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#MahakaviBhudhardas
हिन्दी भाषाके जैन-कवियों में महाकवि भूधरदासका नाम उल्लेखनीय है। कवि आगरानिवासी था और इसकी जाति खण्डेलवाल थी। इससे अधिक इनका परिचम प्राप्त नहीं होता है | इनकी रचनाओंके अवलोकनसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि कवि श्रद्धाल और धर्मात्मा था | कविता करनेका अच्छा अभ्यास था । कविके कुछ मित्र थे, जो कविसे ऐसे सार्वजनीन साहित्यका निर्माण कराना चाहते थे, जिसका अध्ययन कर साधारण जन भी आत्मसाधना और आचार-तत्वको प्राप्त कर सके । उन्हीं दिनों आगरामें जयसिंहसबाई सूबा और हाकीम गुलाबचन्द वहाँ आये । शाह हरिसिंहके वंशमें जो धर्मानुरागी मनुष्य थे उनकी बार-बार प्रेरणासे कविके प्रमादका अन्त हो गया और कविने विक्रम सं० १७८५में पौष कृष्णा त्रयोदशीके दिन अपना 'शतक' नामक अन्य रचकर समाप्त किया ।
कविके हृदय में आत्मकल्याणकी तरंग उठती थी और विलीन हो जाती थी, पर वह कुछ नहीं कर पाता था। अध्यात्मगोधी में जाना और चर्चा करना नित्यका काम था । एक-दिन कवि अपने मित्रों के साथ बैठा हुआ था कि वहाँसे एक वृद्ध पुरुष निकला, जिसका शरीर थक चुका था, दृष्टि कमजोर हो गई थी, लाठोके सहारे चला जा रहा था। उसका सारा शरीर काँप रहा था । महसे कभी-कभी लार भी टपकती थी। वह लाठीके सहारे स्थिर होकर चलना चाहता था, पर वहाँसे दस-पांच कदम ही आगे चल पाया था कि संयोगसे उसकी लाठी टूट गई। पासमें स्थित लोगोंने उसे खड़ा किया और दूसरो लाठी का सहारा देकर उसे घर पहुंचाया। वृद्धको इस अवस्थासे कवि भूधरदासका मन विचलित हो गया और उनके मुखसे निम्नलिखित पद्य निकल पड़ा
आया रे बुढ़ापा मानी, सुधि-बुधि विसरानी ।।
श्रवनकी शक्ति घटी, चाल चले अटपटी,
देह लदी भन्न घटी, लोचन झरत पानो ॥१॥
दांतनकी पंक्ति टूटी, हाइनकी सन्धि छूटी,
कायाकी नगरी लूटी, जात नहिं पहियानी ।।२।।
बालांने वरन फेरा, रोगने शरीर घेरा,
पुत्रहू न आवे नेरा, औरोंकी कहा कहानी ।।३।।
'भूधर' समुझि अब, स्वहित करोगे कब ?
मह गरि: है अब, सब छह माना
पदके अन्तिम चरणको कविने कई बार पढ़ा और अनुभव किया कि बृद्धा वस्थामें हम सबकी ऐसो हो हालत होती है। अतः आत्मोत्यानकी ओर प्रवृत्त होना चाहिए। इस प्रकार कवि भूधरदासका व्यक्तित्व सांसारिकतासे परे, आत्मोन्मुखी है।
इनकी रचनाओं मे इनका समय वि० सं० की १८वीं शती (१७८१) सिद्ध होता है।
महाकवि भूधरदासने पार्व पुराण, जिनातक और पद-साहित्यकी रचना कर हिन्दी साहित्यको समृद्ध बनाया है। इनकी कविता उच्च-कोटिकी होती है।
यह एक महाकाव्य है। इसकी कथा बड़ी हो रोचक और आत्मपोषक है । किस प्रकार वैरकी परम्परा प्राणियों के अनेक जन्म जन्मान्तरों तक चलती रहती है, यह इसमें बड़ी हो खूबीके साथ बतलाया गया है । पार्श्व माथ तीर्थकर होनेके नो भव पूर्व पोदनपुर नगरके राजा अरविन्दके मन्त्री विश्वभूतिके पुत्र थे। उस समय इनका नाम मरुभूति और इनके भाईका नाम कमठ था । विश्वभूतिके दीक्षा लेने के अनन्तर दोनों भाई राजाके मन्त्री हुए और जब राजा अरविन्दने बचकोतिपर चढ़ाई की, तो कुमार मरुभूति इनके साथ युद्धक्षेत्र में आया । कमठने राजधानी में अनेक अपद्रव मचाये और अपने छोटे भाईकी पत्नी के साथ दुराचार किया ! जब राजा अत्रुको परास्त कर राज पानी में आया, तो कमठके कुकृत्यको बात सुनकर उसे बड़ा दुःख हुआ। कमठका काला मुंह कर गदहेपर चढ़ा सारे नगरमें घुमाया और नगरकी सीमासे बाहर कर दिया । आत्म-प्रताड़नासे पीडित कमठ भूताचल पर्वतपर आकर तपस्वियों के साथ रहने लगा। मरुभूति कमठके इस समाचारको प्राप्त कर भूताचलपर गया और वहाँ दुष्ट कमठने उसकी हत्या कर दी। इसके बाद कविने आठ जन्मों की कथा अंकित की है। नवें जन्ममें काशी विश्वसेन राजाके यहाँ पाश्व नाथका जन्म होता है। पार्व आजन्म ब्रह्मचारी रहकर आत्मसाधना करते हैं । वे तीर्थकर बन जाते हैं। मिठका भीष उनी न करता है। पर पार्श्वनाथ अपनी साधनासे विचलित नहीं होते । केवलज्ञान प्राप्त होने पर वे प्राणियोंको धर्मोपदेश देते हैं और अन्त में सम्मेदाचलसे निर्वाण प्राप्त करते हैं।
नायक पाश्चनाथका जीवन अपने समयके समाजका प्रतिनिधित्व करता हमा लोक-मंगलकी रक्षाके लिए बढ़परिकर है। कविने कथामें क्रमबद्धताका पुरा निर्वाह किया है। मानवता और युगभावनाका प्राधान्य सर्वत्र है पर स्थित्ति-निर्माणमें पूर्वके नौ भबोंकी कथा जोड़कर कविने पूरी सफलता प्राप्त की है। जीवनका इतना सर्वांगीण और स्वस्थ विवेचन एकाध महाकाव्य में हो मिलेगा। इसमें एक व्यक्तिका जीवन अनेक अवस्थाओं और व्यक्तियोंके बीच अंकित हुआ है। अतः इसमें मानवके रागद्वेषों की कीड़ाके लिए विस्तृत क्षेत्र है । मनुष्यका ममत्व अपने परिवार के साथ कितना अधिक रहता है, यह पाश्व नाथके जीव मरुभूतिके चरित्रसे स्पष्ट है।
वस्तुव्यापार-वर्णन, घटना-विधान और दृश्य-योजनाओं की दृष्टिसे भी यह काव्य सफल है। कवि जीवनके सत्यको काव्यके माध्यमसे श्यक्त करता हुआ कहता है
बालक-काया कंपल लोम । पत्ररूप - जीवन में होय ।
पाको पात जरा तन करै । काल-बयारि चलत पर झरै ।।
मरन-दिवसको नेम न कोय । यात कछु सुधि पर न लोय ।।
एक नेम यह तो परमान । जन्म धरै सो मरे निदान ।।४।६५-६७
अर्थात् किशोरावस्था कोंपलके तुल्य है। इसमें पत्रस्वरूप यौवन अवस्था है। पत्तोंका पक जाना जरा है । मृत्युरूपी बायु इस पके पत्तेको अपने एक हल्के धक्के से ही गिरा देती है। जब जीवन में मृत्यु निश्चित है तो हमें अपनी महायात्राके लिए पहलेसे तैयारी करनी चाहिए।
जीवनका अन्तदर्शन ज्ञान-दीपके द्वारा ही संभव है, पर इस शानदीपमें तपरूपी तेल औरस्वात्मानुभवरूपी बत्तीका रहना अनिवार्य है।
ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर पोधे भ्रम छोर ।
या विधि बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब चोर ।।४।८१
कविने इस कान्यकी समाप्ति वि० सं० १७८९ आषाढ़ शुक्ला पंचमीको की है।'
इस रचनामें १०७ कवित्त, दोहे, सवैये और छप्पय हैं। कांचने वैराग्य-बीवनके विकासके लिए इस रचनाका प्रणयन किया है। बुद्धा वस्था, संसारकी असारता, काल सामर्थ्य, स्वार्थपरता, दिगम्बर मुनियोंकी तपस्या, आशा-तुष्णाकी नग्नता आदि विषयोंका निरूपण बड़े ही अद्भुत बंगसे किया है । कवि जिस तब्यका प्रतिपादन करना चाहता है उसे स्पष्ट और निर्भय होकर प्रतिपादित करता है। नीरस और गूढ़ विषयोका निरूपण भी सरस एवं प्रभावोत्पादक शैली में किया गया है। कल्पना, मावना और विचारोंका समन्वय सन्तुलित रूपमें इत्या है । आत्म-सौन्दर्यका पर्शन कर कवि कहता है कि संसारके भोगोंमें लिप्त प्राणी अहर्निश विचार करता रहता है कि जिस प्रकार मौ संभव हो उस प्रकार में धन एकत्र कर आनन्द भोगे । मानव नाना प्रकारके सुनहले स्वप्न देखता है और विचारता है कि धन प्राप्त होनेपर संसारके समस्त अभ्युदयजन्य कार्यों को सम्पन्न करूंगा, पर उसकी घनाजनकी यह अभिलाषा मृत्युके कारण अधूरी ही रह जाती है । यथा
चाहत है धन होय किसी विध, तो सब काज करे जिय राजी ।
मेह चिनाय करू गहना कछु, व्याहि सुता सुत बौटिय भाजी ।।
चिन्तत यो दिन जाहि चले, जम मानि अचानक देत दगाजी ।
खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रूपी शतरंजकी बाजी ॥
इस संसारमें मनुष्य आत्मज्ञानसे विमुख होकर शरीरकी सेवा करता है। शरीरको स्वच्छ करने में अनेक साबुनको बट्टियां रगड़ डालता है और अनेक तेलकी शीशियो खाली कर डालता है। फैशनके अनेक पदार्थोंका उपयोग शारीरिक सौन्दर्य, प्रसाधनमें करता है, प्रतिदिन रग-रगड़कर शरीरको साफ करता है। इत्र और सेण्टोंका व्यवहार करता है। प्रत्येक इन्द्रियको तप्तिके लिए अनेक पदार्थो का संचय करता है। इस प्रकारसे मानवको दृष्टि अनात्मिक हो रही है। वह शरीरको ही सब कुछ समझ गया । कवि भूधरदासने अपने अन्तस्में उसी सत्यका अनुभव कर जगतके मानवोंको सजग करते हुए. कहा है--
मात-पिता-रज-बीरज सौं, उपजी सब सात कुधाल भरी है |
माखिमके पर माफिक बाहर, चामके बेठन बेढ़ घरी है ।।
नाहि तो आप लगे अबहीं, बक वायस जीव बचे न धरी है।
देह दशा ग्रह दोखत भ्रात, पिनात नहीं किन बुद्धि हगे है ।।
इस प्रकार कविने इस शतकमें अनात्मिक दृष्टिको दूर कर आत्मिक दृष्टि स्थापित करनेका प्रयास किया है।
महाकवि भूधरदासकी तीसरी रचना पद-संग्रह है । इनके पदोंको-१. स्तुतिपरक, २. जीवके अज्ञानावस्थाके कारण परिणाम और विस्तार सूचक, ३. आराध्यकी शरणके दृढ़ विश्वास सूचक, ४. अध्यात्मोपदेशी, ५, ससार और शरीरसे.विरक्ति उत्पादक, ६, नाम स्मरणके महत्त्व द्योतक और ७. मनुष्य स्वके पूर्ण अभिव्यजक इन सात वर्ग में विभवन निगामा: काला है : इन सभी प्रकारके पदोंमें शाब्दिक कोमलता, भावोंकी मादकता और कल्पनाओंक। इन्द्रजाल समन्त्रित रूपमें विद्यमान है | इनके पोंमें राग-विगगका गंगा-यमुनी संगम होनेपर भी शृंगारिकता नहीं है | कई पद सूरदासके पदोंके समान दृष्टि कूट भी हैं। जगत्-जन जुभा हार चले'' पदमें भाषाकी लाक्षणिकता और काव्याक्तियोंकी विदायता पूर्णतया समाविष्ट है । "सुनि ठपनी माया । तें सब जग ठग वाया" पद कवीरके "माया महा रुगनी हम जानी" पदसे समकक्षता रखता है। इसी प्रकार "भगवन्त भजन क्यों भूला रे। यह ससार रेनका सुपना, तन धन वारि बबूला रे" पद "भजु मन जोवन नाम सबेरा" कबीरके पदके समकक्ष है | "चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना' आदि आध्यात्मिक पद कबारके "चरखा चलै सुरत विरहिन का" पदके तुल्य है। इस प्रकार भधरदासके पद जीवन में आस्था, विश्वासकी भावना जागृत करते हैं।
हिन्दी भाषाके जैन-कवियों में महाकवि भूधरदासका नाम उल्लेखनीय है। कवि आगरानिवासी था और इसकी जाति खण्डेलवाल थी। इससे अधिक इनका परिचम प्राप्त नहीं होता है | इनकी रचनाओंके अवलोकनसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि कवि श्रद्धाल और धर्मात्मा था | कविता करनेका अच्छा अभ्यास था । कविके कुछ मित्र थे, जो कविसे ऐसे सार्वजनीन साहित्यका निर्माण कराना चाहते थे, जिसका अध्ययन कर साधारण जन भी आत्मसाधना और आचार-तत्वको प्राप्त कर सके । उन्हीं दिनों आगरामें जयसिंहसबाई सूबा और हाकीम गुलाबचन्द वहाँ आये । शाह हरिसिंहके वंशमें जो धर्मानुरागी मनुष्य थे उनकी बार-बार प्रेरणासे कविके प्रमादका अन्त हो गया और कविने विक्रम सं० १७८५में पौष कृष्णा त्रयोदशीके दिन अपना 'शतक' नामक अन्य रचकर समाप्त किया ।
कविके हृदय में आत्मकल्याणकी तरंग उठती थी और विलीन हो जाती थी, पर वह कुछ नहीं कर पाता था। अध्यात्मगोधी में जाना और चर्चा करना नित्यका काम था । एक-दिन कवि अपने मित्रों के साथ बैठा हुआ था कि वहाँसे एक वृद्ध पुरुष निकला, जिसका शरीर थक चुका था, दृष्टि कमजोर हो गई थी, लाठोके सहारे चला जा रहा था। उसका सारा शरीर काँप रहा था । महसे कभी-कभी लार भी टपकती थी। वह लाठीके सहारे स्थिर होकर चलना चाहता था, पर वहाँसे दस-पांच कदम ही आगे चल पाया था कि संयोगसे उसकी लाठी टूट गई। पासमें स्थित लोगोंने उसे खड़ा किया और दूसरो लाठी का सहारा देकर उसे घर पहुंचाया। वृद्धको इस अवस्थासे कवि भूधरदासका मन विचलित हो गया और उनके मुखसे निम्नलिखित पद्य निकल पड़ा
आया रे बुढ़ापा मानी, सुधि-बुधि विसरानी ।।
श्रवनकी शक्ति घटी, चाल चले अटपटी,
देह लदी भन्न घटी, लोचन झरत पानो ॥१॥
दांतनकी पंक्ति टूटी, हाइनकी सन्धि छूटी,
कायाकी नगरी लूटी, जात नहिं पहियानी ।।२।।
बालांने वरन फेरा, रोगने शरीर घेरा,
पुत्रहू न आवे नेरा, औरोंकी कहा कहानी ।।३।।
'भूधर' समुझि अब, स्वहित करोगे कब ?
मह गरि: है अब, सब छह माना
पदके अन्तिम चरणको कविने कई बार पढ़ा और अनुभव किया कि बृद्धा वस्थामें हम सबकी ऐसो हो हालत होती है। अतः आत्मोत्यानकी ओर प्रवृत्त होना चाहिए। इस प्रकार कवि भूधरदासका व्यक्तित्व सांसारिकतासे परे, आत्मोन्मुखी है।
इनकी रचनाओं मे इनका समय वि० सं० की १८वीं शती (१७८१) सिद्ध होता है।
महाकवि भूधरदासने पार्व पुराण, जिनातक और पद-साहित्यकी रचना कर हिन्दी साहित्यको समृद्ध बनाया है। इनकी कविता उच्च-कोटिकी होती है।
यह एक महाकाव्य है। इसकी कथा बड़ी हो रोचक और आत्मपोषक है । किस प्रकार वैरकी परम्परा प्राणियों के अनेक जन्म जन्मान्तरों तक चलती रहती है, यह इसमें बड़ी हो खूबीके साथ बतलाया गया है । पार्श्व माथ तीर्थकर होनेके नो भव पूर्व पोदनपुर नगरके राजा अरविन्दके मन्त्री विश्वभूतिके पुत्र थे। उस समय इनका नाम मरुभूति और इनके भाईका नाम कमठ था । विश्वभूतिके दीक्षा लेने के अनन्तर दोनों भाई राजाके मन्त्री हुए और जब राजा अरविन्दने बचकोतिपर चढ़ाई की, तो कुमार मरुभूति इनके साथ युद्धक्षेत्र में आया । कमठने राजधानी में अनेक अपद्रव मचाये और अपने छोटे भाईकी पत्नी के साथ दुराचार किया ! जब राजा अत्रुको परास्त कर राज पानी में आया, तो कमठके कुकृत्यको बात सुनकर उसे बड़ा दुःख हुआ। कमठका काला मुंह कर गदहेपर चढ़ा सारे नगरमें घुमाया और नगरकी सीमासे बाहर कर दिया । आत्म-प्रताड़नासे पीडित कमठ भूताचल पर्वतपर आकर तपस्वियों के साथ रहने लगा। मरुभूति कमठके इस समाचारको प्राप्त कर भूताचलपर गया और वहाँ दुष्ट कमठने उसकी हत्या कर दी। इसके बाद कविने आठ जन्मों की कथा अंकित की है। नवें जन्ममें काशी विश्वसेन राजाके यहाँ पाश्व नाथका जन्म होता है। पार्व आजन्म ब्रह्मचारी रहकर आत्मसाधना करते हैं । वे तीर्थकर बन जाते हैं। मिठका भीष उनी न करता है। पर पार्श्वनाथ अपनी साधनासे विचलित नहीं होते । केवलज्ञान प्राप्त होने पर वे प्राणियोंको धर्मोपदेश देते हैं और अन्त में सम्मेदाचलसे निर्वाण प्राप्त करते हैं।
नायक पाश्चनाथका जीवन अपने समयके समाजका प्रतिनिधित्व करता हमा लोक-मंगलकी रक्षाके लिए बढ़परिकर है। कविने कथामें क्रमबद्धताका पुरा निर्वाह किया है। मानवता और युगभावनाका प्राधान्य सर्वत्र है पर स्थित्ति-निर्माणमें पूर्वके नौ भबोंकी कथा जोड़कर कविने पूरी सफलता प्राप्त की है। जीवनका इतना सर्वांगीण और स्वस्थ विवेचन एकाध महाकाव्य में हो मिलेगा। इसमें एक व्यक्तिका जीवन अनेक अवस्थाओं और व्यक्तियोंके बीच अंकित हुआ है। अतः इसमें मानवके रागद्वेषों की कीड़ाके लिए विस्तृत क्षेत्र है । मनुष्यका ममत्व अपने परिवार के साथ कितना अधिक रहता है, यह पाश्व नाथके जीव मरुभूतिके चरित्रसे स्पष्ट है।
वस्तुव्यापार-वर्णन, घटना-विधान और दृश्य-योजनाओं की दृष्टिसे भी यह काव्य सफल है। कवि जीवनके सत्यको काव्यके माध्यमसे श्यक्त करता हुआ कहता है
बालक-काया कंपल लोम । पत्ररूप - जीवन में होय ।
पाको पात जरा तन करै । काल-बयारि चलत पर झरै ।।
मरन-दिवसको नेम न कोय । यात कछु सुधि पर न लोय ।।
एक नेम यह तो परमान । जन्म धरै सो मरे निदान ।।४।६५-६७
अर्थात् किशोरावस्था कोंपलके तुल्य है। इसमें पत्रस्वरूप यौवन अवस्था है। पत्तोंका पक जाना जरा है । मृत्युरूपी बायु इस पके पत्तेको अपने एक हल्के धक्के से ही गिरा देती है। जब जीवन में मृत्यु निश्चित है तो हमें अपनी महायात्राके लिए पहलेसे तैयारी करनी चाहिए।
जीवनका अन्तदर्शन ज्ञान-दीपके द्वारा ही संभव है, पर इस शानदीपमें तपरूपी तेल औरस्वात्मानुभवरूपी बत्तीका रहना अनिवार्य है।
ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर पोधे भ्रम छोर ।
या विधि बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब चोर ।।४।८१
कविने इस कान्यकी समाप्ति वि० सं० १७८९ आषाढ़ शुक्ला पंचमीको की है।'
इस रचनामें १०७ कवित्त, दोहे, सवैये और छप्पय हैं। कांचने वैराग्य-बीवनके विकासके लिए इस रचनाका प्रणयन किया है। बुद्धा वस्था, संसारकी असारता, काल सामर्थ्य, स्वार्थपरता, दिगम्बर मुनियोंकी तपस्या, आशा-तुष्णाकी नग्नता आदि विषयोंका निरूपण बड़े ही अद्भुत बंगसे किया है । कवि जिस तब्यका प्रतिपादन करना चाहता है उसे स्पष्ट और निर्भय होकर प्रतिपादित करता है। नीरस और गूढ़ विषयोका निरूपण भी सरस एवं प्रभावोत्पादक शैली में किया गया है। कल्पना, मावना और विचारोंका समन्वय सन्तुलित रूपमें इत्या है । आत्म-सौन्दर्यका पर्शन कर कवि कहता है कि संसारके भोगोंमें लिप्त प्राणी अहर्निश विचार करता रहता है कि जिस प्रकार मौ संभव हो उस प्रकार में धन एकत्र कर आनन्द भोगे । मानव नाना प्रकारके सुनहले स्वप्न देखता है और विचारता है कि धन प्राप्त होनेपर संसारके समस्त अभ्युदयजन्य कार्यों को सम्पन्न करूंगा, पर उसकी घनाजनकी यह अभिलाषा मृत्युके कारण अधूरी ही रह जाती है । यथा
चाहत है धन होय किसी विध, तो सब काज करे जिय राजी ।
मेह चिनाय करू गहना कछु, व्याहि सुता सुत बौटिय भाजी ।।
चिन्तत यो दिन जाहि चले, जम मानि अचानक देत दगाजी ।
खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रूपी शतरंजकी बाजी ॥
इस संसारमें मनुष्य आत्मज्ञानसे विमुख होकर शरीरकी सेवा करता है। शरीरको स्वच्छ करने में अनेक साबुनको बट्टियां रगड़ डालता है और अनेक तेलकी शीशियो खाली कर डालता है। फैशनके अनेक पदार्थोंका उपयोग शारीरिक सौन्दर्य, प्रसाधनमें करता है, प्रतिदिन रग-रगड़कर शरीरको साफ करता है। इत्र और सेण्टोंका व्यवहार करता है। प्रत्येक इन्द्रियको तप्तिके लिए अनेक पदार्थो का संचय करता है। इस प्रकारसे मानवको दृष्टि अनात्मिक हो रही है। वह शरीरको ही सब कुछ समझ गया । कवि भूधरदासने अपने अन्तस्में उसी सत्यका अनुभव कर जगतके मानवोंको सजग करते हुए. कहा है--
मात-पिता-रज-बीरज सौं, उपजी सब सात कुधाल भरी है |
माखिमके पर माफिक बाहर, चामके बेठन बेढ़ घरी है ।।
नाहि तो आप लगे अबहीं, बक वायस जीव बचे न धरी है।
देह दशा ग्रह दोखत भ्रात, पिनात नहीं किन बुद्धि हगे है ।।
इस प्रकार कविने इस शतकमें अनात्मिक दृष्टिको दूर कर आत्मिक दृष्टि स्थापित करनेका प्रयास किया है।
महाकवि भूधरदासकी तीसरी रचना पद-संग्रह है । इनके पदोंको-१. स्तुतिपरक, २. जीवके अज्ञानावस्थाके कारण परिणाम और विस्तार सूचक, ३. आराध्यकी शरणके दृढ़ विश्वास सूचक, ४. अध्यात्मोपदेशी, ५, ससार और शरीरसे.विरक्ति उत्पादक, ६, नाम स्मरणके महत्त्व द्योतक और ७. मनुष्य स्वके पूर्ण अभिव्यजक इन सात वर्ग में विभवन निगामा: काला है : इन सभी प्रकारके पदोंमें शाब्दिक कोमलता, भावोंकी मादकता और कल्पनाओंक। इन्द्रजाल समन्त्रित रूपमें विद्यमान है | इनके पोंमें राग-विगगका गंगा-यमुनी संगम होनेपर भी शृंगारिकता नहीं है | कई पद सूरदासके पदोंके समान दृष्टि कूट भी हैं। जगत्-जन जुभा हार चले'' पदमें भाषाकी लाक्षणिकता और काव्याक्तियोंकी विदायता पूर्णतया समाविष्ट है । "सुनि ठपनी माया । तें सब जग ठग वाया" पद कवीरके "माया महा रुगनी हम जानी" पदसे समकक्षता रखता है। इसी प्रकार "भगवन्त भजन क्यों भूला रे। यह ससार रेनका सुपना, तन धन वारि बबूला रे" पद "भजु मन जोवन नाम सबेरा" कबीरके पदके समकक्ष है | "चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना' आदि आध्यात्मिक पद कबारके "चरखा चलै सुरत विरहिन का" पदके तुल्य है। इस प्रकार भधरदासके पद जीवन में आस्था, विश्वासकी भावना जागृत करते हैं।
#MahakaviBhudhardas
आचार्यतुल्य महाकवि भूधरदास 18वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 28 मई 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28 May 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
हिन्दी भाषाके जैन-कवियों में महाकवि भूधरदासका नाम उल्लेखनीय है। कवि आगरानिवासी था और इसकी जाति खण्डेलवाल थी। इससे अधिक इनका परिचम प्राप्त नहीं होता है | इनकी रचनाओंके अवलोकनसे यह अवश्य ज्ञात होता है कि कवि श्रद्धाल और धर्मात्मा था | कविता करनेका अच्छा अभ्यास था । कविके कुछ मित्र थे, जो कविसे ऐसे सार्वजनीन साहित्यका निर्माण कराना चाहते थे, जिसका अध्ययन कर साधारण जन भी आत्मसाधना और आचार-तत्वको प्राप्त कर सके । उन्हीं दिनों आगरामें जयसिंहसबाई सूबा और हाकीम गुलाबचन्द वहाँ आये । शाह हरिसिंहके वंशमें जो धर्मानुरागी मनुष्य थे उनकी बार-बार प्रेरणासे कविके प्रमादका अन्त हो गया और कविने विक्रम सं० १७८५में पौष कृष्णा त्रयोदशीके दिन अपना 'शतक' नामक अन्य रचकर समाप्त किया ।
कविके हृदय में आत्मकल्याणकी तरंग उठती थी और विलीन हो जाती थी, पर वह कुछ नहीं कर पाता था। अध्यात्मगोधी में जाना और चर्चा करना नित्यका काम था । एक-दिन कवि अपने मित्रों के साथ बैठा हुआ था कि वहाँसे एक वृद्ध पुरुष निकला, जिसका शरीर थक चुका था, दृष्टि कमजोर हो गई थी, लाठोके सहारे चला जा रहा था। उसका सारा शरीर काँप रहा था । महसे कभी-कभी लार भी टपकती थी। वह लाठीके सहारे स्थिर होकर चलना चाहता था, पर वहाँसे दस-पांच कदम ही आगे चल पाया था कि संयोगसे उसकी लाठी टूट गई। पासमें स्थित लोगोंने उसे खड़ा किया और दूसरो लाठी का सहारा देकर उसे घर पहुंचाया। वृद्धको इस अवस्थासे कवि भूधरदासका मन विचलित हो गया और उनके मुखसे निम्नलिखित पद्य निकल पड़ा
आया रे बुढ़ापा मानी, सुधि-बुधि विसरानी ।।
श्रवनकी शक्ति घटी, चाल चले अटपटी,
देह लदी भन्न घटी, लोचन झरत पानो ॥१॥
दांतनकी पंक्ति टूटी, हाइनकी सन्धि छूटी,
कायाकी नगरी लूटी, जात नहिं पहियानी ।।२।।
बालांने वरन फेरा, रोगने शरीर घेरा,
पुत्रहू न आवे नेरा, औरोंकी कहा कहानी ।।३।।
'भूधर' समुझि अब, स्वहित करोगे कब ?
मह गरि: है अब, सब छह माना
पदके अन्तिम चरणको कविने कई बार पढ़ा और अनुभव किया कि बृद्धा वस्थामें हम सबकी ऐसो हो हालत होती है। अतः आत्मोत्यानकी ओर प्रवृत्त होना चाहिए। इस प्रकार कवि भूधरदासका व्यक्तित्व सांसारिकतासे परे, आत्मोन्मुखी है।
इनकी रचनाओं मे इनका समय वि० सं० की १८वीं शती (१७८१) सिद्ध होता है।
महाकवि भूधरदासने पार्व पुराण, जिनातक और पद-साहित्यकी रचना कर हिन्दी साहित्यको समृद्ध बनाया है। इनकी कविता उच्च-कोटिकी होती है।
यह एक महाकाव्य है। इसकी कथा बड़ी हो रोचक और आत्मपोषक है । किस प्रकार वैरकी परम्परा प्राणियों के अनेक जन्म जन्मान्तरों तक चलती रहती है, यह इसमें बड़ी हो खूबीके साथ बतलाया गया है । पार्श्व माथ तीर्थकर होनेके नो भव पूर्व पोदनपुर नगरके राजा अरविन्दके मन्त्री विश्वभूतिके पुत्र थे। उस समय इनका नाम मरुभूति और इनके भाईका नाम कमठ था । विश्वभूतिके दीक्षा लेने के अनन्तर दोनों भाई राजाके मन्त्री हुए और जब राजा अरविन्दने बचकोतिपर चढ़ाई की, तो कुमार मरुभूति इनके साथ युद्धक्षेत्र में आया । कमठने राजधानी में अनेक अपद्रव मचाये और अपने छोटे भाईकी पत्नी के साथ दुराचार किया ! जब राजा अत्रुको परास्त कर राज पानी में आया, तो कमठके कुकृत्यको बात सुनकर उसे बड़ा दुःख हुआ। कमठका काला मुंह कर गदहेपर चढ़ा सारे नगरमें घुमाया और नगरकी सीमासे बाहर कर दिया । आत्म-प्रताड़नासे पीडित कमठ भूताचल पर्वतपर आकर तपस्वियों के साथ रहने लगा। मरुभूति कमठके इस समाचारको प्राप्त कर भूताचलपर गया और वहाँ दुष्ट कमठने उसकी हत्या कर दी। इसके बाद कविने आठ जन्मों की कथा अंकित की है। नवें जन्ममें काशी विश्वसेन राजाके यहाँ पाश्व नाथका जन्म होता है। पार्व आजन्म ब्रह्मचारी रहकर आत्मसाधना करते हैं । वे तीर्थकर बन जाते हैं। मिठका भीष उनी न करता है। पर पार्श्वनाथ अपनी साधनासे विचलित नहीं होते । केवलज्ञान प्राप्त होने पर वे प्राणियोंको धर्मोपदेश देते हैं और अन्त में सम्मेदाचलसे निर्वाण प्राप्त करते हैं।
नायक पाश्चनाथका जीवन अपने समयके समाजका प्रतिनिधित्व करता हमा लोक-मंगलकी रक्षाके लिए बढ़परिकर है। कविने कथामें क्रमबद्धताका पुरा निर्वाह किया है। मानवता और युगभावनाका प्राधान्य सर्वत्र है पर स्थित्ति-निर्माणमें पूर्वके नौ भबोंकी कथा जोड़कर कविने पूरी सफलता प्राप्त की है। जीवनका इतना सर्वांगीण और स्वस्थ विवेचन एकाध महाकाव्य में हो मिलेगा। इसमें एक व्यक्तिका जीवन अनेक अवस्थाओं और व्यक्तियोंके बीच अंकित हुआ है। अतः इसमें मानवके रागद्वेषों की कीड़ाके लिए विस्तृत क्षेत्र है । मनुष्यका ममत्व अपने परिवार के साथ कितना अधिक रहता है, यह पाश्व नाथके जीव मरुभूतिके चरित्रसे स्पष्ट है।
वस्तुव्यापार-वर्णन, घटना-विधान और दृश्य-योजनाओं की दृष्टिसे भी यह काव्य सफल है। कवि जीवनके सत्यको काव्यके माध्यमसे श्यक्त करता हुआ कहता है
बालक-काया कंपल लोम । पत्ररूप - जीवन में होय ।
पाको पात जरा तन करै । काल-बयारि चलत पर झरै ।।
मरन-दिवसको नेम न कोय । यात कछु सुधि पर न लोय ।।
एक नेम यह तो परमान । जन्म धरै सो मरे निदान ।।४।६५-६७
अर्थात् किशोरावस्था कोंपलके तुल्य है। इसमें पत्रस्वरूप यौवन अवस्था है। पत्तोंका पक जाना जरा है । मृत्युरूपी बायु इस पके पत्तेको अपने एक हल्के धक्के से ही गिरा देती है। जब जीवन में मृत्यु निश्चित है तो हमें अपनी महायात्राके लिए पहलेसे तैयारी करनी चाहिए।
जीवनका अन्तदर्शन ज्ञान-दीपके द्वारा ही संभव है, पर इस शानदीपमें तपरूपी तेल औरस्वात्मानुभवरूपी बत्तीका रहना अनिवार्य है।
ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर पोधे भ्रम छोर ।
या विधि बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब चोर ।।४।८१
कविने इस कान्यकी समाप्ति वि० सं० १७८९ आषाढ़ शुक्ला पंचमीको की है।'
इस रचनामें १०७ कवित्त, दोहे, सवैये और छप्पय हैं। कांचने वैराग्य-बीवनके विकासके लिए इस रचनाका प्रणयन किया है। बुद्धा वस्था, संसारकी असारता, काल सामर्थ्य, स्वार्थपरता, दिगम्बर मुनियोंकी तपस्या, आशा-तुष्णाकी नग्नता आदि विषयोंका निरूपण बड़े ही अद्भुत बंगसे किया है । कवि जिस तब्यका प्रतिपादन करना चाहता है उसे स्पष्ट और निर्भय होकर प्रतिपादित करता है। नीरस और गूढ़ विषयोका निरूपण भी सरस एवं प्रभावोत्पादक शैली में किया गया है। कल्पना, मावना और विचारोंका समन्वय सन्तुलित रूपमें इत्या है । आत्म-सौन्दर्यका पर्शन कर कवि कहता है कि संसारके भोगोंमें लिप्त प्राणी अहर्निश विचार करता रहता है कि जिस प्रकार मौ संभव हो उस प्रकार में धन एकत्र कर आनन्द भोगे । मानव नाना प्रकारके सुनहले स्वप्न देखता है और विचारता है कि धन प्राप्त होनेपर संसारके समस्त अभ्युदयजन्य कार्यों को सम्पन्न करूंगा, पर उसकी घनाजनकी यह अभिलाषा मृत्युके कारण अधूरी ही रह जाती है । यथा
चाहत है धन होय किसी विध, तो सब काज करे जिय राजी ।
मेह चिनाय करू गहना कछु, व्याहि सुता सुत बौटिय भाजी ।।
चिन्तत यो दिन जाहि चले, जम मानि अचानक देत दगाजी ।
खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रूपी शतरंजकी बाजी ॥
इस संसारमें मनुष्य आत्मज्ञानसे विमुख होकर शरीरकी सेवा करता है। शरीरको स्वच्छ करने में अनेक साबुनको बट्टियां रगड़ डालता है और अनेक तेलकी शीशियो खाली कर डालता है। फैशनके अनेक पदार्थोंका उपयोग शारीरिक सौन्दर्य, प्रसाधनमें करता है, प्रतिदिन रग-रगड़कर शरीरको साफ करता है। इत्र और सेण्टोंका व्यवहार करता है। प्रत्येक इन्द्रियको तप्तिके लिए अनेक पदार्थो का संचय करता है। इस प्रकारसे मानवको दृष्टि अनात्मिक हो रही है। वह शरीरको ही सब कुछ समझ गया । कवि भूधरदासने अपने अन्तस्में उसी सत्यका अनुभव कर जगतके मानवोंको सजग करते हुए. कहा है--
मात-पिता-रज-बीरज सौं, उपजी सब सात कुधाल भरी है |
माखिमके पर माफिक बाहर, चामके बेठन बेढ़ घरी है ।।
नाहि तो आप लगे अबहीं, बक वायस जीव बचे न धरी है।
देह दशा ग्रह दोखत भ्रात, पिनात नहीं किन बुद्धि हगे है ।।
इस प्रकार कविने इस शतकमें अनात्मिक दृष्टिको दूर कर आत्मिक दृष्टि स्थापित करनेका प्रयास किया है।
महाकवि भूधरदासकी तीसरी रचना पद-संग्रह है । इनके पदोंको-१. स्तुतिपरक, २. जीवके अज्ञानावस्थाके कारण परिणाम और विस्तार सूचक, ३. आराध्यकी शरणके दृढ़ विश्वास सूचक, ४. अध्यात्मोपदेशी, ५, ससार और शरीरसे.विरक्ति उत्पादक, ६, नाम स्मरणके महत्त्व द्योतक और ७. मनुष्य स्वके पूर्ण अभिव्यजक इन सात वर्ग में विभवन निगामा: काला है : इन सभी प्रकारके पदोंमें शाब्दिक कोमलता, भावोंकी मादकता और कल्पनाओंक। इन्द्रजाल समन्त्रित रूपमें विद्यमान है | इनके पोंमें राग-विगगका गंगा-यमुनी संगम होनेपर भी शृंगारिकता नहीं है | कई पद सूरदासके पदोंके समान दृष्टि कूट भी हैं। जगत्-जन जुभा हार चले'' पदमें भाषाकी लाक्षणिकता और काव्याक्तियोंकी विदायता पूर्णतया समाविष्ट है । "सुनि ठपनी माया । तें सब जग ठग वाया" पद कवीरके "माया महा रुगनी हम जानी" पदसे समकक्षता रखता है। इसी प्रकार "भगवन्त भजन क्यों भूला रे। यह ससार रेनका सुपना, तन धन वारि बबूला रे" पद "भजु मन जोवन नाम सबेरा" कबीरके पदके समकक्ष है | "चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पुराना' आदि आध्यात्मिक पद कबारके "चरखा चलै सुरत विरहिन का" पदके तुल्य है। इस प्रकार भधरदासके पद जीवन में आस्था, विश्वासकी भावना जागृत करते हैं।
Acharyatulya Mahakavi Bhudhardas 18th Century (Prachin)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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