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#VijayshriMataji1949PadmanandijiMaharaj1955
Aryika Shri 105 Vijayshri Mataji was born on 22 september 1949. She received the initation from Acharya Shri 108 Padmanandiji Maharaj 1955
पूज्य 105 आर्यिका विजयश्री माताजी का दीक्षा पूर्व नाम सुवर्णाभून था। धार्मिक भावना से प्रसिद्ध इस नातेपुते के निवासी धर्मात्मा श्री. रतनचंद एवं श्रीमती सुशीलाबाई उनके माता पिता थे।
सुवर्णभून का जन्म 22 सितंबर 1949 को हुआ था। उनको चार भाई सुभाष, सुरेश, महावीर और णमोकार और श्रीमती संगीता एक बहन हैं।और सभी भाई-बहन अपने-अपने पेशे/नौकरी, धर्मकार्य में लगे हुए हैं। घर में धार्मिक माहौल होने के कारण बचपन से ही सभी में धार्मिक संस्कार थे।
उन्होंने बचपन से ही कंदमूल का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग, क्षुद्र जल का त्याग, हाथ से पानी देने का नियम आदि आठ मूलगुणों का व्रत ले लिया था।इसके साथ ही उन्होंने जैन बालबोध भा. १ ते ४, छहढाला, द्रव्यसंग्रह, रत्नकरंड श्रावकाचार ऐसी पुस्तकों का अध्ययन भी किया।
अपने मातोश्री की तरह वे भी व्रत रखते थे और विभिन्न व्रतों का सख्ती से पालन करते थे। उन्हें भक्तों को खाना खिलाने का बहुत शौक था। अपने निवास के दौरान उन्होंने उत्तर और दक्षिण भारत में कई तीर्थयात्राएँ कीं। दो बार दशलक्षण पर्व के उपवास किया। म्हसवडनिवासी श्री. सुरेशलाल फूलचंद दोशी (अब टेंबर्नी) उन्हसे शादी कर ली। उनके दो बच्चे हैं सचिन और स्वप्निल ,और श्रीमती स्मिता, श्रीमती लीना और बा. ब्र. प्रीति यह तीन बेटियां हैं। उन्होंने अपने बच्चों पर माहेर के सभी धार्मिक संस्कार भी किये। 1987 में अकलुज से जब पूज्य गंधाराचार्य कुन्थुसागर महाराज की चार सदस्यीय टीम शिखरजी की यात्रा के लिए रवाना हुई, तब सुवर्णभून ने अकलुज में हमारे मासी की चौकी में भाग लिया। 6-7 महीने तक अनेक तीर्थ स्थलों का भ्रमण किया। इसके बाद यात्रा में शामिल कई लोगों ने जिनदीक्षा ली।
सुवर्णा भूण को भी अब संसार में कोई रुचि नहीं रही। बाद में वह पद्मनंदी महाराज के संघ में रहीं। उस समय उन्होंने पद्मनंदी महाराज और कनकनंदी महाराज से व्याकरण और अन्य ग्रंथों का अध्ययन किया। अनेक पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं, तीर्थयात्राओं, प्रवचनों, अन्नदान, यज्ञसेवा तथा स्वाध्याय में उनका मन रमण करने लगा।
संसार से विरक्ति होकर सन १९९३ मध्ये श्रावण शु।। ७ (मुकुट सप्तमी) दिन भिलवाडा (राजस्थान) मैं आचार्यश्री पद्मनंदी महाराज जी से जैनेश्वरी आर्यिका दीक्षा ली और महाव्रती बन गईं। उनका दीक्षानाम आ. १०५ विजयश्री माताजी ऐसे रखा गया।
उसी समय उनकी बेटी कु.प्रीती और5वीं छवि मातोश्री द्वारा और दूसरी छवि रत्नप्रभा फाडे (अकलुज से मौसी) द्वारा ली गई । बहुतों ने मन्नतें,नियम- व्रते ले ली। संघ में नियमित कार्यक्रमों के अतिरिक्त धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा, संघ के साधु-आर्यों से दार्शनिक चर्चा, शंका-समाधान, सम्मेद शिखरजी, गिरनार, उदयगिरि, खंडगिरि, बुन्देलखण्ड के साथ-साथ श्रवण बेलगोल, तमिलनाडु आदि कई उत्तर-दक्षिण यात्राएँ भी की गईं।
श्रवणबेलागोल, बावनगजाजी महामस्तकाभिषेक, कुंथुगिरी का सम्मान किया गया। अष्टानी, मिलियनाना, षोडशकरण आदि। व्रत और 16-32 उपवास भी किये। वह सभी व्रतों का बहुत सख्ती से पालन करता है।गुरु आज्ञा एवं आगम के अनुसार व्रत-उपवास में उन्होंने कभी शिथिलता नहीं आने दी।
मातोश्री सप्तम प्रतिमाधारी सुशीलाबाई के वजेसघर में धार्मिक माहौल था और सुवर्णाभून की दीक्षा के बाद तपस्वी जीवन को करीब से देखने के कारण मातोश्री की दीक्षा की भावनाएँ तीव्र हो गईं और उन्होंने ऐसी भावनाएँ व्यक्त कीं लेकिन पैर की समस्या के कारण वह चल नहीं पाते थे, इसलिए दीक्षा नहीं ली जा सकी।हालाँकि, सातवीं प्रतिमाधारी मातोश्री ने यह जानकर कि उनका अंतिम समय निकट है, सब कुछ त्यागना शुरू कर दिया। पंचपरमेष्ठी की साक्षी से गुरुवर्य आचार्यश्री पद्मनंदीजी महाराज, आर्यिका करुणाश्री माताजी, आर्यिका विजयश्री माताजी को स्मरन कर के वालचंदनगर में नियम सल्लेखना ली।और पुण्य तिथि मनाई गई। 19 जनवरी, 2003 को उनका निधन हो गया।
दरअसल, जैसा कि नाम से पता चलता है, सुवर्णभू ने अपनी जिंदगी को सुनहरा बना लिया है। परम पूज्य आर्यिका श्री 105 विजयमती माताजी हमारी त्रिवर वंदामि वंदामि। साथ ही मातोश्री सुशीलाबाई ने भी समाधिमरण प्राप्त कर कल्याण प्राप्त किया। उनको भी हमारी वंदामि.
का दीक्षा पूर्व नाम सुवर्णाभून था। धार्मिक भावना से प्रसिद्ध इस नातेपुते के निवासी धर्मात्मा श्री. रतनचंद एवं श्रीमती सुशीलाबाई उनके माता पिता थे।
सुवर्णभून का जन्म 22 सितंबर 1949 को हुआ था। उनको चार भाई सुभाष, सुरेश, महावीर और णमोकार और श्रीमती संगीता एक बहन हैं।और सभी भाई-बहन अपने-अपने पेशे/नौकरी, धर्मकार्य में लगे हुए हैं। घर में धार्मिक माहौल होने के कारण बचपन से ही सभी में धार्मिक संस्कार थे।
उन्होंने बचपन से ही कंदमूल का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग, क्षुद्र जल का त्याग, हाथ से पानी देने का नियम आदि आठ मूलगुणों का व्रत ले लिया था।इसके साथ ही उन्होंने जैन बालबोध भा. १ ते ४, छहढाला, द्रव्यसंग्रह, रत्नकरंड श्रावकाचार ऐसी पुस्तकों का अध्ययन भी किया।
अपने मातोश्री की तरह वे भी व्रत रखते थे और विभिन्न व्रतों का सख्ती से पालन करते थे। उन्हें भक्तों को खाना खिलाने का बहुत शौक था। अपने निवास के दौरान उन्होंने उत्तर और दक्षिण भारत में कई तीर्थयात्राएँ कीं। दो बार दशलक्षण पर्व के उपवास किया। म्हसवडनिवासी श्री. सुरेशलाल फूलचंद दोशी (अब टेंबर्नी) उन्हसे शादी कर ली। उनके दो बच्चे हैं सचिन और स्वप्निल ,और श्रीमती स्मिता, श्रीमती लीना और बा. ब्र. प्रीति यह तीन बेटियां हैं। उन्होंने अपने बच्चों पर माहेर के सभी धार्मिक संस्कार भी किये। 1987 में अकलुज से जब पूज्य गंधाराचार्य कुन्थुसागर महाराज की चार सदस्यीय टीम शिखरजी की यात्रा के लिए रवाना हुई, तब सुवर्णभून ने अकलुज में हमारे मासी की चौकी में भाग लिया। 6-7 महीने तक अनेक तीर्थ स्थलों का भ्रमण किया। इसके बाद यात्रा में शामिल कई लोगों ने जिनदीक्षा ली।
सुवर्णा भूण को भी अब संसार में कोई रुचि नहीं रही। बाद में वह पद्मनंदी महाराज के संघ में रहीं। उस समय उन्होंने पद्मनंदी महाराज और कनकनंदी महाराज से व्याकरण और अन्य ग्रंथों का अध्ययन किया। अनेक पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं, तीर्थयात्राओं, प्रवचनों, अन्नदान, यज्ञसेवा तथा स्वाध्याय में उनका मन रमण करने लगा।
संसार से विरक्ति होकर सन १९९३ मध्ये श्रावण शु।। ७ (मुकुट सप्तमी) दिन भिलवाडा (राजस्थान) मैं आचार्यश्री पद्मनंदी महाराज जी से जैनेश्वरी आर्यिका दीक्षा ली और महाव्रती बन गईं। उनका दीक्षानाम आ. १०५ विजयश्री माताजी ऐसे रखा गया।
उसी समय उनकी बेटी कु.प्रीती और5वीं छवि मातोश्री द्वारा और दूसरी छवि रत्नप्रभा फाडे (अकलुज से मौसी) द्वारा ली गई । बहुतों ने मन्नतें,नियम- व्रते ले ली। संघ में नियमित कार्यक्रमों के अतिरिक्त धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा, संघ के साधु-आर्यों से दार्शनिक चर्चा, शंका-समाधान, सम्मेद शिखरजी, गिरनार, उदयगिरि, खंडगिरि, बुन्देलखण्ड के साथ-साथ श्रवण बेलगोल, तमिलनाडु आदि कई उत्तर-दक्षिण यात्राएँ भी की गईं।
श्रवणबेलागोल, बावनगजाजी महामस्तकाभिषेक, कुंथुगिरी का सम्मान किया गया। अष्टानी, मिलियनाना, षोडशकरण आदि। व्रत और 16-32 उपवास भी किये। वह सभी व्रतों का बहुत सख्ती से पालन करता है।गुरु आज्ञा एवं आगम के अनुसार व्रत-उपवास में उन्होंने कभी शिथिलता नहीं आने दी।
मातोश्री सप्तम प्रतिमाधारी सुशीलाबाई के वजेसघर में धार्मिक माहौल था और सुवर्णाभून की दीक्षा के बाद तपस्वी जीवन को करीब से देखने के कारण मातोश्री की दीक्षा की भावनाएँ तीव्र हो गईं और उन्होंने ऐसी भावनाएँ व्यक्त कीं लेकिन पैर की समस्या के कारण वह चल नहीं पाते थे, इसलिए दीक्षा नहीं ली जा सकी।हालाँकि, सातवीं प्रतिमाधारी मातोश्री ने यह जानकर कि उनका अंतिम समय निकट है, सब कुछ त्यागना शुरू कर दिया। पंचपरमेष्ठी की साक्षी से गुरुवर्य आचार्यश्री पद्मनंदीजी महाराज, आर्यिका करुणाश्री माताजी, आर्यिका विजयश्री माताजी को स्मरन कर के वालचंदनगर में नियम सल्लेखना ली।और पुण्य तिथि मनाई गई। 19 जनवरी, 2003 को उनका निधन हो गया।
दरअसल, जैसा कि नाम से पता चलता है, सुवर्णभू ने अपनी जिंदगी को सुनहरा बना लिया है। परम पूज्य आर्यिका श्री 105 विजयमती माताजी हमारी त्रिवर वंदामि वंदामि। साथ ही मातोश्री सुशीलाबाई ने भी समाधिमरण प्राप्त कर कल्याण प्राप्त किया। उनको भी हमारी वंदामि.
मातोश्री सप्तम प्रतिमाधारी सुशीलाबाई
मातोश्री सप्तम प्रतिमाधारी सुशीलाबाई के वजेसघर में धार्मिक माहौल था और सुवर्णाभून की दीक्षा के बाद तपस्वी जीवन को करीब से देखने के कारण मातोश्री की दीक्षा की भावनाएँ तीव्र हो गईं और
उन्होंने ऐसी भावनाएँ व्यक्त कीं लेकिन पैर की समस्या के कारण वह चल नहीं पाते थे, इसलिए दीक्षा नहीं ली जा सकी।हालाँकि, सातवीं प्रतिमाधारी मातोश्री ने यह जानकर कि उनका अंतिम समय निकट है,सब कुछ त्यागना शुरू कर दिया। पंचपरमेष्ठी की साक्षी से गुरुवर्य आचार्यश्री पद्मनंदीजी महाराज, आर्यिका करुणाश्री माताजी, आर्यिका विजयश्री माताजी को स्मरन कर के वालचंदनगर में नियम सल्लेखना ली।
और पुण्य तिथि मनाई गई। 19 जनवरी, 2003 को उनका निधन हो गया।
#VijayshriMataji1949PadmanandijiMaharaj1955
आर्यिका श्री १०५ विजयश्री माताजी
आचार्य श्री १०८ पद्मनंदीजी महाराज १९५५ Acharya Shri 108 Padmanandiji Maharaj 1955
PadmanandijiMaharaj1955GandharacharyaShreeKunthusagarJi
Aryika Shri 105 Vijayshri Mataji was born on 22 september 1949. She received the initation from Acharya Shri 108 Padmanandiji Maharaj 1955
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आचार्य श्री १०८ पद्मनंदीजी महाराज १९५५ Acharya Shri 108 Padmanandiji Maharaj 1955
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