हैशटैग
#MedhaviPrachin
मेधावीके गुरुका नाम जिनचन्द्र सूरि था । इन्होंने 'धर्मसंग्रह-श्रावकाचार' मामक ग्रंथको रचना हिसार नामक नगरमें प्रारंभ की थी और उसकी समाप्ति नागपुरमें हुई। उस समय नागपुर पर फिरोजशाहका शासन था । मेधावीने 'धर्मसंग्रहश्रावकचार के अन्त में प्रशस्ति अंकित की है, जिसमें बताया है कि कुन्द कुन्दके आम्नायमें पवित्र गणोंके धारक स्याद्वाविद्याके पारगामी पानन्दि आचार्य हुए। इन पद्मनन्दिके पट्टपर द्रव्य और गणोंके ज्ञाता शुभचन्द्र मुनि राज हुए। इन शुभचन्द्र मुनिराजके पट्टपर श्रुतमुनि हुए। इन श्रुतमुनिसे मेघावीने अष्टसहस्री ग्रंथका अध्ययन किया। जिनचन्द्र के शिष्यों में रत्नकीत्ति का भी नाम आया है। मेधावी श्रावकाचारके अद्वितीय पंडित थे । इन्होंने समन्तभद्र, वसुनन्दि और आशाधर इन तीनों आचार्यों के श्रावकाचारोंका अध्ययन कर धर्मसंग्रह श्रावकाचारकी रचना की है। मेधावीने ग्रंथरचना कालका निर्देश कर अपने समयको सूचना स्वयं दे दी है । बताया है
गुरु | जिनचन्द्र सूरि |
सपादलक्ष विषयेऽतिसुन्दरे
श्रिया पुरं नागपुरं समस्ति तत् ।
पेरोजखानो नृपतिः प्रपति स
न्यायेन शौर्येण रिपून्निहन्ति च ।। १८ ।।
मेधाविनामा निवसन्नहं बुधः
पूर्ण व्यघां ग्रन्थमिमं तु कात्तिके ।
चन्द्राब्धिवाणकमितेऽत्र (१५४१) वत्सरे
कृष्णे त्रयोदश्यहनि स्वशक्तितः ।। २१ ॥
वि० सं० १५४१ कात्तिक कृष्णा प्रयोदशीके दिन धर्मसंग्रहश्रावकाचारको समाप्ति हुई है। इस प्रकार मेधावीने ग्रंथरचनाका समय सूचित कर अपने समयका निर्देश कर दिया है । अतएव कविका समय पिकी १६वीं शती है।
कविका एक ही ग्रन्थ उपलब्ध है-धर्मसंग्रहश्रावकाचार। इस श्रावका चारमें १० अधिकार हैं। प्रथम अधिकारमें श्रेषिक द्वारा गौतम मणधरसे श्रावकाचार सम्बन्धी प्रश्न पूछना और गौतमका उत्तर देना बणित है। इस अधिकारमें प्रधानतः राजगृहके विपुलाचल पर्वत पर तीर्थकर महावीरके समवशरणका वर्णन आया है और उसका द्वितीय अधिकारमें विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। मानस्संभ, वीथियों, गोपुर, वप्र, प्राकार, तोरण आदि भी इसी अधिकारमें वणित है। तृतीय अधिकार में श्रेणिक महाराजका समवशरण में पहुँचकर अपने कक्षमें बैठना एवं महावीरकी दिव्यध्वनिका खिरना बणित है। चतुर्थ अधिकारमें सम्यग्दर्शनका निरूपण आया है। सम्यग्दर्शनको हो धर्मका मूल बतलाया है। जब तक व्यक्ति की आस्था धर्मोन्मुख नहीं होती तब तक वह अपनी आस्माका उत्थान नहीं कर सकता । असः मेधावीने सम्यग्दर्शन के साथ अष्टमूलगुण, द्वादश प्रतिमाएं, सात तत्त्व, नव पदार्थ आदिका कथन किया है। इसी प्रसंगमें ३६३ मिथ्यावादियोंकी समीक्षा भी की गई है। चतुर्थ अधिकारका ८१वां पद्य आशाधरके सामारधर्मामतके प्रथम अध्यायके १३वें पद्यसे बिल्कुल प्रभावित है । ऐसा प्रतीत होता है कि मेधावीने चतुर्थ अध्यायके ७५, ७८ और ५७९ पद्य भी आशाधरके सागारधर्मामतके अध्ययन के पश्चात् ही लिखे हैं। पंचम अधिकारमें दर्शन-प्रतिमाका वर्णन किया गया है और प्रसंगवश मद्य, मांस और मधुके त्याग पर जोर दिया गया है। नवनीत, पंचउदुम्बरफल, अक्ष्यभक्षण, द्यूतक्रीडाके त्यागका भी निर्देश किया गया है। षष्ठ अधिकारमें पंचागुब्रतोंका स्वरूप आया है और सप्तममें सात शीलोंका वर्णन किया है। अष्टम अधिकारमें सामायिकादि दश प्रतिमाओंका वर्णन किया गया है | नवम अधिकारमें ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग इन पांच समि तियों के स्वरूपवर्णनके पश्चात् नैष्ठिक श्रावकके लिए विधेय कर्तव्यापर प्रकाश डाला गया है । इस अधिकारमें संयम, दान, स्वाध्याय मल्लेख नाका भी वर्णन आया है । दशम अधिकारमें विशेष रूपसे समाधिमरणका कथन किया गया है ।
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जो साधक अपनी मृत्युके समयको शान्तिपूर्वक सिद्ध कर लेता है वह सद्गति लाभ करता है। इस प्रकार मेघावीने धर्मसंग्रहश्रावकारारकी रचना कर श्रावकाचारको संक्षेपमें बतलानेका प्रयास किया है। इस अन्धका प्रकाशन बाबू सूरजभान वकील देवबन्द द्वारा १२१० में हो चुका है।
मेधावीके गुरुका नाम जिनचन्द्र सूरि था । इन्होंने 'धर्मसंग्रह-श्रावकाचार' मामक ग्रंथको रचना हिसार नामक नगरमें प्रारंभ की थी और उसकी समाप्ति नागपुरमें हुई। उस समय नागपुर पर फिरोजशाहका शासन था । मेधावीने 'धर्मसंग्रहश्रावकचार के अन्त में प्रशस्ति अंकित की है, जिसमें बताया है कि कुन्द कुन्दके आम्नायमें पवित्र गणोंके धारक स्याद्वाविद्याके पारगामी पानन्दि आचार्य हुए। इन पद्मनन्दिके पट्टपर द्रव्य और गणोंके ज्ञाता शुभचन्द्र मुनि राज हुए। इन शुभचन्द्र मुनिराजके पट्टपर श्रुतमुनि हुए। इन श्रुतमुनिसे मेघावीने अष्टसहस्री ग्रंथका अध्ययन किया। जिनचन्द्र के शिष्यों में रत्नकीत्ति का भी नाम आया है। मेधावी श्रावकाचारके अद्वितीय पंडित थे । इन्होंने समन्तभद्र, वसुनन्दि और आशाधर इन तीनों आचार्यों के श्रावकाचारोंका अध्ययन कर धर्मसंग्रह श्रावकाचारकी रचना की है। मेधावीने ग्रंथरचना कालका निर्देश कर अपने समयको सूचना स्वयं दे दी है । बताया है
गुरु | जिनचन्द्र सूरि |
सपादलक्ष विषयेऽतिसुन्दरे
श्रिया पुरं नागपुरं समस्ति तत् ।
पेरोजखानो नृपतिः प्रपति स
न्यायेन शौर्येण रिपून्निहन्ति च ।। १८ ।।
मेधाविनामा निवसन्नहं बुधः
पूर्ण व्यघां ग्रन्थमिमं तु कात्तिके ।
चन्द्राब्धिवाणकमितेऽत्र (१५४१) वत्सरे
कृष्णे त्रयोदश्यहनि स्वशक्तितः ।। २१ ॥
वि० सं० १५४१ कात्तिक कृष्णा प्रयोदशीके दिन धर्मसंग्रहश्रावकाचारको समाप्ति हुई है। इस प्रकार मेधावीने ग्रंथरचनाका समय सूचित कर अपने समयका निर्देश कर दिया है । अतएव कविका समय पिकी १६वीं शती है।
कविका एक ही ग्रन्थ उपलब्ध है-धर्मसंग्रहश्रावकाचार। इस श्रावका चारमें १० अधिकार हैं। प्रथम अधिकारमें श्रेषिक द्वारा गौतम मणधरसे श्रावकाचार सम्बन्धी प्रश्न पूछना और गौतमका उत्तर देना बणित है। इस अधिकारमें प्रधानतः राजगृहके विपुलाचल पर्वत पर तीर्थकर महावीरके समवशरणका वर्णन आया है और उसका द्वितीय अधिकारमें विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। मानस्संभ, वीथियों, गोपुर, वप्र, प्राकार, तोरण आदि भी इसी अधिकारमें वणित है। तृतीय अधिकार में श्रेणिक महाराजका समवशरण में पहुँचकर अपने कक्षमें बैठना एवं महावीरकी दिव्यध्वनिका खिरना बणित है। चतुर्थ अधिकारमें सम्यग्दर्शनका निरूपण आया है। सम्यग्दर्शनको हो धर्मका मूल बतलाया है। जब तक व्यक्ति की आस्था धर्मोन्मुख नहीं होती तब तक वह अपनी आस्माका उत्थान नहीं कर सकता । असः मेधावीने सम्यग्दर्शन के साथ अष्टमूलगुण, द्वादश प्रतिमाएं, सात तत्त्व, नव पदार्थ आदिका कथन किया है। इसी प्रसंगमें ३६३ मिथ्यावादियोंकी समीक्षा भी की गई है। चतुर्थ अधिकारका ८१वां पद्य आशाधरके सामारधर्मामतके प्रथम अध्यायके १३वें पद्यसे बिल्कुल प्रभावित है । ऐसा प्रतीत होता है कि मेधावीने चतुर्थ अध्यायके ७५, ७८ और ५७९ पद्य भी आशाधरके सागारधर्मामतके अध्ययन के पश्चात् ही लिखे हैं। पंचम अधिकारमें दर्शन-प्रतिमाका वर्णन किया गया है और प्रसंगवश मद्य, मांस और मधुके त्याग पर जोर दिया गया है। नवनीत, पंचउदुम्बरफल, अक्ष्यभक्षण, द्यूतक्रीडाके त्यागका भी निर्देश किया गया है। षष्ठ अधिकारमें पंचागुब्रतोंका स्वरूप आया है और सप्तममें सात शीलोंका वर्णन किया है। अष्टम अधिकारमें सामायिकादि दश प्रतिमाओंका वर्णन किया गया है | नवम अधिकारमें ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग इन पांच समि तियों के स्वरूपवर्णनके पश्चात् नैष्ठिक श्रावकके लिए विधेय कर्तव्यापर प्रकाश डाला गया है । इस अधिकारमें संयम, दान, स्वाध्याय मल्लेख नाका भी वर्णन आया है । दशम अधिकारमें विशेष रूपसे समाधिमरणका कथन किया गया है ।
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जो साधक अपनी मृत्युके समयको शान्तिपूर्वक सिद्ध कर लेता है वह सद्गति लाभ करता है। इस प्रकार मेघावीने धर्मसंग्रहश्रावकारारकी रचना कर श्रावकाचारको संक्षेपमें बतलानेका प्रयास किया है। इस अन्धका प्रकाशन बाबू सूरजभान वकील देवबन्द द्वारा १२१० में हो चुका है।
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आचार्यतुल्य पंडित श्री १०८ मेधावी 16वीं शताब्दी
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 06 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 06 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
मेधावीके गुरुका नाम जिनचन्द्र सूरि था । इन्होंने 'धर्मसंग्रह-श्रावकाचार' मामक ग्रंथको रचना हिसार नामक नगरमें प्रारंभ की थी और उसकी समाप्ति नागपुरमें हुई। उस समय नागपुर पर फिरोजशाहका शासन था । मेधावीने 'धर्मसंग्रहश्रावकचार के अन्त में प्रशस्ति अंकित की है, जिसमें बताया है कि कुन्द कुन्दके आम्नायमें पवित्र गणोंके धारक स्याद्वाविद्याके पारगामी पानन्दि आचार्य हुए। इन पद्मनन्दिके पट्टपर द्रव्य और गणोंके ज्ञाता शुभचन्द्र मुनि राज हुए। इन शुभचन्द्र मुनिराजके पट्टपर श्रुतमुनि हुए। इन श्रुतमुनिसे मेघावीने अष्टसहस्री ग्रंथका अध्ययन किया। जिनचन्द्र के शिष्यों में रत्नकीत्ति का भी नाम आया है। मेधावी श्रावकाचारके अद्वितीय पंडित थे । इन्होंने समन्तभद्र, वसुनन्दि और आशाधर इन तीनों आचार्यों के श्रावकाचारोंका अध्ययन कर धर्मसंग्रह श्रावकाचारकी रचना की है। मेधावीने ग्रंथरचना कालका निर्देश कर अपने समयको सूचना स्वयं दे दी है । बताया है
गुरु | जिनचन्द्र सूरि |
सपादलक्ष विषयेऽतिसुन्दरे
श्रिया पुरं नागपुरं समस्ति तत् ।
पेरोजखानो नृपतिः प्रपति स
न्यायेन शौर्येण रिपून्निहन्ति च ।। १८ ।।
मेधाविनामा निवसन्नहं बुधः
पूर्ण व्यघां ग्रन्थमिमं तु कात्तिके ।
चन्द्राब्धिवाणकमितेऽत्र (१५४१) वत्सरे
कृष्णे त्रयोदश्यहनि स्वशक्तितः ।। २१ ॥
वि० सं० १५४१ कात्तिक कृष्णा प्रयोदशीके दिन धर्मसंग्रहश्रावकाचारको समाप्ति हुई है। इस प्रकार मेधावीने ग्रंथरचनाका समय सूचित कर अपने समयका निर्देश कर दिया है । अतएव कविका समय पिकी १६वीं शती है।
कविका एक ही ग्रन्थ उपलब्ध है-धर्मसंग्रहश्रावकाचार। इस श्रावका चारमें १० अधिकार हैं। प्रथम अधिकारमें श्रेषिक द्वारा गौतम मणधरसे श्रावकाचार सम्बन्धी प्रश्न पूछना और गौतमका उत्तर देना बणित है। इस अधिकारमें प्रधानतः राजगृहके विपुलाचल पर्वत पर तीर्थकर महावीरके समवशरणका वर्णन आया है और उसका द्वितीय अधिकारमें विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। मानस्संभ, वीथियों, गोपुर, वप्र, प्राकार, तोरण आदि भी इसी अधिकारमें वणित है। तृतीय अधिकार में श्रेणिक महाराजका समवशरण में पहुँचकर अपने कक्षमें बैठना एवं महावीरकी दिव्यध्वनिका खिरना बणित है। चतुर्थ अधिकारमें सम्यग्दर्शनका निरूपण आया है। सम्यग्दर्शनको हो धर्मका मूल बतलाया है। जब तक व्यक्ति की आस्था धर्मोन्मुख नहीं होती तब तक वह अपनी आस्माका उत्थान नहीं कर सकता । असः मेधावीने सम्यग्दर्शन के साथ अष्टमूलगुण, द्वादश प्रतिमाएं, सात तत्त्व, नव पदार्थ आदिका कथन किया है। इसी प्रसंगमें ३६३ मिथ्यावादियोंकी समीक्षा भी की गई है। चतुर्थ अधिकारका ८१वां पद्य आशाधरके सामारधर्मामतके प्रथम अध्यायके १३वें पद्यसे बिल्कुल प्रभावित है । ऐसा प्रतीत होता है कि मेधावीने चतुर्थ अध्यायके ७५, ७८ और ५७९ पद्य भी आशाधरके सागारधर्मामतके अध्ययन के पश्चात् ही लिखे हैं। पंचम अधिकारमें दर्शन-प्रतिमाका वर्णन किया गया है और प्रसंगवश मद्य, मांस और मधुके त्याग पर जोर दिया गया है। नवनीत, पंचउदुम्बरफल, अक्ष्यभक्षण, द्यूतक्रीडाके त्यागका भी निर्देश किया गया है। षष्ठ अधिकारमें पंचागुब्रतोंका स्वरूप आया है और सप्तममें सात शीलोंका वर्णन किया है। अष्टम अधिकारमें सामायिकादि दश प्रतिमाओंका वर्णन किया गया है | नवम अधिकारमें ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग इन पांच समि तियों के स्वरूपवर्णनके पश्चात् नैष्ठिक श्रावकके लिए विधेय कर्तव्यापर प्रकाश डाला गया है । इस अधिकारमें संयम, दान, स्वाध्याय मल्लेख नाका भी वर्णन आया है । दशम अधिकारमें विशेष रूपसे समाधिमरणका कथन किया गया है ।
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जो साधक अपनी मृत्युके समयको शान्तिपूर्वक सिद्ध कर लेता है वह सद्गति लाभ करता है। इस प्रकार मेघावीने धर्मसंग्रहश्रावकारारकी रचना कर श्रावकाचारको संक्षेपमें बतलानेका प्रयास किया है। इस अन्धका प्रकाशन बाबू सूरजभान वकील देवबन्द द्वारा १२१० में हो चुका है।
Acharyatulya Pandit Medhavi 16th Century(Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 06 April 2022
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