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#Harisen
हरिषेण मेवाड़में स्थित चित्रकूट (चित्तौड़) के निवासी थे। इनका वंश धक्कड़ या धरबाट था, जो उस समय प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित था। इस वंशमें अनेक कवि हए हैं। इनके पिताका नाम गोवर्द्धन और माताका नाम गुणवती था । ये किसी कारणवश चित्रकूट छोड़कर अचलपुरमें रहने लगे थे । प्रशस्ति में बताया है
इह मेवाड़-देसि-जण-संकुलि, सिरिउजहर णिग्गय-धक्कड-कुलि |
पावरिंद-कुम्भ-दारण हरि, जाल कलाहिं कुसलु णामें हरि।
तासु पुस पर-णारिसहोयरु, सुगमनहि कुरागरण दिदगा ।
गोवरण जामें उप्पणउ, जो सम्मत्तरयण-संपण्णउ । ।
तहो मोवड्ढणासु पिय गुणवइ, जो जिणवस्मय णिच्च वि पणवइ ।
ताए जणिउ हरिसेणे गाम सुउ, जो संजाउ विबुह-कइ विस्सुद्ध।
सिरि चित्त उडु कवि अचलजरहो, गयज-णिय-कज्जे जिणहरपउरहो।'
१. हरिवंशपुराण ९१.७ ।
हरिषेणने अन्य अपभ्रश-कवियोंके समान कड़वकोंके आदि और अन्तमें अपने सम्बन्धमें बहुत-सी बातोंका समावेश किया है। उन्होंने लिखा है कि मेवाइदेशमें विविध कलाओं में पारंगत एक हरि नामके महानुभाव थे। ये श्रीओजपुरके धाकड़ कुलके वंशज थे। इनके एक गोबर्द्धन नामका धर्मात्मा पुत्र था। उसकी परलोका नाम गुणवती था, जो जैनधर्म में प्रगाढ़ श्रद्धा रखती थी। उनके हरिषेण नामका एक पुत्र हुआ, जो विद्वान् कविके रूपमें विख्यात हुआ । उसने अपने किसी कार्यवश चित्रकूट छोड़ दिया और अचलपुर चला आया। यहां उसने छन्द और अलंकार शास्त्रका अध्ययन किया और धर्म परीक्षा नामक ग्रन्थको रचना की।
हरिषेणने अपने पूर्ववर्ती चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्तका स्मरण किया है। उन्होंने लिखा है कि चतुर्मुखका मुख सरस्वतीका आवास-मन्दिर था । स्वयंभू लोक और अलोकके जाननेवाले महान देवता थे और पुष्पदन्त वह अलौकिक पुरुष थे, जिनका साथ सरस्वती कभी छोड़ती ही नहीं थी। कविने इन कवियोंकी तुलनामें अपनेको अत्यन्त मन्दबुद्धि कहा है।
हरिषेणने अन्तिम सन्धिमें सिद्धसेनका स्मरण किया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि हरिषेणके गुरु सिद्धसेन थे । सन्दर्भकी पंक्तियां निम्न प्रकार हैं :-
सिद्धि-पुरधिहि कंतु सुखें तणु-मण-ययणे ।
भत्तिए जिण पणदेवि चितिड बृह-हरिसंणे॥
मणुय-म्मिबुद्धिए कि किज्जइ, मणहरु जाइ कन्षु ण रइजइ ।
तं करत अवियाणिय आरिस, हासू लहहि भउरणि गय पोरिस ।
चउमुह कब्बु विरणि सयंभुवि, पुष्फयतु अण्णाणु मिसुंभिवि ।
तिणि वि जोग्ग जेण तं सीसह, चउमुह मुह थिय ताव सरासइ ।
जो सयंभ सो देउ पहाण, यह कह लोयालोय वियाण'
पुप्फयंतु उ माणुसु बुराचइ, जो सरसइए कया विण मुच्चइ ।
ते एवं विह हउ जउ माणड, तह छंदालंकार विहीणउ ।
कन्छ करंतुकै मण विलजमि, सह विसेस णिय जण कि हरंजमि ।
तो बि जिणिद धम्म अणुरायद, बुह सिरि सिद्धसेण सुपसाई।
कमि सयं जिह लिणि दलथिज जलु, अणहरेइ णिल मुत्राहलु ।
धत्ता-जा जयराम आसि विरइय पह पर्वधि ।
सा हम्मि धम्मपरिक्ल सा पद्धडिय बधि ।
१. धम्मपरिक्ला ११-२६ ।
हरिषेणके व्यक्तित्वमे नम्रता, गुणग्राहकता, धमक प्रति श्रद्धा एवं आत्म सम्मानको भावना समाविष्ट है । उनके काव्यन्वर्णनसे ऐसा ध्वनित होता है कि वे पुराणशास्त्र के शाता थे और उनका अध्ययन सभी प्रकारके शास्त्रों का था।
कवि हरिषेणने 'धम्मपरिक्खा' के अन्त में इस ग्रन्थका रचनाकाल अंकित किया है । लिखा है--
विक्कम-णिव-परिवत्तिय कालए, वगए वरिस-सहसहि चउतालए।
इस उप्पणु भविय-जण-सुया, उभ-रहिय-अम्मासव-सरयरु । १२२७
अर्थात् वि० सं० १०४४ में इस पन्थको रचना हुई है । अतः कविका समय वि० सं० की ११वीं शती है।
कविने अपनेसे पूर्व जयरामकी गाथा-छन्दों में विरचित प्राकृत-भाषाकी धर्म-परीक्षाका अवलोकन कर इसके आधार पर ही अपनी यह कृति अपभ्रंशमें लिखी है।
कवि हरिषेणको एक ही रचना धर्म-परीक्षा नामकी उपलब्ध है। डा. ए० एन उपाध्ये ने दश-धर्म परीक्षाओंका निर्देश किया है । अमिततकी धर्म परीक्षा वि० सं० १०७०में लिखी गई है। अर्थात् हरिषेणकी धर्म-परीक्षा अमिततिसे २६ वर्ष पूर्व लिखो गई है। दोनोंमें पर्याप्त समानता है । अनेक कथाएँ पद्य एवं वाक्य दोनों में समान रूपसे मिलते हैं। पर जब तक हरिषेपण द्वारा निर्दिष्ट जयरामकी धर्म-परीक्षा प्राप्त न हो तब तक इस परिणाम पर नहीं पहुंच सकते कि किसने किसको प्रभाषित किया है ? संभवत: दोनोंका स्रोत जयरामको धर्म-परीक्षा हो हो ।'
धर्म-परीक्षामं कविने ब्राह्मण-धर्म पर व्यंग्य किया है। उसके अनेक पौराणिक आख्यानों और घटनाओंको असंगत बत्तलाते हुए जनधर्मके प्रतिआस्था और श्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न किया । ग्रंथको विषय-वस्तु निम्न प्रकार है
मंगलाचरणके पश्चात् प्राचीन कवियोंका उल्लेख करते हुए आत्म-विनय प्रदर्शित की है। तदनन्तर जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, मध्य प्रदेश बताट्य पर्वत और वैजयन्ती नगरीका चित्रण किया है । बैजयन्ती नगरीके राजाको रानीका नाम वायुवेगा था । उनके मनवेग नामक एक अत्यन्त धार्मिक पुत्र हुआ । उसका मित्र पवनवेग भी धर्मात्मा और ब्राह्मणानुमोदित पौराणिक धममें आस्था रखने वाला था । पवनवेगके साथ मनवेग विद्वानोंकी सभामें कुसुमपुर गया।
तीसरी सन्धिमें अंगदेशके राजा शेखरका कयानक देकर कवि अनेक पौराणिक उपाख्यानोंका वर्णन करता है। चौथो सन्धिमें अवतारवाद पर व्यंग्य किया है। विष्णु दश जन्म लेते हैं और फिर भी कहा जाता है कि अजन्मा हैं। यह कैसे संभव है? स्थान-स्थानपर कविने 'तथा चोक्तं तैरेव' इत्यादि शब्दों द्वारा संस्कृसके अनेक पद्म भी उद्धत किये हैं। इसी प्रसंगमें शिवके जाह्नवी और पार्वती प्रेम एवं गोपी-कृष्ण लीलापर भी व्यंग्य किया है ।
पांचवीं संधि में ब्राह्मण-धर्म की अनेक अविश्वसनीय और असत्य बातों की और निर्देश कर मनोवेग ब्राह्मणों को निरुत्तर करता है। इसी प्रसंगमें वह सीताहरण आदिके सम्बन्धमें भी प्रश्न करता है ।
सातवीं सन्धिमें गान्धारीके १०० पुत्रोंकी उत्पत्ति और पाराशरका धीवरकन्यासे विवाह णित है। आठवीं' सन्धिमें कुन्तोसे कर्णकी उत्पत्तिऔर रामायण की कथापर व्यंग्य किया है।
नवी संधिमें मनवेग अपने मित्र पवनवेगके सामने ब्राह्मणोंसे कहता है कि एकबार मेरे सिरने धड़से अलग होकर वृक्षपर चढ़कर फल खाये । अपनी बातकी पुष्टि के लिए वह रावण और जरासन्धका उदाहरण देता है। इसी प्रसंगमें मनवेग श्राद्ध पर भी व्यंग्य करता है।
दशवी सन्धिमें गोमेध, अश्वमेधादि धज्ञों और नियोगादिपर व्यंग किया है । इस प्रकार मनवेग अनेक पौराणिक कथाओंका निर्देशकर और उन्हें मिथ्या प्रतिपादित कर राज्यसभाको परास्त करता है। पवनवेग भी मनवेगको मुक्तियोंसे प्रभावित होता है और वह जैनधर्म में दीक्षित हो जाता है। जैनधर्मानुकूल उपदेशों और झाचरणोंक निर्देशके साथ ग्रंथ समाप्त होता है।।
कविने इस मन्यमें कवित्वशक्तिकाभी पूरा परिचय दिया है। प्रथम संधिके चतुर्थ कड़वक वैजयन्ती नगरीको सुन्दर नारोके समान मनोहारिणी बतायाहै । कविने विभिन्न उपमानोंका प्रयोग करते हुए इस नगरीको सुराधिपकी नगरीसे भी श्रेष्ठ बताया है। वायुवेगारानीके चित्रणमें कविने परम्परागत उपमानोंका उपयोगकर उसके नखशिखका सौन्दर्य अभिव्यक्त किया है।
११ बी सन्धिके प्रथम कड़वकमें मेवाड़ देशका रमणीय चित्रण किया है। यहाँके उद्यान, सरोवर, भवन आदि सभी दृष्टियोंसे सुन्दर एवं मनमोहक हैं ।
इस ग्रंथमें पद्धड़िया छन्दकी बहुलता है। इसके अतिरिक्त मदनावतार १११४, दिशानी १, सविण कुलप. ९, भुजंगप्रयात रा६, प्रमा णिका ३२, रणक या रजक ३१११, मत्ता श२१, विद्युन्माला २१, दोधक १०१३ आदि छन्दोंका प्रयोग किया है । छन्दोंमें वर्णवृत्त और मात्रिक वृत्त दोनों मिलते हैं।संक्षेपमें कविने सरल और सरस भाषामें भावोंकी अभिव्यञ्जना की है |
हरिषेण मेवाड़में स्थित चित्रकूट (चित्तौड़) के निवासी थे। इनका वंश धक्कड़ या धरबाट था, जो उस समय प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित था। इस वंशमें अनेक कवि हए हैं। इनके पिताका नाम गोवर्द्धन और माताका नाम गुणवती था । ये किसी कारणवश चित्रकूट छोड़कर अचलपुरमें रहने लगे थे । प्रशस्ति में बताया है
इह मेवाड़-देसि-जण-संकुलि, सिरिउजहर णिग्गय-धक्कड-कुलि |
पावरिंद-कुम्भ-दारण हरि, जाल कलाहिं कुसलु णामें हरि।
तासु पुस पर-णारिसहोयरु, सुगमनहि कुरागरण दिदगा ।
गोवरण जामें उप्पणउ, जो सम्मत्तरयण-संपण्णउ । ।
तहो मोवड्ढणासु पिय गुणवइ, जो जिणवस्मय णिच्च वि पणवइ ।
ताए जणिउ हरिसेणे गाम सुउ, जो संजाउ विबुह-कइ विस्सुद्ध।
सिरि चित्त उडु कवि अचलजरहो, गयज-णिय-कज्जे जिणहरपउरहो।'
१. हरिवंशपुराण ९१.७ ।
हरिषेणने अन्य अपभ्रश-कवियोंके समान कड़वकोंके आदि और अन्तमें अपने सम्बन्धमें बहुत-सी बातोंका समावेश किया है। उन्होंने लिखा है कि मेवाइदेशमें विविध कलाओं में पारंगत एक हरि नामके महानुभाव थे। ये श्रीओजपुरके धाकड़ कुलके वंशज थे। इनके एक गोबर्द्धन नामका धर्मात्मा पुत्र था। उसकी परलोका नाम गुणवती था, जो जैनधर्म में प्रगाढ़ श्रद्धा रखती थी। उनके हरिषेण नामका एक पुत्र हुआ, जो विद्वान् कविके रूपमें विख्यात हुआ । उसने अपने किसी कार्यवश चित्रकूट छोड़ दिया और अचलपुर चला आया। यहां उसने छन्द और अलंकार शास्त्रका अध्ययन किया और धर्म परीक्षा नामक ग्रन्थको रचना की।
हरिषेणने अपने पूर्ववर्ती चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्तका स्मरण किया है। उन्होंने लिखा है कि चतुर्मुखका मुख सरस्वतीका आवास-मन्दिर था । स्वयंभू लोक और अलोकके जाननेवाले महान देवता थे और पुष्पदन्त वह अलौकिक पुरुष थे, जिनका साथ सरस्वती कभी छोड़ती ही नहीं थी। कविने इन कवियोंकी तुलनामें अपनेको अत्यन्त मन्दबुद्धि कहा है।
हरिषेणने अन्तिम सन्धिमें सिद्धसेनका स्मरण किया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि हरिषेणके गुरु सिद्धसेन थे । सन्दर्भकी पंक्तियां निम्न प्रकार हैं :-
सिद्धि-पुरधिहि कंतु सुखें तणु-मण-ययणे ।
भत्तिए जिण पणदेवि चितिड बृह-हरिसंणे॥
मणुय-म्मिबुद्धिए कि किज्जइ, मणहरु जाइ कन्षु ण रइजइ ।
तं करत अवियाणिय आरिस, हासू लहहि भउरणि गय पोरिस ।
चउमुह कब्बु विरणि सयंभुवि, पुष्फयतु अण्णाणु मिसुंभिवि ।
तिणि वि जोग्ग जेण तं सीसह, चउमुह मुह थिय ताव सरासइ ।
जो सयंभ सो देउ पहाण, यह कह लोयालोय वियाण'
पुप्फयंतु उ माणुसु बुराचइ, जो सरसइए कया विण मुच्चइ ।
ते एवं विह हउ जउ माणड, तह छंदालंकार विहीणउ ।
कन्छ करंतुकै मण विलजमि, सह विसेस णिय जण कि हरंजमि ।
तो बि जिणिद धम्म अणुरायद, बुह सिरि सिद्धसेण सुपसाई।
कमि सयं जिह लिणि दलथिज जलु, अणहरेइ णिल मुत्राहलु ।
धत्ता-जा जयराम आसि विरइय पह पर्वधि ।
सा हम्मि धम्मपरिक्ल सा पद्धडिय बधि ।
१. धम्मपरिक्ला ११-२६ ।
हरिषेणके व्यक्तित्वमे नम्रता, गुणग्राहकता, धमक प्रति श्रद्धा एवं आत्म सम्मानको भावना समाविष्ट है । उनके काव्यन्वर्णनसे ऐसा ध्वनित होता है कि वे पुराणशास्त्र के शाता थे और उनका अध्ययन सभी प्रकारके शास्त्रों का था।
कवि हरिषेणने 'धम्मपरिक्खा' के अन्त में इस ग्रन्थका रचनाकाल अंकित किया है । लिखा है--
विक्कम-णिव-परिवत्तिय कालए, वगए वरिस-सहसहि चउतालए।
इस उप्पणु भविय-जण-सुया, उभ-रहिय-अम्मासव-सरयरु । १२२७
अर्थात् वि० सं० १०४४ में इस पन्थको रचना हुई है । अतः कविका समय वि० सं० की ११वीं शती है।
कविने अपनेसे पूर्व जयरामकी गाथा-छन्दों में विरचित प्राकृत-भाषाकी धर्म-परीक्षाका अवलोकन कर इसके आधार पर ही अपनी यह कृति अपभ्रंशमें लिखी है।
कवि हरिषेणको एक ही रचना धर्म-परीक्षा नामकी उपलब्ध है। डा. ए० एन उपाध्ये ने दश-धर्म परीक्षाओंका निर्देश किया है । अमिततकी धर्म परीक्षा वि० सं० १०७०में लिखी गई है। अर्थात् हरिषेणकी धर्म-परीक्षा अमिततिसे २६ वर्ष पूर्व लिखो गई है। दोनोंमें पर्याप्त समानता है । अनेक कथाएँ पद्य एवं वाक्य दोनों में समान रूपसे मिलते हैं। पर जब तक हरिषेपण द्वारा निर्दिष्ट जयरामकी धर्म-परीक्षा प्राप्त न हो तब तक इस परिणाम पर नहीं पहुंच सकते कि किसने किसको प्रभाषित किया है ? संभवत: दोनोंका स्रोत जयरामको धर्म-परीक्षा हो हो ।'
धर्म-परीक्षामं कविने ब्राह्मण-धर्म पर व्यंग्य किया है। उसके अनेक पौराणिक आख्यानों और घटनाओंको असंगत बत्तलाते हुए जनधर्मके प्रतिआस्था और श्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न किया । ग्रंथको विषय-वस्तु निम्न प्रकार है
मंगलाचरणके पश्चात् प्राचीन कवियोंका उल्लेख करते हुए आत्म-विनय प्रदर्शित की है। तदनन्तर जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, मध्य प्रदेश बताट्य पर्वत और वैजयन्ती नगरीका चित्रण किया है । बैजयन्ती नगरीके राजाको रानीका नाम वायुवेगा था । उनके मनवेग नामक एक अत्यन्त धार्मिक पुत्र हुआ । उसका मित्र पवनवेग भी धर्मात्मा और ब्राह्मणानुमोदित पौराणिक धममें आस्था रखने वाला था । पवनवेगके साथ मनवेग विद्वानोंकी सभामें कुसुमपुर गया।
तीसरी सन्धिमें अंगदेशके राजा शेखरका कयानक देकर कवि अनेक पौराणिक उपाख्यानोंका वर्णन करता है। चौथो सन्धिमें अवतारवाद पर व्यंग्य किया है। विष्णु दश जन्म लेते हैं और फिर भी कहा जाता है कि अजन्मा हैं। यह कैसे संभव है? स्थान-स्थानपर कविने 'तथा चोक्तं तैरेव' इत्यादि शब्दों द्वारा संस्कृसके अनेक पद्म भी उद्धत किये हैं। इसी प्रसंगमें शिवके जाह्नवी और पार्वती प्रेम एवं गोपी-कृष्ण लीलापर भी व्यंग्य किया है ।
पांचवीं संधि में ब्राह्मण-धर्म की अनेक अविश्वसनीय और असत्य बातों की और निर्देश कर मनोवेग ब्राह्मणों को निरुत्तर करता है। इसी प्रसंगमें वह सीताहरण आदिके सम्बन्धमें भी प्रश्न करता है ।
सातवीं सन्धिमें गान्धारीके १०० पुत्रोंकी उत्पत्ति और पाराशरका धीवरकन्यासे विवाह णित है। आठवीं' सन्धिमें कुन्तोसे कर्णकी उत्पत्तिऔर रामायण की कथापर व्यंग्य किया है।
नवी संधिमें मनवेग अपने मित्र पवनवेगके सामने ब्राह्मणोंसे कहता है कि एकबार मेरे सिरने धड़से अलग होकर वृक्षपर चढ़कर फल खाये । अपनी बातकी पुष्टि के लिए वह रावण और जरासन्धका उदाहरण देता है। इसी प्रसंगमें मनवेग श्राद्ध पर भी व्यंग्य करता है।
दशवी सन्धिमें गोमेध, अश्वमेधादि धज्ञों और नियोगादिपर व्यंग किया है । इस प्रकार मनवेग अनेक पौराणिक कथाओंका निर्देशकर और उन्हें मिथ्या प्रतिपादित कर राज्यसभाको परास्त करता है। पवनवेग भी मनवेगको मुक्तियोंसे प्रभावित होता है और वह जैनधर्म में दीक्षित हो जाता है। जैनधर्मानुकूल उपदेशों और झाचरणोंक निर्देशके साथ ग्रंथ समाप्त होता है।।
कविने इस मन्यमें कवित्वशक्तिकाभी पूरा परिचय दिया है। प्रथम संधिके चतुर्थ कड़वक वैजयन्ती नगरीको सुन्दर नारोके समान मनोहारिणी बतायाहै । कविने विभिन्न उपमानोंका प्रयोग करते हुए इस नगरीको सुराधिपकी नगरीसे भी श्रेष्ठ बताया है। वायुवेगारानीके चित्रणमें कविने परम्परागत उपमानोंका उपयोगकर उसके नखशिखका सौन्दर्य अभिव्यक्त किया है।
११ बी सन्धिके प्रथम कड़वकमें मेवाड़ देशका रमणीय चित्रण किया है। यहाँके उद्यान, सरोवर, भवन आदि सभी दृष्टियोंसे सुन्दर एवं मनमोहक हैं ।
इस ग्रंथमें पद्धड़िया छन्दकी बहुलता है। इसके अतिरिक्त मदनावतार १११४, दिशानी १, सविण कुलप. ९, भुजंगप्रयात रा६, प्रमा णिका ३२, रणक या रजक ३१११, मत्ता श२१, विद्युन्माला २१, दोधक १०१३ आदि छन्दोंका प्रयोग किया है । छन्दोंमें वर्णवृत्त और मात्रिक वृत्त दोनों मिलते हैं।संक्षेपमें कविने सरल और सरस भाषामें भावोंकी अभिव्यञ्जना की है |
#Harisen
आचार्यतुल्य हरिसेन 11वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 14 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
हरिषेण मेवाड़में स्थित चित्रकूट (चित्तौड़) के निवासी थे। इनका वंश धक्कड़ या धरबाट था, जो उस समय प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित था। इस वंशमें अनेक कवि हए हैं। इनके पिताका नाम गोवर्द्धन और माताका नाम गुणवती था । ये किसी कारणवश चित्रकूट छोड़कर अचलपुरमें रहने लगे थे । प्रशस्ति में बताया है
इह मेवाड़-देसि-जण-संकुलि, सिरिउजहर णिग्गय-धक्कड-कुलि |
पावरिंद-कुम्भ-दारण हरि, जाल कलाहिं कुसलु णामें हरि।
तासु पुस पर-णारिसहोयरु, सुगमनहि कुरागरण दिदगा ।
गोवरण जामें उप्पणउ, जो सम्मत्तरयण-संपण्णउ । ।
तहो मोवड्ढणासु पिय गुणवइ, जो जिणवस्मय णिच्च वि पणवइ ।
ताए जणिउ हरिसेणे गाम सुउ, जो संजाउ विबुह-कइ विस्सुद्ध।
सिरि चित्त उडु कवि अचलजरहो, गयज-णिय-कज्जे जिणहरपउरहो।'
१. हरिवंशपुराण ९१.७ ।
हरिषेणने अन्य अपभ्रश-कवियोंके समान कड़वकोंके आदि और अन्तमें अपने सम्बन्धमें बहुत-सी बातोंका समावेश किया है। उन्होंने लिखा है कि मेवाइदेशमें विविध कलाओं में पारंगत एक हरि नामके महानुभाव थे। ये श्रीओजपुरके धाकड़ कुलके वंशज थे। इनके एक गोबर्द्धन नामका धर्मात्मा पुत्र था। उसकी परलोका नाम गुणवती था, जो जैनधर्म में प्रगाढ़ श्रद्धा रखती थी। उनके हरिषेण नामका एक पुत्र हुआ, जो विद्वान् कविके रूपमें विख्यात हुआ । उसने अपने किसी कार्यवश चित्रकूट छोड़ दिया और अचलपुर चला आया। यहां उसने छन्द और अलंकार शास्त्रका अध्ययन किया और धर्म परीक्षा नामक ग्रन्थको रचना की।
हरिषेणने अपने पूर्ववर्ती चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्तका स्मरण किया है। उन्होंने लिखा है कि चतुर्मुखका मुख सरस्वतीका आवास-मन्दिर था । स्वयंभू लोक और अलोकके जाननेवाले महान देवता थे और पुष्पदन्त वह अलौकिक पुरुष थे, जिनका साथ सरस्वती कभी छोड़ती ही नहीं थी। कविने इन कवियोंकी तुलनामें अपनेको अत्यन्त मन्दबुद्धि कहा है।
हरिषेणने अन्तिम सन्धिमें सिद्धसेनका स्मरण किया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि हरिषेणके गुरु सिद्धसेन थे । सन्दर्भकी पंक्तियां निम्न प्रकार हैं :-
सिद्धि-पुरधिहि कंतु सुखें तणु-मण-ययणे ।
भत्तिए जिण पणदेवि चितिड बृह-हरिसंणे॥
मणुय-म्मिबुद्धिए कि किज्जइ, मणहरु जाइ कन्षु ण रइजइ ।
तं करत अवियाणिय आरिस, हासू लहहि भउरणि गय पोरिस ।
चउमुह कब्बु विरणि सयंभुवि, पुष्फयतु अण्णाणु मिसुंभिवि ।
तिणि वि जोग्ग जेण तं सीसह, चउमुह मुह थिय ताव सरासइ ।
जो सयंभ सो देउ पहाण, यह कह लोयालोय वियाण'
पुप्फयंतु उ माणुसु बुराचइ, जो सरसइए कया विण मुच्चइ ।
ते एवं विह हउ जउ माणड, तह छंदालंकार विहीणउ ।
कन्छ करंतुकै मण विलजमि, सह विसेस णिय जण कि हरंजमि ।
तो बि जिणिद धम्म अणुरायद, बुह सिरि सिद्धसेण सुपसाई।
कमि सयं जिह लिणि दलथिज जलु, अणहरेइ णिल मुत्राहलु ।
धत्ता-जा जयराम आसि विरइय पह पर्वधि ।
सा हम्मि धम्मपरिक्ल सा पद्धडिय बधि ।
१. धम्मपरिक्ला ११-२६ ।
हरिषेणके व्यक्तित्वमे नम्रता, गुणग्राहकता, धमक प्रति श्रद्धा एवं आत्म सम्मानको भावना समाविष्ट है । उनके काव्यन्वर्णनसे ऐसा ध्वनित होता है कि वे पुराणशास्त्र के शाता थे और उनका अध्ययन सभी प्रकारके शास्त्रों का था।
कवि हरिषेणने 'धम्मपरिक्खा' के अन्त में इस ग्रन्थका रचनाकाल अंकित किया है । लिखा है--
विक्कम-णिव-परिवत्तिय कालए, वगए वरिस-सहसहि चउतालए।
इस उप्पणु भविय-जण-सुया, उभ-रहिय-अम्मासव-सरयरु । १२२७
अर्थात् वि० सं० १०४४ में इस पन्थको रचना हुई है । अतः कविका समय वि० सं० की ११वीं शती है।
कविने अपनेसे पूर्व जयरामकी गाथा-छन्दों में विरचित प्राकृत-भाषाकी धर्म-परीक्षाका अवलोकन कर इसके आधार पर ही अपनी यह कृति अपभ्रंशमें लिखी है।
कवि हरिषेणको एक ही रचना धर्म-परीक्षा नामकी उपलब्ध है। डा. ए० एन उपाध्ये ने दश-धर्म परीक्षाओंका निर्देश किया है । अमिततकी धर्म परीक्षा वि० सं० १०७०में लिखी गई है। अर्थात् हरिषेणकी धर्म-परीक्षा अमिततिसे २६ वर्ष पूर्व लिखो गई है। दोनोंमें पर्याप्त समानता है । अनेक कथाएँ पद्य एवं वाक्य दोनों में समान रूपसे मिलते हैं। पर जब तक हरिषेपण द्वारा निर्दिष्ट जयरामकी धर्म-परीक्षा प्राप्त न हो तब तक इस परिणाम पर नहीं पहुंच सकते कि किसने किसको प्रभाषित किया है ? संभवत: दोनोंका स्रोत जयरामको धर्म-परीक्षा हो हो ।'
धर्म-परीक्षामं कविने ब्राह्मण-धर्म पर व्यंग्य किया है। उसके अनेक पौराणिक आख्यानों और घटनाओंको असंगत बत्तलाते हुए जनधर्मके प्रतिआस्था और श्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न किया । ग्रंथको विषय-वस्तु निम्न प्रकार है
मंगलाचरणके पश्चात् प्राचीन कवियोंका उल्लेख करते हुए आत्म-विनय प्रदर्शित की है। तदनन्तर जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, मध्य प्रदेश बताट्य पर्वत और वैजयन्ती नगरीका चित्रण किया है । बैजयन्ती नगरीके राजाको रानीका नाम वायुवेगा था । उनके मनवेग नामक एक अत्यन्त धार्मिक पुत्र हुआ । उसका मित्र पवनवेग भी धर्मात्मा और ब्राह्मणानुमोदित पौराणिक धममें आस्था रखने वाला था । पवनवेगके साथ मनवेग विद्वानोंकी सभामें कुसुमपुर गया।
तीसरी सन्धिमें अंगदेशके राजा शेखरका कयानक देकर कवि अनेक पौराणिक उपाख्यानोंका वर्णन करता है। चौथो सन्धिमें अवतारवाद पर व्यंग्य किया है। विष्णु दश जन्म लेते हैं और फिर भी कहा जाता है कि अजन्मा हैं। यह कैसे संभव है? स्थान-स्थानपर कविने 'तथा चोक्तं तैरेव' इत्यादि शब्दों द्वारा संस्कृसके अनेक पद्म भी उद्धत किये हैं। इसी प्रसंगमें शिवके जाह्नवी और पार्वती प्रेम एवं गोपी-कृष्ण लीलापर भी व्यंग्य किया है ।
पांचवीं संधि में ब्राह्मण-धर्म की अनेक अविश्वसनीय और असत्य बातों की और निर्देश कर मनोवेग ब्राह्मणों को निरुत्तर करता है। इसी प्रसंगमें वह सीताहरण आदिके सम्बन्धमें भी प्रश्न करता है ।
सातवीं सन्धिमें गान्धारीके १०० पुत्रोंकी उत्पत्ति और पाराशरका धीवरकन्यासे विवाह णित है। आठवीं' सन्धिमें कुन्तोसे कर्णकी उत्पत्तिऔर रामायण की कथापर व्यंग्य किया है।
नवी संधिमें मनवेग अपने मित्र पवनवेगके सामने ब्राह्मणोंसे कहता है कि एकबार मेरे सिरने धड़से अलग होकर वृक्षपर चढ़कर फल खाये । अपनी बातकी पुष्टि के लिए वह रावण और जरासन्धका उदाहरण देता है। इसी प्रसंगमें मनवेग श्राद्ध पर भी व्यंग्य करता है।
दशवी सन्धिमें गोमेध, अश्वमेधादि धज्ञों और नियोगादिपर व्यंग किया है । इस प्रकार मनवेग अनेक पौराणिक कथाओंका निर्देशकर और उन्हें मिथ्या प्रतिपादित कर राज्यसभाको परास्त करता है। पवनवेग भी मनवेगको मुक्तियोंसे प्रभावित होता है और वह जैनधर्म में दीक्षित हो जाता है। जैनधर्मानुकूल उपदेशों और झाचरणोंक निर्देशके साथ ग्रंथ समाप्त होता है।।
कविने इस मन्यमें कवित्वशक्तिकाभी पूरा परिचय दिया है। प्रथम संधिके चतुर्थ कड़वक वैजयन्ती नगरीको सुन्दर नारोके समान मनोहारिणी बतायाहै । कविने विभिन्न उपमानोंका प्रयोग करते हुए इस नगरीको सुराधिपकी नगरीसे भी श्रेष्ठ बताया है। वायुवेगारानीके चित्रणमें कविने परम्परागत उपमानोंका उपयोगकर उसके नखशिखका सौन्दर्य अभिव्यक्त किया है।
११ बी सन्धिके प्रथम कड़वकमें मेवाड़ देशका रमणीय चित्रण किया है। यहाँके उद्यान, सरोवर, भवन आदि सभी दृष्टियोंसे सुन्दर एवं मनमोहक हैं ।
इस ग्रंथमें पद्धड़िया छन्दकी बहुलता है। इसके अतिरिक्त मदनावतार १११४, दिशानी १, सविण कुलप. ९, भुजंगप्रयात रा६, प्रमा णिका ३२, रणक या रजक ३१११, मत्ता श२१, विद्युन्माला २१, दोधक १०१३ आदि छन्दोंका प्रयोग किया है । छन्दोंमें वर्णवृत्त और मात्रिक वृत्त दोनों मिलते हैं।संक्षेपमें कविने सरल और सरस भाषामें भावोंकी अभिव्यञ्जना की है |
Acharyatulya Harisen 11th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14 April 2022
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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