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#Rajmal
राजमल्लके जीवन-परिचयके सम्बन्धमें लाटीसंहिताके अन्तमें प्रशस्ति उपलब्ध है। इस प्रशस्तिसे यद्यपि सम्पूर्ण तथ्य सामने नहीं आते-केवल उससे निम्नलिखित परिचय ही प्राप्त होता है
एतेषामस्ति मध्ये गहनुपरुचिमान् फामनः संघनाथ--
स्तेनोच्नः कारितेयं सदनसमूचिता संहिता नाम लाटी ।
श्रेयोऽयं फामनीयैः प्रमुदिसमनसा दानमानासनादयः।
स्वोपशा राजमल्लेन विदितविदुषाम्नायिना हेमचन्द्र ॥३८॥
-लाटीसंहिता ग्रन्थकर्ता प्रशस्ति, पद्य ३८
इस पद्यसे अन्धकर्ताक सम्बन्ध में इतना ही अवगत होता है कि वे हेमचन्द्र की आम्नायके एक प्रसिद्ध विद्वान थे और उन्होंने फामनके दान, मान, आस नादिकसे प्रसन्नचित्त होकर लाटीसंहिताकी रचना की थी। यहाँ जिन हेमचन्द्र का निर्देश आया है वे काष्ठासंघी भट्टारक हेमचन्द्र हैं, जो माथुरगच्छपुष्कर गणान्चयी भट्टारक कुमारसेनके पट्टशिष्य तथा पमनन्दि भट्टारकके पट्टगुरू थे, जिनको कविने लाठीसहिताके प्रथमसर्ग में बहुत प्रशंसा की है। बताया है कि वे भट्टारकोंके राजा थे। काव्यासंघरूपी आकाशम मिथ्या-अंधकारको दूर करनेवाले सूर्य थे और उनके नामकी स्मृतिमात्रसे दुसरे आचार्य निस्तेज हो जाते थे।
इन्हीं भट्टारक हेमचन्द्रकी आम्नायमें ताल्हू विद्वानको भी सूचित किया गया है । इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहता कि कवि राजमल काष्ठासंघो बिद्वान् थे। इन्होंने अपनेको हेमचन्द्रका शिष्य या प्रशिध्य न लिखकर आम्नायी असाया है। और फामनके दान, मान, आसनादिकसे प्रसन्न होकर लाटीसंहिताके लिखने की सूचना दो है । इससे यह स्पष्ट है कि राजमल्ल मुनि नहीं थे। वे गृहस्था चायं या ब्रह्मचारी रहे होंगे।
राजमल्लका काव्य अध्यात्मशास्त्र, प्रथमानुयोग और चरणानुयोगपर भावत है । 'जम्बस्वामीचरित में कविने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि मैं पदमें तो सबसे छोटा हूँ ही, बघ और ज्ञान आदि गुणोंमें भी सबसे छोटा हूँ
'सर्वेभ्योपि लघीयांश्च केवलं न क्रमादिह ।
वयसोऽपि लघुबुद्धा गुणैर्ज्ञानादिभिस्तथा ।।१।१३४॥'
--जम्बूस्वामाचरित १६१३४।
कवि राजमल्लने लाटीसंहिताकी समासि वि० सं० १६४१ में आश्विन दशमी रविचार के दिन की है। प्रशस्ति निम्न प्रकार है
(श्री) नुपतिविक्रमादित्य राज्ये परिणते सति ।
सहेकचत्वारिद्धिरब्दानां शतषोडश ||
तत्रापि चाश्विनोमासे सिशपक्षं शुभान्विते ।
दशम्यां च दशरथे शोभने रविवासरे ॥३॥
जम्बूस्वामीचरितके रचनाकालका भी निर्देश मिलता है। यह ग्रन्ध बि' सं० १६३२ चैत्र कृष्णा अष्टमी पुनर्वसु नक्षत्र में लिखा गया है । इस कान्यके आरम्भमें बताया गया है कि अगलपुर (आगरा)में बादशाह अकबरका राज्य था । कविका अकबरके प्रति जजिया कर और मद्यकी बन्दी करने के कारण आदर भाव था। इस काव्यको अग्रवालजातिमें उत्पन्न गगंगोत्री साहु टोडर के लिए रचा है। ये साहु टोइर अत्यन्त उदार, परोपकारी, दानशील और बिनयादि गुणोंसे सम्पन्न थे। कविने इस संदर्भ में साहु टोडरके परिवारका पूरा परिचय दिया है। उन्होंने मथुराकी यात्रा की थी और वहाँ जम्बूस्वामो क्षेत्रपर अपार धनव्यय करके ५०१ स्तुपोंकी मरम्मत तथा १५ स्तुपोंका जीर्णोद्धार कराया था। इन्हींकी प्रार्थनासे राजमल्लने आगरामें निवास करते हुए जम्मू स्वामीचरितकी रचना की है । अतएव संक्षेपमें कवि राज मल्लका समय विक्रम की १७वीं शती है। हमारा अनुमान है कि पञ्चाध्यायीकी रचना कविने लाटी संहिताके पश्चात् वि० सं० १६५०के लगभग की होगी। श्री जुगलकिशोर मुख्तार जीने लिखा है-'पञ्चाध्यायीका लिखा जाना लाटीसंहिताके बाद प्रारंभ हुआ है । अथवा पंचाध्यायीका प्रारंभ पहले हुआ हो या पाछे, इसमें सन्दह नहीं कि वह लाटीसंहिताके बाद प्रकाशमें आयी है। और उस वक्त जनताके सामने रखी गई है जबकि कवि महोदयकी यह लोकयात्रा प्रायः समाप्त हो चुकी थी। यही वजह है कि उसमें किसी सन्धि, अध्याय, प्रकरणादिक या ग्रथ कांके नामादिकी कोई योजना नहीं हो सकी और वह निर्माणाधीन स्थिति में हो जनताको उपलब्ध हुई है।"
अतएव यह मानना पड़ता है कि पञ्चाध्यायो कवि राजमल्लकी अंतिम रचना है और यह अपूर्ण है।
कवि राजमल्लको निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त होती है
१. लाटीसंहिता
२. जम्बस्वामीचरित
३. अध्यात्मकलमार्तण्ड
४. पञ्चाध्यायी
५. पिङ्गलशास्त्र
इस चरितकाव्यमें पुण्यपुरुष जम्बूस्वामीकी कथा वर्णित है। १३ सम हैं और २४०० पद्म 1 कथामखवर्णनमें आगराका बहुत ही सुन्दर वर्णन आया है । इस ग्रन्थकी रचना आगराम ही सम्पन्न हुई है। इस काव्यको कथावस्तुको दो भागोंमें विभक्त कर सकते हैं-पूर्वभव और वर्तमान जन्म | पूर्वभवावली में भावदेव और भवदेवके जोवनवृत्तोंका अंकन है । कदिने विद्यच्चरचोर का मास्यान भी वर्णित किया है। आरभके चार परिच्छेदोमें वणित सभी आख्यान पूर्वभवावलीसे सम्बन्धित हैं । पञ्चम परिच्छेदसे जम्बू स्वामीका इतिवृत्त आरंभ होता है। जम्बकुमारके पिताका नाम अहंददास था । जम्बूकुमार बड़े ही पराक्रमशाली और वीर थे। इन्होंने एक मदोन्मत्त हाथीको वश किया, जिससे प्रभावित होकर चार श्रीमन्त सेठोंने अपनी कन्याओं का विवाह उनके साथ कर दिया | जम्बूकुमार एक मुनिका उपदेश सुन विरक हो गये और वे दीक्षा लेनेका विचार करने लगे। चारों स्विबोंने अपने मधुर हाव-भावों द्वारा कुमारको विषयभोगोंके लिा आकर्षित करना चाहा; पर वे मेरके समान अडिग रहे। नवविवाहिताओंका' कुमारके साथ नानाप्रकारसे रोचक बातीलाप हुआ और उन्होंने कुमारको अपने वश में करने के लिए पूरा प्रयास किया पर अन्त में वे कुमारको अपने रागमें आबद्ध न कर सकी । बम्ब कुमारने जिनदीक्षा ग्रहणकर तपश्चरण किया तथा केवलजाम और निर्वाण पाया।
कविने कथावस्तुको सरस बनानेका पूर्ण प्रयास किया है । युगक्षेत्रका वर्णन करता हुआ कवि वोरता और रौद्रताका मूर्तरूप ही उपस्थित कर देता है.--
"प्रस्फुरत्स्फुरदस्रोषा भटाः सदर्शिताः परे ।
औत्पातिका इवानीला सोल्का मेघाः समुत्थिताः ।।
करवास करालाग्रं करे कृत्वाऽभयोमरः ।
पश्यन् मुखरसं तस्मिन् स्वसौन्दर्य परिजनिकान् ।।
करात विधुतं खड्मं तुलयकोऽप्यभारः ।
प्रमिमिसुरिवानेन स्वामीसत्कारनौरवच ॥"
जम्बूस्वामीवरित, १०४-१०६
कविने इस संदर्भ में दुल्पविम्बकी योजना को है। समर जास्वर अस्त्र धारण किये हुए बोडा इस प्रकारके दिखलाई पड़ते हैं जिसप्रकार उत्पातकालमें नोल मेघ जम्कासे परिपूर्ण परिलक्षित होते हैं । यह निमितवाला है कि उत्पासकालमें टूटकर पहनेवाली उल्काएँ बनियमित रूपसे सटित गति करती है और वे नीले मेघों के साथ मिलकर एक नया रूप प्रस्तुत करती हैं। कक्नेि इसी बिम्बको अपने मानसमें ग्रहणकर दीप्तिमान अस्त्रोस परिपूर्ण योवाओं कीआभाका चित्रण किया है। द्वितीय परामें हाथले अप्रभागमें धारण किये गये करवालमें योद्धाओंको रोषपूर्ण अपने मुखका प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है। इस कल्पनाको भी कविने चमत्कृतरूपमें ग्रहण किया है । इस प्रकार जम्बूस्वामी चरितमें बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों और रसभावोंको सुन्दर योजना की गई है। एकादश सग में सूक्तियोंका सुन्दर समावेश हुआ है।
लाटीसंहिताको रचना कविने वैराट नगरके जिनालय में की है । यह नगर जयपुरसे ४० मीलकी दूरी पर स्थित है। किसी समय यह विराद मत्स्यदेशको राजधानी था। इस नगरकी समद्धि इतनी अधिक थी कि यहाँ कोई दोन-दरिद्री दिखाई नहीं पड़ता। अकबर बादशाहका उस समय राज्य था । और वहीं इस नगरका स्वामी तथा भोक्ता था। जिस जिनालयमें बैठकर कविने इस ग्रन्धको रचना की है वह साधु दूदाकै ज्येष्ठ पुत्र और फामन के बड़े भाई न्योता'ने निर्माण कराया था। इस संहिताग्रंथको रचना करनेकी प्रेरणा देने वाले साह फामनके वंशका विस्तार सहित वर्णन है। और उससे फामनके समस्त परिवारका परिचय प्राप्त हो जाता है। साथ ही यह भी मालूम होता है कि वे लोग बहुत बंभवशालो और प्रभावशाली थे। इनकी पूर्वनिवास भूमि 'डौकनि' नामकी नगरी थो । और ये काष्ठासंघी भट्टारकोंकी उस गद्दी को मानते थे, जिसपर क्रमशः कुमारसेन, हेमचन्द्र, पपनन्दि, यश कीत्ति और क्षेमकीति नामके भट्टारक प्रतिष्ठित हुए थे। क्षेमकोतिभट्टारक उस समय वर्तमान थे और उनके उपदेश तथा आदेशसे उक्त जिनालयमें कितने ही चित्रों की रचना हुई थी। इस प्रकार कवि राजमल्लने वैराटनगर, अकबर बादशाह काष्ठासंघो भट्टारक बश, फामन कुटुम्ब, फामन एवं वैराट जिनालयका गुण गान किया है। लाटासंहितामें श्रावकाचारका वर्णन है और इसे ७ सर्गोमें विभक किया गया है । प्रथम सर्गमें ८७ पद्य और कथामुखभाग वर्णित है। द्वितीय सर्गमें अष्टमलगणका पालन और साच्यसनत्यागका वर्णन आया है। इस सर्गमें २१९ पध हैं। तृतीय सर्ग में सम्यग्दर्शनका सामान्यलक्षण वणित है और चतुर्थ सर्गमें सम्यग्दर्शनका विशेष स्वरूप निरूपित है और इसमें ३२२ पद्य है । पञ्चम सर्गमें २७३ पद्योंमें असहिसाके त्यागरूप प्रथमाणुव्रतका वर्णन किया गया है । षष्ट सर्ग में सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परि प्रहपरिमाणाणुवसका २५६ पद्योंमें कथन किया गया है। इसी अध्यायमें गुणवत और शिक्षाबलोंका भी अतिचार सहित वर्णन आया है । सप्तम अध्यायमें सामा यिक आदि प्रतिमाओंका वर्णन आया है। अन्तमें ४० पच प्रमाण ग्रंथकर्ताको प्रशस्ति दी गई है । पर इस प्रशस्तिमें कविका परिचय अंकित नहीं है।
-छोटी-सी रचना है और उसमें अध्यात्म-विषयका कथन आया है। अध्यात्मशास्त्रका अर्थ है परोपाधिके बिना मुलवस्तुका निर्देश करना अध्यात्मरूपी कमलको विकसित करनेके लिए यह कृति सूर्य के समान है। इसपर 'समयसार' आदि ग्रंथोंका प्रभाव है। इस ग्रंथमें ४ अध्याय और १०१ मा । म प्राय निरगोर गड्डार दोनों प्रकारके रत्नत्रयका, दूसरे अध्यायमें जीवादि सप्ततत्वोंके प्रसंगसे, द्रव्य, गुण और पर्याय तथा उत्पाद, व्यय और नोव्यका; तीसरे अध्यायमें जीवादि छ: द्रव्योंका और चौथे अध्याय में आरव आदि शेष तत्त्वोंका निरूपण किया है।
-इसमें छन्दशास्त्रके नियम, छन्दोंके लक्षण और उनके उदाहरण आये हैं। इसकी रचना भूपाल भारमल्लके निमित्तसे हुई है। ये श्रीपाल जातिके प्रमुखपुरुष वणिकसंघके अधिपति और नागौरी तपागच्छ आम्नायके थे। इनके समय में इस पट्ट पर हर्षकीत्ति अधिष्ठित थे। इसकी रचना नागौरमें हुई है । ऐसा अनुमान होता है कि कवि आगरासे नागौर चला गया था। भूपाल भारमल्ल भी वहींके रहनेवाले थे।
यह ग्रंथ अपूर्ण है। फिर भी जैनसिद्धान्तको हृदयंगत करने. के लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है। जिस प्रकार अन्य ग्रंथोंके निर्माणका हेतु है उसी प्रकार पञ्चाध्यायोके निर्माणका भी कोई हेतु होना चाहिए । इसमें सन्देह नहीं कि इस ग्रंथको रचना कविने दीर्घकालीन अभ्यास, मनन और अनुभव के बाद की है । मंगलाचरण प्रवचनसारके आधारपर किया गया है।
इस ग्रंथके दो ही अध्याय उपलब्ध होते हैं । प्रथम अध्यायमें सत्ताका स्वरूप, द्रव्यके अंशविभाग, द्रव्य और गुणोंका विचार, प्रत्येक द्रव्यमें संभव गुणोंका कथन, अर्थपर्याय और व्यन्जनपर्यायोंका विशेष वर्णन, गुण, गुणांश, द्रब्य और द्रव्यांशका निरूपण भी पाया जाता है। द्रव्यके विविध लक्षणोंका समन्वय करने के पश्चात् गुण, गुणोंका नित्यत्व, मेद, पर्याय, अनेकान्तदृष्टिसे वस्तुविचार, सत् पदार्थ, नोंक भेद, नयाभास, जीवद्रव्य और उसके साथ संलग्न कर्मसंस्कार का भी कथन किया गया। दूसरे अध्यायमें सामान्यविशेषात्मक वस्तुसिद्धिके पश्चात् अमूर्त पदार्थोकी सिद्धि और द्रव्योंकी क्रियावती और भावबती शक्तियों का भी कथन आया है। स्वाभाविकी और वैभाविकी शक्तियों के विचारके पश्चात् जीवतत्व, चेतना, ज्ञानीका स्वरूप, ज्ञानीक चिह्न, सम्यग्दर्शनका लक्षण, उसके प्रशमादि मेद, सप्तभय, सम्यग्दर्शनके आठ अंग, तीन मूढ़ता आदिका भी निरूपण आया है। इसी मध्यायमें औदायकमाबोंका स्वरूप, ज्ञानावरणादि कोका विचार, मिथ्यात्व आदि पर प्रकाश डाला गया है । जैन दर्शनकी प्रमुख बातों
की जानकारी इस अकेले ग्रंथसे ही संभव है।
इस प्रकार राजमल्लने उपयोगी कृतियोंका निर्माण कर श्रुतपरम्पराके विकासमें योग दिया है । काव्य प्रतिभाको दृष्टिसे भी राजमल्ल कम महत्त्वपूर्ण
नहीं हैं।
राजमल्लके जीवन-परिचयके सम्बन्धमें लाटीसंहिताके अन्तमें प्रशस्ति उपलब्ध है। इस प्रशस्तिसे यद्यपि सम्पूर्ण तथ्य सामने नहीं आते-केवल उससे निम्नलिखित परिचय ही प्राप्त होता है
एतेषामस्ति मध्ये गहनुपरुचिमान् फामनः संघनाथ--
स्तेनोच्नः कारितेयं सदनसमूचिता संहिता नाम लाटी ।
श्रेयोऽयं फामनीयैः प्रमुदिसमनसा दानमानासनादयः।
स्वोपशा राजमल्लेन विदितविदुषाम्नायिना हेमचन्द्र ॥३८॥
-लाटीसंहिता ग्रन्थकर्ता प्रशस्ति, पद्य ३८
इस पद्यसे अन्धकर्ताक सम्बन्ध में इतना ही अवगत होता है कि वे हेमचन्द्र की आम्नायके एक प्रसिद्ध विद्वान थे और उन्होंने फामनके दान, मान, आस नादिकसे प्रसन्नचित्त होकर लाटीसंहिताकी रचना की थी। यहाँ जिन हेमचन्द्र का निर्देश आया है वे काष्ठासंघी भट्टारक हेमचन्द्र हैं, जो माथुरगच्छपुष्कर गणान्चयी भट्टारक कुमारसेनके पट्टशिष्य तथा पमनन्दि भट्टारकके पट्टगुरू थे, जिनको कविने लाठीसहिताके प्रथमसर्ग में बहुत प्रशंसा की है। बताया है कि वे भट्टारकोंके राजा थे। काव्यासंघरूपी आकाशम मिथ्या-अंधकारको दूर करनेवाले सूर्य थे और उनके नामकी स्मृतिमात्रसे दुसरे आचार्य निस्तेज हो जाते थे।
इन्हीं भट्टारक हेमचन्द्रकी आम्नायमें ताल्हू विद्वानको भी सूचित किया गया है । इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहता कि कवि राजमल काष्ठासंघो बिद्वान् थे। इन्होंने अपनेको हेमचन्द्रका शिष्य या प्रशिध्य न लिखकर आम्नायी असाया है। और फामनके दान, मान, आसनादिकसे प्रसन्न होकर लाटीसंहिताके लिखने की सूचना दो है । इससे यह स्पष्ट है कि राजमल्ल मुनि नहीं थे। वे गृहस्था चायं या ब्रह्मचारी रहे होंगे।
राजमल्लका काव्य अध्यात्मशास्त्र, प्रथमानुयोग और चरणानुयोगपर भावत है । 'जम्बस्वामीचरित में कविने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि मैं पदमें तो सबसे छोटा हूँ ही, बघ और ज्ञान आदि गुणोंमें भी सबसे छोटा हूँ
'सर्वेभ्योपि लघीयांश्च केवलं न क्रमादिह ।
वयसोऽपि लघुबुद्धा गुणैर्ज्ञानादिभिस्तथा ।।१।१३४॥'
--जम्बूस्वामाचरित १६१३४।
कवि राजमल्लने लाटीसंहिताकी समासि वि० सं० १६४१ में आश्विन दशमी रविचार के दिन की है। प्रशस्ति निम्न प्रकार है
(श्री) नुपतिविक्रमादित्य राज्ये परिणते सति ।
सहेकचत्वारिद्धिरब्दानां शतषोडश ||
तत्रापि चाश्विनोमासे सिशपक्षं शुभान्विते ।
दशम्यां च दशरथे शोभने रविवासरे ॥३॥
जम्बूस्वामीचरितके रचनाकालका भी निर्देश मिलता है। यह ग्रन्ध बि' सं० १६३२ चैत्र कृष्णा अष्टमी पुनर्वसु नक्षत्र में लिखा गया है । इस कान्यके आरम्भमें बताया गया है कि अगलपुर (आगरा)में बादशाह अकबरका राज्य था । कविका अकबरके प्रति जजिया कर और मद्यकी बन्दी करने के कारण आदर भाव था। इस काव्यको अग्रवालजातिमें उत्पन्न गगंगोत्री साहु टोडर के लिए रचा है। ये साहु टोइर अत्यन्त उदार, परोपकारी, दानशील और बिनयादि गुणोंसे सम्पन्न थे। कविने इस संदर्भ में साहु टोडरके परिवारका पूरा परिचय दिया है। उन्होंने मथुराकी यात्रा की थी और वहाँ जम्बूस्वामो क्षेत्रपर अपार धनव्यय करके ५०१ स्तुपोंकी मरम्मत तथा १५ स्तुपोंका जीर्णोद्धार कराया था। इन्हींकी प्रार्थनासे राजमल्लने आगरामें निवास करते हुए जम्मू स्वामीचरितकी रचना की है । अतएव संक्षेपमें कवि राज मल्लका समय विक्रम की १७वीं शती है। हमारा अनुमान है कि पञ्चाध्यायीकी रचना कविने लाटी संहिताके पश्चात् वि० सं० १६५०के लगभग की होगी। श्री जुगलकिशोर मुख्तार जीने लिखा है-'पञ्चाध्यायीका लिखा जाना लाटीसंहिताके बाद प्रारंभ हुआ है । अथवा पंचाध्यायीका प्रारंभ पहले हुआ हो या पाछे, इसमें सन्दह नहीं कि वह लाटीसंहिताके बाद प्रकाशमें आयी है। और उस वक्त जनताके सामने रखी गई है जबकि कवि महोदयकी यह लोकयात्रा प्रायः समाप्त हो चुकी थी। यही वजह है कि उसमें किसी सन्धि, अध्याय, प्रकरणादिक या ग्रथ कांके नामादिकी कोई योजना नहीं हो सकी और वह निर्माणाधीन स्थिति में हो जनताको उपलब्ध हुई है।"
अतएव यह मानना पड़ता है कि पञ्चाध्यायो कवि राजमल्लकी अंतिम रचना है और यह अपूर्ण है।
कवि राजमल्लको निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त होती है
१. लाटीसंहिता
२. जम्बस्वामीचरित
३. अध्यात्मकलमार्तण्ड
४. पञ्चाध्यायी
५. पिङ्गलशास्त्र
इस चरितकाव्यमें पुण्यपुरुष जम्बूस्वामीकी कथा वर्णित है। १३ सम हैं और २४०० पद्म 1 कथामखवर्णनमें आगराका बहुत ही सुन्दर वर्णन आया है । इस ग्रन्थकी रचना आगराम ही सम्पन्न हुई है। इस काव्यको कथावस्तुको दो भागोंमें विभक्त कर सकते हैं-पूर्वभव और वर्तमान जन्म | पूर्वभवावली में भावदेव और भवदेवके जोवनवृत्तोंका अंकन है । कदिने विद्यच्चरचोर का मास्यान भी वर्णित किया है। आरभके चार परिच्छेदोमें वणित सभी आख्यान पूर्वभवावलीसे सम्बन्धित हैं । पञ्चम परिच्छेदसे जम्बू स्वामीका इतिवृत्त आरंभ होता है। जम्बकुमारके पिताका नाम अहंददास था । जम्बूकुमार बड़े ही पराक्रमशाली और वीर थे। इन्होंने एक मदोन्मत्त हाथीको वश किया, जिससे प्रभावित होकर चार श्रीमन्त सेठोंने अपनी कन्याओं का विवाह उनके साथ कर दिया | जम्बूकुमार एक मुनिका उपदेश सुन विरक हो गये और वे दीक्षा लेनेका विचार करने लगे। चारों स्विबोंने अपने मधुर हाव-भावों द्वारा कुमारको विषयभोगोंके लिा आकर्षित करना चाहा; पर वे मेरके समान अडिग रहे। नवविवाहिताओंका' कुमारके साथ नानाप्रकारसे रोचक बातीलाप हुआ और उन्होंने कुमारको अपने वश में करने के लिए पूरा प्रयास किया पर अन्त में वे कुमारको अपने रागमें आबद्ध न कर सकी । बम्ब कुमारने जिनदीक्षा ग्रहणकर तपश्चरण किया तथा केवलजाम और निर्वाण पाया।
कविने कथावस्तुको सरस बनानेका पूर्ण प्रयास किया है । युगक्षेत्रका वर्णन करता हुआ कवि वोरता और रौद्रताका मूर्तरूप ही उपस्थित कर देता है.--
"प्रस्फुरत्स्फुरदस्रोषा भटाः सदर्शिताः परे ।
औत्पातिका इवानीला सोल्का मेघाः समुत्थिताः ।।
करवास करालाग्रं करे कृत्वाऽभयोमरः ।
पश्यन् मुखरसं तस्मिन् स्वसौन्दर्य परिजनिकान् ।।
करात विधुतं खड्मं तुलयकोऽप्यभारः ।
प्रमिमिसुरिवानेन स्वामीसत्कारनौरवच ॥"
जम्बूस्वामीवरित, १०४-१०६
कविने इस संदर्भ में दुल्पविम्बकी योजना को है। समर जास्वर अस्त्र धारण किये हुए बोडा इस प्रकारके दिखलाई पड़ते हैं जिसप्रकार उत्पातकालमें नोल मेघ जम्कासे परिपूर्ण परिलक्षित होते हैं । यह निमितवाला है कि उत्पासकालमें टूटकर पहनेवाली उल्काएँ बनियमित रूपसे सटित गति करती है और वे नीले मेघों के साथ मिलकर एक नया रूप प्रस्तुत करती हैं। कक्नेि इसी बिम्बको अपने मानसमें ग्रहणकर दीप्तिमान अस्त्रोस परिपूर्ण योवाओं कीआभाका चित्रण किया है। द्वितीय परामें हाथले अप्रभागमें धारण किये गये करवालमें योद्धाओंको रोषपूर्ण अपने मुखका प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है। इस कल्पनाको भी कविने चमत्कृतरूपमें ग्रहण किया है । इस प्रकार जम्बूस्वामी चरितमें बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों और रसभावोंको सुन्दर योजना की गई है। एकादश सग में सूक्तियोंका सुन्दर समावेश हुआ है।
लाटीसंहिताको रचना कविने वैराट नगरके जिनालय में की है । यह नगर जयपुरसे ४० मीलकी दूरी पर स्थित है। किसी समय यह विराद मत्स्यदेशको राजधानी था। इस नगरकी समद्धि इतनी अधिक थी कि यहाँ कोई दोन-दरिद्री दिखाई नहीं पड़ता। अकबर बादशाहका उस समय राज्य था । और वहीं इस नगरका स्वामी तथा भोक्ता था। जिस जिनालयमें बैठकर कविने इस ग्रन्धको रचना की है वह साधु दूदाकै ज्येष्ठ पुत्र और फामन के बड़े भाई न्योता'ने निर्माण कराया था। इस संहिताग्रंथको रचना करनेकी प्रेरणा देने वाले साह फामनके वंशका विस्तार सहित वर्णन है। और उससे फामनके समस्त परिवारका परिचय प्राप्त हो जाता है। साथ ही यह भी मालूम होता है कि वे लोग बहुत बंभवशालो और प्रभावशाली थे। इनकी पूर्वनिवास भूमि 'डौकनि' नामकी नगरी थो । और ये काष्ठासंघी भट्टारकोंकी उस गद्दी को मानते थे, जिसपर क्रमशः कुमारसेन, हेमचन्द्र, पपनन्दि, यश कीत्ति और क्षेमकीति नामके भट्टारक प्रतिष्ठित हुए थे। क्षेमकोतिभट्टारक उस समय वर्तमान थे और उनके उपदेश तथा आदेशसे उक्त जिनालयमें कितने ही चित्रों की रचना हुई थी। इस प्रकार कवि राजमल्लने वैराटनगर, अकबर बादशाह काष्ठासंघो भट्टारक बश, फामन कुटुम्ब, फामन एवं वैराट जिनालयका गुण गान किया है। लाटासंहितामें श्रावकाचारका वर्णन है और इसे ७ सर्गोमें विभक किया गया है । प्रथम सर्गमें ८७ पद्य और कथामुखभाग वर्णित है। द्वितीय सर्गमें अष्टमलगणका पालन और साच्यसनत्यागका वर्णन आया है। इस सर्गमें २१९ पध हैं। तृतीय सर्ग में सम्यग्दर्शनका सामान्यलक्षण वणित है और चतुर्थ सर्गमें सम्यग्दर्शनका विशेष स्वरूप निरूपित है और इसमें ३२२ पद्य है । पञ्चम सर्गमें २७३ पद्योंमें असहिसाके त्यागरूप प्रथमाणुव्रतका वर्णन किया गया है । षष्ट सर्ग में सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परि प्रहपरिमाणाणुवसका २५६ पद्योंमें कथन किया गया है। इसी अध्यायमें गुणवत और शिक्षाबलोंका भी अतिचार सहित वर्णन आया है । सप्तम अध्यायमें सामा यिक आदि प्रतिमाओंका वर्णन आया है। अन्तमें ४० पच प्रमाण ग्रंथकर्ताको प्रशस्ति दी गई है । पर इस प्रशस्तिमें कविका परिचय अंकित नहीं है।
-छोटी-सी रचना है और उसमें अध्यात्म-विषयका कथन आया है। अध्यात्मशास्त्रका अर्थ है परोपाधिके बिना मुलवस्तुका निर्देश करना अध्यात्मरूपी कमलको विकसित करनेके लिए यह कृति सूर्य के समान है। इसपर 'समयसार' आदि ग्रंथोंका प्रभाव है। इस ग्रंथमें ४ अध्याय और १०१ मा । म प्राय निरगोर गड्डार दोनों प्रकारके रत्नत्रयका, दूसरे अध्यायमें जीवादि सप्ततत्वोंके प्रसंगसे, द्रव्य, गुण और पर्याय तथा उत्पाद, व्यय और नोव्यका; तीसरे अध्यायमें जीवादि छ: द्रव्योंका और चौथे अध्याय में आरव आदि शेष तत्त्वोंका निरूपण किया है।
-इसमें छन्दशास्त्रके नियम, छन्दोंके लक्षण और उनके उदाहरण आये हैं। इसकी रचना भूपाल भारमल्लके निमित्तसे हुई है। ये श्रीपाल जातिके प्रमुखपुरुष वणिकसंघके अधिपति और नागौरी तपागच्छ आम्नायके थे। इनके समय में इस पट्ट पर हर्षकीत्ति अधिष्ठित थे। इसकी रचना नागौरमें हुई है । ऐसा अनुमान होता है कि कवि आगरासे नागौर चला गया था। भूपाल भारमल्ल भी वहींके रहनेवाले थे।
यह ग्रंथ अपूर्ण है। फिर भी जैनसिद्धान्तको हृदयंगत करने. के लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है। जिस प्रकार अन्य ग्रंथोंके निर्माणका हेतु है उसी प्रकार पञ्चाध्यायोके निर्माणका भी कोई हेतु होना चाहिए । इसमें सन्देह नहीं कि इस ग्रंथको रचना कविने दीर्घकालीन अभ्यास, मनन और अनुभव के बाद की है । मंगलाचरण प्रवचनसारके आधारपर किया गया है।
इस ग्रंथके दो ही अध्याय उपलब्ध होते हैं । प्रथम अध्यायमें सत्ताका स्वरूप, द्रव्यके अंशविभाग, द्रव्य और गुणोंका विचार, प्रत्येक द्रव्यमें संभव गुणोंका कथन, अर्थपर्याय और व्यन्जनपर्यायोंका विशेष वर्णन, गुण, गुणांश, द्रब्य और द्रव्यांशका निरूपण भी पाया जाता है। द्रव्यके विविध लक्षणोंका समन्वय करने के पश्चात् गुण, गुणोंका नित्यत्व, मेद, पर्याय, अनेकान्तदृष्टिसे वस्तुविचार, सत् पदार्थ, नोंक भेद, नयाभास, जीवद्रव्य और उसके साथ संलग्न कर्मसंस्कार का भी कथन किया गया। दूसरे अध्यायमें सामान्यविशेषात्मक वस्तुसिद्धिके पश्चात् अमूर्त पदार्थोकी सिद्धि और द्रव्योंकी क्रियावती और भावबती शक्तियों का भी कथन आया है। स्वाभाविकी और वैभाविकी शक्तियों के विचारके पश्चात् जीवतत्व, चेतना, ज्ञानीका स्वरूप, ज्ञानीक चिह्न, सम्यग्दर्शनका लक्षण, उसके प्रशमादि मेद, सप्तभय, सम्यग्दर्शनके आठ अंग, तीन मूढ़ता आदिका भी निरूपण आया है। इसी मध्यायमें औदायकमाबोंका स्वरूप, ज्ञानावरणादि कोका विचार, मिथ्यात्व आदि पर प्रकाश डाला गया है । जैन दर्शनकी प्रमुख बातों
की जानकारी इस अकेले ग्रंथसे ही संभव है।
इस प्रकार राजमल्लने उपयोगी कृतियोंका निर्माण कर श्रुतपरम्पराके विकासमें योग दिया है । काव्य प्रतिभाको दृष्टिसे भी राजमल्ल कम महत्त्वपूर्ण
नहीं हैं।
#Rajmal
आचार्यतुल्य राजमल 17वीं शताब्दी (प्राचीन)
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राजमल्लके जीवन-परिचयके सम्बन्धमें लाटीसंहिताके अन्तमें प्रशस्ति उपलब्ध है। इस प्रशस्तिसे यद्यपि सम्पूर्ण तथ्य सामने नहीं आते-केवल उससे निम्नलिखित परिचय ही प्राप्त होता है
एतेषामस्ति मध्ये गहनुपरुचिमान् फामनः संघनाथ--
स्तेनोच्नः कारितेयं सदनसमूचिता संहिता नाम लाटी ।
श्रेयोऽयं फामनीयैः प्रमुदिसमनसा दानमानासनादयः।
स्वोपशा राजमल्लेन विदितविदुषाम्नायिना हेमचन्द्र ॥३८॥
-लाटीसंहिता ग्रन्थकर्ता प्रशस्ति, पद्य ३८
इस पद्यसे अन्धकर्ताक सम्बन्ध में इतना ही अवगत होता है कि वे हेमचन्द्र की आम्नायके एक प्रसिद्ध विद्वान थे और उन्होंने फामनके दान, मान, आस नादिकसे प्रसन्नचित्त होकर लाटीसंहिताकी रचना की थी। यहाँ जिन हेमचन्द्र का निर्देश आया है वे काष्ठासंघी भट्टारक हेमचन्द्र हैं, जो माथुरगच्छपुष्कर गणान्चयी भट्टारक कुमारसेनके पट्टशिष्य तथा पमनन्दि भट्टारकके पट्टगुरू थे, जिनको कविने लाठीसहिताके प्रथमसर्ग में बहुत प्रशंसा की है। बताया है कि वे भट्टारकोंके राजा थे। काव्यासंघरूपी आकाशम मिथ्या-अंधकारको दूर करनेवाले सूर्य थे और उनके नामकी स्मृतिमात्रसे दुसरे आचार्य निस्तेज हो जाते थे।
इन्हीं भट्टारक हेमचन्द्रकी आम्नायमें ताल्हू विद्वानको भी सूचित किया गया है । इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहता कि कवि राजमल काष्ठासंघो बिद्वान् थे। इन्होंने अपनेको हेमचन्द्रका शिष्य या प्रशिध्य न लिखकर आम्नायी असाया है। और फामनके दान, मान, आसनादिकसे प्रसन्न होकर लाटीसंहिताके लिखने की सूचना दो है । इससे यह स्पष्ट है कि राजमल्ल मुनि नहीं थे। वे गृहस्था चायं या ब्रह्मचारी रहे होंगे।
राजमल्लका काव्य अध्यात्मशास्त्र, प्रथमानुयोग और चरणानुयोगपर भावत है । 'जम्बस्वामीचरित में कविने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि मैं पदमें तो सबसे छोटा हूँ ही, बघ और ज्ञान आदि गुणोंमें भी सबसे छोटा हूँ
'सर्वेभ्योपि लघीयांश्च केवलं न क्रमादिह ।
वयसोऽपि लघुबुद्धा गुणैर्ज्ञानादिभिस्तथा ।।१।१३४॥'
--जम्बूस्वामाचरित १६१३४।
कवि राजमल्लने लाटीसंहिताकी समासि वि० सं० १६४१ में आश्विन दशमी रविचार के दिन की है। प्रशस्ति निम्न प्रकार है
(श्री) नुपतिविक्रमादित्य राज्ये परिणते सति ।
सहेकचत्वारिद्धिरब्दानां शतषोडश ||
तत्रापि चाश्विनोमासे सिशपक्षं शुभान्विते ।
दशम्यां च दशरथे शोभने रविवासरे ॥३॥
जम्बूस्वामीचरितके रचनाकालका भी निर्देश मिलता है। यह ग्रन्ध बि' सं० १६३२ चैत्र कृष्णा अष्टमी पुनर्वसु नक्षत्र में लिखा गया है । इस कान्यके आरम्भमें बताया गया है कि अगलपुर (आगरा)में बादशाह अकबरका राज्य था । कविका अकबरके प्रति जजिया कर और मद्यकी बन्दी करने के कारण आदर भाव था। इस काव्यको अग्रवालजातिमें उत्पन्न गगंगोत्री साहु टोडर के लिए रचा है। ये साहु टोइर अत्यन्त उदार, परोपकारी, दानशील और बिनयादि गुणोंसे सम्पन्न थे। कविने इस संदर्भ में साहु टोडरके परिवारका पूरा परिचय दिया है। उन्होंने मथुराकी यात्रा की थी और वहाँ जम्बूस्वामो क्षेत्रपर अपार धनव्यय करके ५०१ स्तुपोंकी मरम्मत तथा १५ स्तुपोंका जीर्णोद्धार कराया था। इन्हींकी प्रार्थनासे राजमल्लने आगरामें निवास करते हुए जम्मू स्वामीचरितकी रचना की है । अतएव संक्षेपमें कवि राज मल्लका समय विक्रम की १७वीं शती है। हमारा अनुमान है कि पञ्चाध्यायीकी रचना कविने लाटी संहिताके पश्चात् वि० सं० १६५०के लगभग की होगी। श्री जुगलकिशोर मुख्तार जीने लिखा है-'पञ्चाध्यायीका लिखा जाना लाटीसंहिताके बाद प्रारंभ हुआ है । अथवा पंचाध्यायीका प्रारंभ पहले हुआ हो या पाछे, इसमें सन्दह नहीं कि वह लाटीसंहिताके बाद प्रकाशमें आयी है। और उस वक्त जनताके सामने रखी गई है जबकि कवि महोदयकी यह लोकयात्रा प्रायः समाप्त हो चुकी थी। यही वजह है कि उसमें किसी सन्धि, अध्याय, प्रकरणादिक या ग्रथ कांके नामादिकी कोई योजना नहीं हो सकी और वह निर्माणाधीन स्थिति में हो जनताको उपलब्ध हुई है।"
अतएव यह मानना पड़ता है कि पञ्चाध्यायो कवि राजमल्लकी अंतिम रचना है और यह अपूर्ण है।
कवि राजमल्लको निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त होती है
१. लाटीसंहिता
२. जम्बस्वामीचरित
३. अध्यात्मकलमार्तण्ड
४. पञ्चाध्यायी
५. पिङ्गलशास्त्र
इस चरितकाव्यमें पुण्यपुरुष जम्बूस्वामीकी कथा वर्णित है। १३ सम हैं और २४०० पद्म 1 कथामखवर्णनमें आगराका बहुत ही सुन्दर वर्णन आया है । इस ग्रन्थकी रचना आगराम ही सम्पन्न हुई है। इस काव्यको कथावस्तुको दो भागोंमें विभक्त कर सकते हैं-पूर्वभव और वर्तमान जन्म | पूर्वभवावली में भावदेव और भवदेवके जोवनवृत्तोंका अंकन है । कदिने विद्यच्चरचोर का मास्यान भी वर्णित किया है। आरभके चार परिच्छेदोमें वणित सभी आख्यान पूर्वभवावलीसे सम्बन्धित हैं । पञ्चम परिच्छेदसे जम्बू स्वामीका इतिवृत्त आरंभ होता है। जम्बकुमारके पिताका नाम अहंददास था । जम्बूकुमार बड़े ही पराक्रमशाली और वीर थे। इन्होंने एक मदोन्मत्त हाथीको वश किया, जिससे प्रभावित होकर चार श्रीमन्त सेठोंने अपनी कन्याओं का विवाह उनके साथ कर दिया | जम्बूकुमार एक मुनिका उपदेश सुन विरक हो गये और वे दीक्षा लेनेका विचार करने लगे। चारों स्विबोंने अपने मधुर हाव-भावों द्वारा कुमारको विषयभोगोंके लिा आकर्षित करना चाहा; पर वे मेरके समान अडिग रहे। नवविवाहिताओंका' कुमारके साथ नानाप्रकारसे रोचक बातीलाप हुआ और उन्होंने कुमारको अपने वश में करने के लिए पूरा प्रयास किया पर अन्त में वे कुमारको अपने रागमें आबद्ध न कर सकी । बम्ब कुमारने जिनदीक्षा ग्रहणकर तपश्चरण किया तथा केवलजाम और निर्वाण पाया।
कविने कथावस्तुको सरस बनानेका पूर्ण प्रयास किया है । युगक्षेत्रका वर्णन करता हुआ कवि वोरता और रौद्रताका मूर्तरूप ही उपस्थित कर देता है.--
"प्रस्फुरत्स्फुरदस्रोषा भटाः सदर्शिताः परे ।
औत्पातिका इवानीला सोल्का मेघाः समुत्थिताः ।।
करवास करालाग्रं करे कृत्वाऽभयोमरः ।
पश्यन् मुखरसं तस्मिन् स्वसौन्दर्य परिजनिकान् ।।
करात विधुतं खड्मं तुलयकोऽप्यभारः ।
प्रमिमिसुरिवानेन स्वामीसत्कारनौरवच ॥"
जम्बूस्वामीवरित, १०४-१०६
कविने इस संदर्भ में दुल्पविम्बकी योजना को है। समर जास्वर अस्त्र धारण किये हुए बोडा इस प्रकारके दिखलाई पड़ते हैं जिसप्रकार उत्पातकालमें नोल मेघ जम्कासे परिपूर्ण परिलक्षित होते हैं । यह निमितवाला है कि उत्पासकालमें टूटकर पहनेवाली उल्काएँ बनियमित रूपसे सटित गति करती है और वे नीले मेघों के साथ मिलकर एक नया रूप प्रस्तुत करती हैं। कक्नेि इसी बिम्बको अपने मानसमें ग्रहणकर दीप्तिमान अस्त्रोस परिपूर्ण योवाओं कीआभाका चित्रण किया है। द्वितीय परामें हाथले अप्रभागमें धारण किये गये करवालमें योद्धाओंको रोषपूर्ण अपने मुखका प्रतिबिम्ब दिखलाई पड़ता है। इस कल्पनाको भी कविने चमत्कृतरूपमें ग्रहण किया है । इस प्रकार जम्बूस्वामी चरितमें बिम्बों, प्रतीकों, अलंकारों और रसभावोंको सुन्दर योजना की गई है। एकादश सग में सूक्तियोंका सुन्दर समावेश हुआ है।
लाटीसंहिताको रचना कविने वैराट नगरके जिनालय में की है । यह नगर जयपुरसे ४० मीलकी दूरी पर स्थित है। किसी समय यह विराद मत्स्यदेशको राजधानी था। इस नगरकी समद्धि इतनी अधिक थी कि यहाँ कोई दोन-दरिद्री दिखाई नहीं पड़ता। अकबर बादशाहका उस समय राज्य था । और वहीं इस नगरका स्वामी तथा भोक्ता था। जिस जिनालयमें बैठकर कविने इस ग्रन्धको रचना की है वह साधु दूदाकै ज्येष्ठ पुत्र और फामन के बड़े भाई न्योता'ने निर्माण कराया था। इस संहिताग्रंथको रचना करनेकी प्रेरणा देने वाले साह फामनके वंशका विस्तार सहित वर्णन है। और उससे फामनके समस्त परिवारका परिचय प्राप्त हो जाता है। साथ ही यह भी मालूम होता है कि वे लोग बहुत बंभवशालो और प्रभावशाली थे। इनकी पूर्वनिवास भूमि 'डौकनि' नामकी नगरी थो । और ये काष्ठासंघी भट्टारकोंकी उस गद्दी को मानते थे, जिसपर क्रमशः कुमारसेन, हेमचन्द्र, पपनन्दि, यश कीत्ति और क्षेमकीति नामके भट्टारक प्रतिष्ठित हुए थे। क्षेमकोतिभट्टारक उस समय वर्तमान थे और उनके उपदेश तथा आदेशसे उक्त जिनालयमें कितने ही चित्रों की रचना हुई थी। इस प्रकार कवि राजमल्लने वैराटनगर, अकबर बादशाह काष्ठासंघो भट्टारक बश, फामन कुटुम्ब, फामन एवं वैराट जिनालयका गुण गान किया है। लाटासंहितामें श्रावकाचारका वर्णन है और इसे ७ सर्गोमें विभक किया गया है । प्रथम सर्गमें ८७ पद्य और कथामुखभाग वर्णित है। द्वितीय सर्गमें अष्टमलगणका पालन और साच्यसनत्यागका वर्णन आया है। इस सर्गमें २१९ पध हैं। तृतीय सर्ग में सम्यग्दर्शनका सामान्यलक्षण वणित है और चतुर्थ सर्गमें सम्यग्दर्शनका विशेष स्वरूप निरूपित है और इसमें ३२२ पद्य है । पञ्चम सर्गमें २७३ पद्योंमें असहिसाके त्यागरूप प्रथमाणुव्रतका वर्णन किया गया है । षष्ट सर्ग में सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परि प्रहपरिमाणाणुवसका २५६ पद्योंमें कथन किया गया है। इसी अध्यायमें गुणवत और शिक्षाबलोंका भी अतिचार सहित वर्णन आया है । सप्तम अध्यायमें सामा यिक आदि प्रतिमाओंका वर्णन आया है। अन्तमें ४० पच प्रमाण ग्रंथकर्ताको प्रशस्ति दी गई है । पर इस प्रशस्तिमें कविका परिचय अंकित नहीं है।
-छोटी-सी रचना है और उसमें अध्यात्म-विषयका कथन आया है। अध्यात्मशास्त्रका अर्थ है परोपाधिके बिना मुलवस्तुका निर्देश करना अध्यात्मरूपी कमलको विकसित करनेके लिए यह कृति सूर्य के समान है। इसपर 'समयसार' आदि ग्रंथोंका प्रभाव है। इस ग्रंथमें ४ अध्याय और १०१ मा । म प्राय निरगोर गड्डार दोनों प्रकारके रत्नत्रयका, दूसरे अध्यायमें जीवादि सप्ततत्वोंके प्रसंगसे, द्रव्य, गुण और पर्याय तथा उत्पाद, व्यय और नोव्यका; तीसरे अध्यायमें जीवादि छ: द्रव्योंका और चौथे अध्याय में आरव आदि शेष तत्त्वोंका निरूपण किया है।
-इसमें छन्दशास्त्रके नियम, छन्दोंके लक्षण और उनके उदाहरण आये हैं। इसकी रचना भूपाल भारमल्लके निमित्तसे हुई है। ये श्रीपाल जातिके प्रमुखपुरुष वणिकसंघके अधिपति और नागौरी तपागच्छ आम्नायके थे। इनके समय में इस पट्ट पर हर्षकीत्ति अधिष्ठित थे। इसकी रचना नागौरमें हुई है । ऐसा अनुमान होता है कि कवि आगरासे नागौर चला गया था। भूपाल भारमल्ल भी वहींके रहनेवाले थे।
यह ग्रंथ अपूर्ण है। फिर भी जैनसिद्धान्तको हृदयंगत करने. के लिए यह ग्रंथ बहुत उपयोगी है। जिस प्रकार अन्य ग्रंथोंके निर्माणका हेतु है उसी प्रकार पञ्चाध्यायोके निर्माणका भी कोई हेतु होना चाहिए । इसमें सन्देह नहीं कि इस ग्रंथको रचना कविने दीर्घकालीन अभ्यास, मनन और अनुभव के बाद की है । मंगलाचरण प्रवचनसारके आधारपर किया गया है।
इस ग्रंथके दो ही अध्याय उपलब्ध होते हैं । प्रथम अध्यायमें सत्ताका स्वरूप, द्रव्यके अंशविभाग, द्रव्य और गुणोंका विचार, प्रत्येक द्रव्यमें संभव गुणोंका कथन, अर्थपर्याय और व्यन्जनपर्यायोंका विशेष वर्णन, गुण, गुणांश, द्रब्य और द्रव्यांशका निरूपण भी पाया जाता है। द्रव्यके विविध लक्षणोंका समन्वय करने के पश्चात् गुण, गुणोंका नित्यत्व, मेद, पर्याय, अनेकान्तदृष्टिसे वस्तुविचार, सत् पदार्थ, नोंक भेद, नयाभास, जीवद्रव्य और उसके साथ संलग्न कर्मसंस्कार का भी कथन किया गया। दूसरे अध्यायमें सामान्यविशेषात्मक वस्तुसिद्धिके पश्चात् अमूर्त पदार्थोकी सिद्धि और द्रव्योंकी क्रियावती और भावबती शक्तियों का भी कथन आया है। स्वाभाविकी और वैभाविकी शक्तियों के विचारके पश्चात् जीवतत्व, चेतना, ज्ञानीका स्वरूप, ज्ञानीक चिह्न, सम्यग्दर्शनका लक्षण, उसके प्रशमादि मेद, सप्तभय, सम्यग्दर्शनके आठ अंग, तीन मूढ़ता आदिका भी निरूपण आया है। इसी मध्यायमें औदायकमाबोंका स्वरूप, ज्ञानावरणादि कोका विचार, मिथ्यात्व आदि पर प्रकाश डाला गया है । जैन दर्शनकी प्रमुख बातों
की जानकारी इस अकेले ग्रंथसे ही संभव है।
इस प्रकार राजमल्लने उपयोगी कृतियोंका निर्माण कर श्रुतपरम्पराके विकासमें योग दिया है । काव्य प्रतिभाको दृष्टिसे भी राजमल्ल कम महत्त्वपूर्ण
नहीं हैं।
Acharyatulya Rajmal 17th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 10 April 2022
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