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#MahakaviAshadhar
आशाधरका अध्ययन बड़ा ही विशाल था । वे जैनाचार, अध्यात्म, दर्शन, काव्य, साहित्य, कोष, राजनीति, कामशास्त्र, आयुर्वेद आदि सभी विषयोंके प्रकाण्ड पण्डित थे । दिगम्बर परम्परामें उन जैसा बहुश्रुत गृहस्थ-विद्वान् ग्रन्थ कार दूसरा दिखलाई नहीं पड़ता।
आशाधरमाण्डलगढ़ (मेवाड़) के मूलनिवासी थे। किन्तु मेवाह पर मुसलमान बादशाह शहाबुद्दीन गोरीके आक्रमणोंके होनेसे त्रस्त होकर मालवाकी राजधानी धारा नगरी में अपने परिवार सहित आकर बस गये थे। पं० आशाबर बघेर वाल जातिके श्रावक थे। इनके पिताका नाम सल्लक्षण एवं माताका नाम श्रीरत्नी था | सरस्वती इनकी पत्नी थी, जो बहुत सुशील और सुशिक्षिता थीं। इनके एक पुत्र भी था, जिसका नाम छाहड़ था। सागारधर्मामृत्तके अन्त में इन्होंने अपना परिचय देते हुए लिखा है
व्यानरवालवरवंशसरोजहंस:
काव्यामृतीघरसपानसुतृप्तगात्रः
सल्लक्षणस्थ तनयो नविश्वचक्षु
राशाधरो विजयतां कलिकालिदासः ।।
आशाधरजीने अपने सुयोग्य पुत्रको स्वयं प्रशंसा की है। कहा जाता है कि इनके पिता अपनी योग्यताके कारण मालवानरेश अर्जुन बमदेबके सन्धि विग्रह मन्त्री थे। आशाधरजीने धारा नगरीमें व्याकरण और न्यायशास्त्रका अध्ययन किया था । इनके विद्यागुरु प्रसिद्ध विद्वान पं० महावीर थे।
विन्ध्यवर्माका राज्य समाप्त होनेपर आशाधर नालछा-नलकच्छपुरमें रहने लगे थे। उस समय नलकच्छपुरके राजा अजुन वर्मदेव थे। उनके राज्य में इन्होंने अपने जीवनके ३५ वर्ष व्यतीत किये और वहाँके अत्यन्त सुन्दर नेमि चैत्यालयमें ये जैन साहित्यको उपासना करते रहे ।
आशाधरके पाण्डित्यकी प्रशंसा उस समयके सभी भट्टारक विद्वानोंने की है। जदयसेनने आपको "नयविश्वचक्षु" तथा 'कलि-कालिदास' कहा है । मदन कोत्ति यतिपतिने 'प्रज्ञापुज' कहकर आशाधरकी प्रशंसा की है। स्वयं गृहस्थ रहनेपर भी बड़े-बड़े मुनि और भट्टारकोंने इनका शिष्यत्व स्वीकार किया है।
जैनधर्मके अतिरिक्त अन्य मतवाले विगान भी आपको विद्वत्तापर मुग्ध थे । मालवानरेश अजुनदेव स्वयं विद्वान और कवि थे | अमरकशतककी रस सञ्जीवनी नामकी एक संस्कृतीका काव्यमालामें प्रकाशित हुई है। इस टीकामें 'यदुक्कमपाध्यायेन बालसरस्वत्यपरनाम्ना मदनेन' इस प्रकार लिखकर मदनोपाध्यायके इलोक उदाहरणस्वरूप उद्धृत किये हैं और भव्यकुमुदचन्द्रिका टोकाको प्रशस्तिके नवम श्लोकके अन्तिम पादको टीकामें पं० आशाधरने 'भापुः प्राप्ताः बालसरस्वतिमहाकविमदनादयः' लिखा है। इससे स्पष्ट है कि अमरुकशतकमें उद्धृत उदाहरणस्वरूप श्लोक आशाधरके शिष्य महाकवि मदनके हैं। इसके अतिरिक्त प्राचीन लेखमालामें अर्जुन वर्मदेवका तीसरा दानपत्र प्रकाशित हुआ, जिसके अन्तमें 'रचितमिदं राजगुरुणा मदनेन' लिखा है । अत: यह स्पष्ट है कि आशाधरके शिष्य मदनोपाध्याय, जिनका दूसरा नाम बालसरस्वती था, मालवाधीश महाराज अर्जुनदेवके गुरु थे ।
अमल्कशतककी टीकामें आये हुए पद्योंसे यह भी ज्ञात होता है कि मदनो पाध्यायका कोई अलंकारग्रन्थ भी था, जो अभी तक अप्राप्त है।मदनकीतिके सिवा आशापरके अनेक मुनि शिष्य थे । व्याकरण, काव्य न्याय, धर्मशास्त्र आदि विषयों में उनकी असाधारण गति थी। बताया है
यो द्राव्याकरणाग्धिपारमनयच्छुषमाणात कान्
षदतीपरमास्त्रमाप्य न यतः प्रत्यायिनः केऽक्षिपन् ।
चेह के स्खलितं मयेन जिनवाग्दीपं पथि ग्राहिताः
पीत्वा काव्यसुषां यतश्च रसिकेष्वापुः प्रतिष्ठां न के॥९॥
अर्थात् शुश्रुषा करनेवाले शिष्यों से ऐसे कौन हैं, जिन्हें आशाधरने व्या करणरूपी समुद्रके पार शीन ही न पहुंचा दिया हो तथा ऐसे कौन हैं, जिन्होंने आशाधरके षटदर्शनरूपी परमशस्त्रको लेकर अपने प्रतिवादियों के न जोसा हो, तथा ऐसे कौन हैं जो आशाधरसे निर्मल जिनवाणीरूपी दीपक ग्रहण करके मोक्षमार्ग में प्रवृद्ध न हुए हों और ऐसे कौन शिष्य हैं जिन्होंने आशाघरसे काव्यामृतका पान करके रसिकपुरुषों में प्रतिष्ठा न प्राप्त की हो?
आशाधरने अपने अन्य दो शिष्यों के नाम भी दिये हैं-बादीन्द्र विशाल कीति और भट्टारक देवचन्द्र 1 विशालकीत्तिको षड्दर्शनन्यायको शिक्षा दी थी और देवचन्द्रको धर्मशास्त्रकी । मदनोपाध्यायको काव्यका पण्डित बनाकर अजुनवर्मदेव जैसे रसिक राजाका राजगुरु बनाया था। इससे स्पष्ट हैं कि आशाधर महान विद्वान् थे और इनके अनेक शिष्य थे।
धारा नगरोसे दस कोसकी दूरीपर नलकच्छपुर स्थित था । यहाँ आकर आशाधरने सरस्वतीको साधना विशेषरूपसे की।
आशाधरका व्यक्तित्व बहुमुखी था। वे अनेक विषयोंके विद्वान होनेके साथ असाधारण कवि थे। उन्होंने अष्टांगहृदय जेसे महत्त्वपूर्ण आयुर्वेद ग्रन्थपर टीका लिखी। काव्यालंकार और अमरकोशको टीकाएं भी उनकी विद्वत्ताको परिचायक हैं । आशाधर श्रद्धालु भक्त थे । उनके अनेक मित्र और प्रशंसक थे । उनका व्यक्तित्व इतना सरल और सहज था, जिससे मुनि और भट्टारक भी उनका शिष्यत्व स्वीकार करने में गौरवका अनुभव करते थे। उनकी लोक प्रियताको सूचना उनकी उपाधियाँ ही दे रही हैं।
गुरु | पं० महावीर |
शिष्य | बादीन्द्र विशाल कीति और भट्टारक देवचन्द्र |
महाकवि आशाधरने अपने ग्रन्थों में रचना-तिथिका उल्लेख किया है। उन्होंने अनगारधर्मामृतको भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका कात्तिक शुक्ला पंचमी सोमवार वि० सं० १३०० को पूर्ण की थी। इस समय इनको आयु ६५-७० वर्षकी रही होगी। इस प्रकार उनका जन्म वि० सं०१२२०-३५ के लगभग आता है। पं.
जिनयजकल्पकी प्रशस्तिमें कई ग्रन्थों के नाम आये हैं
स्यादवादविद्याविशदप्रसादः प्रमेयरत्नाकरनामधेयः ।
तर्कप्रबन्धों निरवचपद्यपीयूषपूरो वहुतिस्म यस्मात् ॥१०॥
सिद्धयाई भरतेश्वराभ्युदयसत्काव्यं निबन्धोज्ज्वलम्
यस्त्र विद्यकवीन्द्रमोदनसह स्वयसेडरीरचत् ।
योऽहंद्वाक्यरसं निबन्धचिरं शास्त्रं च धर्मामृतम्
विर्माय व्यदधान्मुमुक्षुविदुषामानन्दसान्द्रं हदि ||११||
आयुर्वेदविदामिष्टा व्यक्तुं वाग्मटसंहिताम् ।
अष्टामदयोद्योतं निबन्धमसृजञ्च यः ॥१२॥
अर्थात् स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रसादस्वरूप प्रमेयरत्नाकरनामका न्याय ग्रन्थ, जो सुन्दर पद्यरूपी अमृतसे भरा हुआ है, बाशाधरके हृदय-सरोवरसे प्रवाहित हुआ। भरतेश्वराभ्युदयनामक उत्तम काव्य अपने कल्याणके लिये बनाया, जिसके प्रत्येक सर्गके अन्तमें सिद्ध' शब्द आया है, जो तीनों विद्याओंके जानकार कवीन्द्रोंको आनन्द देनेवाला है और स्वोपशटीकासे प्रकाशित है । इनके अतिरिक्त 'धर्मामृत' शास्त्र, वाग्भट्टसंहिताकी अष्टांगहृदयोद्योतिनी टीका रची । मूलाराधना और इष्टोपदेशपर भी टीकाएँ लिखीं। अमरकोशपर क्रिया कलाफ्नामक टीका बनायी। आराधनासार और भूपालचतुर्विशतिका आदि की टीकाएँ भी लिखीं। वि० सं० १२८५ के पूर्व रचे हुए ग्रन्थोंकी तालिका जिनयजकल्पकी प्रशस्तिमें पाई जाती है। इसके पश्चात् वि० सं० १२८६ से १२९६ तकके मध्य में रचे गये ग्रन्थोंका उल्लेख सागारधर्मामृतकी टीकामें पाया जाता है। १२९६ के अनन्सर जो अन्य रचे, उनका निर्देश अनागरधर्मामुत टीकामें पाया जाता है। इस टीकामें राजीमतिविप्रलंभनामक खण्डकाव्य, अध्यात्म रहस्य और रत्नत्रयविधान इन तीन अन्योंका निर्देश मिलता है।
आशाधरके समयकी पुष्टि अर्जुनबर्मदेवके दानपत्रोंसे भी होतो है । अर्जुन वर्मदेवके तीन दानमात्र प्राप्त हुए हैं-१. वि० सं० १२६७ का, २. वि० सं० १२७० का, ३. वि० सं० १२७२ का। इसके पश्चात् अर्जुनदेवके पुत्र देवपाल देवके राज्यत्वकालका एक अभिलेख हरसोदामें मिला है, जो वि० सं० १२७५ का है। इससे ज्ञात होता है कि १२७२ और १२५७५ के बीचमें अर्जुनदेव के राज्यका अन्त हो चुका था । अशुनदेवके राज्यका प्रारम्भ वि० सं० १२६७ के कुछ पहले हआ है। वि० सं० १२५० में जब माशाधर बारामें आये थे तब विन्ध्यवर्माका राज्य था, क्योंकि विन्यवांक मन्त्री विद्यापति विल्हणने आशापरकी विद्वताकी प्रशंसा की है। यदि आशाधरके विद्याभ्यासकाल ७-८ वर्ष माना जाय, तो विन्ध्यवर्माका राज्य वि० सं० १२५७.५८ तक रहता है। विन्ध्यवर्माके पश्चात् सुभटवर्माका राज्यकाल ७-८ वर्ष माना जाय, तो अर्जुन देवके राज्यकालका समय वि० सं० १२६५ आता है। इसी समयके लगभग आशाधर नलकच्छमें आये होंगे।
पिपलियाके अर्जुनदेवके दानपत्र में उनकी कुलपरम्परा निम्न प्रकार आई है
भोज-उदयादित्य-नरवर्मा, यशोवर्मा, अजयवर्मा, विन्ध्यवर्मा या विजयवर्मा, सुभटवर्मा और अर्जुनवर्मा । अर्जुनवर्माके कोई पुत्र नहीं था । इस लिये उसके पीछे अजयवर्माके भाई लक्ष्मीवर्माका पौत्र देवपाल और देवपालके पश्चात् उसका पुत्र जयतुंगिदेव (जयसिंह) राजा हुआ ।
आशाधर जिस समय धारामें आये उस समय विन्ध्यवर्माका राज्य था और वि० सं० १२९६ में जब उन्होंने सागारधर्मामृतको टीका लिखो तब जयतुंगि देव राजा थे । इस प्रकार आशाधर धाराके सिंहासनपर पांच राजाओंको देख चुके थे। विन्ध्यवर्माक मन्त्री विद्यापति विल्हणने आशाधरकी विद्वत्तापर मोहित होकर लिखा
"आशाधरत्वं मयि विदि सिद्ध निसर्गसौन्दर्यमजर्यमाय ।
सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थ परं वाच्यमयं प्रपञ्चः ॥"
इस प्रकार आशाधरका समय वि० को तेरहवीं शती निश्चित है।
आशाधरने विपुल नरिसादमें शाहिलाका समान किया है। मेरी कवि, व्याख्याता और मौलिक चिन्तक थे । अबतक उनकी निम्नलिखित रचनाओं के उल्लेख मिले हैं...
१. प्रमेयरलाकर,
२. भरतेश्वराभ्युदय,
३. ज्ञानदीपिका,
४. राजीमति विप्रलंभ,
५. अध्यात्मरहस्य,
६. मूलाराधनाटीका,
७. इष्टोपदेशटीका,
८. भूपाल चतुविशतिकाटीका,
9. आराधनासारटीका,
१०. अमरकीसटीका,
११. किया कालाप,
१२. काव्यालंकारटीका,
१३. सहस्रनानस्तवन सटीक,
१४. जिनयन कल्प सटीक,
१५. निषष्टिस्मृतिशास्त्र,
१६ नित्यमहोद्योत,
१७, रत्नत्रय विधान,
१८. अष्टांगहृद्योतिनीटीका,
१९. सागारधर्मामृत सटीक और
२०.अनगारधर्मामृत सटीक।
अध्यात्मरहस्य पं० आशाधरजीने अपने पिताके आदेशसे इस ग्रन्थकी रचना की। साथ ही यह भी बताया है कि यह शास्त्र प्रसप्त, गम्भीर और मारब्ध योगियों के लिये प्रिय बस्तु है। योगसे सम्बद्ध रहने के कारण इसका दूसरा नाम योगो दीपन भी है। कनिने लिखा है
"आदेशात् पितुरध्यात्म-रहस्यं नाम यो व्यधात् ।
शास्त्रं प्रसन्न गम्भीर-प्रियमारब्धयोगिनाम् ।।"
अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है'इत्याशाधर-विरचित्त-धर्मामृतनाम्नि मूक्ति-संग्रहे योगोद्दीपनो नामाष्टा दशोऽध्यायः।'
हम ग्रन्थों । २पर हैं सौर स्वात्म्ग, भुवाल्मा, श्रुतिमति, ध्यासि, दृष्टि और सद्गुरुके लक्षणादिका प्रतिपादन किया है। पश्चात् रत्नत्रयादि दूसरे विषयोंका विवेचन किया है। वस्तुतः इस अध्यात्मरहस्यमें गुण-दोष, विचार स्मरण आदिको शक्तिसे सम्पन्न भावमन और द्रव्यमनका बड़ा ही विशद विवेचन किया है। यह योगाभ्यासियों और अध्यात्मप्रेमियों के लिये उपयोगी है।
आशाधरने धर्मामृत ग्रन्थ लिखा है, जिसके दो खण्ड हैं-अनगारधर्मामृत और सागारधर्मामुत । अनगारधर्मामृत में मुनिधर्मका वर्णन आया है तथा मुनियोंके मूलगुण और उत्तरगुणोंका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है । आशा घर विषयवस्तुके लिये मूलाचारके ऋणी हैं
सागारधर्मामृतमें गुहस्थधर्मका निरूपण आठ अध्यायोंमें किया है। प्रथम अध्यायमें श्रावकधर्मके प्रहणकी पात्रता बतलाकर पांच अणुव्रत, तीन गुणनत और चार शिक्षाबत तथा सल्लेखनाके आचरणको सम्पूर्ण सागरधर्म बतलाया है। उक्त १२ प्रकारके धर्मको पाक्षिक श्रावक अभ्यासरूपसे, नैष्ठिक आचरणरूपसे और साधक आत्मलीन होकर पालन करता है ।
आठ मूलगुणोंका धारण, सप्त व्यसनोंका त्याग, देवपूजा, गुरूपासना और पात्रदान आदि क्रियाओंका आचरण करना पाक्षिक आधार है। घमंका मूल अहिंसा और पापका मूल हिंसा है। अहिंसाका पालन करनेके लिये मद्य, मांस, मधु और अभक्ष्यका त्याग अपेक्षित है । रात्रिभोजनत्याग भी अहिंसाके अन्त गत है।
गृहविरत श्रावक आरम्भिक हिंसाका पूर्ण त्याग करता है और गृह-रस श्रावक, संकल्पी हिंसाका । सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परि ग्रहपरिमाणाणुवतका धारण करना भी आवश्यक है। श्रावक गणव्रत और शिक्षा व्रतोंका पालन करता हुआ अपनी दिनचर्याको भी परिमार्जित करता है । वह एकादश प्रतिमाओंका पालन करता हुआ अंतमें सल्लेखना द्वारा प्राणोंका विसर्जन कर सद्गति लाभ करता है। इस प्रकार धर्मामृतमें श्रमण और वाचक दोनोंको चर्याओंका वर्णन किया है।
प्रतिष्ठाविधिका सम्यक् प्रतिपादन करनेके लिये आशापरने छ: अध्यायों में जिनयज्ञकल्पविधिको समास किया है।
प्रथम अध्यायमें मन्दिरके योग्य भूमि,मूतिनिर्माण के लिये शुभ पाषाण, प्रतिष्ठायोग्य मूर्ति, प्रतिष्ठाचार्य, दीक्षागुरु यजमान, मण्डप-विधि, जलयात्रा, यागमण्डल-उद्धार आदि विषयों का वर्णन है।
द्वितीय अध्यायमें तीर्थजल लानेको विधि, पञ्चपरमेष्ठिपूजा, अन्य देव पूजा, जिनयज्ञादिविधि, सकलीकरणकिया, यज्ञदोक्षाविधि, मण्डपप्रतिष्ठा विधि और वेदीप्रतिष्ठाविधि गणित है।
तृतीय अध्यायमें यागमण्डलको पूजा विधि और यागमण्डल में पूज्य देवोंका कथन किया है।
चतुर्थ अध्यायमें प्रतिष्ठेय प्रतिमाका स्वरूप अहंन्तप्रतिमाकी प्रतिष्ठाविधि, गर्भकल्याणककी क्रियाओंके अनन्तर जन्मकल्याणक, तपकल्याणक, नेत्रीन्मीलन, केवलज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणककी विधियोंका वर्णन आया है।
पञ्चम अध्याय में अभिषेक-विधि, बिसर्जन-विधि, जिनालय-प्रदक्षिणा पुण्याहवाचन, ध्वजारोहण-विधि एवं प्रतिष्टाफलका कथन आया है। षष्ठ अध्याय में सिद्ध-प्रतिमाकी प्रतिष्ठा-विधि बृहदसिद्धचक और लघुसिद्धचक्रका उद्धार, आचार्य-प्रतिष्ठा-विधि, श्रुतदेवता-प्रतिष्ठा-विधि एवं यक्षादिकी प्रतिष्ठाविधिका वर्णन है । षष्ठ अध्यापके अन्तमें ग्रन्यकर्ताको प्रशस्ति अंकित है। परिशिष्टमें श्रुतपूजा, गुरुपूजा आदि संगृहोत हैं।
इस ग्रन्थमें ६३ शलाका-पुरुषोंका संक्षिप्त जीवन-परिचय आया है। ४० पद्योंमें तीर्थंकर ऋषभदेवका, ७ पद्यों में अजितनाथका, ३ पद्योंमें संभव नाथका, ३ पद्योंमें अभिनन्दनका, ३ में सुमतिनाथका, ३ में पानभका, ३ में सुपाय जिनका, १० में चन्द्रप्रमका, ३ में पुष्पदन्तका, ४ में शीतलनाथका, १० में श्रेयांस तीर्थकरका, ९ में बासपूज्यका, १६ में विमलनाथका, १० में अनन्त नाथका, १७ में धर्मनाथका, २१ में शान्तिनाथका, ४ में कुन्थुनाथका, २६ में अरनाथका, १४ में मल्लिनाथका और ११ में मुनिसुव्रतका जीवनवृत्त वणित है। इसी संदर्भ में राम-लक्ष्मणकी कथा भी ८१ पद्योंमें वर्णित है। तदनन्तर २१ पद्यों में कृष्ण-बलराम, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदिके जीवनवृत्त आये हैं । नेमिनाथका जीवन वृत्त भी १०१ पञ्चोंमें श्रीकृष्ण आदिके साथ पणित है। अनन्तर ३२ पद्योंमें पाश्वनाधका जीवन अंकित किया गया है। पश्चात् ५२ पद्योंसे महाबीर-पुराण का अंकन है । तीर्थंकरोंके कालमें होनेवाले चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदिका भी कथन आया है। ग्रन्थके अन्त में १५ पद्यों में प्रशस्ति अंकित है। ग्रन्थ-रचनाकालका निर्देश करते हुए लिखा है
नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् ।
अन्योऽयं द्विनवकविकमार्कसमात्यये ।।१३।।
अर्थात् वि० सं० १२९१में इस ग्रंथकी रचना की है।
आशाधरका अध्ययन बड़ा ही विशाल था । वे जैनाचार, अध्यात्म, दर्शन, काव्य, साहित्य, कोष, राजनीति, कामशास्त्र, आयुर्वेद आदि सभी विषयोंके प्रकाण्ड पण्डित थे । दिगम्बर परम्परामें उन जैसा बहुश्रुत गृहस्थ-विद्वान् ग्रन्थ कार दूसरा दिखलाई नहीं पड़ता।
आशाधरमाण्डलगढ़ (मेवाड़) के मूलनिवासी थे। किन्तु मेवाह पर मुसलमान बादशाह शहाबुद्दीन गोरीके आक्रमणोंके होनेसे त्रस्त होकर मालवाकी राजधानी धारा नगरी में अपने परिवार सहित आकर बस गये थे। पं० आशाबर बघेर वाल जातिके श्रावक थे। इनके पिताका नाम सल्लक्षण एवं माताका नाम श्रीरत्नी था | सरस्वती इनकी पत्नी थी, जो बहुत सुशील और सुशिक्षिता थीं। इनके एक पुत्र भी था, जिसका नाम छाहड़ था। सागारधर्मामृत्तके अन्त में इन्होंने अपना परिचय देते हुए लिखा है
व्यानरवालवरवंशसरोजहंस:
काव्यामृतीघरसपानसुतृप्तगात्रः
सल्लक्षणस्थ तनयो नविश्वचक्षु
राशाधरो विजयतां कलिकालिदासः ।।
आशाधरजीने अपने सुयोग्य पुत्रको स्वयं प्रशंसा की है। कहा जाता है कि इनके पिता अपनी योग्यताके कारण मालवानरेश अर्जुन बमदेबके सन्धि विग्रह मन्त्री थे। आशाधरजीने धारा नगरीमें व्याकरण और न्यायशास्त्रका अध्ययन किया था । इनके विद्यागुरु प्रसिद्ध विद्वान पं० महावीर थे।
विन्ध्यवर्माका राज्य समाप्त होनेपर आशाधर नालछा-नलकच्छपुरमें रहने लगे थे। उस समय नलकच्छपुरके राजा अजुन वर्मदेव थे। उनके राज्य में इन्होंने अपने जीवनके ३५ वर्ष व्यतीत किये और वहाँके अत्यन्त सुन्दर नेमि चैत्यालयमें ये जैन साहित्यको उपासना करते रहे ।
आशाधरके पाण्डित्यकी प्रशंसा उस समयके सभी भट्टारक विद्वानोंने की है। जदयसेनने आपको "नयविश्वचक्षु" तथा 'कलि-कालिदास' कहा है । मदन कोत्ति यतिपतिने 'प्रज्ञापुज' कहकर आशाधरकी प्रशंसा की है। स्वयं गृहस्थ रहनेपर भी बड़े-बड़े मुनि और भट्टारकोंने इनका शिष्यत्व स्वीकार किया है।
जैनधर्मके अतिरिक्त अन्य मतवाले विगान भी आपको विद्वत्तापर मुग्ध थे । मालवानरेश अजुनदेव स्वयं विद्वान और कवि थे | अमरकशतककी रस सञ्जीवनी नामकी एक संस्कृतीका काव्यमालामें प्रकाशित हुई है। इस टीकामें 'यदुक्कमपाध्यायेन बालसरस्वत्यपरनाम्ना मदनेन' इस प्रकार लिखकर मदनोपाध्यायके इलोक उदाहरणस्वरूप उद्धृत किये हैं और भव्यकुमुदचन्द्रिका टोकाको प्रशस्तिके नवम श्लोकके अन्तिम पादको टीकामें पं० आशाधरने 'भापुः प्राप्ताः बालसरस्वतिमहाकविमदनादयः' लिखा है। इससे स्पष्ट है कि अमरुकशतकमें उद्धृत उदाहरणस्वरूप श्लोक आशाधरके शिष्य महाकवि मदनके हैं। इसके अतिरिक्त प्राचीन लेखमालामें अर्जुन वर्मदेवका तीसरा दानपत्र प्रकाशित हुआ, जिसके अन्तमें 'रचितमिदं राजगुरुणा मदनेन' लिखा है । अत: यह स्पष्ट है कि आशाधरके शिष्य मदनोपाध्याय, जिनका दूसरा नाम बालसरस्वती था, मालवाधीश महाराज अर्जुनदेवके गुरु थे ।
अमल्कशतककी टीकामें आये हुए पद्योंसे यह भी ज्ञात होता है कि मदनो पाध्यायका कोई अलंकारग्रन्थ भी था, जो अभी तक अप्राप्त है।मदनकीतिके सिवा आशापरके अनेक मुनि शिष्य थे । व्याकरण, काव्य न्याय, धर्मशास्त्र आदि विषयों में उनकी असाधारण गति थी। बताया है
यो द्राव्याकरणाग्धिपारमनयच्छुषमाणात कान्
षदतीपरमास्त्रमाप्य न यतः प्रत्यायिनः केऽक्षिपन् ।
चेह के स्खलितं मयेन जिनवाग्दीपं पथि ग्राहिताः
पीत्वा काव्यसुषां यतश्च रसिकेष्वापुः प्रतिष्ठां न के॥९॥
अर्थात् शुश्रुषा करनेवाले शिष्यों से ऐसे कौन हैं, जिन्हें आशाधरने व्या करणरूपी समुद्रके पार शीन ही न पहुंचा दिया हो तथा ऐसे कौन हैं, जिन्होंने आशाधरके षटदर्शनरूपी परमशस्त्रको लेकर अपने प्रतिवादियों के न जोसा हो, तथा ऐसे कौन हैं जो आशाधरसे निर्मल जिनवाणीरूपी दीपक ग्रहण करके मोक्षमार्ग में प्रवृद्ध न हुए हों और ऐसे कौन शिष्य हैं जिन्होंने आशाघरसे काव्यामृतका पान करके रसिकपुरुषों में प्रतिष्ठा न प्राप्त की हो?
आशाधरने अपने अन्य दो शिष्यों के नाम भी दिये हैं-बादीन्द्र विशाल कीति और भट्टारक देवचन्द्र 1 विशालकीत्तिको षड्दर्शनन्यायको शिक्षा दी थी और देवचन्द्रको धर्मशास्त्रकी । मदनोपाध्यायको काव्यका पण्डित बनाकर अजुनवर्मदेव जैसे रसिक राजाका राजगुरु बनाया था। इससे स्पष्ट हैं कि आशाधर महान विद्वान् थे और इनके अनेक शिष्य थे।
धारा नगरोसे दस कोसकी दूरीपर नलकच्छपुर स्थित था । यहाँ आकर आशाधरने सरस्वतीको साधना विशेषरूपसे की।
आशाधरका व्यक्तित्व बहुमुखी था। वे अनेक विषयोंके विद्वान होनेके साथ असाधारण कवि थे। उन्होंने अष्टांगहृदय जेसे महत्त्वपूर्ण आयुर्वेद ग्रन्थपर टीका लिखी। काव्यालंकार और अमरकोशको टीकाएं भी उनकी विद्वत्ताको परिचायक हैं । आशाधर श्रद्धालु भक्त थे । उनके अनेक मित्र और प्रशंसक थे । उनका व्यक्तित्व इतना सरल और सहज था, जिससे मुनि और भट्टारक भी उनका शिष्यत्व स्वीकार करने में गौरवका अनुभव करते थे। उनकी लोक प्रियताको सूचना उनकी उपाधियाँ ही दे रही हैं।
गुरु | पं० महावीर |
शिष्य | बादीन्द्र विशाल कीति और भट्टारक देवचन्द्र |
महाकवि आशाधरने अपने ग्रन्थों में रचना-तिथिका उल्लेख किया है। उन्होंने अनगारधर्मामृतको भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका कात्तिक शुक्ला पंचमी सोमवार वि० सं० १३०० को पूर्ण की थी। इस समय इनको आयु ६५-७० वर्षकी रही होगी। इस प्रकार उनका जन्म वि० सं०१२२०-३५ के लगभग आता है। पं.
जिनयजकल्पकी प्रशस्तिमें कई ग्रन्थों के नाम आये हैं
स्यादवादविद्याविशदप्रसादः प्रमेयरत्नाकरनामधेयः ।
तर्कप्रबन्धों निरवचपद्यपीयूषपूरो वहुतिस्म यस्मात् ॥१०॥
सिद्धयाई भरतेश्वराभ्युदयसत्काव्यं निबन्धोज्ज्वलम्
यस्त्र विद्यकवीन्द्रमोदनसह स्वयसेडरीरचत् ।
योऽहंद्वाक्यरसं निबन्धचिरं शास्त्रं च धर्मामृतम्
विर्माय व्यदधान्मुमुक्षुविदुषामानन्दसान्द्रं हदि ||११||
आयुर्वेदविदामिष्टा व्यक्तुं वाग्मटसंहिताम् ।
अष्टामदयोद्योतं निबन्धमसृजञ्च यः ॥१२॥
अर्थात् स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रसादस्वरूप प्रमेयरत्नाकरनामका न्याय ग्रन्थ, जो सुन्दर पद्यरूपी अमृतसे भरा हुआ है, बाशाधरके हृदय-सरोवरसे प्रवाहित हुआ। भरतेश्वराभ्युदयनामक उत्तम काव्य अपने कल्याणके लिये बनाया, जिसके प्रत्येक सर्गके अन्तमें सिद्ध' शब्द आया है, जो तीनों विद्याओंके जानकार कवीन्द्रोंको आनन्द देनेवाला है और स्वोपशटीकासे प्रकाशित है । इनके अतिरिक्त 'धर्मामृत' शास्त्र, वाग्भट्टसंहिताकी अष्टांगहृदयोद्योतिनी टीका रची । मूलाराधना और इष्टोपदेशपर भी टीकाएँ लिखीं। अमरकोशपर क्रिया कलाफ्नामक टीका बनायी। आराधनासार और भूपालचतुर्विशतिका आदि की टीकाएँ भी लिखीं। वि० सं० १२८५ के पूर्व रचे हुए ग्रन्थोंकी तालिका जिनयजकल्पकी प्रशस्तिमें पाई जाती है। इसके पश्चात् वि० सं० १२८६ से १२९६ तकके मध्य में रचे गये ग्रन्थोंका उल्लेख सागारधर्मामृतकी टीकामें पाया जाता है। १२९६ के अनन्सर जो अन्य रचे, उनका निर्देश अनागरधर्मामुत टीकामें पाया जाता है। इस टीकामें राजीमतिविप्रलंभनामक खण्डकाव्य, अध्यात्म रहस्य और रत्नत्रयविधान इन तीन अन्योंका निर्देश मिलता है।
आशाधरके समयकी पुष्टि अर्जुनबर्मदेवके दानपत्रोंसे भी होतो है । अर्जुन वर्मदेवके तीन दानमात्र प्राप्त हुए हैं-१. वि० सं० १२६७ का, २. वि० सं० १२७० का, ३. वि० सं० १२७२ का। इसके पश्चात् अर्जुनदेवके पुत्र देवपाल देवके राज्यत्वकालका एक अभिलेख हरसोदामें मिला है, जो वि० सं० १२७५ का है। इससे ज्ञात होता है कि १२७२ और १२५७५ के बीचमें अर्जुनदेव के राज्यका अन्त हो चुका था । अशुनदेवके राज्यका प्रारम्भ वि० सं० १२६७ के कुछ पहले हआ है। वि० सं० १२५० में जब माशाधर बारामें आये थे तब विन्ध्यवर्माका राज्य था, क्योंकि विन्यवांक मन्त्री विद्यापति विल्हणने आशापरकी विद्वताकी प्रशंसा की है। यदि आशाधरके विद्याभ्यासकाल ७-८ वर्ष माना जाय, तो विन्ध्यवर्माका राज्य वि० सं० १२५७.५८ तक रहता है। विन्ध्यवर्माके पश्चात् सुभटवर्माका राज्यकाल ७-८ वर्ष माना जाय, तो अर्जुन देवके राज्यकालका समय वि० सं० १२६५ आता है। इसी समयके लगभग आशाधर नलकच्छमें आये होंगे।
पिपलियाके अर्जुनदेवके दानपत्र में उनकी कुलपरम्परा निम्न प्रकार आई है
भोज-उदयादित्य-नरवर्मा, यशोवर्मा, अजयवर्मा, विन्ध्यवर्मा या विजयवर्मा, सुभटवर्मा और अर्जुनवर्मा । अर्जुनवर्माके कोई पुत्र नहीं था । इस लिये उसके पीछे अजयवर्माके भाई लक्ष्मीवर्माका पौत्र देवपाल और देवपालके पश्चात् उसका पुत्र जयतुंगिदेव (जयसिंह) राजा हुआ ।
आशाधर जिस समय धारामें आये उस समय विन्ध्यवर्माका राज्य था और वि० सं० १२९६ में जब उन्होंने सागारधर्मामृतको टीका लिखो तब जयतुंगि देव राजा थे । इस प्रकार आशाधर धाराके सिंहासनपर पांच राजाओंको देख चुके थे। विन्ध्यवर्माक मन्त्री विद्यापति विल्हणने आशाधरकी विद्वत्तापर मोहित होकर लिखा
"आशाधरत्वं मयि विदि सिद्ध निसर्गसौन्दर्यमजर्यमाय ।
सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थ परं वाच्यमयं प्रपञ्चः ॥"
इस प्रकार आशाधरका समय वि० को तेरहवीं शती निश्चित है।
आशाधरने विपुल नरिसादमें शाहिलाका समान किया है। मेरी कवि, व्याख्याता और मौलिक चिन्तक थे । अबतक उनकी निम्नलिखित रचनाओं के उल्लेख मिले हैं...
१. प्रमेयरलाकर,
२. भरतेश्वराभ्युदय,
३. ज्ञानदीपिका,
४. राजीमति विप्रलंभ,
५. अध्यात्मरहस्य,
६. मूलाराधनाटीका,
७. इष्टोपदेशटीका,
८. भूपाल चतुविशतिकाटीका,
9. आराधनासारटीका,
१०. अमरकीसटीका,
११. किया कालाप,
१२. काव्यालंकारटीका,
१३. सहस्रनानस्तवन सटीक,
१४. जिनयन कल्प सटीक,
१५. निषष्टिस्मृतिशास्त्र,
१६ नित्यमहोद्योत,
१७, रत्नत्रय विधान,
१८. अष्टांगहृद्योतिनीटीका,
१९. सागारधर्मामृत सटीक और
२०.अनगारधर्मामृत सटीक।
अध्यात्मरहस्य पं० आशाधरजीने अपने पिताके आदेशसे इस ग्रन्थकी रचना की। साथ ही यह भी बताया है कि यह शास्त्र प्रसप्त, गम्भीर और मारब्ध योगियों के लिये प्रिय बस्तु है। योगसे सम्बद्ध रहने के कारण इसका दूसरा नाम योगो दीपन भी है। कनिने लिखा है
"आदेशात् पितुरध्यात्म-रहस्यं नाम यो व्यधात् ।
शास्त्रं प्रसन्न गम्भीर-प्रियमारब्धयोगिनाम् ।।"
अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है'इत्याशाधर-विरचित्त-धर्मामृतनाम्नि मूक्ति-संग्रहे योगोद्दीपनो नामाष्टा दशोऽध्यायः।'
हम ग्रन्थों । २पर हैं सौर स्वात्म्ग, भुवाल्मा, श्रुतिमति, ध्यासि, दृष्टि और सद्गुरुके लक्षणादिका प्रतिपादन किया है। पश्चात् रत्नत्रयादि दूसरे विषयोंका विवेचन किया है। वस्तुतः इस अध्यात्मरहस्यमें गुण-दोष, विचार स्मरण आदिको शक्तिसे सम्पन्न भावमन और द्रव्यमनका बड़ा ही विशद विवेचन किया है। यह योगाभ्यासियों और अध्यात्मप्रेमियों के लिये उपयोगी है।
आशाधरने धर्मामृत ग्रन्थ लिखा है, जिसके दो खण्ड हैं-अनगारधर्मामृत और सागारधर्मामुत । अनगारधर्मामृत में मुनिधर्मका वर्णन आया है तथा मुनियोंके मूलगुण और उत्तरगुणोंका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है । आशा घर विषयवस्तुके लिये मूलाचारके ऋणी हैं
सागारधर्मामृतमें गुहस्थधर्मका निरूपण आठ अध्यायोंमें किया है। प्रथम अध्यायमें श्रावकधर्मके प्रहणकी पात्रता बतलाकर पांच अणुव्रत, तीन गुणनत और चार शिक्षाबत तथा सल्लेखनाके आचरणको सम्पूर्ण सागरधर्म बतलाया है। उक्त १२ प्रकारके धर्मको पाक्षिक श्रावक अभ्यासरूपसे, नैष्ठिक आचरणरूपसे और साधक आत्मलीन होकर पालन करता है ।
आठ मूलगुणोंका धारण, सप्त व्यसनोंका त्याग, देवपूजा, गुरूपासना और पात्रदान आदि क्रियाओंका आचरण करना पाक्षिक आधार है। घमंका मूल अहिंसा और पापका मूल हिंसा है। अहिंसाका पालन करनेके लिये मद्य, मांस, मधु और अभक्ष्यका त्याग अपेक्षित है । रात्रिभोजनत्याग भी अहिंसाके अन्त गत है।
गृहविरत श्रावक आरम्भिक हिंसाका पूर्ण त्याग करता है और गृह-रस श्रावक, संकल्पी हिंसाका । सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परि ग्रहपरिमाणाणुवतका धारण करना भी आवश्यक है। श्रावक गणव्रत और शिक्षा व्रतोंका पालन करता हुआ अपनी दिनचर्याको भी परिमार्जित करता है । वह एकादश प्रतिमाओंका पालन करता हुआ अंतमें सल्लेखना द्वारा प्राणोंका विसर्जन कर सद्गति लाभ करता है। इस प्रकार धर्मामृतमें श्रमण और वाचक दोनोंको चर्याओंका वर्णन किया है।
प्रतिष्ठाविधिका सम्यक् प्रतिपादन करनेके लिये आशापरने छ: अध्यायों में जिनयज्ञकल्पविधिको समास किया है।
प्रथम अध्यायमें मन्दिरके योग्य भूमि,मूतिनिर्माण के लिये शुभ पाषाण, प्रतिष्ठायोग्य मूर्ति, प्रतिष्ठाचार्य, दीक्षागुरु यजमान, मण्डप-विधि, जलयात्रा, यागमण्डल-उद्धार आदि विषयों का वर्णन है।
द्वितीय अध्यायमें तीर्थजल लानेको विधि, पञ्चपरमेष्ठिपूजा, अन्य देव पूजा, जिनयज्ञादिविधि, सकलीकरणकिया, यज्ञदोक्षाविधि, मण्डपप्रतिष्ठा विधि और वेदीप्रतिष्ठाविधि गणित है।
तृतीय अध्यायमें यागमण्डलको पूजा विधि और यागमण्डल में पूज्य देवोंका कथन किया है।
चतुर्थ अध्यायमें प्रतिष्ठेय प्रतिमाका स्वरूप अहंन्तप्रतिमाकी प्रतिष्ठाविधि, गर्भकल्याणककी क्रियाओंके अनन्तर जन्मकल्याणक, तपकल्याणक, नेत्रीन्मीलन, केवलज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणककी विधियोंका वर्णन आया है।
पञ्चम अध्याय में अभिषेक-विधि, बिसर्जन-विधि, जिनालय-प्रदक्षिणा पुण्याहवाचन, ध्वजारोहण-विधि एवं प्रतिष्टाफलका कथन आया है। षष्ठ अध्याय में सिद्ध-प्रतिमाकी प्रतिष्ठा-विधि बृहदसिद्धचक और लघुसिद्धचक्रका उद्धार, आचार्य-प्रतिष्ठा-विधि, श्रुतदेवता-प्रतिष्ठा-विधि एवं यक्षादिकी प्रतिष्ठाविधिका वर्णन है । षष्ठ अध्यापके अन्तमें ग्रन्यकर्ताको प्रशस्ति अंकित है। परिशिष्टमें श्रुतपूजा, गुरुपूजा आदि संगृहोत हैं।
इस ग्रन्थमें ६३ शलाका-पुरुषोंका संक्षिप्त जीवन-परिचय आया है। ४० पद्योंमें तीर्थंकर ऋषभदेवका, ७ पद्यों में अजितनाथका, ३ पद्योंमें संभव नाथका, ३ पद्योंमें अभिनन्दनका, ३ में सुमतिनाथका, ३ में पानभका, ३ में सुपाय जिनका, १० में चन्द्रप्रमका, ३ में पुष्पदन्तका, ४ में शीतलनाथका, १० में श्रेयांस तीर्थकरका, ९ में बासपूज्यका, १६ में विमलनाथका, १० में अनन्त नाथका, १७ में धर्मनाथका, २१ में शान्तिनाथका, ४ में कुन्थुनाथका, २६ में अरनाथका, १४ में मल्लिनाथका और ११ में मुनिसुव्रतका जीवनवृत्त वणित है। इसी संदर्भ में राम-लक्ष्मणकी कथा भी ८१ पद्योंमें वर्णित है। तदनन्तर २१ पद्यों में कृष्ण-बलराम, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदिके जीवनवृत्त आये हैं । नेमिनाथका जीवन वृत्त भी १०१ पञ्चोंमें श्रीकृष्ण आदिके साथ पणित है। अनन्तर ३२ पद्योंमें पाश्वनाधका जीवन अंकित किया गया है। पश्चात् ५२ पद्योंसे महाबीर-पुराण का अंकन है । तीर्थंकरोंके कालमें होनेवाले चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदिका भी कथन आया है। ग्रन्थके अन्त में १५ पद्यों में प्रशस्ति अंकित है। ग्रन्थ-रचनाकालका निर्देश करते हुए लिखा है
नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् ।
अन्योऽयं द्विनवकविकमार्कसमात्यये ।।१३।।
अर्थात् वि० सं० १२९१में इस ग्रंथकी रचना की है।
#MahakaviAshadhar
आचार्यतुल्य महाकवि श्री १०८ आशाधर 13वीं शताब्दी (प्राचीन)
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आशाधरका अध्ययन बड़ा ही विशाल था । वे जैनाचार, अध्यात्म, दर्शन, काव्य, साहित्य, कोष, राजनीति, कामशास्त्र, आयुर्वेद आदि सभी विषयोंके प्रकाण्ड पण्डित थे । दिगम्बर परम्परामें उन जैसा बहुश्रुत गृहस्थ-विद्वान् ग्रन्थ कार दूसरा दिखलाई नहीं पड़ता।
आशाधरमाण्डलगढ़ (मेवाड़) के मूलनिवासी थे। किन्तु मेवाह पर मुसलमान बादशाह शहाबुद्दीन गोरीके आक्रमणोंके होनेसे त्रस्त होकर मालवाकी राजधानी धारा नगरी में अपने परिवार सहित आकर बस गये थे। पं० आशाबर बघेर वाल जातिके श्रावक थे। इनके पिताका नाम सल्लक्षण एवं माताका नाम श्रीरत्नी था | सरस्वती इनकी पत्नी थी, जो बहुत सुशील और सुशिक्षिता थीं। इनके एक पुत्र भी था, जिसका नाम छाहड़ था। सागारधर्मामृत्तके अन्त में इन्होंने अपना परिचय देते हुए लिखा है
व्यानरवालवरवंशसरोजहंस:
काव्यामृतीघरसपानसुतृप्तगात्रः
सल्लक्षणस्थ तनयो नविश्वचक्षु
राशाधरो विजयतां कलिकालिदासः ।।
आशाधरजीने अपने सुयोग्य पुत्रको स्वयं प्रशंसा की है। कहा जाता है कि इनके पिता अपनी योग्यताके कारण मालवानरेश अर्जुन बमदेबके सन्धि विग्रह मन्त्री थे। आशाधरजीने धारा नगरीमें व्याकरण और न्यायशास्त्रका अध्ययन किया था । इनके विद्यागुरु प्रसिद्ध विद्वान पं० महावीर थे।
विन्ध्यवर्माका राज्य समाप्त होनेपर आशाधर नालछा-नलकच्छपुरमें रहने लगे थे। उस समय नलकच्छपुरके राजा अजुन वर्मदेव थे। उनके राज्य में इन्होंने अपने जीवनके ३५ वर्ष व्यतीत किये और वहाँके अत्यन्त सुन्दर नेमि चैत्यालयमें ये जैन साहित्यको उपासना करते रहे ।
आशाधरके पाण्डित्यकी प्रशंसा उस समयके सभी भट्टारक विद्वानोंने की है। जदयसेनने आपको "नयविश्वचक्षु" तथा 'कलि-कालिदास' कहा है । मदन कोत्ति यतिपतिने 'प्रज्ञापुज' कहकर आशाधरकी प्रशंसा की है। स्वयं गृहस्थ रहनेपर भी बड़े-बड़े मुनि और भट्टारकोंने इनका शिष्यत्व स्वीकार किया है।
जैनधर्मके अतिरिक्त अन्य मतवाले विगान भी आपको विद्वत्तापर मुग्ध थे । मालवानरेश अजुनदेव स्वयं विद्वान और कवि थे | अमरकशतककी रस सञ्जीवनी नामकी एक संस्कृतीका काव्यमालामें प्रकाशित हुई है। इस टीकामें 'यदुक्कमपाध्यायेन बालसरस्वत्यपरनाम्ना मदनेन' इस प्रकार लिखकर मदनोपाध्यायके इलोक उदाहरणस्वरूप उद्धृत किये हैं और भव्यकुमुदचन्द्रिका टोकाको प्रशस्तिके नवम श्लोकके अन्तिम पादको टीकामें पं० आशाधरने 'भापुः प्राप्ताः बालसरस्वतिमहाकविमदनादयः' लिखा है। इससे स्पष्ट है कि अमरुकशतकमें उद्धृत उदाहरणस्वरूप श्लोक आशाधरके शिष्य महाकवि मदनके हैं। इसके अतिरिक्त प्राचीन लेखमालामें अर्जुन वर्मदेवका तीसरा दानपत्र प्रकाशित हुआ, जिसके अन्तमें 'रचितमिदं राजगुरुणा मदनेन' लिखा है । अत: यह स्पष्ट है कि आशाधरके शिष्य मदनोपाध्याय, जिनका दूसरा नाम बालसरस्वती था, मालवाधीश महाराज अर्जुनदेवके गुरु थे ।
अमल्कशतककी टीकामें आये हुए पद्योंसे यह भी ज्ञात होता है कि मदनो पाध्यायका कोई अलंकारग्रन्थ भी था, जो अभी तक अप्राप्त है।मदनकीतिके सिवा आशापरके अनेक मुनि शिष्य थे । व्याकरण, काव्य न्याय, धर्मशास्त्र आदि विषयों में उनकी असाधारण गति थी। बताया है
यो द्राव्याकरणाग्धिपारमनयच्छुषमाणात कान्
षदतीपरमास्त्रमाप्य न यतः प्रत्यायिनः केऽक्षिपन् ।
चेह के स्खलितं मयेन जिनवाग्दीपं पथि ग्राहिताः
पीत्वा काव्यसुषां यतश्च रसिकेष्वापुः प्रतिष्ठां न के॥९॥
अर्थात् शुश्रुषा करनेवाले शिष्यों से ऐसे कौन हैं, जिन्हें आशाधरने व्या करणरूपी समुद्रके पार शीन ही न पहुंचा दिया हो तथा ऐसे कौन हैं, जिन्होंने आशाधरके षटदर्शनरूपी परमशस्त्रको लेकर अपने प्रतिवादियों के न जोसा हो, तथा ऐसे कौन हैं जो आशाधरसे निर्मल जिनवाणीरूपी दीपक ग्रहण करके मोक्षमार्ग में प्रवृद्ध न हुए हों और ऐसे कौन शिष्य हैं जिन्होंने आशाघरसे काव्यामृतका पान करके रसिकपुरुषों में प्रतिष्ठा न प्राप्त की हो?
आशाधरने अपने अन्य दो शिष्यों के नाम भी दिये हैं-बादीन्द्र विशाल कीति और भट्टारक देवचन्द्र 1 विशालकीत्तिको षड्दर्शनन्यायको शिक्षा दी थी और देवचन्द्रको धर्मशास्त्रकी । मदनोपाध्यायको काव्यका पण्डित बनाकर अजुनवर्मदेव जैसे रसिक राजाका राजगुरु बनाया था। इससे स्पष्ट हैं कि आशाधर महान विद्वान् थे और इनके अनेक शिष्य थे।
धारा नगरोसे दस कोसकी दूरीपर नलकच्छपुर स्थित था । यहाँ आकर आशाधरने सरस्वतीको साधना विशेषरूपसे की।
आशाधरका व्यक्तित्व बहुमुखी था। वे अनेक विषयोंके विद्वान होनेके साथ असाधारण कवि थे। उन्होंने अष्टांगहृदय जेसे महत्त्वपूर्ण आयुर्वेद ग्रन्थपर टीका लिखी। काव्यालंकार और अमरकोशको टीकाएं भी उनकी विद्वत्ताको परिचायक हैं । आशाधर श्रद्धालु भक्त थे । उनके अनेक मित्र और प्रशंसक थे । उनका व्यक्तित्व इतना सरल और सहज था, जिससे मुनि और भट्टारक भी उनका शिष्यत्व स्वीकार करने में गौरवका अनुभव करते थे। उनकी लोक प्रियताको सूचना उनकी उपाधियाँ ही दे रही हैं।
गुरु | पं० महावीर |
शिष्य | बादीन्द्र विशाल कीति और भट्टारक देवचन्द्र |
महाकवि आशाधरने अपने ग्रन्थों में रचना-तिथिका उल्लेख किया है। उन्होंने अनगारधर्मामृतको भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका कात्तिक शुक्ला पंचमी सोमवार वि० सं० १३०० को पूर्ण की थी। इस समय इनको आयु ६५-७० वर्षकी रही होगी। इस प्रकार उनका जन्म वि० सं०१२२०-३५ के लगभग आता है। पं.
जिनयजकल्पकी प्रशस्तिमें कई ग्रन्थों के नाम आये हैं
स्यादवादविद्याविशदप्रसादः प्रमेयरत्नाकरनामधेयः ।
तर्कप्रबन्धों निरवचपद्यपीयूषपूरो वहुतिस्म यस्मात् ॥१०॥
सिद्धयाई भरतेश्वराभ्युदयसत्काव्यं निबन्धोज्ज्वलम्
यस्त्र विद्यकवीन्द्रमोदनसह स्वयसेडरीरचत् ।
योऽहंद्वाक्यरसं निबन्धचिरं शास्त्रं च धर्मामृतम्
विर्माय व्यदधान्मुमुक्षुविदुषामानन्दसान्द्रं हदि ||११||
आयुर्वेदविदामिष्टा व्यक्तुं वाग्मटसंहिताम् ।
अष्टामदयोद्योतं निबन्धमसृजञ्च यः ॥१२॥
अर्थात् स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रसादस्वरूप प्रमेयरत्नाकरनामका न्याय ग्रन्थ, जो सुन्दर पद्यरूपी अमृतसे भरा हुआ है, बाशाधरके हृदय-सरोवरसे प्रवाहित हुआ। भरतेश्वराभ्युदयनामक उत्तम काव्य अपने कल्याणके लिये बनाया, जिसके प्रत्येक सर्गके अन्तमें सिद्ध' शब्द आया है, जो तीनों विद्याओंके जानकार कवीन्द्रोंको आनन्द देनेवाला है और स्वोपशटीकासे प्रकाशित है । इनके अतिरिक्त 'धर्मामृत' शास्त्र, वाग्भट्टसंहिताकी अष्टांगहृदयोद्योतिनी टीका रची । मूलाराधना और इष्टोपदेशपर भी टीकाएँ लिखीं। अमरकोशपर क्रिया कलाफ्नामक टीका बनायी। आराधनासार और भूपालचतुर्विशतिका आदि की टीकाएँ भी लिखीं। वि० सं० १२८५ के पूर्व रचे हुए ग्रन्थोंकी तालिका जिनयजकल्पकी प्रशस्तिमें पाई जाती है। इसके पश्चात् वि० सं० १२८६ से १२९६ तकके मध्य में रचे गये ग्रन्थोंका उल्लेख सागारधर्मामृतकी टीकामें पाया जाता है। १२९६ के अनन्सर जो अन्य रचे, उनका निर्देश अनागरधर्मामुत टीकामें पाया जाता है। इस टीकामें राजीमतिविप्रलंभनामक खण्डकाव्य, अध्यात्म रहस्य और रत्नत्रयविधान इन तीन अन्योंका निर्देश मिलता है।
आशाधरके समयकी पुष्टि अर्जुनबर्मदेवके दानपत्रोंसे भी होतो है । अर्जुन वर्मदेवके तीन दानमात्र प्राप्त हुए हैं-१. वि० सं० १२६७ का, २. वि० सं० १२७० का, ३. वि० सं० १२७२ का। इसके पश्चात् अर्जुनदेवके पुत्र देवपाल देवके राज्यत्वकालका एक अभिलेख हरसोदामें मिला है, जो वि० सं० १२७५ का है। इससे ज्ञात होता है कि १२७२ और १२५७५ के बीचमें अर्जुनदेव के राज्यका अन्त हो चुका था । अशुनदेवके राज्यका प्रारम्भ वि० सं० १२६७ के कुछ पहले हआ है। वि० सं० १२५० में जब माशाधर बारामें आये थे तब विन्ध्यवर्माका राज्य था, क्योंकि विन्यवांक मन्त्री विद्यापति विल्हणने आशापरकी विद्वताकी प्रशंसा की है। यदि आशाधरके विद्याभ्यासकाल ७-८ वर्ष माना जाय, तो विन्ध्यवर्माका राज्य वि० सं० १२५७.५८ तक रहता है। विन्ध्यवर्माके पश्चात् सुभटवर्माका राज्यकाल ७-८ वर्ष माना जाय, तो अर्जुन देवके राज्यकालका समय वि० सं० १२६५ आता है। इसी समयके लगभग आशाधर नलकच्छमें आये होंगे।
पिपलियाके अर्जुनदेवके दानपत्र में उनकी कुलपरम्परा निम्न प्रकार आई है
भोज-उदयादित्य-नरवर्मा, यशोवर्मा, अजयवर्मा, विन्ध्यवर्मा या विजयवर्मा, सुभटवर्मा और अर्जुनवर्मा । अर्जुनवर्माके कोई पुत्र नहीं था । इस लिये उसके पीछे अजयवर्माके भाई लक्ष्मीवर्माका पौत्र देवपाल और देवपालके पश्चात् उसका पुत्र जयतुंगिदेव (जयसिंह) राजा हुआ ।
आशाधर जिस समय धारामें आये उस समय विन्ध्यवर्माका राज्य था और वि० सं० १२९६ में जब उन्होंने सागारधर्मामृतको टीका लिखो तब जयतुंगि देव राजा थे । इस प्रकार आशाधर धाराके सिंहासनपर पांच राजाओंको देख चुके थे। विन्ध्यवर्माक मन्त्री विद्यापति विल्हणने आशाधरकी विद्वत्तापर मोहित होकर लिखा
"आशाधरत्वं मयि विदि सिद्ध निसर्गसौन्दर्यमजर्यमाय ।
सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थ परं वाच्यमयं प्रपञ्चः ॥"
इस प्रकार आशाधरका समय वि० को तेरहवीं शती निश्चित है।
आशाधरने विपुल नरिसादमें शाहिलाका समान किया है। मेरी कवि, व्याख्याता और मौलिक चिन्तक थे । अबतक उनकी निम्नलिखित रचनाओं के उल्लेख मिले हैं...
१. प्रमेयरलाकर,
२. भरतेश्वराभ्युदय,
३. ज्ञानदीपिका,
४. राजीमति विप्रलंभ,
५. अध्यात्मरहस्य,
६. मूलाराधनाटीका,
७. इष्टोपदेशटीका,
८. भूपाल चतुविशतिकाटीका,
9. आराधनासारटीका,
१०. अमरकीसटीका,
११. किया कालाप,
१२. काव्यालंकारटीका,
१३. सहस्रनानस्तवन सटीक,
१४. जिनयन कल्प सटीक,
१५. निषष्टिस्मृतिशास्त्र,
१६ नित्यमहोद्योत,
१७, रत्नत्रय विधान,
१८. अष्टांगहृद्योतिनीटीका,
१९. सागारधर्मामृत सटीक और
२०.अनगारधर्मामृत सटीक।
अध्यात्मरहस्य पं० आशाधरजीने अपने पिताके आदेशसे इस ग्रन्थकी रचना की। साथ ही यह भी बताया है कि यह शास्त्र प्रसप्त, गम्भीर और मारब्ध योगियों के लिये प्रिय बस्तु है। योगसे सम्बद्ध रहने के कारण इसका दूसरा नाम योगो दीपन भी है। कनिने लिखा है
"आदेशात् पितुरध्यात्म-रहस्यं नाम यो व्यधात् ।
शास्त्रं प्रसन्न गम्भीर-प्रियमारब्धयोगिनाम् ।।"
अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है'इत्याशाधर-विरचित्त-धर्मामृतनाम्नि मूक्ति-संग्रहे योगोद्दीपनो नामाष्टा दशोऽध्यायः।'
हम ग्रन्थों । २पर हैं सौर स्वात्म्ग, भुवाल्मा, श्रुतिमति, ध्यासि, दृष्टि और सद्गुरुके लक्षणादिका प्रतिपादन किया है। पश्चात् रत्नत्रयादि दूसरे विषयोंका विवेचन किया है। वस्तुतः इस अध्यात्मरहस्यमें गुण-दोष, विचार स्मरण आदिको शक्तिसे सम्पन्न भावमन और द्रव्यमनका बड़ा ही विशद विवेचन किया है। यह योगाभ्यासियों और अध्यात्मप्रेमियों के लिये उपयोगी है।
आशाधरने धर्मामृत ग्रन्थ लिखा है, जिसके दो खण्ड हैं-अनगारधर्मामृत और सागारधर्मामुत । अनगारधर्मामृत में मुनिधर्मका वर्णन आया है तथा मुनियोंके मूलगुण और उत्तरगुणोंका विस्तारपूर्वक निरूपण किया है । आशा घर विषयवस्तुके लिये मूलाचारके ऋणी हैं
सागारधर्मामृतमें गुहस्थधर्मका निरूपण आठ अध्यायोंमें किया है। प्रथम अध्यायमें श्रावकधर्मके प्रहणकी पात्रता बतलाकर पांच अणुव्रत, तीन गुणनत और चार शिक्षाबत तथा सल्लेखनाके आचरणको सम्पूर्ण सागरधर्म बतलाया है। उक्त १२ प्रकारके धर्मको पाक्षिक श्रावक अभ्यासरूपसे, नैष्ठिक आचरणरूपसे और साधक आत्मलीन होकर पालन करता है ।
आठ मूलगुणोंका धारण, सप्त व्यसनोंका त्याग, देवपूजा, गुरूपासना और पात्रदान आदि क्रियाओंका आचरण करना पाक्षिक आधार है। घमंका मूल अहिंसा और पापका मूल हिंसा है। अहिंसाका पालन करनेके लिये मद्य, मांस, मधु और अभक्ष्यका त्याग अपेक्षित है । रात्रिभोजनत्याग भी अहिंसाके अन्त गत है।
गृहविरत श्रावक आरम्भिक हिंसाका पूर्ण त्याग करता है और गृह-रस श्रावक, संकल्पी हिंसाका । सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परि ग्रहपरिमाणाणुवतका धारण करना भी आवश्यक है। श्रावक गणव्रत और शिक्षा व्रतोंका पालन करता हुआ अपनी दिनचर्याको भी परिमार्जित करता है । वह एकादश प्रतिमाओंका पालन करता हुआ अंतमें सल्लेखना द्वारा प्राणोंका विसर्जन कर सद्गति लाभ करता है। इस प्रकार धर्मामृतमें श्रमण और वाचक दोनोंको चर्याओंका वर्णन किया है।
प्रतिष्ठाविधिका सम्यक् प्रतिपादन करनेके लिये आशापरने छ: अध्यायों में जिनयज्ञकल्पविधिको समास किया है।
प्रथम अध्यायमें मन्दिरके योग्य भूमि,मूतिनिर्माण के लिये शुभ पाषाण, प्रतिष्ठायोग्य मूर्ति, प्रतिष्ठाचार्य, दीक्षागुरु यजमान, मण्डप-विधि, जलयात्रा, यागमण्डल-उद्धार आदि विषयों का वर्णन है।
द्वितीय अध्यायमें तीर्थजल लानेको विधि, पञ्चपरमेष्ठिपूजा, अन्य देव पूजा, जिनयज्ञादिविधि, सकलीकरणकिया, यज्ञदोक्षाविधि, मण्डपप्रतिष्ठा विधि और वेदीप्रतिष्ठाविधि गणित है।
तृतीय अध्यायमें यागमण्डलको पूजा विधि और यागमण्डल में पूज्य देवोंका कथन किया है।
चतुर्थ अध्यायमें प्रतिष्ठेय प्रतिमाका स्वरूप अहंन्तप्रतिमाकी प्रतिष्ठाविधि, गर्भकल्याणककी क्रियाओंके अनन्तर जन्मकल्याणक, तपकल्याणक, नेत्रीन्मीलन, केवलज्ञानकल्याणक और निर्वाणकल्याणककी विधियोंका वर्णन आया है।
पञ्चम अध्याय में अभिषेक-विधि, बिसर्जन-विधि, जिनालय-प्रदक्षिणा पुण्याहवाचन, ध्वजारोहण-विधि एवं प्रतिष्टाफलका कथन आया है। षष्ठ अध्याय में सिद्ध-प्रतिमाकी प्रतिष्ठा-विधि बृहदसिद्धचक और लघुसिद्धचक्रका उद्धार, आचार्य-प्रतिष्ठा-विधि, श्रुतदेवता-प्रतिष्ठा-विधि एवं यक्षादिकी प्रतिष्ठाविधिका वर्णन है । षष्ठ अध्यापके अन्तमें ग्रन्यकर्ताको प्रशस्ति अंकित है। परिशिष्टमें श्रुतपूजा, गुरुपूजा आदि संगृहोत हैं।
इस ग्रन्थमें ६३ शलाका-पुरुषोंका संक्षिप्त जीवन-परिचय आया है। ४० पद्योंमें तीर्थंकर ऋषभदेवका, ७ पद्यों में अजितनाथका, ३ पद्योंमें संभव नाथका, ३ पद्योंमें अभिनन्दनका, ३ में सुमतिनाथका, ३ में पानभका, ३ में सुपाय जिनका, १० में चन्द्रप्रमका, ३ में पुष्पदन्तका, ४ में शीतलनाथका, १० में श्रेयांस तीर्थकरका, ९ में बासपूज्यका, १६ में विमलनाथका, १० में अनन्त नाथका, १७ में धर्मनाथका, २१ में शान्तिनाथका, ४ में कुन्थुनाथका, २६ में अरनाथका, १४ में मल्लिनाथका और ११ में मुनिसुव्रतका जीवनवृत्त वणित है। इसी संदर्भ में राम-लक्ष्मणकी कथा भी ८१ पद्योंमें वर्णित है। तदनन्तर २१ पद्यों में कृष्ण-बलराम, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदिके जीवनवृत्त आये हैं । नेमिनाथका जीवन वृत्त भी १०१ पञ्चोंमें श्रीकृष्ण आदिके साथ पणित है। अनन्तर ३२ पद्योंमें पाश्वनाधका जीवन अंकित किया गया है। पश्चात् ५२ पद्योंसे महाबीर-पुराण का अंकन है । तीर्थंकरोंके कालमें होनेवाले चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदिका भी कथन आया है। ग्रन्थके अन्त में १५ पद्यों में प्रशस्ति अंकित है। ग्रन्थ-रचनाकालका निर्देश करते हुए लिखा है
नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् ।
अन्योऽयं द्विनवकविकमार्कसमात्यये ।।१३।।
अर्थात् वि० सं० १२९१में इस ग्रंथकी रचना की है।
Acharyatulya Mahakavi Ashadhar 13th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04 April 2022
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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