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#MahakaviArhaddas
संस्कृत गद्म और पथके निर्माताके रूप में महाकवि अर्हददास अद्वितीय हैं। मुनिसुव्रतकाव्य, पुरदेवचंपू और भव्यजनकंठाभरणको प्रशस्तियोंसे यह स्पष्ट है कि महाकविअर्हददास प्रतिभाशाली विद्वान थे। कविने इन ग्रंथोंकी प्रशः स्तियोंमें आशाधरका नाम बड़े आदरके साथ लिया है। अतः यह अनुमान लगाना सहज है कि इनके गुरु आशाधर थे। मुनिसुव्रतकाव्यके एक पद्यसे यह ध्वनित होता है कि अहंदास पहले कुमागमें पड़े हुए थे, पर आशापरके धर्मा मृतके अध्ययनसे उनके परिणामोंमें परिवर्तन हुआ और वे जैनधर्मानुयायी हो गये। बताया है--
धावन्कापथसंभृते भववने सन्मार्गमेकं परम् ।
स्थपत्या श्रांततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम् ।।
सबर्मामृतमुदधृतं जिनवचःक्षीरोदधेरादरात् ।
पार्य पायमितनम: सुखपदं दासो भवाम्यहंसः ।।१०।६४
अहंदासः सभक्त्युल्लसितमसितं भूघरे तत्र कृत्वा ।
कल्याणं तीर्थकर्तुः सुरकुलमहितः पापदात्मीयलोकम् ।।
अहहासोऽयमित्थं जिनपतिचरितं गौतमस्वाम्युपज्ञं ।
गुम्फित्या काव्यबन्ध कविकुलमाहितः प्रापदुच्चे: प्रमोदम् ॥१०१६३
अर्थात् कुमार्गीसे भरे हुए संसाररूपी वनमें जो एक उत्तम सन्मार्ग था, उसे छोड़कर बहुतकाल तक भटकता हआ में अत्यन्त थक गया । किसी प्रकार काललब्धि वश से प्राप्त किया। उस सन्मार्गको पाकर जिनवचनरूपी क्षीर समुद्रसे उद्धृत किये और सुखके स्थान समीचीन धर्मामृतको आदरपूर्वक पी-पी कर थकान रहित होता हुआ मैं अर्हन्त भगवानका दास होता है।
देवताओंसे पूजित सथा अहद् भगवान्के दास इन्द्रदेव उस सम्मेदपर्वत पर तीर्थकर भगवान मुनिसुव्रतनाथका मोक्षकल्याणक सम्पन्न कर सानन्द अपने स्वर्गलोकको लौट आये तथा कविकुलपूजित अर्हददास ने भी गौतम स्वामीसे कहे गये श्रीजिनेन्द्रचरितको काव्यरूपमें अथित कर बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त की।
उपायुक्त ६४वें पद्यमें आया हुआ 'धर्मामृत' पद आशाधरके 'धर्मामृत' ग्रन्थका सूचक है । इस पद्यसे यह अवगत होता है कि अहंदास पहले कुमार्ग में पड़े हुए थे। आशाधरके धर्मामृतने और उनकी उक्तियोंने उन्हें सुमार्गमें लगाया । बहुत संभव है कि कवि अहंदास पहले जैनधर्मानुयायी न होकर अन्य धर्मा नुमाघी रहे हों। यही कारण है कि उन्हें ब्राह्मणधर्म और वैदिक-पुराणोंका अच्छा परिज्ञान है।
'दासो भवाम्यहंतः' पद्यसे भी यही ध्वनित होता है। श्री पं० नाथूराम जी प्रेमीका अनुमान है कि अहंदास नाम न होकर विशेषण जैसा है। उन्होंने लिखा है--"चतुर्विशतिप्रबन्धकी पूर्वोक्त कथाको पढ़नेके बाद हमारा यह कल्पना करनेको जी अवश्य होता है कि कहीं मदनकी त्ति हो तो कुमार्गमें ठोकरें खाते-खाते अन्तमें आशाधरकी सक्तियोंसे अहंदास न बन गये हों। गू बंधों में से व 4 कि गये हमसे तो इस कल्पनाको बहुत पुष्टि मिलती है और फिर यह अहद्दास नाम भी विशेषण जैसा ही मालम होता है। संभव है उनका बास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो । घह नाम एक तरहकी भावुकता और विनयशीलता ही प्रकट करता है" 1 "प्रेमी जीने मदनकीतिको ही विशालकीति और आशाधरकी प्रेरणासे अहंदासके रूपमें परिवर्तित स्वीकार किया है, पर पुष्ट प्रमाणों के अभाव में प्रेमीजीके इस कथन को स्वीकार नहीं किया जा सकता । तथ्य जो भी हो, पर इतना तो स्पष्ट है कि अहंदासको आशाधरके ग्रन्थों और वचनोंसे बोध प्राप्त हुआ है।
कवि अर्हददास ने मुनिसुव्रतकाव्य, पुरुदेवचम्पू और भव्यकण्ठाभरणमें आशा धरका निर्देश दिया है । आशाधरने वि० सं० १३००में अनगारधर्मामृतकी टीका पूर्ण की थी। अत: कवि अर्हददास आशाधरके पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं । अब विचारणीय यह है कि वे आशाधरके समकालीन हैं या उनके पश्चात्वती विद्वान् हैं। उन्होंने अपने ग्रंथों में आशाधरका उल्लेख जिस रूपमें किया है उससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे आशाधरके समकालीन रहे हों। मुनिसुव्रतकाव्यकी प्रशस्ति
मिथ्यात्वकर्मपटलैश्चिरमावृते मे युग्में दशोः कुपथयाननिदानभूते ।। आशाधरोपितलसदंजनसंप्रयोगैरच्छीकृते पृथुलसत्पश्रमानितोऽस्मि ।।१०।६५||
अर्थात् मेरे नयन-युगलं चिरकालसे मिथ्यात्वकर्मके पटलसे ढके हुए थे और मझे कूमार्गमें ले जाने में कारण थे। आशा घरके उक्तिरूपी उत्तम अंजनसे उनके स्वच्छ होनेपर मैंने जिनेन्द्रदेव के महान सत्पथका आश्रय लिया। १. जन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पु. १४२-४३ 1पुरुदेवपूका अन्तिम पद्य
मिथ्यात्वपंककलो मम मानसेऽस्मिन् माशाघरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने ।
उल्लामितेन शरदा पुरुदेवभक्त्या तच्चंपुदंभजलजेन समुज्जजम्भे ।।
कविप्रशस्ति
अर्थात् मेरा यह मानसरूप सरोबर मिथ्यात्वरूपी कीचड़से कलुषित था । आशाधरको लक्तिरूपी निर्मलोके प्रभावसे अब वह निर्मल हुआ तो ऋषभ देवकी भक्तिसे प्रसन्न हुई शरद् ऋतुके द्वारा उसमेंसे चम्पुरूप कमल विकसित हुआ।
इन पद्योंसे इतना ही स्पष्ट होता है कि आशाघरकी उक्तियों में उनकी दष्टि या मानस निर्मल हुआ शा; पर आशाधर के समकालीन धं या उत्तर कालीन थे, इस पर कुछ प्रकाश नहीं पड़ता है। भव्यजनकपठाभरणमें एक ऐसा पद्य आया है, जो कुछ अधिक प्रकाश देता है
सूक्त्यैव तेषां भव भीरचो ये गुहाश्रमस्थाश्चरितात्मधर्माः ।
त एव शेषामिणां साहाय्या धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः ॥२३६।।
आचार्य उपाध्याय और साधुका स्वरूप बतलानेके पश्चात ग्रन्थकार कहते हैं कि उन आचार्य आदिकी सूक्तियोंके द्वारा ही जो संसारसे भयभीत प्राणी गृहस्थाश्रममें रहते हुए आत्मधर्मका पालन करते हैं और शेष ब्रह्मचर्य, वान प्रस्थ और सात्रु आश्रममें रहने वालोंकी सहायता करते हैं वे आशाधर सूरि प्रमुख श्रावक धन्य हैं ।
इस पद्यमें प्रकारान्तरसे आशाघरकी प्रशंसा की गई है और बताया गया है कि गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी वे जनधर्मका पालन करते थे तथा अन्य आश्नमवासियों की सहायता भी किया करते थे। इस पद्यमें आशाधरकी जिस परोपकार वृत्तिका निर्देश किया गया है उसका अनुभव कविने संभवत: प्रत्यक्ष किया है और प्रत्यक्षमें कहे जाने वाले सद्बचन भी सूक्ति कहलाते हैं। अत एवं बहुत संभव है कि अर्हद्दास आशाधरके समकालीन हैं 1 अतएव अर्हद्दासका समय वि० सं० १३०० मानना उचित ही है। यदि अर्हद्दासको आशाभरका समकालीन न मानकर उत्तरकालीन माना जाय तो उनका समय वि० की १४वीं शतीका प्रथम चरण आता है ।
अर्हद्दास को तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-
१. मुनिसुव्रतकाव्य,
२. पुरुदेव चम्पू और
३. भव्यजनकण्ठाभरण ।
इस महाकाव्यमें २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतकी कथा वर्णित है। कविने १० सर्गों में काध्यको समाप्त किया है । कथा मूलतः उत्तरपुराणसे गृहीत है। कविने कथानकका मूलरूपमें ग्रहणकर प्रासंगिक और अवान्तर कथाओंकी योजना नहीं की है । काव्यमें शृंगारभावनाका आरोप किये बिना भो मानव जीवनका सांगोपांग विश्लेषण किया है।
काव्यके इस लघु कलेवरमें विविध प्राकृतिक दृश्योंका चित्रण भी किया गया है। मगधदेशकी विशेषताओंको प्रकृतिके माध्यम द्वारा अभिव्यक्त करते हुए कहा है--
नगेष यस्योन्नतदंशजाताः सुनिर्मला विश्रुतवृत्तरूपाः ।
भव्या भवन्त्याप्तगुणाभिरामा मुक्ताः सदा लोकशिरोविभूषाः ॥१।२४
तरंगिणीनां तरुणान्वितानामतुच्छपनच्छदलाञ्छितानि ।
पृथूनि यस्मिन्पुलिनानि रेजुः कांचीपदानीव नखाञ्चितानि ॥१।२६।।
मगधके उत्तरी भागमें फैली हुई पर्वतश्रेणीपर विविध वृक्ष, मध्य भागमें लहलहाते हुए जलपूर्ण खेत और उनमें उत्पन्न रक्तकमल दर्शकोंके चित्तको सहज में हो आकृष्ट कर लेते हैं ! राजगृहके निरूपण-प्रसंगमें विविध वृक्ष-लत्ता कमलोंसे परिपूर्ण सरोवरोंके रेखाचित्र भी अंकित किये गये ।
द्वितीय पद्यमें बताया है कि बृक्ष-पंक्तिसे युक्त नदियोंके सुन्दर विकसित कमलपत्रोंसे चिह्नित विस्तृत पुलिन नापिकाके नखक्षत जघनके समान सुशो भित होते हैं। वाटिकाओंके वृक्षों और क्रीड़ापर्वतोपर स्नान करनेवाली रमणियोंका चित्रण करते हुए कविने लिखा है--
बहिर्वने यत्र विधाय वृक्षारोह परिष्वज्य समपित्तास्याः ।।
कृताधिकारा इव कामतंत्र कुर्वन्ति संग विटपैवतत्यः ।।१।३।।
आरामरामाशिरसीव केलिशैले लत्ताकुन्तलभासि पत्र ।।
सकुङ्कमा निर्झरवारिधारा सोमन्तसिन्दूरनिभा विभाति ।।३|
राजगृहके बाहरी उपवनोंमें वृक्षोंपर चढ़ी हुई लतायें काम-शास्त्रमें प्रवीण उपपत्तियोंका आलिंगन तथा चुम्बन करतो हुई कामिनियोंके समान जान पढ़ती हैं। जिस राजगृहमें स्त्रीरूपिणी वाटिकाओंमें उनके मस्तकके समान वेणी रूपिणी लताओस मंडित क्रीडापर्वतोपर स्त्रियोंके स्नान करनेसे कुंकुमिश्रित जलधारा-झरनेसे गिरती हुई सीमन्तके सिन्दूरके समान शोभित थी।
कविने उक्त दोनों पद्योंमें प्रकृतिका मानवीकरण कर मनोरम और मधुर रूपोंको प्रस्तुत किया है। उत्प्रेक्षाजन्य चमत्कार दोनों ही पद्यों में वर्तमान है। दशम संगमें जिनेन्द्र-सान्निध्यसे नीलीवनके अशोकसत्रच्छद, धम्पक, आम्र आदि वृक्षोंका क्रमश: सुन्दरी स्त्रियोंके चरणघात, चाटुवाद, छाया, कटाक्ष आदिके बिना ही पुष्पित होना वर्णित है। कविने यहाँ काव्यरूढ़ियोंका भी अतिक्रमण किया है।
आलम्बनरूप में प्रकृतिचित्रण करते हुए कविने वर्षाकालमें मेघगर्जन, हंसशावकों और वियोगीजनोंके कम्पित होने, सोंके बिलसे निकलने, मयूरोंके नत्यमग्न होने एवं चातकोंके अधरपुटके उन्मीलित होनेके वर्णन द्वारा वर्षा कालोन प्रकृतिका भव्यरूप उपस्थित किया है।'
निमें मानदो यारों और गोडे भी सुन्दर उदाहरण आये हैं। हेमन्त वर्णन-प्रसंगमें प्रातःकालीन बिखरे हुए भोस-बिन्दुओंसे सुशोभित, लताओंसे लिपटे हुए और उनके गुच्छोरूपी स्तनोंका आलिंगन किये हुए वृक्षों पर संभोगान्तमें निस्सृत श्वेतकोंसे युक्त युवकोंका आरोप स्वभावत: उद्दीपक है।
वर्षाकालमें नायक और आकाशमें नायिकाका आरोपकर गाढालिंगनका सरस वर्णन प्रस्तुत किया गया है । आकाश-नायिकाके स्तनप्रदेशपर स्थित माला टूट जाती है, जिससे उसके मोती और मूंगे इन्द्रबधूटो और ओलोंके रूपमें बिखरे हुए दीख पड़ते हैं।
कविने वसुधामें बात्सल्यमग्री माताका आरोप कर भावोंकी सूक्ष्म अभि व्यञ्जना की है। माता अपने पुत्रों-वृनोंका अत्याचारी सूर्यसंतापसे रक्षण करनेके हेतु उसके सामने दाँत निकालकर गिड़गिड़ा रही है
प्रासादचैत्यपरिखालतिकाद्रुमक्षमा जाता ध्वजयकुजहयंगणक्षमाश्च ।
पीठानि चेति हरसंख्यभुवस्तदंतरेकांतकेलिसदनं जिनबोधलक्ष्म्याः ।।१।१०।।
इस प्रकार इस काम में कविने कल्पनाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा संदर्भाशों को चमत्कारपूर्ण और सरस बनाया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, परिसंख्या,एकावली आदि अलंकार रसोकर्ष उत्पन्न करने में सहायक हैं। इस काश्यमें पौराणिक मान्यताएं भी वर्णित हैं। पर यथार्थतः यह शास्त्रीय महाकाव्य है।
इस चम्पूकाव्यमें आदितीर्थंकर ऋषभदेवका जीवनवृत्त वणित है । कथा वस्तु १० स्तक्कोंमें विभक्त है। कविने गद्य और पद्य दोनों ही प्रोढरूपमें लिखे हैं । मंगलपद्योंक र जम्बूढीग लिन जर्मन है: रिनलो राज्यका परिसंख्याद्वारा वर्णन करते हुए लिखा है
'यस्मिन्महीपाले महीलोकलोकोत्तरप्रसाद शांतकुंभमयस्तंभायमानेन निज भुजेन धरणीयेगदनिविशेषमाविनाणे, बंधनस्थितिः कुसुमेषु चित्रकाव्येषु च अलंकाराश्रयता महाकविकाव्येषु कामिनीजनेषु च, धनमलिनाबरता प्रावृषेण्यदि वसेषु कृष्ण पक्षनिशासु च, परमोहप्रतिपादनं प्रमाणशास्त्रेषु युवतिजनमनोहरांगेषु च, शुभकरवालशून्यता कोदंडधारिषु कच्छपेषु च परं व्यवतिष्ठत ।'
कविने भावात्मक विषयों का समावेश पद्यों में किया है और वर्णनात्मक संदर्भोका गधौ । वर्णनशैलो बड़ो ही रमणीय और चित्ताकर्षक है । देवांगनाएं जन्माभिषेकके पश्चात् नृत्य करती हुई भावपूर्वक ऋषभदेवकी पूजा करती है
"नटरसुरवधूजनप्रविसरत्कटाक्षालि ।
कपोलतलसंगतां त्रिभवनाधिपस्यादरात् ॥
सुराधिपतिसुन्दरी स्नपनतोयशंकाचशात ।
प्रमार्जयितुमुद्यता किल बभूव हासास्पदम् ।।५।१३।।"
इस प्रकार इस चम्पूमें काश्यात्मक सभी गुण वर्तमान हैं। इसकी गद्य-शैली तो पद्योंकी अपेक्षा अधिक प्रोढ है ।
इस काव्य में कुल २४२ पद्य हैं। इसमें आचार, नीति, दर्शन और सूक्ति इन सभीका समन्वय है । कतिपय पौराणिक मान्यताओंकी समीक्षा भी की गई है । इस ग्रन्थके प्रारंभमें वैदिक-पुराणोंको कई मान्यताएं अकित हैं | गणेश, कात्तिकेय, शिव-पार्वतीके आख्यान निर्दिष्ट कर संकेतरूपमें उनकी समीक्षा भी की गई है । प्रसंगवश इस ग्रन्थमें यापनीय-सम्प्रदाय, श्वेताम्बर-सम्प्रदाय, आदिको भो समीक्षा की गई है। कविने बताया है कि धर्म सदा अहिंसासे होता है, हिसासे नहीं। जिस प्रकार कमल जलसे ही उत्पन्न हो सकता है अग्नि से नहीं, उसी प्रकार इन्द्रियनिग्रह और कषाविजय अहिंसा द्वारा ही संभव है, हिसा द्वारा नहीं
सदाप्यहिंसाजनितोस्ति धर्मः स जातु हिंसाजनितः कुतः स्यात् ।
न जायते तोयजकज्ञमग्नेनं चामृतोत्थं विषतोऽमरत्वम् ।।८।।
अहिंसाके पालनार्थ मद्य, मांस, मधुके त्यागका और निर्मल आचरण पालन करने का काथन किया है। कविने आसमें सर्वज्ञताकी सिद्धि करते हुए लिखा
'तत्सूक्ष्मदरान्तरिताः पदार्थाः कस्यापि पुंसो विशदा भवन्ति ।
प्रजन्ति सर्वेऽप्यनुमेयत्तां यदेतेऽनलाद्या भुवने यथैव ॥१२३।।'
अर्थात् संसारमें जो परमाणु इत्यादि सूक्ष्म पदार्थ हैं, राम-रावण आदि अन्तरित पदार्थ हैं और हिमवन आदि दरवर्ती पदार्थ है वे किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि इन सभी पदार्थोंको हम अनुमानसे जानते हैं । जो पदार्थ अनुमानसे जाना जाता है वह किसीके प्रत्यक्ष भी होता है। जैसे पर्वतमें छिपी हुई अग्निको हम दूरसे उठता हुआ धुंआ देखकर अनुमानसे जानते हैं | पश्चात् ससका प्रत्यक्षीकरण होता है।
इस ग्रन्थपर 'समन्तभद्रके 'रत्नकरगहनावकाचार'का विशेष प्रभाव है। ग्रन्थकर्ताने ११६ पद्यों तक कुदेवोंकी समीक्षा की है । श्रासका स्वरूप बतलाने के अनन्तर जिनवाणीका माहात्म्य ७ पद्योंमें दिखलाया गया है। तत्पश्चात् सम्यग्दर्शनका वर्णन आया हैं। इस संदर्भ में ३ मढ़ता, ८ मद और 4 अंगोंका स्वरूप भी दर्शाया गया है। तत्पश्चात् सम्यकदर्शनका माहात्म्य बतलाकर सज्जाति आदि सप्त परमस्थानोंका स्वरूप भी एक एक पद्यमै अंकित किया गया है। २०६ पद्यसे २१२ पद्य तक परमस्थानोंका स्वरूप-वर्णन है। २१३वें और २१४- पद्य में सम्यकज्ञानका कथन आया है। कविने रत्नत्रयको ही वास्तविक धर्म कहा है और उसका महत्व २२४वें और रसवें पद्यमें प्रदर्शित किया है । २२६बें पद्यसे २३३ पद्य तक पञ्चपरमेष्ठीका स्वरूप वर्णित है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्थमें जैनसिद्धान्तोंका वर्णन आया है ।
संस्कृत गद्म और पथके निर्माताके रूप में महाकवि अर्हददास अद्वितीय हैं। मुनिसुव्रतकाव्य, पुरदेवचंपू और भव्यजनकंठाभरणको प्रशस्तियोंसे यह स्पष्ट है कि महाकविअर्हददास प्रतिभाशाली विद्वान थे। कविने इन ग्रंथोंकी प्रशः स्तियोंमें आशाधरका नाम बड़े आदरके साथ लिया है। अतः यह अनुमान लगाना सहज है कि इनके गुरु आशाधर थे। मुनिसुव्रतकाव्यके एक पद्यसे यह ध्वनित होता है कि अहंदास पहले कुमागमें पड़े हुए थे, पर आशापरके धर्मा मृतके अध्ययनसे उनके परिणामोंमें परिवर्तन हुआ और वे जैनधर्मानुयायी हो गये। बताया है--
धावन्कापथसंभृते भववने सन्मार्गमेकं परम् ।
स्थपत्या श्रांततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम् ।।
सबर्मामृतमुदधृतं जिनवचःक्षीरोदधेरादरात् ।
पार्य पायमितनम: सुखपदं दासो भवाम्यहंसः ।।१०।६४
अहंदासः सभक्त्युल्लसितमसितं भूघरे तत्र कृत्वा ।
कल्याणं तीर्थकर्तुः सुरकुलमहितः पापदात्मीयलोकम् ।।
अहहासोऽयमित्थं जिनपतिचरितं गौतमस्वाम्युपज्ञं ।
गुम्फित्या काव्यबन्ध कविकुलमाहितः प्रापदुच्चे: प्रमोदम् ॥१०१६३
अर्थात् कुमार्गीसे भरे हुए संसाररूपी वनमें जो एक उत्तम सन्मार्ग था, उसे छोड़कर बहुतकाल तक भटकता हआ में अत्यन्त थक गया । किसी प्रकार काललब्धि वश से प्राप्त किया। उस सन्मार्गको पाकर जिनवचनरूपी क्षीर समुद्रसे उद्धृत किये और सुखके स्थान समीचीन धर्मामृतको आदरपूर्वक पी-पी कर थकान रहित होता हुआ मैं अर्हन्त भगवानका दास होता है।
देवताओंसे पूजित सथा अहद् भगवान्के दास इन्द्रदेव उस सम्मेदपर्वत पर तीर्थकर भगवान मुनिसुव्रतनाथका मोक्षकल्याणक सम्पन्न कर सानन्द अपने स्वर्गलोकको लौट आये तथा कविकुलपूजित अर्हददास ने भी गौतम स्वामीसे कहे गये श्रीजिनेन्द्रचरितको काव्यरूपमें अथित कर बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त की।
उपायुक्त ६४वें पद्यमें आया हुआ 'धर्मामृत' पद आशाधरके 'धर्मामृत' ग्रन्थका सूचक है । इस पद्यसे यह अवगत होता है कि अहंदास पहले कुमार्ग में पड़े हुए थे। आशाधरके धर्मामृतने और उनकी उक्तियोंने उन्हें सुमार्गमें लगाया । बहुत संभव है कि कवि अहंदास पहले जैनधर्मानुयायी न होकर अन्य धर्मा नुमाघी रहे हों। यही कारण है कि उन्हें ब्राह्मणधर्म और वैदिक-पुराणोंका अच्छा परिज्ञान है।
'दासो भवाम्यहंतः' पद्यसे भी यही ध्वनित होता है। श्री पं० नाथूराम जी प्रेमीका अनुमान है कि अहंदास नाम न होकर विशेषण जैसा है। उन्होंने लिखा है--"चतुर्विशतिप्रबन्धकी पूर्वोक्त कथाको पढ़नेके बाद हमारा यह कल्पना करनेको जी अवश्य होता है कि कहीं मदनकी त्ति हो तो कुमार्गमें ठोकरें खाते-खाते अन्तमें आशाधरकी सक्तियोंसे अहंदास न बन गये हों। गू बंधों में से व 4 कि गये हमसे तो इस कल्पनाको बहुत पुष्टि मिलती है और फिर यह अहद्दास नाम भी विशेषण जैसा ही मालम होता है। संभव है उनका बास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो । घह नाम एक तरहकी भावुकता और विनयशीलता ही प्रकट करता है" 1 "प्रेमी जीने मदनकीतिको ही विशालकीति और आशाधरकी प्रेरणासे अहंदासके रूपमें परिवर्तित स्वीकार किया है, पर पुष्ट प्रमाणों के अभाव में प्रेमीजीके इस कथन को स्वीकार नहीं किया जा सकता । तथ्य जो भी हो, पर इतना तो स्पष्ट है कि अहंदासको आशाधरके ग्रन्थों और वचनोंसे बोध प्राप्त हुआ है।
कवि अर्हददास ने मुनिसुव्रतकाव्य, पुरुदेवचम्पू और भव्यकण्ठाभरणमें आशा धरका निर्देश दिया है । आशाधरने वि० सं० १३००में अनगारधर्मामृतकी टीका पूर्ण की थी। अत: कवि अर्हददास आशाधरके पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं । अब विचारणीय यह है कि वे आशाधरके समकालीन हैं या उनके पश्चात्वती विद्वान् हैं। उन्होंने अपने ग्रंथों में आशाधरका उल्लेख जिस रूपमें किया है उससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे आशाधरके समकालीन रहे हों। मुनिसुव्रतकाव्यकी प्रशस्ति
मिथ्यात्वकर्मपटलैश्चिरमावृते मे युग्में दशोः कुपथयाननिदानभूते ।। आशाधरोपितलसदंजनसंप्रयोगैरच्छीकृते पृथुलसत्पश्रमानितोऽस्मि ।।१०।६५||
अर्थात् मेरे नयन-युगलं चिरकालसे मिथ्यात्वकर्मके पटलसे ढके हुए थे और मझे कूमार्गमें ले जाने में कारण थे। आशा घरके उक्तिरूपी उत्तम अंजनसे उनके स्वच्छ होनेपर मैंने जिनेन्द्रदेव के महान सत्पथका आश्रय लिया। १. जन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पु. १४२-४३ 1पुरुदेवपूका अन्तिम पद्य
मिथ्यात्वपंककलो मम मानसेऽस्मिन् माशाघरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने ।
उल्लामितेन शरदा पुरुदेवभक्त्या तच्चंपुदंभजलजेन समुज्जजम्भे ।।
कविप्रशस्ति
अर्थात् मेरा यह मानसरूप सरोबर मिथ्यात्वरूपी कीचड़से कलुषित था । आशाधरको लक्तिरूपी निर्मलोके प्रभावसे अब वह निर्मल हुआ तो ऋषभ देवकी भक्तिसे प्रसन्न हुई शरद् ऋतुके द्वारा उसमेंसे चम्पुरूप कमल विकसित हुआ।
इन पद्योंसे इतना ही स्पष्ट होता है कि आशाघरकी उक्तियों में उनकी दष्टि या मानस निर्मल हुआ शा; पर आशाधर के समकालीन धं या उत्तर कालीन थे, इस पर कुछ प्रकाश नहीं पड़ता है। भव्यजनकपठाभरणमें एक ऐसा पद्य आया है, जो कुछ अधिक प्रकाश देता है
सूक्त्यैव तेषां भव भीरचो ये गुहाश्रमस्थाश्चरितात्मधर्माः ।
त एव शेषामिणां साहाय्या धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः ॥२३६।।
आचार्य उपाध्याय और साधुका स्वरूप बतलानेके पश्चात ग्रन्थकार कहते हैं कि उन आचार्य आदिकी सूक्तियोंके द्वारा ही जो संसारसे भयभीत प्राणी गृहस्थाश्रममें रहते हुए आत्मधर्मका पालन करते हैं और शेष ब्रह्मचर्य, वान प्रस्थ और सात्रु आश्रममें रहने वालोंकी सहायता करते हैं वे आशाधर सूरि प्रमुख श्रावक धन्य हैं ।
इस पद्यमें प्रकारान्तरसे आशाघरकी प्रशंसा की गई है और बताया गया है कि गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी वे जनधर्मका पालन करते थे तथा अन्य आश्नमवासियों की सहायता भी किया करते थे। इस पद्यमें आशाधरकी जिस परोपकार वृत्तिका निर्देश किया गया है उसका अनुभव कविने संभवत: प्रत्यक्ष किया है और प्रत्यक्षमें कहे जाने वाले सद्बचन भी सूक्ति कहलाते हैं। अत एवं बहुत संभव है कि अर्हद्दास आशाधरके समकालीन हैं 1 अतएव अर्हद्दासका समय वि० सं० १३०० मानना उचित ही है। यदि अर्हद्दासको आशाभरका समकालीन न मानकर उत्तरकालीन माना जाय तो उनका समय वि० की १४वीं शतीका प्रथम चरण आता है ।
अर्हद्दास को तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-
१. मुनिसुव्रतकाव्य,
२. पुरुदेव चम्पू और
३. भव्यजनकण्ठाभरण ।
इस महाकाव्यमें २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतकी कथा वर्णित है। कविने १० सर्गों में काध्यको समाप्त किया है । कथा मूलतः उत्तरपुराणसे गृहीत है। कविने कथानकका मूलरूपमें ग्रहणकर प्रासंगिक और अवान्तर कथाओंकी योजना नहीं की है । काव्यमें शृंगारभावनाका आरोप किये बिना भो मानव जीवनका सांगोपांग विश्लेषण किया है।
काव्यके इस लघु कलेवरमें विविध प्राकृतिक दृश्योंका चित्रण भी किया गया है। मगधदेशकी विशेषताओंको प्रकृतिके माध्यम द्वारा अभिव्यक्त करते हुए कहा है--
नगेष यस्योन्नतदंशजाताः सुनिर्मला विश्रुतवृत्तरूपाः ।
भव्या भवन्त्याप्तगुणाभिरामा मुक्ताः सदा लोकशिरोविभूषाः ॥१।२४
तरंगिणीनां तरुणान्वितानामतुच्छपनच्छदलाञ्छितानि ।
पृथूनि यस्मिन्पुलिनानि रेजुः कांचीपदानीव नखाञ्चितानि ॥१।२६।।
मगधके उत्तरी भागमें फैली हुई पर्वतश्रेणीपर विविध वृक्ष, मध्य भागमें लहलहाते हुए जलपूर्ण खेत और उनमें उत्पन्न रक्तकमल दर्शकोंके चित्तको सहज में हो आकृष्ट कर लेते हैं ! राजगृहके निरूपण-प्रसंगमें विविध वृक्ष-लत्ता कमलोंसे परिपूर्ण सरोवरोंके रेखाचित्र भी अंकित किये गये ।
द्वितीय पद्यमें बताया है कि बृक्ष-पंक्तिसे युक्त नदियोंके सुन्दर विकसित कमलपत्रोंसे चिह्नित विस्तृत पुलिन नापिकाके नखक्षत जघनके समान सुशो भित होते हैं। वाटिकाओंके वृक्षों और क्रीड़ापर्वतोपर स्नान करनेवाली रमणियोंका चित्रण करते हुए कविने लिखा है--
बहिर्वने यत्र विधाय वृक्षारोह परिष्वज्य समपित्तास्याः ।।
कृताधिकारा इव कामतंत्र कुर्वन्ति संग विटपैवतत्यः ।।१।३।।
आरामरामाशिरसीव केलिशैले लत्ताकुन्तलभासि पत्र ।।
सकुङ्कमा निर्झरवारिधारा सोमन्तसिन्दूरनिभा विभाति ।।३|
राजगृहके बाहरी उपवनोंमें वृक्षोंपर चढ़ी हुई लतायें काम-शास्त्रमें प्रवीण उपपत्तियोंका आलिंगन तथा चुम्बन करतो हुई कामिनियोंके समान जान पढ़ती हैं। जिस राजगृहमें स्त्रीरूपिणी वाटिकाओंमें उनके मस्तकके समान वेणी रूपिणी लताओस मंडित क्रीडापर्वतोपर स्त्रियोंके स्नान करनेसे कुंकुमिश्रित जलधारा-झरनेसे गिरती हुई सीमन्तके सिन्दूरके समान शोभित थी।
कविने उक्त दोनों पद्योंमें प्रकृतिका मानवीकरण कर मनोरम और मधुर रूपोंको प्रस्तुत किया है। उत्प्रेक्षाजन्य चमत्कार दोनों ही पद्यों में वर्तमान है। दशम संगमें जिनेन्द्र-सान्निध्यसे नीलीवनके अशोकसत्रच्छद, धम्पक, आम्र आदि वृक्षोंका क्रमश: सुन्दरी स्त्रियोंके चरणघात, चाटुवाद, छाया, कटाक्ष आदिके बिना ही पुष्पित होना वर्णित है। कविने यहाँ काव्यरूढ़ियोंका भी अतिक्रमण किया है।
आलम्बनरूप में प्रकृतिचित्रण करते हुए कविने वर्षाकालमें मेघगर्जन, हंसशावकों और वियोगीजनोंके कम्पित होने, सोंके बिलसे निकलने, मयूरोंके नत्यमग्न होने एवं चातकोंके अधरपुटके उन्मीलित होनेके वर्णन द्वारा वर्षा कालोन प्रकृतिका भव्यरूप उपस्थित किया है।'
निमें मानदो यारों और गोडे भी सुन्दर उदाहरण आये हैं। हेमन्त वर्णन-प्रसंगमें प्रातःकालीन बिखरे हुए भोस-बिन्दुओंसे सुशोभित, लताओंसे लिपटे हुए और उनके गुच्छोरूपी स्तनोंका आलिंगन किये हुए वृक्षों पर संभोगान्तमें निस्सृत श्वेतकोंसे युक्त युवकोंका आरोप स्वभावत: उद्दीपक है।
वर्षाकालमें नायक और आकाशमें नायिकाका आरोपकर गाढालिंगनका सरस वर्णन प्रस्तुत किया गया है । आकाश-नायिकाके स्तनप्रदेशपर स्थित माला टूट जाती है, जिससे उसके मोती और मूंगे इन्द्रबधूटो और ओलोंके रूपमें बिखरे हुए दीख पड़ते हैं।
कविने वसुधामें बात्सल्यमग्री माताका आरोप कर भावोंकी सूक्ष्म अभि व्यञ्जना की है। माता अपने पुत्रों-वृनोंका अत्याचारी सूर्यसंतापसे रक्षण करनेके हेतु उसके सामने दाँत निकालकर गिड़गिड़ा रही है
प्रासादचैत्यपरिखालतिकाद्रुमक्षमा जाता ध्वजयकुजहयंगणक्षमाश्च ।
पीठानि चेति हरसंख्यभुवस्तदंतरेकांतकेलिसदनं जिनबोधलक्ष्म्याः ।।१।१०।।
इस प्रकार इस काम में कविने कल्पनाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा संदर्भाशों को चमत्कारपूर्ण और सरस बनाया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, परिसंख्या,एकावली आदि अलंकार रसोकर्ष उत्पन्न करने में सहायक हैं। इस काश्यमें पौराणिक मान्यताएं भी वर्णित हैं। पर यथार्थतः यह शास्त्रीय महाकाव्य है।
इस चम्पूकाव्यमें आदितीर्थंकर ऋषभदेवका जीवनवृत्त वणित है । कथा वस्तु १० स्तक्कोंमें विभक्त है। कविने गद्य और पद्य दोनों ही प्रोढरूपमें लिखे हैं । मंगलपद्योंक र जम्बूढीग लिन जर्मन है: रिनलो राज्यका परिसंख्याद्वारा वर्णन करते हुए लिखा है
'यस्मिन्महीपाले महीलोकलोकोत्तरप्रसाद शांतकुंभमयस्तंभायमानेन निज भुजेन धरणीयेगदनिविशेषमाविनाणे, बंधनस्थितिः कुसुमेषु चित्रकाव्येषु च अलंकाराश्रयता महाकविकाव्येषु कामिनीजनेषु च, धनमलिनाबरता प्रावृषेण्यदि वसेषु कृष्ण पक्षनिशासु च, परमोहप्रतिपादनं प्रमाणशास्त्रेषु युवतिजनमनोहरांगेषु च, शुभकरवालशून्यता कोदंडधारिषु कच्छपेषु च परं व्यवतिष्ठत ।'
कविने भावात्मक विषयों का समावेश पद्यों में किया है और वर्णनात्मक संदर्भोका गधौ । वर्णनशैलो बड़ो ही रमणीय और चित्ताकर्षक है । देवांगनाएं जन्माभिषेकके पश्चात् नृत्य करती हुई भावपूर्वक ऋषभदेवकी पूजा करती है
"नटरसुरवधूजनप्रविसरत्कटाक्षालि ।
कपोलतलसंगतां त्रिभवनाधिपस्यादरात् ॥
सुराधिपतिसुन्दरी स्नपनतोयशंकाचशात ।
प्रमार्जयितुमुद्यता किल बभूव हासास्पदम् ।।५।१३।।"
इस प्रकार इस चम्पूमें काश्यात्मक सभी गुण वर्तमान हैं। इसकी गद्य-शैली तो पद्योंकी अपेक्षा अधिक प्रोढ है ।
इस काव्य में कुल २४२ पद्य हैं। इसमें आचार, नीति, दर्शन और सूक्ति इन सभीका समन्वय है । कतिपय पौराणिक मान्यताओंकी समीक्षा भी की गई है । इस ग्रन्थके प्रारंभमें वैदिक-पुराणोंको कई मान्यताएं अकित हैं | गणेश, कात्तिकेय, शिव-पार्वतीके आख्यान निर्दिष्ट कर संकेतरूपमें उनकी समीक्षा भी की गई है । प्रसंगवश इस ग्रन्थमें यापनीय-सम्प्रदाय, श्वेताम्बर-सम्प्रदाय, आदिको भो समीक्षा की गई है। कविने बताया है कि धर्म सदा अहिंसासे होता है, हिसासे नहीं। जिस प्रकार कमल जलसे ही उत्पन्न हो सकता है अग्नि से नहीं, उसी प्रकार इन्द्रियनिग्रह और कषाविजय अहिंसा द्वारा ही संभव है, हिसा द्वारा नहीं
सदाप्यहिंसाजनितोस्ति धर्मः स जातु हिंसाजनितः कुतः स्यात् ।
न जायते तोयजकज्ञमग्नेनं चामृतोत्थं विषतोऽमरत्वम् ।।८।।
अहिंसाके पालनार्थ मद्य, मांस, मधुके त्यागका और निर्मल आचरण पालन करने का काथन किया है। कविने आसमें सर्वज्ञताकी सिद्धि करते हुए लिखा
'तत्सूक्ष्मदरान्तरिताः पदार्थाः कस्यापि पुंसो विशदा भवन्ति ।
प्रजन्ति सर्वेऽप्यनुमेयत्तां यदेतेऽनलाद्या भुवने यथैव ॥१२३।।'
अर्थात् संसारमें जो परमाणु इत्यादि सूक्ष्म पदार्थ हैं, राम-रावण आदि अन्तरित पदार्थ हैं और हिमवन आदि दरवर्ती पदार्थ है वे किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि इन सभी पदार्थोंको हम अनुमानसे जानते हैं । जो पदार्थ अनुमानसे जाना जाता है वह किसीके प्रत्यक्ष भी होता है। जैसे पर्वतमें छिपी हुई अग्निको हम दूरसे उठता हुआ धुंआ देखकर अनुमानसे जानते हैं | पश्चात् ससका प्रत्यक्षीकरण होता है।
इस ग्रन्थपर 'समन्तभद्रके 'रत्नकरगहनावकाचार'का विशेष प्रभाव है। ग्रन्थकर्ताने ११६ पद्यों तक कुदेवोंकी समीक्षा की है । श्रासका स्वरूप बतलाने के अनन्तर जिनवाणीका माहात्म्य ७ पद्योंमें दिखलाया गया है। तत्पश्चात् सम्यग्दर्शनका वर्णन आया हैं। इस संदर्भ में ३ मढ़ता, ८ मद और 4 अंगोंका स्वरूप भी दर्शाया गया है। तत्पश्चात् सम्यकदर्शनका माहात्म्य बतलाकर सज्जाति आदि सप्त परमस्थानोंका स्वरूप भी एक एक पद्यमै अंकित किया गया है। २०६ पद्यसे २१२ पद्य तक परमस्थानोंका स्वरूप-वर्णन है। २१३वें और २१४- पद्य में सम्यकज्ञानका कथन आया है। कविने रत्नत्रयको ही वास्तविक धर्म कहा है और उसका महत्व २२४वें और रसवें पद्यमें प्रदर्शित किया है । २२६बें पद्यसे २३३ पद्य तक पञ्चपरमेष्ठीका स्वरूप वर्णित है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्थमें जैनसिद्धान्तोंका वर्णन आया है ।
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आचार्यतुल्य श्री १०८ महाकवि अरहददास 14वीं शताब्दी (प्राचीन)
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
संस्कृत गद्म और पथके निर्माताके रूप में महाकवि अर्हददास अद्वितीय हैं। मुनिसुव्रतकाव्य, पुरदेवचंपू और भव्यजनकंठाभरणको प्रशस्तियोंसे यह स्पष्ट है कि महाकविअर्हददास प्रतिभाशाली विद्वान थे। कविने इन ग्रंथोंकी प्रशः स्तियोंमें आशाधरका नाम बड़े आदरके साथ लिया है। अतः यह अनुमान लगाना सहज है कि इनके गुरु आशाधर थे। मुनिसुव्रतकाव्यके एक पद्यसे यह ध्वनित होता है कि अहंदास पहले कुमागमें पड़े हुए थे, पर आशापरके धर्मा मृतके अध्ययनसे उनके परिणामोंमें परिवर्तन हुआ और वे जैनधर्मानुयायी हो गये। बताया है--
धावन्कापथसंभृते भववने सन्मार्गमेकं परम् ।
स्थपत्या श्रांततरश्चिराय कथमप्यासाद्य कालादमुम् ।।
सबर्मामृतमुदधृतं जिनवचःक्षीरोदधेरादरात् ।
पार्य पायमितनम: सुखपदं दासो भवाम्यहंसः ।।१०।६४
अहंदासः सभक्त्युल्लसितमसितं भूघरे तत्र कृत्वा ।
कल्याणं तीर्थकर्तुः सुरकुलमहितः पापदात्मीयलोकम् ।।
अहहासोऽयमित्थं जिनपतिचरितं गौतमस्वाम्युपज्ञं ।
गुम्फित्या काव्यबन्ध कविकुलमाहितः प्रापदुच्चे: प्रमोदम् ॥१०१६३
अर्थात् कुमार्गीसे भरे हुए संसाररूपी वनमें जो एक उत्तम सन्मार्ग था, उसे छोड़कर बहुतकाल तक भटकता हआ में अत्यन्त थक गया । किसी प्रकार काललब्धि वश से प्राप्त किया। उस सन्मार्गको पाकर जिनवचनरूपी क्षीर समुद्रसे उद्धृत किये और सुखके स्थान समीचीन धर्मामृतको आदरपूर्वक पी-पी कर थकान रहित होता हुआ मैं अर्हन्त भगवानका दास होता है।
देवताओंसे पूजित सथा अहद् भगवान्के दास इन्द्रदेव उस सम्मेदपर्वत पर तीर्थकर भगवान मुनिसुव्रतनाथका मोक्षकल्याणक सम्पन्न कर सानन्द अपने स्वर्गलोकको लौट आये तथा कविकुलपूजित अर्हददास ने भी गौतम स्वामीसे कहे गये श्रीजिनेन्द्रचरितको काव्यरूपमें अथित कर बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त की।
उपायुक्त ६४वें पद्यमें आया हुआ 'धर्मामृत' पद आशाधरके 'धर्मामृत' ग्रन्थका सूचक है । इस पद्यसे यह अवगत होता है कि अहंदास पहले कुमार्ग में पड़े हुए थे। आशाधरके धर्मामृतने और उनकी उक्तियोंने उन्हें सुमार्गमें लगाया । बहुत संभव है कि कवि अहंदास पहले जैनधर्मानुयायी न होकर अन्य धर्मा नुमाघी रहे हों। यही कारण है कि उन्हें ब्राह्मणधर्म और वैदिक-पुराणोंका अच्छा परिज्ञान है।
'दासो भवाम्यहंतः' पद्यसे भी यही ध्वनित होता है। श्री पं० नाथूराम जी प्रेमीका अनुमान है कि अहंदास नाम न होकर विशेषण जैसा है। उन्होंने लिखा है--"चतुर्विशतिप्रबन्धकी पूर्वोक्त कथाको पढ़नेके बाद हमारा यह कल्पना करनेको जी अवश्य होता है कि कहीं मदनकी त्ति हो तो कुमार्गमें ठोकरें खाते-खाते अन्तमें आशाधरकी सक्तियोंसे अहंदास न बन गये हों। गू बंधों में से व 4 कि गये हमसे तो इस कल्पनाको बहुत पुष्टि मिलती है और फिर यह अहद्दास नाम भी विशेषण जैसा ही मालम होता है। संभव है उनका बास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो । घह नाम एक तरहकी भावुकता और विनयशीलता ही प्रकट करता है" 1 "प्रेमी जीने मदनकीतिको ही विशालकीति और आशाधरकी प्रेरणासे अहंदासके रूपमें परिवर्तित स्वीकार किया है, पर पुष्ट प्रमाणों के अभाव में प्रेमीजीके इस कथन को स्वीकार नहीं किया जा सकता । तथ्य जो भी हो, पर इतना तो स्पष्ट है कि अहंदासको आशाधरके ग्रन्थों और वचनोंसे बोध प्राप्त हुआ है।
कवि अर्हददास ने मुनिसुव्रतकाव्य, पुरुदेवचम्पू और भव्यकण्ठाभरणमें आशा धरका निर्देश दिया है । आशाधरने वि० सं० १३००में अनगारधर्मामृतकी टीका पूर्ण की थी। अत: कवि अर्हददास आशाधरके पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं । अब विचारणीय यह है कि वे आशाधरके समकालीन हैं या उनके पश्चात्वती विद्वान् हैं। उन्होंने अपने ग्रंथों में आशाधरका उल्लेख जिस रूपमें किया है उससे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि वे आशाधरके समकालीन रहे हों। मुनिसुव्रतकाव्यकी प्रशस्ति
मिथ्यात्वकर्मपटलैश्चिरमावृते मे युग्में दशोः कुपथयाननिदानभूते ।। आशाधरोपितलसदंजनसंप्रयोगैरच्छीकृते पृथुलसत्पश्रमानितोऽस्मि ।।१०।६५||
अर्थात् मेरे नयन-युगलं चिरकालसे मिथ्यात्वकर्मके पटलसे ढके हुए थे और मझे कूमार्गमें ले जाने में कारण थे। आशा घरके उक्तिरूपी उत्तम अंजनसे उनके स्वच्छ होनेपर मैंने जिनेन्द्रदेव के महान सत्पथका आश्रय लिया। १. जन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पु. १४२-४३ 1पुरुदेवपूका अन्तिम पद्य
मिथ्यात्वपंककलो मम मानसेऽस्मिन् माशाघरोक्तिकतकप्रसरैः प्रसन्ने ।
उल्लामितेन शरदा पुरुदेवभक्त्या तच्चंपुदंभजलजेन समुज्जजम्भे ।।
कविप्रशस्ति
अर्थात् मेरा यह मानसरूप सरोबर मिथ्यात्वरूपी कीचड़से कलुषित था । आशाधरको लक्तिरूपी निर्मलोके प्रभावसे अब वह निर्मल हुआ तो ऋषभ देवकी भक्तिसे प्रसन्न हुई शरद् ऋतुके द्वारा उसमेंसे चम्पुरूप कमल विकसित हुआ।
इन पद्योंसे इतना ही स्पष्ट होता है कि आशाघरकी उक्तियों में उनकी दष्टि या मानस निर्मल हुआ शा; पर आशाधर के समकालीन धं या उत्तर कालीन थे, इस पर कुछ प्रकाश नहीं पड़ता है। भव्यजनकपठाभरणमें एक ऐसा पद्य आया है, जो कुछ अधिक प्रकाश देता है
सूक्त्यैव तेषां भव भीरचो ये गुहाश्रमस्थाश्चरितात्मधर्माः ।
त एव शेषामिणां साहाय्या धन्याः स्युराशाधरसूरिमुख्याः ॥२३६।।
आचार्य उपाध्याय और साधुका स्वरूप बतलानेके पश्चात ग्रन्थकार कहते हैं कि उन आचार्य आदिकी सूक्तियोंके द्वारा ही जो संसारसे भयभीत प्राणी गृहस्थाश्रममें रहते हुए आत्मधर्मका पालन करते हैं और शेष ब्रह्मचर्य, वान प्रस्थ और सात्रु आश्रममें रहने वालोंकी सहायता करते हैं वे आशाधर सूरि प्रमुख श्रावक धन्य हैं ।
इस पद्यमें प्रकारान्तरसे आशाघरकी प्रशंसा की गई है और बताया गया है कि गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी वे जनधर्मका पालन करते थे तथा अन्य आश्नमवासियों की सहायता भी किया करते थे। इस पद्यमें आशाधरकी जिस परोपकार वृत्तिका निर्देश किया गया है उसका अनुभव कविने संभवत: प्रत्यक्ष किया है और प्रत्यक्षमें कहे जाने वाले सद्बचन भी सूक्ति कहलाते हैं। अत एवं बहुत संभव है कि अर्हद्दास आशाधरके समकालीन हैं 1 अतएव अर्हद्दासका समय वि० सं० १३०० मानना उचित ही है। यदि अर्हद्दासको आशाभरका समकालीन न मानकर उत्तरकालीन माना जाय तो उनका समय वि० की १४वीं शतीका प्रथम चरण आता है ।
अर्हद्दास को तीन रचनाएं उपलब्ध हैं-
१. मुनिसुव्रतकाव्य,
२. पुरुदेव चम्पू और
३. भव्यजनकण्ठाभरण ।
इस महाकाव्यमें २०वें तीर्थंकर मुनिसुव्रतकी कथा वर्णित है। कविने १० सर्गों में काध्यको समाप्त किया है । कथा मूलतः उत्तरपुराणसे गृहीत है। कविने कथानकका मूलरूपमें ग्रहणकर प्रासंगिक और अवान्तर कथाओंकी योजना नहीं की है । काव्यमें शृंगारभावनाका आरोप किये बिना भो मानव जीवनका सांगोपांग विश्लेषण किया है।
काव्यके इस लघु कलेवरमें विविध प्राकृतिक दृश्योंका चित्रण भी किया गया है। मगधदेशकी विशेषताओंको प्रकृतिके माध्यम द्वारा अभिव्यक्त करते हुए कहा है--
नगेष यस्योन्नतदंशजाताः सुनिर्मला विश्रुतवृत्तरूपाः ।
भव्या भवन्त्याप्तगुणाभिरामा मुक्ताः सदा लोकशिरोविभूषाः ॥१।२४
तरंगिणीनां तरुणान्वितानामतुच्छपनच्छदलाञ्छितानि ।
पृथूनि यस्मिन्पुलिनानि रेजुः कांचीपदानीव नखाञ्चितानि ॥१।२६।।
मगधके उत्तरी भागमें फैली हुई पर्वतश्रेणीपर विविध वृक्ष, मध्य भागमें लहलहाते हुए जलपूर्ण खेत और उनमें उत्पन्न रक्तकमल दर्शकोंके चित्तको सहज में हो आकृष्ट कर लेते हैं ! राजगृहके निरूपण-प्रसंगमें विविध वृक्ष-लत्ता कमलोंसे परिपूर्ण सरोवरोंके रेखाचित्र भी अंकित किये गये ।
द्वितीय पद्यमें बताया है कि बृक्ष-पंक्तिसे युक्त नदियोंके सुन्दर विकसित कमलपत्रोंसे चिह्नित विस्तृत पुलिन नापिकाके नखक्षत जघनके समान सुशो भित होते हैं। वाटिकाओंके वृक्षों और क्रीड़ापर्वतोपर स्नान करनेवाली रमणियोंका चित्रण करते हुए कविने लिखा है--
बहिर्वने यत्र विधाय वृक्षारोह परिष्वज्य समपित्तास्याः ।।
कृताधिकारा इव कामतंत्र कुर्वन्ति संग विटपैवतत्यः ।।१।३।।
आरामरामाशिरसीव केलिशैले लत्ताकुन्तलभासि पत्र ।।
सकुङ्कमा निर्झरवारिधारा सोमन्तसिन्दूरनिभा विभाति ।।३|
राजगृहके बाहरी उपवनोंमें वृक्षोंपर चढ़ी हुई लतायें काम-शास्त्रमें प्रवीण उपपत्तियोंका आलिंगन तथा चुम्बन करतो हुई कामिनियोंके समान जान पढ़ती हैं। जिस राजगृहमें स्त्रीरूपिणी वाटिकाओंमें उनके मस्तकके समान वेणी रूपिणी लताओस मंडित क्रीडापर्वतोपर स्त्रियोंके स्नान करनेसे कुंकुमिश्रित जलधारा-झरनेसे गिरती हुई सीमन्तके सिन्दूरके समान शोभित थी।
कविने उक्त दोनों पद्योंमें प्रकृतिका मानवीकरण कर मनोरम और मधुर रूपोंको प्रस्तुत किया है। उत्प्रेक्षाजन्य चमत्कार दोनों ही पद्यों में वर्तमान है। दशम संगमें जिनेन्द्र-सान्निध्यसे नीलीवनके अशोकसत्रच्छद, धम्पक, आम्र आदि वृक्षोंका क्रमश: सुन्दरी स्त्रियोंके चरणघात, चाटुवाद, छाया, कटाक्ष आदिके बिना ही पुष्पित होना वर्णित है। कविने यहाँ काव्यरूढ़ियोंका भी अतिक्रमण किया है।
आलम्बनरूप में प्रकृतिचित्रण करते हुए कविने वर्षाकालमें मेघगर्जन, हंसशावकों और वियोगीजनोंके कम्पित होने, सोंके बिलसे निकलने, मयूरोंके नत्यमग्न होने एवं चातकोंके अधरपुटके उन्मीलित होनेके वर्णन द्वारा वर्षा कालोन प्रकृतिका भव्यरूप उपस्थित किया है।'
निमें मानदो यारों और गोडे भी सुन्दर उदाहरण आये हैं। हेमन्त वर्णन-प्रसंगमें प्रातःकालीन बिखरे हुए भोस-बिन्दुओंसे सुशोभित, लताओंसे लिपटे हुए और उनके गुच्छोरूपी स्तनोंका आलिंगन किये हुए वृक्षों पर संभोगान्तमें निस्सृत श्वेतकोंसे युक्त युवकोंका आरोप स्वभावत: उद्दीपक है।
वर्षाकालमें नायक और आकाशमें नायिकाका आरोपकर गाढालिंगनका सरस वर्णन प्रस्तुत किया गया है । आकाश-नायिकाके स्तनप्रदेशपर स्थित माला टूट जाती है, जिससे उसके मोती और मूंगे इन्द्रबधूटो और ओलोंके रूपमें बिखरे हुए दीख पड़ते हैं।
कविने वसुधामें बात्सल्यमग्री माताका आरोप कर भावोंकी सूक्ष्म अभि व्यञ्जना की है। माता अपने पुत्रों-वृनोंका अत्याचारी सूर्यसंतापसे रक्षण करनेके हेतु उसके सामने दाँत निकालकर गिड़गिड़ा रही है
प्रासादचैत्यपरिखालतिकाद्रुमक्षमा जाता ध्वजयकुजहयंगणक्षमाश्च ।
पीठानि चेति हरसंख्यभुवस्तदंतरेकांतकेलिसदनं जिनबोधलक्ष्म्याः ।।१।१०।।
इस प्रकार इस काम में कविने कल्पनाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा संदर्भाशों को चमत्कारपूर्ण और सरस बनाया है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, परिसंख्या,एकावली आदि अलंकार रसोकर्ष उत्पन्न करने में सहायक हैं। इस काश्यमें पौराणिक मान्यताएं भी वर्णित हैं। पर यथार्थतः यह शास्त्रीय महाकाव्य है।
इस चम्पूकाव्यमें आदितीर्थंकर ऋषभदेवका जीवनवृत्त वणित है । कथा वस्तु १० स्तक्कोंमें विभक्त है। कविने गद्य और पद्य दोनों ही प्रोढरूपमें लिखे हैं । मंगलपद्योंक र जम्बूढीग लिन जर्मन है: रिनलो राज्यका परिसंख्याद्वारा वर्णन करते हुए लिखा है
'यस्मिन्महीपाले महीलोकलोकोत्तरप्रसाद शांतकुंभमयस्तंभायमानेन निज भुजेन धरणीयेगदनिविशेषमाविनाणे, बंधनस्थितिः कुसुमेषु चित्रकाव्येषु च अलंकाराश्रयता महाकविकाव्येषु कामिनीजनेषु च, धनमलिनाबरता प्रावृषेण्यदि वसेषु कृष्ण पक्षनिशासु च, परमोहप्रतिपादनं प्रमाणशास्त्रेषु युवतिजनमनोहरांगेषु च, शुभकरवालशून्यता कोदंडधारिषु कच्छपेषु च परं व्यवतिष्ठत ।'
कविने भावात्मक विषयों का समावेश पद्यों में किया है और वर्णनात्मक संदर्भोका गधौ । वर्णनशैलो बड़ो ही रमणीय और चित्ताकर्षक है । देवांगनाएं जन्माभिषेकके पश्चात् नृत्य करती हुई भावपूर्वक ऋषभदेवकी पूजा करती है
"नटरसुरवधूजनप्रविसरत्कटाक्षालि ।
कपोलतलसंगतां त्रिभवनाधिपस्यादरात् ॥
सुराधिपतिसुन्दरी स्नपनतोयशंकाचशात ।
प्रमार्जयितुमुद्यता किल बभूव हासास्पदम् ।।५।१३।।"
इस प्रकार इस चम्पूमें काश्यात्मक सभी गुण वर्तमान हैं। इसकी गद्य-शैली तो पद्योंकी अपेक्षा अधिक प्रोढ है ।
इस काव्य में कुल २४२ पद्य हैं। इसमें आचार, नीति, दर्शन और सूक्ति इन सभीका समन्वय है । कतिपय पौराणिक मान्यताओंकी समीक्षा भी की गई है । इस ग्रन्थके प्रारंभमें वैदिक-पुराणोंको कई मान्यताएं अकित हैं | गणेश, कात्तिकेय, शिव-पार्वतीके आख्यान निर्दिष्ट कर संकेतरूपमें उनकी समीक्षा भी की गई है । प्रसंगवश इस ग्रन्थमें यापनीय-सम्प्रदाय, श्वेताम्बर-सम्प्रदाय, आदिको भो समीक्षा की गई है। कविने बताया है कि धर्म सदा अहिंसासे होता है, हिसासे नहीं। जिस प्रकार कमल जलसे ही उत्पन्न हो सकता है अग्नि से नहीं, उसी प्रकार इन्द्रियनिग्रह और कषाविजय अहिंसा द्वारा ही संभव है, हिसा द्वारा नहीं
सदाप्यहिंसाजनितोस्ति धर्मः स जातु हिंसाजनितः कुतः स्यात् ।
न जायते तोयजकज्ञमग्नेनं चामृतोत्थं विषतोऽमरत्वम् ।।८।।
अहिंसाके पालनार्थ मद्य, मांस, मधुके त्यागका और निर्मल आचरण पालन करने का काथन किया है। कविने आसमें सर्वज्ञताकी सिद्धि करते हुए लिखा
'तत्सूक्ष्मदरान्तरिताः पदार्थाः कस्यापि पुंसो विशदा भवन्ति ।
प्रजन्ति सर्वेऽप्यनुमेयत्तां यदेतेऽनलाद्या भुवने यथैव ॥१२३।।'
अर्थात् संसारमें जो परमाणु इत्यादि सूक्ष्म पदार्थ हैं, राम-रावण आदि अन्तरित पदार्थ हैं और हिमवन आदि दरवर्ती पदार्थ है वे किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं क्योंकि इन सभी पदार्थोंको हम अनुमानसे जानते हैं । जो पदार्थ अनुमानसे जाना जाता है वह किसीके प्रत्यक्ष भी होता है। जैसे पर्वतमें छिपी हुई अग्निको हम दूरसे उठता हुआ धुंआ देखकर अनुमानसे जानते हैं | पश्चात् ससका प्रत्यक्षीकरण होता है।
इस ग्रन्थपर 'समन्तभद्रके 'रत्नकरगहनावकाचार'का विशेष प्रभाव है। ग्रन्थकर्ताने ११६ पद्यों तक कुदेवोंकी समीक्षा की है । श्रासका स्वरूप बतलाने के अनन्तर जिनवाणीका माहात्म्य ७ पद्योंमें दिखलाया गया है। तत्पश्चात् सम्यग्दर्शनका वर्णन आया हैं। इस संदर्भ में ३ मढ़ता, ८ मद और 4 अंगोंका स्वरूप भी दर्शाया गया है। तत्पश्चात् सम्यकदर्शनका माहात्म्य बतलाकर सज्जाति आदि सप्त परमस्थानोंका स्वरूप भी एक एक पद्यमै अंकित किया गया है। २०६ पद्यसे २१२ पद्य तक परमस्थानोंका स्वरूप-वर्णन है। २१३वें और २१४- पद्य में सम्यकज्ञानका कथन आया है। कविने रत्नत्रयको ही वास्तविक धर्म कहा है और उसका महत्व २२४वें और रसवें पद्यमें प्रदर्शित किया है । २२६बें पद्यसे २३३ पद्य तक पञ्चपरमेष्ठीका स्वरूप वर्णित है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्थमें जैनसिद्धान्तोंका वर्णन आया है ।
Acharyatulya Mahakavi Arhaddas 14th Century (Prachin)
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