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#Dhananjay(Prachin)AcharyatulyaMahakavi
महाकवि धनञ्जयके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें विशेष तथ्योंकी जानकारी उपलब्ध नहीं है । द्विसन्धानमहाकायके अन्तिम पद्यकी व्याख्यामें टोकाकारने इनके पिताका नाम वसुदेव, माताका नाम श्रीदेवी और गरुका नाम दशरथ सूचित किया है। कवि गृहस्थधर्म और गृहस्थोचित पदकाँका पालन करता था | इनके विषापहारस्तोत्रके सम्बन्धमें कहा जाता है कि कविके पुत्रको सर्प ने ईंस लिया था, अतः सर्पविषको दूर करनेके लिये ही इस स्तोत्रको रचना की गयी है।
गरु | दशरथ |
कविके स्थितिकालके सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। इनका समय डॉ. के० बी० पाठकने ई सन् ११२३-१९४७ ई० के मध्य माना है। डॉ.ए. बी कोयने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहासमें धनञ्जयका समय पाठक द्वारा अभिमत हो स्वीकार किया है। पर धनञ्जयका समय ई० सन् १२वीं शती नहीं है । यत: इनके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख अचार्य प्रभाचन्द्रने अपने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में किया है । प्रभाचन्द्र का समय ई सन् ११वीं शतोका पूर्वार्द्ध है। अतएव धनञ्जय सुनिश्चितरूपसे प्रभाचन्द्र के पूर्ववर्ती हैं।
वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरित' महाकाव्यमें द्विसन्धानमहाकाव्यके रचयिता धननयका निर्देश किया है और वादिराजका समय १०२५ ई० है । अतएव धनञ्जयका समय इनसे पूर्व मानना होगा । वादिराजने लिखा है
अनेक भेदसन्धाना: खनन्तो हृदये मुहः ।
वाणा धनन्जयोन्मुक्ता कर्णस्येव प्रियाः कथम् ।।
पाश्वं श२६ जहणने राजशेखरके नामसे सूक्तिमुकावलीमें धनन्जयको नाममालाके निम्नलिखित श्लोकको उद्धृत किया है
द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनजयः ।
यथा जातं फलं तस्य स तो चक्रे धनन्जयः ।।
यह राजशेखर काव्यमीमांसाके रचयिता राजशेखर ही हैं | इनका समय १०वीं शती सुनिश्चित है। अतः धनन्जयका समय १०वीं शती के पूर्व होना डॉ.हीरालालजीने 'षट्खण्डागम' प्रथम भागको प्रस्तावनामें यह सूचित किया है कि जिनसेनके गुरु बीरसेन स्वामीने धवलाटीकामें अनेकार्थनाममाला का निम्नलिखित श्लोक प्रमाणरूपमें उद्धृत किया है
हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यये ।
प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः ।।
धवलाटीका वि सं०८०५-८७३ (ई० सन् ७४८-८१३) में समाप्त हुई थी। अतः धनञ्जयका समय ९वीं शतीके उपरान्त नहीं हो सकता।धनन्जयने अपनी नाममालामें 'प्रमाणमकलस्य' पद्यमें अकलंकका निर्देश किया है। अतएव चे अकलंकके पूर्ववर्ती भो नहीं हो सकते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणोंके आधार पर धनजयका समय अकलंकदेवके पश्चात् और धवलाटीकाकार वीरसेनके पूर्व होनेसे ई० सन् की ८वीं शतीके लगभग है ।
१. अनझायनिघण्टु या नाममाला
छात्रोपयोगी २०० पद्योंका शब्दकोश है। इस छोटे से कोशमें बड़े ही कौशलसे संस्कृत-भाषाके आवश्यक पर्याय शब्दोंका चयनकर गागरमें सागर भरनेकी कहावत चरितार्थ की है। इस कोशमें कुल १७०० शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। शब्दसे शब्दान्तर बनानेकी प्रक्रिया भी अद्वितीय है । यथा--पृथ्वी के आगे 'घर' शब्द या परके पर्यायवाची शब्द जोड़ देने से पर्वतके नाम; 'पति' शब्द या पतिके समानार्थक स्वामिन् आदि जोड़ देनेसे राजाके नाम एवं 'सह' शब्द जोड़ देनेसे वृक्षके नाम हो जाते हैं।
इस नाममालाके साथ १६ लोक प्रमाण एक अनेकार्थनाममाला भी सम्मिलित है । इसमें एक शब्दके अनेकार्थीका कथन किया गया है।
२. विषापहारस्तोत्र-
भक्तिपूर्ण ३९ इन्द्रवजा वृत्तोंमें लिखा गया स्तुति परक काव्य है। इस स्तोत्रपर वि० सं०१६वीं शतीकी लिखी पार्श्वनाथ के पुत्र नागचन्द्रकी संस्कृतटीका भी है । अन्य संस्कृतटीकाएं भी पायी जाती है।
३. सिन्धानमहाकाव्य-
सन्धानशैलीका यह सर्वप्रथम संस्कृतकाब्य है। कविने आद्यन्त राम और कृष्ण चरितोंका निर्वाह सफलताके साथ किया है। इस पर विनयचन्द्रपण्डितके प्रशिष्य और देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र, रामभट्टके पुत्र देवचट एवं बदरीको संस्कृतटीकाएँ भी उपलब्ध हैं।
यह महाकाव्य १८ सर्गों में विभक्त है। इसका दूसरा नाम राघव-पाण्ड बीय भी है। एक साथ रामायण और महाभारसकी कथा कुशलतापूर्वक निबद्ध की गयी है । प्रत्येक श्लोकके दो-दो अर्थ हैं। प्रथम अर्थसे रामचरित निकलता है और दूसरे अर्थस कृष्णचरित । कविने सन्धान-विधामें भी काब्ध तत्त्वोंका समावेश आवश्यक माना है
चिरन्तने वस्तुनि गच्छति स्पृहां विभाध्यमानोऽभिनवनवप्रियः ।
रसान्त श्चित्तरंजनोऽन्धसि प्रयोगरम्य रुपदंशकैरिव ।।३।।
स जातिमाों रचना च साकृतिस्तदेव सूत्रं सकलं पुरातनम् ।
बित्तिता केवलमक्षरैः कृतिनं कन्चुकश्रीरिब वयं मृच्छति ॥४||
कवेरपार्था मधुरा न भारती कथेच कर्णान्तमुपैति भारती ।
तनोति सालतिलक्षणान्विता सता मुदं दाशरथेर्यथा तनुः ।।५।।
अर्थात् चित्तके लिये आकर्षक तथा क्रमानुसार विकसित, फलत: नवीनशृंगार आदि रसों, तथा शब्दालंकार और अर्थालंकारोंसे युक्त, सुन्दर बों द्वारा मुम्फित रचना प्राचीन होने पर भी आनन्दाद होता है।
उपजाति आदि छन्द रहते हैं, पद-वाक्यविन्याम भी पूर्वपरम्परागत होता है, गद्य-पद्यमय हो आकार रहता है और सबने मन वहीं पुराने बलं. कारनियम रजते हैं। तो भी केबल अक्षरोंके बिन्यासको बदल देनेसे ही रचना सुन्दर हो जाती है।
जो वाणी अर्थयुक्त, माधुर्यादि गुगोसे समन्वित, बालंकारशास्त्र और व्याकरण के नियमों से युक्त होती है, वही सज्जनोंको प्रमुदित करती है।
इस प्रकार कवि धनजयने सन्धानकाव्य में भी काब्योचित गुणांको आव श्यक माना है और उनका प्रयोग भी किया है।
प्रस्तुत काव्य में राम और कृष्णके साथ पाण्डवोंका भी इतिवृत्त आया है | कामना आरम्भ तीर्थंकरोंकी बन्दनासे हुआ है, इतिवृत्त पुराणप्रसिद्ध है, मन्त्रणा, दूत प्रेषण, युद्धवर्णन, नगरवर्णन, समुद्र, पर्वत, ऋतू, चन्द्र, सर्य, पादप, उद्यान, जलक्रीड़ा, पुष्पावनम, सुरतोत्सब आदिका चित्रण है । कथा मकमें हर्ष, गोक, क्रोध, भय, ईष्यो, घृणा आदि भाबोंका संयोजन हुवा है । शाब्दी क्रीड़ाके रहने पर भी रसका वैशिष्ट्य बर्तमान है। महत्कार्य और महतुउद्देश्यका निर्वाह भी किया गया है । कबिने किसी भी अस्वागविक घटना को स्थान नहीं दिया है। विवाह, बुमारकीड़ा, युवराजावस्था, पारिवारिक कलह, दासियोंकी बाचलता आदिका भी चित्रण किया है। कविने शृंगार. वीर, भयानक और वीभत्श रसका सम्यक परिपाक दिखलाया है । यहाँ उदा हरणार्थ भयानकरसके कुछ पद्म प्रस्तुत किये जाते हैं
पत्तविनादेन भुजङ्गयोषितां गपात गर्भः किल तार्यशङ्कया।
नभश्चरा निश्चितमन्त्रसाधना वने भयेनास्यपगारमुद्यताः ।।१६।।
समन्ततोऽभ्युदयत्तधूमकेतवः स्थितोवंबाला इव तन्त्रदिशः ।
निपेतुमल्लकाः कलमानपिङ्गला यमस्य लम्बाः कुटिला जटा इव' 1३१७||
राधव-पाण्डवगजाओंके पराक्रमपूर्ण युद्धका आतंक सर्वत्र छा गया। जनके वाणको टंकारसे गरुडको ध्वनिका भय हो जानेरो नागपत्नियोंके गर्भपात हो गये । स्वेचर भविह्वल हो स्तब्ध हो गये । वे तलवारको म्यानसे निकाल न सके और उन्हें यह विश्वास हो गया कि वे मन्त्रबल से हो सफल हो सकते हैं। युद्धकी भीषणतासे दशों दिशाएँ ऐसी भीत हो गयी थीं, जैसे कि चारोंओरसे धूमकेतु छा जाने पर होता है और उनके बाल खड़े हो जाते हैं । सहस्र संघर्षसे उत्पन्न पके धान्यकी बालोंके समान धूसर रंगकी बिजलियां गिर रही थीं, जो यमकी लम्बा और टेढी जटाके समान प्रतीत होती थीं।
कबिने १।२६, १२, १२२, १३२४, २२१, ३।४०, ५.३६, ५/६०, और ६।२ में उपमाकी योजना की है । १।१५ में उत्प्रेक्षा, १।१४ में विरोधाभास, १।४८ में परिसंख्या, १५ में वक्रोक्ति, २।१४ में आक्षेप, २०१५ में अतिशयोक्ति, ३३३४ में निश्चय और रा१० में समुच्च अलंकारकारका प्रयोग किया है । तथा वशंस्थ, वसन्ततिलका, वैश्वदेवी, उपजाति, शालिनी, पुष्पिताग्रा, मत्तमयूर हरिणो, बेतालीय, प्रहर्षिणी, स्वागता, द्रुतविलम्बित, मालिनी, अनुष्टुप, शार्दूलविक्रीडित, जलचरमाला, रथोद्धता, वंशपत्रपतित, इन्द्रबन्ना, जलोद्धत. गति अनुकूला, तोटक, प्रमिताक्षरा, अउप छन्दसिक, शिखरिणी, अपटवन प्रमुदितबदना, मन्दाक्रान्ता, पृथ्वी, उद्गता और इन्द्रबंशा इस प्रकार ३१ प्रकारके छन्दोंकी योजना की है।
हल द्विसमका -में श्रामण, राजनीति, सामद्रिकशास्त्र, लिपिशास्त्र, गणितशास्त्र एवं ज्योतिष आदि विषयोंकी चर्चाएं भी उपलब्ध है। यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं
पदग्नयोगे निपुणं विनामे सन्धी विसमें च कृतावधानम् ।
सर्वेषु शास्त्रेषु जितश्रम तच्चापेऽपि न व्याकरणं मुमोच ।।३।३६
अर्थात् शब्द और धातुरूपोंके प्रयोगमें निपुण, धत्व-गत्वकरण, सन्धि तथा विसर्गका प्रयोग करने में न चूकनेवाले और समस्त शास्त्रोंके परिश्रम पूर्वक अध्येता वैधाकरण व्याकरणके अध्ययन के समान चापविद्या में भी बना व्याकरणको नहीं छोड़ते हैं।
विश्लेषणं वेत्ति न सन्धिकार्य स विग्रहं नैव समस्तसंस्थाम् ।
प्रागेव वेवेक्ति न तद्धितार्थ शब्दागमे प्राथमिकोऽभवता ।।५।१०
व्याकरणशास्त्रका प्रारम्भिक छात्र विसन्धि–सन्धिहीन अलग-अलग पदोंका प्रयोग करता है, क्योंकि सन्धि करना नहीं जानता है। केवल विग्रह पदोंका अर्थ करता है 1 कृदन्त आदि अन्य कार्य नहीं जानता है और न तद्धित ही जानता है। आगमोंका अभ्यासी भी कार्यविशेषका विचारक बन व्यापक सामान्यको भूलता है, विवाद करता है । समन्वय नहीं सोचता है और अभ्यु दय-निःश्रेयसके लिये प्रयत्न नहीं करता है !
धनब्जयने व्याकरणशास्त्रका पूर्ण पाण्डित्य प्रदर्शित करनेके लिये अपवाद सूत्र और विधिसूत्रोंका भी कथन किया है
विशेषसुरिव पत्रिभिस्तयोः पदातिरुत्सर्ग इवाहतोऽखिल: ।।६।१० ध्याकरणमें दो प्रकारके सूत्र हैं—अपवादसूत्र या विशेषसूत्र और उत्सर्ग सूत्र या विधिसूत्र । विधिसत्रों द्वारा शब्दोंका नियमन किया जाता है और अपवादसूत्रों द्वारा नियमका निषेध कर, अन्य किसी विशेषसूत्रको प्रवृत्ति दिखलायी जाती है। ब्याकरणमें धातुपाठ, गणपाठ, उणादि और लिङ्गानु शासन ये चार खिलपाठ भी होते हैं। धातुपाठ व्याकरणका एक उपयोगी अंश हैं, सार्थ धातु-परिज्ञानके अभावमें व्याकरण अधूरा ही रहता है। जितने शब्दसमूहमें व्याकरणाका एक नियम लागू होता है, उतने शब्दसमूहको गण कहते हैं। उणसूत्रका आरम्भ होनेसे उणादि कहलाते हैं। जिन शब्दोंकी सिद्धि व्याकरण के अन्य नियमोंसे नहीं होती है, वे शब्द उणादि सूत्रोंसे सिद्ध किये जाते हैं। लिङ्गानुशासन द्वारा शब्दोंके लिङ्गका निर्णय किया जाता है। इस प्रकार महाकवि धनञ्जयने व्याकरणशास्त्रके नियमोंका समावेश किया है।
सामुद्रिकशास्त्रमें भ्र, नेत्र, नासिका, कपोल, कर्ण, औष्ठ, स्कन्ध, बाहु, पाणि, स्तन, पार्व, उछ, जंघा और पाद इन १४ अंगों में समत्व रहना शुभ माना जाता है। धनञ्जयने महापुरुषों के लक्षणों में उक्त अंगोंके समत्वकी चर्चा निम्न प्रकार की है
चतुर्दशद्वन्द्वसमानदेहः सर्वेषु शास्त्रेषु कृतावतारः । ३।३३
अतएव द्विसन्धानमहाकाव्य शास्त्र और काव्य दोनों ही दृष्टियोंसे महत्त्व पूर्ण है।
महाकवि धनञ्जयके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें विशेष तथ्योंकी जानकारी उपलब्ध नहीं है । द्विसन्धानमहाकायके अन्तिम पद्यकी व्याख्यामें टोकाकारने इनके पिताका नाम वसुदेव, माताका नाम श्रीदेवी और गरुका नाम दशरथ सूचित किया है। कवि गृहस्थधर्म और गृहस्थोचित पदकाँका पालन करता था | इनके विषापहारस्तोत्रके सम्बन्धमें कहा जाता है कि कविके पुत्रको सर्प ने ईंस लिया था, अतः सर्पविषको दूर करनेके लिये ही इस स्तोत्रको रचना की गयी है।
गरु | दशरथ |
कविके स्थितिकालके सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। इनका समय डॉ. के० बी० पाठकने ई सन् ११२३-१९४७ ई० के मध्य माना है। डॉ.ए. बी कोयने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहासमें धनञ्जयका समय पाठक द्वारा अभिमत हो स्वीकार किया है। पर धनञ्जयका समय ई० सन् १२वीं शती नहीं है । यत: इनके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख अचार्य प्रभाचन्द्रने अपने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में किया है । प्रभाचन्द्र का समय ई सन् ११वीं शतोका पूर्वार्द्ध है। अतएव धनञ्जय सुनिश्चितरूपसे प्रभाचन्द्र के पूर्ववर्ती हैं।
वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरित' महाकाव्यमें द्विसन्धानमहाकाव्यके रचयिता धननयका निर्देश किया है और वादिराजका समय १०२५ ई० है । अतएव धनञ्जयका समय इनसे पूर्व मानना होगा । वादिराजने लिखा है
अनेक भेदसन्धाना: खनन्तो हृदये मुहः ।
वाणा धनन्जयोन्मुक्ता कर्णस्येव प्रियाः कथम् ।।
पाश्वं श२६ जहणने राजशेखरके नामसे सूक्तिमुकावलीमें धनन्जयको नाममालाके निम्नलिखित श्लोकको उद्धृत किया है
द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनजयः ।
यथा जातं फलं तस्य स तो चक्रे धनन्जयः ।।
यह राजशेखर काव्यमीमांसाके रचयिता राजशेखर ही हैं | इनका समय १०वीं शती सुनिश्चित है। अतः धनन्जयका समय १०वीं शती के पूर्व होना डॉ.हीरालालजीने 'षट्खण्डागम' प्रथम भागको प्रस्तावनामें यह सूचित किया है कि जिनसेनके गुरु बीरसेन स्वामीने धवलाटीकामें अनेकार्थनाममाला का निम्नलिखित श्लोक प्रमाणरूपमें उद्धृत किया है
हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यये ।
प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः ।।
धवलाटीका वि सं०८०५-८७३ (ई० सन् ७४८-८१३) में समाप्त हुई थी। अतः धनञ्जयका समय ९वीं शतीके उपरान्त नहीं हो सकता।धनन्जयने अपनी नाममालामें 'प्रमाणमकलस्य' पद्यमें अकलंकका निर्देश किया है। अतएव चे अकलंकके पूर्ववर्ती भो नहीं हो सकते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणोंके आधार पर धनजयका समय अकलंकदेवके पश्चात् और धवलाटीकाकार वीरसेनके पूर्व होनेसे ई० सन् की ८वीं शतीके लगभग है ।
१. अनझायनिघण्टु या नाममाला
छात्रोपयोगी २०० पद्योंका शब्दकोश है। इस छोटे से कोशमें बड़े ही कौशलसे संस्कृत-भाषाके आवश्यक पर्याय शब्दोंका चयनकर गागरमें सागर भरनेकी कहावत चरितार्थ की है। इस कोशमें कुल १७०० शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। शब्दसे शब्दान्तर बनानेकी प्रक्रिया भी अद्वितीय है । यथा--पृथ्वी के आगे 'घर' शब्द या परके पर्यायवाची शब्द जोड़ देने से पर्वतके नाम; 'पति' शब्द या पतिके समानार्थक स्वामिन् आदि जोड़ देनेसे राजाके नाम एवं 'सह' शब्द जोड़ देनेसे वृक्षके नाम हो जाते हैं।
इस नाममालाके साथ १६ लोक प्रमाण एक अनेकार्थनाममाला भी सम्मिलित है । इसमें एक शब्दके अनेकार्थीका कथन किया गया है।
२. विषापहारस्तोत्र-
भक्तिपूर्ण ३९ इन्द्रवजा वृत्तोंमें लिखा गया स्तुति परक काव्य है। इस स्तोत्रपर वि० सं०१६वीं शतीकी लिखी पार्श्वनाथ के पुत्र नागचन्द्रकी संस्कृतटीका भी है । अन्य संस्कृतटीकाएं भी पायी जाती है।
३. सिन्धानमहाकाव्य-
सन्धानशैलीका यह सर्वप्रथम संस्कृतकाब्य है। कविने आद्यन्त राम और कृष्ण चरितोंका निर्वाह सफलताके साथ किया है। इस पर विनयचन्द्रपण्डितके प्रशिष्य और देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र, रामभट्टके पुत्र देवचट एवं बदरीको संस्कृतटीकाएँ भी उपलब्ध हैं।
यह महाकाव्य १८ सर्गों में विभक्त है। इसका दूसरा नाम राघव-पाण्ड बीय भी है। एक साथ रामायण और महाभारसकी कथा कुशलतापूर्वक निबद्ध की गयी है । प्रत्येक श्लोकके दो-दो अर्थ हैं। प्रथम अर्थसे रामचरित निकलता है और दूसरे अर्थस कृष्णचरित । कविने सन्धान-विधामें भी काब्ध तत्त्वोंका समावेश आवश्यक माना है
चिरन्तने वस्तुनि गच्छति स्पृहां विभाध्यमानोऽभिनवनवप्रियः ।
रसान्त श्चित्तरंजनोऽन्धसि प्रयोगरम्य रुपदंशकैरिव ।।३।।
स जातिमाों रचना च साकृतिस्तदेव सूत्रं सकलं पुरातनम् ।
बित्तिता केवलमक्षरैः कृतिनं कन्चुकश्रीरिब वयं मृच्छति ॥४||
कवेरपार्था मधुरा न भारती कथेच कर्णान्तमुपैति भारती ।
तनोति सालतिलक्षणान्विता सता मुदं दाशरथेर्यथा तनुः ।।५।।
अर्थात् चित्तके लिये आकर्षक तथा क्रमानुसार विकसित, फलत: नवीनशृंगार आदि रसों, तथा शब्दालंकार और अर्थालंकारोंसे युक्त, सुन्दर बों द्वारा मुम्फित रचना प्राचीन होने पर भी आनन्दाद होता है।
उपजाति आदि छन्द रहते हैं, पद-वाक्यविन्याम भी पूर्वपरम्परागत होता है, गद्य-पद्यमय हो आकार रहता है और सबने मन वहीं पुराने बलं. कारनियम रजते हैं। तो भी केबल अक्षरोंके बिन्यासको बदल देनेसे ही रचना सुन्दर हो जाती है।
जो वाणी अर्थयुक्त, माधुर्यादि गुगोसे समन्वित, बालंकारशास्त्र और व्याकरण के नियमों से युक्त होती है, वही सज्जनोंको प्रमुदित करती है।
इस प्रकार कवि धनजयने सन्धानकाव्य में भी काब्योचित गुणांको आव श्यक माना है और उनका प्रयोग भी किया है।
प्रस्तुत काव्य में राम और कृष्णके साथ पाण्डवोंका भी इतिवृत्त आया है | कामना आरम्भ तीर्थंकरोंकी बन्दनासे हुआ है, इतिवृत्त पुराणप्रसिद्ध है, मन्त्रणा, दूत प्रेषण, युद्धवर्णन, नगरवर्णन, समुद्र, पर्वत, ऋतू, चन्द्र, सर्य, पादप, उद्यान, जलक्रीड़ा, पुष्पावनम, सुरतोत्सब आदिका चित्रण है । कथा मकमें हर्ष, गोक, क्रोध, भय, ईष्यो, घृणा आदि भाबोंका संयोजन हुवा है । शाब्दी क्रीड़ाके रहने पर भी रसका वैशिष्ट्य बर्तमान है। महत्कार्य और महतुउद्देश्यका निर्वाह भी किया गया है । कबिने किसी भी अस्वागविक घटना को स्थान नहीं दिया है। विवाह, बुमारकीड़ा, युवराजावस्था, पारिवारिक कलह, दासियोंकी बाचलता आदिका भी चित्रण किया है। कविने शृंगार. वीर, भयानक और वीभत्श रसका सम्यक परिपाक दिखलाया है । यहाँ उदा हरणार्थ भयानकरसके कुछ पद्म प्रस्तुत किये जाते हैं
पत्तविनादेन भुजङ्गयोषितां गपात गर्भः किल तार्यशङ्कया।
नभश्चरा निश्चितमन्त्रसाधना वने भयेनास्यपगारमुद्यताः ।।१६।।
समन्ततोऽभ्युदयत्तधूमकेतवः स्थितोवंबाला इव तन्त्रदिशः ।
निपेतुमल्लकाः कलमानपिङ्गला यमस्य लम्बाः कुटिला जटा इव' 1३१७||
राधव-पाण्डवगजाओंके पराक्रमपूर्ण युद्धका आतंक सर्वत्र छा गया। जनके वाणको टंकारसे गरुडको ध्वनिका भय हो जानेरो नागपत्नियोंके गर्भपात हो गये । स्वेचर भविह्वल हो स्तब्ध हो गये । वे तलवारको म्यानसे निकाल न सके और उन्हें यह विश्वास हो गया कि वे मन्त्रबल से हो सफल हो सकते हैं। युद्धकी भीषणतासे दशों दिशाएँ ऐसी भीत हो गयी थीं, जैसे कि चारोंओरसे धूमकेतु छा जाने पर होता है और उनके बाल खड़े हो जाते हैं । सहस्र संघर्षसे उत्पन्न पके धान्यकी बालोंके समान धूसर रंगकी बिजलियां गिर रही थीं, जो यमकी लम्बा और टेढी जटाके समान प्रतीत होती थीं।
कबिने १।२६, १२, १२२, १३२४, २२१, ३।४०, ५.३६, ५/६०, और ६।२ में उपमाकी योजना की है । १।१५ में उत्प्रेक्षा, १।१४ में विरोधाभास, १।४८ में परिसंख्या, १५ में वक्रोक्ति, २।१४ में आक्षेप, २०१५ में अतिशयोक्ति, ३३३४ में निश्चय और रा१० में समुच्च अलंकारकारका प्रयोग किया है । तथा वशंस्थ, वसन्ततिलका, वैश्वदेवी, उपजाति, शालिनी, पुष्पिताग्रा, मत्तमयूर हरिणो, बेतालीय, प्रहर्षिणी, स्वागता, द्रुतविलम्बित, मालिनी, अनुष्टुप, शार्दूलविक्रीडित, जलचरमाला, रथोद्धता, वंशपत्रपतित, इन्द्रबन्ना, जलोद्धत. गति अनुकूला, तोटक, प्रमिताक्षरा, अउप छन्दसिक, शिखरिणी, अपटवन प्रमुदितबदना, मन्दाक्रान्ता, पृथ्वी, उद्गता और इन्द्रबंशा इस प्रकार ३१ प्रकारके छन्दोंकी योजना की है।
हल द्विसमका -में श्रामण, राजनीति, सामद्रिकशास्त्र, लिपिशास्त्र, गणितशास्त्र एवं ज्योतिष आदि विषयोंकी चर्चाएं भी उपलब्ध है। यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं
पदग्नयोगे निपुणं विनामे सन्धी विसमें च कृतावधानम् ।
सर्वेषु शास्त्रेषु जितश्रम तच्चापेऽपि न व्याकरणं मुमोच ।।३।३६
अर्थात् शब्द और धातुरूपोंके प्रयोगमें निपुण, धत्व-गत्वकरण, सन्धि तथा विसर्गका प्रयोग करने में न चूकनेवाले और समस्त शास्त्रोंके परिश्रम पूर्वक अध्येता वैधाकरण व्याकरणके अध्ययन के समान चापविद्या में भी बना व्याकरणको नहीं छोड़ते हैं।
विश्लेषणं वेत्ति न सन्धिकार्य स विग्रहं नैव समस्तसंस्थाम् ।
प्रागेव वेवेक्ति न तद्धितार्थ शब्दागमे प्राथमिकोऽभवता ।।५।१०
व्याकरणशास्त्रका प्रारम्भिक छात्र विसन्धि–सन्धिहीन अलग-अलग पदोंका प्रयोग करता है, क्योंकि सन्धि करना नहीं जानता है। केवल विग्रह पदोंका अर्थ करता है 1 कृदन्त आदि अन्य कार्य नहीं जानता है और न तद्धित ही जानता है। आगमोंका अभ्यासी भी कार्यविशेषका विचारक बन व्यापक सामान्यको भूलता है, विवाद करता है । समन्वय नहीं सोचता है और अभ्यु दय-निःश्रेयसके लिये प्रयत्न नहीं करता है !
धनब्जयने व्याकरणशास्त्रका पूर्ण पाण्डित्य प्रदर्शित करनेके लिये अपवाद सूत्र और विधिसूत्रोंका भी कथन किया है
विशेषसुरिव पत्रिभिस्तयोः पदातिरुत्सर्ग इवाहतोऽखिल: ।।६।१० ध्याकरणमें दो प्रकारके सूत्र हैं—अपवादसूत्र या विशेषसूत्र और उत्सर्ग सूत्र या विधिसूत्र । विधिसत्रों द्वारा शब्दोंका नियमन किया जाता है और अपवादसूत्रों द्वारा नियमका निषेध कर, अन्य किसी विशेषसूत्रको प्रवृत्ति दिखलायी जाती है। ब्याकरणमें धातुपाठ, गणपाठ, उणादि और लिङ्गानु शासन ये चार खिलपाठ भी होते हैं। धातुपाठ व्याकरणका एक उपयोगी अंश हैं, सार्थ धातु-परिज्ञानके अभावमें व्याकरण अधूरा ही रहता है। जितने शब्दसमूहमें व्याकरणाका एक नियम लागू होता है, उतने शब्दसमूहको गण कहते हैं। उणसूत्रका आरम्भ होनेसे उणादि कहलाते हैं। जिन शब्दोंकी सिद्धि व्याकरण के अन्य नियमोंसे नहीं होती है, वे शब्द उणादि सूत्रोंसे सिद्ध किये जाते हैं। लिङ्गानुशासन द्वारा शब्दोंके लिङ्गका निर्णय किया जाता है। इस प्रकार महाकवि धनञ्जयने व्याकरणशास्त्रके नियमोंका समावेश किया है।
सामुद्रिकशास्त्रमें भ्र, नेत्र, नासिका, कपोल, कर्ण, औष्ठ, स्कन्ध, बाहु, पाणि, स्तन, पार्व, उछ, जंघा और पाद इन १४ अंगों में समत्व रहना शुभ माना जाता है। धनञ्जयने महापुरुषों के लक्षणों में उक्त अंगोंके समत्वकी चर्चा निम्न प्रकार की है
चतुर्दशद्वन्द्वसमानदेहः सर्वेषु शास्त्रेषु कृतावतारः । ३।३३
अतएव द्विसन्धानमहाकाव्य शास्त्र और काव्य दोनों ही दृष्टियोंसे महत्त्व पूर्ण है।
#Dhananjay(Prachin)AcharyatulyaMahakavi
आचार्यतुल्य श्री १०८ महाकवि धनंजय
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 03 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
महाकवि धनञ्जयके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें विशेष तथ्योंकी जानकारी उपलब्ध नहीं है । द्विसन्धानमहाकायके अन्तिम पद्यकी व्याख्यामें टोकाकारने इनके पिताका नाम वसुदेव, माताका नाम श्रीदेवी और गरुका नाम दशरथ सूचित किया है। कवि गृहस्थधर्म और गृहस्थोचित पदकाँका पालन करता था | इनके विषापहारस्तोत्रके सम्बन्धमें कहा जाता है कि कविके पुत्रको सर्प ने ईंस लिया था, अतः सर्पविषको दूर करनेके लिये ही इस स्तोत्रको रचना की गयी है।
गरु | दशरथ |
कविके स्थितिकालके सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। इनका समय डॉ. के० बी० पाठकने ई सन् ११२३-१९४७ ई० के मध्य माना है। डॉ.ए. बी कोयने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहासमें धनञ्जयका समय पाठक द्वारा अभिमत हो स्वीकार किया है। पर धनञ्जयका समय ई० सन् १२वीं शती नहीं है । यत: इनके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख अचार्य प्रभाचन्द्रने अपने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में किया है । प्रभाचन्द्र का समय ई सन् ११वीं शतोका पूर्वार्द्ध है। अतएव धनञ्जय सुनिश्चितरूपसे प्रभाचन्द्र के पूर्ववर्ती हैं।
वादिराजने अपने पार्श्वनाथचरित' महाकाव्यमें द्विसन्धानमहाकाव्यके रचयिता धननयका निर्देश किया है और वादिराजका समय १०२५ ई० है । अतएव धनञ्जयका समय इनसे पूर्व मानना होगा । वादिराजने लिखा है
अनेक भेदसन्धाना: खनन्तो हृदये मुहः ।
वाणा धनन्जयोन्मुक्ता कर्णस्येव प्रियाः कथम् ।।
पाश्वं श२६ जहणने राजशेखरके नामसे सूक्तिमुकावलीमें धनन्जयको नाममालाके निम्नलिखित श्लोकको उद्धृत किया है
द्विसन्धाने निपुणतां सतां चक्रे धनजयः ।
यथा जातं फलं तस्य स तो चक्रे धनन्जयः ।।
यह राजशेखर काव्यमीमांसाके रचयिता राजशेखर ही हैं | इनका समय १०वीं शती सुनिश्चित है। अतः धनन्जयका समय १०वीं शती के पूर्व होना डॉ.हीरालालजीने 'षट्खण्डागम' प्रथम भागको प्रस्तावनामें यह सूचित किया है कि जिनसेनके गुरु बीरसेन स्वामीने धवलाटीकामें अनेकार्थनाममाला का निम्नलिखित श्लोक प्रमाणरूपमें उद्धृत किया है
हेतावेवं प्रकाराद्यैः व्यवच्छेदे विपर्यये ।
प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः ।।
धवलाटीका वि सं०८०५-८७३ (ई० सन् ७४८-८१३) में समाप्त हुई थी। अतः धनञ्जयका समय ९वीं शतीके उपरान्त नहीं हो सकता।धनन्जयने अपनी नाममालामें 'प्रमाणमकलस्य' पद्यमें अकलंकका निर्देश किया है। अतएव चे अकलंकके पूर्ववर्ती भो नहीं हो सकते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणोंके आधार पर धनजयका समय अकलंकदेवके पश्चात् और धवलाटीकाकार वीरसेनके पूर्व होनेसे ई० सन् की ८वीं शतीके लगभग है ।
१. अनझायनिघण्टु या नाममाला
छात्रोपयोगी २०० पद्योंका शब्दकोश है। इस छोटे से कोशमें बड़े ही कौशलसे संस्कृत-भाषाके आवश्यक पर्याय शब्दोंका चयनकर गागरमें सागर भरनेकी कहावत चरितार्थ की है। इस कोशमें कुल १७०० शब्दों के अर्थ दिये गये हैं। शब्दसे शब्दान्तर बनानेकी प्रक्रिया भी अद्वितीय है । यथा--पृथ्वी के आगे 'घर' शब्द या परके पर्यायवाची शब्द जोड़ देने से पर्वतके नाम; 'पति' शब्द या पतिके समानार्थक स्वामिन् आदि जोड़ देनेसे राजाके नाम एवं 'सह' शब्द जोड़ देनेसे वृक्षके नाम हो जाते हैं।
इस नाममालाके साथ १६ लोक प्रमाण एक अनेकार्थनाममाला भी सम्मिलित है । इसमें एक शब्दके अनेकार्थीका कथन किया गया है।
२. विषापहारस्तोत्र-
भक्तिपूर्ण ३९ इन्द्रवजा वृत्तोंमें लिखा गया स्तुति परक काव्य है। इस स्तोत्रपर वि० सं०१६वीं शतीकी लिखी पार्श्वनाथ के पुत्र नागचन्द्रकी संस्कृतटीका भी है । अन्य संस्कृतटीकाएं भी पायी जाती है।
३. सिन्धानमहाकाव्य-
सन्धानशैलीका यह सर्वप्रथम संस्कृतकाब्य है। कविने आद्यन्त राम और कृष्ण चरितोंका निर्वाह सफलताके साथ किया है। इस पर विनयचन्द्रपण्डितके प्रशिष्य और देवनन्दिके शिष्य नेमिचन्द्र, रामभट्टके पुत्र देवचट एवं बदरीको संस्कृतटीकाएँ भी उपलब्ध हैं।
यह महाकाव्य १८ सर्गों में विभक्त है। इसका दूसरा नाम राघव-पाण्ड बीय भी है। एक साथ रामायण और महाभारसकी कथा कुशलतापूर्वक निबद्ध की गयी है । प्रत्येक श्लोकके दो-दो अर्थ हैं। प्रथम अर्थसे रामचरित निकलता है और दूसरे अर्थस कृष्णचरित । कविने सन्धान-विधामें भी काब्ध तत्त्वोंका समावेश आवश्यक माना है
चिरन्तने वस्तुनि गच्छति स्पृहां विभाध्यमानोऽभिनवनवप्रियः ।
रसान्त श्चित्तरंजनोऽन्धसि प्रयोगरम्य रुपदंशकैरिव ।।३।।
स जातिमाों रचना च साकृतिस्तदेव सूत्रं सकलं पुरातनम् ।
बित्तिता केवलमक्षरैः कृतिनं कन्चुकश्रीरिब वयं मृच्छति ॥४||
कवेरपार्था मधुरा न भारती कथेच कर्णान्तमुपैति भारती ।
तनोति सालतिलक्षणान्विता सता मुदं दाशरथेर्यथा तनुः ।।५।।
अर्थात् चित्तके लिये आकर्षक तथा क्रमानुसार विकसित, फलत: नवीनशृंगार आदि रसों, तथा शब्दालंकार और अर्थालंकारोंसे युक्त, सुन्दर बों द्वारा मुम्फित रचना प्राचीन होने पर भी आनन्दाद होता है।
उपजाति आदि छन्द रहते हैं, पद-वाक्यविन्याम भी पूर्वपरम्परागत होता है, गद्य-पद्यमय हो आकार रहता है और सबने मन वहीं पुराने बलं. कारनियम रजते हैं। तो भी केबल अक्षरोंके बिन्यासको बदल देनेसे ही रचना सुन्दर हो जाती है।
जो वाणी अर्थयुक्त, माधुर्यादि गुगोसे समन्वित, बालंकारशास्त्र और व्याकरण के नियमों से युक्त होती है, वही सज्जनोंको प्रमुदित करती है।
इस प्रकार कवि धनजयने सन्धानकाव्य में भी काब्योचित गुणांको आव श्यक माना है और उनका प्रयोग भी किया है।
प्रस्तुत काव्य में राम और कृष्णके साथ पाण्डवोंका भी इतिवृत्त आया है | कामना आरम्भ तीर्थंकरोंकी बन्दनासे हुआ है, इतिवृत्त पुराणप्रसिद्ध है, मन्त्रणा, दूत प्रेषण, युद्धवर्णन, नगरवर्णन, समुद्र, पर्वत, ऋतू, चन्द्र, सर्य, पादप, उद्यान, जलक्रीड़ा, पुष्पावनम, सुरतोत्सब आदिका चित्रण है । कथा मकमें हर्ष, गोक, क्रोध, भय, ईष्यो, घृणा आदि भाबोंका संयोजन हुवा है । शाब्दी क्रीड़ाके रहने पर भी रसका वैशिष्ट्य बर्तमान है। महत्कार्य और महतुउद्देश्यका निर्वाह भी किया गया है । कबिने किसी भी अस्वागविक घटना को स्थान नहीं दिया है। विवाह, बुमारकीड़ा, युवराजावस्था, पारिवारिक कलह, दासियोंकी बाचलता आदिका भी चित्रण किया है। कविने शृंगार. वीर, भयानक और वीभत्श रसका सम्यक परिपाक दिखलाया है । यहाँ उदा हरणार्थ भयानकरसके कुछ पद्म प्रस्तुत किये जाते हैं
पत्तविनादेन भुजङ्गयोषितां गपात गर्भः किल तार्यशङ्कया।
नभश्चरा निश्चितमन्त्रसाधना वने भयेनास्यपगारमुद्यताः ।।१६।।
समन्ततोऽभ्युदयत्तधूमकेतवः स्थितोवंबाला इव तन्त्रदिशः ।
निपेतुमल्लकाः कलमानपिङ्गला यमस्य लम्बाः कुटिला जटा इव' 1३१७||
राधव-पाण्डवगजाओंके पराक्रमपूर्ण युद्धका आतंक सर्वत्र छा गया। जनके वाणको टंकारसे गरुडको ध्वनिका भय हो जानेरो नागपत्नियोंके गर्भपात हो गये । स्वेचर भविह्वल हो स्तब्ध हो गये । वे तलवारको म्यानसे निकाल न सके और उन्हें यह विश्वास हो गया कि वे मन्त्रबल से हो सफल हो सकते हैं। युद्धकी भीषणतासे दशों दिशाएँ ऐसी भीत हो गयी थीं, जैसे कि चारोंओरसे धूमकेतु छा जाने पर होता है और उनके बाल खड़े हो जाते हैं । सहस्र संघर्षसे उत्पन्न पके धान्यकी बालोंके समान धूसर रंगकी बिजलियां गिर रही थीं, जो यमकी लम्बा और टेढी जटाके समान प्रतीत होती थीं।
कबिने १।२६, १२, १२२, १३२४, २२१, ३।४०, ५.३६, ५/६०, और ६।२ में उपमाकी योजना की है । १।१५ में उत्प्रेक्षा, १।१४ में विरोधाभास, १।४८ में परिसंख्या, १५ में वक्रोक्ति, २।१४ में आक्षेप, २०१५ में अतिशयोक्ति, ३३३४ में निश्चय और रा१० में समुच्च अलंकारकारका प्रयोग किया है । तथा वशंस्थ, वसन्ततिलका, वैश्वदेवी, उपजाति, शालिनी, पुष्पिताग्रा, मत्तमयूर हरिणो, बेतालीय, प्रहर्षिणी, स्वागता, द्रुतविलम्बित, मालिनी, अनुष्टुप, शार्दूलविक्रीडित, जलचरमाला, रथोद्धता, वंशपत्रपतित, इन्द्रबन्ना, जलोद्धत. गति अनुकूला, तोटक, प्रमिताक्षरा, अउप छन्दसिक, शिखरिणी, अपटवन प्रमुदितबदना, मन्दाक्रान्ता, पृथ्वी, उद्गता और इन्द्रबंशा इस प्रकार ३१ प्रकारके छन्दोंकी योजना की है।
हल द्विसमका -में श्रामण, राजनीति, सामद्रिकशास्त्र, लिपिशास्त्र, गणितशास्त्र एवं ज्योतिष आदि विषयोंकी चर्चाएं भी उपलब्ध है। यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं
पदग्नयोगे निपुणं विनामे सन्धी विसमें च कृतावधानम् ।
सर्वेषु शास्त्रेषु जितश्रम तच्चापेऽपि न व्याकरणं मुमोच ।।३।३६
अर्थात् शब्द और धातुरूपोंके प्रयोगमें निपुण, धत्व-गत्वकरण, सन्धि तथा विसर्गका प्रयोग करने में न चूकनेवाले और समस्त शास्त्रोंके परिश्रम पूर्वक अध्येता वैधाकरण व्याकरणके अध्ययन के समान चापविद्या में भी बना व्याकरणको नहीं छोड़ते हैं।
विश्लेषणं वेत्ति न सन्धिकार्य स विग्रहं नैव समस्तसंस्थाम् ।
प्रागेव वेवेक्ति न तद्धितार्थ शब्दागमे प्राथमिकोऽभवता ।।५।१०
व्याकरणशास्त्रका प्रारम्भिक छात्र विसन्धि–सन्धिहीन अलग-अलग पदोंका प्रयोग करता है, क्योंकि सन्धि करना नहीं जानता है। केवल विग्रह पदोंका अर्थ करता है 1 कृदन्त आदि अन्य कार्य नहीं जानता है और न तद्धित ही जानता है। आगमोंका अभ्यासी भी कार्यविशेषका विचारक बन व्यापक सामान्यको भूलता है, विवाद करता है । समन्वय नहीं सोचता है और अभ्यु दय-निःश्रेयसके लिये प्रयत्न नहीं करता है !
धनब्जयने व्याकरणशास्त्रका पूर्ण पाण्डित्य प्रदर्शित करनेके लिये अपवाद सूत्र और विधिसूत्रोंका भी कथन किया है
विशेषसुरिव पत्रिभिस्तयोः पदातिरुत्सर्ग इवाहतोऽखिल: ।।६।१० ध्याकरणमें दो प्रकारके सूत्र हैं—अपवादसूत्र या विशेषसूत्र और उत्सर्ग सूत्र या विधिसूत्र । विधिसत्रों द्वारा शब्दोंका नियमन किया जाता है और अपवादसूत्रों द्वारा नियमका निषेध कर, अन्य किसी विशेषसूत्रको प्रवृत्ति दिखलायी जाती है। ब्याकरणमें धातुपाठ, गणपाठ, उणादि और लिङ्गानु शासन ये चार खिलपाठ भी होते हैं। धातुपाठ व्याकरणका एक उपयोगी अंश हैं, सार्थ धातु-परिज्ञानके अभावमें व्याकरण अधूरा ही रहता है। जितने शब्दसमूहमें व्याकरणाका एक नियम लागू होता है, उतने शब्दसमूहको गण कहते हैं। उणसूत्रका आरम्भ होनेसे उणादि कहलाते हैं। जिन शब्दोंकी सिद्धि व्याकरण के अन्य नियमोंसे नहीं होती है, वे शब्द उणादि सूत्रोंसे सिद्ध किये जाते हैं। लिङ्गानुशासन द्वारा शब्दोंके लिङ्गका निर्णय किया जाता है। इस प्रकार महाकवि धनञ्जयने व्याकरणशास्त्रके नियमोंका समावेश किया है।
सामुद्रिकशास्त्रमें भ्र, नेत्र, नासिका, कपोल, कर्ण, औष्ठ, स्कन्ध, बाहु, पाणि, स्तन, पार्व, उछ, जंघा और पाद इन १४ अंगों में समत्व रहना शुभ माना जाता है। धनञ्जयने महापुरुषों के लक्षणों में उक्त अंगोंके समत्वकी चर्चा निम्न प्रकार की है
चतुर्दशद्वन्द्वसमानदेहः सर्वेषु शास्त्रेषु कृतावतारः । ३।३३
अतएव द्विसन्धानमहाकाव्य शास्त्र और काव्य दोनों ही दृष्टियोंसे महत्त्व पूर्ण है।
Acharyatulya Mahakavi Dhananjay (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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