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#Tribhuvanswayambhu
स्वयंभुदेवके छोटे पुत्रका नाम त्रिभुवनस्वयंभु था। ये अपने पिताके सुयोग्य पुत्र थे और उन्हींके समान मेधावी कवि थे । कविराजचक्रवर्ती उनका विरुद था। प्रशस्तिके पद्योंसे उनकी विद्वताका पूरा परिचय प्राप्त होता है । लिखा है
तिहुअण-सयम्भु-धवलस्सा को गुणे वणिंउं जए तरइ ।
वालेण विजेण सयम्भु-कच-भारो समब्बूढो ॥५॥
वायरण-दह-क्खन्वो आगम-मंगोपमाण-वियड-पभो ।
तिहुअण-सयम्भु-धवलो जिण-तित्थे वह कश्वभरं' ॥६॥
अर्थात् त्रिभुवनस्वयंभुने अपने पिताके सुकवित्वका उत्तराधिकार प्राप्त किया। उसे छोड़कर स्वयंभके समस्त शिष्योंमें ऐसा कौन था, जो कविके काव्य भारको ग्रहण करता। त्रिभुवनस्वयंभुको धवल-वृषभकी उपमा दी गयी है। व्याकरणके अध्ययनसे मजबूत स्कन्ध, आगमोंके अध्ययनसे सुदृढ अंग और व्याकरणकै अध्ययनसे विकट पदविज्ञ त्रिभुवनस्वयंभुके अतिरिक्त अन्य व्यक्ति काव्यभारको बहन नहीं कर सकता है। निश्चयतः त्रिभुवनस्वयंमु आगम, व्याकरण, काव्य यादि विषयोंके ज्ञाता थे।
इस कथमसे स्पष्ट है कि त्रिभुवनस्वयंभु शास्त्रश पण्डित थे। जिसप्रकार स्वयंभुदेव धनन्जय और श्वलइयाके आश्रित थे, उसी तरह त्रिभुवन वन्द इयाके। ऐसा अवगत होता है कि ये तीनों ही आश्रयदाता किसी एक ही राज मान्य या धनी कुलके थे । धनम्जयके उत्तराधिकारी धवलइया और धवल इयाके उत्तराधिकारी बन्दइया थे । एकके स्वर्गवासके पश्चात् दुसरेके और दूसरेके बाद तीसरेके आश्रयमें आये होंगे। बन्दश्या के प्रथमपुत्र गोविन्दका भी त्रिभुवनस्वयंभुने उल्लेख किया है, जिसके बात्सल्यभावसे पउमचरिउके शेष सात सर्ग रचे गये हैं।
बन्दझ्याके साथ पउमरिउके अन्तमें निभुवनस्वयंभुने नाग, श्रीपाल आदि भव्यजनोंको आरोग्य, समृद्धि, शान्ति और सुखका आशीर्वाद दिया है।'
त्रिभुवनस्वयंभुका समय स्वयंभुके समान ही ई. सन की नवम शताब्दी है ।
त्रिभुवनस्वयंभुने पउमरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ और पञ्चमीचरिउको पूर्ण इजा है। डॉ। हीरा जैनका अभिमत है त्रिभुवनस्वयंभुने रिछणे मिचरिउके अपूर्ण अंशको पूर्ण किया है । पचमचरित इनका पूर्ण अन्य है। डॉ० भायाणी पञमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ और पञ्चमीचरिउ इन तीनोंको अपूर्ण मानते हैं और तीनोंकी पूर्ति त्रिभुवनस्वयंभु द्वारा की गयी बतलाते हैं। पर एक लेखककी सभी कृतियाँ अधूरी नहीं मानी जा सकती हैं, क्योंकि लेखक एक कृतिको पूर्ण कर ही दुसरी कृतिका आरम्भ करता है। अप्रत्याशितरूपसे मृत्युके आ जाने पर कोई एक ही कृति अधरी रह सकती है। अतः प्रेमीजीके इस अनुमानसे हम सहमत है कि त्रिभुवनस्वयंभुने अपने पिताकी कृतियोंका परिमार्जन किया है। त्रिभुवनने रामकथाकन्याको सप्त महासगांगी था सात साँवालो कहा है
सत्त-महासंगंगी ति-रयग-भूसा-सू-रामकहकण्णा ।
तिहअण-सयम्भु-जणिया परिणाउ पन्दइय-मण-तणयं ।।
स्पष्ट है कि ८४वों सन्धिसे ९०वी सन्धि तक सात सन्धियाँ 'पउमचरिज'की त्रिभुवनस्वयंभु द्वारा विरचित हैं । ८४वों सन्धिसे ठीक सन्दर्भ घटित करनेके लिये उसमें भी उन्हें कुछ कड़वक जोड़ने पड़े और पुष्पिकामें अपना नामां कन किया।
हम प्रेमीजीके इस अनुमानसे पूर्णतया सहमत है कि स्वयंभुदेवने अपनी समझसे यह ग्रन्थ पूरा ही रचा था, पर उनके पुत्र त्रिभुवनस्वयंभुको कुछ कमी प्रतीत हुई और उस कमीको उन्होंने नयी-नयी सन्धियाँ जोड़कर पुरा किया।
'रिटठोमिचरित' की १९ सन्धियां तो स्वयंभुदेवकी हैं। ९९वीं सन्धिके अन्तमें एक पद्य आया है, जिसमें कहा है कि 'पउमचरित' या 'सुब्बयचरिउ' बनाकर अब मैं हरिवंशकी रचनामें प्रवृत्त होता हूँ। सरस्वतीदेवी मुझे स्थिरता प्रदान करें। इस पद्यसे यह ध्वनित होता है कि विभुवनस्वयंभुने 'पउमरिच' के संबद्धनके पश्चात् हरिवंशके संबद्धनकी ओर ध्यान दिया और उन्होंने १०० से ११२ तककी सन्धियां रची । अन्तिम सन्धि तक पुष्पिकाओंमें त्रिभुवनस्वयं भुका माम प्राप्त होता है। १०६, १०८, ११४, और १११वी सन्धिपद्योंमें मुनि थाःकोतिका नाम आता है। प्रेमोजीका अभिमत है कि यशनोतिने जीर्ण-शीर्ण प्रतिको ठीक-ठाक किया होगा और उसमें उन्होंने अपना नाम जोड़ दिया होगा । इस प्रकार त्रिभुवनस्वयंभुने 'सुद्धयरिउ', 'पसमचरिज' और 'हरिवंशचरिउ' इन तीनों ग्रन्थों में कुछ अंश जोड़कर इन्हें पूर्ण किया है । प्रेमी जोने सुद्धवचरिउको सुबघचरिउ माना है, पर यह मान्यता स्वस्थ प्रतीत नहीं होती।
निश्चयत: त्रिभुवनस्वयंभु अपने पिताके समान प्रतिभाशाली थे ।काव्य रचनामें इनकी अप्रतिहत गति थी।
स्वयंभुदेवके छोटे पुत्रका नाम त्रिभुवनस्वयंभु था। ये अपने पिताके सुयोग्य पुत्र थे और उन्हींके समान मेधावी कवि थे । कविराजचक्रवर्ती उनका विरुद था। प्रशस्तिके पद्योंसे उनकी विद्वताका पूरा परिचय प्राप्त होता है । लिखा है
तिहुअण-सयम्भु-धवलस्सा को गुणे वणिंउं जए तरइ ।
वालेण विजेण सयम्भु-कच-भारो समब्बूढो ॥५॥
वायरण-दह-क्खन्वो आगम-मंगोपमाण-वियड-पभो ।
तिहुअण-सयम्भु-धवलो जिण-तित्थे वह कश्वभरं' ॥६॥
अर्थात् त्रिभुवनस्वयंभुने अपने पिताके सुकवित्वका उत्तराधिकार प्राप्त किया। उसे छोड़कर स्वयंभके समस्त शिष्योंमें ऐसा कौन था, जो कविके काव्य भारको ग्रहण करता। त्रिभुवनस्वयंभुको धवल-वृषभकी उपमा दी गयी है। व्याकरणके अध्ययनसे मजबूत स्कन्ध, आगमोंके अध्ययनसे सुदृढ अंग और व्याकरणकै अध्ययनसे विकट पदविज्ञ त्रिभुवनस्वयंभुके अतिरिक्त अन्य व्यक्ति काव्यभारको बहन नहीं कर सकता है। निश्चयतः त्रिभुवनस्वयंमु आगम, व्याकरण, काव्य यादि विषयोंके ज्ञाता थे।
इस कथमसे स्पष्ट है कि त्रिभुवनस्वयंभु शास्त्रश पण्डित थे। जिसप्रकार स्वयंभुदेव धनन्जय और श्वलइयाके आश्रित थे, उसी तरह त्रिभुवन वन्द इयाके। ऐसा अवगत होता है कि ये तीनों ही आश्रयदाता किसी एक ही राज मान्य या धनी कुलके थे । धनम्जयके उत्तराधिकारी धवलइया और धवल इयाके उत्तराधिकारी बन्दइया थे । एकके स्वर्गवासके पश्चात् दुसरेके और दूसरेके बाद तीसरेके आश्रयमें आये होंगे। बन्दश्या के प्रथमपुत्र गोविन्दका भी त्रिभुवनस्वयंभुने उल्लेख किया है, जिसके बात्सल्यभावसे पउमचरिउके शेष सात सर्ग रचे गये हैं।
बन्दझ्याके साथ पउमरिउके अन्तमें निभुवनस्वयंभुने नाग, श्रीपाल आदि भव्यजनोंको आरोग्य, समृद्धि, शान्ति और सुखका आशीर्वाद दिया है।'
त्रिभुवनस्वयंभुका समय स्वयंभुके समान ही ई. सन की नवम शताब्दी है ।
त्रिभुवनस्वयंभुने पउमरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ और पञ्चमीचरिउको पूर्ण इजा है। डॉ। हीरा जैनका अभिमत है त्रिभुवनस्वयंभुने रिछणे मिचरिउके अपूर्ण अंशको पूर्ण किया है । पचमचरित इनका पूर्ण अन्य है। डॉ० भायाणी पञमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ और पञ्चमीचरिउ इन तीनोंको अपूर्ण मानते हैं और तीनोंकी पूर्ति त्रिभुवनस्वयंभु द्वारा की गयी बतलाते हैं। पर एक लेखककी सभी कृतियाँ अधूरी नहीं मानी जा सकती हैं, क्योंकि लेखक एक कृतिको पूर्ण कर ही दुसरी कृतिका आरम्भ करता है। अप्रत्याशितरूपसे मृत्युके आ जाने पर कोई एक ही कृति अधरी रह सकती है। अतः प्रेमीजीके इस अनुमानसे हम सहमत है कि त्रिभुवनस्वयंभुने अपने पिताकी कृतियोंका परिमार्जन किया है। त्रिभुवनने रामकथाकन्याको सप्त महासगांगी था सात साँवालो कहा है
सत्त-महासंगंगी ति-रयग-भूसा-सू-रामकहकण्णा ।
तिहअण-सयम्भु-जणिया परिणाउ पन्दइय-मण-तणयं ।।
स्पष्ट है कि ८४वों सन्धिसे ९०वी सन्धि तक सात सन्धियाँ 'पउमचरिज'की त्रिभुवनस्वयंभु द्वारा विरचित हैं । ८४वों सन्धिसे ठीक सन्दर्भ घटित करनेके लिये उसमें भी उन्हें कुछ कड़वक जोड़ने पड़े और पुष्पिकामें अपना नामां कन किया।
हम प्रेमीजीके इस अनुमानसे पूर्णतया सहमत है कि स्वयंभुदेवने अपनी समझसे यह ग्रन्थ पूरा ही रचा था, पर उनके पुत्र त्रिभुवनस्वयंभुको कुछ कमी प्रतीत हुई और उस कमीको उन्होंने नयी-नयी सन्धियाँ जोड़कर पुरा किया।
'रिटठोमिचरित' की १९ सन्धियां तो स्वयंभुदेवकी हैं। ९९वीं सन्धिके अन्तमें एक पद्य आया है, जिसमें कहा है कि 'पउमचरित' या 'सुब्बयचरिउ' बनाकर अब मैं हरिवंशकी रचनामें प्रवृत्त होता हूँ। सरस्वतीदेवी मुझे स्थिरता प्रदान करें। इस पद्यसे यह ध्वनित होता है कि विभुवनस्वयंभुने 'पउमरिच' के संबद्धनके पश्चात् हरिवंशके संबद्धनकी ओर ध्यान दिया और उन्होंने १०० से ११२ तककी सन्धियां रची । अन्तिम सन्धि तक पुष्पिकाओंमें त्रिभुवनस्वयं भुका माम प्राप्त होता है। १०६, १०८, ११४, और १११वी सन्धिपद्योंमें मुनि थाःकोतिका नाम आता है। प्रेमोजीका अभिमत है कि यशनोतिने जीर्ण-शीर्ण प्रतिको ठीक-ठाक किया होगा और उसमें उन्होंने अपना नाम जोड़ दिया होगा । इस प्रकार त्रिभुवनस्वयंभुने 'सुद्धयरिउ', 'पसमचरिज' और 'हरिवंशचरिउ' इन तीनों ग्रन्थों में कुछ अंश जोड़कर इन्हें पूर्ण किया है । प्रेमी जोने सुद्धवचरिउको सुबघचरिउ माना है, पर यह मान्यता स्वस्थ प्रतीत नहीं होती।
निश्चयत: त्रिभुवनस्वयंभु अपने पिताके समान प्रतिभाशाली थे ।काव्य रचनामें इनकी अप्रतिहत गति थी।
#Tribhuvanswayambhu
आचार्यतुल्य त्रिभुवनस्वयंभु (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 14 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
स्वयंभुदेवके छोटे पुत्रका नाम त्रिभुवनस्वयंभु था। ये अपने पिताके सुयोग्य पुत्र थे और उन्हींके समान मेधावी कवि थे । कविराजचक्रवर्ती उनका विरुद था। प्रशस्तिके पद्योंसे उनकी विद्वताका पूरा परिचय प्राप्त होता है । लिखा है
तिहुअण-सयम्भु-धवलस्सा को गुणे वणिंउं जए तरइ ।
वालेण विजेण सयम्भु-कच-भारो समब्बूढो ॥५॥
वायरण-दह-क्खन्वो आगम-मंगोपमाण-वियड-पभो ।
तिहुअण-सयम्भु-धवलो जिण-तित्थे वह कश्वभरं' ॥६॥
अर्थात् त्रिभुवनस्वयंभुने अपने पिताके सुकवित्वका उत्तराधिकार प्राप्त किया। उसे छोड़कर स्वयंभके समस्त शिष्योंमें ऐसा कौन था, जो कविके काव्य भारको ग्रहण करता। त्रिभुवनस्वयंभुको धवल-वृषभकी उपमा दी गयी है। व्याकरणके अध्ययनसे मजबूत स्कन्ध, आगमोंके अध्ययनसे सुदृढ अंग और व्याकरणकै अध्ययनसे विकट पदविज्ञ त्रिभुवनस्वयंभुके अतिरिक्त अन्य व्यक्ति काव्यभारको बहन नहीं कर सकता है। निश्चयतः त्रिभुवनस्वयंमु आगम, व्याकरण, काव्य यादि विषयोंके ज्ञाता थे।
इस कथमसे स्पष्ट है कि त्रिभुवनस्वयंभु शास्त्रश पण्डित थे। जिसप्रकार स्वयंभुदेव धनन्जय और श्वलइयाके आश्रित थे, उसी तरह त्रिभुवन वन्द इयाके। ऐसा अवगत होता है कि ये तीनों ही आश्रयदाता किसी एक ही राज मान्य या धनी कुलके थे । धनम्जयके उत्तराधिकारी धवलइया और धवल इयाके उत्तराधिकारी बन्दइया थे । एकके स्वर्गवासके पश्चात् दुसरेके और दूसरेके बाद तीसरेके आश्रयमें आये होंगे। बन्दश्या के प्रथमपुत्र गोविन्दका भी त्रिभुवनस्वयंभुने उल्लेख किया है, जिसके बात्सल्यभावसे पउमचरिउके शेष सात सर्ग रचे गये हैं।
बन्दझ्याके साथ पउमरिउके अन्तमें निभुवनस्वयंभुने नाग, श्रीपाल आदि भव्यजनोंको आरोग्य, समृद्धि, शान्ति और सुखका आशीर्वाद दिया है।'
त्रिभुवनस्वयंभुका समय स्वयंभुके समान ही ई. सन की नवम शताब्दी है ।
त्रिभुवनस्वयंभुने पउमरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ और पञ्चमीचरिउको पूर्ण इजा है। डॉ। हीरा जैनका अभिमत है त्रिभुवनस्वयंभुने रिछणे मिचरिउके अपूर्ण अंशको पूर्ण किया है । पचमचरित इनका पूर्ण अन्य है। डॉ० भायाणी पञमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ और पञ्चमीचरिउ इन तीनोंको अपूर्ण मानते हैं और तीनोंकी पूर्ति त्रिभुवनस्वयंभु द्वारा की गयी बतलाते हैं। पर एक लेखककी सभी कृतियाँ अधूरी नहीं मानी जा सकती हैं, क्योंकि लेखक एक कृतिको पूर्ण कर ही दुसरी कृतिका आरम्भ करता है। अप्रत्याशितरूपसे मृत्युके आ जाने पर कोई एक ही कृति अधरी रह सकती है। अतः प्रेमीजीके इस अनुमानसे हम सहमत है कि त्रिभुवनस्वयंभुने अपने पिताकी कृतियोंका परिमार्जन किया है। त्रिभुवनने रामकथाकन्याको सप्त महासगांगी था सात साँवालो कहा है
सत्त-महासंगंगी ति-रयग-भूसा-सू-रामकहकण्णा ।
तिहअण-सयम्भु-जणिया परिणाउ पन्दइय-मण-तणयं ।।
स्पष्ट है कि ८४वों सन्धिसे ९०वी सन्धि तक सात सन्धियाँ 'पउमचरिज'की त्रिभुवनस्वयंभु द्वारा विरचित हैं । ८४वों सन्धिसे ठीक सन्दर्भ घटित करनेके लिये उसमें भी उन्हें कुछ कड़वक जोड़ने पड़े और पुष्पिकामें अपना नामां कन किया।
हम प्रेमीजीके इस अनुमानसे पूर्णतया सहमत है कि स्वयंभुदेवने अपनी समझसे यह ग्रन्थ पूरा ही रचा था, पर उनके पुत्र त्रिभुवनस्वयंभुको कुछ कमी प्रतीत हुई और उस कमीको उन्होंने नयी-नयी सन्धियाँ जोड़कर पुरा किया।
'रिटठोमिचरित' की १९ सन्धियां तो स्वयंभुदेवकी हैं। ९९वीं सन्धिके अन्तमें एक पद्य आया है, जिसमें कहा है कि 'पउमचरित' या 'सुब्बयचरिउ' बनाकर अब मैं हरिवंशकी रचनामें प्रवृत्त होता हूँ। सरस्वतीदेवी मुझे स्थिरता प्रदान करें। इस पद्यसे यह ध्वनित होता है कि विभुवनस्वयंभुने 'पउमरिच' के संबद्धनके पश्चात् हरिवंशके संबद्धनकी ओर ध्यान दिया और उन्होंने १०० से ११२ तककी सन्धियां रची । अन्तिम सन्धि तक पुष्पिकाओंमें त्रिभुवनस्वयं भुका माम प्राप्त होता है। १०६, १०८, ११४, और १११वी सन्धिपद्योंमें मुनि थाःकोतिका नाम आता है। प्रेमोजीका अभिमत है कि यशनोतिने जीर्ण-शीर्ण प्रतिको ठीक-ठाक किया होगा और उसमें उन्होंने अपना नाम जोड़ दिया होगा । इस प्रकार त्रिभुवनस्वयंभुने 'सुद्धयरिउ', 'पसमचरिज' और 'हरिवंशचरिउ' इन तीनों ग्रन्थों में कुछ अंश जोड़कर इन्हें पूर्ण किया है । प्रेमी जोने सुद्धवचरिउको सुबघचरिउ माना है, पर यह मान्यता स्वस्थ प्रतीत नहीं होती।
निश्चयत: त्रिभुवनस्वयंभु अपने पिताके समान प्रतिभाशाली थे ।काव्य रचनामें इनकी अप्रतिहत गति थी।
Acharyatulya TribhuvanSwayambhu(Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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