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#Asag(Prachin)AcharyatulyaMahakavi
कबि द्वारा रचित शान्तिनाथचरितको प्रशस्तिसे अवगत होता है कि कविके पिताका नाम पटुमति और माताका नाम बैरेति था । पिता धर्मात्मा मुनिभक्त थे। इन्हें शुद्ध सम्यक्त्व प्राप्त था। माता भी धर्मात्मा थी। इस दम्पत्तिके असग नामक पुत्र उत्पन्न हुवा। असगके पुत्रका नाम जिनाप था । यह भी जैन धर्ममें अनुरक्त शूरवीर, परलोकभीरू एवं द्विजातिनाथ होनेपर भी पक्षपातरहित था। इस पुण्यात्माकी व्याख्यानशीलता एवं पौराणिक श्रद्धाको देखकर कवित्वशक्तिसे हीन होनेपर भी गुरुके आग्रहसे उसके द्वारा यह प्रबन्धकाव्य लिखा गया है। प्रशस्तिमें कविने अपने गुरुका नाम नागनन्दि आचार्य लिखा है । ये व्याकरण, काव्य और जैन शास्त्रोंके ज्ञाता थे।
गुरु | नागनन्दि |
महाकवि असगने श्रीनाथके राज्यकालमें चोलराज्यकी विभिन्न नगरियों में आठ ग्रन्थों की रचना की है । 'वर्द्धमानचरित' को प्रशस्तिके अनुसार इस काव्य का रचनाकाल शक संवत् ११० (ई. १८८) है। कविने अपने गुरुका नाम नागनन्दि बताया है। इन नागनन्दिका परिचय श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें पाया जाता है । १०८ वें अभिलेखसे अवगत होता है कि नागनन्दि नन्दिसंघके आचार्य थे, पर नन्दिसंघकी पट्टावलोम नागमन्दिक्के मम्बन्ध में कोई सूचना उप लब्ध नहीं होती है। अतएव नईमानचरितके आधारपर कविका समय ई. सन् की १०वीं शताब्दी है।
कविकी दो रचनाएं प्राप्त हैं बर्द्धमानचरित और शान्तिनाथचरित ।
बर्द्धमानचरित महाकाव्यमें १८ सर्ग हैं और तीर्थंकर महावीरका जीवनवृत्त अंकित है। इस ग्रन्थका सम्पादन और मराठी अनुवाद जिनदासपाश्र्वनाथ फडकुलेने सन् १९३१में किया है। मारीच, विश्वनन्दि, अश्वग्रीव, त्रिपृष्ठ, सिंह, कपिष्ठ, हरिषेण, सूर्यप्रभ इत्यादि के इतिवृत पूर्वजन्मोंकी कथाके रूपमें अंकित किये गये हैं।
महाकवि असग ने अपने इस बर्द्धमानचरितको कथावस्तु उत्तरपुराणके ७४वें पर्वसे ग्रहण की है । इस पुराणमें मधुवनमें रहनेवाले पुरुरवा नामक भिल्लराजसे बर्द्धमानके पूर्व भवोंका आरम्भ किया गया है । कविने उत्तरपुराणको कथावस्तुको काव्योचित बनाने के लिये कांट-छांट भी की हैं। असगने पुरुरवा
और मरीचके आख्यानको छोड़ दिया है और श्वेतातपत्रा नगरीके राजा नन्दि बर्द्धनके आँगनमें पुत्र-जन्मोत्सवसे कथानकका प्रारम्भ किया है। इसमें सन्देह नहीं कि यह भारम्भस्थल बहुत रमणीय है। उत्तरपुराणको कथावस्तुके प्रारम्भिक अंशको घटितरूपमें न दिखलाकर पूर्वभवालिके रूपमें मुनिराज के मुखसे कहलवाया है। इस प्रकार उत्तरपुराणकी कथावस्तु अक्षुण्ण रह गयी है।
कथावस्तुके गठनमें कवि असगने इस बातको पूर्ण चेष्ट की है कि पौराणिक कथानक काब्यके कथानक बन सके। घटनाओंका पूर्वापर क्रमनिर्धारण, उनमें परस्पर सम्बधस्थापन एवं उपाख्यानोंका यथास्थान संयोजन मौलिक रूपमें घटित हुआ है। प्रसंगोंको व्यर्थ वर्णनविस्तार नहीं दिया है । मार्मिक प्रसंगों के नियोजनके हेतु विश्वनन्दि और नन्दन के जीवन में लोकव्यापक नाना सम्बन्धों के कल्याणकारी सौन्दर्य की अभिव्यकजना की है । पिता-पुत्रका स्नेह नन्दिवर्द्धन और नन्दनके जीवन में, भाईका स्नेह विश्वभूति और विशाखभूतिके जीवन में, पति-पत्नोका स्नेह त्रिपृष्ठ और स्वयंप्रभाके जीवनमें, विविध भोगविलास हरिषेणके जीवनमें एवं वीरता और चमत्कारोंका वर्णन त्रिपृष्ठने जीवन में अभिव्यक्त कर जीवनको व्याख्या प्रस्तुत की गयी है । कयानियोजनमें बोम्यता,अवसर, सत्कार्यता और रूपाकृतिका पूरा ध्यान रखा गया है । अवान्तर कथा ओंका प्रक्षेपण पुनभवावलिक रूपमें किया है। वर्द्धमानका जीवनविकास अनेक भबों-जन्मोंका लेखा-जोखा है। कर्मवादके भोक्ता नायक-नायिकाएं मुनिराज द्वारा अपने विगत जोवनके इतिवृत्तको सुनकर विरक्ति धारण करते है । जीवनकी अनेक विषमताएं कथावस्तुमें विकसित हुई हैं।
कचिने रसानुरूप सन्दर्भ और अर्थानुरूप छन्दोंको योजना, जीवनके व्यापक अनुभवोंका विश्लेषण एवं वस्तुओं का अलंकृत चित्रण किया है । इस महाकाव्य का प्रतिनायक विशाखनन्दि है, जिसके साथ कई जन्मों तक विरोध चलता है। कवि असगने संगठित कथानकके कलेवरमें जीवन के विविध पक्षोंका उद् घाटन करने के लिए बस्तु-व्यापार, प्रकृतिचित्रण, रसभावसंयोजन एवं अलंकार नियोजन किया है। रापमें अनुप्रास, रारमें यमक और ५३५, स७, ५1८, ६३४, ६६८, ७८, ७।४१, ७।८५, ८।२६, ८।६७, ८७५, १४७, ९।१०, २।२९, ९।३५, २।३९, १०।२२, १०१२३, १०।२४, १२।१०, १२।११, १२।१६, १३३३८, १३२४५, १६१, १३१७३, १४१८,१४९, १७११५, १७२१, एवं १८६में श्लेष का प्रयोग हुआ है । ११४० में उपमा,४१०में उत्प्रेक्षा, १३२५८में रूपक, ५।३४में भ्रांतिमान, ५.११में अपनात, ४५४२) अतिशमावित, १४ में दृष्टान्त, १३४६ में बिभावना, १३१४४ में अर्थान्तरन्यास, ५/७० में सन्देह, पार में व्यतिकर,में विरोधाभास, ५२३में परिसंख्य, १३हमें एकावली, ५/५४में स्वभावोक्ति ५।५५में सहोक्ति, ७२ में विनोक्ति और श६४में विशेषोक्ति अलंकार पाये जाते हैं।
छन्दोंमें उपजाति, वसन्ततिलका, शिखरिणी, वशंस्थ, शार्दूलविक्रीडित, मालिनी, अनुष्ट्रप, मालभारिणी, मन्दाक्रान्ता, उपजाति, सगधर, आख्यानकी, शालिनी, हरिणी, ललिता, रथोद्धता, स्वागता आदि प्रमुख हैं। कविका 'शान्तिनाथचरित' भी महाकाव्य है | इस काध्य में १६ वें तीर्थकर शान्तिनाथका जीवनवृत्त वणित है। कथावस्तुको पृष्ठभूमिके रूपमें पूर्वभवा वलि निबद्ध की गयी है । कथावस्तुको योजनामें कविको पूर्ण सफलता मिली है | सन्ध्या, प्रभात, मध्याह्न, रात्रि, बन, सूर्य, नदी, पर्वत, समुद्र, द्वीप, आदि वस्तुवर्णन सांगोपांग है। जीवनके विभिन्न व्यापार और परिस्थियोंमें प्रेम, विवाह, मिलन, स्वयंवर, सैनिक, अभियान, युद्ध, दोक्षा, नगरावरोध, विजय,
उपदशसभा, राजसभा, दूतसंप्रेषण एवं जन्मोत्सवका चित्रण किया है।
रस, भाव, अलंकार और प्रकृति-चित्रणमें भी कविको सफलता मिली है। यह सत्य है कि वर्तमानचरितको अपेक्षा शान्तिनाषचरितमें अधिक पौराणिकताका समावेश हुआ है। श्रावक और श्रमण दोनों के आचारतत्त्व भी वर्णित हैं। इस काव्यका प्रकाशन मराठी अनुवाद सहित सोलापुरसे हो चुका है।
कबि द्वारा रचित शान्तिनाथचरितको प्रशस्तिसे अवगत होता है कि कविके पिताका नाम पटुमति और माताका नाम बैरेति था । पिता धर्मात्मा मुनिभक्त थे। इन्हें शुद्ध सम्यक्त्व प्राप्त था। माता भी धर्मात्मा थी। इस दम्पत्तिके असग नामक पुत्र उत्पन्न हुवा। असगके पुत्रका नाम जिनाप था । यह भी जैन धर्ममें अनुरक्त शूरवीर, परलोकभीरू एवं द्विजातिनाथ होनेपर भी पक्षपातरहित था। इस पुण्यात्माकी व्याख्यानशीलता एवं पौराणिक श्रद्धाको देखकर कवित्वशक्तिसे हीन होनेपर भी गुरुके आग्रहसे उसके द्वारा यह प्रबन्धकाव्य लिखा गया है। प्रशस्तिमें कविने अपने गुरुका नाम नागनन्दि आचार्य लिखा है । ये व्याकरण, काव्य और जैन शास्त्रोंके ज्ञाता थे।
गुरु | नागनन्दि |
महाकवि असगने श्रीनाथके राज्यकालमें चोलराज्यकी विभिन्न नगरियों में आठ ग्रन्थों की रचना की है । 'वर्द्धमानचरित' को प्रशस्तिके अनुसार इस काव्य का रचनाकाल शक संवत् ११० (ई. १८८) है। कविने अपने गुरुका नाम नागनन्दि बताया है। इन नागनन्दिका परिचय श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें पाया जाता है । १०८ वें अभिलेखसे अवगत होता है कि नागनन्दि नन्दिसंघके आचार्य थे, पर नन्दिसंघकी पट्टावलोम नागमन्दिक्के मम्बन्ध में कोई सूचना उप लब्ध नहीं होती है। अतएव नईमानचरितके आधारपर कविका समय ई. सन् की १०वीं शताब्दी है।
कविकी दो रचनाएं प्राप्त हैं बर्द्धमानचरित और शान्तिनाथचरित ।
बर्द्धमानचरित महाकाव्यमें १८ सर्ग हैं और तीर्थंकर महावीरका जीवनवृत्त अंकित है। इस ग्रन्थका सम्पादन और मराठी अनुवाद जिनदासपाश्र्वनाथ फडकुलेने सन् १९३१में किया है। मारीच, विश्वनन्दि, अश्वग्रीव, त्रिपृष्ठ, सिंह, कपिष्ठ, हरिषेण, सूर्यप्रभ इत्यादि के इतिवृत पूर्वजन्मोंकी कथाके रूपमें अंकित किये गये हैं।
महाकवि असग ने अपने इस बर्द्धमानचरितको कथावस्तु उत्तरपुराणके ७४वें पर्वसे ग्रहण की है । इस पुराणमें मधुवनमें रहनेवाले पुरुरवा नामक भिल्लराजसे बर्द्धमानके पूर्व भवोंका आरम्भ किया गया है । कविने उत्तरपुराणको कथावस्तुको काव्योचित बनाने के लिये कांट-छांट भी की हैं। असगने पुरुरवा
और मरीचके आख्यानको छोड़ दिया है और श्वेतातपत्रा नगरीके राजा नन्दि बर्द्धनके आँगनमें पुत्र-जन्मोत्सवसे कथानकका प्रारम्भ किया है। इसमें सन्देह नहीं कि यह भारम्भस्थल बहुत रमणीय है। उत्तरपुराणको कथावस्तुके प्रारम्भिक अंशको घटितरूपमें न दिखलाकर पूर्वभवालिके रूपमें मुनिराज के मुखसे कहलवाया है। इस प्रकार उत्तरपुराणकी कथावस्तु अक्षुण्ण रह गयी है।
कथावस्तुके गठनमें कवि असगने इस बातको पूर्ण चेष्ट की है कि पौराणिक कथानक काब्यके कथानक बन सके। घटनाओंका पूर्वापर क्रमनिर्धारण, उनमें परस्पर सम्बधस्थापन एवं उपाख्यानोंका यथास्थान संयोजन मौलिक रूपमें घटित हुआ है। प्रसंगोंको व्यर्थ वर्णनविस्तार नहीं दिया है । मार्मिक प्रसंगों के नियोजनके हेतु विश्वनन्दि और नन्दन के जीवन में लोकव्यापक नाना सम्बन्धों के कल्याणकारी सौन्दर्य की अभिव्यकजना की है । पिता-पुत्रका स्नेह नन्दिवर्द्धन और नन्दनके जीवन में, भाईका स्नेह विश्वभूति और विशाखभूतिके जीवन में, पति-पत्नोका स्नेह त्रिपृष्ठ और स्वयंप्रभाके जीवनमें, विविध भोगविलास हरिषेणके जीवनमें एवं वीरता और चमत्कारोंका वर्णन त्रिपृष्ठने जीवन में अभिव्यक्त कर जीवनको व्याख्या प्रस्तुत की गयी है । कयानियोजनमें बोम्यता,अवसर, सत्कार्यता और रूपाकृतिका पूरा ध्यान रखा गया है । अवान्तर कथा ओंका प्रक्षेपण पुनभवावलिक रूपमें किया है। वर्द्धमानका जीवनविकास अनेक भबों-जन्मोंका लेखा-जोखा है। कर्मवादके भोक्ता नायक-नायिकाएं मुनिराज द्वारा अपने विगत जोवनके इतिवृत्तको सुनकर विरक्ति धारण करते है । जीवनकी अनेक विषमताएं कथावस्तुमें विकसित हुई हैं।
कचिने रसानुरूप सन्दर्भ और अर्थानुरूप छन्दोंको योजना, जीवनके व्यापक अनुभवोंका विश्लेषण एवं वस्तुओं का अलंकृत चित्रण किया है । इस महाकाव्य का प्रतिनायक विशाखनन्दि है, जिसके साथ कई जन्मों तक विरोध चलता है। कवि असगने संगठित कथानकके कलेवरमें जीवन के विविध पक्षोंका उद् घाटन करने के लिए बस्तु-व्यापार, प्रकृतिचित्रण, रसभावसंयोजन एवं अलंकार नियोजन किया है। रापमें अनुप्रास, रारमें यमक और ५३५, स७, ५1८, ६३४, ६६८, ७८, ७।४१, ७।८५, ८।२६, ८।६७, ८७५, १४७, ९।१०, २।२९, ९।३५, २।३९, १०।२२, १०१२३, १०।२४, १२।१०, १२।११, १२।१६, १३३३८, १३२४५, १६१, १३१७३, १४१८,१४९, १७११५, १७२१, एवं १८६में श्लेष का प्रयोग हुआ है । ११४० में उपमा,४१०में उत्प्रेक्षा, १३२५८में रूपक, ५।३४में भ्रांतिमान, ५.११में अपनात, ४५४२) अतिशमावित, १४ में दृष्टान्त, १३४६ में बिभावना, १३१४४ में अर्थान्तरन्यास, ५/७० में सन्देह, पार में व्यतिकर,में विरोधाभास, ५२३में परिसंख्य, १३हमें एकावली, ५/५४में स्वभावोक्ति ५।५५में सहोक्ति, ७२ में विनोक्ति और श६४में विशेषोक्ति अलंकार पाये जाते हैं।
छन्दोंमें उपजाति, वसन्ततिलका, शिखरिणी, वशंस्थ, शार्दूलविक्रीडित, मालिनी, अनुष्ट्रप, मालभारिणी, मन्दाक्रान्ता, उपजाति, सगधर, आख्यानकी, शालिनी, हरिणी, ललिता, रथोद्धता, स्वागता आदि प्रमुख हैं। कविका 'शान्तिनाथचरित' भी महाकाव्य है | इस काध्य में १६ वें तीर्थकर शान्तिनाथका जीवनवृत्त वणित है। कथावस्तुको पृष्ठभूमिके रूपमें पूर्वभवा वलि निबद्ध की गयी है । कथावस्तुको योजनामें कविको पूर्ण सफलता मिली है | सन्ध्या, प्रभात, मध्याह्न, रात्रि, बन, सूर्य, नदी, पर्वत, समुद्र, द्वीप, आदि वस्तुवर्णन सांगोपांग है। जीवनके विभिन्न व्यापार और परिस्थियोंमें प्रेम, विवाह, मिलन, स्वयंवर, सैनिक, अभियान, युद्ध, दोक्षा, नगरावरोध, विजय,
उपदशसभा, राजसभा, दूतसंप्रेषण एवं जन्मोत्सवका चित्रण किया है।
रस, भाव, अलंकार और प्रकृति-चित्रणमें भी कविको सफलता मिली है। यह सत्य है कि वर्तमानचरितको अपेक्षा शान्तिनाषचरितमें अधिक पौराणिकताका समावेश हुआ है। श्रावक और श्रमण दोनों के आचारतत्त्व भी वर्णित हैं। इस काव्यका प्रकाशन मराठी अनुवाद सहित सोलापुरसे हो चुका है।
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आचार्यतुल्य श्री १०८ महाकवि असग
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 03 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
कबि द्वारा रचित शान्तिनाथचरितको प्रशस्तिसे अवगत होता है कि कविके पिताका नाम पटुमति और माताका नाम बैरेति था । पिता धर्मात्मा मुनिभक्त थे। इन्हें शुद्ध सम्यक्त्व प्राप्त था। माता भी धर्मात्मा थी। इस दम्पत्तिके असग नामक पुत्र उत्पन्न हुवा। असगके पुत्रका नाम जिनाप था । यह भी जैन धर्ममें अनुरक्त शूरवीर, परलोकभीरू एवं द्विजातिनाथ होनेपर भी पक्षपातरहित था। इस पुण्यात्माकी व्याख्यानशीलता एवं पौराणिक श्रद्धाको देखकर कवित्वशक्तिसे हीन होनेपर भी गुरुके आग्रहसे उसके द्वारा यह प्रबन्धकाव्य लिखा गया है। प्रशस्तिमें कविने अपने गुरुका नाम नागनन्दि आचार्य लिखा है । ये व्याकरण, काव्य और जैन शास्त्रोंके ज्ञाता थे।
गुरु | नागनन्दि |
महाकवि असगने श्रीनाथके राज्यकालमें चोलराज्यकी विभिन्न नगरियों में आठ ग्रन्थों की रचना की है । 'वर्द्धमानचरित' को प्रशस्तिके अनुसार इस काव्य का रचनाकाल शक संवत् ११० (ई. १८८) है। कविने अपने गुरुका नाम नागनन्दि बताया है। इन नागनन्दिका परिचय श्रवणबेलगोलाके अभिलेखोंमें पाया जाता है । १०८ वें अभिलेखसे अवगत होता है कि नागनन्दि नन्दिसंघके आचार्य थे, पर नन्दिसंघकी पट्टावलोम नागमन्दिक्के मम्बन्ध में कोई सूचना उप लब्ध नहीं होती है। अतएव नईमानचरितके आधारपर कविका समय ई. सन् की १०वीं शताब्दी है।
कविकी दो रचनाएं प्राप्त हैं बर्द्धमानचरित और शान्तिनाथचरित ।
बर्द्धमानचरित महाकाव्यमें १८ सर्ग हैं और तीर्थंकर महावीरका जीवनवृत्त अंकित है। इस ग्रन्थका सम्पादन और मराठी अनुवाद जिनदासपाश्र्वनाथ फडकुलेने सन् १९३१में किया है। मारीच, विश्वनन्दि, अश्वग्रीव, त्रिपृष्ठ, सिंह, कपिष्ठ, हरिषेण, सूर्यप्रभ इत्यादि के इतिवृत पूर्वजन्मोंकी कथाके रूपमें अंकित किये गये हैं।
महाकवि असग ने अपने इस बर्द्धमानचरितको कथावस्तु उत्तरपुराणके ७४वें पर्वसे ग्रहण की है । इस पुराणमें मधुवनमें रहनेवाले पुरुरवा नामक भिल्लराजसे बर्द्धमानके पूर्व भवोंका आरम्भ किया गया है । कविने उत्तरपुराणको कथावस्तुको काव्योचित बनाने के लिये कांट-छांट भी की हैं। असगने पुरुरवा
और मरीचके आख्यानको छोड़ दिया है और श्वेतातपत्रा नगरीके राजा नन्दि बर्द्धनके आँगनमें पुत्र-जन्मोत्सवसे कथानकका प्रारम्भ किया है। इसमें सन्देह नहीं कि यह भारम्भस्थल बहुत रमणीय है। उत्तरपुराणको कथावस्तुके प्रारम्भिक अंशको घटितरूपमें न दिखलाकर पूर्वभवालिके रूपमें मुनिराज के मुखसे कहलवाया है। इस प्रकार उत्तरपुराणकी कथावस्तु अक्षुण्ण रह गयी है।
कथावस्तुके गठनमें कवि असगने इस बातको पूर्ण चेष्ट की है कि पौराणिक कथानक काब्यके कथानक बन सके। घटनाओंका पूर्वापर क्रमनिर्धारण, उनमें परस्पर सम्बधस्थापन एवं उपाख्यानोंका यथास्थान संयोजन मौलिक रूपमें घटित हुआ है। प्रसंगोंको व्यर्थ वर्णनविस्तार नहीं दिया है । मार्मिक प्रसंगों के नियोजनके हेतु विश्वनन्दि और नन्दन के जीवन में लोकव्यापक नाना सम्बन्धों के कल्याणकारी सौन्दर्य की अभिव्यकजना की है । पिता-पुत्रका स्नेह नन्दिवर्द्धन और नन्दनके जीवन में, भाईका स्नेह विश्वभूति और विशाखभूतिके जीवन में, पति-पत्नोका स्नेह त्रिपृष्ठ और स्वयंप्रभाके जीवनमें, विविध भोगविलास हरिषेणके जीवनमें एवं वीरता और चमत्कारोंका वर्णन त्रिपृष्ठने जीवन में अभिव्यक्त कर जीवनको व्याख्या प्रस्तुत की गयी है । कयानियोजनमें बोम्यता,अवसर, सत्कार्यता और रूपाकृतिका पूरा ध्यान रखा गया है । अवान्तर कथा ओंका प्रक्षेपण पुनभवावलिक रूपमें किया है। वर्द्धमानका जीवनविकास अनेक भबों-जन्मोंका लेखा-जोखा है। कर्मवादके भोक्ता नायक-नायिकाएं मुनिराज द्वारा अपने विगत जोवनके इतिवृत्तको सुनकर विरक्ति धारण करते है । जीवनकी अनेक विषमताएं कथावस्तुमें विकसित हुई हैं।
कचिने रसानुरूप सन्दर्भ और अर्थानुरूप छन्दोंको योजना, जीवनके व्यापक अनुभवोंका विश्लेषण एवं वस्तुओं का अलंकृत चित्रण किया है । इस महाकाव्य का प्रतिनायक विशाखनन्दि है, जिसके साथ कई जन्मों तक विरोध चलता है। कवि असगने संगठित कथानकके कलेवरमें जीवन के विविध पक्षोंका उद् घाटन करने के लिए बस्तु-व्यापार, प्रकृतिचित्रण, रसभावसंयोजन एवं अलंकार नियोजन किया है। रापमें अनुप्रास, रारमें यमक और ५३५, स७, ५1८, ६३४, ६६८, ७८, ७।४१, ७।८५, ८।२६, ८।६७, ८७५, १४७, ९।१०, २।२९, ९।३५, २।३९, १०।२२, १०१२३, १०।२४, १२।१०, १२।११, १२।१६, १३३३८, १३२४५, १६१, १३१७३, १४१८,१४९, १७११५, १७२१, एवं १८६में श्लेष का प्रयोग हुआ है । ११४० में उपमा,४१०में उत्प्रेक्षा, १३२५८में रूपक, ५।३४में भ्रांतिमान, ५.११में अपनात, ४५४२) अतिशमावित, १४ में दृष्टान्त, १३४६ में बिभावना, १३१४४ में अर्थान्तरन्यास, ५/७० में सन्देह, पार में व्यतिकर,में विरोधाभास, ५२३में परिसंख्य, १३हमें एकावली, ५/५४में स्वभावोक्ति ५।५५में सहोक्ति, ७२ में विनोक्ति और श६४में विशेषोक्ति अलंकार पाये जाते हैं।
छन्दोंमें उपजाति, वसन्ततिलका, शिखरिणी, वशंस्थ, शार्दूलविक्रीडित, मालिनी, अनुष्ट्रप, मालभारिणी, मन्दाक्रान्ता, उपजाति, सगधर, आख्यानकी, शालिनी, हरिणी, ललिता, रथोद्धता, स्वागता आदि प्रमुख हैं। कविका 'शान्तिनाथचरित' भी महाकाव्य है | इस काध्य में १६ वें तीर्थकर शान्तिनाथका जीवनवृत्त वणित है। कथावस्तुको पृष्ठभूमिके रूपमें पूर्वभवा वलि निबद्ध की गयी है । कथावस्तुको योजनामें कविको पूर्ण सफलता मिली है | सन्ध्या, प्रभात, मध्याह्न, रात्रि, बन, सूर्य, नदी, पर्वत, समुद्र, द्वीप, आदि वस्तुवर्णन सांगोपांग है। जीवनके विभिन्न व्यापार और परिस्थियोंमें प्रेम, विवाह, मिलन, स्वयंवर, सैनिक, अभियान, युद्ध, दोक्षा, नगरावरोध, विजय,
उपदशसभा, राजसभा, दूतसंप्रेषण एवं जन्मोत्सवका चित्रण किया है।
रस, भाव, अलंकार और प्रकृति-चित्रणमें भी कविको सफलता मिली है। यह सत्य है कि वर्तमानचरितको अपेक्षा शान्तिनाषचरितमें अधिक पौराणिकताका समावेश हुआ है। श्रावक और श्रमण दोनों के आचारतत्त्व भी वर्णित हैं। इस काव्यका प्रकाशन मराठी अनुवाद सहित सोलापुरसे हो चुका है।
Acharyatulya Mahakavi Asag (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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15000
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