हैशटैग
#Suprabhacharyaprachin
सुप्रभाचार्यने उपदेशात्मक ७७ दोहोंका एक 'वैराग्यसार' नामक लघुकाय अन्ध लिखा है । कवि दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है। कविने स्वयं दिगम्बर साधुका रूप उपस्थित किया है । लिखा है
रिसिदयवरवंदिण सपण जं सूह लहि विनअंति।
झटितं घरु सुपउ भणई घोरमसाणु नभति ॥४६॥
डॉ० हरिवंश कोछड़ने कविका समय विचारधारा, शैली और भाषाके आधार पर ११वीं और १३वीं शताब्दीके मध्य माना है।
कविकी यह रचना सांसारिक-विषयोंकी अस्थिरता और दुःखोंकी बहुलता का प्रतिपादन कर धर्ममें स्थिर बने रहनेके लिये प्रेरित करती है। कविने लिखा है
सुप्पड़ भणइ रे धम्मियहु, खसह म धम्म णियाणि ।
जे सूरममि धवल धरि, ते अंधयण मसाण ॥२॥
सुप्पड भगई मा परिहरडु पर-उवचार (यार) चरत्थु ।
ससि सूर दूहु अंधणि अणहं कवण थिरत्यु ॥३॥
अर्थात् सुप्रभ कवि कहते हैं कि हे धार्मिको! निश्चित धर्मसे स्खलित न हो । जो सूर्योदयके समय शुभ्र गृह थे, वे ही सूर्यास्त पर श्मशान हो गये । अतएव परोपकार करना मत छोड़ो, संसार क्षणिक है। जब चन्द्र और सूर्य अस्त हो जाते हैं, तब कौन स्थिर रह सकता है।
यह संसार वस्तुतः विडम्बना है, जिसमें जरा, यौवन, जीवन मरण, धन, दारिद्रय जैसे विरोधी तत्व हैं। बन्धु-बान्धव सभी नश्वर हैं, फिर उनके लिए पाप कर धन-संचय क्यों किया जाय.। कवि इसी तथ्यकी व्यंजना करता हुआ कहता है--
जसु कारणि धणु संचई, पाव करेवि, गहीरु ।
निछहु सुपार पाई, मिति लिगि गरः। स ३३||
कवि धन-यौवनसे बिरक्त हो, घर छोड़ धर्म में दीक्षा लेनेका उपदेश देता है। कविका यह विश्वास है कि धर्माचरण ही जीवन में सबसे प्रमुख है। जो धर्मत्याग कर देता है वह व्यक्ति अनन्तकाल तक संसारका परिभ्रमण करता रहता है। कवि स्त्री, पुत्र और परिवारकी आसक्तिको पिशाचतुल्य मानता है। जबतक यह पिशाच पीछे लगा रहेगा, तक तक निरंजनपद प्राप्त नहीं हो सकता । कविने लिखा है
जसु लग्गइ सुप्पउ भणई पिय-घर-घरणि-पिसाउ ।
सो कि कहिङ समायरइ मित्त णिरंजण भाउ ॥६१।।
'सुप्रभाचार्यः कथति यस्य पुरुषस्य गृह-पुत्र-कलत्र-धनादिप्रीतिमद् बस्तु एव पिशाचो लग्नः तस्य पिशाचमस्तस्य पुरुषस्य न किपि वस्तु सम्यग स्वात्म स्वरूप भासते यद्यदाचरते तत् सर्वमेव निरर्थकत्वेन भासते ।'
कविने दामका विशेष महत्त्व प्रतिपादित किया है और धनको सार्थकता दानमें ही मानी है। जो दाता धन दान नहीं करता और निरन्तर उदर-पोषण में संलग्न रहता है, वह पशुतुल्य है। मानव-जीवनकी सार्थकता दान, स्वाध्याय एवं ध्यान-चिन्तनमें ही है। जो मढ़ विषयोंके अधीन हो अपना जीवन नष्ट करता है वह उसी प्रकारसे निर्बुद्धि माना जाता है जिस प्रकार कोई व्यक्ति चिन्तामणि रत्नको प्राप्त कर उसे यों ही फेंक दे। इन्द्रिय और मनका निग्रह करने वाला व्यक्ति ही जीवनको सफल बनाता है।
जसु मणु जीबई विसयसुह, सो णरु मुवो भणिज्ज ।
जसु पुण सुप्पय मणु मरई, सो णरु जीव भणिज ।।६।।
है शिष्य ! यः पुरुषः अथवा या स्त्री ऐन्द्रियेन विषयसुखेन कृत्वा जीवति हर्ष प्राप्नोति स नरः वा सा स्त्री मृतकवत् कथ्यते । तत: सुप्रभाचार्यः कथयति कि यो भव्यः स्वमानसं निग्राह्यति स भन्य: सर्वदा जीवत्ति-लोक: स्मयते।'
इस प्रकार कवि सुप्रभने अध्यात्म और लोकनीति पर पूरा प्रकाश डाला है । इस दोहा-ग्रन्थके अध्ययनसे व्यक्ति अपने जीवनमें स्थिरता और बोध प्राप्त कर सकता है।
सुप्रभाचार्यने उपदेशात्मक ७७ दोहोंका एक 'वैराग्यसार' नामक लघुकाय अन्ध लिखा है । कवि दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है। कविने स्वयं दिगम्बर साधुका रूप उपस्थित किया है । लिखा है
रिसिदयवरवंदिण सपण जं सूह लहि विनअंति।
झटितं घरु सुपउ भणई घोरमसाणु नभति ॥४६॥
डॉ० हरिवंश कोछड़ने कविका समय विचारधारा, शैली और भाषाके आधार पर ११वीं और १३वीं शताब्दीके मध्य माना है।
कविकी यह रचना सांसारिक-विषयोंकी अस्थिरता और दुःखोंकी बहुलता का प्रतिपादन कर धर्ममें स्थिर बने रहनेके लिये प्रेरित करती है। कविने लिखा है
सुप्पड़ भणइ रे धम्मियहु, खसह म धम्म णियाणि ।
जे सूरममि धवल धरि, ते अंधयण मसाण ॥२॥
सुप्पड भगई मा परिहरडु पर-उवचार (यार) चरत्थु ।
ससि सूर दूहु अंधणि अणहं कवण थिरत्यु ॥३॥
अर्थात् सुप्रभ कवि कहते हैं कि हे धार्मिको! निश्चित धर्मसे स्खलित न हो । जो सूर्योदयके समय शुभ्र गृह थे, वे ही सूर्यास्त पर श्मशान हो गये । अतएव परोपकार करना मत छोड़ो, संसार क्षणिक है। जब चन्द्र और सूर्य अस्त हो जाते हैं, तब कौन स्थिर रह सकता है।
यह संसार वस्तुतः विडम्बना है, जिसमें जरा, यौवन, जीवन मरण, धन, दारिद्रय जैसे विरोधी तत्व हैं। बन्धु-बान्धव सभी नश्वर हैं, फिर उनके लिए पाप कर धन-संचय क्यों किया जाय.। कवि इसी तथ्यकी व्यंजना करता हुआ कहता है--
जसु कारणि धणु संचई, पाव करेवि, गहीरु ।
निछहु सुपार पाई, मिति लिगि गरः। स ३३||
कवि धन-यौवनसे बिरक्त हो, घर छोड़ धर्म में दीक्षा लेनेका उपदेश देता है। कविका यह विश्वास है कि धर्माचरण ही जीवन में सबसे प्रमुख है। जो धर्मत्याग कर देता है वह व्यक्ति अनन्तकाल तक संसारका परिभ्रमण करता रहता है। कवि स्त्री, पुत्र और परिवारकी आसक्तिको पिशाचतुल्य मानता है। जबतक यह पिशाच पीछे लगा रहेगा, तक तक निरंजनपद प्राप्त नहीं हो सकता । कविने लिखा है
जसु लग्गइ सुप्पउ भणई पिय-घर-घरणि-पिसाउ ।
सो कि कहिङ समायरइ मित्त णिरंजण भाउ ॥६१।।
'सुप्रभाचार्यः कथति यस्य पुरुषस्य गृह-पुत्र-कलत्र-धनादिप्रीतिमद् बस्तु एव पिशाचो लग्नः तस्य पिशाचमस्तस्य पुरुषस्य न किपि वस्तु सम्यग स्वात्म स्वरूप भासते यद्यदाचरते तत् सर्वमेव निरर्थकत्वेन भासते ।'
कविने दामका विशेष महत्त्व प्रतिपादित किया है और धनको सार्थकता दानमें ही मानी है। जो दाता धन दान नहीं करता और निरन्तर उदर-पोषण में संलग्न रहता है, वह पशुतुल्य है। मानव-जीवनकी सार्थकता दान, स्वाध्याय एवं ध्यान-चिन्तनमें ही है। जो मढ़ विषयोंके अधीन हो अपना जीवन नष्ट करता है वह उसी प्रकारसे निर्बुद्धि माना जाता है जिस प्रकार कोई व्यक्ति चिन्तामणि रत्नको प्राप्त कर उसे यों ही फेंक दे। इन्द्रिय और मनका निग्रह करने वाला व्यक्ति ही जीवनको सफल बनाता है।
जसु मणु जीबई विसयसुह, सो णरु मुवो भणिज्ज ।
जसु पुण सुप्पय मणु मरई, सो णरु जीव भणिज ।।६।।
है शिष्य ! यः पुरुषः अथवा या स्त्री ऐन्द्रियेन विषयसुखेन कृत्वा जीवति हर्ष प्राप्नोति स नरः वा सा स्त्री मृतकवत् कथ्यते । तत: सुप्रभाचार्यः कथयति कि यो भव्यः स्वमानसं निग्राह्यति स भन्य: सर्वदा जीवत्ति-लोक: स्मयते।'
इस प्रकार कवि सुप्रभने अध्यात्म और लोकनीति पर पूरा प्रकाश डाला है । इस दोहा-ग्रन्थके अध्ययनसे व्यक्ति अपने जीवनमें स्थिरता और बोध प्राप्त कर सकता है।
#Suprabhacharyaprachin
आचार्यतुल्य सुप्रभाचार्य 13वीं शताब्दी (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 27 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
सुप्रभाचार्यने उपदेशात्मक ७७ दोहोंका एक 'वैराग्यसार' नामक लघुकाय अन्ध लिखा है । कवि दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है। कविने स्वयं दिगम्बर साधुका रूप उपस्थित किया है । लिखा है
रिसिदयवरवंदिण सपण जं सूह लहि विनअंति।
झटितं घरु सुपउ भणई घोरमसाणु नभति ॥४६॥
डॉ० हरिवंश कोछड़ने कविका समय विचारधारा, शैली और भाषाके आधार पर ११वीं और १३वीं शताब्दीके मध्य माना है।
कविकी यह रचना सांसारिक-विषयोंकी अस्थिरता और दुःखोंकी बहुलता का प्रतिपादन कर धर्ममें स्थिर बने रहनेके लिये प्रेरित करती है। कविने लिखा है
सुप्पड़ भणइ रे धम्मियहु, खसह म धम्म णियाणि ।
जे सूरममि धवल धरि, ते अंधयण मसाण ॥२॥
सुप्पड भगई मा परिहरडु पर-उवचार (यार) चरत्थु ।
ससि सूर दूहु अंधणि अणहं कवण थिरत्यु ॥३॥
अर्थात् सुप्रभ कवि कहते हैं कि हे धार्मिको! निश्चित धर्मसे स्खलित न हो । जो सूर्योदयके समय शुभ्र गृह थे, वे ही सूर्यास्त पर श्मशान हो गये । अतएव परोपकार करना मत छोड़ो, संसार क्षणिक है। जब चन्द्र और सूर्य अस्त हो जाते हैं, तब कौन स्थिर रह सकता है।
यह संसार वस्तुतः विडम्बना है, जिसमें जरा, यौवन, जीवन मरण, धन, दारिद्रय जैसे विरोधी तत्व हैं। बन्धु-बान्धव सभी नश्वर हैं, फिर उनके लिए पाप कर धन-संचय क्यों किया जाय.। कवि इसी तथ्यकी व्यंजना करता हुआ कहता है--
जसु कारणि धणु संचई, पाव करेवि, गहीरु ।
निछहु सुपार पाई, मिति लिगि गरः। स ३३||
कवि धन-यौवनसे बिरक्त हो, घर छोड़ धर्म में दीक्षा लेनेका उपदेश देता है। कविका यह विश्वास है कि धर्माचरण ही जीवन में सबसे प्रमुख है। जो धर्मत्याग कर देता है वह व्यक्ति अनन्तकाल तक संसारका परिभ्रमण करता रहता है। कवि स्त्री, पुत्र और परिवारकी आसक्तिको पिशाचतुल्य मानता है। जबतक यह पिशाच पीछे लगा रहेगा, तक तक निरंजनपद प्राप्त नहीं हो सकता । कविने लिखा है
जसु लग्गइ सुप्पउ भणई पिय-घर-घरणि-पिसाउ ।
सो कि कहिङ समायरइ मित्त णिरंजण भाउ ॥६१।।
'सुप्रभाचार्यः कथति यस्य पुरुषस्य गृह-पुत्र-कलत्र-धनादिप्रीतिमद् बस्तु एव पिशाचो लग्नः तस्य पिशाचमस्तस्य पुरुषस्य न किपि वस्तु सम्यग स्वात्म स्वरूप भासते यद्यदाचरते तत् सर्वमेव निरर्थकत्वेन भासते ।'
कविने दामका विशेष महत्त्व प्रतिपादित किया है और धनको सार्थकता दानमें ही मानी है। जो दाता धन दान नहीं करता और निरन्तर उदर-पोषण में संलग्न रहता है, वह पशुतुल्य है। मानव-जीवनकी सार्थकता दान, स्वाध्याय एवं ध्यान-चिन्तनमें ही है। जो मढ़ विषयोंके अधीन हो अपना जीवन नष्ट करता है वह उसी प्रकारसे निर्बुद्धि माना जाता है जिस प्रकार कोई व्यक्ति चिन्तामणि रत्नको प्राप्त कर उसे यों ही फेंक दे। इन्द्रिय और मनका निग्रह करने वाला व्यक्ति ही जीवनको सफल बनाता है।
जसु मणु जीबई विसयसुह, सो णरु मुवो भणिज्ज ।
जसु पुण सुप्पय मणु मरई, सो णरु जीव भणिज ।।६।।
है शिष्य ! यः पुरुषः अथवा या स्त्री ऐन्द्रियेन विषयसुखेन कृत्वा जीवति हर्ष प्राप्नोति स नरः वा सा स्त्री मृतकवत् कथ्यते । तत: सुप्रभाचार्यः कथयति कि यो भव्यः स्वमानसं निग्राह्यति स भन्य: सर्वदा जीवत्ति-लोक: स्मयते।'
इस प्रकार कवि सुप्रभने अध्यात्म और लोकनीति पर पूरा प्रकाश डाला है । इस दोहा-ग्रन्थके अध्ययनसे व्यक्ति अपने जीवनमें स्थिरता और बोध प्राप्त कर सकता है।
Acharyatulya Suprabhacharya 13th Century (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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15000
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Suprabhacharyaprachin
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