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#PanditJaichandChhabra
हिन्दी जन साहित्यके गद्य-पद्य लेखक विद्वानोंमें पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा का नाम उल्लेखनीय है । इन्होंने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिकी हिन्दी टीका समाप्त करते हुए अन्तिम प्रशस्ति में अपना परिचय अंकित किया है
काल अनादि भ्रमत संसार, पायो नरभव मैं सुखकार |
जन्म फागई लयौ सुथानि, मोतीराम पिताकै आनि ।।
पायो नाम तहां जयचन्द, यह परजाल तण मकरंद ।
द्रव्य दृष्टि में देखें जब, मेरा नाम आतमा कबै ।।
गोत छाबड़ा धावक धर्म, जामें भली क्रिया शुभकर्म ।
ग्यारह वर्ष अवस्था पई, तब जिन मारगकी सुधि लही ।।
निमित्त पाय जयपुरमें आय, बड़ी जु शैली देखी भाय ।।
गुणो लोक साधर्मी भल, ज्ञानी पंडित बहुत मिले ।
पहले थे बंगाधर नाम, धरै प्रभाव भाव शुभ ठाम ।।
टोहरमल पंडित मति खरी, गोमटसार वनिका करी ।
ताकी महिमा सब जन करें, वा, पढ़ें बुद्धि विस्तरें ।।
दौलतराम गुणी अधिकाय, पंडितराय राजमैं जाय ।
ताकी बुद्धि लस सब खरी, तीन प्रमाण वनिका करी ॥
रायमल्ल त्यागी गृह वास, महाराम ब्रत शोल निवास |
मैं हूँ इनकी संगति ठानि, बुधसारू जिनवाणी जानि ।।
अर्थात्-कविका कम मागी लामा ग्राममें हुमाया। यह मान जयसुरसे डिग्गीमालपुरा रोडपर ३० मालकी दुरीपर बसा हुआ है। यहाँ आपके पिता मोतीरामजी पटवारीका काम करते थे। इससे आपका वंश पटवारी नामसे प्रसिद्ध रहा है।
११ वर्ष की अवस्था व्यतीत हो जानेपर कविका ध्यान जैनधर्मकी ओर गया और उसी में अपने हितको निहित समझकर आपने अपनी श्रद्धाको सदढ़ बनाने का प्रयत्न किया। फलत: जयचन्दीने जनदर्शन और तत्त्वज्ञानके अध्ययनका प्रयास किया । वि० सं०१८२१में जयपुरमें इन्द्रध्वज पूजा महोत्सवका विशाल आयोजन किया गया था। इस उत्सव में आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजीके आध्यात्मिक प्रवचन होते थे। इन प्रवचनोंका लाभ उठाने के लिए दूर-दुरके व्यक्ति वहाँ आये थे। पण्डित जयचन्द भो यहाँ पधारे और जैनधर्मकी ओर इनका पूर्ण झुकाव हुआ । फलतः ३-४ वर्षके पश्चात् ये जयपुर में हो आकर रहने लगे । जयचन्दजोने जयपुर में सैद्धान्तिक अन्धोंका गम्भीर अध्ययन किया ।
जयचन्दजीका स्वभाव सरल और उदार था। उनका रहन-सहन और देश-भूषा सीधी-सादी थी। ये श्रावकोचित क्रियाओंका पालन करते थे और बड़े अच्छे विद्याश्यसनी थे । अध्ययनार्थियोंको भीड़ इनके पास सदा लगी रहती थी। इनके पुत्रका नाम नन्दलाल था, जो बहुत ही सुयोग्य विद्वान् था और पण्डितजोके पठन-पाठनादि कार्यों में सहयोग देता था। मन्नालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द इनके प्रमुख शिष्य थे ।
शिष्य | मन्नालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द |
एक दिन जयपुरमें एक विदेशी विद्वान शास्त्रार्थ करनेके लिए आया । नगरके अधिकांश विद्वान उससे पराजित हो चुके थे। अतः राज्य कर्मचारियों और विद्वान पंचोंने पण्डित जयचन्दजीसे, उक्त विद्वानसे शास्त्रार्थ करनेकीप्राधमा की । पर उन्होंने कहा कि आप मेरे स्थानपर मेरे पुत्र नम्बलालको से जाइये । यही उस विद्वानको शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा। हुबा भी यही । नन्दलालने अपनी युक्तियोंसे उस विद्वानको परास्त कर दिया। इससे नन्द लालका बड़ा यश व्याप्त हया और उसे नगरकी ओरसे उपाधि दी गयो । नन्दलालने जयचन्दजीको सभी टोकाग्रन्थों में सहायता दी है। सवार्थसिद्धिकी प्रशस्तिमें लिखा है
लिखी यह जयचन्दन सोधी सुत नन्दलाल |
बुधखि भूलि जु शुद्ध करी बांचौ सिखे वो बाल ।।
नन्दलाल मेरा सुत मुनी बालपने ते विद्यासुनी।
पण्डित भयो बड़ी परवीन ताहूने यह प्रेरणकोन ।।
पण्डित जयचन्दजीका समय वि० सं०को १९वीं शती है । इन्होंने निम्न लिखित ग्रंथोंकी भाषा वचनिकाएं लिखी है
१. सर्वार्थसिद्धि वनिका (वि० सं० १८६१ चैत्र शुक्ला पञ्चमो
२. तत्वार्थसूत्र भाषा
३. प्रमेयरत्नमाला टीका (वि० सं० १८६३ आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी बुधवार)
४. स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा वि सं० १८६३ श्रावण कृष्णा तृतीया)
५. द्रव्यसंग्रह टीका (वि० सं० १८६३ श्रावण कृष्णा चतुर्दशी और दोहामय पद्यानुवाद)
६. समयसार टोका (वि० सं० १८६४ कार्तिक कृष्णा दशमो)
७, देवागमस्तोत्र टीका (वि० सं०१८६६)
८. अष्टपाहुड भाषा (वि० सं०१८६७ भाद्र शुक्ला त्रयोदशी)
९. ज्ञानार्णव भाषा (वि० सं० १८६९)
१०. भक्तामर स्तोत्र (वि० सं० १८७०)
११. पद संग्रह
१२. चन्द्रप्रभचरित्र (न्याविषयिक) भाषा | वि० सं०१८७४
१३. धन्यकुमारचरित्र
पण्डित जयचन्द की बचनिकाओंकी भाषा ढूद्वारी है । क्रियापदोंके परिवर्तित करनेपर उनको भाषा आधुनिक खड़ी बोलीका रूप ले सकती है । उदाहरणार्थ यहाँ दी एक उद्धरण प्रस्तुत किये जाते हैं
"बहुरि वचन दोय प्रकार हैं, द्रव्यवचन, भाववचन | तहाँ वीर्यान्तराय मतिश्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम होते अंगोपांगनामा नामकर्मके उदयतें आत्माके बोलनेकी सामर्थ्य होय, सो तो भाववचन है । सो पुदगलकर्मके निमित्तसे भया तातें पुद्गलका कहिये बहुरि तिस बोलनेका सामर्थ्य सहित आत्माकरि कंठ तालुवा जीभ आदि स्थाननिरि प्रेरे जे पुद्गल, ते वचनरूप परिणये ते पुदगल ही है । ते श्रोत्र इन्द्रियके विषय हैं, और इन्द्रियके ग्रहण योग्य नाहीं हैं। जैसे घ्राणइन्द्रिय का विषय गंघट्दथ्य है, तिस प्राण के रसादिक ग्रहण योग्य नहीं हैं तैसें ।" सर्वार्थसिद्धि ५-१९ ।
"जैसे इस लोकविर्षे सुवर्ण अर रूपा गालि एक किये एक पिंडका व्यवहार होता है, तैसें आत्माके अर शरीरके परस्पर एक क्षेत्रावगाहको अवस्था होते, एक पणाका व्यवहार है, ऐसे व्यवहार मात्र ही करि आत्मा अर शरीरका एकपणा है। बहरि निरचयते एकपणा नाहीं है, जाल पोला अर पांडुर है स्वभाब जिनका ऐसा सुवर्ण बर रूपा है, तिनके जैसें निश्चय विचारिये तब अत्यन्त भिन्नपणा करि एक-एक पदार्थषणाको अनुपपत्ति है, तातै नानापना ही है । तेसे ही आत्मा अर शरीर उपयोग स्वभाव है । तिनिकै अत्यन्त भिन्नपणात एक पदार्थपेणाकी प्राप्ति नाहीं तातै नानापणा ही है। ऐसा प्रगट नय विभाग है।"-समयसार २८
हिन्दी जन साहित्यके गद्य-पद्य लेखक विद्वानोंमें पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा का नाम उल्लेखनीय है । इन्होंने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिकी हिन्दी टीका समाप्त करते हुए अन्तिम प्रशस्ति में अपना परिचय अंकित किया है
काल अनादि भ्रमत संसार, पायो नरभव मैं सुखकार |
जन्म फागई लयौ सुथानि, मोतीराम पिताकै आनि ।।
पायो नाम तहां जयचन्द, यह परजाल तण मकरंद ।
द्रव्य दृष्टि में देखें जब, मेरा नाम आतमा कबै ।।
गोत छाबड़ा धावक धर्म, जामें भली क्रिया शुभकर्म ।
ग्यारह वर्ष अवस्था पई, तब जिन मारगकी सुधि लही ।।
निमित्त पाय जयपुरमें आय, बड़ी जु शैली देखी भाय ।।
गुणो लोक साधर्मी भल, ज्ञानी पंडित बहुत मिले ।
पहले थे बंगाधर नाम, धरै प्रभाव भाव शुभ ठाम ।।
टोहरमल पंडित मति खरी, गोमटसार वनिका करी ।
ताकी महिमा सब जन करें, वा, पढ़ें बुद्धि विस्तरें ।।
दौलतराम गुणी अधिकाय, पंडितराय राजमैं जाय ।
ताकी बुद्धि लस सब खरी, तीन प्रमाण वनिका करी ॥
रायमल्ल त्यागी गृह वास, महाराम ब्रत शोल निवास |
मैं हूँ इनकी संगति ठानि, बुधसारू जिनवाणी जानि ।।
अर्थात्-कविका कम मागी लामा ग्राममें हुमाया। यह मान जयसुरसे डिग्गीमालपुरा रोडपर ३० मालकी दुरीपर बसा हुआ है। यहाँ आपके पिता मोतीरामजी पटवारीका काम करते थे। इससे आपका वंश पटवारी नामसे प्रसिद्ध रहा है।
११ वर्ष की अवस्था व्यतीत हो जानेपर कविका ध्यान जैनधर्मकी ओर गया और उसी में अपने हितको निहित समझकर आपने अपनी श्रद्धाको सदढ़ बनाने का प्रयत्न किया। फलत: जयचन्दीने जनदर्शन और तत्त्वज्ञानके अध्ययनका प्रयास किया । वि० सं०१८२१में जयपुरमें इन्द्रध्वज पूजा महोत्सवका विशाल आयोजन किया गया था। इस उत्सव में आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजीके आध्यात्मिक प्रवचन होते थे। इन प्रवचनोंका लाभ उठाने के लिए दूर-दुरके व्यक्ति वहाँ आये थे। पण्डित जयचन्द भो यहाँ पधारे और जैनधर्मकी ओर इनका पूर्ण झुकाव हुआ । फलतः ३-४ वर्षके पश्चात् ये जयपुर में हो आकर रहने लगे । जयचन्दजोने जयपुर में सैद्धान्तिक अन्धोंका गम्भीर अध्ययन किया ।
जयचन्दजीका स्वभाव सरल और उदार था। उनका रहन-सहन और देश-भूषा सीधी-सादी थी। ये श्रावकोचित क्रियाओंका पालन करते थे और बड़े अच्छे विद्याश्यसनी थे । अध्ययनार्थियोंको भीड़ इनके पास सदा लगी रहती थी। इनके पुत्रका नाम नन्दलाल था, जो बहुत ही सुयोग्य विद्वान् था और पण्डितजोके पठन-पाठनादि कार्यों में सहयोग देता था। मन्नालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द इनके प्रमुख शिष्य थे ।
शिष्य | मन्नालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द |
एक दिन जयपुरमें एक विदेशी विद्वान शास्त्रार्थ करनेके लिए आया । नगरके अधिकांश विद्वान उससे पराजित हो चुके थे। अतः राज्य कर्मचारियों और विद्वान पंचोंने पण्डित जयचन्दजीसे, उक्त विद्वानसे शास्त्रार्थ करनेकीप्राधमा की । पर उन्होंने कहा कि आप मेरे स्थानपर मेरे पुत्र नम्बलालको से जाइये । यही उस विद्वानको शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा। हुबा भी यही । नन्दलालने अपनी युक्तियोंसे उस विद्वानको परास्त कर दिया। इससे नन्द लालका बड़ा यश व्याप्त हया और उसे नगरकी ओरसे उपाधि दी गयो । नन्दलालने जयचन्दजीको सभी टोकाग्रन्थों में सहायता दी है। सवार्थसिद्धिकी प्रशस्तिमें लिखा है
लिखी यह जयचन्दन सोधी सुत नन्दलाल |
बुधखि भूलि जु शुद्ध करी बांचौ सिखे वो बाल ।।
नन्दलाल मेरा सुत मुनी बालपने ते विद्यासुनी।
पण्डित भयो बड़ी परवीन ताहूने यह प्रेरणकोन ।।
पण्डित जयचन्दजीका समय वि० सं०को १९वीं शती है । इन्होंने निम्न लिखित ग्रंथोंकी भाषा वचनिकाएं लिखी है
१. सर्वार्थसिद्धि वनिका (वि० सं० १८६१ चैत्र शुक्ला पञ्चमो
२. तत्वार्थसूत्र भाषा
३. प्रमेयरत्नमाला टीका (वि० सं० १८६३ आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी बुधवार)
४. स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा वि सं० १८६३ श्रावण कृष्णा तृतीया)
५. द्रव्यसंग्रह टीका (वि० सं० १८६३ श्रावण कृष्णा चतुर्दशी और दोहामय पद्यानुवाद)
६. समयसार टोका (वि० सं० १८६४ कार्तिक कृष्णा दशमो)
७, देवागमस्तोत्र टीका (वि० सं०१८६६)
८. अष्टपाहुड भाषा (वि० सं०१८६७ भाद्र शुक्ला त्रयोदशी)
९. ज्ञानार्णव भाषा (वि० सं० १८६९)
१०. भक्तामर स्तोत्र (वि० सं० १८७०)
११. पद संग्रह
१२. चन्द्रप्रभचरित्र (न्याविषयिक) भाषा | वि० सं०१८७४
१३. धन्यकुमारचरित्र
पण्डित जयचन्द की बचनिकाओंकी भाषा ढूद्वारी है । क्रियापदोंके परिवर्तित करनेपर उनको भाषा आधुनिक खड़ी बोलीका रूप ले सकती है । उदाहरणार्थ यहाँ दी एक उद्धरण प्रस्तुत किये जाते हैं
"बहुरि वचन दोय प्रकार हैं, द्रव्यवचन, भाववचन | तहाँ वीर्यान्तराय मतिश्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम होते अंगोपांगनामा नामकर्मके उदयतें आत्माके बोलनेकी सामर्थ्य होय, सो तो भाववचन है । सो पुदगलकर्मके निमित्तसे भया तातें पुद्गलका कहिये बहुरि तिस बोलनेका सामर्थ्य सहित आत्माकरि कंठ तालुवा जीभ आदि स्थाननिरि प्रेरे जे पुद्गल, ते वचनरूप परिणये ते पुदगल ही है । ते श्रोत्र इन्द्रियके विषय हैं, और इन्द्रियके ग्रहण योग्य नाहीं हैं। जैसे घ्राणइन्द्रिय का विषय गंघट्दथ्य है, तिस प्राण के रसादिक ग्रहण योग्य नहीं हैं तैसें ।" सर्वार्थसिद्धि ५-१९ ।
"जैसे इस लोकविर्षे सुवर्ण अर रूपा गालि एक किये एक पिंडका व्यवहार होता है, तैसें आत्माके अर शरीरके परस्पर एक क्षेत्रावगाहको अवस्था होते, एक पणाका व्यवहार है, ऐसे व्यवहार मात्र ही करि आत्मा अर शरीरका एकपणा है। बहरि निरचयते एकपणा नाहीं है, जाल पोला अर पांडुर है स्वभाब जिनका ऐसा सुवर्ण बर रूपा है, तिनके जैसें निश्चय विचारिये तब अत्यन्त भिन्नपणा करि एक-एक पदार्थषणाको अनुपपत्ति है, तातै नानापना ही है । तेसे ही आत्मा अर शरीर उपयोग स्वभाव है । तिनिकै अत्यन्त भिन्नपणात एक पदार्थपेणाकी प्राप्ति नाहीं तातै नानापणा ही है। ऐसा प्रगट नय विभाग है।"-समयसार २८
#PanditJaichandChhabra
आचार्यतुल्य पंडित जयचंद छाबड़ा 19वीं शताब्दी
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 1 जून 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 1 June 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
हिन्दी जन साहित्यके गद्य-पद्य लेखक विद्वानोंमें पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा का नाम उल्लेखनीय है । इन्होंने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिकी हिन्दी टीका समाप्त करते हुए अन्तिम प्रशस्ति में अपना परिचय अंकित किया है
काल अनादि भ्रमत संसार, पायो नरभव मैं सुखकार |
जन्म फागई लयौ सुथानि, मोतीराम पिताकै आनि ।।
पायो नाम तहां जयचन्द, यह परजाल तण मकरंद ।
द्रव्य दृष्टि में देखें जब, मेरा नाम आतमा कबै ।।
गोत छाबड़ा धावक धर्म, जामें भली क्रिया शुभकर्म ।
ग्यारह वर्ष अवस्था पई, तब जिन मारगकी सुधि लही ।।
निमित्त पाय जयपुरमें आय, बड़ी जु शैली देखी भाय ।।
गुणो लोक साधर्मी भल, ज्ञानी पंडित बहुत मिले ।
पहले थे बंगाधर नाम, धरै प्रभाव भाव शुभ ठाम ।।
टोहरमल पंडित मति खरी, गोमटसार वनिका करी ।
ताकी महिमा सब जन करें, वा, पढ़ें बुद्धि विस्तरें ।।
दौलतराम गुणी अधिकाय, पंडितराय राजमैं जाय ।
ताकी बुद्धि लस सब खरी, तीन प्रमाण वनिका करी ॥
रायमल्ल त्यागी गृह वास, महाराम ब्रत शोल निवास |
मैं हूँ इनकी संगति ठानि, बुधसारू जिनवाणी जानि ।।
अर्थात्-कविका कम मागी लामा ग्राममें हुमाया। यह मान जयसुरसे डिग्गीमालपुरा रोडपर ३० मालकी दुरीपर बसा हुआ है। यहाँ आपके पिता मोतीरामजी पटवारीका काम करते थे। इससे आपका वंश पटवारी नामसे प्रसिद्ध रहा है।
११ वर्ष की अवस्था व्यतीत हो जानेपर कविका ध्यान जैनधर्मकी ओर गया और उसी में अपने हितको निहित समझकर आपने अपनी श्रद्धाको सदढ़ बनाने का प्रयत्न किया। फलत: जयचन्दीने जनदर्शन और तत्त्वज्ञानके अध्ययनका प्रयास किया । वि० सं०१८२१में जयपुरमें इन्द्रध्वज पूजा महोत्सवका विशाल आयोजन किया गया था। इस उत्सव में आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजीके आध्यात्मिक प्रवचन होते थे। इन प्रवचनोंका लाभ उठाने के लिए दूर-दुरके व्यक्ति वहाँ आये थे। पण्डित जयचन्द भो यहाँ पधारे और जैनधर्मकी ओर इनका पूर्ण झुकाव हुआ । फलतः ३-४ वर्षके पश्चात् ये जयपुर में हो आकर रहने लगे । जयचन्दजोने जयपुर में सैद्धान्तिक अन्धोंका गम्भीर अध्ययन किया ।
जयचन्दजीका स्वभाव सरल और उदार था। उनका रहन-सहन और देश-भूषा सीधी-सादी थी। ये श्रावकोचित क्रियाओंका पालन करते थे और बड़े अच्छे विद्याश्यसनी थे । अध्ययनार्थियोंको भीड़ इनके पास सदा लगी रहती थी। इनके पुत्रका नाम नन्दलाल था, जो बहुत ही सुयोग्य विद्वान् था और पण्डितजोके पठन-पाठनादि कार्यों में सहयोग देता था। मन्नालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द इनके प्रमुख शिष्य थे ।
शिष्य | मन्नालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द |
एक दिन जयपुरमें एक विदेशी विद्वान शास्त्रार्थ करनेके लिए आया । नगरके अधिकांश विद्वान उससे पराजित हो चुके थे। अतः राज्य कर्मचारियों और विद्वान पंचोंने पण्डित जयचन्दजीसे, उक्त विद्वानसे शास्त्रार्थ करनेकीप्राधमा की । पर उन्होंने कहा कि आप मेरे स्थानपर मेरे पुत्र नम्बलालको से जाइये । यही उस विद्वानको शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा। हुबा भी यही । नन्दलालने अपनी युक्तियोंसे उस विद्वानको परास्त कर दिया। इससे नन्द लालका बड़ा यश व्याप्त हया और उसे नगरकी ओरसे उपाधि दी गयो । नन्दलालने जयचन्दजीको सभी टोकाग्रन्थों में सहायता दी है। सवार्थसिद्धिकी प्रशस्तिमें लिखा है
लिखी यह जयचन्दन सोधी सुत नन्दलाल |
बुधखि भूलि जु शुद्ध करी बांचौ सिखे वो बाल ।।
नन्दलाल मेरा सुत मुनी बालपने ते विद्यासुनी।
पण्डित भयो बड़ी परवीन ताहूने यह प्रेरणकोन ।।
पण्डित जयचन्दजीका समय वि० सं०को १९वीं शती है । इन्होंने निम्न लिखित ग्रंथोंकी भाषा वचनिकाएं लिखी है
१. सर्वार्थसिद्धि वनिका (वि० सं० १८६१ चैत्र शुक्ला पञ्चमो
२. तत्वार्थसूत्र भाषा
३. प्रमेयरत्नमाला टीका (वि० सं० १८६३ आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी बुधवार)
४. स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा वि सं० १८६३ श्रावण कृष्णा तृतीया)
५. द्रव्यसंग्रह टीका (वि० सं० १८६३ श्रावण कृष्णा चतुर्दशी और दोहामय पद्यानुवाद)
६. समयसार टोका (वि० सं० १८६४ कार्तिक कृष्णा दशमो)
७, देवागमस्तोत्र टीका (वि० सं०१८६६)
८. अष्टपाहुड भाषा (वि० सं०१८६७ भाद्र शुक्ला त्रयोदशी)
९. ज्ञानार्णव भाषा (वि० सं० १८६९)
१०. भक्तामर स्तोत्र (वि० सं० १८७०)
११. पद संग्रह
१२. चन्द्रप्रभचरित्र (न्याविषयिक) भाषा | वि० सं०१८७४
१३. धन्यकुमारचरित्र
पण्डित जयचन्द की बचनिकाओंकी भाषा ढूद्वारी है । क्रियापदोंके परिवर्तित करनेपर उनको भाषा आधुनिक खड़ी बोलीका रूप ले सकती है । उदाहरणार्थ यहाँ दी एक उद्धरण प्रस्तुत किये जाते हैं
"बहुरि वचन दोय प्रकार हैं, द्रव्यवचन, भाववचन | तहाँ वीर्यान्तराय मतिश्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम होते अंगोपांगनामा नामकर्मके उदयतें आत्माके बोलनेकी सामर्थ्य होय, सो तो भाववचन है । सो पुदगलकर्मके निमित्तसे भया तातें पुद्गलका कहिये बहुरि तिस बोलनेका सामर्थ्य सहित आत्माकरि कंठ तालुवा जीभ आदि स्थाननिरि प्रेरे जे पुद्गल, ते वचनरूप परिणये ते पुदगल ही है । ते श्रोत्र इन्द्रियके विषय हैं, और इन्द्रियके ग्रहण योग्य नाहीं हैं। जैसे घ्राणइन्द्रिय का विषय गंघट्दथ्य है, तिस प्राण के रसादिक ग्रहण योग्य नहीं हैं तैसें ।" सर्वार्थसिद्धि ५-१९ ।
"जैसे इस लोकविर्षे सुवर्ण अर रूपा गालि एक किये एक पिंडका व्यवहार होता है, तैसें आत्माके अर शरीरके परस्पर एक क्षेत्रावगाहको अवस्था होते, एक पणाका व्यवहार है, ऐसे व्यवहार मात्र ही करि आत्मा अर शरीरका एकपणा है। बहरि निरचयते एकपणा नाहीं है, जाल पोला अर पांडुर है स्वभाब जिनका ऐसा सुवर्ण बर रूपा है, तिनके जैसें निश्चय विचारिये तब अत्यन्त भिन्नपणा करि एक-एक पदार्थषणाको अनुपपत्ति है, तातै नानापना ही है । तेसे ही आत्मा अर शरीर उपयोग स्वभाव है । तिनिकै अत्यन्त भिन्नपणात एक पदार्थपेणाकी प्राप्ति नाहीं तातै नानापणा ही है। ऐसा प्रगट नय विभाग है।"-समयसार २८
Acharyatulya Pandit Jaichand Chhabra 19th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 1 June 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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