को वि संगामभमी घुलतो, विवण्णोह गिद्धावलो णीय अंतो ।
भडो को वि घाएण गिवट्ट सोसो, असी बावरेई अरी साण भीसो ।
भडो को वि रसम्पवाहे तरतो, फुरतप्पएणं तडि सिम्धपत्तो।
भडो को वि हत्थी बिसाणेहि भिण्णे, भड़ो को वि कंठछिण्णो गिसपणो । ६।१२
कविते तीर्थकर आदिनाथके साथ देखादेखी दीक्षा ग्रहण करनेवाले राजा. ओंके भ्रष्ट होनेपर उनके चरित्रका बहुत ही सुन्दर अंकन किया है। जो तपस्या कोको नष्ट कर मोक्ष देनेवाली है उस तपस्याका पाखण्डो लोग दुरुपयोग करते हैं और वे मनमाने ढंगसे पन्थ और सम्प्रदायोंका प्रवर्तन करते हैं।
कविने अपनी भाषा-शैलीको सशक्त बनाने के लिए अनुरणात्मक शब्दोंका प्रयोग किया है। इन बन्धोंके पढ़ते हो शब्दोंका रूपचित्र प्रस्तुत हो जाता है।
अठारहवीं सन्धिमें 'दोहयम' छन्दका प्रयोग किया है । तुकप्रेमके कारण दोहेके प्रथम और तृतीय चरण में भी तुक मिलाई गयो है । यहाँ अनुरणात्मक बन्धोंके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं।
उम उमिय उमा बसयागहिर सहाई, दो दो तिकय दिविलु उठ्ठियणिणदाई । भं भंत उच्च सर भेरी घहीराई, घण घायरुण रुणिय जय घट साराई। कडरडिय करडेहिं भुषणेक्कपूराई, धुम धुमिय मद्दलहि वज्जियई तुराई ।६।१०
यह 'सुलोयणाचरिच' अपभ्रंशका शास्त्रीय महाकाव्य है। इसमें माधुर्म, प्रसाद बौर ओज़ इन सीनों गुणोंके साथ सभी प्रमुख मलङ्कारोंकी योजना की गयो है। छन्दों में, खंड्य, जंभेट्टिया, दुबई, उवखंडय, आरणाल, गलिलय, दोहय, वसा, मंजरी आदि छन्द सन्धिमा प्रारम्भमें प्रयुक्त हैं। इनके अतिरिक्त पद्धडिया, पादाकुलक, समानिका, मदनावतार, भुजगप्रयात, सग्गिणी, कामिनी, बिज्जुमाला, सोमराजी, सरासगी, णिसेणी, बसंतचच्चर, मृतमध्या, मन्दरावली, मदनशेखर आदि छन्द प्रयुक्त हुए हैं।
भावोंकी अभिव्यंजना भी सशक्त रूपमें की गयी है । युद्धके समयकी सुलो चनाकी विचारधाराका कवि वर्णन करता हुआ कहता है
इमं जंपिकणं पउत्तं जयेणं, तुम एह कण्णा मनोहारवण्णा ।
सुरक्खेइ गुणं पुरेणइ कणं, तब जोह लक्खा अणेय असंखा ।।
पिय तत्य रम्मोवरे चित्तकम्मे, अरंभीय चिता सुज हुल्लयत्ता ।
णियं सोययंती इणं चितवंती, अहं पावयम्मा भलम्बा बधम्मा ॥
इस प्रकार चिन्ता, रोष, सहानुभूति, ममता, राग, प्रेम, दया आदिको सहज अभिव्यंजना की गयी है।
#Devsen
आचार्यतुल्य देवसेन (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 25 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
देवसेन अपनश-भाषाके प्रसिद्ध कवि हैं। इन्होंने बाल्मीकि, व्यास, श्रीहर्ष, कालिदास, वाण, मयूर, हलिय, गोविन्द, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदन्त, भूपाल नामक कवियोंका उल्लेख किया है। कवि देवसेन मुनि हैं। ये देवसेन गणी या गणघर कहलाते थे। ये निरिक अमिय और सितन गणपरके शिष्य थे। विमलसेन शील, रत्नत्रय, उत्तमक्षमादि दशधर्म, संयम आदिसे युक्त थे। ये महान तपस्वी, पंचाचारके धारक, पंच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त मुनिगणोंके द्वारा वन्दनीय और लोकप्रसिद्ध थे। दुर्द्धर पंचमहायतोंको धारण करनेके कारण मलधारीदेवके नामसे प्रसिद्ध थे। यही विमलसेन 'सुलोयणाचरिउ'के रचयिता देवसेनके गुरु थे ।
देवसेनका व्यक्तित्व आत्माराधक, तपस्वी और जितेन्द्रिय साधकका व्यक्तित्व है। उन्होंने पूर्वाचार्योसे आये हुए सुलोचनाके चरितको 'मम्मल' राजाकी नगरीमें निवास करते हुए लिखा है।
कविने यह कृति राक्षस-संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवारके दिन पूर्ण की है।साठ संवत्सरोंमें राक्षस-संवत्सर उनचासवा है। ज्योतिषकी गणनाके अनुसार इस तिथि और इस दिन दो बार राक्षस-संवत्सर आता है। प्रथम बार २९ जुलाई सन् १७७५ ई० (वि. सं. ११३२ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी) और दूसरी बार १६ जुलाई सन् १३१५ ई० (वि० सं० १३७२ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी) में राक्षस संवत्सर आता है। इन दोनों समयों में २४० वर्षाका अन्तर है। शेष संवतोंमें श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवारका दिन नहीं पड़ता। कविने अपने पूर्ववर्ती जिन कवियोंका उल्लेख किया है उनमें सबसे उत्तरकालीन कवि पुष्पदन्त हैं। अतः देवसेन भी पुष्पदन्तके बाद और वि० सं० १३७२ के पूर्व उत्पन्न हुए माने जा सकते हैं।
'कुबलयमाला'के कर्ता 'उद्योतनसूरि'ने सुलोचनाकथाका निर्देश किया है। जिनसेन, धवल और पुष्पदन्त कवियों ने भी सुलोचनाकथा लिखी है । कवि देवसेनने अपना यह सुलोचनाचरित कुन्दकुन्दके सुलोचनाचरितके आधार पर लिखा है । कुन्दकुन्दने गाथाबद्ध शैलीमें यह चरित लिखा था और देव सेनने इसे पद्धडियाछन्दमें अनूदित किया है। लिखा है
जं गाहावर्धे आसि उत्त, सिरिकुन्दकुदगणिणा णिरुत्त
तं त्यहि पद्धड़ियहि करेमि, परि किपि न गूढउ अत्थू देमि ।
तेण वि कवि गउ संसा लहंति, जे अत्यु देखि वसहि खिति ।
समय-निर्णयके लिये जैन-साहित्यमें हुए समस्त देवसेनोंपर विचार कर लेना आवश्यक है। जैन-साहित्यमें कई देवसेन हुए हैं। एक देवसेन वह हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरिपर्वतपर अंकित शक संवत् ६२२ के शिलालेखमें आता है। दूसरे देवसेन धवलाटोकाके कर्ता आचार्य बीरसेनके शिष्य थे, जिनका उल्लेख आचार्य जिनसेनने जयघवलादीकाकी प्रशस्तिके ४४वें पञ्च किया है। तीसरे देवसेन 'दर्शनसार के रचयिता हैं | चतुर्थ देवसेन वह हैं, जिनका उल्लेख सुभाषितरत्नसंदोह और धर्मपरीक्षादिके कत्र्ता आचार्य अमितगतिने अपनी गुरुपरम्परामें किया है । दुबकुपड़के वि० सं० ११४५ के अभिलेखमें उल्लिखित देव सेन पंचम हैं। ये लाइवागडसंघके आचार्य थे | छठे देवसेनका उल्लेख माथुरसंघके भट्टारक गुणकी तिके शिष्य यशःकोत्तिने विक सं० १४९७ में अपने पाण्डवपुराणमें किया है।
इन सभी देवसेनोंमें ऐसा एक भी देवसेन नहीं दिखलाई पड़ता है, जिसे विमलसेनका शिष्य माना जाम। भारप्रहक की देवसनीपनेको विमल सेनका शिष्य लिखा है। अतः भावसंग्रह और सुलोचनाचरिसके कर्ता दोनों एक ही व्यक्ति जान पड़ते हैं । इस प्रकार कविका समय बि० को १२वीं शती मालूम पड़ता है।
प्रथम बार राक्षस संवत्सर श्नावण शुक्ला चतुर्दशी और बुधबारका योग २९ जुलाई, सन् १०७५ में घटित होता है । अतएव सुलोचनाचरितके रचयिता कबि देवसेन का समय वि० सं० ११३२ ठीक प्रतीत होता है।
कविने 'सुलोयणाचरिउको रचना २८ सन्धियोंमें की है। काव्यको दृष्टिसे यह रचना उपादेय है। कथामें बताया गया है कि भरत चक्रवर्तीके प्रधान सेनापत्ति जयकुमारकी पत्नीका नाम सुलोचना था। वह राजा अकम्पन और सुप्रभाकी पुत्री थी। सुलोचना अनुपम सुन्दरी थी। इसके स्वयंवरमें अनेक देशोंके बड़े-बड़े राजा सम्मिलित हुए। सुलोचनाको देखकर वे मुग्ध हो गये। उनका हृदय विक्षन्ध हो उठा और उसकी प्राप्तिको इच्छा करने लगे। स्वयं घरमें सुलोचनाने जयको चुना | परिणामस्वरूप चक्रवर्ती भरतका पुत्र अर्क कोत्ति ऋद्ध हो उठा । और उसने इस में अपना अपमान समझा | अपने अप मानका बदला लेने के लिये अकोत्ति और जयमें युद्ध हुआ और अन्त में जय विजयी हुआ।
कवि देवसेन निरभिमानी है । वह हृदय खोलकर यह स्वीकार करता है कि चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्तने जिस सरस्वतीकी रक्षा की थी उसी सर स्वतीरूपी गौके दुग्धका पान कर कविने अपनी इस कृतिको लिखा है--
च उभुइ-रायंभु-पमुहेंहि रखिय दुहिर जा पुष्फयंतेण ।
सरसइ-सुरहोए पयं पियं सिरिदेवसेगण ।।१०।११॥
मंगल-स्तवनके अनन्तर कविने गुरु विमलसेनका स्तवन किया है। पूर्व कालीन कवियोंका उल्लेख करके पश्चात् सध्जन दुर्जनका स्मरण किया गया है । काध्यमें मगध, राजगृह आदिके काव्यमय वर्णन उपलब्ध होते हैं। श्रृङ्गार, वीर और भयानक रसोंका सांगोपांग चित्रण हुआ है।
युद्ध-वर्णन तो कविका अत्यन्त सजीव है । युद्धको अनेक क्रियाओंको अभि व्यक्त करने के लिए तदनुकूल शब्दोंकी योजना की गई है। झर-झर रुधिरका बहना, चर-चर चर्मका फटना, कड़कड़ हड्डियों का टूटना या मुड़ना आदि वाक्य युद्धके दृश्यका सजीव चित्र उपस्थित करते हैं
असि णिहसण उद्विय सिहि जालई, जोह मुफक जालिय सर जालई ।
पहरि-पहरि आमिल्लिय सद्दई, अरि वर घड थक्कय सम्मद्दई ।
झरझरंत पाह्य बहुस्तई णं कुसंभ रय राएं रत्तई ।
चश्यरत फाडिय चल चम्मई, कसमसंत चरिय तणु चम्मई ।
कइयईत मोडिय चण हडई, मंस खण्ड पोसिय भेरुंडई।
दडदडत धाविय बहुरडई, हुंकरंत धरणि बडिय मुंडई ।६।११
कविने जय और अकीतिके युद्धवर्णन प्रसंगमें भुजंगप्रयातछन्द द्वारा योद्धाओंकी गतिविधिका बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है
भड़ो को वि खग्गेण बग्ग खलतो, रणे सम्मुहे सम्मुहो आहणतो।
भड़ो को वि वाण वाणो दलंतो, समद्धाइज दुद्धरा पं कयंतो ।
भडो को नि कोतेण कोंतं सरंतो, करे गीढ चक्को अरी संपर्छतो।
भडो को वि खंडेहिं खंडी कयंगो, भडंत मुक्को संगालो अभंगो ।
भडो को वि संगामभमी घुलतो, विवण्णोह गिद्धावलो णीय अंतो ।
भडो को वि घाएण गिवट्ट सोसो, असी बावरेई अरी साण भीसो ।
भडो को वि रसम्पवाहे तरतो, फुरतप्पएणं तडि सिम्धपत्तो।
भडो को वि हत्थी बिसाणेहि भिण्णे, भड़ो को वि कंठछिण्णो गिसपणो । ६।१२
कविते तीर्थकर आदिनाथके साथ देखादेखी दीक्षा ग्रहण करनेवाले राजा. ओंके भ्रष्ट होनेपर उनके चरित्रका बहुत ही सुन्दर अंकन किया है। जो तपस्या कोको नष्ट कर मोक्ष देनेवाली है उस तपस्याका पाखण्डो लोग दुरुपयोग करते हैं और वे मनमाने ढंगसे पन्थ और सम्प्रदायोंका प्रवर्तन करते हैं।
कविने अपनी भाषा-शैलीको सशक्त बनाने के लिए अनुरणात्मक शब्दोंका प्रयोग किया है। इन बन्धोंके पढ़ते हो शब्दोंका रूपचित्र प्रस्तुत हो जाता है।
अठारहवीं सन्धिमें 'दोहयम' छन्दका प्रयोग किया है । तुकप्रेमके कारण दोहेके प्रथम और तृतीय चरण में भी तुक मिलाई गयो है । यहाँ अनुरणात्मक बन्धोंके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं।
उम उमिय उमा बसयागहिर सहाई, दो दो तिकय दिविलु उठ्ठियणिणदाई । भं भंत उच्च सर भेरी घहीराई, घण घायरुण रुणिय जय घट साराई। कडरडिय करडेहिं भुषणेक्कपूराई, धुम धुमिय मद्दलहि वज्जियई तुराई ।६।१०
यह 'सुलोयणाचरिच' अपभ्रंशका शास्त्रीय महाकाव्य है। इसमें माधुर्म, प्रसाद बौर ओज़ इन सीनों गुणोंके साथ सभी प्रमुख मलङ्कारोंकी योजना की गयो है। छन्दों में, खंड्य, जंभेट्टिया, दुबई, उवखंडय, आरणाल, गलिलय, दोहय, वसा, मंजरी आदि छन्द सन्धिमा प्रारम्भमें प्रयुक्त हैं। इनके अतिरिक्त पद्धडिया, पादाकुलक, समानिका, मदनावतार, भुजगप्रयात, सग्गिणी, कामिनी, बिज्जुमाला, सोमराजी, सरासगी, णिसेणी, बसंतचच्चर, मृतमध्या, मन्दरावली, मदनशेखर आदि छन्द प्रयुक्त हुए हैं।
भावोंकी अभिव्यंजना भी सशक्त रूपमें की गयी है । युद्धके समयकी सुलो चनाकी विचारधाराका कवि वर्णन करता हुआ कहता है
इमं जंपिकणं पउत्तं जयेणं, तुम एह कण्णा मनोहारवण्णा ।
सुरक्खेइ गुणं पुरेणइ कणं, तब जोह लक्खा अणेय असंखा ।।
पिय तत्य रम्मोवरे चित्तकम्मे, अरंभीय चिता सुज हुल्लयत्ता ।
णियं सोययंती इणं चितवंती, अहं पावयम्मा भलम्बा बधम्मा ॥
इस प्रकार चिन्ता, रोष, सहानुभूति, ममता, राग, प्रेम, दया आदिको सहज अभिव्यंजना की गयी है।
Acharyatulya Devsen (Prachin)
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