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#Dhanpal
धनपालको प्रतिभा आख्यान-साहित्यके सृजनमें अनुपम है। धनपालके पिताका नाम 'माएसर'--मावेश्वर और माताका नाम धनश्री था। इनका जन्म धक्कड़ वंशमें हुआ था। यह धमकड़ वंश पश्चिमी भारतको वैश्य जाति है । देलवाड़ाम तजपालका वि० सं० १९४७ का एक अभिलेख है, जिसके घर कट या धक्कड़ जातिका उल्लेख है। बाबुके शिलालेखों में भी इसका निर्देश मिलता है । प्रारंभमें यह जाति राजस्थानकी मूल जाति थी; बादमें यह देशकेअन्य भागोंमें व्याप्त हुई।
धनपाल दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी था। 'भविसयतकहा के जैग भजिवि दियम्बरि लाय'के अतिरिक्त ग्रंथके भीतर आया हुआ सैद्धान्तिक विवेचन उनका दिगम्बर मतानुयायी होना सिद्ध करता है। धनपालने अष्टमूल गुणों का वर्णन करते हुए बताया है कि मधु, मद्य, मांस और पांच बदम्बर फलोंको किसी भी जन्ममें नहीं खाना चाहिए।' कविका यह कथन भावसंग्रहके कर्ता देवसेनके अनुसार है। सोमदेव और बाशाधरको भी यही मान्यता है ।
कवि धनपालने १६ स्वगौका कथन भी दिगम्बर आम्नायके अनुसार ही किया है। कविने लिखा है
अप्पुण पुणु तवचरण चरेपिणु अणसणि पंडियमरणि मरेमिण ।
दिवि सोलहमहं पुण्णायामि हड सुखविजुष्पहु गायि ।।
-मविसयत्तरित २०,९।
अतएव कवि धनपाल दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायो है, कविने अपने जीवनके सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। केवल वंश और माता-पिता का नाम ही उपलब्ध होता है। यह निश्चित है कि कवि सरस्वतीका घरद पुत्र है। उसे कवित्व करनेको अपूर्व शक्ति प्राप्त है।
कवि धनपालका स्थितिकाल विद्वानोंने वि. की दशवीं शती माना है । 'भविसयतकहा की भाषा हरिभद्र सूरिके 'नेमिनाहचरिउसे मिलती-जुलती है। अस: धनपालका समय हरिभद्रके पश्चात् होना चाहिए। श्री पी. वी. गणेने निम्नलिखित कारणोंके आधार पर इनका समय दशवीं शती माना है
१. भाषाके रूप और व्याकरणकी दृष्टिसे इसमें शिथिलता और अनेक रूपता है । अतएव यह कथाकृति उस समयको रचना है, जब अपभ्रंश भाषा बोलचालको थी।
२. हेमचन्द्र के समय तक अपन'श-भाषा रूढ़ हो चुकी थी। उन्होंने अपने व्याकरणमें अपभ्र शके जिन दोहोंका संकलन किया है, उनकी भाषाकी अपेक्षा 'भविसयत्तकहा की भाषा प्राचीन है | अत: धनपालका समय हेमचन्द्रके पूर्व होना चाहिए।
३. भविस्यत्तकहा और पचमचरिउके शब्दोंमें समानता दिखाते हुए प्रो० भायागाने निर्देश किया है कि भविसयत्तकाहाके आदिम कड़वकोंक निर्माणके समय धनपालके ध्यान में 'पउमचरिउ' था । इसलिए धनपालका समय स्वयं के बाद और हेमचन्द्रस पूर्व ही किसी कालमें अनुमित किया जा सकता है।'
४. दलाल और गुणेने भविसयत्तकहाकी भाषाके आधारपर धनपालको हेमचन्द्रका पूर्ववर्ती माना है। अतः धनपालका समय दशवों शतीके लगभग होना चाहिए। भविसमत्तकहाकी सं० १३९३ की लिपि प्रशस्तिके आधारपर श्री डा०देवेन्द्रकुमार शास्त्रीने धनपालका समय वि० को १४वीं शती बतलाया है। पर यह उनका भ्रम है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने 'अनेकान्त वर्ष २२, किरण १ में श्रीदेवेन्द्रकुमारजीके मतकी समीक्षा की है । और उन्होंने प्राप्त प्रशस्ति को मूलग्रंथकर्ताकी न मानकर लिपिक की बताया है। अतः प्रशस्तिके आधारपर धनपालका समय १४वीं शती सिद्ध नहीं किया जा सकता है। जब तक पत्र प्रमाण प्राप्त नहीं होता है तब तक धनपालका समय १०वीं शती ही माना जाना चाहिए।
धनपाल का व्यक्तित्व कई दृष्टियोंसे महत्वपूर्ण है। उन्हें जीवन में विभिन्न प्रकारके अनुभव प्राप्त थे | अतः उन्होंने समुद्रयात्राका सफल वर्णन किया है। विमाताके कारण पारिवारिक कलहका चित्रण भी सुन्दर रूपमें हुमा है । कवि धनपालका मस्तिष्क उर्वर था। वे शृंगार-प्रसाधनको भी आवश्यक समझते थे। विवाह एवं मांगलिमः अवसरों पर जमा करना उनमो इष्टिमें उचित था।
कविको एक ही रचना 'भविस्यत्तकहा' प्राप्त है। यह कयाकृति नगर वर्णन, समुद्र-वर्णन, द्वीप-वर्णन, विवाह-वर्णन, युद्धयात्रा, राज-द्वार, ऋतु-चित्रण, शकूनवर्णन, रूपवर्णन आदि वस्तु-वर्णनोंकी दृष्टिसे अत्यन्त समृद्ध है। कविने प्रबन्ध परिस्थितियों और घटनाओं के अनुकूल मार्मिक स्थलोंकी योजना की है। इन स्थलोंपर उसकी प्रतिभा और भावुकताका सच्चा परिचय मिलता है। भावोंके उतार-चढ़ावमें घटनाओंका बहुत कुछ योग रहता है । भविसत्तकहामें बन्धुदत्तका भविष्यदत्तको मैनाद्वीपमें अकेला छोड़ना और साथके लोगोंका संतप्त होना, माता कमलधीको भविष्यदत्तके न लौटने का समाचार मिलना, बन्धुदत्तका लौटकर आगमन, कमलश्रीका विलाप और भविष्यदत्तका मिलनआदि घटनाएं मर्मस्पर्शी हैं।
हस्तिनापुरनगरमें धनपति नामका एक मपारी था, जिसको पल्लीका माम कमलनी था | इनके भविष्यदत्त नामका एक पुत्र हुआ । धनपति सरूपानामक एक मुन्दरीसे अपना विवाह कर लेता है और परिणामस्वरूप अपनी पहली पत्नी और पुत्रको उपेक्षा करने लगता है। धनपत्ति और सरूपाके पुत्रका नाम बन्धुदत्त रखा जाता है। युवावस्थामें पदार्पण करने पर बन्धुदत व्यापारके हेतु कंचन-द्वीपके लिये प्रस्थान करता है। उसके साथ ५०० व्या पारियोंको जाते हुए देखकर भविष्यदत्त भी अपनी माताकी अनुमतिसे उनके साथ हो लेता है । समुद्र में यात्रा करते हुए दुर्भाग्यसे उसको नौका आँधीसे पथनष्ट हो मदनाग या मैनाक द्वीप पर जा लगती है । बन्धुदत्त घोखेसे भवि व्यदत्तको वहीं एक जंगल में छोड़कर स्वयं अपने साथियों के साथ आगे निकल जाता है । भविष्यदत्त अकेला इधर-उधर भटकता हुआ एक उजड़े हुए, किन्तु समृद्ध नगरमें पहुंचता है। वहीं एक जैनमन्दिरमें जाकर वह चन्द्रप्रभ जिनकी
मा करता है तो उस नाराका यि सुन्दरीको देखता है । उसोसे भविष्यदत्तको पता चलता है कि वह नगर कभी अत्यन्त समृद्ध था। एक असुरने इसे नष्ट कर दिया है। कालान्तरमें वही असुर बहाँ प्रकट होता है और भविष्यदत्तका उसी सुन्दरोसे विवाह करा देता है।
चिरकाल तक पुत्रके न लौटनेसे कमलश्री उसके कल्याणार्थ श्रतपंचमी अतका अनुष्ठान करती है। उधर भविष्यदत्त सपत्नीक प्रभूत सम्पत्तिके साथ घर लोटता है । लौटते हुए उसकी बन्धुदत्तसे भेंट होती है, जो अपने साथियों के साथ यात्रा में असफल होनेसे विपन्नावस्थाको प्राप्त था। भविष्यदत्त उसका सहर्ष स्वागत करता है। यहाँसे प्रस्थानके समय पूजाके लिये गये हा भविष्य दत्तको फिर धोखेसे वहीं छोड़कर बन्धुदत्त उसकी पत्नी और प्रचुर धनसम्प तिको लेकर साथियों के साथ नौकामें सवार हो वहाँसे चल पड़ता है । मार्गमें फिर आँधी से उसकी नौका पथभ्रष्ट हो जाती है और वे सब जैसे-तैसे हस्तिना पुर पहुंचते हैं । घर पहुंचकर बन्धुदत्त भविष्यदत्तको पत्नीको अपनी भावी पत्नी घोषित कर देता है । उनका विवाह निश्चित हो जाता है । कालान्तरमें दुःखी भविष्यदत्त भी एक यक्षकी सहायतासे हस्तिनापुर पहुंचता है। वहां पहुंचकर वह सब वृत्तान्त अपनी मातासे कहता है । इधर बन्धुदत्तके विवाहकी तैया रियाँ होने लगती हैं और जब विवाह-सम्पन्न होने वाला होता है तो राजसभामें जाकर बन्धुदत्तके विरुद्ध भविष्यदत्त शिकायत करता है और राजाको विश्वास दिला देता है कि वह सच्चा है । फलतः बन्धुदत्त दण्डिस होता है और भविष्य दत्त अपने माता-पिता और पत्नीके साथ राजसम्मानपूर्वक सुखसे जीवन व्यतीत करता है। राजा भविष्यदत्तको राज्यका उत्तराधिकारी बना अपनी पुत्री सुमित्रासे उसके विवाहका वचन देता है !
इसी बोच पोदनपुरका राजा हस्तिनापुरके राजाके पास दूत भेजता है और कहलवाता है कि अपनी पुत्री और भविष्यदत्तकी पत्नीको दे दो या युद्ध करो। राजा पोदनपुरनरेशकी शर्तको अस्वीकार करता है और परिणामतः युद्ध होता है। भविष्यदत्तकी सहायता और वीरतासे राजा विजयी होता है। भविष्यदत्तकी वीरतासे प्रभावित हो राजा भविष्यदत्तको युबराज घोषित करदेता है । अपनी पुत्री सुमित्राके साथ उसका विवाह भी कर देता है । भविष्य दत्त सुखपूर्वक जीवन-यापन करने लगता है।
भविष्यदत्तकी प्रथम पलीके जादयमें अपनी जन्मभूमि पहनाय या मैनाक द्वीपको देखनेकी इच्छा जाग्रत होती है । भविष्यदत्त, उसके माता, पिता और सुमित्रा सब उस द्वीपमें जाते हैं। वहां उन्हें एक जैन मुनि मिलते हैं, जो उन्हें सदाचारके नियमोंका उपदेश देते हैं। कालान्तरमें ये सब लौट आते हैं।
एक दिन विमलबुद्धि नामक मुनि आते हैं। भविष्यदत्त उनके मुखसे अपने पूर्व जन्मोंकी कथा सुनकर विरक्त हो जाता है और अपने पुत्रको राजमार सौंपकर श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर लेता है। भविष्यदस सपश्चरण करता हुआ कर्मीको नष्टकर निर्वाण प्राप्त करता है । अतपंचमोके महात्म्यके स्मरणके साथ कथा समाप्त हो जाती है।
घटना-बाहुल्य इस कथाकाध्यमें पाया जाता है । पर घटनाओंका वैचित्र्य बहुत कम है।
कविने लोकिक आख्यानके द्वारा श्रुतपंचमीव्रतका माहात्म्य प्रदर्शित किया है । अन्त में भी इसी व्रतके माहात्म्यका स्मरण किया गया है। धार्मिक विश्वासके साथ लौकिक घटनाओंका सम्बन्ध काव्यचमत्कारार्थ किया गया है। इस कृति में प्रबन्धकी संघटना सुन्दर रूप में हुई है। कथाके विकासके साथ ही कार्य-कारणघटनाओंकी कार्यकारणqखला प्रतिपादित है। वस्तुत: यह एक रोमांचक काम्य है। इसमें लोक-जीवन के अनेक रूप दिखलाई पड़ते हैं । करुण, शृंगार, वीर, रौद्र आदि रसोंका परिपाक भी सुन्दर रूप में हुआ है । अलंकारों में उपमा, परिणाम, सन्देह, रूपक भ्रान्तिमान, उल्लेख, स्मरण, अपल्लव उत्प्रेक्षा, तुल्ययोगिता, दीपक, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, व्यक्तिरेक, निदर्शना और सहोयिस आदि अलंकार प्रयुक्त हुए हैं । छन्दोंमें पद्धड़ी, डिल्ला, घता, दुबइ, चामर, भुजंगप्रयात, शंखनारी, मरइट्टा, प्लवंगम, कलहंस आदि छन्द प्रधान हैं। वास्तवमें धनपाल कविकी यह कृति कथानक रूढ़ियों और कान्म-रूदियों की भी दृष्टिसे समृद्ध है।
धनपालको प्रतिभा आख्यान-साहित्यके सृजनमें अनुपम है। धनपालके पिताका नाम 'माएसर'--मावेश्वर और माताका नाम धनश्री था। इनका जन्म धक्कड़ वंशमें हुआ था। यह धमकड़ वंश पश्चिमी भारतको वैश्य जाति है । देलवाड़ाम तजपालका वि० सं० १९४७ का एक अभिलेख है, जिसके घर कट या धक्कड़ जातिका उल्लेख है। बाबुके शिलालेखों में भी इसका निर्देश मिलता है । प्रारंभमें यह जाति राजस्थानकी मूल जाति थी; बादमें यह देशकेअन्य भागोंमें व्याप्त हुई।
धनपाल दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी था। 'भविसयतकहा के जैग भजिवि दियम्बरि लाय'के अतिरिक्त ग्रंथके भीतर आया हुआ सैद्धान्तिक विवेचन उनका दिगम्बर मतानुयायी होना सिद्ध करता है। धनपालने अष्टमूल गुणों का वर्णन करते हुए बताया है कि मधु, मद्य, मांस और पांच बदम्बर फलोंको किसी भी जन्ममें नहीं खाना चाहिए।' कविका यह कथन भावसंग्रहके कर्ता देवसेनके अनुसार है। सोमदेव और बाशाधरको भी यही मान्यता है ।
कवि धनपालने १६ स्वगौका कथन भी दिगम्बर आम्नायके अनुसार ही किया है। कविने लिखा है
अप्पुण पुणु तवचरण चरेपिणु अणसणि पंडियमरणि मरेमिण ।
दिवि सोलहमहं पुण्णायामि हड सुखविजुष्पहु गायि ।।
-मविसयत्तरित २०,९।
अतएव कवि धनपाल दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायो है, कविने अपने जीवनके सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। केवल वंश और माता-पिता का नाम ही उपलब्ध होता है। यह निश्चित है कि कवि सरस्वतीका घरद पुत्र है। उसे कवित्व करनेको अपूर्व शक्ति प्राप्त है।
कवि धनपालका स्थितिकाल विद्वानोंने वि. की दशवीं शती माना है । 'भविसयतकहा की भाषा हरिभद्र सूरिके 'नेमिनाहचरिउसे मिलती-जुलती है। अस: धनपालका समय हरिभद्रके पश्चात् होना चाहिए। श्री पी. वी. गणेने निम्नलिखित कारणोंके आधार पर इनका समय दशवीं शती माना है
१. भाषाके रूप और व्याकरणकी दृष्टिसे इसमें शिथिलता और अनेक रूपता है । अतएव यह कथाकृति उस समयको रचना है, जब अपभ्रंश भाषा बोलचालको थी।
२. हेमचन्द्र के समय तक अपन'श-भाषा रूढ़ हो चुकी थी। उन्होंने अपने व्याकरणमें अपभ्र शके जिन दोहोंका संकलन किया है, उनकी भाषाकी अपेक्षा 'भविसयत्तकहा की भाषा प्राचीन है | अत: धनपालका समय हेमचन्द्रके पूर्व होना चाहिए।
३. भविस्यत्तकहा और पचमचरिउके शब्दोंमें समानता दिखाते हुए प्रो० भायागाने निर्देश किया है कि भविसयत्तकाहाके आदिम कड़वकोंक निर्माणके समय धनपालके ध्यान में 'पउमचरिउ' था । इसलिए धनपालका समय स्वयं के बाद और हेमचन्द्रस पूर्व ही किसी कालमें अनुमित किया जा सकता है।'
४. दलाल और गुणेने भविसयत्तकहाकी भाषाके आधारपर धनपालको हेमचन्द्रका पूर्ववर्ती माना है। अतः धनपालका समय दशवों शतीके लगभग होना चाहिए। भविसमत्तकहाकी सं० १३९३ की लिपि प्रशस्तिके आधारपर श्री डा०देवेन्द्रकुमार शास्त्रीने धनपालका समय वि० को १४वीं शती बतलाया है। पर यह उनका भ्रम है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने 'अनेकान्त वर्ष २२, किरण १ में श्रीदेवेन्द्रकुमारजीके मतकी समीक्षा की है । और उन्होंने प्राप्त प्रशस्ति को मूलग्रंथकर्ताकी न मानकर लिपिक की बताया है। अतः प्रशस्तिके आधारपर धनपालका समय १४वीं शती सिद्ध नहीं किया जा सकता है। जब तक पत्र प्रमाण प्राप्त नहीं होता है तब तक धनपालका समय १०वीं शती ही माना जाना चाहिए।
धनपाल का व्यक्तित्व कई दृष्टियोंसे महत्वपूर्ण है। उन्हें जीवन में विभिन्न प्रकारके अनुभव प्राप्त थे | अतः उन्होंने समुद्रयात्राका सफल वर्णन किया है। विमाताके कारण पारिवारिक कलहका चित्रण भी सुन्दर रूपमें हुमा है । कवि धनपालका मस्तिष्क उर्वर था। वे शृंगार-प्रसाधनको भी आवश्यक समझते थे। विवाह एवं मांगलिमः अवसरों पर जमा करना उनमो इष्टिमें उचित था।
कविको एक ही रचना 'भविस्यत्तकहा' प्राप्त है। यह कयाकृति नगर वर्णन, समुद्र-वर्णन, द्वीप-वर्णन, विवाह-वर्णन, युद्धयात्रा, राज-द्वार, ऋतु-चित्रण, शकूनवर्णन, रूपवर्णन आदि वस्तु-वर्णनोंकी दृष्टिसे अत्यन्त समृद्ध है। कविने प्रबन्ध परिस्थितियों और घटनाओं के अनुकूल मार्मिक स्थलोंकी योजना की है। इन स्थलोंपर उसकी प्रतिभा और भावुकताका सच्चा परिचय मिलता है। भावोंके उतार-चढ़ावमें घटनाओंका बहुत कुछ योग रहता है । भविसत्तकहामें बन्धुदत्तका भविष्यदत्तको मैनाद्वीपमें अकेला छोड़ना और साथके लोगोंका संतप्त होना, माता कमलधीको भविष्यदत्तके न लौटने का समाचार मिलना, बन्धुदत्तका लौटकर आगमन, कमलश्रीका विलाप और भविष्यदत्तका मिलनआदि घटनाएं मर्मस्पर्शी हैं।
हस्तिनापुरनगरमें धनपति नामका एक मपारी था, जिसको पल्लीका माम कमलनी था | इनके भविष्यदत्त नामका एक पुत्र हुआ । धनपति सरूपानामक एक मुन्दरीसे अपना विवाह कर लेता है और परिणामस्वरूप अपनी पहली पत्नी और पुत्रको उपेक्षा करने लगता है। धनपत्ति और सरूपाके पुत्रका नाम बन्धुदत्त रखा जाता है। युवावस्थामें पदार्पण करने पर बन्धुदत व्यापारके हेतु कंचन-द्वीपके लिये प्रस्थान करता है। उसके साथ ५०० व्या पारियोंको जाते हुए देखकर भविष्यदत्त भी अपनी माताकी अनुमतिसे उनके साथ हो लेता है । समुद्र में यात्रा करते हुए दुर्भाग्यसे उसको नौका आँधीसे पथनष्ट हो मदनाग या मैनाक द्वीप पर जा लगती है । बन्धुदत्त घोखेसे भवि व्यदत्तको वहीं एक जंगल में छोड़कर स्वयं अपने साथियों के साथ आगे निकल जाता है । भविष्यदत्त अकेला इधर-उधर भटकता हुआ एक उजड़े हुए, किन्तु समृद्ध नगरमें पहुंचता है। वहीं एक जैनमन्दिरमें जाकर वह चन्द्रप्रभ जिनकी
मा करता है तो उस नाराका यि सुन्दरीको देखता है । उसोसे भविष्यदत्तको पता चलता है कि वह नगर कभी अत्यन्त समृद्ध था। एक असुरने इसे नष्ट कर दिया है। कालान्तरमें वही असुर बहाँ प्रकट होता है और भविष्यदत्तका उसी सुन्दरोसे विवाह करा देता है।
चिरकाल तक पुत्रके न लौटनेसे कमलश्री उसके कल्याणार्थ श्रतपंचमी अतका अनुष्ठान करती है। उधर भविष्यदत्त सपत्नीक प्रभूत सम्पत्तिके साथ घर लोटता है । लौटते हुए उसकी बन्धुदत्तसे भेंट होती है, जो अपने साथियों के साथ यात्रा में असफल होनेसे विपन्नावस्थाको प्राप्त था। भविष्यदत्त उसका सहर्ष स्वागत करता है। यहाँसे प्रस्थानके समय पूजाके लिये गये हा भविष्य दत्तको फिर धोखेसे वहीं छोड़कर बन्धुदत्त उसकी पत्नी और प्रचुर धनसम्प तिको लेकर साथियों के साथ नौकामें सवार हो वहाँसे चल पड़ता है । मार्गमें फिर आँधी से उसकी नौका पथभ्रष्ट हो जाती है और वे सब जैसे-तैसे हस्तिना पुर पहुंचते हैं । घर पहुंचकर बन्धुदत्त भविष्यदत्तको पत्नीको अपनी भावी पत्नी घोषित कर देता है । उनका विवाह निश्चित हो जाता है । कालान्तरमें दुःखी भविष्यदत्त भी एक यक्षकी सहायतासे हस्तिनापुर पहुंचता है। वहां पहुंचकर वह सब वृत्तान्त अपनी मातासे कहता है । इधर बन्धुदत्तके विवाहकी तैया रियाँ होने लगती हैं और जब विवाह-सम्पन्न होने वाला होता है तो राजसभामें जाकर बन्धुदत्तके विरुद्ध भविष्यदत्त शिकायत करता है और राजाको विश्वास दिला देता है कि वह सच्चा है । फलतः बन्धुदत्त दण्डिस होता है और भविष्य दत्त अपने माता-पिता और पत्नीके साथ राजसम्मानपूर्वक सुखसे जीवन व्यतीत करता है। राजा भविष्यदत्तको राज्यका उत्तराधिकारी बना अपनी पुत्री सुमित्रासे उसके विवाहका वचन देता है !
इसी बोच पोदनपुरका राजा हस्तिनापुरके राजाके पास दूत भेजता है और कहलवाता है कि अपनी पुत्री और भविष्यदत्तकी पत्नीको दे दो या युद्ध करो। राजा पोदनपुरनरेशकी शर्तको अस्वीकार करता है और परिणामतः युद्ध होता है। भविष्यदत्तकी सहायता और वीरतासे राजा विजयी होता है। भविष्यदत्तकी वीरतासे प्रभावित हो राजा भविष्यदत्तको युबराज घोषित करदेता है । अपनी पुत्री सुमित्राके साथ उसका विवाह भी कर देता है । भविष्य दत्त सुखपूर्वक जीवन-यापन करने लगता है।
भविष्यदत्तकी प्रथम पलीके जादयमें अपनी जन्मभूमि पहनाय या मैनाक द्वीपको देखनेकी इच्छा जाग्रत होती है । भविष्यदत्त, उसके माता, पिता और सुमित्रा सब उस द्वीपमें जाते हैं। वहां उन्हें एक जैन मुनि मिलते हैं, जो उन्हें सदाचारके नियमोंका उपदेश देते हैं। कालान्तरमें ये सब लौट आते हैं।
एक दिन विमलबुद्धि नामक मुनि आते हैं। भविष्यदत्त उनके मुखसे अपने पूर्व जन्मोंकी कथा सुनकर विरक्त हो जाता है और अपने पुत्रको राजमार सौंपकर श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर लेता है। भविष्यदस सपश्चरण करता हुआ कर्मीको नष्टकर निर्वाण प्राप्त करता है । अतपंचमोके महात्म्यके स्मरणके साथ कथा समाप्त हो जाती है।
घटना-बाहुल्य इस कथाकाध्यमें पाया जाता है । पर घटनाओंका वैचित्र्य बहुत कम है।
कविने लोकिक आख्यानके द्वारा श्रुतपंचमीव्रतका माहात्म्य प्रदर्शित किया है । अन्त में भी इसी व्रतके माहात्म्यका स्मरण किया गया है। धार्मिक विश्वासके साथ लौकिक घटनाओंका सम्बन्ध काव्यचमत्कारार्थ किया गया है। इस कृति में प्रबन्धकी संघटना सुन्दर रूप में हुई है। कथाके विकासके साथ ही कार्य-कारणघटनाओंकी कार्यकारणqखला प्रतिपादित है। वस्तुत: यह एक रोमांचक काम्य है। इसमें लोक-जीवन के अनेक रूप दिखलाई पड़ते हैं । करुण, शृंगार, वीर, रौद्र आदि रसोंका परिपाक भी सुन्दर रूप में हुआ है । अलंकारों में उपमा, परिणाम, सन्देह, रूपक भ्रान्तिमान, उल्लेख, स्मरण, अपल्लव उत्प्रेक्षा, तुल्ययोगिता, दीपक, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, व्यक्तिरेक, निदर्शना और सहोयिस आदि अलंकार प्रयुक्त हुए हैं । छन्दोंमें पद्धड़ी, डिल्ला, घता, दुबइ, चामर, भुजंगप्रयात, शंखनारी, मरइट्टा, प्लवंगम, कलहंस आदि छन्द प्रधान हैं। वास्तवमें धनपाल कविकी यह कृति कथानक रूढ़ियों और कान्म-रूदियों की भी दृष्टिसे समृद्ध है।
#Dhanpal
आचार्यतुल्य धनपाल 10वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 14 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
धनपालको प्रतिभा आख्यान-साहित्यके सृजनमें अनुपम है। धनपालके पिताका नाम 'माएसर'--मावेश्वर और माताका नाम धनश्री था। इनका जन्म धक्कड़ वंशमें हुआ था। यह धमकड़ वंश पश्चिमी भारतको वैश्य जाति है । देलवाड़ाम तजपालका वि० सं० १९४७ का एक अभिलेख है, जिसके घर कट या धक्कड़ जातिका उल्लेख है। बाबुके शिलालेखों में भी इसका निर्देश मिलता है । प्रारंभमें यह जाति राजस्थानकी मूल जाति थी; बादमें यह देशकेअन्य भागोंमें व्याप्त हुई।
धनपाल दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी था। 'भविसयतकहा के जैग भजिवि दियम्बरि लाय'के अतिरिक्त ग्रंथके भीतर आया हुआ सैद्धान्तिक विवेचन उनका दिगम्बर मतानुयायी होना सिद्ध करता है। धनपालने अष्टमूल गुणों का वर्णन करते हुए बताया है कि मधु, मद्य, मांस और पांच बदम्बर फलोंको किसी भी जन्ममें नहीं खाना चाहिए।' कविका यह कथन भावसंग्रहके कर्ता देवसेनके अनुसार है। सोमदेव और बाशाधरको भी यही मान्यता है ।
कवि धनपालने १६ स्वगौका कथन भी दिगम्बर आम्नायके अनुसार ही किया है। कविने लिखा है
अप्पुण पुणु तवचरण चरेपिणु अणसणि पंडियमरणि मरेमिण ।
दिवि सोलहमहं पुण्णायामि हड सुखविजुष्पहु गायि ।।
-मविसयत्तरित २०,९।
अतएव कवि धनपाल दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायो है, कविने अपने जीवनके सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। केवल वंश और माता-पिता का नाम ही उपलब्ध होता है। यह निश्चित है कि कवि सरस्वतीका घरद पुत्र है। उसे कवित्व करनेको अपूर्व शक्ति प्राप्त है।
कवि धनपालका स्थितिकाल विद्वानोंने वि. की दशवीं शती माना है । 'भविसयतकहा की भाषा हरिभद्र सूरिके 'नेमिनाहचरिउसे मिलती-जुलती है। अस: धनपालका समय हरिभद्रके पश्चात् होना चाहिए। श्री पी. वी. गणेने निम्नलिखित कारणोंके आधार पर इनका समय दशवीं शती माना है
१. भाषाके रूप और व्याकरणकी दृष्टिसे इसमें शिथिलता और अनेक रूपता है । अतएव यह कथाकृति उस समयको रचना है, जब अपभ्रंश भाषा बोलचालको थी।
२. हेमचन्द्र के समय तक अपन'श-भाषा रूढ़ हो चुकी थी। उन्होंने अपने व्याकरणमें अपभ्र शके जिन दोहोंका संकलन किया है, उनकी भाषाकी अपेक्षा 'भविसयत्तकहा की भाषा प्राचीन है | अत: धनपालका समय हेमचन्द्रके पूर्व होना चाहिए।
३. भविस्यत्तकहा और पचमचरिउके शब्दोंमें समानता दिखाते हुए प्रो० भायागाने निर्देश किया है कि भविसयत्तकाहाके आदिम कड़वकोंक निर्माणके समय धनपालके ध्यान में 'पउमचरिउ' था । इसलिए धनपालका समय स्वयं के बाद और हेमचन्द्रस पूर्व ही किसी कालमें अनुमित किया जा सकता है।'
४. दलाल और गुणेने भविसयत्तकहाकी भाषाके आधारपर धनपालको हेमचन्द्रका पूर्ववर्ती माना है। अतः धनपालका समय दशवों शतीके लगभग होना चाहिए। भविसमत्तकहाकी सं० १३९३ की लिपि प्रशस्तिके आधारपर श्री डा०देवेन्द्रकुमार शास्त्रीने धनपालका समय वि० को १४वीं शती बतलाया है। पर यह उनका भ्रम है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने 'अनेकान्त वर्ष २२, किरण १ में श्रीदेवेन्द्रकुमारजीके मतकी समीक्षा की है । और उन्होंने प्राप्त प्रशस्ति को मूलग्रंथकर्ताकी न मानकर लिपिक की बताया है। अतः प्रशस्तिके आधारपर धनपालका समय १४वीं शती सिद्ध नहीं किया जा सकता है। जब तक पत्र प्रमाण प्राप्त नहीं होता है तब तक धनपालका समय १०वीं शती ही माना जाना चाहिए।
धनपाल का व्यक्तित्व कई दृष्टियोंसे महत्वपूर्ण है। उन्हें जीवन में विभिन्न प्रकारके अनुभव प्राप्त थे | अतः उन्होंने समुद्रयात्राका सफल वर्णन किया है। विमाताके कारण पारिवारिक कलहका चित्रण भी सुन्दर रूपमें हुमा है । कवि धनपालका मस्तिष्क उर्वर था। वे शृंगार-प्रसाधनको भी आवश्यक समझते थे। विवाह एवं मांगलिमः अवसरों पर जमा करना उनमो इष्टिमें उचित था।
कविको एक ही रचना 'भविस्यत्तकहा' प्राप्त है। यह कयाकृति नगर वर्णन, समुद्र-वर्णन, द्वीप-वर्णन, विवाह-वर्णन, युद्धयात्रा, राज-द्वार, ऋतु-चित्रण, शकूनवर्णन, रूपवर्णन आदि वस्तु-वर्णनोंकी दृष्टिसे अत्यन्त समृद्ध है। कविने प्रबन्ध परिस्थितियों और घटनाओं के अनुकूल मार्मिक स्थलोंकी योजना की है। इन स्थलोंपर उसकी प्रतिभा और भावुकताका सच्चा परिचय मिलता है। भावोंके उतार-चढ़ावमें घटनाओंका बहुत कुछ योग रहता है । भविसत्तकहामें बन्धुदत्तका भविष्यदत्तको मैनाद्वीपमें अकेला छोड़ना और साथके लोगोंका संतप्त होना, माता कमलधीको भविष्यदत्तके न लौटने का समाचार मिलना, बन्धुदत्तका लौटकर आगमन, कमलश्रीका विलाप और भविष्यदत्तका मिलनआदि घटनाएं मर्मस्पर्शी हैं।
हस्तिनापुरनगरमें धनपति नामका एक मपारी था, जिसको पल्लीका माम कमलनी था | इनके भविष्यदत्त नामका एक पुत्र हुआ । धनपति सरूपानामक एक मुन्दरीसे अपना विवाह कर लेता है और परिणामस्वरूप अपनी पहली पत्नी और पुत्रको उपेक्षा करने लगता है। धनपत्ति और सरूपाके पुत्रका नाम बन्धुदत्त रखा जाता है। युवावस्थामें पदार्पण करने पर बन्धुदत व्यापारके हेतु कंचन-द्वीपके लिये प्रस्थान करता है। उसके साथ ५०० व्या पारियोंको जाते हुए देखकर भविष्यदत्त भी अपनी माताकी अनुमतिसे उनके साथ हो लेता है । समुद्र में यात्रा करते हुए दुर्भाग्यसे उसको नौका आँधीसे पथनष्ट हो मदनाग या मैनाक द्वीप पर जा लगती है । बन्धुदत्त घोखेसे भवि व्यदत्तको वहीं एक जंगल में छोड़कर स्वयं अपने साथियों के साथ आगे निकल जाता है । भविष्यदत्त अकेला इधर-उधर भटकता हुआ एक उजड़े हुए, किन्तु समृद्ध नगरमें पहुंचता है। वहीं एक जैनमन्दिरमें जाकर वह चन्द्रप्रभ जिनकी
मा करता है तो उस नाराका यि सुन्दरीको देखता है । उसोसे भविष्यदत्तको पता चलता है कि वह नगर कभी अत्यन्त समृद्ध था। एक असुरने इसे नष्ट कर दिया है। कालान्तरमें वही असुर बहाँ प्रकट होता है और भविष्यदत्तका उसी सुन्दरोसे विवाह करा देता है।
चिरकाल तक पुत्रके न लौटनेसे कमलश्री उसके कल्याणार्थ श्रतपंचमी अतका अनुष्ठान करती है। उधर भविष्यदत्त सपत्नीक प्रभूत सम्पत्तिके साथ घर लोटता है । लौटते हुए उसकी बन्धुदत्तसे भेंट होती है, जो अपने साथियों के साथ यात्रा में असफल होनेसे विपन्नावस्थाको प्राप्त था। भविष्यदत्त उसका सहर्ष स्वागत करता है। यहाँसे प्रस्थानके समय पूजाके लिये गये हा भविष्य दत्तको फिर धोखेसे वहीं छोड़कर बन्धुदत्त उसकी पत्नी और प्रचुर धनसम्प तिको लेकर साथियों के साथ नौकामें सवार हो वहाँसे चल पड़ता है । मार्गमें फिर आँधी से उसकी नौका पथभ्रष्ट हो जाती है और वे सब जैसे-तैसे हस्तिना पुर पहुंचते हैं । घर पहुंचकर बन्धुदत्त भविष्यदत्तको पत्नीको अपनी भावी पत्नी घोषित कर देता है । उनका विवाह निश्चित हो जाता है । कालान्तरमें दुःखी भविष्यदत्त भी एक यक्षकी सहायतासे हस्तिनापुर पहुंचता है। वहां पहुंचकर वह सब वृत्तान्त अपनी मातासे कहता है । इधर बन्धुदत्तके विवाहकी तैया रियाँ होने लगती हैं और जब विवाह-सम्पन्न होने वाला होता है तो राजसभामें जाकर बन्धुदत्तके विरुद्ध भविष्यदत्त शिकायत करता है और राजाको विश्वास दिला देता है कि वह सच्चा है । फलतः बन्धुदत्त दण्डिस होता है और भविष्य दत्त अपने माता-पिता और पत्नीके साथ राजसम्मानपूर्वक सुखसे जीवन व्यतीत करता है। राजा भविष्यदत्तको राज्यका उत्तराधिकारी बना अपनी पुत्री सुमित्रासे उसके विवाहका वचन देता है !
इसी बोच पोदनपुरका राजा हस्तिनापुरके राजाके पास दूत भेजता है और कहलवाता है कि अपनी पुत्री और भविष्यदत्तकी पत्नीको दे दो या युद्ध करो। राजा पोदनपुरनरेशकी शर्तको अस्वीकार करता है और परिणामतः युद्ध होता है। भविष्यदत्तकी सहायता और वीरतासे राजा विजयी होता है। भविष्यदत्तकी वीरतासे प्रभावित हो राजा भविष्यदत्तको युबराज घोषित करदेता है । अपनी पुत्री सुमित्राके साथ उसका विवाह भी कर देता है । भविष्य दत्त सुखपूर्वक जीवन-यापन करने लगता है।
भविष्यदत्तकी प्रथम पलीके जादयमें अपनी जन्मभूमि पहनाय या मैनाक द्वीपको देखनेकी इच्छा जाग्रत होती है । भविष्यदत्त, उसके माता, पिता और सुमित्रा सब उस द्वीपमें जाते हैं। वहां उन्हें एक जैन मुनि मिलते हैं, जो उन्हें सदाचारके नियमोंका उपदेश देते हैं। कालान्तरमें ये सब लौट आते हैं।
एक दिन विमलबुद्धि नामक मुनि आते हैं। भविष्यदत्त उनके मुखसे अपने पूर्व जन्मोंकी कथा सुनकर विरक्त हो जाता है और अपने पुत्रको राजमार सौंपकर श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर लेता है। भविष्यदस सपश्चरण करता हुआ कर्मीको नष्टकर निर्वाण प्राप्त करता है । अतपंचमोके महात्म्यके स्मरणके साथ कथा समाप्त हो जाती है।
घटना-बाहुल्य इस कथाकाध्यमें पाया जाता है । पर घटनाओंका वैचित्र्य बहुत कम है।
कविने लोकिक आख्यानके द्वारा श्रुतपंचमीव्रतका माहात्म्य प्रदर्शित किया है । अन्त में भी इसी व्रतके माहात्म्यका स्मरण किया गया है। धार्मिक विश्वासके साथ लौकिक घटनाओंका सम्बन्ध काव्यचमत्कारार्थ किया गया है। इस कृति में प्रबन्धकी संघटना सुन्दर रूप में हुई है। कथाके विकासके साथ ही कार्य-कारणघटनाओंकी कार्यकारणqखला प्रतिपादित है। वस्तुत: यह एक रोमांचक काम्य है। इसमें लोक-जीवन के अनेक रूप दिखलाई पड़ते हैं । करुण, शृंगार, वीर, रौद्र आदि रसोंका परिपाक भी सुन्दर रूप में हुआ है । अलंकारों में उपमा, परिणाम, सन्देह, रूपक भ्रान्तिमान, उल्लेख, स्मरण, अपल्लव उत्प्रेक्षा, तुल्ययोगिता, दीपक, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, व्यक्तिरेक, निदर्शना और सहोयिस आदि अलंकार प्रयुक्त हुए हैं । छन्दोंमें पद्धड़ी, डिल्ला, घता, दुबइ, चामर, भुजंगप्रयात, शंखनारी, मरइट्टा, प्लवंगम, कलहंस आदि छन्द प्रधान हैं। वास्तवमें धनपाल कविकी यह कृति कथानक रूढ़ियों और कान्म-रूदियों की भी दृष्टिसे समृद्ध है।
Acharyatulya Dhanpal 10th Century (Prachin)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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