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#MahakaviSingh
महाकवि सिंह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देशोभाषाके प्रकांड विद्वान थे। इनके पित्ताका नाम रल्हण पंडित था, जो संस्कृत और प्राकृत भाषाके प्रकाण्ड पण्डित थे। ये गुर्जर कुलमें उत्पन्न हुए थे। कविका परिचय-सूचक पद्य 'पज्जुण्णचरि'को १३वीं सन्धिके प्रारंभमें पाया जाता है
जातः श्रीजिनधर्मकर्मनिरतः शास्त्रार्थसर्वप्रियो
, भाषाभिः प्रवणश्चतुभिरभवच्छीसिंहनामा कविः ।
पुत्रो रहण-पण्डितस्य मंतिमान् श्रीगणरागोमिह,
दृष्टि-ज्ञान-चरित्रभूषिततनुबंशे विसालेऽवनौ ।।
इस संस्कृत-पासे स्पष्ट है कि कवि सिंह संस्कृत-भाषाका भी अच्छा कवि था। कविको माताका नाम जिनमती बताया गया है । कबिने इसीकी प्रेरणा से 'पज्जष्णचरिउकी रचना की है। कविने कान्यके आरंभ में विनय प्रदर्शित करते हुए अपनेको छन्द लक्षण, समास-सन्धि आदिके ज्ञानसे रहित बताया है, तो भी कवि स्वभावसे अभिमानी प्रतीत होता है । उसे अपनी कान्य-प्रतिभा का गई है। वी सनिलो अप में मिले गगे एक संग्जत-गद्यसे यह बात स्पष्ट होती है
साहाय्यं समवाप्य नाम सुकवेः प्रद्युम्नकान्यस्य यः ।
कर्ताऽभद् भवभेदकचतुरः श्रीसिंहनामा शमी ।।
सायं तस्य कवित्वगब्वंसहितः को नाम जातोऽबनौं ।
श्रीमज्जेनमतप्रणीतसुपथे सार्थः प्रवृत्तेः क्षमः ।।
कविने अपने सम्प्रदायके सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं किया | पर ग्रंथके अन्तःपरीक्षण और गुरुपरम्परापर विचार करनेसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कवि दिगम्बर सम्प्रदायका था । ग्रंथकी उत्थानिका और कथनशैली भी उमस सम्प्रदायके काव्यों जैसी ही है । लिखा है
विउलगिरिहि जिह ह्यभवकंदहो, समवसरण, सिरिबीरजिणिदहो ।
परवरखयरामरसमचाए, गणहरु-पुच्छित सेणियराए ।
मयरद्धयहो विणिज्जयमारहो, कहहि चरिङ पज्जुषणकुमारहो ।
तं णिसुणेवि भणइ गणेसरु, णिसुणइ सेणिउ मगहणरेसरु ।।
कविका वंश गुर्जर था और अपनेको उसने उस गुर्जरकुलरूपी आकाशको प्रकाशित करनेवाला सूर्य लिखा है । कविने अपने पिताका नाम बुध रल्हण या रल्हण बताया है। बुध रहणको शीलादि गुणोंसे अलंकृत जिनमती नामकी पत्नी थी, जिसके ममसे कवि सिंहका जन्म हुआ था। कविके तीन भाई थे, जिनमें प्रथमका नाम शुभंकर, द्वितीयका गुगप्रवर और तृतीयका साधारण था । ये तीनों ही भाई धर्मात्मा और सुन्दर थे । ग्रन्थमें बताया है
तह पय-रउ णिरु उपणय अमाध्यमाणु, गुज्जरकुलन्णह-उज्जोय-भाणु ।
जो सहयपवरवाणीविलासु, एवं विह विउसहो रहणासु ।
तहो पणइणि जिणमइ सुप-सील, सम्मत्तबंत गं धम्मलील |
कइ सीह ताहि गम्भंतरमि, संवित्र कमलु जह सुर-सरमि ।
जणवच्छलु सज्जणु जणियहरिसु, सुइवत तिविह वहरायसरिसु ।
उप्पणु सहोयरु तासु अबर, नामेण सुहंकर गुणहंपचरु ।
साहारण लघुबउ तासु जाउ, धम्मापुरत्तु अइदिश्वकाउ |
कवि सिंहके गुरु मुनिपुंगव भट्टारक अमृतचन्द्र थे । ये तप-तेजरूपी दिवाकर और बत, नियम तथा शीलके समुद्र थे । अमृतचन्द्रके गुरु माधवचन्द्र थे । इनकी 'मलधारी' उपाधि थी। यह उपाधि उसी व्यक्तिको प्राप्त होती थी, जो दुद्धर परीषहों, विविध उपसर्गों और शीत-उण्णादिको बाधाओंको सहन करता था। कवि देवसेनने भी अपने गुरु विमलदेवको 'मलघारी' सूचित किया है।
गुरु | मुनिपुंगव भट्टारक अमृतचन्द्र |
कवि सिंहका व्यक्तित्व स्वाभिमानी विका किरार है। वह चार भाषाओंका विद्वान और आशुकवि था। उसे सरस्वतीका पूर्ण प्रसाद प्राप्त था । वह सत्कवियोंमें अग्रणी, मान्य और मनस्वी था। उसे हिताहितका पूर्ण विवेक था और समस्त विषयोंका विज्ञ होनेके कारण काव्यरचनामें पटु था।
पज्जुण्णचरिउ में सन्धियोंकी पुष्पिकाओ में सिद्ध और सिंह दोनों नाम मिलते हैं। प्रथम आठ सन्धियोंकी पुष्पिकाओंमें सिद्ध और अन्य सन्धियोंकी पुष्पिकाओंमें सिंह नाम मिलता है। अतः यह कल्पना की गई कि सिंह और सिद्ध एक ही व्यक्तिके नाम थे । वह कहीं अपनेको सिंह और कहीं सिद्ध कहता है। दूसरी यह कल्पना भो सम्भव है कि सिंह और सिद्ध नामक दो कवियोंने इस कान्यकी रचना की हो, क्योंकि काश्यके प्रारम्भमें सिंहके माता-पिताका नाम और आगे सिद्धके पिताका नाम भिन्न मिलता है। पं० परमानन्दजी शास्त्रीका अनुमान है कि सिद्ध कविने प्रद्युम्नचरितका निर्माण किया था। कालवश यह ग्रन्थ नष्ट हो गया और सिंहने खण्डितरूपसे प्राप्त इस ग्रन्थका पुनरुद्धार किया ।'
प्रो० डॉ० हीरालालजी जैनका भी यही विचार है। अन्धको प्रशस्तिमें कुछ ऐसी पंक्तियां भी प्राप्त होती हैं, जिनसे यह ज्ञात होता है कि कवि सिद्धकी रचनाके विनष्ट होने और कर्मवशात् प्राप्त होने की बात कही गई है
कह सिद्धहो विरयंतही विणासु,
संपत्तउ कम्मवसेण तासू,
साथ ही अन्तिम प्रशस्तिके 'परकज्ज परकच्च विहडतं जेहि उरियं से भी उक्त आशयको सिद्धि होती है। श्री हरिवंश कोछड़ने भी इसी तथ्यको स्वीकार किया है।
कवि सिंहने 'पज्जुण्णचरिज'के रचनाकालका निर्देश नहीं किया है । पर अन्ध-प्रशस्तिमें बहाणवाड नगरका वर्णन करते हुए लिखा है कि उस समय यहाँ मधोरी प्राणोरक' दुध बल्लाद था, नो अणोराजको क्षय करनेके लिये कालस्वरूप था और जिसका माण्डलिक भृत्य गुहिलबंशीय क्षत्रिय भुल्लण बह्मणवाडका शासक था | प्रशस्ति में लिखा है
सरि-सर-गंदण-वण-संछण्णउ,
मठ-विहार-जिण-भवण-खण्णउ।
बम्हणवाड उणामें पट्टण,
अरिणरणाह - सेणदल बदणु ।
जो भुंजइ अरिणखयकालहो,
रणघोरियहो सुअहो बल्लालहो ।
जासु भिच्चु दुजण-मणसल्लणु,
खत्तिउ गुहिल उत्तु जहि भुल्लण ।
-प्रद्युम्नचरित, प्रशस्ति ।
पर इस उल्लेखपरसे राजाओंके राज्यकालको शातकर कुछ निष्कर्ष निकाल सकना कठिन है ।
मन्त्री राजपाल द्वारा आबूके लूण वसत्तिचित्यमें वि० सं० १२८७ के लेखमें मालवाके राजा बल्लालको यशोधवल के द्वारा मारे जानेका उल्लेख आया है। यह यशोधनल विक्रमसिंहका भतीजा था और उसके कैद हो जाने के पश्चात् राजगद्दीपर आसीन हुआ था । यह कुमारपालका माण्डलिक सामन्त अथवा भत्य था । इस कथनको पुष्टि अंचलेश्वर मन्दिरके शिलालेखसे भी होती है।
जब कुमारपाल गुजरातकी गद्दीपर आसीन हुआ था, तब मालवाका राजा बल्लाल, चन्द्रावतीका परमार विक्रमसिंह और सपादलक्षसामरका चौहान्द्र १. अपनश-साहित्य, दिल्ली प्रकाशन, पृ० २२१ ।अर्णोराज इन तीनोंने मिलकर कुमारपालके विरुद्ध प्रतिक्रिया व्यक्त की। पर उनका प्रयत्न सफल नहीं हो सका। कुमारपालने विक्रमसिंहका राज्य उसके भसीजे यशोधवलको दे दिया, जिसने बल्लालको मारा था। इस प्रकार मालवा को मुजरातमें मिलानेका यत्न किया गया ।'
कुमारपालका राज्यकाल वि० सं०११११ से १२२९ तक रहा है। मतः बल्लालकी मृत्यु ११५१ ई० वि० सं० १२०८) से पूर्व हुई है।
परके विवेचनसे यह स्पष्ट है कि कुमारपाल, यशोधबल, बल्लाल और अर्णोराज ये सब समकालीन हैं। अतः ग्रंथ-प्रशस्तिगत कथन को दृष्टि में रखते हुए यह प्रतीत होता है कि प्रद्युम्नचरितकी रचना वि० सं० १२०८ से पूर्व हो चुकी थी। अतएव कवि सिंहका समय विक्रमको १२ वौं शतीका आन्तम पाद या विक्रमकी १३ वीं शतीका प्रारम्भिक भाग है। डॉ० होरालालजी जैनने 'पज्जुण्णचरिज'का रचनाकाल ई० सन्की १२ वीं शतीका पूर्वाद्ध माना है। पं० परमानन्दजी और डा. जैनके तथ्योपर तुलनात्मक दृष्टि से विचार करनेपर डॉ जैन द्वारा दिये गये तथ्य अधिक प्रामाणिक प्रतीत होते हैं।
कविको एकमात्र रचना प्रद्य म्नचरित है। इसमें २४ कामदेवोंमेंस २१ बैं कामदेव कृष्णपुत्र प्रद्य म्नका चरित निबद्ध किया है। यह १५ सन्धियाम विभक्त है । रुक्मिणीसे उत्पन्न होते ही प्रद्य म्नको एक राक्षस उठाकर ले जाता है। प्रद्युम्न वहीं बड़े होते हैं। और फिर १२ वर्ष पश्चात् कृष्णासे आकर मिलते हैं। कविने परम्परानुसार जिनवन्दन, सरस्वतीचन्दनके अनन्तर आत्मविनय प्रदर्शित की है । वह सज्जन-दुर्जनका स्मरण करना भी नहीं भूलता | कविने परिसंख्यालकार द्वारा सौराष्ट्र दशका बहुत हो सुन्दर चित्रण किया है । लिखा है
मय संग करिणि जहि वेए कंड, खरदंडु सरोरुहु ससि सखंडु ।
जहिं कब्बे बंधु विग्गहु सरीरु, धम्माणुरतु जणु पावभीरु ।
थदृत्तणु मला: वि मणहाहं, चरतरुणी पीगवण यण हराहं ।
हद हिंसणि रायणि हेलणेसु, खलि विगयणेहु तिल-पीलणेसु ।
मज्झम्णयाले गुणगणहरा, परयारगमणु - हिं मुणिव राहं।
पिय विरहु विजहि कडु व उकसाउ, कृडिल बिजुब इहि कुंतलकलाउ ॥१॥
वस्तु-वर्णनमें कवि पटु है । उसने नाम, नगर, ऋतु, सरोबर, उपवन, पर्वत आदिक चित्रगके साथ पात्रोंकी भावनाओंका भी अंकन किया है। प्रद्य म्नका अपहरण होनेपर रुक्मिणी विलाप करती है | कविने इस संदर्भमें करुण रसका अपूर्व चित्रण किया है। प्रद्युम्न लौट आनेपर सत्यभामा और रुक्मिणीसे मिलते हैं। रुक्मिणोके समक्ष वे अपनी बाल-क्रीड़ाओं का प्रदर्शन करते हैं। इस संदर्भ कविने भावाभिव्यं जनपर पूरा ध्यान रखा है। काव्यके आरंभमें कवि कृष्णऔर सत्यभामाका बस्तुरूपात्मक चित्रण करता हुआ कहता है
घता-
चाणडर चिमण, देबई-णंदणु, संख-चक्क-सारंगधर ।
रणि कंस-वयं करू, असुर-भयंकरू, वसुह-तिखंडह गयिकरु ।।
१-१२ रजा दाणव माणब दलइ दप्पु, जिणि गहिउ असुर-गर-लघर-कप्पु ।
पव-णव-जोवण सुमणोहराई, चक्कल-धण पौणपउउंहराई ।
छण इंदविवसम बणिया, कुवलय-दल-दोहर-णयणियाहं ।
केलर-हार-कुंडल-धराह, कण-कण-कणंत कंकण कराहं ।
कयर खोलिर पयणेउराह, सोलह सहसई अंतेउराह ।
तह मज्झि सरस ताम रस मुहिय, जा विज्जाहाहंसु केउ दुहिय ।
सई सम्बसुलक्खण सुस्सहाव, णामेण पसिद्धिय सच्चहाव ।
दाडिमकुसुमाहरसुद्धसाम, अइविय उर मणिरु मज्झ खाम ।
ता अग्गमहिसि तहो सुंदरास, इंदाणि व सग्गि पुरंदरासू । १-१३
इस काव्यमें रस अलंकार आदिका भी समुचित समावेश हुआ है।
महाकवि सिंह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देशोभाषाके प्रकांड विद्वान थे। इनके पित्ताका नाम रल्हण पंडित था, जो संस्कृत और प्राकृत भाषाके प्रकाण्ड पण्डित थे। ये गुर्जर कुलमें उत्पन्न हुए थे। कविका परिचय-सूचक पद्य 'पज्जुण्णचरि'को १३वीं सन्धिके प्रारंभमें पाया जाता है
जातः श्रीजिनधर्मकर्मनिरतः शास्त्रार्थसर्वप्रियो
, भाषाभिः प्रवणश्चतुभिरभवच्छीसिंहनामा कविः ।
पुत्रो रहण-पण्डितस्य मंतिमान् श्रीगणरागोमिह,
दृष्टि-ज्ञान-चरित्रभूषिततनुबंशे विसालेऽवनौ ।।
इस संस्कृत-पासे स्पष्ट है कि कवि सिंह संस्कृत-भाषाका भी अच्छा कवि था। कविको माताका नाम जिनमती बताया गया है । कबिने इसीकी प्रेरणा से 'पज्जष्णचरिउकी रचना की है। कविने कान्यके आरंभ में विनय प्रदर्शित करते हुए अपनेको छन्द लक्षण, समास-सन्धि आदिके ज्ञानसे रहित बताया है, तो भी कवि स्वभावसे अभिमानी प्रतीत होता है । उसे अपनी कान्य-प्रतिभा का गई है। वी सनिलो अप में मिले गगे एक संग्जत-गद्यसे यह बात स्पष्ट होती है
साहाय्यं समवाप्य नाम सुकवेः प्रद्युम्नकान्यस्य यः ।
कर्ताऽभद् भवभेदकचतुरः श्रीसिंहनामा शमी ।।
सायं तस्य कवित्वगब्वंसहितः को नाम जातोऽबनौं ।
श्रीमज्जेनमतप्रणीतसुपथे सार्थः प्रवृत्तेः क्षमः ।।
कविने अपने सम्प्रदायके सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं किया | पर ग्रंथके अन्तःपरीक्षण और गुरुपरम्परापर विचार करनेसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कवि दिगम्बर सम्प्रदायका था । ग्रंथकी उत्थानिका और कथनशैली भी उमस सम्प्रदायके काव्यों जैसी ही है । लिखा है
विउलगिरिहि जिह ह्यभवकंदहो, समवसरण, सिरिबीरजिणिदहो ।
परवरखयरामरसमचाए, गणहरु-पुच्छित सेणियराए ।
मयरद्धयहो विणिज्जयमारहो, कहहि चरिङ पज्जुषणकुमारहो ।
तं णिसुणेवि भणइ गणेसरु, णिसुणइ सेणिउ मगहणरेसरु ।।
कविका वंश गुर्जर था और अपनेको उसने उस गुर्जरकुलरूपी आकाशको प्रकाशित करनेवाला सूर्य लिखा है । कविने अपने पिताका नाम बुध रल्हण या रल्हण बताया है। बुध रहणको शीलादि गुणोंसे अलंकृत जिनमती नामकी पत्नी थी, जिसके ममसे कवि सिंहका जन्म हुआ था। कविके तीन भाई थे, जिनमें प्रथमका नाम शुभंकर, द्वितीयका गुगप्रवर और तृतीयका साधारण था । ये तीनों ही भाई धर्मात्मा और सुन्दर थे । ग्रन्थमें बताया है
तह पय-रउ णिरु उपणय अमाध्यमाणु, गुज्जरकुलन्णह-उज्जोय-भाणु ।
जो सहयपवरवाणीविलासु, एवं विह विउसहो रहणासु ।
तहो पणइणि जिणमइ सुप-सील, सम्मत्तबंत गं धम्मलील |
कइ सीह ताहि गम्भंतरमि, संवित्र कमलु जह सुर-सरमि ।
जणवच्छलु सज्जणु जणियहरिसु, सुइवत तिविह वहरायसरिसु ।
उप्पणु सहोयरु तासु अबर, नामेण सुहंकर गुणहंपचरु ।
साहारण लघुबउ तासु जाउ, धम्मापुरत्तु अइदिश्वकाउ |
कवि सिंहके गुरु मुनिपुंगव भट्टारक अमृतचन्द्र थे । ये तप-तेजरूपी दिवाकर और बत, नियम तथा शीलके समुद्र थे । अमृतचन्द्रके गुरु माधवचन्द्र थे । इनकी 'मलधारी' उपाधि थी। यह उपाधि उसी व्यक्तिको प्राप्त होती थी, जो दुद्धर परीषहों, विविध उपसर्गों और शीत-उण्णादिको बाधाओंको सहन करता था। कवि देवसेनने भी अपने गुरु विमलदेवको 'मलघारी' सूचित किया है।
गुरु | मुनिपुंगव भट्टारक अमृतचन्द्र |
कवि सिंहका व्यक्तित्व स्वाभिमानी विका किरार है। वह चार भाषाओंका विद्वान और आशुकवि था। उसे सरस्वतीका पूर्ण प्रसाद प्राप्त था । वह सत्कवियोंमें अग्रणी, मान्य और मनस्वी था। उसे हिताहितका पूर्ण विवेक था और समस्त विषयोंका विज्ञ होनेके कारण काव्यरचनामें पटु था।
पज्जुण्णचरिउ में सन्धियोंकी पुष्पिकाओ में सिद्ध और सिंह दोनों नाम मिलते हैं। प्रथम आठ सन्धियोंकी पुष्पिकाओंमें सिद्ध और अन्य सन्धियोंकी पुष्पिकाओंमें सिंह नाम मिलता है। अतः यह कल्पना की गई कि सिंह और सिद्ध एक ही व्यक्तिके नाम थे । वह कहीं अपनेको सिंह और कहीं सिद्ध कहता है। दूसरी यह कल्पना भो सम्भव है कि सिंह और सिद्ध नामक दो कवियोंने इस कान्यकी रचना की हो, क्योंकि काश्यके प्रारम्भमें सिंहके माता-पिताका नाम और आगे सिद्धके पिताका नाम भिन्न मिलता है। पं० परमानन्दजी शास्त्रीका अनुमान है कि सिद्ध कविने प्रद्युम्नचरितका निर्माण किया था। कालवश यह ग्रन्थ नष्ट हो गया और सिंहने खण्डितरूपसे प्राप्त इस ग्रन्थका पुनरुद्धार किया ।'
प्रो० डॉ० हीरालालजी जैनका भी यही विचार है। अन्धको प्रशस्तिमें कुछ ऐसी पंक्तियां भी प्राप्त होती हैं, जिनसे यह ज्ञात होता है कि कवि सिद्धकी रचनाके विनष्ट होने और कर्मवशात् प्राप्त होने की बात कही गई है
कह सिद्धहो विरयंतही विणासु,
संपत्तउ कम्मवसेण तासू,
साथ ही अन्तिम प्रशस्तिके 'परकज्ज परकच्च विहडतं जेहि उरियं से भी उक्त आशयको सिद्धि होती है। श्री हरिवंश कोछड़ने भी इसी तथ्यको स्वीकार किया है।
कवि सिंहने 'पज्जुण्णचरिज'के रचनाकालका निर्देश नहीं किया है । पर अन्ध-प्रशस्तिमें बहाणवाड नगरका वर्णन करते हुए लिखा है कि उस समय यहाँ मधोरी प्राणोरक' दुध बल्लाद था, नो अणोराजको क्षय करनेके लिये कालस्वरूप था और जिसका माण्डलिक भृत्य गुहिलबंशीय क्षत्रिय भुल्लण बह्मणवाडका शासक था | प्रशस्ति में लिखा है
सरि-सर-गंदण-वण-संछण्णउ,
मठ-विहार-जिण-भवण-खण्णउ।
बम्हणवाड उणामें पट्टण,
अरिणरणाह - सेणदल बदणु ।
जो भुंजइ अरिणखयकालहो,
रणघोरियहो सुअहो बल्लालहो ।
जासु भिच्चु दुजण-मणसल्लणु,
खत्तिउ गुहिल उत्तु जहि भुल्लण ।
-प्रद्युम्नचरित, प्रशस्ति ।
पर इस उल्लेखपरसे राजाओंके राज्यकालको शातकर कुछ निष्कर्ष निकाल सकना कठिन है ।
मन्त्री राजपाल द्वारा आबूके लूण वसत्तिचित्यमें वि० सं० १२८७ के लेखमें मालवाके राजा बल्लालको यशोधवल के द्वारा मारे जानेका उल्लेख आया है। यह यशोधनल विक्रमसिंहका भतीजा था और उसके कैद हो जाने के पश्चात् राजगद्दीपर आसीन हुआ था । यह कुमारपालका माण्डलिक सामन्त अथवा भत्य था । इस कथनको पुष्टि अंचलेश्वर मन्दिरके शिलालेखसे भी होती है।
जब कुमारपाल गुजरातकी गद्दीपर आसीन हुआ था, तब मालवाका राजा बल्लाल, चन्द्रावतीका परमार विक्रमसिंह और सपादलक्षसामरका चौहान्द्र १. अपनश-साहित्य, दिल्ली प्रकाशन, पृ० २२१ ।अर्णोराज इन तीनोंने मिलकर कुमारपालके विरुद्ध प्रतिक्रिया व्यक्त की। पर उनका प्रयत्न सफल नहीं हो सका। कुमारपालने विक्रमसिंहका राज्य उसके भसीजे यशोधवलको दे दिया, जिसने बल्लालको मारा था। इस प्रकार मालवा को मुजरातमें मिलानेका यत्न किया गया ।'
कुमारपालका राज्यकाल वि० सं०११११ से १२२९ तक रहा है। मतः बल्लालकी मृत्यु ११५१ ई० वि० सं० १२०८) से पूर्व हुई है।
परके विवेचनसे यह स्पष्ट है कि कुमारपाल, यशोधबल, बल्लाल और अर्णोराज ये सब समकालीन हैं। अतः ग्रंथ-प्रशस्तिगत कथन को दृष्टि में रखते हुए यह प्रतीत होता है कि प्रद्युम्नचरितकी रचना वि० सं० १२०८ से पूर्व हो चुकी थी। अतएव कवि सिंहका समय विक्रमको १२ वौं शतीका आन्तम पाद या विक्रमकी १३ वीं शतीका प्रारम्भिक भाग है। डॉ० होरालालजी जैनने 'पज्जुण्णचरिज'का रचनाकाल ई० सन्की १२ वीं शतीका पूर्वाद्ध माना है। पं० परमानन्दजी और डा. जैनके तथ्योपर तुलनात्मक दृष्टि से विचार करनेपर डॉ जैन द्वारा दिये गये तथ्य अधिक प्रामाणिक प्रतीत होते हैं।
कविको एकमात्र रचना प्रद्य म्नचरित है। इसमें २४ कामदेवोंमेंस २१ बैं कामदेव कृष्णपुत्र प्रद्य म्नका चरित निबद्ध किया है। यह १५ सन्धियाम विभक्त है । रुक्मिणीसे उत्पन्न होते ही प्रद्य म्नको एक राक्षस उठाकर ले जाता है। प्रद्युम्न वहीं बड़े होते हैं। और फिर १२ वर्ष पश्चात् कृष्णासे आकर मिलते हैं। कविने परम्परानुसार जिनवन्दन, सरस्वतीचन्दनके अनन्तर आत्मविनय प्रदर्शित की है । वह सज्जन-दुर्जनका स्मरण करना भी नहीं भूलता | कविने परिसंख्यालकार द्वारा सौराष्ट्र दशका बहुत हो सुन्दर चित्रण किया है । लिखा है
मय संग करिणि जहि वेए कंड, खरदंडु सरोरुहु ससि सखंडु ।
जहिं कब्बे बंधु विग्गहु सरीरु, धम्माणुरतु जणु पावभीरु ।
थदृत्तणु मला: वि मणहाहं, चरतरुणी पीगवण यण हराहं ।
हद हिंसणि रायणि हेलणेसु, खलि विगयणेहु तिल-पीलणेसु ।
मज्झम्णयाले गुणगणहरा, परयारगमणु - हिं मुणिव राहं।
पिय विरहु विजहि कडु व उकसाउ, कृडिल बिजुब इहि कुंतलकलाउ ॥१॥
वस्तु-वर्णनमें कवि पटु है । उसने नाम, नगर, ऋतु, सरोबर, उपवन, पर्वत आदिक चित्रगके साथ पात्रोंकी भावनाओंका भी अंकन किया है। प्रद्य म्नका अपहरण होनेपर रुक्मिणी विलाप करती है | कविने इस संदर्भमें करुण रसका अपूर्व चित्रण किया है। प्रद्युम्न लौट आनेपर सत्यभामा और रुक्मिणीसे मिलते हैं। रुक्मिणोके समक्ष वे अपनी बाल-क्रीड़ाओं का प्रदर्शन करते हैं। इस संदर्भ कविने भावाभिव्यं जनपर पूरा ध्यान रखा है। काव्यके आरंभमें कवि कृष्णऔर सत्यभामाका बस्तुरूपात्मक चित्रण करता हुआ कहता है
घता-
चाणडर चिमण, देबई-णंदणु, संख-चक्क-सारंगधर ।
रणि कंस-वयं करू, असुर-भयंकरू, वसुह-तिखंडह गयिकरु ।।
१-१२ रजा दाणव माणब दलइ दप्पु, जिणि गहिउ असुर-गर-लघर-कप्पु ।
पव-णव-जोवण सुमणोहराई, चक्कल-धण पौणपउउंहराई ।
छण इंदविवसम बणिया, कुवलय-दल-दोहर-णयणियाहं ।
केलर-हार-कुंडल-धराह, कण-कण-कणंत कंकण कराहं ।
कयर खोलिर पयणेउराह, सोलह सहसई अंतेउराह ।
तह मज्झि सरस ताम रस मुहिय, जा विज्जाहाहंसु केउ दुहिय ।
सई सम्बसुलक्खण सुस्सहाव, णामेण पसिद्धिय सच्चहाव ।
दाडिमकुसुमाहरसुद्धसाम, अइविय उर मणिरु मज्झ खाम ।
ता अग्गमहिसि तहो सुंदरास, इंदाणि व सग्गि पुरंदरासू । १-१३
इस काव्यमें रस अलंकार आदिका भी समुचित समावेश हुआ है।
#MahakaviSingh
आचार्यतुल्य महाकवि सिंह 13वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 26 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
महाकवि सिंह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देशोभाषाके प्रकांड विद्वान थे। इनके पित्ताका नाम रल्हण पंडित था, जो संस्कृत और प्राकृत भाषाके प्रकाण्ड पण्डित थे। ये गुर्जर कुलमें उत्पन्न हुए थे। कविका परिचय-सूचक पद्य 'पज्जुण्णचरि'को १३वीं सन्धिके प्रारंभमें पाया जाता है
जातः श्रीजिनधर्मकर्मनिरतः शास्त्रार्थसर्वप्रियो
, भाषाभिः प्रवणश्चतुभिरभवच्छीसिंहनामा कविः ।
पुत्रो रहण-पण्डितस्य मंतिमान् श्रीगणरागोमिह,
दृष्टि-ज्ञान-चरित्रभूषिततनुबंशे विसालेऽवनौ ।।
इस संस्कृत-पासे स्पष्ट है कि कवि सिंह संस्कृत-भाषाका भी अच्छा कवि था। कविको माताका नाम जिनमती बताया गया है । कबिने इसीकी प्रेरणा से 'पज्जष्णचरिउकी रचना की है। कविने कान्यके आरंभ में विनय प्रदर्शित करते हुए अपनेको छन्द लक्षण, समास-सन्धि आदिके ज्ञानसे रहित बताया है, तो भी कवि स्वभावसे अभिमानी प्रतीत होता है । उसे अपनी कान्य-प्रतिभा का गई है। वी सनिलो अप में मिले गगे एक संग्जत-गद्यसे यह बात स्पष्ट होती है
साहाय्यं समवाप्य नाम सुकवेः प्रद्युम्नकान्यस्य यः ।
कर्ताऽभद् भवभेदकचतुरः श्रीसिंहनामा शमी ।।
सायं तस्य कवित्वगब्वंसहितः को नाम जातोऽबनौं ।
श्रीमज्जेनमतप्रणीतसुपथे सार्थः प्रवृत्तेः क्षमः ।।
कविने अपने सम्प्रदायके सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं किया | पर ग्रंथके अन्तःपरीक्षण और गुरुपरम्परापर विचार करनेसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि कवि दिगम्बर सम्प्रदायका था । ग्रंथकी उत्थानिका और कथनशैली भी उमस सम्प्रदायके काव्यों जैसी ही है । लिखा है
विउलगिरिहि जिह ह्यभवकंदहो, समवसरण, सिरिबीरजिणिदहो ।
परवरखयरामरसमचाए, गणहरु-पुच्छित सेणियराए ।
मयरद्धयहो विणिज्जयमारहो, कहहि चरिङ पज्जुषणकुमारहो ।
तं णिसुणेवि भणइ गणेसरु, णिसुणइ सेणिउ मगहणरेसरु ।।
कविका वंश गुर्जर था और अपनेको उसने उस गुर्जरकुलरूपी आकाशको प्रकाशित करनेवाला सूर्य लिखा है । कविने अपने पिताका नाम बुध रल्हण या रल्हण बताया है। बुध रहणको शीलादि गुणोंसे अलंकृत जिनमती नामकी पत्नी थी, जिसके ममसे कवि सिंहका जन्म हुआ था। कविके तीन भाई थे, जिनमें प्रथमका नाम शुभंकर, द्वितीयका गुगप्रवर और तृतीयका साधारण था । ये तीनों ही भाई धर्मात्मा और सुन्दर थे । ग्रन्थमें बताया है
तह पय-रउ णिरु उपणय अमाध्यमाणु, गुज्जरकुलन्णह-उज्जोय-भाणु ।
जो सहयपवरवाणीविलासु, एवं विह विउसहो रहणासु ।
तहो पणइणि जिणमइ सुप-सील, सम्मत्तबंत गं धम्मलील |
कइ सीह ताहि गम्भंतरमि, संवित्र कमलु जह सुर-सरमि ।
जणवच्छलु सज्जणु जणियहरिसु, सुइवत तिविह वहरायसरिसु ।
उप्पणु सहोयरु तासु अबर, नामेण सुहंकर गुणहंपचरु ।
साहारण लघुबउ तासु जाउ, धम्मापुरत्तु अइदिश्वकाउ |
कवि सिंहके गुरु मुनिपुंगव भट्टारक अमृतचन्द्र थे । ये तप-तेजरूपी दिवाकर और बत, नियम तथा शीलके समुद्र थे । अमृतचन्द्रके गुरु माधवचन्द्र थे । इनकी 'मलधारी' उपाधि थी। यह उपाधि उसी व्यक्तिको प्राप्त होती थी, जो दुद्धर परीषहों, विविध उपसर्गों और शीत-उण्णादिको बाधाओंको सहन करता था। कवि देवसेनने भी अपने गुरु विमलदेवको 'मलघारी' सूचित किया है।
गुरु | मुनिपुंगव भट्टारक अमृतचन्द्र |
कवि सिंहका व्यक्तित्व स्वाभिमानी विका किरार है। वह चार भाषाओंका विद्वान और आशुकवि था। उसे सरस्वतीका पूर्ण प्रसाद प्राप्त था । वह सत्कवियोंमें अग्रणी, मान्य और मनस्वी था। उसे हिताहितका पूर्ण विवेक था और समस्त विषयोंका विज्ञ होनेके कारण काव्यरचनामें पटु था।
पज्जुण्णचरिउ में सन्धियोंकी पुष्पिकाओ में सिद्ध और सिंह दोनों नाम मिलते हैं। प्रथम आठ सन्धियोंकी पुष्पिकाओंमें सिद्ध और अन्य सन्धियोंकी पुष्पिकाओंमें सिंह नाम मिलता है। अतः यह कल्पना की गई कि सिंह और सिद्ध एक ही व्यक्तिके नाम थे । वह कहीं अपनेको सिंह और कहीं सिद्ध कहता है। दूसरी यह कल्पना भो सम्भव है कि सिंह और सिद्ध नामक दो कवियोंने इस कान्यकी रचना की हो, क्योंकि काश्यके प्रारम्भमें सिंहके माता-पिताका नाम और आगे सिद्धके पिताका नाम भिन्न मिलता है। पं० परमानन्दजी शास्त्रीका अनुमान है कि सिद्ध कविने प्रद्युम्नचरितका निर्माण किया था। कालवश यह ग्रन्थ नष्ट हो गया और सिंहने खण्डितरूपसे प्राप्त इस ग्रन्थका पुनरुद्धार किया ।'
प्रो० डॉ० हीरालालजी जैनका भी यही विचार है। अन्धको प्रशस्तिमें कुछ ऐसी पंक्तियां भी प्राप्त होती हैं, जिनसे यह ज्ञात होता है कि कवि सिद्धकी रचनाके विनष्ट होने और कर्मवशात् प्राप्त होने की बात कही गई है
कह सिद्धहो विरयंतही विणासु,
संपत्तउ कम्मवसेण तासू,
साथ ही अन्तिम प्रशस्तिके 'परकज्ज परकच्च विहडतं जेहि उरियं से भी उक्त आशयको सिद्धि होती है। श्री हरिवंश कोछड़ने भी इसी तथ्यको स्वीकार किया है।
कवि सिंहने 'पज्जुण्णचरिज'के रचनाकालका निर्देश नहीं किया है । पर अन्ध-प्रशस्तिमें बहाणवाड नगरका वर्णन करते हुए लिखा है कि उस समय यहाँ मधोरी प्राणोरक' दुध बल्लाद था, नो अणोराजको क्षय करनेके लिये कालस्वरूप था और जिसका माण्डलिक भृत्य गुहिलबंशीय क्षत्रिय भुल्लण बह्मणवाडका शासक था | प्रशस्ति में लिखा है
सरि-सर-गंदण-वण-संछण्णउ,
मठ-विहार-जिण-भवण-खण्णउ।
बम्हणवाड उणामें पट्टण,
अरिणरणाह - सेणदल बदणु ।
जो भुंजइ अरिणखयकालहो,
रणघोरियहो सुअहो बल्लालहो ।
जासु भिच्चु दुजण-मणसल्लणु,
खत्तिउ गुहिल उत्तु जहि भुल्लण ।
-प्रद्युम्नचरित, प्रशस्ति ।
पर इस उल्लेखपरसे राजाओंके राज्यकालको शातकर कुछ निष्कर्ष निकाल सकना कठिन है ।
मन्त्री राजपाल द्वारा आबूके लूण वसत्तिचित्यमें वि० सं० १२८७ के लेखमें मालवाके राजा बल्लालको यशोधवल के द्वारा मारे जानेका उल्लेख आया है। यह यशोधनल विक्रमसिंहका भतीजा था और उसके कैद हो जाने के पश्चात् राजगद्दीपर आसीन हुआ था । यह कुमारपालका माण्डलिक सामन्त अथवा भत्य था । इस कथनको पुष्टि अंचलेश्वर मन्दिरके शिलालेखसे भी होती है।
जब कुमारपाल गुजरातकी गद्दीपर आसीन हुआ था, तब मालवाका राजा बल्लाल, चन्द्रावतीका परमार विक्रमसिंह और सपादलक्षसामरका चौहान्द्र १. अपनश-साहित्य, दिल्ली प्रकाशन, पृ० २२१ ।अर्णोराज इन तीनोंने मिलकर कुमारपालके विरुद्ध प्रतिक्रिया व्यक्त की। पर उनका प्रयत्न सफल नहीं हो सका। कुमारपालने विक्रमसिंहका राज्य उसके भसीजे यशोधवलको दे दिया, जिसने बल्लालको मारा था। इस प्रकार मालवा को मुजरातमें मिलानेका यत्न किया गया ।'
कुमारपालका राज्यकाल वि० सं०११११ से १२२९ तक रहा है। मतः बल्लालकी मृत्यु ११५१ ई० वि० सं० १२०८) से पूर्व हुई है।
परके विवेचनसे यह स्पष्ट है कि कुमारपाल, यशोधबल, बल्लाल और अर्णोराज ये सब समकालीन हैं। अतः ग्रंथ-प्रशस्तिगत कथन को दृष्टि में रखते हुए यह प्रतीत होता है कि प्रद्युम्नचरितकी रचना वि० सं० १२०८ से पूर्व हो चुकी थी। अतएव कवि सिंहका समय विक्रमको १२ वौं शतीका आन्तम पाद या विक्रमकी १३ वीं शतीका प्रारम्भिक भाग है। डॉ० होरालालजी जैनने 'पज्जुण्णचरिज'का रचनाकाल ई० सन्की १२ वीं शतीका पूर्वाद्ध माना है। पं० परमानन्दजी और डा. जैनके तथ्योपर तुलनात्मक दृष्टि से विचार करनेपर डॉ जैन द्वारा दिये गये तथ्य अधिक प्रामाणिक प्रतीत होते हैं।
कविको एकमात्र रचना प्रद्य म्नचरित है। इसमें २४ कामदेवोंमेंस २१ बैं कामदेव कृष्णपुत्र प्रद्य म्नका चरित निबद्ध किया है। यह १५ सन्धियाम विभक्त है । रुक्मिणीसे उत्पन्न होते ही प्रद्य म्नको एक राक्षस उठाकर ले जाता है। प्रद्युम्न वहीं बड़े होते हैं। और फिर १२ वर्ष पश्चात् कृष्णासे आकर मिलते हैं। कविने परम्परानुसार जिनवन्दन, सरस्वतीचन्दनके अनन्तर आत्मविनय प्रदर्शित की है । वह सज्जन-दुर्जनका स्मरण करना भी नहीं भूलता | कविने परिसंख्यालकार द्वारा सौराष्ट्र दशका बहुत हो सुन्दर चित्रण किया है । लिखा है
मय संग करिणि जहि वेए कंड, खरदंडु सरोरुहु ससि सखंडु ।
जहिं कब्बे बंधु विग्गहु सरीरु, धम्माणुरतु जणु पावभीरु ।
थदृत्तणु मला: वि मणहाहं, चरतरुणी पीगवण यण हराहं ।
हद हिंसणि रायणि हेलणेसु, खलि विगयणेहु तिल-पीलणेसु ।
मज्झम्णयाले गुणगणहरा, परयारगमणु - हिं मुणिव राहं।
पिय विरहु विजहि कडु व उकसाउ, कृडिल बिजुब इहि कुंतलकलाउ ॥१॥
वस्तु-वर्णनमें कवि पटु है । उसने नाम, नगर, ऋतु, सरोबर, उपवन, पर्वत आदिक चित्रगके साथ पात्रोंकी भावनाओंका भी अंकन किया है। प्रद्य म्नका अपहरण होनेपर रुक्मिणी विलाप करती है | कविने इस संदर्भमें करुण रसका अपूर्व चित्रण किया है। प्रद्युम्न लौट आनेपर सत्यभामा और रुक्मिणीसे मिलते हैं। रुक्मिणोके समक्ष वे अपनी बाल-क्रीड़ाओं का प्रदर्शन करते हैं। इस संदर्भ कविने भावाभिव्यं जनपर पूरा ध्यान रखा है। काव्यके आरंभमें कवि कृष्णऔर सत्यभामाका बस्तुरूपात्मक चित्रण करता हुआ कहता है
घता-
चाणडर चिमण, देबई-णंदणु, संख-चक्क-सारंगधर ।
रणि कंस-वयं करू, असुर-भयंकरू, वसुह-तिखंडह गयिकरु ।।
१-१२ रजा दाणव माणब दलइ दप्पु, जिणि गहिउ असुर-गर-लघर-कप्पु ।
पव-णव-जोवण सुमणोहराई, चक्कल-धण पौणपउउंहराई ।
छण इंदविवसम बणिया, कुवलय-दल-दोहर-णयणियाहं ।
केलर-हार-कुंडल-धराह, कण-कण-कणंत कंकण कराहं ।
कयर खोलिर पयणेउराह, सोलह सहसई अंतेउराह ।
तह मज्झि सरस ताम रस मुहिय, जा विज्जाहाहंसु केउ दुहिय ।
सई सम्बसुलक्खण सुस्सहाव, णामेण पसिद्धिय सच्चहाव ।
दाडिमकुसुमाहरसुद्धसाम, अइविय उर मणिरु मज्झ खाम ।
ता अग्गमहिसि तहो सुंदरास, इंदाणि व सग्गि पुरंदरासू । १-१३
इस काव्यमें रस अलंकार आदिका भी समुचित समावेश हुआ है।
Acharyatulya Mahakavi Singh 13th Century (Prachin)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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