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#Vagbhatt(Prachin)Acharyatulya
वाग्भट्टनामके कई विद्वान् हुए हैं । 'अष्टांगहृदय' नामक आयुर्वेदग्रन्थके रचयिता एक वागभट्ट हो चुके हैं। पर इनका कोई काव्य-ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । जैन सिद्धान्त भवन झाराकी विक्रम संवत् १७२७ की लिखी हुई प्नतिमें निम्न लिखित पञ्च प्राप्त होता है
अहिच्छत्रपुरोत्पन्नवारवाटकुलशालिनः ।
छाहडस्य सुतश्चके प्रबन्धं वाग्मटः कविः ।।८॥
यह प्रशस्ति-पद्य श्रवणबेलगोलाके स्व. पं० दौलिजिनदास शास्त्रीके पुस्त कालयवाली नेमिनिर्वाण-काव्यको प्रतिमें भी प्राप्य है ।'
प्रशस्ति-पद्यसे अवगत होता है कि वाग्भट्ट प्रथम प्राग्वाट---पोरवाड़ कुल के थे और इनके पिताका नाम छाहड़ था । इनका जन्म अहिछत्रपुरमें हुआ था। महामहोपाध्याय डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द्र भोशाके अनुसार नागौरका पुराना नाम नागपुर या अहिछत्रपुर है। महाभारत में जिस हिसका उल्लेख वह तो वर्तमान रामनगर (जिला बरेली उत्तर प्रदेश) माना जाता है । 'नाया धम्मकहाओ में भी अहिछत्रका निर्देश आया है, पर यह अहिछत्र चम्पाके उत्तर पूर्व अवस्थित था । विविधतीर्थ कल्पमें अहिछनका दूसरा नाम शंखवती नगरी आया है । इस प्रकार अहिछत्रके विभिन्न निर्देशोंके आधार पर यह निर्णय करना कठिन है कि वाग्भट्ट प्रथमने अपने जन्मसे किस अहिछत्रको सुशोभित किया था। डॉ. जगदीशचन्द्र जैनने अहिछनको अवस्थिति रामनगरमें मानी है। किन्तु हमें इस सम्बन्धमें ओझाजीका मत अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता है और कवि वाग्भट्ट प्रथमका जन्मस्थान नागौर ही जेंचता है । कवि दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है, यतः मल्लिनाथको कुमाररूप में नमस्कार किया है।'
वाग्भट्ट प्रथमने अपने काव्य में समयके सम्बन्ध में कुछ भी निर्देश नहीं किया है । अत: अन्तरंग प्रमाणों का साक्ष्य ही शेष रह जाता है । गग्भटालंकारके रचयिता वाग्भट्ट द्वितीयने अपने लक्षणग्रंथमें 'नेमिनिर्वाण' काब्यके छठे सर्गके "कान्तारभूमी" (६४६) "जहुर्वसन्ते" (६।४७) और "नेमि विशालनयनयोः" (६५१) पद्य ४१३५, ४१३९ और ४३२ में उद्धृत किये हैं । नेमिनिर्वाणके सातवें सर्गका "वरणः प्रसूनविकरावरणा" २६वां पद्म भो वाग्भटा लंकार के चतुर्थ परिच्छेदके ४०वें पद्यके रूपमें आया है। अतः नेमिनिर्वाण काव्यकी रचना वाग्भटालंकारके पूर्व हुई है। वाग्भटालंकारके रचयिता वाग्भट्ट द्वितीयका समय जयसिंहदेवका राज्यकाल माना जाता है। प्रोक 'बुलर'ने अनहिलवाड़के चालुक्य राजवंशको जो बंशावली अंकित की है उसकेअनुसार जसिहदेवका राज्यकाल ई० सन् १०९३-११४३ ई० सिद्ध होता है। आचार्य हेमचन्द्र के द्वयाश्चय-काव्यसे सिद्ध होता है कि वाग्भट्ट चालुक्यवंशीय कर्णदेवके पुत्र जयसिंह के अमात्य थे। अतएव 'नेमिनिर्वाण' की रचना ई० ११७५ के पूर्व होनी चाहिए।
'चन्द्रप्रभचरित', 'धर्मशर्माभ्युदय' और 'नेमिनिर्वाण' इन तीनों काव्यों के तुलनात्मक अध्ययनसे यह ज्ञात होता है कि 'चन्द्रप्रमचरित का प्रभाव 'धर्म शर्माभ्युदय' पर है और 'नेमिनिर्वाण' इन दोनों काव्योंसे प्रभावित है। धर्म शर्माभ्युदयके 'श्रीनाभिसुनोश्चिरमङ्घ्रियुग्मनखेन्दवः" (धर्म० ११) का नेमिनिर्वाणके "श्रीनाभिसनो: पदपवयुग्मनखाः" (नेमि० ११) पर स्पष्ट प्रभाव है । इसी प्रकार "चन्द्रमभं नौमि यदीयमाला नून" (धर्म० शर) से "चन्द्रप्रभाय प्रभवे त्रिसन्ध्यं तस्मै" (नेमि० ११८) पद्य भी प्रभावित है । अतएव ने मिनिर्वाण का रचनाकाल ई. सन् १०७५-११२५ होना चाहिए।
बाग्भट्ट प्रथमका व्यक्तित्व श्रद्धाल और भक्त कविका है। उन्होंने अपने महनीय व्यक्तित्व द्वारानकायको निशेषरूपसे प्रभावित किया है । इनके द्वारा लिखित एक ही रचना उपलब्ध है, वह है "नेमिनिर्वाणकाथ्य" | यह महा काव्य १५ सगोंमें विभक्त है और तीर्थंकर नेमिनाथका जीवनचरित अंकित है । चतुर्विशति तीर्थकरेंके नमस्कारके पश्चात् मूलकवा प्रारम्भ की गई है। कविने नेमिनाथके गर्भ, जन्म, विवाह, तपस्या, मान और निर्वाण कल्याणकों का निरूपण सीधे और सरलरूपमें किया है। कथावस्तुका आधार हरिवंश पुराण है। नेमिनायके जीवनकी दो मर्मस्पर्शी घटनाएं इस काव्य में अंकित है। एक घटना राजुल और नेमिका रैवतक पर पारस्परिक दर्शन और दर्शनके फलस्वरूप दोनोंके हृदयमें प्रेमाकर्षणकी उत्पत्तिरूपमें है । दूसरी घटना पशुओंका करुण क्रन्दन सुन विलखती राजुल तथा आगनेत्र हाथजोड़े उग्रसेनको छोड़ मानवताको प्रतिष्ठार्थ बनमें तपश्चरणके लिए जाना है। इन दोनों घट नाओंकी कथावस्तुको पर्याप्त सरस और मार्मिक बनाया है। कविने वसन्त वर्णन, रैवतकवर्णन, जलक्रीड़ा, सुर्योदय, चन्द्रोदय, सुरत, मदिरापान प्रभृति काव्यविषयोंका समावेश कथाको सरस बनानेके लिए किया है। कथावस्तुके गठनमें एकान्वितिका सफल निर्वाह हुआ है। पूर्व भवावलिके कयानकको इटा देने पर भी कथावस्तुमें छिन्न-भिन्नता नहीं बासी है। यों तो यह काव्य अलंकृत शैलीका उत्कृष्ट उदाहरण है। पर कथागठनको अपेक्षा इसमें कुछ शैथिल्य भी पाया जाता है ।
कविने इस काव्यमें नगरी, पर्वत, स्त्री-पुरुष, देवमन्दिर, सरोवर आदिका सहज-ग्राह्य चित्रण दिया है। रसभाव-योजनाकी दृष्टिसे भी यह काब्य सफल है । शृगार. रौद्र, वीर और शान्त रसोंका सुन्दर निरूपण आमा है । विरहकी अवस्थामें किये गये शीतलोपचार निरर्थक प्रतीत होते हैं। एकादश सर्गमें वियोग-शृंगारका अद्भुत चित्रण आया है। ___ अलंकारों में २।४२ में अनुप्रास, १९ में यमक, ११११ में इलेप, ३४० और ३॥४१ में उपमा, ४/५ में रूपक, १११८ में विरोधाभास, १०।१८ में उदाहरण, ८८० में सहोक्ति, ११४२ में परिसंख्या और १४१ में समासोनित प्राप्त हैं।
उपजाति, वसंततिलका, मालिनी, रुचिरा, हरिणी, पुष्पिताग्रा, शृगधरा, शार्दूलविक्रीडित, पृथ्वी, मोक्ता, अनुमान गमन, ना शशिदना, बन्धूक, विद्युन्माला, शिखरिणी, प्रमाणिका, हंसरत, रुक्मवती, मत्ता, माण रंग, इन्द्रवज्या, भुजंगप्रयात, मन्दाक्रान्ता, प्रमिताक्षरा कुसुविचित्रा, प्रियम्बदा, शालिनी, मौतिकदाम, तामरस, तोटक, चन्द्रिका, मंजुभाषिला, मत्तमयूर, नन्दिनी, अशोकमालिनी, ग्विणी, शरमाला, अच्युत, शशिकला, समराजि, चण्डवृष्टि, प्रहरणकलिका, नित्यभ्रमरविलासिता, ललिता और उपजाति छन्दोंका प्रयोग किया गया है। छन्दशास्त्रको दृष्टिस इस काव्यका सप्तम सर्ग विशेष महत्त्वपूर्ण है । जिस छन्दका नामांकन किया है कविने उसी छन्दमें पद्यरचना भो प्रस्तुत की है। कवि कल्पनाका धनी है । सन्ध्याके समय दिशाएँ अन्धकारद्रव्यसे लिप्त हो गई थी और रात्रि में ज्योत्स्नाने उसे चन्दन द्रव्यसे चचित कर दिया पर अब नवान सूर्यकिरणोंसे संसार कुंकुम द्वारा लीपा जा रहा है।
सन्ध्यागमे ततत्तमोमुगनाभिपडू नक्तं च चन्द्रचिचन्दनसंचयेन । यच्चचितं तदधुना भुवनं नवीनभास्वल्करोघघुसूर्णरुपलिप्यते स्म १२।१५।। मग्नां तमःप्रसरपंकनिकायमध्याद गामुद्धरन्सपदि पर्वततुङ्गशृङ्गाम् । प्राप्योदयं नयति सार्थकता स्वकीयमहसां पतिः करसहस्रमसाखिन्नः ।।३।१६।।
अन्धकाररूपी कीचड़में फंसी हुई पृथ्वीका पर्वतरूपी उन्नत शृंगोंसे उद्धार करते हुए उदयको प्राप्त सूर्यदेवने हजारों किरणोंको फैलाकर सार्थक नाम प्राप्त किया है। इस प्रकार काव्य-मूल्योंको दृष्टिसे यह काव्य महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रकाशन काव्यमालासिरीजमें ५६ संख्यक ग्रंथके रूपमें हुआ है ।
वाग्भट्टनामके कई विद्वान् हुए हैं । 'अष्टांगहृदय' नामक आयुर्वेदग्रन्थके रचयिता एक वागभट्ट हो चुके हैं। पर इनका कोई काव्य-ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । जैन सिद्धान्त भवन झाराकी विक्रम संवत् १७२७ की लिखी हुई प्नतिमें निम्न लिखित पञ्च प्राप्त होता है
अहिच्छत्रपुरोत्पन्नवारवाटकुलशालिनः ।
छाहडस्य सुतश्चके प्रबन्धं वाग्मटः कविः ।।८॥
यह प्रशस्ति-पद्य श्रवणबेलगोलाके स्व. पं० दौलिजिनदास शास्त्रीके पुस्त कालयवाली नेमिनिर्वाण-काव्यको प्रतिमें भी प्राप्य है ।'
प्रशस्ति-पद्यसे अवगत होता है कि वाग्भट्ट प्रथम प्राग्वाट---पोरवाड़ कुल के थे और इनके पिताका नाम छाहड़ था । इनका जन्म अहिछत्रपुरमें हुआ था। महामहोपाध्याय डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द्र भोशाके अनुसार नागौरका पुराना नाम नागपुर या अहिछत्रपुर है। महाभारत में जिस हिसका उल्लेख वह तो वर्तमान रामनगर (जिला बरेली उत्तर प्रदेश) माना जाता है । 'नाया धम्मकहाओ में भी अहिछत्रका निर्देश आया है, पर यह अहिछत्र चम्पाके उत्तर पूर्व अवस्थित था । विविधतीर्थ कल्पमें अहिछनका दूसरा नाम शंखवती नगरी आया है । इस प्रकार अहिछत्रके विभिन्न निर्देशोंके आधार पर यह निर्णय करना कठिन है कि वाग्भट्ट प्रथमने अपने जन्मसे किस अहिछत्रको सुशोभित किया था। डॉ. जगदीशचन्द्र जैनने अहिछनको अवस्थिति रामनगरमें मानी है। किन्तु हमें इस सम्बन्धमें ओझाजीका मत अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता है और कवि वाग्भट्ट प्रथमका जन्मस्थान नागौर ही जेंचता है । कवि दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है, यतः मल्लिनाथको कुमाररूप में नमस्कार किया है।'
वाग्भट्ट प्रथमने अपने काव्य में समयके सम्बन्ध में कुछ भी निर्देश नहीं किया है । अत: अन्तरंग प्रमाणों का साक्ष्य ही शेष रह जाता है । गग्भटालंकारके रचयिता वाग्भट्ट द्वितीयने अपने लक्षणग्रंथमें 'नेमिनिर्वाण' काब्यके छठे सर्गके "कान्तारभूमी" (६४६) "जहुर्वसन्ते" (६।४७) और "नेमि विशालनयनयोः" (६५१) पद्य ४१३५, ४१३९ और ४३२ में उद्धृत किये हैं । नेमिनिर्वाणके सातवें सर्गका "वरणः प्रसूनविकरावरणा" २६वां पद्म भो वाग्भटा लंकार के चतुर्थ परिच्छेदके ४०वें पद्यके रूपमें आया है। अतः नेमिनिर्वाण काव्यकी रचना वाग्भटालंकारके पूर्व हुई है। वाग्भटालंकारके रचयिता वाग्भट्ट द्वितीयका समय जयसिंहदेवका राज्यकाल माना जाता है। प्रोक 'बुलर'ने अनहिलवाड़के चालुक्य राजवंशको जो बंशावली अंकित की है उसकेअनुसार जसिहदेवका राज्यकाल ई० सन् १०९३-११४३ ई० सिद्ध होता है। आचार्य हेमचन्द्र के द्वयाश्चय-काव्यसे सिद्ध होता है कि वाग्भट्ट चालुक्यवंशीय कर्णदेवके पुत्र जयसिंह के अमात्य थे। अतएव 'नेमिनिर्वाण' की रचना ई० ११७५ के पूर्व होनी चाहिए।
'चन्द्रप्रभचरित', 'धर्मशर्माभ्युदय' और 'नेमिनिर्वाण' इन तीनों काव्यों के तुलनात्मक अध्ययनसे यह ज्ञात होता है कि 'चन्द्रप्रमचरित का प्रभाव 'धर्म शर्माभ्युदय' पर है और 'नेमिनिर्वाण' इन दोनों काव्योंसे प्रभावित है। धर्म शर्माभ्युदयके 'श्रीनाभिसुनोश्चिरमङ्घ्रियुग्मनखेन्दवः" (धर्म० ११) का नेमिनिर्वाणके "श्रीनाभिसनो: पदपवयुग्मनखाः" (नेमि० ११) पर स्पष्ट प्रभाव है । इसी प्रकार "चन्द्रमभं नौमि यदीयमाला नून" (धर्म० शर) से "चन्द्रप्रभाय प्रभवे त्रिसन्ध्यं तस्मै" (नेमि० ११८) पद्य भी प्रभावित है । अतएव ने मिनिर्वाण का रचनाकाल ई. सन् १०७५-११२५ होना चाहिए।
बाग्भट्ट प्रथमका व्यक्तित्व श्रद्धाल और भक्त कविका है। उन्होंने अपने महनीय व्यक्तित्व द्वारानकायको निशेषरूपसे प्रभावित किया है । इनके द्वारा लिखित एक ही रचना उपलब्ध है, वह है "नेमिनिर्वाणकाथ्य" | यह महा काव्य १५ सगोंमें विभक्त है और तीर्थंकर नेमिनाथका जीवनचरित अंकित है । चतुर्विशति तीर्थकरेंके नमस्कारके पश्चात् मूलकवा प्रारम्भ की गई है। कविने नेमिनाथके गर्भ, जन्म, विवाह, तपस्या, मान और निर्वाण कल्याणकों का निरूपण सीधे और सरलरूपमें किया है। कथावस्तुका आधार हरिवंश पुराण है। नेमिनायके जीवनकी दो मर्मस्पर्शी घटनाएं इस काव्य में अंकित है। एक घटना राजुल और नेमिका रैवतक पर पारस्परिक दर्शन और दर्शनके फलस्वरूप दोनोंके हृदयमें प्रेमाकर्षणकी उत्पत्तिरूपमें है । दूसरी घटना पशुओंका करुण क्रन्दन सुन विलखती राजुल तथा आगनेत्र हाथजोड़े उग्रसेनको छोड़ मानवताको प्रतिष्ठार्थ बनमें तपश्चरणके लिए जाना है। इन दोनों घट नाओंकी कथावस्तुको पर्याप्त सरस और मार्मिक बनाया है। कविने वसन्त वर्णन, रैवतकवर्णन, जलक्रीड़ा, सुर्योदय, चन्द्रोदय, सुरत, मदिरापान प्रभृति काव्यविषयोंका समावेश कथाको सरस बनानेके लिए किया है। कथावस्तुके गठनमें एकान्वितिका सफल निर्वाह हुआ है। पूर्व भवावलिके कयानकको इटा देने पर भी कथावस्तुमें छिन्न-भिन्नता नहीं बासी है। यों तो यह काव्य अलंकृत शैलीका उत्कृष्ट उदाहरण है। पर कथागठनको अपेक्षा इसमें कुछ शैथिल्य भी पाया जाता है ।
कविने इस काव्यमें नगरी, पर्वत, स्त्री-पुरुष, देवमन्दिर, सरोवर आदिका सहज-ग्राह्य चित्रण दिया है। रसभाव-योजनाकी दृष्टिसे भी यह काब्य सफल है । शृगार. रौद्र, वीर और शान्त रसोंका सुन्दर निरूपण आमा है । विरहकी अवस्थामें किये गये शीतलोपचार निरर्थक प्रतीत होते हैं। एकादश सर्गमें वियोग-शृंगारका अद्भुत चित्रण आया है। ___ अलंकारों में २।४२ में अनुप्रास, १९ में यमक, ११११ में इलेप, ३४० और ३॥४१ में उपमा, ४/५ में रूपक, १११८ में विरोधाभास, १०।१८ में उदाहरण, ८८० में सहोक्ति, ११४२ में परिसंख्या और १४१ में समासोनित प्राप्त हैं।
उपजाति, वसंततिलका, मालिनी, रुचिरा, हरिणी, पुष्पिताग्रा, शृगधरा, शार्दूलविक्रीडित, पृथ्वी, मोक्ता, अनुमान गमन, ना शशिदना, बन्धूक, विद्युन्माला, शिखरिणी, प्रमाणिका, हंसरत, रुक्मवती, मत्ता, माण रंग, इन्द्रवज्या, भुजंगप्रयात, मन्दाक्रान्ता, प्रमिताक्षरा कुसुविचित्रा, प्रियम्बदा, शालिनी, मौतिकदाम, तामरस, तोटक, चन्द्रिका, मंजुभाषिला, मत्तमयूर, नन्दिनी, अशोकमालिनी, ग्विणी, शरमाला, अच्युत, शशिकला, समराजि, चण्डवृष्टि, प्रहरणकलिका, नित्यभ्रमरविलासिता, ललिता और उपजाति छन्दोंका प्रयोग किया गया है। छन्दशास्त्रको दृष्टिस इस काव्यका सप्तम सर्ग विशेष महत्त्वपूर्ण है । जिस छन्दका नामांकन किया है कविने उसी छन्दमें पद्यरचना भो प्रस्तुत की है। कवि कल्पनाका धनी है । सन्ध्याके समय दिशाएँ अन्धकारद्रव्यसे लिप्त हो गई थी और रात्रि में ज्योत्स्नाने उसे चन्दन द्रव्यसे चचित कर दिया पर अब नवान सूर्यकिरणोंसे संसार कुंकुम द्वारा लीपा जा रहा है।
सन्ध्यागमे ततत्तमोमुगनाभिपडू नक्तं च चन्द्रचिचन्दनसंचयेन । यच्चचितं तदधुना भुवनं नवीनभास्वल्करोघघुसूर्णरुपलिप्यते स्म १२।१५।। मग्नां तमःप्रसरपंकनिकायमध्याद गामुद्धरन्सपदि पर्वततुङ्गशृङ्गाम् । प्राप्योदयं नयति सार्थकता स्वकीयमहसां पतिः करसहस्रमसाखिन्नः ।।३।१६।।
अन्धकाररूपी कीचड़में फंसी हुई पृथ्वीका पर्वतरूपी उन्नत शृंगोंसे उद्धार करते हुए उदयको प्राप्त सूर्यदेवने हजारों किरणोंको फैलाकर सार्थक नाम प्राप्त किया है। इस प्रकार काव्य-मूल्योंको दृष्टिसे यह काव्य महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रकाशन काव्यमालासिरीजमें ५६ संख्यक ग्रंथके रूपमें हुआ है ।
#Vagbhatt(Prachin)Acharyatulya
आचार्यतुल्य श्री १०८ वाग्भट्ट 1
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 03 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
वाग्भट्टनामके कई विद्वान् हुए हैं । 'अष्टांगहृदय' नामक आयुर्वेदग्रन्थके रचयिता एक वागभट्ट हो चुके हैं। पर इनका कोई काव्य-ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । जैन सिद्धान्त भवन झाराकी विक्रम संवत् १७२७ की लिखी हुई प्नतिमें निम्न लिखित पञ्च प्राप्त होता है
अहिच्छत्रपुरोत्पन्नवारवाटकुलशालिनः ।
छाहडस्य सुतश्चके प्रबन्धं वाग्मटः कविः ।।८॥
यह प्रशस्ति-पद्य श्रवणबेलगोलाके स्व. पं० दौलिजिनदास शास्त्रीके पुस्त कालयवाली नेमिनिर्वाण-काव्यको प्रतिमें भी प्राप्य है ।'
प्रशस्ति-पद्यसे अवगत होता है कि वाग्भट्ट प्रथम प्राग्वाट---पोरवाड़ कुल के थे और इनके पिताका नाम छाहड़ था । इनका जन्म अहिछत्रपुरमें हुआ था। महामहोपाध्याय डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द्र भोशाके अनुसार नागौरका पुराना नाम नागपुर या अहिछत्रपुर है। महाभारत में जिस हिसका उल्लेख वह तो वर्तमान रामनगर (जिला बरेली उत्तर प्रदेश) माना जाता है । 'नाया धम्मकहाओ में भी अहिछत्रका निर्देश आया है, पर यह अहिछत्र चम्पाके उत्तर पूर्व अवस्थित था । विविधतीर्थ कल्पमें अहिछनका दूसरा नाम शंखवती नगरी आया है । इस प्रकार अहिछत्रके विभिन्न निर्देशोंके आधार पर यह निर्णय करना कठिन है कि वाग्भट्ट प्रथमने अपने जन्मसे किस अहिछत्रको सुशोभित किया था। डॉ. जगदीशचन्द्र जैनने अहिछनको अवस्थिति रामनगरमें मानी है। किन्तु हमें इस सम्बन्धमें ओझाजीका मत अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता है और कवि वाग्भट्ट प्रथमका जन्मस्थान नागौर ही जेंचता है । कवि दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है, यतः मल्लिनाथको कुमाररूप में नमस्कार किया है।'
वाग्भट्ट प्रथमने अपने काव्य में समयके सम्बन्ध में कुछ भी निर्देश नहीं किया है । अत: अन्तरंग प्रमाणों का साक्ष्य ही शेष रह जाता है । गग्भटालंकारके रचयिता वाग्भट्ट द्वितीयने अपने लक्षणग्रंथमें 'नेमिनिर्वाण' काब्यके छठे सर्गके "कान्तारभूमी" (६४६) "जहुर्वसन्ते" (६।४७) और "नेमि विशालनयनयोः" (६५१) पद्य ४१३५, ४१३९ और ४३२ में उद्धृत किये हैं । नेमिनिर्वाणके सातवें सर्गका "वरणः प्रसूनविकरावरणा" २६वां पद्म भो वाग्भटा लंकार के चतुर्थ परिच्छेदके ४०वें पद्यके रूपमें आया है। अतः नेमिनिर्वाण काव्यकी रचना वाग्भटालंकारके पूर्व हुई है। वाग्भटालंकारके रचयिता वाग्भट्ट द्वितीयका समय जयसिंहदेवका राज्यकाल माना जाता है। प्रोक 'बुलर'ने अनहिलवाड़के चालुक्य राजवंशको जो बंशावली अंकित की है उसकेअनुसार जसिहदेवका राज्यकाल ई० सन् १०९३-११४३ ई० सिद्ध होता है। आचार्य हेमचन्द्र के द्वयाश्चय-काव्यसे सिद्ध होता है कि वाग्भट्ट चालुक्यवंशीय कर्णदेवके पुत्र जयसिंह के अमात्य थे। अतएव 'नेमिनिर्वाण' की रचना ई० ११७५ के पूर्व होनी चाहिए।
'चन्द्रप्रभचरित', 'धर्मशर्माभ्युदय' और 'नेमिनिर्वाण' इन तीनों काव्यों के तुलनात्मक अध्ययनसे यह ज्ञात होता है कि 'चन्द्रप्रमचरित का प्रभाव 'धर्म शर्माभ्युदय' पर है और 'नेमिनिर्वाण' इन दोनों काव्योंसे प्रभावित है। धर्म शर्माभ्युदयके 'श्रीनाभिसुनोश्चिरमङ्घ्रियुग्मनखेन्दवः" (धर्म० ११) का नेमिनिर्वाणके "श्रीनाभिसनो: पदपवयुग्मनखाः" (नेमि० ११) पर स्पष्ट प्रभाव है । इसी प्रकार "चन्द्रमभं नौमि यदीयमाला नून" (धर्म० शर) से "चन्द्रप्रभाय प्रभवे त्रिसन्ध्यं तस्मै" (नेमि० ११८) पद्य भी प्रभावित है । अतएव ने मिनिर्वाण का रचनाकाल ई. सन् १०७५-११२५ होना चाहिए।
बाग्भट्ट प्रथमका व्यक्तित्व श्रद्धाल और भक्त कविका है। उन्होंने अपने महनीय व्यक्तित्व द्वारानकायको निशेषरूपसे प्रभावित किया है । इनके द्वारा लिखित एक ही रचना उपलब्ध है, वह है "नेमिनिर्वाणकाथ्य" | यह महा काव्य १५ सगोंमें विभक्त है और तीर्थंकर नेमिनाथका जीवनचरित अंकित है । चतुर्विशति तीर्थकरेंके नमस्कारके पश्चात् मूलकवा प्रारम्भ की गई है। कविने नेमिनाथके गर्भ, जन्म, विवाह, तपस्या, मान और निर्वाण कल्याणकों का निरूपण सीधे और सरलरूपमें किया है। कथावस्तुका आधार हरिवंश पुराण है। नेमिनायके जीवनकी दो मर्मस्पर्शी घटनाएं इस काव्य में अंकित है। एक घटना राजुल और नेमिका रैवतक पर पारस्परिक दर्शन और दर्शनके फलस्वरूप दोनोंके हृदयमें प्रेमाकर्षणकी उत्पत्तिरूपमें है । दूसरी घटना पशुओंका करुण क्रन्दन सुन विलखती राजुल तथा आगनेत्र हाथजोड़े उग्रसेनको छोड़ मानवताको प्रतिष्ठार्थ बनमें तपश्चरणके लिए जाना है। इन दोनों घट नाओंकी कथावस्तुको पर्याप्त सरस और मार्मिक बनाया है। कविने वसन्त वर्णन, रैवतकवर्णन, जलक्रीड़ा, सुर्योदय, चन्द्रोदय, सुरत, मदिरापान प्रभृति काव्यविषयोंका समावेश कथाको सरस बनानेके लिए किया है। कथावस्तुके गठनमें एकान्वितिका सफल निर्वाह हुआ है। पूर्व भवावलिके कयानकको इटा देने पर भी कथावस्तुमें छिन्न-भिन्नता नहीं बासी है। यों तो यह काव्य अलंकृत शैलीका उत्कृष्ट उदाहरण है। पर कथागठनको अपेक्षा इसमें कुछ शैथिल्य भी पाया जाता है ।
कविने इस काव्यमें नगरी, पर्वत, स्त्री-पुरुष, देवमन्दिर, सरोवर आदिका सहज-ग्राह्य चित्रण दिया है। रसभाव-योजनाकी दृष्टिसे भी यह काब्य सफल है । शृगार. रौद्र, वीर और शान्त रसोंका सुन्दर निरूपण आमा है । विरहकी अवस्थामें किये गये शीतलोपचार निरर्थक प्रतीत होते हैं। एकादश सर्गमें वियोग-शृंगारका अद्भुत चित्रण आया है। ___ अलंकारों में २।४२ में अनुप्रास, १९ में यमक, ११११ में इलेप, ३४० और ३॥४१ में उपमा, ४/५ में रूपक, १११८ में विरोधाभास, १०।१८ में उदाहरण, ८८० में सहोक्ति, ११४२ में परिसंख्या और १४१ में समासोनित प्राप्त हैं।
उपजाति, वसंततिलका, मालिनी, रुचिरा, हरिणी, पुष्पिताग्रा, शृगधरा, शार्दूलविक्रीडित, पृथ्वी, मोक्ता, अनुमान गमन, ना शशिदना, बन्धूक, विद्युन्माला, शिखरिणी, प्रमाणिका, हंसरत, रुक्मवती, मत्ता, माण रंग, इन्द्रवज्या, भुजंगप्रयात, मन्दाक्रान्ता, प्रमिताक्षरा कुसुविचित्रा, प्रियम्बदा, शालिनी, मौतिकदाम, तामरस, तोटक, चन्द्रिका, मंजुभाषिला, मत्तमयूर, नन्दिनी, अशोकमालिनी, ग्विणी, शरमाला, अच्युत, शशिकला, समराजि, चण्डवृष्टि, प्रहरणकलिका, नित्यभ्रमरविलासिता, ललिता और उपजाति छन्दोंका प्रयोग किया गया है। छन्दशास्त्रको दृष्टिस इस काव्यका सप्तम सर्ग विशेष महत्त्वपूर्ण है । जिस छन्दका नामांकन किया है कविने उसी छन्दमें पद्यरचना भो प्रस्तुत की है। कवि कल्पनाका धनी है । सन्ध्याके समय दिशाएँ अन्धकारद्रव्यसे लिप्त हो गई थी और रात्रि में ज्योत्स्नाने उसे चन्दन द्रव्यसे चचित कर दिया पर अब नवान सूर्यकिरणोंसे संसार कुंकुम द्वारा लीपा जा रहा है।
सन्ध्यागमे ततत्तमोमुगनाभिपडू नक्तं च चन्द्रचिचन्दनसंचयेन । यच्चचितं तदधुना भुवनं नवीनभास्वल्करोघघुसूर्णरुपलिप्यते स्म १२।१५।। मग्नां तमःप्रसरपंकनिकायमध्याद गामुद्धरन्सपदि पर्वततुङ्गशृङ्गाम् । प्राप्योदयं नयति सार्थकता स्वकीयमहसां पतिः करसहस्रमसाखिन्नः ।।३।१६।।
अन्धकाररूपी कीचड़में फंसी हुई पृथ्वीका पर्वतरूपी उन्नत शृंगोंसे उद्धार करते हुए उदयको प्राप्त सूर्यदेवने हजारों किरणोंको फैलाकर सार्थक नाम प्राप्त किया है। इस प्रकार काव्य-मूल्योंको दृष्टिसे यह काव्य महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रकाशन काव्यमालासिरीजमें ५६ संख्यक ग्रंथके रूपमें हुआ है ।
Acharyatulya Vagbhatt 1 (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03 April 2022
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