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#Yashakirti
प्रथम 'चंदप्सहचरिउ के रचयिता कवि यशःकीर्ति है। यशःकीर्तिनामके कई आचार्य हुए हैं। उनमेंसे कईने अपभ्रंश-कान्योंकी रचना की है। 'चन्दापह चरिउ के रचयिता यशःकीतिने न तो ग्रंथका रचनाकाल ही अंकित किया है और न कोई विस्तृत प्रशस्ति ही लिखी है। पुष्पिकावाक्यमें कविने अपनेको महाकवि बताया है। लिखा है
"इय-सिरि-चंदप्पह-चरिए महाकइ-जसफित्ति-विरइए महाभब्ब-सिद्धपाल संवण-भूसणं सिरचंदप्पह-साणिव्याणरमणों णाम एवारहमी संधी-परिच्छेनी सम्मत्तो।"
कविने आचार्य समन्तभद्रके मुनिजीवनके समय घटित होनेवाली और अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्नभके स्तोत्रके सामथ्र्यसे प्रकट होनेवाली चन्द्रप्रभको मृत्ति सम्बन्धी घटनाका उल्लेख करके अकलंक, पूज्यपाद, जिनसेन और सिद्धसेन नामके पूर्ववर्ती विद्वानोंका उल्लेख किया है। आश्चर्य है कि कविने अपशके किसी कविका नाम निर्देश नहीं किया है।
कविने इस ग्रंथको हुम्बडकुलभूषण कुंवरसिंहके सुपुत्र सिद्धपालके अनु रोधसे रचा है। वे गुर्जरदेशके अन्तर्गत उन्मसदेशके वासी थे। आदि और अन्त में कविने इस ग्रंथके प्रेरकका उल्लेख किया है
हुंबड-कुल-नयलि पुष्फयंत, बहु देउ कुमरसिंहब महंत ।
तहो सुउ णिम्मलु गुण-गण-विसालु, सुपसिउ पभणइ सिद्धपालु ।
जसकित्तिविबुह-करि तुह पसाज, मह पूर्राह पाइय कब-भाउ ।
तं निमुणिवि सो भासेइ मंदु, पंगलु तोडेसइ केम चंदु ।
इह हुइ बहु गणहरणाणवंत, जिणवयण-रसायण-वित्थरंत ।
गुज्जर-देसह उम्मत्त गामु, तहि छड्डा-सुउ हुउ दोग णाम् ।
सिद्धङ तहो गंदणु भब्ध-बंधु, जिण-धम्म-भारि दिण्णु खंघु ।
सह सुउ जिट्ठउ बहुदेव भन्बु, जे धम्मकज्जि विव कलिज दन्छु ।
तहु लहु जायउ सिरि कुमरसिंह, कलिकाल करिदहो हणण सीहु ।
तहो सुउ संजायउ सिपालु, जिण-पुज्ज-दाण-गुणगण-रमालु ।
तहो डवरेहि इह कियउ गंधु, हडं णमु णमि किपिवि सत्थु गंधु ।
ग्रंथ के रचनाकालका उल्लेख न होनेसे महाकवि यशःकोत्तिके समयके सम्बन्ध १४८ : तीकर महापार और सी बाबा परम्परामें निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है | आमेर-शास्त्रभण्डारमें इनके द्वारा रचित अन्धकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं। एक वि०सं० १५८३ की और दूसरी १६०३की लिखी हुई है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अपने प्रशस्ति संग्रह प्रथमें वि० सं० १५३० में लिखित प्रतिका उपयोग किया है । अतः इतना सुनिश्चित है कि वि० सं० १५३० के पूर्व महाकवि यशःकीर्ति हुए हैं। पूर्ववर्ती कदियोंमें महाकवि यशःकीत्तिने जिन कवियोंका निर्देश किया है उनमें जिनसेन ही विक्रमकी नवम शताब्दीके कवि हैं। अत: नवम शताब्दीके पश्चात् और १५ वीं शताब्दीके पूर्व महाकवि यश:कीत्ति हुए हैं। पर यह ६०० वर्षोंका अन्तराल खटकता है। कविकी रचनाका प्रेरक गुजरातका सिद्धपाल है। विक्रमको ११ वीं शताब्दीसे गुजरातको समद्धि विशेषरूपसे बढ़ी है । सिद्धराज, जयसिंह और कुमारपालने गुजरातके यशकी विशेषरूपसं वृद्धि की है। अतएव कविकी रचनाका प्रेरक सिद्धपाल विक्रमसंवत् ११०० के उपरान्त होना चाहिए। अतएव कविने इस ग्रंथकी रचना ११ वीं शतोके अन्त में या १२ वीं शतीके प्रारंभमें की होगी।
चन्द्रप्रभचरित ११ सन्धियोंमें लिखा गया है। इसमें कविने आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभकी कथा गुम्फित की है। प्रथका आरंभ मंगलाचरण, सज्जन दुर्जन स्मरणसे होता है। अनन्तर कवि मंगलवती पुरीके राजा कनकप्रभका चित्रण करता है। संसारको असार और अनित्य जान राजा अपने पुत्र पद्मनाभको राज्य देकर विरक्त हो जाता है। दूसरीसे पांचवीं सन्धि तक पद्मनाभका चरित आया है और श्रीधर मुनिसे राजाका अपने पूर्व जन्मके वृत्तान्त सुननेका उल्लेख है। छठी सन्धिमें राजा पद्मनाभ और राजा पृथ्वीपालके बीच युद्ध होने की घटना वर्णित है। राजा विजित होता है किन्तु पपनाम युद्धसे विरक्त हो जाता है और राज्यभार अपने पुत्रको देकर वह श्रीधर मुनिसे दीक्षा ग्रहण कर लेता है। आगेवाली सन्धियों में पानाभके चन्द्रपुरीके राजा महासेनके यहाँ चन्द्रप्रभ रूपमें जन्म लेने, संसारसे विरक्त हो केवलज्ञान प्राप्तकर अन्तमें निर्वाण प्राप्त करनेका वर्णन आया है।
इस पंथकी थैली सरल और इतिवृत्तात्मक है। शैलीको आडम्बरहीनता भी इस गंथकी प्राचीनताका प्रमाण है। राजा, नगर, देश आदिका वर्णन सामान्यरूपमें ही आया है । कवि कहता है--
तहि कणयप्पड नामेण राउ जेपिछिवि सुखद हुउ विराउ ।
जसु भमई कित्ति भवणंतम्मि, येखि अइसडि निय धम्मि ।
जसु तेय बलणि नक्षीवियंगु, जलनिहि सलिलठ्ठिउ सिरिच बंगु ।
आइच्च वि दिणि दिणि देइ झंप, तत्तेज तत्तु जय वणिय कंप।।
सपकुवि निप्पाइस पदमु तासु, अब्भास करणि पडिमहं पयास ।
रूवाहकारिउ काम वीरू, किउ तासु अंगु मलिना सरोरु ।
धत्ता–तिहयणि बहु-गुणणि तसु पडिछंदु न दोसइ :
होसइ गुण लेसइ जसु वाई सरिसी सइ ।। १।९।।
नारी-चित्रणमें भी कविने अलंकारोंका प्रयोग नहीं किया है। कथाके प्रवाहमें वस्तुरूपात्मक ही चित्रण किया गया है । यद्यपि अंग-प्रत्यंगका चित्रण कविने किया है; पर भुक्त उपमानोंसे आगे नहीं बढ़ सका है
सिरिकताणामें तास कता, बहुरूव लाग्छ सोहगा वंता ।
जीयें मुह इंदहलंण बाणलं, जे पुण्णिमचंदहु उवमाण ।
तास तरलु णिम्मिल जुल णित्तह, णं अलि उरि ठिउ केइय पत्तह ।
जइ सवणू जुवलु सोहाविलासु, णं मयण विहंगम धरण पासु ।
बच्छच्छलु में पौऊस कुंभ, अह मयण-गंध-गय-पीण-चुभ !
अइ क्लीणु मज्झु णं पिसुणजण, यण रमण गुरुत्तणि कुवियमणू ।
जह पिहुल णियंवज अप्पमाणु, ठिक मयणराय पीढह समाणु ।
घत्ता हा इय मयणहु, जयजय जयणहु, उरु जुअल घर तोरण ।
अइ कोमलु स्तुप्पल जिय पय कतिहि चोरणु ॥ २१ ॥
इस ग्रंथमें छन्दोंका वैविध्य भी नहीं है और अलंकारोंका प्रयोग भी सामान्य रूपमें हुआ है । यह सत्य है कि रसमय स्थलोंकी कमी नहीं है।
प्रथम 'चंदप्सहचरिउ के रचयिता कवि यशःकीर्ति है। यशःकीर्तिनामके कई आचार्य हुए हैं। उनमेंसे कईने अपभ्रंश-कान्योंकी रचना की है। 'चन्दापह चरिउ के रचयिता यशःकीतिने न तो ग्रंथका रचनाकाल ही अंकित किया है और न कोई विस्तृत प्रशस्ति ही लिखी है। पुष्पिकावाक्यमें कविने अपनेको महाकवि बताया है। लिखा है
"इय-सिरि-चंदप्पह-चरिए महाकइ-जसफित्ति-विरइए महाभब्ब-सिद्धपाल संवण-भूसणं सिरचंदप्पह-साणिव्याणरमणों णाम एवारहमी संधी-परिच्छेनी सम्मत्तो।"
कविने आचार्य समन्तभद्रके मुनिजीवनके समय घटित होनेवाली और अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्नभके स्तोत्रके सामथ्र्यसे प्रकट होनेवाली चन्द्रप्रभको मृत्ति सम्बन्धी घटनाका उल्लेख करके अकलंक, पूज्यपाद, जिनसेन और सिद्धसेन नामके पूर्ववर्ती विद्वानोंका उल्लेख किया है। आश्चर्य है कि कविने अपशके किसी कविका नाम निर्देश नहीं किया है।
कविने इस ग्रंथको हुम्बडकुलभूषण कुंवरसिंहके सुपुत्र सिद्धपालके अनु रोधसे रचा है। वे गुर्जरदेशके अन्तर्गत उन्मसदेशके वासी थे। आदि और अन्त में कविने इस ग्रंथके प्रेरकका उल्लेख किया है
हुंबड-कुल-नयलि पुष्फयंत, बहु देउ कुमरसिंहब महंत ।
तहो सुउ णिम्मलु गुण-गण-विसालु, सुपसिउ पभणइ सिद्धपालु ।
जसकित्तिविबुह-करि तुह पसाज, मह पूर्राह पाइय कब-भाउ ।
तं निमुणिवि सो भासेइ मंदु, पंगलु तोडेसइ केम चंदु ।
इह हुइ बहु गणहरणाणवंत, जिणवयण-रसायण-वित्थरंत ।
गुज्जर-देसह उम्मत्त गामु, तहि छड्डा-सुउ हुउ दोग णाम् ।
सिद्धङ तहो गंदणु भब्ध-बंधु, जिण-धम्म-भारि दिण्णु खंघु ।
सह सुउ जिट्ठउ बहुदेव भन्बु, जे धम्मकज्जि विव कलिज दन्छु ।
तहु लहु जायउ सिरि कुमरसिंह, कलिकाल करिदहो हणण सीहु ।
तहो सुउ संजायउ सिपालु, जिण-पुज्ज-दाण-गुणगण-रमालु ।
तहो डवरेहि इह कियउ गंधु, हडं णमु णमि किपिवि सत्थु गंधु ।
ग्रंथ के रचनाकालका उल्लेख न होनेसे महाकवि यशःकोत्तिके समयके सम्बन्ध १४८ : तीकर महापार और सी बाबा परम्परामें निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है | आमेर-शास्त्रभण्डारमें इनके द्वारा रचित अन्धकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं। एक वि०सं० १५८३ की और दूसरी १६०३की लिखी हुई है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अपने प्रशस्ति संग्रह प्रथमें वि० सं० १५३० में लिखित प्रतिका उपयोग किया है । अतः इतना सुनिश्चित है कि वि० सं० १५३० के पूर्व महाकवि यशःकीर्ति हुए हैं। पूर्ववर्ती कदियोंमें महाकवि यशःकीत्तिने जिन कवियोंका निर्देश किया है उनमें जिनसेन ही विक्रमकी नवम शताब्दीके कवि हैं। अत: नवम शताब्दीके पश्चात् और १५ वीं शताब्दीके पूर्व महाकवि यश:कीत्ति हुए हैं। पर यह ६०० वर्षोंका अन्तराल खटकता है। कविकी रचनाका प्रेरक गुजरातका सिद्धपाल है। विक्रमको ११ वीं शताब्दीसे गुजरातको समद्धि विशेषरूपसे बढ़ी है । सिद्धराज, जयसिंह और कुमारपालने गुजरातके यशकी विशेषरूपसं वृद्धि की है। अतएव कविकी रचनाका प्रेरक सिद्धपाल विक्रमसंवत् ११०० के उपरान्त होना चाहिए। अतएव कविने इस ग्रंथकी रचना ११ वीं शतोके अन्त में या १२ वीं शतीके प्रारंभमें की होगी।
चन्द्रप्रभचरित ११ सन्धियोंमें लिखा गया है। इसमें कविने आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभकी कथा गुम्फित की है। प्रथका आरंभ मंगलाचरण, सज्जन दुर्जन स्मरणसे होता है। अनन्तर कवि मंगलवती पुरीके राजा कनकप्रभका चित्रण करता है। संसारको असार और अनित्य जान राजा अपने पुत्र पद्मनाभको राज्य देकर विरक्त हो जाता है। दूसरीसे पांचवीं सन्धि तक पद्मनाभका चरित आया है और श्रीधर मुनिसे राजाका अपने पूर्व जन्मके वृत्तान्त सुननेका उल्लेख है। छठी सन्धिमें राजा पद्मनाभ और राजा पृथ्वीपालके बीच युद्ध होने की घटना वर्णित है। राजा विजित होता है किन्तु पपनाम युद्धसे विरक्त हो जाता है और राज्यभार अपने पुत्रको देकर वह श्रीधर मुनिसे दीक्षा ग्रहण कर लेता है। आगेवाली सन्धियों में पानाभके चन्द्रपुरीके राजा महासेनके यहाँ चन्द्रप्रभ रूपमें जन्म लेने, संसारसे विरक्त हो केवलज्ञान प्राप्तकर अन्तमें निर्वाण प्राप्त करनेका वर्णन आया है।
इस पंथकी थैली सरल और इतिवृत्तात्मक है। शैलीको आडम्बरहीनता भी इस गंथकी प्राचीनताका प्रमाण है। राजा, नगर, देश आदिका वर्णन सामान्यरूपमें ही आया है । कवि कहता है--
तहि कणयप्पड नामेण राउ जेपिछिवि सुखद हुउ विराउ ।
जसु भमई कित्ति भवणंतम्मि, येखि अइसडि निय धम्मि ।
जसु तेय बलणि नक्षीवियंगु, जलनिहि सलिलठ्ठिउ सिरिच बंगु ।
आइच्च वि दिणि दिणि देइ झंप, तत्तेज तत्तु जय वणिय कंप।।
सपकुवि निप्पाइस पदमु तासु, अब्भास करणि पडिमहं पयास ।
रूवाहकारिउ काम वीरू, किउ तासु अंगु मलिना सरोरु ।
धत्ता–तिहयणि बहु-गुणणि तसु पडिछंदु न दोसइ :
होसइ गुण लेसइ जसु वाई सरिसी सइ ।। १।९।।
नारी-चित्रणमें भी कविने अलंकारोंका प्रयोग नहीं किया है। कथाके प्रवाहमें वस्तुरूपात्मक ही चित्रण किया गया है । यद्यपि अंग-प्रत्यंगका चित्रण कविने किया है; पर भुक्त उपमानोंसे आगे नहीं बढ़ सका है
सिरिकताणामें तास कता, बहुरूव लाग्छ सोहगा वंता ।
जीयें मुह इंदहलंण बाणलं, जे पुण्णिमचंदहु उवमाण ।
तास तरलु णिम्मिल जुल णित्तह, णं अलि उरि ठिउ केइय पत्तह ।
जइ सवणू जुवलु सोहाविलासु, णं मयण विहंगम धरण पासु ।
बच्छच्छलु में पौऊस कुंभ, अह मयण-गंध-गय-पीण-चुभ !
अइ क्लीणु मज्झु णं पिसुणजण, यण रमण गुरुत्तणि कुवियमणू ।
जह पिहुल णियंवज अप्पमाणु, ठिक मयणराय पीढह समाणु ।
घत्ता हा इय मयणहु, जयजय जयणहु, उरु जुअल घर तोरण ।
अइ कोमलु स्तुप्पल जिय पय कतिहि चोरणु ॥ २१ ॥
इस ग्रंथमें छन्दोंका वैविध्य भी नहीं है और अलंकारोंका प्रयोग भी सामान्य रूपमें हुआ है । यह सत्य है कि रसमय स्थलोंकी कमी नहीं है।
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आचार्यतुल्य यश कीर्ति प्रथम (प्राचीन)
संजुल जैन ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 26 अप्रैल 2022
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
प्रथम 'चंदप्सहचरिउ के रचयिता कवि यशःकीर्ति है। यशःकीर्तिनामके कई आचार्य हुए हैं। उनमेंसे कईने अपभ्रंश-कान्योंकी रचना की है। 'चन्दापह चरिउ के रचयिता यशःकीतिने न तो ग्रंथका रचनाकाल ही अंकित किया है और न कोई विस्तृत प्रशस्ति ही लिखी है। पुष्पिकावाक्यमें कविने अपनेको महाकवि बताया है। लिखा है
"इय-सिरि-चंदप्पह-चरिए महाकइ-जसफित्ति-विरइए महाभब्ब-सिद्धपाल संवण-भूसणं सिरचंदप्पह-साणिव्याणरमणों णाम एवारहमी संधी-परिच्छेनी सम्मत्तो।"
कविने आचार्य समन्तभद्रके मुनिजीवनके समय घटित होनेवाली और अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्नभके स्तोत्रके सामथ्र्यसे प्रकट होनेवाली चन्द्रप्रभको मृत्ति सम्बन्धी घटनाका उल्लेख करके अकलंक, पूज्यपाद, जिनसेन और सिद्धसेन नामके पूर्ववर्ती विद्वानोंका उल्लेख किया है। आश्चर्य है कि कविने अपशके किसी कविका नाम निर्देश नहीं किया है।
कविने इस ग्रंथको हुम्बडकुलभूषण कुंवरसिंहके सुपुत्र सिद्धपालके अनु रोधसे रचा है। वे गुर्जरदेशके अन्तर्गत उन्मसदेशके वासी थे। आदि और अन्त में कविने इस ग्रंथके प्रेरकका उल्लेख किया है
हुंबड-कुल-नयलि पुष्फयंत, बहु देउ कुमरसिंहब महंत ।
तहो सुउ णिम्मलु गुण-गण-विसालु, सुपसिउ पभणइ सिद्धपालु ।
जसकित्तिविबुह-करि तुह पसाज, मह पूर्राह पाइय कब-भाउ ।
तं निमुणिवि सो भासेइ मंदु, पंगलु तोडेसइ केम चंदु ।
इह हुइ बहु गणहरणाणवंत, जिणवयण-रसायण-वित्थरंत ।
गुज्जर-देसह उम्मत्त गामु, तहि छड्डा-सुउ हुउ दोग णाम् ।
सिद्धङ तहो गंदणु भब्ध-बंधु, जिण-धम्म-भारि दिण्णु खंघु ।
सह सुउ जिट्ठउ बहुदेव भन्बु, जे धम्मकज्जि विव कलिज दन्छु ।
तहु लहु जायउ सिरि कुमरसिंह, कलिकाल करिदहो हणण सीहु ।
तहो सुउ संजायउ सिपालु, जिण-पुज्ज-दाण-गुणगण-रमालु ।
तहो डवरेहि इह कियउ गंधु, हडं णमु णमि किपिवि सत्थु गंधु ।
ग्रंथ के रचनाकालका उल्लेख न होनेसे महाकवि यशःकोत्तिके समयके सम्बन्ध १४८ : तीकर महापार और सी बाबा परम्परामें निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता है | आमेर-शास्त्रभण्डारमें इनके द्वारा रचित अन्धकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हैं। एक वि०सं० १५८३ की और दूसरी १६०३की लिखी हुई है। श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने अपने प्रशस्ति संग्रह प्रथमें वि० सं० १५३० में लिखित प्रतिका उपयोग किया है । अतः इतना सुनिश्चित है कि वि० सं० १५३० के पूर्व महाकवि यशःकीर्ति हुए हैं। पूर्ववर्ती कदियोंमें महाकवि यशःकीत्तिने जिन कवियोंका निर्देश किया है उनमें जिनसेन ही विक्रमकी नवम शताब्दीके कवि हैं। अत: नवम शताब्दीके पश्चात् और १५ वीं शताब्दीके पूर्व महाकवि यश:कीत्ति हुए हैं। पर यह ६०० वर्षोंका अन्तराल खटकता है। कविकी रचनाका प्रेरक गुजरातका सिद्धपाल है। विक्रमको ११ वीं शताब्दीसे गुजरातको समद्धि विशेषरूपसे बढ़ी है । सिद्धराज, जयसिंह और कुमारपालने गुजरातके यशकी विशेषरूपसं वृद्धि की है। अतएव कविकी रचनाका प्रेरक सिद्धपाल विक्रमसंवत् ११०० के उपरान्त होना चाहिए। अतएव कविने इस ग्रंथकी रचना ११ वीं शतोके अन्त में या १२ वीं शतीके प्रारंभमें की होगी।
चन्द्रप्रभचरित ११ सन्धियोंमें लिखा गया है। इसमें कविने आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभकी कथा गुम्फित की है। प्रथका आरंभ मंगलाचरण, सज्जन दुर्जन स्मरणसे होता है। अनन्तर कवि मंगलवती पुरीके राजा कनकप्रभका चित्रण करता है। संसारको असार और अनित्य जान राजा अपने पुत्र पद्मनाभको राज्य देकर विरक्त हो जाता है। दूसरीसे पांचवीं सन्धि तक पद्मनाभका चरित आया है और श्रीधर मुनिसे राजाका अपने पूर्व जन्मके वृत्तान्त सुननेका उल्लेख है। छठी सन्धिमें राजा पद्मनाभ और राजा पृथ्वीपालके बीच युद्ध होने की घटना वर्णित है। राजा विजित होता है किन्तु पपनाम युद्धसे विरक्त हो जाता है और राज्यभार अपने पुत्रको देकर वह श्रीधर मुनिसे दीक्षा ग्रहण कर लेता है। आगेवाली सन्धियों में पानाभके चन्द्रपुरीके राजा महासेनके यहाँ चन्द्रप्रभ रूपमें जन्म लेने, संसारसे विरक्त हो केवलज्ञान प्राप्तकर अन्तमें निर्वाण प्राप्त करनेका वर्णन आया है।
इस पंथकी थैली सरल और इतिवृत्तात्मक है। शैलीको आडम्बरहीनता भी इस गंथकी प्राचीनताका प्रमाण है। राजा, नगर, देश आदिका वर्णन सामान्यरूपमें ही आया है । कवि कहता है--
तहि कणयप्पड नामेण राउ जेपिछिवि सुखद हुउ विराउ ।
जसु भमई कित्ति भवणंतम्मि, येखि अइसडि निय धम्मि ।
जसु तेय बलणि नक्षीवियंगु, जलनिहि सलिलठ्ठिउ सिरिच बंगु ।
आइच्च वि दिणि दिणि देइ झंप, तत्तेज तत्तु जय वणिय कंप।।
सपकुवि निप्पाइस पदमु तासु, अब्भास करणि पडिमहं पयास ।
रूवाहकारिउ काम वीरू, किउ तासु अंगु मलिना सरोरु ।
धत्ता–तिहयणि बहु-गुणणि तसु पडिछंदु न दोसइ :
होसइ गुण लेसइ जसु वाई सरिसी सइ ।। १।९।।
नारी-चित्रणमें भी कविने अलंकारोंका प्रयोग नहीं किया है। कथाके प्रवाहमें वस्तुरूपात्मक ही चित्रण किया गया है । यद्यपि अंग-प्रत्यंगका चित्रण कविने किया है; पर भुक्त उपमानोंसे आगे नहीं बढ़ सका है
सिरिकताणामें तास कता, बहुरूव लाग्छ सोहगा वंता ।
जीयें मुह इंदहलंण बाणलं, जे पुण्णिमचंदहु उवमाण ।
तास तरलु णिम्मिल जुल णित्तह, णं अलि उरि ठिउ केइय पत्तह ।
जइ सवणू जुवलु सोहाविलासु, णं मयण विहंगम धरण पासु ।
बच्छच्छलु में पौऊस कुंभ, अह मयण-गंध-गय-पीण-चुभ !
अइ क्लीणु मज्झु णं पिसुणजण, यण रमण गुरुत्तणि कुवियमणू ।
जह पिहुल णियंवज अप्पमाणु, ठिक मयणराय पीढह समाणु ।
घत्ता हा इय मयणहु, जयजय जयणहु, उरु जुअल घर तोरण ।
अइ कोमलु स्तुप्पल जिय पय कतिहि चोरणु ॥ २१ ॥
इस ग्रंथमें छन्दोंका वैविध्य भी नहीं है और अलंकारोंका प्रयोग भी सामान्य रूपमें हुआ है । यह सत्य है कि रसमय स्थलोंकी कमी नहीं है।
Acharyatulya Yasha Kirti 1st (Prachin)
Sanjul Jain Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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