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#Dyanatrai
द्यानतराय आगरानिवासी थे। इनका जन्म अग्रवाल जाति के गोयल गोत्र में हुआ था। इनके पूर्वज लालपुरसे आकर यहीं बस गये थे। इनके पिता महका नाम वीरदास और पिताका नाम श्यामदास था । इनका जन्म वि. सं. १७३३में हुआ और बिबाह वि० सं० १७४८में । उस समय आगरामें मान सिंहजोको धर्मशैली थी । कवि द्यानतरायने उनसे लाभ उठाया |
कविको पंडित बिहारोदास और पण्डित मानसिंहके धर्मोपदेशसे जैनधर्मके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। इन्होंने सं० १७७७में श्रीसम्मेदशिखरकी यात्राकी थी। इनका महान ग्रन्थ 'धर्मबिलासके नामसे प्रसिद्ध है । इस अन्यमें ३३३ पद, अनेक पूजाएँ एवं ४५ विषयोंपर फुटकर कविताएं संग्रहीत हैं। कविने इनका संकलन स्वयं वि. स. १७८०में किया है। काव्य-विधाकी दृष्टिस धानस-विलासको रचनाओं को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
१. पद
२. पूजापाठ-भक्ति स्तोत्र और पूजाएँ।
३. रूपक काव्य
४. प्रकीर्णक काव्य
इनके पद-साहिलानो१. बधाई ..सान, : बारा-समर्पण ४. आश्वासन, ५. परत्वबोधक, ६. सहज समाधिकी आकांक्षा इन षट् श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता हैं ! बधाई सूचक पदोंमें तोथंकर ऋषभनाथके जन्म समयका आनन्द व्यक्त किया है । प्रसंगवश प्रभुके नख-शिखका वर्णन भी किया गया है। अपने इष्टदेवके जन्म-समयका वातावरण और उस कालकी समस्त परिस्थितियोंका स्मरण कर करि आनन्दविभोर हो जाता है और हर्षोन्मत्त हो गा उठता है
माई आज आनन्द या नगरी ।।टेका।
गजगमनी, शशिवदनी तरुनी, मंगल गावति हैं सगरी ।।माई॥
नाभिराय घर पुत्र भयो है, किये हैं अजाचक जाचक रो।।माई॥
'द्यानत' धन्य कूख मरुदेवी, सुर सेवत जाके पग री ।।माई०।।
कवि के पदोंकी प्रमुख विशेषता यह है कि तथ्योंका विवेचन दार्शनिक शैलीमें न कर काव्यशेलीमें किया गया है । "रे मन भजभज दीन दयाल, जाके नाम लेत इक खिनमें, कट कोटि अघजाल' जैसे पदों द्वारा नामस्मरणके महत्त्वको प्रतिपादित किया है ।
काव्यमें उपदेशशतक, दानबावनी, व्यव हारपच्चीसी, पूर्णपंचाशिका आदि प्रधान हैं। उपदेशशतकमें १२१ पद्य हैं। कविने आत्मसौन्दर्यका अनुभव कर उसे संसारके समक्ष इस रूपमें उपस्थित किया है, जिससे वास्तविक आन्तरिक सौन्दर्यका परिज्ञान सहजमें हो जाता है।
यह कति मानव-हृदयको स्वार्थ सम्बन्धोंकी संकीर्णसासे ऊपर उठाकर लोक कल्याणकी भावभूमिपर ले जाती है, जिससे मनीविकारोंका परिष्कर हो जाता है। कविने आरंभमें इष्टदेवको नमस्कार करने के उपरान्त भक्ति एवं स्तुसिकी आवश्यकता, मिथ्यात्व बौर सम्यक्त्वकी महिमा, गृहबासका दुःख, इन्द्रियोंकी दासता, नरक-निगोदके दुःख, पुण्यपापकी महत्ता, धर्मकी उपादेयता, जानी अंज्ञानीका चिन्तन, आत्मानुभूतिको विशेषता, शुद्ध आरमस्वरूप एवं नवतस्व स्वरूप आदिका सुन्दर विवेचन किया है। भवसागरसे पार होनेका फविने कितना सुन्दर उपाय बताया है--
सोचत जात सबै दिन-रात, कछु न बसात कहा करिये जी ।
सोच निवार निजातम धारह, राग-बिरोध सबै हरिये जी ।।
यौं कहिये जु कहा लहिये, सुबहै कहिये कहना धरिये जो।
पावत मोख मिटावत दोष, सु यौं भवसागर को रिये जी ॥
कविने इसी प्रन्या में समताका महत्त्व बतलाते हए कितने सुन्दर रूपमें कहा है- समदृष्टि आत्मरूपका अनुभव करता है। उसे अपने अन्तसको छवि मुग्ध और अतुलनीय प्रतीत होती है। अतः वह आध्यात्मिक समरसताका आस्वादन कर निश्चिन्त हो भासा है । करिने कहा है
काहेको सोच कर मन मुरख, सोच कर कछ हाथ न ऐहै।
पूरब कर्म सुभासुभ संचित, सो निहचय अपनो रस दैहै ।।
ताहि निवारनको बलवन्त, तिहूँ जगमाहि न कोउ लसे हैं।
ताते हि सोच तजो समता गहि, ज्यों सुख होइ जिनंद कहे हैं ।
धर्मविलास या यानत्तविलासके अतिरिक्त कविके अन्य दो अन्ध और पाये जाते हैं। आममविलास तथा भेद-विज्ञान या आत्मानुभव । आगमविलासमें कनिकी ४६ रचनाएं संकलित हैं। उनका संकलन उनकी मृत्युके पश्चात् पं० जगत राय द्वारा किया गया है । कहा जाता है कि ग्रानतरायकी मृत्युके पश्चात् उनकी रचनाओंको उनके पुत्र लालजोने आलमगंजवासी किसी शाझ नामक व्यक्तिको दे दिया। पंडित जगतरायने वे रचनाएं नष्ट न हो जाये, इस आशयसे उन्हें एक गुटके में संग्रहीत कर दिया है
आगमविलासके प्रारम्भमें १५२ सवैया-छन्दों में सैदान्तिक विषयोंको चर्चा है । अतः सैदान्तिक विषयोंकी प्रधानताके कारण ही इस रचनाका नाम बागम विलास रखा गया है।
भेदविज्ञान या आत्मानुभव यह कविकी एक अन्य रचना है। कविने इसमें दीवद्रव्य और पुद्गलादि द्रव्योंका विवेचन किया है । कविका विश्वास है कि आस्मसत्त्वरूपी चिन्तामणिके प्राप्त होते ही समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं । आत्मसस्तके उपलब्ध होते ही विषयरस नोरस प्रतीत होने लगते हैं।
मैं एक शुद्ध शानी, निर्मल सुभाव ज्ञाता,
दुग ज्ञान चरन धारी, थिर चेतना हमारी ।
अब चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा ।।
कवि पार्मिक प्रवृत्तिका लेखक है। पर व्यवहार और काश्यतत्वोंकी कमी नहीं आने पाई है । संसारकी सभोवताका चित्रण करते हुए लिखा है
रूजगार बने नाहिं धनतों ने घर माहि
खानेकी फिकर बह नारि चाहै गहना।
देनेवाले फिरि जाँहि मिले तो उषार नाहि
साझी मिलै चोर धन आवं नाहि लहना ।
कोऊ पूत ज्वारी भयौ, घर माहि सुत भयो,
एक पूत मरि गयो ताको दुःख सहना ।
पुत्री वर जोग भई ब्याही सुता जम लई,
एते दुःख सुख जाने तिसे कहा कहना ।।
द्यानतका सुत लालजी, चिठे ल्याओ पास |
सो ले माझको दिए, आलमगंज सुवास ॥१३||
तासे पुनसे सकल ही, पिछे लिये मंगाय ।
मोती कटले मेल है, जगतराय सुख पाय ||१४||
तब मन माँहि विचार, पोथी किन्ही एक ठी ।
जोरि पद नर नारि, धर्म ध्यानमें थिर रहे ॥१५।।
संवत सतरह से चौरासी, माघ सुदी चतुर्दशी मासी ।
तब यह लिखत समापत कीन्हीं, मैनपुरीके माहि नवीनी ।।१६।।
द्यानतराय आगरानिवासी थे। इनका जन्म अग्रवाल जाति के गोयल गोत्र में हुआ था। इनके पूर्वज लालपुरसे आकर यहीं बस गये थे। इनके पिता महका नाम वीरदास और पिताका नाम श्यामदास था । इनका जन्म वि. सं. १७३३में हुआ और बिबाह वि० सं० १७४८में । उस समय आगरामें मान सिंहजोको धर्मशैली थी । कवि द्यानतरायने उनसे लाभ उठाया |
कविको पंडित बिहारोदास और पण्डित मानसिंहके धर्मोपदेशसे जैनधर्मके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। इन्होंने सं० १७७७में श्रीसम्मेदशिखरकी यात्राकी थी। इनका महान ग्रन्थ 'धर्मबिलासके नामसे प्रसिद्ध है । इस अन्यमें ३३३ पद, अनेक पूजाएँ एवं ४५ विषयोंपर फुटकर कविताएं संग्रहीत हैं। कविने इनका संकलन स्वयं वि. स. १७८०में किया है। काव्य-विधाकी दृष्टिस धानस-विलासको रचनाओं को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
१. पद
२. पूजापाठ-भक्ति स्तोत्र और पूजाएँ।
३. रूपक काव्य
४. प्रकीर्णक काव्य
इनके पद-साहिलानो१. बधाई ..सान, : बारा-समर्पण ४. आश्वासन, ५. परत्वबोधक, ६. सहज समाधिकी आकांक्षा इन षट् श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता हैं ! बधाई सूचक पदोंमें तोथंकर ऋषभनाथके जन्म समयका आनन्द व्यक्त किया है । प्रसंगवश प्रभुके नख-शिखका वर्णन भी किया गया है। अपने इष्टदेवके जन्म-समयका वातावरण और उस कालकी समस्त परिस्थितियोंका स्मरण कर करि आनन्दविभोर हो जाता है और हर्षोन्मत्त हो गा उठता है
माई आज आनन्द या नगरी ।।टेका।
गजगमनी, शशिवदनी तरुनी, मंगल गावति हैं सगरी ।।माई॥
नाभिराय घर पुत्र भयो है, किये हैं अजाचक जाचक रो।।माई॥
'द्यानत' धन्य कूख मरुदेवी, सुर सेवत जाके पग री ।।माई०।।
कवि के पदोंकी प्रमुख विशेषता यह है कि तथ्योंका विवेचन दार्शनिक शैलीमें न कर काव्यशेलीमें किया गया है । "रे मन भजभज दीन दयाल, जाके नाम लेत इक खिनमें, कट कोटि अघजाल' जैसे पदों द्वारा नामस्मरणके महत्त्वको प्रतिपादित किया है ।
काव्यमें उपदेशशतक, दानबावनी, व्यव हारपच्चीसी, पूर्णपंचाशिका आदि प्रधान हैं। उपदेशशतकमें १२१ पद्य हैं। कविने आत्मसौन्दर्यका अनुभव कर उसे संसारके समक्ष इस रूपमें उपस्थित किया है, जिससे वास्तविक आन्तरिक सौन्दर्यका परिज्ञान सहजमें हो जाता है।
यह कति मानव-हृदयको स्वार्थ सम्बन्धोंकी संकीर्णसासे ऊपर उठाकर लोक कल्याणकी भावभूमिपर ले जाती है, जिससे मनीविकारोंका परिष्कर हो जाता है। कविने आरंभमें इष्टदेवको नमस्कार करने के उपरान्त भक्ति एवं स्तुसिकी आवश्यकता, मिथ्यात्व बौर सम्यक्त्वकी महिमा, गृहबासका दुःख, इन्द्रियोंकी दासता, नरक-निगोदके दुःख, पुण्यपापकी महत्ता, धर्मकी उपादेयता, जानी अंज्ञानीका चिन्तन, आत्मानुभूतिको विशेषता, शुद्ध आरमस्वरूप एवं नवतस्व स्वरूप आदिका सुन्दर विवेचन किया है। भवसागरसे पार होनेका फविने कितना सुन्दर उपाय बताया है--
सोचत जात सबै दिन-रात, कछु न बसात कहा करिये जी ।
सोच निवार निजातम धारह, राग-बिरोध सबै हरिये जी ।।
यौं कहिये जु कहा लहिये, सुबहै कहिये कहना धरिये जो।
पावत मोख मिटावत दोष, सु यौं भवसागर को रिये जी ॥
कविने इसी प्रन्या में समताका महत्त्व बतलाते हए कितने सुन्दर रूपमें कहा है- समदृष्टि आत्मरूपका अनुभव करता है। उसे अपने अन्तसको छवि मुग्ध और अतुलनीय प्रतीत होती है। अतः वह आध्यात्मिक समरसताका आस्वादन कर निश्चिन्त हो भासा है । करिने कहा है
काहेको सोच कर मन मुरख, सोच कर कछ हाथ न ऐहै।
पूरब कर्म सुभासुभ संचित, सो निहचय अपनो रस दैहै ।।
ताहि निवारनको बलवन्त, तिहूँ जगमाहि न कोउ लसे हैं।
ताते हि सोच तजो समता गहि, ज्यों सुख होइ जिनंद कहे हैं ।
धर्मविलास या यानत्तविलासके अतिरिक्त कविके अन्य दो अन्ध और पाये जाते हैं। आममविलास तथा भेद-विज्ञान या आत्मानुभव । आगमविलासमें कनिकी ४६ रचनाएं संकलित हैं। उनका संकलन उनकी मृत्युके पश्चात् पं० जगत राय द्वारा किया गया है । कहा जाता है कि ग्रानतरायकी मृत्युके पश्चात् उनकी रचनाओंको उनके पुत्र लालजोने आलमगंजवासी किसी शाझ नामक व्यक्तिको दे दिया। पंडित जगतरायने वे रचनाएं नष्ट न हो जाये, इस आशयसे उन्हें एक गुटके में संग्रहीत कर दिया है
आगमविलासके प्रारम्भमें १५२ सवैया-छन्दों में सैदान्तिक विषयोंको चर्चा है । अतः सैदान्तिक विषयोंकी प्रधानताके कारण ही इस रचनाका नाम बागम विलास रखा गया है।
भेदविज्ञान या आत्मानुभव यह कविकी एक अन्य रचना है। कविने इसमें दीवद्रव्य और पुद्गलादि द्रव्योंका विवेचन किया है । कविका विश्वास है कि आस्मसत्त्वरूपी चिन्तामणिके प्राप्त होते ही समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं । आत्मसस्तके उपलब्ध होते ही विषयरस नोरस प्रतीत होने लगते हैं।
मैं एक शुद्ध शानी, निर्मल सुभाव ज्ञाता,
दुग ज्ञान चरन धारी, थिर चेतना हमारी ।
अब चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा ।।
कवि पार्मिक प्रवृत्तिका लेखक है। पर व्यवहार और काश्यतत्वोंकी कमी नहीं आने पाई है । संसारकी सभोवताका चित्रण करते हुए लिखा है
रूजगार बने नाहिं धनतों ने घर माहि
खानेकी फिकर बह नारि चाहै गहना।
देनेवाले फिरि जाँहि मिले तो उषार नाहि
साझी मिलै चोर धन आवं नाहि लहना ।
कोऊ पूत ज्वारी भयौ, घर माहि सुत भयो,
एक पूत मरि गयो ताको दुःख सहना ।
पुत्री वर जोग भई ब्याही सुता जम लई,
एते दुःख सुख जाने तिसे कहा कहना ।।
द्यानतका सुत लालजी, चिठे ल्याओ पास |
सो ले माझको दिए, आलमगंज सुवास ॥१३||
तासे पुनसे सकल ही, पिछे लिये मंगाय ।
मोती कटले मेल है, जगतराय सुख पाय ||१४||
तब मन माँहि विचार, पोथी किन्ही एक ठी ।
जोरि पद नर नारि, धर्म ध्यानमें थिर रहे ॥१५।।
संवत सतरह से चौरासी, माघ सुदी चतुर्दशी मासी ।
तब यह लिखत समापत कीन्हीं, मैनपुरीके माहि नवीनी ।।१६।।
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आचार्यतुल्य कवि द्यानत्रै 18वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 29 मई 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 29 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
द्यानतराय आगरानिवासी थे। इनका जन्म अग्रवाल जाति के गोयल गोत्र में हुआ था। इनके पूर्वज लालपुरसे आकर यहीं बस गये थे। इनके पिता महका नाम वीरदास और पिताका नाम श्यामदास था । इनका जन्म वि. सं. १७३३में हुआ और बिबाह वि० सं० १७४८में । उस समय आगरामें मान सिंहजोको धर्मशैली थी । कवि द्यानतरायने उनसे लाभ उठाया |
कविको पंडित बिहारोदास और पण्डित मानसिंहके धर्मोपदेशसे जैनधर्मके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई थी। इन्होंने सं० १७७७में श्रीसम्मेदशिखरकी यात्राकी थी। इनका महान ग्रन्थ 'धर्मबिलासके नामसे प्रसिद्ध है । इस अन्यमें ३३३ पद, अनेक पूजाएँ एवं ४५ विषयोंपर फुटकर कविताएं संग्रहीत हैं। कविने इनका संकलन स्वयं वि. स. १७८०में किया है। काव्य-विधाकी दृष्टिस धानस-विलासको रचनाओं को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है
१. पद
२. पूजापाठ-भक्ति स्तोत्र और पूजाएँ।
३. रूपक काव्य
४. प्रकीर्णक काव्य
इनके पद-साहिलानो१. बधाई ..सान, : बारा-समर्पण ४. आश्वासन, ५. परत्वबोधक, ६. सहज समाधिकी आकांक्षा इन षट् श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता हैं ! बधाई सूचक पदोंमें तोथंकर ऋषभनाथके जन्म समयका आनन्द व्यक्त किया है । प्रसंगवश प्रभुके नख-शिखका वर्णन भी किया गया है। अपने इष्टदेवके जन्म-समयका वातावरण और उस कालकी समस्त परिस्थितियोंका स्मरण कर करि आनन्दविभोर हो जाता है और हर्षोन्मत्त हो गा उठता है
माई आज आनन्द या नगरी ।।टेका।
गजगमनी, शशिवदनी तरुनी, मंगल गावति हैं सगरी ।।माई॥
नाभिराय घर पुत्र भयो है, किये हैं अजाचक जाचक रो।।माई॥
'द्यानत' धन्य कूख मरुदेवी, सुर सेवत जाके पग री ।।माई०।।
कवि के पदोंकी प्रमुख विशेषता यह है कि तथ्योंका विवेचन दार्शनिक शैलीमें न कर काव्यशेलीमें किया गया है । "रे मन भजभज दीन दयाल, जाके नाम लेत इक खिनमें, कट कोटि अघजाल' जैसे पदों द्वारा नामस्मरणके महत्त्वको प्रतिपादित किया है ।
काव्यमें उपदेशशतक, दानबावनी, व्यव हारपच्चीसी, पूर्णपंचाशिका आदि प्रधान हैं। उपदेशशतकमें १२१ पद्य हैं। कविने आत्मसौन्दर्यका अनुभव कर उसे संसारके समक्ष इस रूपमें उपस्थित किया है, जिससे वास्तविक आन्तरिक सौन्दर्यका परिज्ञान सहजमें हो जाता है।
यह कति मानव-हृदयको स्वार्थ सम्बन्धोंकी संकीर्णसासे ऊपर उठाकर लोक कल्याणकी भावभूमिपर ले जाती है, जिससे मनीविकारोंका परिष्कर हो जाता है। कविने आरंभमें इष्टदेवको नमस्कार करने के उपरान्त भक्ति एवं स्तुसिकी आवश्यकता, मिथ्यात्व बौर सम्यक्त्वकी महिमा, गृहबासका दुःख, इन्द्रियोंकी दासता, नरक-निगोदके दुःख, पुण्यपापकी महत्ता, धर्मकी उपादेयता, जानी अंज्ञानीका चिन्तन, आत्मानुभूतिको विशेषता, शुद्ध आरमस्वरूप एवं नवतस्व स्वरूप आदिका सुन्दर विवेचन किया है। भवसागरसे पार होनेका फविने कितना सुन्दर उपाय बताया है--
सोचत जात सबै दिन-रात, कछु न बसात कहा करिये जी ।
सोच निवार निजातम धारह, राग-बिरोध सबै हरिये जी ।।
यौं कहिये जु कहा लहिये, सुबहै कहिये कहना धरिये जो।
पावत मोख मिटावत दोष, सु यौं भवसागर को रिये जी ॥
कविने इसी प्रन्या में समताका महत्त्व बतलाते हए कितने सुन्दर रूपमें कहा है- समदृष्टि आत्मरूपका अनुभव करता है। उसे अपने अन्तसको छवि मुग्ध और अतुलनीय प्रतीत होती है। अतः वह आध्यात्मिक समरसताका आस्वादन कर निश्चिन्त हो भासा है । करिने कहा है
काहेको सोच कर मन मुरख, सोच कर कछ हाथ न ऐहै।
पूरब कर्म सुभासुभ संचित, सो निहचय अपनो रस दैहै ।।
ताहि निवारनको बलवन्त, तिहूँ जगमाहि न कोउ लसे हैं।
ताते हि सोच तजो समता गहि, ज्यों सुख होइ जिनंद कहे हैं ।
धर्मविलास या यानत्तविलासके अतिरिक्त कविके अन्य दो अन्ध और पाये जाते हैं। आममविलास तथा भेद-विज्ञान या आत्मानुभव । आगमविलासमें कनिकी ४६ रचनाएं संकलित हैं। उनका संकलन उनकी मृत्युके पश्चात् पं० जगत राय द्वारा किया गया है । कहा जाता है कि ग्रानतरायकी मृत्युके पश्चात् उनकी रचनाओंको उनके पुत्र लालजोने आलमगंजवासी किसी शाझ नामक व्यक्तिको दे दिया। पंडित जगतरायने वे रचनाएं नष्ट न हो जाये, इस आशयसे उन्हें एक गुटके में संग्रहीत कर दिया है
आगमविलासके प्रारम्भमें १५२ सवैया-छन्दों में सैदान्तिक विषयोंको चर्चा है । अतः सैदान्तिक विषयोंकी प्रधानताके कारण ही इस रचनाका नाम बागम विलास रखा गया है।
भेदविज्ञान या आत्मानुभव यह कविकी एक अन्य रचना है। कविने इसमें दीवद्रव्य और पुद्गलादि द्रव्योंका विवेचन किया है । कविका विश्वास है कि आस्मसत्त्वरूपी चिन्तामणिके प्राप्त होते ही समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं । आत्मसस्तके उपलब्ध होते ही विषयरस नोरस प्रतीत होने लगते हैं।
मैं एक शुद्ध शानी, निर्मल सुभाव ज्ञाता,
दुग ज्ञान चरन धारी, थिर चेतना हमारी ।
अब चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा ।।
कवि पार्मिक प्रवृत्तिका लेखक है। पर व्यवहार और काश्यतत्वोंकी कमी नहीं आने पाई है । संसारकी सभोवताका चित्रण करते हुए लिखा है
रूजगार बने नाहिं धनतों ने घर माहि
खानेकी फिकर बह नारि चाहै गहना।
देनेवाले फिरि जाँहि मिले तो उषार नाहि
साझी मिलै चोर धन आवं नाहि लहना ।
कोऊ पूत ज्वारी भयौ, घर माहि सुत भयो,
एक पूत मरि गयो ताको दुःख सहना ।
पुत्री वर जोग भई ब्याही सुता जम लई,
एते दुःख सुख जाने तिसे कहा कहना ।।
द्यानतका सुत लालजी, चिठे ल्याओ पास |
सो ले माझको दिए, आलमगंज सुवास ॥१३||
तासे पुनसे सकल ही, पिछे लिये मंगाय ।
मोती कटले मेल है, जगतराय सुख पाय ||१४||
तब मन माँहि विचार, पोथी किन्ही एक ठी ।
जोरि पद नर नारि, धर्म ध्यानमें थिर रहे ॥१५।।
संवत सतरह से चौरासी, माघ सुदी चतुर्दशी मासी ।
तब यह लिखत समापत कीन्हीं, मैनपुरीके माहि नवीनी ।।१६।।
Acharyatulya Kavi Dyanatrai 18th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 29 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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