हैशटैग
#Shreedhar1
अपभ्रंश-साहित्यमें श्रीधर और विबुध श्रीधर नामके कई विद्वानोंका परिचय प्राप्त होता है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने संस्कृत और अपभ्रंशके साप्त कवियोंका परिचय दिया है।' श्रीधरके पूर्व 'विबुध विशेषण भी प्राप्त होता है। श्री हरिबंश कोछड़ने 'पासणाहरिउ', 'सुकुमालचरिज' और 'भविसयत्तरिज' ग्रन्थोंका रचयिता इन्हीं श्रीधरको माना है। पर पं० परमानन्दजी 'पासणाहचरिउके रचयिता श्रीधरको भवियसयत्तचरित' और सुकमालचरिडके रचयिताओंसे भिन्न मानते हैं। श्री डॉ देवेन्द्रकुमारशास्त्रीने भो भविसयत्तचरिउके रचयिता श्रीधर या विवुध श्रीधरको उक्त ग्रन्थों के रचयिताओंसे भिन्न बतलाया है । वस्तुतः 'पासणाहचरिउ'का रचयिता श्रीधर, भविसयत्तचरिउके रचयितासे तो भिन्न है ही, पर वह सुकुमालचरिउके रचयितासे भी भिन्न है। इन तीनों अन्थोंके रचयिता तीन श्रीधर हैं, एकश्रीधर नहीं।
'पासणाहचरिउके अन्तमें जो प्रशस्ति अंकित है उससे कबिके जोबनवृत्तपर निम्न लिखित प्रकाश पड़ता है
"सिरिअयरवालकुल-संभवेण, जपणी-बिल्हा-गम्भुम्भ) वेण
अणवरय-विणय-पणयारहण, कइणा बुहगोल्हतणुरहेण |
पड़ियतिहुअणवइगुणभरेण, मणिणयसुहिसुअणेंसिरिहरेण" ।
-पासणाहचरिउ, प्रशस्ति
कवि अग्रवाल कुलमें उत्पन्न हुआ था। इसकी माताका नाम वोल्हादेवी और पिताका नाम बुधगोल्ह था। कविने इससे अधिक अपना परिचय नहीं दिया है। कविका एक पासणाहपरिउ' ही उपलब्ध है। पर अन्धके प्रारंभिक भागसे उनके द्वारा चन्द्रप्रभचरितके रचे जानेका भी उल्लेख प्राप्त होता है। पंक्तियाँ निम्न प्रकार है
"विरएवि चंदप्पहरित चारु, चिर-परिय-कम्मदुक्खावहारू ।
विहरते कोमहलदसेण, परिहच्छिय चाससरिसरेण ।"
'पासणाहरित'में कविने इस ग्रंथके रचे जानेका कारण भी बतलाया है। कवि दिल्लौके पास हरियाणा में निवास करता था। उसे इस ग्रंथके रचनेकी प्रेरणा साह नट्टलके परिवारसे प्राप्त हुई। साहू नट्टल दिल्ली (योगिनीपुर) के निवासी थे। उस समय दिल्ली में तोमरवंशीय अनंगपाल तृतीयका शासन विद्यमान था । यह अनंगपाल अपने पूर्वज दो अनंगपालोंसे भिन्न था और यह बड़ा प्रसापो एवं वीर था। इसने हम्मीर वीरको सहायता की थी। प्रशस्तिमें लिखा है
जहि असिवर तोडिय रिउ कचालु, णरणाहु पसिद्ध अणंगुवाल
शिरुदल वद्धियहम्मीर वोरु, बंदियण विदं पवियपण चोरु ।
दुज्जण-हिय-यावणिदलणसीरु, दुग्णयणीरय-णिरसण-समीरु ।
बालभर-कंपाविय-गायरान, भामिणि-यण-मण-संजणिय-राउ ।
दिल्लीकी शासन-व्यवस्था बहुत ही सुव्यवस्थित थी और सभी जातियोंके लोग वहाँ सुखपूर्वक निवास करते थे। नट्टल साहू धर्मास्मा और साहित्य-प्रेमी ही नहीं थे; अपितु उच्चकोटिके कुशल-व्यापारी भी थे। उस समय उनका व्यापार अंग, बंग, कलिंग, कर्णाटक, नेपाल, भोड़, पांचाल, चेदि, गौड़, तक केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठ आदि देशोंमें चल रहा था । कपिको इन्हीं नट्टल साहूने 'पासणाहरि के लिखनेकी प्रेरणा दी थी।
नट्टल साहूके पिताका नाम अल्हण साहू था और इनका वंश अग्रवाल था | नट्टल साहूकी माता बड़ी ही धर्मात्मा और शीलगुण सम्पन्न थी। नट्टल साहूके दो ज्येष्ठ भाई थे-राघव और सोढल । सोबल विद्वानोंको आनन्ददायक, गुरुभक्त और अर्हन्तके चरणोंका भ्रमर था । भट्टल साहू भी बड़ा ही धर्मात्मा और लोकप्रिय था। उसे कुलरूपी कमलोका आकर, पाप रूपी पांशुका नाशक, बन्दीजनोंको दान देनेवाला, तीर्थकर मूत्तियों का प्रति. छापक, परदोषोंके प्रकाशनसे विरक्त और रत्नत्रयधारी था । साहित्यिक अभिचिके साथ सांस्कृतिक अभिरुचि भी उस में विद्यमान थी। उसने दिल्लीमे एक विशाल जैन-मन्दिर निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा भी की थी। पांचवी सन्धि के पश्चात् पासणाहरिउमें एक संस्कृत-पद्य आया है, जिससे उपयुक्त तथ्य निस्सृत होता है
"येनाराध्य विशुद्धधोरमतिना देवाधिदेवं जिनं ।
सत्पुण्यं समुपाजितं निजगणे : संतोषिता बांधवाः ।।
जनं चैत्यमकारि सुन्दरतरं जेनी प्रतिष्ठी तथा !
स श्रीमान्विदितः सदेव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः ।"
अतएव स्पष्ट है कि कवि श्रीधर प्रथमको पासणाहचरिउके रचनेको प्रेरणा नट्टल साहू से प्राप्त हुई थी।
कविके दिल्ली-वर्णन, यमुना-वर्णन, युद्ध -वर्णन, मन्दिर-वर्णन आदिसे स्पष्ट होता है कि कवि स्वाभिमानी था । वह नाना-शास्त्रोंका ज्ञाता होनेपर भी चरित्रको महत्व देता था | अलंकारोंके प्रति कनिकी विशेष ममता है। वह साधारण वर्णनको भी अलंकृत बनाता है। भाग्य और पुरुषार्थ इन दोनों पर कविको अपूर्व आस्था है। उसकी दृष्टिमें कर्मठ जीवन ही महत्त्व पूर्ण है।
पासणाहचरिउमें उसका रचनाकाल अंकित है । अतएव कदिके स्थिति कालके सम्बन्धमें विवाद नहीं है।
विक्कमरिंद-सुपसिद्धकालि, दिल्ली-पट्टण-घणकग-नवसालि ।
सणवासी-एयारह-सएहि, परिवाडिए वरिस-परिगएहि ।
कसणट्टमी हि आगहणमासि, रविवारि समाणितं सिसिरभासि ।
सिरिपासणाह णिम्मलचरितु, सयलामलरयगोह-दित्तु ।
अर्थात् वि० सं० १९८९ मार्गशीर्ष कृष्णा अष्टमी रविवारके दिन यह ग्रंथ पूर्ण हुआ।
कविकी एक अन्य रचना 'वड्ढमाणचरिउ' भी प्राप्त है। इस रचनामें भी कविने रचनाकालका निर्देश किया है । 'वढमाणचरि: में अंकित की गई वंशावली पासणाहचरिउकी वंशावलीके समान है। कविने अपनेको बील्डाके गर्भसे उत्पन्न लिखा है । बताया है
वीरहा-गम्भ-समुभव दोहें। सम्वयाह सहुँ पडिय गैहें ।।
एउ चिरमिय पाच-स्वयंकरु । बढमाणचरिउ सुहकरु ।।
बढ़माणचरिउका रचनाकाल कविने वि० सं० ११९० ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी रविवार बताया है । लिखा है
एयारहसहि परिबिगहि । संबच्छर सरणहि समेहि ।
जेटु-पढम-पक्सई पंचमिदिणे | सुरूवारे गयणगणिठिइइणे ॥
अतएव श्रीधर प्रथम या विबुध श्रीधरका समय विक्रमकी १२वीं शती निश्चित है।
विबुध श्रीधरकी दो रचनाएं निश्चित झाले सानी जापती है....ल. णाहचरिउ' और 'बडङमाणचरित'। ये दोनों ही रचनाएँ पौराणिक महाकाव्य हैं। इनमें पौराणिक काव्यके सभी तत्व पाये जाते हैं।
तीर्थकर पार्श्वनाथका चरित अपभ्रंशके कवियों को विशेष प्रिय रहा है। अहिंसा और ब्रह्मचर्य के सन्देशको जनसामान्य तक पहुँचानेके लिए यह चरित बहुत ही उपादेय है । कवि श्रीधर प्रथमने अपने इस चरितकाध्यमें २३वें तीर्थकर पारवनाथका जीवनवृत्त गुम्फित किया है। कथावस्तु १२ सन्धियोंमें विभक्त है और इस ग्रंथका प्रमाण २५०० पद्य है। कविने यमुनानदीका चित्रण प्रियतमके पास जाती हुई विलासिनीके रूप में किया है ।
जउणासरि सुरणय-हियय-हार, णं बार विलासिणिए उरहार ।
डिंडीर पिंड़ चप्परिय णिल्ल, कोलिर रहंग घोब्धड़ थणिण |
सेवाल-जाल-रोमावलिल्ल, बुहह्मण-मण-परिरंजणच्छइल्ल |
भमरावलिवेणीवलयलच्छि, पप्फुल्ल-पोमदलदीहअच्छि ।
पवणाह्यसलिलावत्त-णाहि, विणियजणवस्तणुताववाहि ।
बणगयगलमयजलसिलित, दरफुडिसिप्पिउडदसदित्त ।
बियसंत-सरोरुह-पवर-वत्त, रमणायर-पवरपियाणुरत्त ।
विउला मलपुलिपणियंव जाम, उत्तिण्णी णयणहि दिदा ताम ।
हरियाणए देसे असंख गामे, गमियिणणियअगवरयकामे ।
अर्थात् सुर-नर-हृदयहार यमुना मानो बारविलासिनीका हृदयहार है। मानों उसकी फेनालि उस नारीका उपरिसन वस्त्र हो । कीड़ारत चक्रवाक मानों उसके स्तन हों । शैवालजाल प्रबुद्ध मनको रंजन करने वाली रोमालि, भ्रमरावलि वलय श्रेणी, प्रफुल्ल पबदल दीर्घ नयन, पवनावलम्बित सलिल आवत, तनुतापनाशक नाभि, बन्यगजमद युक्त सलिलचन्दनलेप, ईषत व्यक्त होते हुए शुक्तिपुट सुन्दर रद एवं विकसित कमल, सुन्दर मुख हो। रत्नाकरप्रियके प्रति अनुरक्त सरिता थी. और वारविलासिनो रत्नालंकत अपने प्रियके प्रति । उसके विपुल एवं निर्मल पुलिन मानों उसके सितम्ब थे। इस प्रकारकी सरिता कविने देखी और पार की। नदी पार कर वह हरियाणा प्रदेशके डिल्ली नामक नगरमें पहुंचा।
कवि दिल्ली पहुंचने के साथ-साथ उसका रम्य वर्णन उपस्थित करता है। अलंकत दिल्ली कविकी अलंकृत शैली पाकर और भी आकर्षणयुक्त बन गई है । गगनचुम्बी शालाएं, विशाल रणशिविर (मंडप), सुरम्य मंदिर, समद गज, गतिशील तुरंग, नारीपद-नूपुरध्वनि सुन नृत्यत मयूर एवं प्रशस्त हट्टमार्ग आदिका निर्देश कविने किया है...
जहि गयणामंडललागु साल, रण-मंडवपरिमंडिज विसाल ।
गोउरसिरिकल सायपयंगु, बलपूरियपरिहालिगियंगु ।
जहि जण-मण-णयणाणंदिराई, मणियरगणमंडियमंदिराई ।
जहि चउदिसु सोहि घणवणाई, गायर-पार-खयर-सुहावणाई ।
जहि समय-करडिघड धड हति,पडिसद्दे दिसि-विदिसि विष्फुडंति ।
जाहिं पवण-गयण धाविर तुरंग, पं वारि रासि भंगुर तरंग ।
दप्पुम्भउ भन तोणु व कणिल्लु, सविणय सोसु व बहु गोर सिल्लु ।
पारावार व विथरिय संखु, तिहअणवाणणियरु के असंखु !
इस प्रकार कविने शिलष्ट शैली में दिल्ली नगरकी वस्तुओंका चित्रण किया है। यह नगर नघनके समान तारक युक्त था, सरोवरके समान हारयुक्त और हार नामक जीवोंसे युक्त था, कामिनीजनके समान प्रचुर मान बाला, युद्धभूमिके समान नागसहित और न्याययुक्त, नभके समान चन्द्रसहित एवं राज सहित था।
युद्धवर्णनमें कविने भावानुकूल शब्दों और छन्दोंकी योजना की है । इस प्रकार 'पासणाहरित' काव्य गुणोंसे परिपूर्ण है।
बढमाणचरिउके प्रेरक साहू नेमिचन्द्र हैं। इनके अनुरोधसे कविने इस अंथकी रचना की है। नेमिचन्द्रका परिचय ग्रंथके प्रारम्भ और अन्तमें दिया गया है । कविने लिखा है--
इपकाहि दिणि परवरणंदणेण ! 'सोमा-जणणी'-आणंदणेण ।।
जिणचरणकमलइंदिदिरेण । जिम्मलयर-गुण-माण-म दरेण ॥
जायस-कुल-कमल-दिवायरेण | जिणभणियागम-विहिणायरेण ।।
णामेण पोमिचन्देण वुतु । भो 'कइ-सिरिहर' सइत्यजुत्तु।
बिह(ण) विरइज चरिउ दुहोवारि ।संसारुम्भव-संताव-हारि ॥११॥
जायसबस-सरोध-दिणेसहो । अदिचित्तणिहित जिणेसहो ।
गरबर-सोमई-सणुसंभूबहो । साहु णेमि चंदहो गणभूवहो ।।
वयणे विरहउ सिरिहर णामें । तियरणरक्खिय असुहर मामें।
अन्तिम प्रशस्ति पत्र अर्थात् नेमिचन्द्र वोदाउ नामक नगरके निवासी थे और जायस या जप सवालकुल-कमलदिवाकर थे । इनके पिताका नान साहू नरवर और माताका नाम सोमादेवी था। माता-पिता बड़े ही धर्मात्मा और साधुस्वभावके थे। साहूनेमिचन्द्रकी धर्मपत्नीका नाम 'वीवा' देवी था । इनके तीन पुत्र थे रामचन्द्र, श्रीचन्द्र और विमलचन्द्र । एक दिन साहू नेमिचन्द्र ने कवि श्रीधरसे निवेदन किया कि जिस प्रकार चन्द्रप्रभचरित और शान्तिनाथचरित रचे गये हैं उसी तरह मेरे लिए अन्तिम सीर्थकरका चरित लिखिये । कविने प्रत्येक सन्धिके पुष्पिकावाक्यमें 'नेमिचन्द्रनामांकित' लिखा है । इतना ही नहीं, प्रत्येक सन्धिके प्रारम्भमें जो संस्कृत श्लोक दिया गया है उससे भी नेमिचन्द्र के गुणों पर प्रकाश पड़ता है । द्वितीय सन्धिके प्रारम्भमें
नंदत्वत्र पवित्रनिर्मललसच्चारित्रभूषाधरो।
धर्मध्यान-विधी सदा-कृत-रतिविद्वज्जनानां प्रियः ।।
प्राप्तान्तःकरणेत्सिताऽखिलजगवस्तु-व्रजो दुजय
स्तत्वार्थ अविचारणोद्यतमनाः श्रीनेमिचन्द्रश्चिरम् ।।
स्पष्ट है कि नेमिचन्द्र धर्मध्यानमें निपुण, सम्यग्दृष्टि, धीर, बुद्धिमान, लक्ष्मी पति, न्यायवान, भवभोगोंसे बिरक्त और जनकल्याणकारक थे । इस प्रकार कविने रचनाप्रेरकका विस्तृत परिचय प्रस्तुत किया है । ग्रंथ १० सन्धियों में विभक्त है और इसमें अन्तिम तीर्थंकरमहावीरका जीवनवृत्त गुम्फित किया है। प्रथम सन्धि था परिच्छेदमें नन्दिवर्धन राजाके वैराग्यका वर्णन किया है। द्वितीय सन्धिमें 'मयबई' मगपतिकी भवावलीका वर्णन किया गया है। तृतीय सन्धिमें बल वासुकी उत्पत्तिका वर्णन किया गया है। चतुर्थ सन्धिमें सेनानिवेशका वर्णन है। इसी सन्धिमें कविने युद्धका भी चित्रण किया है। पंचम सन्त्रिमें त्रिविष्ट विजयका वर्णन है। षष्ठ सन्धिमें सिंह-समाधिका चित्रण है। ससम सन्धिमें हरिषेणराय मुनिका स्वर्ग-गमन वर्णित है । अष्टम सन्धिमें नन्दनमुनिका प्राणत कल्पमें गमन वर्णित है ! नवम सन्धिमें वीरनाथके चार कल्याणकोका वर्णन है और दशम सन्धिमें तीर्थंकर महावीरका धर्मोपदेश, निर्वाणगमन, गुणस्थाना रोहण एवं गुणस्थानक्रमानुसार प्रकृतियोंके क्षयका कथन आया है । इस प्रकार इस चरित-ग्रंथमें तीर्थंकर महावीरके पूर्वभव और वर्तमान जीवनका कथन किया है।
नगर, ग्राम, सरोवर, देश आदिका सफल चित्रण किया गया है। दिने श्वेतछत्र नगरीका चित्रण बहुत ही सुन्दररूपमें किया है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती है
जहि जल-खाइयहि तरंग-पति । सोहइ पवणाय गयणपति ।
जब-लिगि-समुभव-पाणील। गं जंगम-महिहर माल लोल ।।
जहि गयणंगण-गय-गोपुराई। रयणमय-कवाइहि सुन्दराई।
पेखेवि नहि जंतु सुहा वि सग्गु । सिरु धुणई मउडमंडिय महागु ॥
अहि निवसहि वणियण गय-पमाय । परदार-विरम परिमुक्क-माय ।
सइत्य-विरक्षण दाण-सोल । जिणधम्मासत्त विसुद्ध-सील ।।
हिं मंदिरभित्ति-विलंबमाण | णीलमणिकरो हइ घावमाण ।
माकर इंति गिह्मण-कएम | कसणो ख्यालि भक्खण-रएण ॥
जहि फलिह-बद्ध-महिपले मुहेसु । णारो-यणाइ पडि-बिबिएसु ।
अलि पडइ कमल-लाले सनेउ । अवा महुवह हवइ विवेउ ।
जहि फलिह-भित्ति-पदिबिबियाई । णियस्वाद णयहि भावियाई ।
ससवत्ति-संक गय-रय-समाहं । जुज्झत्ति तियउ जियपपयमाहं ॥१३
अर्थात् स्वेतछत्र नगरीकी जल-परिखाओंमें पवनाहत होकर तरंग-पंक्ति ऐसी शोभित होती थी, मानों गगन-पंक्ति हो हो । नवनलिनी अपने पत्तों सहित महोघरके समान शोभित होती थी, आकाशको छूने वाले गोपुर रत्नमय मंडित किवाड़ोंसे युक्त शोभित थे । उन गोपुरोको देखनेपर स्वर्ग भी अच्छा नहीं लगताथा । अतएव ऐसा प्रतीत होता था, मानों मुकुटमंडित आकाश अपना सिर धुन रहा है। वहाँक व्यापारी प्रमादरहिस होकर निवास करसे थे। बोरवे पर स्त्रीसे विरक्त और छल-कपटसे रहित थे । वे शब्दार्थ में विचक्षण, दानशील और जिनधर्ममें आसक्त थे। वहाँके मन्दिरोंपर नीलमणिकी झालरें लटक रही थीं। इन झालरोंको मयूर कृष्ण सर्प समझकर भक्षण करनेके लिये दौड़ते थे। जहाँ स्फटिकमणिसे घटित फर्शके ऊपर स्त्रियों के प्रतिबिम्ब पड़तेथे, जिससे भौरे कमल समझकर सुन प्रतिबिम्बोंके ऊपर उमड़ पड़ते थे । वहाँको नारियां स्फटिक जटित दीवालोंमें अपने प्रतिबिम्बोंको देखकर सपत्नीको आशंकासे प्रसित हो झगड़ा करती थीं | इस नगरीमें नन्दिवर्धन नामका राजा मनुष्य , देव, दान बादिको प्रसन्न करता हुआ निवास करता था।
इसी प्रकार कविने युद्ध आदिका भी सुन्दर चित्रण किया है रस-योजनाको दृष्टिसे भी यह काव्य ग्राह्य है। इसमें शान्त, शंगार, वीर भगानक होंगी सम्यक योजना हुई है।तीर्थंकर महावीरका जन्म होनेपर कल्पवासी देवगण उनका जन्माभिषेक सम्पन्न करने के लिये हर्षसे विभोर हो जाते हैं और वे नानाप्रकारसे कोड़ा करने लगते हैं। देवोंके इस उत्साहका वर्णन निम्न प्रकार सम्पन्न किया गया है
कप्पवासम्मि गेरूण जाणामरा । चल्लिया चार घोलंत सब्बामरा ।।
भत्ति-पब्भार-भावेण पुल्लपणा । भूरिकीला-विणोएहिं सोक्खाणणा !|
णच्चमाणा समाणा समाणा परे । गायमाणा अमाणा-अमाणा परे ।
बायमाणा विभाणाय माणा परे। वाहणं वाह-माणा सईयं परे।।
कोवि संकोडिऊण नन्द कीलए । कोवि गच्छेइ हंसट्टियो लीलए ।।
देक्सिकण हरी कोवि आसंकए । वाहणं धावमाणं थिरो वकए ।
कोवि देवो कराफोडि दाबतओ । कोदि वोमंगणे भत्ति धावंतओ ।।
कोवि केणावि तं षण आवाहियो ! कोवि देवोवि देक्वेवि थावाहिओ ॥
यह रचना भाषा, भाव और शैली इन तीनों ही दष्टियोंसे उच्चकोटिको है । बस्तु-वर्णनमें कविने महाकाव्य-रचयिताओंकी शैलीको अपनाया है।
कविकी तीसरी रचना 'चंदप्पहरित है। यह रचना अभी तक किसी भी ग्रंथागारमें उपलब्ध नहीं है। इसमें अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रमका जीवनवृत्त अंकित है । 'पासणाहपरिउ में इस रचनाका उल्लेख है। अतएव इसका रचनाकाल उक्त ग्रंथके रचनाकालसे कम-से-कम दो वर्ष पूर्व अवश्य है। इस प्रकार विज संवत् ११८७ "चंदप्पहचरिङ' का रचनाकाल सिद्ध होगा।
अपभ्रंश-साहित्यमें श्रीधर और विबुध श्रीधर नामके कई विद्वानोंका परिचय प्राप्त होता है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने संस्कृत और अपभ्रंशके साप्त कवियोंका परिचय दिया है।' श्रीधरके पूर्व 'विबुध विशेषण भी प्राप्त होता है। श्री हरिबंश कोछड़ने 'पासणाहरिउ', 'सुकुमालचरिज' और 'भविसयत्तरिज' ग्रन्थोंका रचयिता इन्हीं श्रीधरको माना है। पर पं० परमानन्दजी 'पासणाहचरिउके रचयिता श्रीधरको भवियसयत्तचरित' और सुकमालचरिडके रचयिताओंसे भिन्न मानते हैं। श्री डॉ देवेन्द्रकुमारशास्त्रीने भो भविसयत्तचरिउके रचयिता श्रीधर या विवुध श्रीधरको उक्त ग्रन्थों के रचयिताओंसे भिन्न बतलाया है । वस्तुतः 'पासणाहचरिउ'का रचयिता श्रीधर, भविसयत्तचरिउके रचयितासे तो भिन्न है ही, पर वह सुकुमालचरिउके रचयितासे भी भिन्न है। इन तीनों अन्थोंके रचयिता तीन श्रीधर हैं, एकश्रीधर नहीं।
'पासणाहचरिउके अन्तमें जो प्रशस्ति अंकित है उससे कबिके जोबनवृत्तपर निम्न लिखित प्रकाश पड़ता है
"सिरिअयरवालकुल-संभवेण, जपणी-बिल्हा-गम्भुम्भ) वेण
अणवरय-विणय-पणयारहण, कइणा बुहगोल्हतणुरहेण |
पड़ियतिहुअणवइगुणभरेण, मणिणयसुहिसुअणेंसिरिहरेण" ।
-पासणाहचरिउ, प्रशस्ति
कवि अग्रवाल कुलमें उत्पन्न हुआ था। इसकी माताका नाम वोल्हादेवी और पिताका नाम बुधगोल्ह था। कविने इससे अधिक अपना परिचय नहीं दिया है। कविका एक पासणाहपरिउ' ही उपलब्ध है। पर अन्धके प्रारंभिक भागसे उनके द्वारा चन्द्रप्रभचरितके रचे जानेका भी उल्लेख प्राप्त होता है। पंक्तियाँ निम्न प्रकार है
"विरएवि चंदप्पहरित चारु, चिर-परिय-कम्मदुक्खावहारू ।
विहरते कोमहलदसेण, परिहच्छिय चाससरिसरेण ।"
'पासणाहरित'में कविने इस ग्रंथके रचे जानेका कारण भी बतलाया है। कवि दिल्लौके पास हरियाणा में निवास करता था। उसे इस ग्रंथके रचनेकी प्रेरणा साह नट्टलके परिवारसे प्राप्त हुई। साहू नट्टल दिल्ली (योगिनीपुर) के निवासी थे। उस समय दिल्ली में तोमरवंशीय अनंगपाल तृतीयका शासन विद्यमान था । यह अनंगपाल अपने पूर्वज दो अनंगपालोंसे भिन्न था और यह बड़ा प्रसापो एवं वीर था। इसने हम्मीर वीरको सहायता की थी। प्रशस्तिमें लिखा है
जहि असिवर तोडिय रिउ कचालु, णरणाहु पसिद्ध अणंगुवाल
शिरुदल वद्धियहम्मीर वोरु, बंदियण विदं पवियपण चोरु ।
दुज्जण-हिय-यावणिदलणसीरु, दुग्णयणीरय-णिरसण-समीरु ।
बालभर-कंपाविय-गायरान, भामिणि-यण-मण-संजणिय-राउ ।
दिल्लीकी शासन-व्यवस्था बहुत ही सुव्यवस्थित थी और सभी जातियोंके लोग वहाँ सुखपूर्वक निवास करते थे। नट्टल साहू धर्मास्मा और साहित्य-प्रेमी ही नहीं थे; अपितु उच्चकोटिके कुशल-व्यापारी भी थे। उस समय उनका व्यापार अंग, बंग, कलिंग, कर्णाटक, नेपाल, भोड़, पांचाल, चेदि, गौड़, तक केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठ आदि देशोंमें चल रहा था । कपिको इन्हीं नट्टल साहूने 'पासणाहरि के लिखनेकी प्रेरणा दी थी।
नट्टल साहूके पिताका नाम अल्हण साहू था और इनका वंश अग्रवाल था | नट्टल साहूकी माता बड़ी ही धर्मात्मा और शीलगुण सम्पन्न थी। नट्टल साहूके दो ज्येष्ठ भाई थे-राघव और सोढल । सोबल विद्वानोंको आनन्ददायक, गुरुभक्त और अर्हन्तके चरणोंका भ्रमर था । भट्टल साहू भी बड़ा ही धर्मात्मा और लोकप्रिय था। उसे कुलरूपी कमलोका आकर, पाप रूपी पांशुका नाशक, बन्दीजनोंको दान देनेवाला, तीर्थकर मूत्तियों का प्रति. छापक, परदोषोंके प्रकाशनसे विरक्त और रत्नत्रयधारी था । साहित्यिक अभिचिके साथ सांस्कृतिक अभिरुचि भी उस में विद्यमान थी। उसने दिल्लीमे एक विशाल जैन-मन्दिर निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा भी की थी। पांचवी सन्धि के पश्चात् पासणाहरिउमें एक संस्कृत-पद्य आया है, जिससे उपयुक्त तथ्य निस्सृत होता है
"येनाराध्य विशुद्धधोरमतिना देवाधिदेवं जिनं ।
सत्पुण्यं समुपाजितं निजगणे : संतोषिता बांधवाः ।।
जनं चैत्यमकारि सुन्दरतरं जेनी प्रतिष्ठी तथा !
स श्रीमान्विदितः सदेव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः ।"
अतएव स्पष्ट है कि कवि श्रीधर प्रथमको पासणाहचरिउके रचनेको प्रेरणा नट्टल साहू से प्राप्त हुई थी।
कविके दिल्ली-वर्णन, यमुना-वर्णन, युद्ध -वर्णन, मन्दिर-वर्णन आदिसे स्पष्ट होता है कि कवि स्वाभिमानी था । वह नाना-शास्त्रोंका ज्ञाता होनेपर भी चरित्रको महत्व देता था | अलंकारोंके प्रति कनिकी विशेष ममता है। वह साधारण वर्णनको भी अलंकृत बनाता है। भाग्य और पुरुषार्थ इन दोनों पर कविको अपूर्व आस्था है। उसकी दृष्टिमें कर्मठ जीवन ही महत्त्व पूर्ण है।
पासणाहचरिउमें उसका रचनाकाल अंकित है । अतएव कदिके स्थिति कालके सम्बन्धमें विवाद नहीं है।
विक्कमरिंद-सुपसिद्धकालि, दिल्ली-पट्टण-घणकग-नवसालि ।
सणवासी-एयारह-सएहि, परिवाडिए वरिस-परिगएहि ।
कसणट्टमी हि आगहणमासि, रविवारि समाणितं सिसिरभासि ।
सिरिपासणाह णिम्मलचरितु, सयलामलरयगोह-दित्तु ।
अर्थात् वि० सं० १९८९ मार्गशीर्ष कृष्णा अष्टमी रविवारके दिन यह ग्रंथ पूर्ण हुआ।
कविकी एक अन्य रचना 'वड्ढमाणचरिउ' भी प्राप्त है। इस रचनामें भी कविने रचनाकालका निर्देश किया है । 'वढमाणचरि: में अंकित की गई वंशावली पासणाहचरिउकी वंशावलीके समान है। कविने अपनेको बील्डाके गर्भसे उत्पन्न लिखा है । बताया है
वीरहा-गम्भ-समुभव दोहें। सम्वयाह सहुँ पडिय गैहें ।।
एउ चिरमिय पाच-स्वयंकरु । बढमाणचरिउ सुहकरु ।।
बढ़माणचरिउका रचनाकाल कविने वि० सं० ११९० ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी रविवार बताया है । लिखा है
एयारहसहि परिबिगहि । संबच्छर सरणहि समेहि ।
जेटु-पढम-पक्सई पंचमिदिणे | सुरूवारे गयणगणिठिइइणे ॥
अतएव श्रीधर प्रथम या विबुध श्रीधरका समय विक्रमकी १२वीं शती निश्चित है।
विबुध श्रीधरकी दो रचनाएं निश्चित झाले सानी जापती है....ल. णाहचरिउ' और 'बडङमाणचरित'। ये दोनों ही रचनाएँ पौराणिक महाकाव्य हैं। इनमें पौराणिक काव्यके सभी तत्व पाये जाते हैं।
तीर्थकर पार्श्वनाथका चरित अपभ्रंशके कवियों को विशेष प्रिय रहा है। अहिंसा और ब्रह्मचर्य के सन्देशको जनसामान्य तक पहुँचानेके लिए यह चरित बहुत ही उपादेय है । कवि श्रीधर प्रथमने अपने इस चरितकाध्यमें २३वें तीर्थकर पारवनाथका जीवनवृत्त गुम्फित किया है। कथावस्तु १२ सन्धियोंमें विभक्त है और इस ग्रंथका प्रमाण २५०० पद्य है। कविने यमुनानदीका चित्रण प्रियतमके पास जाती हुई विलासिनीके रूप में किया है ।
जउणासरि सुरणय-हियय-हार, णं बार विलासिणिए उरहार ।
डिंडीर पिंड़ चप्परिय णिल्ल, कोलिर रहंग घोब्धड़ थणिण |
सेवाल-जाल-रोमावलिल्ल, बुहह्मण-मण-परिरंजणच्छइल्ल |
भमरावलिवेणीवलयलच्छि, पप्फुल्ल-पोमदलदीहअच्छि ।
पवणाह्यसलिलावत्त-णाहि, विणियजणवस्तणुताववाहि ।
बणगयगलमयजलसिलित, दरफुडिसिप्पिउडदसदित्त ।
बियसंत-सरोरुह-पवर-वत्त, रमणायर-पवरपियाणुरत्त ।
विउला मलपुलिपणियंव जाम, उत्तिण्णी णयणहि दिदा ताम ।
हरियाणए देसे असंख गामे, गमियिणणियअगवरयकामे ।
अर्थात् सुर-नर-हृदयहार यमुना मानो बारविलासिनीका हृदयहार है। मानों उसकी फेनालि उस नारीका उपरिसन वस्त्र हो । कीड़ारत चक्रवाक मानों उसके स्तन हों । शैवालजाल प्रबुद्ध मनको रंजन करने वाली रोमालि, भ्रमरावलि वलय श्रेणी, प्रफुल्ल पबदल दीर्घ नयन, पवनावलम्बित सलिल आवत, तनुतापनाशक नाभि, बन्यगजमद युक्त सलिलचन्दनलेप, ईषत व्यक्त होते हुए शुक्तिपुट सुन्दर रद एवं विकसित कमल, सुन्दर मुख हो। रत्नाकरप्रियके प्रति अनुरक्त सरिता थी. और वारविलासिनो रत्नालंकत अपने प्रियके प्रति । उसके विपुल एवं निर्मल पुलिन मानों उसके सितम्ब थे। इस प्रकारकी सरिता कविने देखी और पार की। नदी पार कर वह हरियाणा प्रदेशके डिल्ली नामक नगरमें पहुंचा।
कवि दिल्ली पहुंचने के साथ-साथ उसका रम्य वर्णन उपस्थित करता है। अलंकत दिल्ली कविकी अलंकृत शैली पाकर और भी आकर्षणयुक्त बन गई है । गगनचुम्बी शालाएं, विशाल रणशिविर (मंडप), सुरम्य मंदिर, समद गज, गतिशील तुरंग, नारीपद-नूपुरध्वनि सुन नृत्यत मयूर एवं प्रशस्त हट्टमार्ग आदिका निर्देश कविने किया है...
जहि गयणामंडललागु साल, रण-मंडवपरिमंडिज विसाल ।
गोउरसिरिकल सायपयंगु, बलपूरियपरिहालिगियंगु ।
जहि जण-मण-णयणाणंदिराई, मणियरगणमंडियमंदिराई ।
जहि चउदिसु सोहि घणवणाई, गायर-पार-खयर-सुहावणाई ।
जहि समय-करडिघड धड हति,पडिसद्दे दिसि-विदिसि विष्फुडंति ।
जाहिं पवण-गयण धाविर तुरंग, पं वारि रासि भंगुर तरंग ।
दप्पुम्भउ भन तोणु व कणिल्लु, सविणय सोसु व बहु गोर सिल्लु ।
पारावार व विथरिय संखु, तिहअणवाणणियरु के असंखु !
इस प्रकार कविने शिलष्ट शैली में दिल्ली नगरकी वस्तुओंका चित्रण किया है। यह नगर नघनके समान तारक युक्त था, सरोवरके समान हारयुक्त और हार नामक जीवोंसे युक्त था, कामिनीजनके समान प्रचुर मान बाला, युद्धभूमिके समान नागसहित और न्याययुक्त, नभके समान चन्द्रसहित एवं राज सहित था।
युद्धवर्णनमें कविने भावानुकूल शब्दों और छन्दोंकी योजना की है । इस प्रकार 'पासणाहरित' काव्य गुणोंसे परिपूर्ण है।
बढमाणचरिउके प्रेरक साहू नेमिचन्द्र हैं। इनके अनुरोधसे कविने इस अंथकी रचना की है। नेमिचन्द्रका परिचय ग्रंथके प्रारम्भ और अन्तमें दिया गया है । कविने लिखा है--
इपकाहि दिणि परवरणंदणेण ! 'सोमा-जणणी'-आणंदणेण ।।
जिणचरणकमलइंदिदिरेण । जिम्मलयर-गुण-माण-म दरेण ॥
जायस-कुल-कमल-दिवायरेण | जिणभणियागम-विहिणायरेण ।।
णामेण पोमिचन्देण वुतु । भो 'कइ-सिरिहर' सइत्यजुत्तु।
बिह(ण) विरइज चरिउ दुहोवारि ।संसारुम्भव-संताव-हारि ॥११॥
जायसबस-सरोध-दिणेसहो । अदिचित्तणिहित जिणेसहो ।
गरबर-सोमई-सणुसंभूबहो । साहु णेमि चंदहो गणभूवहो ।।
वयणे विरहउ सिरिहर णामें । तियरणरक्खिय असुहर मामें।
अन्तिम प्रशस्ति पत्र अर्थात् नेमिचन्द्र वोदाउ नामक नगरके निवासी थे और जायस या जप सवालकुल-कमलदिवाकर थे । इनके पिताका नान साहू नरवर और माताका नाम सोमादेवी था। माता-पिता बड़े ही धर्मात्मा और साधुस्वभावके थे। साहूनेमिचन्द्रकी धर्मपत्नीका नाम 'वीवा' देवी था । इनके तीन पुत्र थे रामचन्द्र, श्रीचन्द्र और विमलचन्द्र । एक दिन साहू नेमिचन्द्र ने कवि श्रीधरसे निवेदन किया कि जिस प्रकार चन्द्रप्रभचरित और शान्तिनाथचरित रचे गये हैं उसी तरह मेरे लिए अन्तिम सीर्थकरका चरित लिखिये । कविने प्रत्येक सन्धिके पुष्पिकावाक्यमें 'नेमिचन्द्रनामांकित' लिखा है । इतना ही नहीं, प्रत्येक सन्धिके प्रारम्भमें जो संस्कृत श्लोक दिया गया है उससे भी नेमिचन्द्र के गुणों पर प्रकाश पड़ता है । द्वितीय सन्धिके प्रारम्भमें
नंदत्वत्र पवित्रनिर्मललसच्चारित्रभूषाधरो।
धर्मध्यान-विधी सदा-कृत-रतिविद्वज्जनानां प्रियः ।।
प्राप्तान्तःकरणेत्सिताऽखिलजगवस्तु-व्रजो दुजय
स्तत्वार्थ अविचारणोद्यतमनाः श्रीनेमिचन्द्रश्चिरम् ।।
स्पष्ट है कि नेमिचन्द्र धर्मध्यानमें निपुण, सम्यग्दृष्टि, धीर, बुद्धिमान, लक्ष्मी पति, न्यायवान, भवभोगोंसे बिरक्त और जनकल्याणकारक थे । इस प्रकार कविने रचनाप्रेरकका विस्तृत परिचय प्रस्तुत किया है । ग्रंथ १० सन्धियों में विभक्त है और इसमें अन्तिम तीर्थंकरमहावीरका जीवनवृत्त गुम्फित किया है। प्रथम सन्धि था परिच्छेदमें नन्दिवर्धन राजाके वैराग्यका वर्णन किया है। द्वितीय सन्धिमें 'मयबई' मगपतिकी भवावलीका वर्णन किया गया है। तृतीय सन्धिमें बल वासुकी उत्पत्तिका वर्णन किया गया है। चतुर्थ सन्धिमें सेनानिवेशका वर्णन है। इसी सन्धिमें कविने युद्धका भी चित्रण किया है। पंचम सन्त्रिमें त्रिविष्ट विजयका वर्णन है। षष्ठ सन्धिमें सिंह-समाधिका चित्रण है। ससम सन्धिमें हरिषेणराय मुनिका स्वर्ग-गमन वर्णित है । अष्टम सन्धिमें नन्दनमुनिका प्राणत कल्पमें गमन वर्णित है ! नवम सन्धिमें वीरनाथके चार कल्याणकोका वर्णन है और दशम सन्धिमें तीर्थंकर महावीरका धर्मोपदेश, निर्वाणगमन, गुणस्थाना रोहण एवं गुणस्थानक्रमानुसार प्रकृतियोंके क्षयका कथन आया है । इस प्रकार इस चरित-ग्रंथमें तीर्थंकर महावीरके पूर्वभव और वर्तमान जीवनका कथन किया है।
नगर, ग्राम, सरोवर, देश आदिका सफल चित्रण किया गया है। दिने श्वेतछत्र नगरीका चित्रण बहुत ही सुन्दररूपमें किया है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती है
जहि जल-खाइयहि तरंग-पति । सोहइ पवणाय गयणपति ।
जब-लिगि-समुभव-पाणील। गं जंगम-महिहर माल लोल ।।
जहि गयणंगण-गय-गोपुराई। रयणमय-कवाइहि सुन्दराई।
पेखेवि नहि जंतु सुहा वि सग्गु । सिरु धुणई मउडमंडिय महागु ॥
अहि निवसहि वणियण गय-पमाय । परदार-विरम परिमुक्क-माय ।
सइत्य-विरक्षण दाण-सोल । जिणधम्मासत्त विसुद्ध-सील ।।
हिं मंदिरभित्ति-विलंबमाण | णीलमणिकरो हइ घावमाण ।
माकर इंति गिह्मण-कएम | कसणो ख्यालि भक्खण-रएण ॥
जहि फलिह-बद्ध-महिपले मुहेसु । णारो-यणाइ पडि-बिबिएसु ।
अलि पडइ कमल-लाले सनेउ । अवा महुवह हवइ विवेउ ।
जहि फलिह-भित्ति-पदिबिबियाई । णियस्वाद णयहि भावियाई ।
ससवत्ति-संक गय-रय-समाहं । जुज्झत्ति तियउ जियपपयमाहं ॥१३
अर्थात् स्वेतछत्र नगरीकी जल-परिखाओंमें पवनाहत होकर तरंग-पंक्ति ऐसी शोभित होती थी, मानों गगन-पंक्ति हो हो । नवनलिनी अपने पत्तों सहित महोघरके समान शोभित होती थी, आकाशको छूने वाले गोपुर रत्नमय मंडित किवाड़ोंसे युक्त शोभित थे । उन गोपुरोको देखनेपर स्वर्ग भी अच्छा नहीं लगताथा । अतएव ऐसा प्रतीत होता था, मानों मुकुटमंडित आकाश अपना सिर धुन रहा है। वहाँक व्यापारी प्रमादरहिस होकर निवास करसे थे। बोरवे पर स्त्रीसे विरक्त और छल-कपटसे रहित थे । वे शब्दार्थ में विचक्षण, दानशील और जिनधर्ममें आसक्त थे। वहाँके मन्दिरोंपर नीलमणिकी झालरें लटक रही थीं। इन झालरोंको मयूर कृष्ण सर्प समझकर भक्षण करनेके लिये दौड़ते थे। जहाँ स्फटिकमणिसे घटित फर्शके ऊपर स्त्रियों के प्रतिबिम्ब पड़तेथे, जिससे भौरे कमल समझकर सुन प्रतिबिम्बोंके ऊपर उमड़ पड़ते थे । वहाँको नारियां स्फटिक जटित दीवालोंमें अपने प्रतिबिम्बोंको देखकर सपत्नीको आशंकासे प्रसित हो झगड़ा करती थीं | इस नगरीमें नन्दिवर्धन नामका राजा मनुष्य , देव, दान बादिको प्रसन्न करता हुआ निवास करता था।
इसी प्रकार कविने युद्ध आदिका भी सुन्दर चित्रण किया है रस-योजनाको दृष्टिसे भी यह काव्य ग्राह्य है। इसमें शान्त, शंगार, वीर भगानक होंगी सम्यक योजना हुई है।तीर्थंकर महावीरका जन्म होनेपर कल्पवासी देवगण उनका जन्माभिषेक सम्पन्न करने के लिये हर्षसे विभोर हो जाते हैं और वे नानाप्रकारसे कोड़ा करने लगते हैं। देवोंके इस उत्साहका वर्णन निम्न प्रकार सम्पन्न किया गया है
कप्पवासम्मि गेरूण जाणामरा । चल्लिया चार घोलंत सब्बामरा ।।
भत्ति-पब्भार-भावेण पुल्लपणा । भूरिकीला-विणोएहिं सोक्खाणणा !|
णच्चमाणा समाणा समाणा परे । गायमाणा अमाणा-अमाणा परे ।
बायमाणा विभाणाय माणा परे। वाहणं वाह-माणा सईयं परे।।
कोवि संकोडिऊण नन्द कीलए । कोवि गच्छेइ हंसट्टियो लीलए ।।
देक्सिकण हरी कोवि आसंकए । वाहणं धावमाणं थिरो वकए ।
कोवि देवो कराफोडि दाबतओ । कोदि वोमंगणे भत्ति धावंतओ ।।
कोवि केणावि तं षण आवाहियो ! कोवि देवोवि देक्वेवि थावाहिओ ॥
यह रचना भाषा, भाव और शैली इन तीनों ही दष्टियोंसे उच्चकोटिको है । बस्तु-वर्णनमें कविने महाकाव्य-रचयिताओंकी शैलीको अपनाया है।
कविकी तीसरी रचना 'चंदप्पहरित है। यह रचना अभी तक किसी भी ग्रंथागारमें उपलब्ध नहीं है। इसमें अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रमका जीवनवृत्त अंकित है । 'पासणाहपरिउ में इस रचनाका उल्लेख है। अतएव इसका रचनाकाल उक्त ग्रंथके रचनाकालसे कम-से-कम दो वर्ष पूर्व अवश्य है। इस प्रकार विज संवत् ११८७ "चंदप्पहचरिङ' का रचनाकाल सिद्ध होगा।
#Shreedhar1
आचार्यतुल्य श्रीधर प्रथम (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 24 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 24 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
अपभ्रंश-साहित्यमें श्रीधर और विबुध श्रीधर नामके कई विद्वानोंका परिचय प्राप्त होता है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने संस्कृत और अपभ्रंशके साप्त कवियोंका परिचय दिया है।' श्रीधरके पूर्व 'विबुध विशेषण भी प्राप्त होता है। श्री हरिबंश कोछड़ने 'पासणाहरिउ', 'सुकुमालचरिज' और 'भविसयत्तरिज' ग्रन्थोंका रचयिता इन्हीं श्रीधरको माना है। पर पं० परमानन्दजी 'पासणाहचरिउके रचयिता श्रीधरको भवियसयत्तचरित' और सुकमालचरिडके रचयिताओंसे भिन्न मानते हैं। श्री डॉ देवेन्द्रकुमारशास्त्रीने भो भविसयत्तचरिउके रचयिता श्रीधर या विवुध श्रीधरको उक्त ग्रन्थों के रचयिताओंसे भिन्न बतलाया है । वस्तुतः 'पासणाहचरिउ'का रचयिता श्रीधर, भविसयत्तचरिउके रचयितासे तो भिन्न है ही, पर वह सुकुमालचरिउके रचयितासे भी भिन्न है। इन तीनों अन्थोंके रचयिता तीन श्रीधर हैं, एकश्रीधर नहीं।
'पासणाहचरिउके अन्तमें जो प्रशस्ति अंकित है उससे कबिके जोबनवृत्तपर निम्न लिखित प्रकाश पड़ता है
"सिरिअयरवालकुल-संभवेण, जपणी-बिल्हा-गम्भुम्भ) वेण
अणवरय-विणय-पणयारहण, कइणा बुहगोल्हतणुरहेण |
पड़ियतिहुअणवइगुणभरेण, मणिणयसुहिसुअणेंसिरिहरेण" ।
-पासणाहचरिउ, प्रशस्ति
कवि अग्रवाल कुलमें उत्पन्न हुआ था। इसकी माताका नाम वोल्हादेवी और पिताका नाम बुधगोल्ह था। कविने इससे अधिक अपना परिचय नहीं दिया है। कविका एक पासणाहपरिउ' ही उपलब्ध है। पर अन्धके प्रारंभिक भागसे उनके द्वारा चन्द्रप्रभचरितके रचे जानेका भी उल्लेख प्राप्त होता है। पंक्तियाँ निम्न प्रकार है
"विरएवि चंदप्पहरित चारु, चिर-परिय-कम्मदुक्खावहारू ।
विहरते कोमहलदसेण, परिहच्छिय चाससरिसरेण ।"
'पासणाहरित'में कविने इस ग्रंथके रचे जानेका कारण भी बतलाया है। कवि दिल्लौके पास हरियाणा में निवास करता था। उसे इस ग्रंथके रचनेकी प्रेरणा साह नट्टलके परिवारसे प्राप्त हुई। साहू नट्टल दिल्ली (योगिनीपुर) के निवासी थे। उस समय दिल्ली में तोमरवंशीय अनंगपाल तृतीयका शासन विद्यमान था । यह अनंगपाल अपने पूर्वज दो अनंगपालोंसे भिन्न था और यह बड़ा प्रसापो एवं वीर था। इसने हम्मीर वीरको सहायता की थी। प्रशस्तिमें लिखा है
जहि असिवर तोडिय रिउ कचालु, णरणाहु पसिद्ध अणंगुवाल
शिरुदल वद्धियहम्मीर वोरु, बंदियण विदं पवियपण चोरु ।
दुज्जण-हिय-यावणिदलणसीरु, दुग्णयणीरय-णिरसण-समीरु ।
बालभर-कंपाविय-गायरान, भामिणि-यण-मण-संजणिय-राउ ।
दिल्लीकी शासन-व्यवस्था बहुत ही सुव्यवस्थित थी और सभी जातियोंके लोग वहाँ सुखपूर्वक निवास करते थे। नट्टल साहू धर्मास्मा और साहित्य-प्रेमी ही नहीं थे; अपितु उच्चकोटिके कुशल-व्यापारी भी थे। उस समय उनका व्यापार अंग, बंग, कलिंग, कर्णाटक, नेपाल, भोड़, पांचाल, चेदि, गौड़, तक केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठ आदि देशोंमें चल रहा था । कपिको इन्हीं नट्टल साहूने 'पासणाहरि के लिखनेकी प्रेरणा दी थी।
नट्टल साहूके पिताका नाम अल्हण साहू था और इनका वंश अग्रवाल था | नट्टल साहूकी माता बड़ी ही धर्मात्मा और शीलगुण सम्पन्न थी। नट्टल साहूके दो ज्येष्ठ भाई थे-राघव और सोढल । सोबल विद्वानोंको आनन्ददायक, गुरुभक्त और अर्हन्तके चरणोंका भ्रमर था । भट्टल साहू भी बड़ा ही धर्मात्मा और लोकप्रिय था। उसे कुलरूपी कमलोका आकर, पाप रूपी पांशुका नाशक, बन्दीजनोंको दान देनेवाला, तीर्थकर मूत्तियों का प्रति. छापक, परदोषोंके प्रकाशनसे विरक्त और रत्नत्रयधारी था । साहित्यिक अभिचिके साथ सांस्कृतिक अभिरुचि भी उस में विद्यमान थी। उसने दिल्लीमे एक विशाल जैन-मन्दिर निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा भी की थी। पांचवी सन्धि के पश्चात् पासणाहरिउमें एक संस्कृत-पद्य आया है, जिससे उपयुक्त तथ्य निस्सृत होता है
"येनाराध्य विशुद्धधोरमतिना देवाधिदेवं जिनं ।
सत्पुण्यं समुपाजितं निजगणे : संतोषिता बांधवाः ।।
जनं चैत्यमकारि सुन्दरतरं जेनी प्रतिष्ठी तथा !
स श्रीमान्विदितः सदेव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः ।"
अतएव स्पष्ट है कि कवि श्रीधर प्रथमको पासणाहचरिउके रचनेको प्रेरणा नट्टल साहू से प्राप्त हुई थी।
कविके दिल्ली-वर्णन, यमुना-वर्णन, युद्ध -वर्णन, मन्दिर-वर्णन आदिसे स्पष्ट होता है कि कवि स्वाभिमानी था । वह नाना-शास्त्रोंका ज्ञाता होनेपर भी चरित्रको महत्व देता था | अलंकारोंके प्रति कनिकी विशेष ममता है। वह साधारण वर्णनको भी अलंकृत बनाता है। भाग्य और पुरुषार्थ इन दोनों पर कविको अपूर्व आस्था है। उसकी दृष्टिमें कर्मठ जीवन ही महत्त्व पूर्ण है।
पासणाहचरिउमें उसका रचनाकाल अंकित है । अतएव कदिके स्थिति कालके सम्बन्धमें विवाद नहीं है।
विक्कमरिंद-सुपसिद्धकालि, दिल्ली-पट्टण-घणकग-नवसालि ।
सणवासी-एयारह-सएहि, परिवाडिए वरिस-परिगएहि ।
कसणट्टमी हि आगहणमासि, रविवारि समाणितं सिसिरभासि ।
सिरिपासणाह णिम्मलचरितु, सयलामलरयगोह-दित्तु ।
अर्थात् वि० सं० १९८९ मार्गशीर्ष कृष्णा अष्टमी रविवारके दिन यह ग्रंथ पूर्ण हुआ।
कविकी एक अन्य रचना 'वड्ढमाणचरिउ' भी प्राप्त है। इस रचनामें भी कविने रचनाकालका निर्देश किया है । 'वढमाणचरि: में अंकित की गई वंशावली पासणाहचरिउकी वंशावलीके समान है। कविने अपनेको बील्डाके गर्भसे उत्पन्न लिखा है । बताया है
वीरहा-गम्भ-समुभव दोहें। सम्वयाह सहुँ पडिय गैहें ।।
एउ चिरमिय पाच-स्वयंकरु । बढमाणचरिउ सुहकरु ।।
बढ़माणचरिउका रचनाकाल कविने वि० सं० ११९० ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी रविवार बताया है । लिखा है
एयारहसहि परिबिगहि । संबच्छर सरणहि समेहि ।
जेटु-पढम-पक्सई पंचमिदिणे | सुरूवारे गयणगणिठिइइणे ॥
अतएव श्रीधर प्रथम या विबुध श्रीधरका समय विक्रमकी १२वीं शती निश्चित है।
विबुध श्रीधरकी दो रचनाएं निश्चित झाले सानी जापती है....ल. णाहचरिउ' और 'बडङमाणचरित'। ये दोनों ही रचनाएँ पौराणिक महाकाव्य हैं। इनमें पौराणिक काव्यके सभी तत्व पाये जाते हैं।
तीर्थकर पार्श्वनाथका चरित अपभ्रंशके कवियों को विशेष प्रिय रहा है। अहिंसा और ब्रह्मचर्य के सन्देशको जनसामान्य तक पहुँचानेके लिए यह चरित बहुत ही उपादेय है । कवि श्रीधर प्रथमने अपने इस चरितकाध्यमें २३वें तीर्थकर पारवनाथका जीवनवृत्त गुम्फित किया है। कथावस्तु १२ सन्धियोंमें विभक्त है और इस ग्रंथका प्रमाण २५०० पद्य है। कविने यमुनानदीका चित्रण प्रियतमके पास जाती हुई विलासिनीके रूप में किया है ।
जउणासरि सुरणय-हियय-हार, णं बार विलासिणिए उरहार ।
डिंडीर पिंड़ चप्परिय णिल्ल, कोलिर रहंग घोब्धड़ थणिण |
सेवाल-जाल-रोमावलिल्ल, बुहह्मण-मण-परिरंजणच्छइल्ल |
भमरावलिवेणीवलयलच्छि, पप्फुल्ल-पोमदलदीहअच्छि ।
पवणाह्यसलिलावत्त-णाहि, विणियजणवस्तणुताववाहि ।
बणगयगलमयजलसिलित, दरफुडिसिप्पिउडदसदित्त ।
बियसंत-सरोरुह-पवर-वत्त, रमणायर-पवरपियाणुरत्त ।
विउला मलपुलिपणियंव जाम, उत्तिण्णी णयणहि दिदा ताम ।
हरियाणए देसे असंख गामे, गमियिणणियअगवरयकामे ।
अर्थात् सुर-नर-हृदयहार यमुना मानो बारविलासिनीका हृदयहार है। मानों उसकी फेनालि उस नारीका उपरिसन वस्त्र हो । कीड़ारत चक्रवाक मानों उसके स्तन हों । शैवालजाल प्रबुद्ध मनको रंजन करने वाली रोमालि, भ्रमरावलि वलय श्रेणी, प्रफुल्ल पबदल दीर्घ नयन, पवनावलम्बित सलिल आवत, तनुतापनाशक नाभि, बन्यगजमद युक्त सलिलचन्दनलेप, ईषत व्यक्त होते हुए शुक्तिपुट सुन्दर रद एवं विकसित कमल, सुन्दर मुख हो। रत्नाकरप्रियके प्रति अनुरक्त सरिता थी. और वारविलासिनो रत्नालंकत अपने प्रियके प्रति । उसके विपुल एवं निर्मल पुलिन मानों उसके सितम्ब थे। इस प्रकारकी सरिता कविने देखी और पार की। नदी पार कर वह हरियाणा प्रदेशके डिल्ली नामक नगरमें पहुंचा।
कवि दिल्ली पहुंचने के साथ-साथ उसका रम्य वर्णन उपस्थित करता है। अलंकत दिल्ली कविकी अलंकृत शैली पाकर और भी आकर्षणयुक्त बन गई है । गगनचुम्बी शालाएं, विशाल रणशिविर (मंडप), सुरम्य मंदिर, समद गज, गतिशील तुरंग, नारीपद-नूपुरध्वनि सुन नृत्यत मयूर एवं प्रशस्त हट्टमार्ग आदिका निर्देश कविने किया है...
जहि गयणामंडललागु साल, रण-मंडवपरिमंडिज विसाल ।
गोउरसिरिकल सायपयंगु, बलपूरियपरिहालिगियंगु ।
जहि जण-मण-णयणाणंदिराई, मणियरगणमंडियमंदिराई ।
जहि चउदिसु सोहि घणवणाई, गायर-पार-खयर-सुहावणाई ।
जहि समय-करडिघड धड हति,पडिसद्दे दिसि-विदिसि विष्फुडंति ।
जाहिं पवण-गयण धाविर तुरंग, पं वारि रासि भंगुर तरंग ।
दप्पुम्भउ भन तोणु व कणिल्लु, सविणय सोसु व बहु गोर सिल्लु ।
पारावार व विथरिय संखु, तिहअणवाणणियरु के असंखु !
इस प्रकार कविने शिलष्ट शैली में दिल्ली नगरकी वस्तुओंका चित्रण किया है। यह नगर नघनके समान तारक युक्त था, सरोवरके समान हारयुक्त और हार नामक जीवोंसे युक्त था, कामिनीजनके समान प्रचुर मान बाला, युद्धभूमिके समान नागसहित और न्याययुक्त, नभके समान चन्द्रसहित एवं राज सहित था।
युद्धवर्णनमें कविने भावानुकूल शब्दों और छन्दोंकी योजना की है । इस प्रकार 'पासणाहरित' काव्य गुणोंसे परिपूर्ण है।
बढमाणचरिउके प्रेरक साहू नेमिचन्द्र हैं। इनके अनुरोधसे कविने इस अंथकी रचना की है। नेमिचन्द्रका परिचय ग्रंथके प्रारम्भ और अन्तमें दिया गया है । कविने लिखा है--
इपकाहि दिणि परवरणंदणेण ! 'सोमा-जणणी'-आणंदणेण ।।
जिणचरणकमलइंदिदिरेण । जिम्मलयर-गुण-माण-म दरेण ॥
जायस-कुल-कमल-दिवायरेण | जिणभणियागम-विहिणायरेण ।।
णामेण पोमिचन्देण वुतु । भो 'कइ-सिरिहर' सइत्यजुत्तु।
बिह(ण) विरइज चरिउ दुहोवारि ।संसारुम्भव-संताव-हारि ॥११॥
जायसबस-सरोध-दिणेसहो । अदिचित्तणिहित जिणेसहो ।
गरबर-सोमई-सणुसंभूबहो । साहु णेमि चंदहो गणभूवहो ।।
वयणे विरहउ सिरिहर णामें । तियरणरक्खिय असुहर मामें।
अन्तिम प्रशस्ति पत्र अर्थात् नेमिचन्द्र वोदाउ नामक नगरके निवासी थे और जायस या जप सवालकुल-कमलदिवाकर थे । इनके पिताका नान साहू नरवर और माताका नाम सोमादेवी था। माता-पिता बड़े ही धर्मात्मा और साधुस्वभावके थे। साहूनेमिचन्द्रकी धर्मपत्नीका नाम 'वीवा' देवी था । इनके तीन पुत्र थे रामचन्द्र, श्रीचन्द्र और विमलचन्द्र । एक दिन साहू नेमिचन्द्र ने कवि श्रीधरसे निवेदन किया कि जिस प्रकार चन्द्रप्रभचरित और शान्तिनाथचरित रचे गये हैं उसी तरह मेरे लिए अन्तिम सीर्थकरका चरित लिखिये । कविने प्रत्येक सन्धिके पुष्पिकावाक्यमें 'नेमिचन्द्रनामांकित' लिखा है । इतना ही नहीं, प्रत्येक सन्धिके प्रारम्भमें जो संस्कृत श्लोक दिया गया है उससे भी नेमिचन्द्र के गुणों पर प्रकाश पड़ता है । द्वितीय सन्धिके प्रारम्भमें
नंदत्वत्र पवित्रनिर्मललसच्चारित्रभूषाधरो।
धर्मध्यान-विधी सदा-कृत-रतिविद्वज्जनानां प्रियः ।।
प्राप्तान्तःकरणेत्सिताऽखिलजगवस्तु-व्रजो दुजय
स्तत्वार्थ अविचारणोद्यतमनाः श्रीनेमिचन्द्रश्चिरम् ।।
स्पष्ट है कि नेमिचन्द्र धर्मध्यानमें निपुण, सम्यग्दृष्टि, धीर, बुद्धिमान, लक्ष्मी पति, न्यायवान, भवभोगोंसे बिरक्त और जनकल्याणकारक थे । इस प्रकार कविने रचनाप्रेरकका विस्तृत परिचय प्रस्तुत किया है । ग्रंथ १० सन्धियों में विभक्त है और इसमें अन्तिम तीर्थंकरमहावीरका जीवनवृत्त गुम्फित किया है। प्रथम सन्धि था परिच्छेदमें नन्दिवर्धन राजाके वैराग्यका वर्णन किया है। द्वितीय सन्धिमें 'मयबई' मगपतिकी भवावलीका वर्णन किया गया है। तृतीय सन्धिमें बल वासुकी उत्पत्तिका वर्णन किया गया है। चतुर्थ सन्धिमें सेनानिवेशका वर्णन है। इसी सन्धिमें कविने युद्धका भी चित्रण किया है। पंचम सन्त्रिमें त्रिविष्ट विजयका वर्णन है। षष्ठ सन्धिमें सिंह-समाधिका चित्रण है। ससम सन्धिमें हरिषेणराय मुनिका स्वर्ग-गमन वर्णित है । अष्टम सन्धिमें नन्दनमुनिका प्राणत कल्पमें गमन वर्णित है ! नवम सन्धिमें वीरनाथके चार कल्याणकोका वर्णन है और दशम सन्धिमें तीर्थंकर महावीरका धर्मोपदेश, निर्वाणगमन, गुणस्थाना रोहण एवं गुणस्थानक्रमानुसार प्रकृतियोंके क्षयका कथन आया है । इस प्रकार इस चरित-ग्रंथमें तीर्थंकर महावीरके पूर्वभव और वर्तमान जीवनका कथन किया है।
नगर, ग्राम, सरोवर, देश आदिका सफल चित्रण किया गया है। दिने श्वेतछत्र नगरीका चित्रण बहुत ही सुन्दररूपमें किया है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती है
जहि जल-खाइयहि तरंग-पति । सोहइ पवणाय गयणपति ।
जब-लिगि-समुभव-पाणील। गं जंगम-महिहर माल लोल ।।
जहि गयणंगण-गय-गोपुराई। रयणमय-कवाइहि सुन्दराई।
पेखेवि नहि जंतु सुहा वि सग्गु । सिरु धुणई मउडमंडिय महागु ॥
अहि निवसहि वणियण गय-पमाय । परदार-विरम परिमुक्क-माय ।
सइत्य-विरक्षण दाण-सोल । जिणधम्मासत्त विसुद्ध-सील ।।
हिं मंदिरभित्ति-विलंबमाण | णीलमणिकरो हइ घावमाण ।
माकर इंति गिह्मण-कएम | कसणो ख्यालि भक्खण-रएण ॥
जहि फलिह-बद्ध-महिपले मुहेसु । णारो-यणाइ पडि-बिबिएसु ।
अलि पडइ कमल-लाले सनेउ । अवा महुवह हवइ विवेउ ।
जहि फलिह-भित्ति-पदिबिबियाई । णियस्वाद णयहि भावियाई ।
ससवत्ति-संक गय-रय-समाहं । जुज्झत्ति तियउ जियपपयमाहं ॥१३
अर्थात् स्वेतछत्र नगरीकी जल-परिखाओंमें पवनाहत होकर तरंग-पंक्ति ऐसी शोभित होती थी, मानों गगन-पंक्ति हो हो । नवनलिनी अपने पत्तों सहित महोघरके समान शोभित होती थी, आकाशको छूने वाले गोपुर रत्नमय मंडित किवाड़ोंसे युक्त शोभित थे । उन गोपुरोको देखनेपर स्वर्ग भी अच्छा नहीं लगताथा । अतएव ऐसा प्रतीत होता था, मानों मुकुटमंडित आकाश अपना सिर धुन रहा है। वहाँक व्यापारी प्रमादरहिस होकर निवास करसे थे। बोरवे पर स्त्रीसे विरक्त और छल-कपटसे रहित थे । वे शब्दार्थ में विचक्षण, दानशील और जिनधर्ममें आसक्त थे। वहाँके मन्दिरोंपर नीलमणिकी झालरें लटक रही थीं। इन झालरोंको मयूर कृष्ण सर्प समझकर भक्षण करनेके लिये दौड़ते थे। जहाँ स्फटिकमणिसे घटित फर्शके ऊपर स्त्रियों के प्रतिबिम्ब पड़तेथे, जिससे भौरे कमल समझकर सुन प्रतिबिम्बोंके ऊपर उमड़ पड़ते थे । वहाँको नारियां स्फटिक जटित दीवालोंमें अपने प्रतिबिम्बोंको देखकर सपत्नीको आशंकासे प्रसित हो झगड़ा करती थीं | इस नगरीमें नन्दिवर्धन नामका राजा मनुष्य , देव, दान बादिको प्रसन्न करता हुआ निवास करता था।
इसी प्रकार कविने युद्ध आदिका भी सुन्दर चित्रण किया है रस-योजनाको दृष्टिसे भी यह काव्य ग्राह्य है। इसमें शान्त, शंगार, वीर भगानक होंगी सम्यक योजना हुई है।तीर्थंकर महावीरका जन्म होनेपर कल्पवासी देवगण उनका जन्माभिषेक सम्पन्न करने के लिये हर्षसे विभोर हो जाते हैं और वे नानाप्रकारसे कोड़ा करने लगते हैं। देवोंके इस उत्साहका वर्णन निम्न प्रकार सम्पन्न किया गया है
कप्पवासम्मि गेरूण जाणामरा । चल्लिया चार घोलंत सब्बामरा ।।
भत्ति-पब्भार-भावेण पुल्लपणा । भूरिकीला-विणोएहिं सोक्खाणणा !|
णच्चमाणा समाणा समाणा परे । गायमाणा अमाणा-अमाणा परे ।
बायमाणा विभाणाय माणा परे। वाहणं वाह-माणा सईयं परे।।
कोवि संकोडिऊण नन्द कीलए । कोवि गच्छेइ हंसट्टियो लीलए ।।
देक्सिकण हरी कोवि आसंकए । वाहणं धावमाणं थिरो वकए ।
कोवि देवो कराफोडि दाबतओ । कोदि वोमंगणे भत्ति धावंतओ ।।
कोवि केणावि तं षण आवाहियो ! कोवि देवोवि देक्वेवि थावाहिओ ॥
यह रचना भाषा, भाव और शैली इन तीनों ही दष्टियोंसे उच्चकोटिको है । बस्तु-वर्णनमें कविने महाकाव्य-रचयिताओंकी शैलीको अपनाया है।
कविकी तीसरी रचना 'चंदप्पहरित है। यह रचना अभी तक किसी भी ग्रंथागारमें उपलब्ध नहीं है। इसमें अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रमका जीवनवृत्त अंकित है । 'पासणाहपरिउ में इस रचनाका उल्लेख है। अतएव इसका रचनाकाल उक्त ग्रंथके रचनाकालसे कम-से-कम दो वर्ष पूर्व अवश्य है। इस प्रकार विज संवत् ११८७ "चंदप्पहचरिङ' का रचनाकाल सिद्ध होगा।
Acharyatulya Shreedhar 1st (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 24 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Shreedhar1
15000
#Shreedhar1
Shreedhar1
You cannot copy content of this page