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#GyanmatiMataji1934VeersagarJiMaharaj
Ganini Aryika Shri Gyanmati Mataji was born on 22 October 1934 in Tikait Nagar in Barabanki district, Uttar Pradesh, in a Jain family of Mohini Devi and Chotelal. She was named Maina. She was influenced by Padmanandi Panchvinshatika, an ancient Jain scripture gifted by her grandparents on the marriage of her mother. On 2 October 1952, on the day of Sharad Purnima, she was initiated as a Brahmacharini at Barabanki district by Acharya Shri Deshbhushan ji Maharaj.
गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी एवं त्रिलोक भास्कर
सन् १९३४ की शरदपूर्णिमा के उस शुभ दिन जब चन्द्रमा की शुभ्र छटा सम्पूर्ण धरा को अपने आवेश में समेटे थे, तब उ.प्र. के बाराबंकी जनपद के ग्राम टिकेतनगर में बाबू छोटेलाल जी जैन के घर एक कन्या का जन्म हुआ। कौन जानता था कि माँ मोहिनी की यह कन्या एक दिन जगत माता बनकर अपने ज्ञान के प्रकाश से सम्पूर्ण विश्व को आलोकित करेगी। वर्तमान में जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका, चारित्रचन्द्रिका, विधानवाचस्पति, तीर्थोद्धारिका, वात्सल्यमूर्ति, युगप्रवर्तिका आदि दर्जनों उपाधियों से विभूषित गणिनी आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी का जीवन अनवरत साधना एवं त्यागमय जीवन का एक अनूठा उदाहरण है।पद्मनंदिपंचविंशतिका के स्वाध्याय के कारण बचपन से ही विकसित वैराग्य के बीज १९५२ में शरदपूर्णिमा के दिन ही प्रस्फुटित हुए जब बाराबंकी में आपने आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से सप्तम प्रतिमा (ब्रह्मचर्य) के व्रत अंगीकार किये। १९५३ में चैत्र कृष्णा एकम् को श्री महावीर जी में आपने आचार्य श्री देशभूषण जी से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर ‘वीरमती’ नाम प्राप्त किया। व्रत एवं नियमों का कठोरता से पालन करते हुए आप अपनी संज्ञा ‘वीरमती’ को तो सार्थक कर ही रही थीं, किन्तु आपको मात्र क्षुल्लिका के व्रतों से संतोष कहाँ। १९ वर्ष की यौवनावस्था में क्षुल्लिका के व्रतों का कठोरता से पालन करने के साथ ही आप निरन्तर वैराग्य के भावों को विकसित करती रहीं एवं अनन्तर इस युग के महान आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज की आज्ञा से उनके ही पट्टशिष्य आचार्यश्री वीरसागर जी से वैशाख कृष्णा द्वितीया को (१९५६ ईसवी) माधोराजपुरा की पवित्र भूमि में र्आियका के व्रतों को अंगीकार कर ‘ज्ञानमती’ की सार्थक संज्ञा प्राप्त की। धन्य हैं वे भविष्य दृष्टा आचार्य श्री वीरसागर जी जिन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से इनकी प्रतिभा का आकलन कर इन्हें ‘‘ज्ञानमती’’ नाम दिया। आपकी उत्कृष्ट साधना एवं कठोर तपस्या का ही यह प्रभाव है कि आपके संपर्व में आने वाला प्रत्येक श्रावक/श्राविका आपके सम्मुख स्वयमेव नतमस्तक हो जाता है। आपकी माँ मोहिनी ने भी आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के रूप में आपके पास अनवरत साधनारत रहकर मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य ‘समाधि’ (१९८५ में) प्राप्त की। आपकी दो बहनें आर्यिका श्री अभयमती माताजी एवं प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी (संघस्थ) आपके ही पथ का अनुगमन कर रही हैं। आपके भाई कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जी (संघस्थ) भी आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत एवं सात प्रतिमा के व्रतों के पश्चात् १० प्रतिमा धारण करके वर्तमान में जम्बूद्वीप के पीठाधीश पद को स्वीकार कर अनवरत रूप से धर्म एवं समाज की सेवा में संलग्न हैं। वे सम्प्रति दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान-हस्तिनापुर, अयोध्या दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, भगवान ऋषभदेव तपस्थली प्रयाग, अखिल भारतवर्षीय दि. जैन तीर्थंकर जन्मभूमि विकास समिति-हस्तिनापुर, भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर दि. जैन समिति कुण्डलपुर, भगवान ऋषभदेव १०८ फुट उत्तुंग मूर्ति निर्माण कमेटी-मांगीतुगी आदि अनेक संस्थाओं के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। शेष ९ भाई-बहन श्रावक धर्मों का पालन करते हुए गृहस्थ जीवन में रत हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-
१. श्री कैलाशचंद जैन
२. श्री प्रकाशचंद जैन
३. श्री सुभाषचंद जैन
४. श्रीमती शान्ति देवी
५. श्रीमती श्रीमती देवी
६.श्रीमती कुमुदनी देवी
७. श्रीमती मालती जैन
८. श्रीमती कामिनी जैन एवं
९. श्रीमती त्रिशला जैन ।
तथा २१ मार्च २००५ को एक भाई श्री प्रकाशचंद जैन का निधन हो चुका है।
पूज्य माताजी का व्यक्तित्वपूज्य माताजी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। जहाँ उन्होंने सम्पूर्ण भारत की पदयात्रा कर शताधिक आत्माओं में वैराग्य की ज्योति जगाई है, वहीं हस्तिनापुर में दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान के प्रबंधकों को प्रेरणा देकर जम्बूद्वीप की प्रतिकृति के रूप में न केवल जैन समाज अपितु सम्पूर्ण विश्व को एक अद्वितीय उपहार दिया है। खुले आकाश के नीचे वलयाकार लवण समुद्र से वेष्ठित १०१ फीट उत्तुंग सुमेरु के चारों ओर बनी जम्बूद्वीप की भव्य रचना को देखकर तिलोयपण्णत्ति, जम्बूद्वीवपण्णत्तिसंगहो में निहित भूगोल विषयक सामग्री को सहज ही हृदयंगम किया जा सकता है। वर्तमान में ‘जम्बूद्वीप’ के नाम से विख्यात इस परिसर में स्थित कमलमंदिर, ध्यान मंदिर, त्रिमूर्ति मंदिर, सहस्रकूट जिनालय, ॐ मंदिर, भगवान वासुपूज्य मंदिर, तेरहद्वीप जिनालय , जम्बूद्वीप पुस्तकालय, विस्तृत उद्यान समग्र रूप से इसकी शोभा में अभिवृद्धि करते हैं। आपकी प्रेरणा से त्याग मार्ग पर प्रवृत्त अनेक आत्माएँ आज मुनि व आर्यिका पद को सुशोभित कर रही हैं। आपकी शिष्या कु. माधुरी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी के रूप में एवं आपके शिष्य श्री मोतीचंद जी क्षुल्लक मोतीसागर जी के रूप में संघ में ही अध्ययन एवं साधनापथ थे । इसके अतिरिक्त वर्तमान में भी अनेक ब्रम्हचारिणी बहनें व्रत नियमों को अंगीकार कर संघ में साधनारत हैं। पूज्य माताजी को १ मई १९८५ को चतुर्विध संघ के द्वारा गणिनी पद से विभूषित किया गया। १९८२ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी के करकमलों से उद्घाटित जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति ने ४ जून १९८२ से २८ अप्रैल १९८५ के मध्य देश में अहिंसा, शाकाहार एवं नैतिक मूल्यों के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। १९८१, १९८२, १९८५ एवं १९९२ में मेरठ विश्वविद्यालय एवं १९९३ में अवध विश्वविद्यालय के सहयोग से पूज्य माताजी के सानिध्य में राष्ट्रीय एवं अंंतर्राष्ट्रीय सेमिनारों एवं १९९८ में भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन का आयोजन किया जा चुका है।
हस्तिनापुर के बाद आपकी दृष्टि अयोध्या पर गईहस्तिनापुर के बाद आपकी दृष्टि भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि अयोध्या पर पड़ी। आपके मंगल पदार्पण से अयोध्या का कायाकल्प होने के साथ वहाँ भगवान ऋषभदेव की विशाल मूर्ति का महामस्तकाभिषेक राष्ट्रीय स्तर पर सम्पन्न हुआ। भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव का आयोजन, मांगीतुंगी, महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा) तथा ऋषभदेव तपस्थली-प्रयाग का विकास आपकी ही प्रेरणा से सम्पन्न हुआ है। साहित्य के क्षेत्र में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री माताजी की प्रतिभा विलक्षण है। आपके द्वारा प्रणीत २५० से भी अधिक ग्रंथों का आज तक प्रकाशन हो चुका है। महिला के माध्यम से भारतीय संस्कृति की अनुपम सेवा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के भाव से ही डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद ने आपको १९९५ में डी.लिट्. की मानद उपाधि से सम्मानित किया। जहाँ आपने अष्टसहस्री सदृश न्याय के क्लिष्ट ग्रंथ की टीका लिखी, वहीं नियमसार की स्याद्वाद चन्द्रिका टीका लिखकर एक इतिहास रचा है। मूलाचार की टीका, कातंत्ररूपमाला, त्रिलोक भास्कर, जैन ज्योतिर्लोक, न्यायसार, नियमसार प्राभृत आदि आपकी बहुर्चित प्रौढ़ कृतियाँ हैं। आपने जैन भारती, दिगम्बर मुनि, आर्यिका, प्रवचन निर्देशिका सदृश कृतियाँ स्वाध्याय में रत या उन्मुख पाठकों को दी। किसी भी आर्यिका द्वारा लिखी गई प्रथम आत्मकथा ‘मेरी स्मृतियाँ’ समकालीन घटनाओं का जीवन्त दस्तावेज है। पूज्य माताजी बच्चों को संस्कारित करने के प्रति सदैव जागरूक रही हैं आपने अनेक वर्ष पूर्व बाल विकास (भाग १-४), जैन बाल भारती (भाग १-३), धरती के देवता, जीवन दान सदृश लोकप्रिय कृतियाँ दी हैं। समाज की नारी शक्ति को संस्कारित कर उसकी शक्ति को संस्कार निर्माण में लगाने के भाव से आपने नारी आलोक (भाग १-३), पतिव्रता, परीक्षा, सती अंजना जैसी सरल एवं सुरुचिपूर्ण कृतियाँ दी हैं। यह विवरण कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता यदि मैं विधानों की चर्चा न करूँ। २० वर्ष पूर्व तक मात्र अष्टान्हिका में ही सिद्धचक्र विधान तथा पर्यूषण पर्व के दिनों में चौबीसी या पंच परमेष्ठी विधानों की चर्चा होती थी किन्तु आज साल के ३६५ दिन देश के अनेकों भागों में पूज्य माताजी द्वारा रचित सर्वतोभद्र, कल्पद्रुम, इन्द्रध्वज, तीन लोक, त्रैलोक्य मण्डल, जम्बूद्वीप मण्डल, जिन सहस्रनाम आदि विधानों की पंक्तियाँ गुंजायमान होती रहती हैं एवं भक्तगण इस विलक्षण प्रतिभा की धनी माँ के चरणों में नतमस्तक हो भक्तिगंगा में डुबकियाँ लगाते रहते हैं। इस प्राथमिक चर्चा के उपरान्त हम पूज्य माताजी के करणानुयोग विषयक साहित्यिक कृतित्व की चर्चा करेंगे। वर्तमान में उपलब्ध प्राचीन धर्म ग्रंथों के उल्लेखों एवं सभ्यता के प्रारंभिक युग के अवशेषों से यह स्पष्टत: प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म विश्व का प्राचीनतम धर्म है। इस प्राचीन धर्म के विशाल वांग्मय, द्वादशांग वाणी के दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत परिकर्म एवं ‘पूर्व साहित्य’ में लोक के स्वरूप एवं विस्तार की व्यापक रूप से चर्चा है। ‘करणानुयोग’ संस्थान विचय नामक धर्मध्यान का प्रमुख अंग होने के कारण जैनाचार्यों ने इसे अपने अध्ययन में प्रमुख स्थान दिया। वस्तुत: कर्मों की क्रमिक निर्जरा के उपरान्त आत्मा की स्थिति, सिद्ध परमेष्ठियों के वर्तमान निवास स्थान, बीस तीर्थंकरों के समवसरणों की स्थिति एवं तीर्थंकरों की जन्मकालीन घटनाओं को समीचीन रूप से हृदयंगम करने हेतु लोक संरचना का ज्ञान अपरिहार्य रूप से आवश्यक है।
काल परिवर्तन के साथ ग्रन्थों की भाषा शैली बदली हैकाल परिवर्तन के साथ ही जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत एतद् विषयक ग्रंथों की भाषा एवं शैली में तो परिवर्तन हुआ है, तथापि ग्रंथों की विषयवस्तु एवं विचारों की एकरूपता इतर समाजों द्वारा अपने विचारों से अनेकश: परिवर्तनों के बावजूद अक्षुण्ण रही है। लोक के स्वरूप एवं विस्तार के अध्ययन की दृष्टि से तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी आचार्य पूज्यपाद, आचार्य अकलंकदेव एवं आचार्य विद्यानंद कृत टीकाएँ, लोक विभाग, तिलोयपण्णपत्ति, जम्बूद्वीवपण्णत्तिसंगहो, त्रिलोकसार आदि दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ पठनीय हैं किन्तु इन ग्रंथों की विशालता, विवेचनों की जटिलता, जैन पारिभाषिक शब्दावली के बाहुल्य के कारण यह ग्रंथ न केवल जनसामान्य बल्कि प्रबुद्ध श्रावकों की पहुँच से भी दूर रहे। लम्बे समय तक जैन समाज के पंडित वर्ग ने भी तत्त्वार्थसूत्र की चर्चाओं में तीसरे एवं चौथे अध्याय की एक या अधिक कारणों से निरन्तर उपेक्षा की। कुछ ने तो उसे क्षेपक मान लिया क्योंकि उनकी दृष्टि से यह सारे विवेचन कपोल कल्पित हैं। वर्तमान विज्ञान के बहुप्रचलित निष्कर्षों से इन विवेचनों का साम्य न होने से विद्वानों ने रक्षात्मक मुद्रा अपना ली है। किन्तु जैनाचार्यों के वचनों एवं आचार्य प्रणीत ग्रंथों पर पूर्ण विश्वास रखने वाली पूज्य माताजी ने करणानुयोग के ग्रंथों में उपलब्ध विवेचनों, तिलोयपण्णत्ती, जम्बूद्वीवपण्णत्तिसंगहो आदि में उपलब्ध विवेचनों के आधार पर त्रिलोक भास्कर, जैन ज्योतिर्लोक, जम्बूद्वीप एवं जैन भूगोल जैसी प्रौढ़, आगमनिष्ठ एवं प्रामाणिक कृतियाँ, सरल सुबोध भाषा में दी। हम यहाँ त्रिलोक भास्कर की विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे। समीक्ष्यकृति त्रिलोक भास्कर, वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला का तृतीय पुष्प है। इसके प्रथम संस्करण का प्रकाशन १९७५ में तथा द्वितीय संस्करण १९९९ में प्रकाशित हुआ है। डिमाई आकार की ३०० पृष्ठों की यह पुस्तक अनेक श्वेत/श्याम चित्रों, तालिकाओं, रेखाचित्रों से सुसज्जित है। जिसमें दिगम्बर मान्यतानुसार लोक के स्वरूप का प्रामाणिक विवेचन किया गया है।
कृति के प्रारंभ में पं. श्री सुमेरचंद्र जैन द्वारा ‘‘त्रिलोक भास्कर-एक अध्ययन’’ भूमिका रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें दृष्टिवाद के परिकर्मादि का वर्णन देते हुए लोक विषयक विभिन्न धर्मों में प्राचलित मान्यताएँ बतलाई गई हैं। उनके परिप्रेक्ष्य में जैन आगम की लोक विषयक मान्यताओं का विशद विवरण देते हुए समन्वय प्रस्तुत किया गया है। श्री सुमेरचंद ने अनेक विदेशी विद्वानों को उद्धृत करते हुए करणानुयोग के ग्रंथों की आवश्यकता, उपयोगिता एवं अपरिहार्यता को सक्षमता से प्रस्तुत करते हुए सही मायनों में ग्रंथ के अध्ययन की भूमिका बना दी। अगले पृष्ठ में ब्र मोतीचंद्र जैन (पूज्य क्षुल्लक मोतीसागर जी) द्वारा प्राक्कथन दिया गया है, जिसमें महायोजन, कोस, योजन, गज, मील आदि इकाइयों के बीच संबंध स्थापित करते हुए योजन का परिष्कृत बोध कराया गया है। योजन का मान अनेक विद्वानों ने अलग-अलग रूप में प्रस्तुत किया है और यह सुनिश्चित है कि तीन प्रकार के अंगुलों पर आधारित योजन के प्रमाण लोक, गणित, ज्योतिष के अनुसार अलग-अलग होते हैं। तदुपरांत पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का जीवन परिचय एवं कृतित्व दिया गया है। तत्पश्चात् उन्हीं के द्वारा रचित त्रैलोक्य चैत्य वंदना पद्य में दी गई है, जिसमें तीनों भुवन के जिनभवनों आदि की समस्त विराजित प्रतिमाओं की वंदना दी गई है।
प्रारंभ में सामान्य लोक का वर्णन हैप्रारंभ में सामान्य लोक का वर्णन है, जिसमें लोक के तीन विभाग, त्रसनाली, अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊध्र्वलोक संबंधी रचनाएँ वातवलय आदि के माप, लंबाई, चौड़ाई, क्षेत्रफल और मान फल रूप में दिये गये हैं। कोस, योजन, अंगुल, पल्य, सागर आदि के प्रमाणों को निकालने की विधियाँ दी गई हैं। तत्पश्चात् अधोलोक का वर्णन प्रारंभ होता है, जिसमें पृथिवयों के नाम, मोटाई, नरक बिल, बिलों के प्रकार, संख्या, विस्तार, प्रमाण अन्तराल पटलान्तर आदि का विशद वर्णन है। नरक में उत्पत्ति दु:ख सम्यक्त्व के कारण, शरीर अवगाहना, लेश्या, आयु आदि का वर्णन है। इसके बाद अगले परिच्छेद में भवनवासी देवों का विवरण है। जिसमें उनके स्थान, भेद, चिन्ह, भवन संख्या, इन्द्र भवन, जिनमंदिर, परिवार देव, आहार, उच्छ्वास, इन्द्र वैभव, आयु, अवगाहना, ज्ञान, विक्रिया आदि का चार्ट सहित वर्णन है। इसी प्रकार का विवरण व्यन्तरवासी देव संबंधी है। मध्यलोक के विवरण में जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, हिमवन पर्वत, गंगादि नदी, सरोवर, कूट, सुमेरु पर्वत, पांडुक शिला, वन, चैत्यवृक्ष, मानस्तंभ, सौमनस भवन, नंदनवन, हरित एवं सीतादो नदियों का वर्णन है। कुरु, वृक्ष, विदेह, पर्वत, नदी, द्वीप, आर्यखण्ड आदि का संख्यामानादि सहित एवं चित्रों सहित वर्णन है। पुन: विभिन्न षट्कालों में होने वाले परिवर्तनों का भी विवरण दिया गया है।
तत्पश्चात् जम्बूद्वीप के सात क्षेत्र, बत्तीस विदेह, चौंतीस कर्मभूमि आदि का विवरण है। लवणसमुद्र, पाताल, धातकीखण्ड द्वीप एवं पुष्कर द्वीप, उनके विभिन्न क्षेत्र, पर्वतविस्तार आदि का विवरण दिया गया है। मानुषोत्तर पर्वत, मनुष्यों का अस्तित्व, सम्यक्त्व के कारण आदि दिये गये हैं। पुन: नन्दीश्वर द्वीप का सुचारू वर्णन देते हुए अंजनगिरि, बावड़ी आदि की सुन्दर रचनाओं का विवरण है। यहाँ तक कि ज्योतिषी देव, सूर्य, चन्द्र संख्या, परिवार, गलियाँ, तारा आदि का संख्या सहित पूर्ण विवरण दिया गया है। इसके बाद ऊध्र्वलोक परिच्छेद में वैमानिक शीर्षक से कल्प के १२ भेद, कल्पातीत देवों के भेद, नव अनुदिश, पाँच अनुत्तर, विमान संख्या, इन्द्रक प्रस्तार, विमानों के नाम, संख्या, इंद्रों के चिन्ह, उनके नगरों आदि का विवरण है। देवों के विशद विवरण में उनकी आयु, जन्म, सुख, आहार, उच्छ्वास, लेश्या, अवधिज्ञान, विक्रियाशक्ति, परिवार, इन्द्र की महादेवियाँ, वल्लभिका, सम्यक्त्व के कारण, गमन, शक्ति आदि का वर्णन दिया गया है। तत्पश्चात् ऊध्र्वलोक के चैत्यालय, सिद्ध शिला, सिद्धलोकादि के विवरण से ग्रंथ समाप्त होता है। अंत में अनेक सारणियों एवं चार्टों द्वारा संक्षेप में विविध वर्णन दिए गए है।
इस प्रकार जिनागम प्रणीत तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, लोकविभाग, जम्बूद्वीपपण्णत्तिसंगहो आदि करणानुयोग विषयक ग्रंथ एवं सामग्री को सुचारू रूप एवं अत्यन्त सुस्पष्टरूप से रचित कर यह सर्व गुण सम्पन्न कृति बनाई गई है। इसमें सभी वर्णन प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हैं। सामान्य गृहस्थों के अध्ययन के लिए यह नितान्त आवश्यक तो है ही, साथ ही विद्वत्वर्ग द्वारा भी इससे लाभ लिया जा सकता है। विधानादि के लिए नक्शे सर्वांगपूर्ण, सुन्दर एवं स्पष्ट बनाये गये हैं। चार्ट, चित्र, सारणी, भौगोलिक, ज्योतिष एवं लोक संबंधी विभिन्न नक्शों तथा संख्याओं के कारण इस ग्रंथ की उपयोगिता अतुलनीय हो गई है। पूज्य माताजी ने सभी विषय को सुबोध बनाने की दृष्टि से जितनी तालिकाओं और रेखाचित्रों का प्रयोग किया है, उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इस कृति का सृजन वैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण की प्रक्रियाओं से भिन्न सुदीर्घ अनुभवी शिक्षक ने किया है, जबकि पूज्य माताजी की लौकिक शिक्षा लगभग शून्य है। इसे देखकर यह मानना पड़ता है कि माताजी अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी और दिव्य अलौकिक शक्तियों से परिपूर्ण सरस्वती की प्रतिमूर्ति हैं। पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने इस गं्रथ की रचनाकर करणानुयोग के सागर को गागर में भर दिया है। गणित की रुक्षता में जो स्निग्धता आज दिखाई दे रही है और दूसरों के द्वारा अनुकरणीय बनती जा रही है, वह पूज्य माताजी का ही अगम्य भूमि पर किया गया अद्वितीय प्रयास है। गणित की निष्पक्षता, दुरुहता, सर्वतोभद्रमयी उपयोगिता को उनकी अभिरुचि ने कृतकृत्य कर दिया है। उनका यह प्रयास सर्वोत्तम, सर्वग्राह्य एवं सर्वप्रिय है, साथ ही वह अभूतपूर्व अमर एवं आधारभूत है।
हम उनकी इस कृति की प्रशंसा को शब्दातीत पा रहे हैं !हम उनकी इस कृति की प्रशंसा को शब्दातीत पा रहे हैं। उन्होंने ऐसी ही अन्य विलक्षण कृतियों की भी रचनाकर समाज एवं विद्वत्वर्ग के चिर कृतज्ञ बना दिया है।
हमारा वर्तमान विश्व मध्यलोक के प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ही स्थित है। इस प्रकार भरतक्षेत्र का आर्यखण्ड ही हमें दृष्टिगोचर होता है किन्तु ५ म्लेच्छ खण्डों के बारे में हमारी जानकारी कुछ भी नहीं है। उसी प्रकार जम्बूद्वीप के अन्य क्षेत्र भी हमें इस विश्व में नहीं दिखते हैं। अतएव अधिकांश व्यक्ति इस जानकारी पर संदेह करने लगते हैं। कृति की प्रस्तावना में श्री सुमेरचंद जैन ने आदि विद्वानों को तो उद्धृत किया ही है, विगत दिनों मेरी चर्चा देश के वरिष्ठ अंतरिक्ष वैज्ञानिक तथा राष्ट्रीय भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद के डॉ. राजमल जी से हुई। वे नासा (अमेरिका) तथा विश्व की अनेक अंतरिक्ष प्रयोगशालाओं से नजदीकी से जुड़े हैं। आपने बताया कि जैन परम्परा में विवेचित ब्रह्माण्ड विषयक विवेचनों, जिसमें मध्यलोक और जम्बूद्वीप समाहित है, के बारे में तथ्यात्मक, प्रामाणिक जानकारी देने वाली अलभ्य कृति त्रिलोक भास्कर है। आज नवीनतम अनुसंधानों के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह स्पष्टत: स्वीकार किया है कि उनका ब्रह्माण्ड के बारे में उपलब्ध ज्ञान ५ प्रतिशत से भी कम है। जिस विषय में वैज्ञानिक ९५ प्रतिशत अज्ञान के अंधकार में डूबे हैं, उनके प्राथमिक अनुमानों के आधार पर हम दिव्य दृष्टि सम्पन्न जैनाचार्यों के कृतित्व, संस्थापनाओं और निष्पत्तियों को नकार दें, यह कहाँ तक उचित है? यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा कि वैज्ञानिक शताब्दियों तक गलत प्रस्तुतीकरण करने के बाद आज जो नवीन प्रतिस्थापनाएं कर रहे हैं उनमें से अनेक का प्रतिपादन जैनाचार्यों ने सहस्रों वर्ष पूर्व कर दिया था। आज जरूरत इस बात की है कि पूज्य माताजी द्वारा रचित ‘‘त्रिलोक भास्कर’’ पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद कराकर ब्रह्माण्ड के विषय में शोध और अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिकों के सम्मुख ब्रह्माण्ड का एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करें। निश्चय ही इससे वैज्ञानिकों को शोध के बारे में नई दिशा मिल सकती है। हेयदृष्टि को तिलांजलि देकर हम पूर्ण विश्वास के साथ अपने विषय का प्रस्तुतीकरण करें और इस प्रस्तुतीकरण में मार्गदर्शक होगी ‘त्रिलोक भास्कर’। समाज के विद्वत्जनों से अपेक्षा है कि इस विषय पर शोध करें और जैन भूगोल को एक सुदृढ़ आधार प्रदान करें। कृति की लेखिका पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के चरणों में नमन करते हुए मैं अपनी बात को विराम देता हूँ।
सन् १९३४ वि० सं० 1991 आसौज की पूणिमा जिस दिन चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं को पूर्ण कर असली रूप में दृष्टिगत हो रहा था इस दिन को लोग 'शरद पूर्णिमा' के नाम से जानते हैं और ऐसी किंवदन्ति भी चली आ रही है कि उस दिन आकाश से अमृत झरता है । कई स्थानों पर लोग शरद पूर्णिमा की रात्रि में खुले आकाश में खाने की वस्तुएं रखते हैं और प्रात: इस कल्पना से सबको बांट कर उसे खाते हैं कि उसमें अमृत के कण मिश्रित हो गए हैं। इसी चांदनी रात्रि में माँ मोहिनी की गोद में एक दूसरा चाँद आया जिसका नाम रखा गया 'मैना'।
मैना ने जो विशेषतापूर्ण कार्य अपने बचपन में ही कर डाले जो कि हर संतान के लिए तो सोचने के विषय भी नहीं हो सकते ।
सन् 1952 का पुन: वही शरद पूर्णिमा का पवित्र दिवस जब मैना अपने १८ वर्ष को पूर्ण कर १६ वें में प्रवेश करने जा रही थीं, बाराबंकी उ० प्र० में आ० श्री देशभूषण महाराज के चरण सान्निध्य में सप्तम प्रतिमा रूप आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। अतः शरद पूर्णिमा विशेष रूप से उनके वास्तविक जन्मदिन को सूचित करता है । यहीं से आपका नवजीवन प्रारम्भ हुआ। सन् १९५३ चैत्र बदो एकम श्री महावीर जी में आ० देशभूषण महाराज के कर-कमलों से ही आपने क्षल्लिका दीक्षा ग्रहण की और वीरमती नाम को प्राप्त किया । सन् १९५६ में आ० श्रीवीरसागरजी के कर-कमलोंसे माधोराजपुरा (राज.) में आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर आर्यिका ज्ञानमती बन गईं।
आ० ज्ञानमती माताजी भारत देश में जैन समाज की प्रथम हस्तियों में से हैं जिन्होंने विश्व करी और चन्दना के आदर्श को उपस्थित किया है । कुमारी कन्या का इस ओर कदम बढ़ाना उस समय के लिए एक आश्चर्य और संघर्ष का विषय था किन्त भगवान महावीर की परम्परा सदैव जयशील रही है उसीके अनुरूप पू० ज्ञानमती माताजी अपनी प्रतिभाओं के द्वारा जैन शासन की बजा उन्नत रूप से लहरा रही हैं। इन्होंने पाज से १४ वर्ष पूर्व विद्वानों की बढ़ती हुई माग । देखकर अष्ट सहस्री जैसे क्लिष्ट ग्रन्थ का हिन्दी में अनुवाद किया जो विश्व विद्यालयों के अध्ययन में संगम और सुबोध रूप से अपना स्थान रखती है। उसके अनन्तर समाज की चहमुखी रुचियों का हाष्ट में रखकर इन्द्रध्वज विधान महाकाव्य, मूलाचार, नियमसार, बालविकास आदि शताधिक ग्रन्था का रचना की है जिनके द्वारा जनसामान्य लाभान्वित हो रहा है। इनमें से लगभग ६०-७० ग्रन्थ त्रिलोक शोध संस्थान के माध्यम से प्रकाशित हो चुके हैं। नारी जाति के लिए यह प्रथम रिकार्ड है कि इतनी बहुमात्रा में किसी आर्यिका द्वारा इतना महान् साहित्य सृजन हुआ हो । “सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका" जो कि आपके द्वारा ही चतुरानुयोगों में निबद्ध हैं घर बैठे ही लोगों को साक्षात् तीर्थंकर की वाणी सुना रही है यह अपने आप में एक अनूठी पत्रिका है।
हस्तिनापुर की पवित्र धरा पर जम्बूद्वीप स्थल पर आपकी गुरुभक्ति का प्रतीक आ० वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ भी सन् १९७६ में स्थापित हुआ। होनहार विद्यार्थी प्राचीन आचार्य परम्परा का ज्ञान प्राप्त कर समाज के समक्ष कुशल वक्ता और विधानाचार्य के रूप में आ रहे हैं यह प्रसन्नता का विषय है।
सन् १९८२ का ४ जून का दिवस इतिहास पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा जिस दिन पू० माताजी के शुभाशीर्वाद से भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कर कमलों से "जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति" रथ का राजधानी दिल्ली से प्रवर्तन प्रारम्भ हुआ । यह ज्ञानज्योति आज देश के विभिन्न प्रान्तों में भ्रमण करती हुई भगवान महावीर के अहिंसा अपरिग्रह सिद्धान्तों को जन-जन को सुना रही है और जन-जन में ज्ञान की ज्योति जला रही है ।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की धनी पू० आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी वास्तव में इस युग के लिए एक धरोहर के रूप में हैं जिनसे सर्वदा ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो रही है। हम सबका भी यह कर्तव्य है कि उस ज्ञान गंगा में स्नान कर अपने को पवित्र बनावें तथा शरदपरिणमा के पवित्र दिवस पर हम सभी जन्म जय ती उत्सव मनावें और अनंत ज्ञानामृत पान का संकल्प करें। माताजी आरोग्य लाभ करते हुए चिरकाल तक संसार के मिथ्यात्व अंधकार दर कर सम्यग्ज्ञान प्रकाश से जनमानस को आलोकित करते रहें. इन्हीं मंगल भावनाओं के साशा माताजी के चरणों में शत-शत वन्दन ।
राष्ट्रपति माननीय श्री रामनाथ जी कोविंद के व्यक्तिगत आमंत्रण पर जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी भरतगौरव गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का मंगल आगमन बड़े आत्मीय एवं विशिष्ट आदर सम्मान के साथ दिनांक 14 नवम्बर 2021 को प्रातः 9.30 बजे राष्ट्रपति भवन में हुआ।
#GyanmatiMataji1934VeersagarJiMaharaj
@Gyanmatimataji
गणिनी आर्यिका श्री १०५ ज्ञानमती माताजी
Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
Pujya Mataji took Kshullika Deeksha in 1953 and Aryika Deeksha in 1956. 3 Chaturmas of Kshullika Deeksha are as follows :
Sr. Place Year
1. Tikaitnagar (Barabanki-U.P.) 1953
2. Jaipur (Rajasthan) 1954
3. Mhasvad (Maharashtra) 1955
Chaturmas after Aryika Deeksha are as follow
Sr.No Place and Year
1. Jaipur (Khaniya)1956
2. Jaipur (Khaniya) 1957
3. Byavar (Raj.) 1958
4. Ajmer (Raj.) 1959
5. Sujangarh (Raj.) 1960
6. Seekar (Raj.) 1961
7. Ladnu (Raj.) 1962
8. Calcutta (W. Bengal) 1963
9. Hyderabad (A.P.) 1964
10. Shravanbelgola (Karnataka) 1965
11. Solapur (Maharashtra) 1966
12. Sanavad (M.P.) 1967
13. Pratapgarh (Raj.) 1968
14. Jaipur (Raj.) 1969
15. Tonk (Raj.) 1970
16. Ajmer (Raj.) 1971
17. Delhi (Pahari Dhiraj) 1972
18. Delhi (Najafgarh) 1973
19. Delhi (Lal Mandir) 1974
20. Hastinapur (Old Temple) 1975
21. Khatauli (Muzzafarnagar) 1976
22. Hastinapur (Old Temple) 1977
23. Hastinapur (Old Temple) 1978
24. Delhi (Mori Gate) 1979
25. Delhi (Kucha Seth) 1980
26. Hastinapur (Jambudweep) 1981
27. Delhi (Kammoji Dharmashala) 1982
28. Hastinapur (Jambudweep) 1983
29. Hastinapur (Jambudweep) 1984
30. Hastinapur (Jambudweep) 1985
31. Hastinapur (Jambudweep) 1986
32. Hastinapur (Jambudweep) 1987
33. Hastinapur (Jambudweep) 1988
34. Hastinapur (Jambudweep) 1989
35. Hastinapur (Jambudweep) 1990
36. Sardhana (Meerut-U.P.) 1991
37. Hastinapur (Jambudweep) 1992
38. Ayodhya 1993
39. Tikaitnagar 1994
40. Hastinapur (Jambudweep) 1995
41. Mangitungi Siddhakshetra 1996
42. Delhi (Lal Mandi) 1997
43. Hastinapur (Jambudweep) 1998
44. Delhi (Cannaught Place) 1999
45. Delhi (Preet Vihar) 2000
46. Delhi (Ashok Vihar) 2001
47. Prayag Tirth (Allahabad) 2002
48. Kundalpur (Nalanda-Bihar) 2003
49. Kundalpur (Nalanda-Bihar) 2004
50. Hastinapur (Jambudweep) 2005
51. Hastinapur (Jambudweep) 2006
52. Hastinapur (Jambudweep) 2007
53. Hastinapur (Jambudweep) 2008
54. Hastinapur (Jambudweep) 2009
55. Hastinapur (Jambudweep) 2010
56. Hastinapur (Jambudweep) 2011
57. Hastinapur (Jambudweep) 2012
58. Hastinapur (Jambudweep) 2013
59. Hastinapur (Jambudweep) 2014
60. Mangitungi 2015
61. Mangitungi 2016
62. Mumbai 2017
63. Mangitungi 2018
64. Tiketnagar 2019
65.Hastinapur 2020
VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
Ganini Aryika Shri Gyanmati Mataji was born on 22 October 1934 in Tikait Nagar in Barabanki district, Uttar Pradesh, in a Jain family of Mohini Devi and Chotelal. She was named Maina. She was influenced by Padmanandi Panchvinshatika, an ancient Jain scripture gifted by her grandparents on the marriage of her mother. On 2 October 1952, on the day of Sharad Purnima, she was initiated as a Brahmacharini at Barabanki district by Acharya Shri Deshbhushan ji Maharaj.
‘Maina’ was born as the first child of Smt. Mohini Devi, the wife of Shri Chotteylal Ji Jain of Tikaitnagar (Dist.-Barabanki, U.P.) on 22nd October 1934, the day of Sharad Poornima.
By the regular study (Swadhyaya) of ‘Padmanandi-panchvinshatika’, an ancient Jain scripture, which was given to mother Mohini in dowry by her parents, Maina developed a deep feeling of renouncing the world. Infact, such feelings were deeply rooted in her since previous births.
At the tender age of 18 years, Maina took the vows of lifelong Celibacy, Seven Pratimas (Vows for householders) and the renouncement of home from Acharyaratna Shri Deshbhushan Ji Maharaj in 1952 on the very day of Sharad Poornima.
Later in 1953 the first Brahmacharini of the 20th century Km. Maina took Kshullika Deeksha (Primary stage of initiation) from Acharya Shri Deshbhushan Ji on Chaitra Krishna Ekam at Mahavir ji Atishaya Kshetra (Rajasthan) to become ‘Kshullika Veermati’. In 1955 Veermati Ji stayed in the holy feet of Charitra Chakravarti Acharya Shri Shantisagar Ji Maharaj for one month at the time of his Samadhi at Kunthalgiri and as per his order, She took Aryika Deeksha (Highest stage of initiation for females) from Acharya Shri Veersagar Ji Maharaj, the first disciple Pattacharya of Acharya Shri Shantisagar Ji, on Vaishakh Krishna Dooj of 1956 at Madhorajpura (Jaipur-Rajasthan) to become Aryika Gyanmati.
Since the beginning Mata Gyanmati Ji was having keen desire for acquiring knowledge. The best means for the same was chosen by her in the form of teaching Munis (Digambar saints), Aryikas (female saints) and other disciples of the Sangh (group). She started with ‘Katantra Roopmala’ (the Sanskrit Grammer) to continue with various ancient Jain scriptures as Gommatsar, Parikshamukh, Nyaydeepika, Prameyakamalmartand, Ashtasahasri, Tattvartharajvartik, Sarvarthasiddhi, Anagardharmamrit, Moolachar, Triloksar etc. She gained a lot of knowledge in a very less time and she also became an expert of various languages as Hindi, Sankrit, Prakrit, Kannad, Marathi etc.
Infact there was no example of writing scriptures by Jain Sadhvis (female saints) in the history of 2500 years after Lord Mahavir, the 24th Tirthankar (Jain Lord) but Kshullika Veermati Ji created the landmark when she started writing with 1008 Mantras (holy verses) of Sahastranam. These mantras proved to be like the boon of Mata Saraswati (Goddess of Knowledge) for her. Since then Pujya Mataji did-not look behind and till date Teekas (explanatory notes or commentary) & original texts in Sanskrit & Hindi written by her, have crossed the number of 250.
In 1969-70 she translated the highest scripture of Nyaya (Jain-logic)-Ashtasahasri into Hindi for the surprise of the world of scholars. Afterwards explanatory notes in Sanskrit & Hindi on Samaysar, Niyamsar etc.; Scriptures for Swadhyaya as-Jain Bharti, Gyanamrit, Trilok-Bhaskar, Pravachan Nirdeshika etc.; Novels like Pratigya, Sanskar, Bhakti, Adibramha, Atae Ka Murga, Jeevandan etc.; Hindi translation of Dravya Sangrah, Ratnakarandshravakachar, Katantra Vyakaran etc.; Balvikas, Balbharati, Nari Alok etc. and a number of other scriptures show the highly talented calibre of Pujya Mataji as a versatile writer.
She has not only written on Adhyatma (spirituality), Vyakaran (grammer), Nyaya (logic), Siddhant (formulae), children literature, Novels etc. but also devotional poetic worshipping hymns i.e. Vidhans. Indradhwaj, Kalpadrum, Sarvatobhadra, Teenlok, Siddhachakra, Vishwashanti Mahavir Vidhan etc. have immersed the people into the devotion of Lord Jinendra throughout the country.
The specific characteristic of the writing of Pujya Mataji is that it is in full accordance with the ancient Jain Agam (scriptures).
At present, Pujya Mataji is indulged in writing the Sanskrit Teeka ‘Siddhant Chintamani’ of the first Siddhant Grantha of the Jain Philosophy i.e. ‘SHATKHANDAGAM’. She has completed 14 books, out of which the first & the second books have been published with Hindi Teeka also.
As 1000 years before, Acharya Shri Nemichandra Siddhantchakravarti wrote Dravya Sangrah, Gommatsar, Labdhisar etc. similarly Pujya Mataji is also writing on Shatkhandagam after a deep life-long practice of Jain Agam to be truely called as Siddhant Chakreshwari (well versed in Jain philosophical formulae).
After the writing of Dhavla Teeka by Acharya Shri Veersen Swami 1000 years before, for the first time the simple teeka of this great scripture is being written.
By the inspiration of Pujya Mataji a number of teaching camps have been organized so that Jain scholars may understand the real theme of Jain-Agam.
In 1969 a specific camp on ‘Jain-Astronomy’ was organized between the chaturmas of Jaipur and Pujya Mataji introduced & explained extensively Jain Geography & Astronomy to the scholars.
In Oct. 1978, a teaching camp of about 100 scholars including Pt. Makkhanlal Ji Shastri, Pt. Motichand Ji Kothari, Dr. Lal Bahadur Ji Shastri etc. was organized at Hastinapur and in this camp Pujya Mataji guided the scholars on various issues related with the real Jain tradition. Even today the series is going on.
In 1985 an International Seminar on ‘Jain Mathematics & Cosmology’ was organized at Jambudweep-Hastinapur followed by a number of other seminars in later years. In 1998 the Vice-Chancellors of various Indian Universities gathered at Hastinapur to attend ‘Lord Rishabhdev National Vice-Chancellors’ Conference’, in which the participants were introduced with the first Tirthankar Lord Rishabhdev as the propagator of human culture of the present age. Through the seminar on ‘Antiquity of Jainism’ at Jambudweep-Hastinapur on 11th June 2000, the message to correct the misconceptions about Jainism in the textbooks of History was also conveyed to NCERT. Many other seminars have also been organized at different times.
The degree of D.Lit. was Awarded for the First time to a saint/Sadhvi of the Digambar Jain tradition-Without having the traditional degrees of the college & University, Pujya Mataji touched the heights of knowledge, teaching & literature- writing and to honour this unique talent, Avadh University-Faizabad presented the honorary degree of D.Lit. to her on 5th Feb. 1995. Pujya Mataji became the first among the Digambar Sadhu tradition to get this degree. In the same way various Acharyas and social institutions have presented various titles (ranks) to her at different times such as-Nyaya Prabhakar, Aryikaratna, Aryikashiromani, Ganini Pramukh, Vatsalyamoorti, Teerthoddharika, Yugpravartika, Charitrachandrika, Rashtragaurav, Vagdevi etc. but remaining aloof from all these honours, she always remains engrossed in penance for self purification.
In 1992 when Pujya Mataji came to know that students all over the country are being taught that ‘Lord Mahavir is the founder of Jain Dharma’ through the History books published by NCERT, she was deeply hurt. Consequently by the continuous efforts of 10 years including the direct talks with the Prime Minister, Human Resource Development Minister, Director-NCERT etc., the process of correcting the misconceptions could be initiated.
Pujya Mataji have always been dedicated for the development of the Kalyanak Kshetras especially the birthplaces of Tirthankar Lords. She says that such places are the great treasures of our eternal culture so we should always remain awakened for their protection & development. Firstly at Hastinapur, the birthplace of Lord Shantinath, Kunthunath & Arahnath, the unique structure of Jain Geography ‘Jambudweep’ was constructed by her inspiration & guidance. The Tourism Department of U.P. Government has called it as ‘A Man Made Heaven of Unparallel Superlatives and Natural Wonders’ in its publications.
Samavsaran Temple & Trikal Chaubeesi Temple at eternal pilgrimage-Ayodhya, Namokar Dham at Sanavad (M.P.), Lotus temple at Preet Vihar-Delhi, Sahastrakoot Lotus temple at Mangitungi (Maharashtra), Navdevta Temple at Aklooj (Maharashtra), Tees Chaubeesi Temple with 11 summits at Ahichhetra, ‘Tirthankar Rishabhdev Deeksha Tirth at Prayag-the Initiation (Deeksha) & Enlightenment (Kevalgyan) land of Lord Rishabhdev are the consequences of the inspiration of Pujya Mataji only. Besides these a number of other constructions have also been done at various places.
The Birthplace of Lord Mahavir-Kundalpur (Nalanda-Bihar) has been developed magnificiently by the guidance & auspicious presence of Pujya Mataji in less than 2 years. A grand ‘Nandyavarta Mahal Tirth’ has been constructed there with Vishwashanti Mahavir Temple having the standing postured idol of Lord Mahavir, Navgrahshanti Jin Temple, Trikal Chaubeesi Temple & Nandyavarta Mahal- the birthpalace of Tirthankar Mahavir. Lord Mahavir Swami Kirtistambh has also been constructed.
Besides this, Muni Suvratnath Jin temple at the birthplace of Lord Muni Suvratnath-Rajgrahi along with the construction of the Mansthambh at the base of the Vipulachal Mountain, ‘Lord Mahavir Jin Temple’ with standing postured idol of Lord Mahavir at the Pandukshila campus infront of the Jalmandir of Pawapuri-the Salvation land of Lord Mahavir, Temple of Gautam Swami at His Salvation land-Gunava ji, Lord Rishabhdev Temple at Sammed Shikherji have also been constructed by the inspiration of Pujya Mataji.
At present, the development of Kakandi, the birthplace of 9th Tirthankar Lord Pushpdantnath is being done in the series of the development of the Birthplaces of Tirthankars, the sincere determination of Mataji.
Inspiration for the construction of the 108 Ft. High Idol-By the inspiration of Pujya Mataji, the construction work of 108 Ft. high standing postured idol of Lord Rishabhdev has been initiated at the mountain of Mangitungi (Maharashtra). This idol will prove to be an astonishing wonder for the whole world and will also introduce the masses with the eternal culture of Jainism.
To establish Shirdi as a prominent Jain Centre, the plan of constructing ‘Gyantirth’ is being worked out. At Gyantirth, the grand idol of Lord Parshvanath will be consecrated along with other constructions as per the guidance of Pujya Mataji.
‘Digambar Jain Institute of Cosmographic Research’ was established in 1972 by the inspiration of Pujya Mataji at Delhi with the major aim of constructing Jambudweep. This institute has remained indulged in various projects for the dissemination of the preachings of Jainism since then.
Veer Gyanodaya Granthmala publishing scriptures/books in lacs of numbers, Samyakgyan monthly magazine with the knowledge of 4 Anuyogas (4 parts of Jain Agam), Namokar Mahamantra Bank etc. are some important projects to be quoted.
By the inspiration of Pujya Mataji, the then Prime Minister Smt. Indira Gandhi inaugurated ‘Jambudweep Gyan Jyoti’ at Delhi in 1982. The Jyoti travelled throughout the country for 3 years and preached the lessons of Non-violence, Compassion, Universal brotherhood etc. among the masses and later it was consecrated at Jambudweep (Hastinapur) by Shri P.V. Narsimha Rao, the then Central Defence Minister.
Similarly in Apr. 1998 the then Prime Minister Shri Atal Bihari Vajpayee inaugurated ‘Bhagwan Rishabhdev Samavsaran Shrivihar’ at Delhi and it was consecrated at Kevalgyan Kalyanak Temple of Deeksha Tirth-Prayag after the tour of the whole India.
‘Bhagwan Mahavir Jyoti’ inaugurated from Lord Mahavir Birthplace-Kundalpur (Nalanda) in 2003 is also a landmark in this series.
To establish the ‘Antiquity of Jainism’ and the name & principles of Lord Rishabhdev among the masses Pujya Mataji got organized grand ‘Chaubees Kalpadrum Mahamandal Vidhan’ at Delhi and also ‘Lord Rishabhdev Birth-Anniversary Year’ & ‘Lord Rishabhdev International Nirvan Mahamahotsava Year’ (inaugurated by the then Prime Minister Shri Atal Bihari Vajpayee) throughout the country & aborad.
Various T.V. Channels like Aastha, Jain, Sanskar etc. have done the broadcasting of the Pravachans of Pujya Mataji at various times. Direct telecast of programmes of Hastinapur, Ayodhya etc. have appealed the people in large numbers.
‘Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Mahila Sangathan’ was established by the inspiration of Pujya Mataji and today through its hundreds of units, it is unifying the feminine power of the Jain society for creative aims. A large number of other day-to-day activities of Dharma-Prabhavna can be added to the above, however it is not possible to give their written account. The whole of the Jain Samaj consider her as an image of sincerity & hard work.
Since the beginning Pujya Mataji had one aim-to do any work according to Jain Agam only. If any struggle comes in her way in completing her so decided aim, she is never disturbed at all but with more determination, She wins over the difficulties to ultimately achieve her goal. Whole of her life has been passed in the dissemination of the illumination of Jainism to self & all others along with following the Moolgunas (fundamental 28 tenets of a Jain Sadhu) strictly & protecting the Aarsh tradition (ancient scriptural tradition). She never allows the use of the money of any institution or Tirth or charity in the arrangement of her sangh. She has followed this vow for 50 long years. That’s why Sanghpati Shravakas consider themselves fortunate when they take the responsibility of long distance pilgrimage tours of the Sangh of Pujya Mataji.
Anniversary Third Millennium Mahotsava-By the inspiration and in the auspicious presence of Pujya Mataji ‘Lord Parshvanath Birth-Anniversary Third Millennium Mahotsava’ was inaugurated on 6th Jan. 2005 at Varanasi, the birthplace of the Lord. This year was celebrated with various programmes at Ahichhetra-the Kevalgyan (Enlightenment) land, Shri Sammed Shikherji-the Salvation land and many other tirths related with Lord Parshvanath & throughout the country.
Pujya Mataji has inspired to celebrate the year 2006 as “Sammed Shikher Year” so that Digambar Jain Samaj may be dedicated for this great pilgrimage with all its power.
Besides this, She has also inspired to protect the Salvation land of Lord Neminath i.e. Girnarji and has attracted the mass-interest towards this issue.
Deeksha (Initiation) Golden Anniversary-Pujya Mataji has completed the 50 years of her Aryika Deeksha on Vaishakh Krishna Dooj, Veer Nirvan Samvat 2532 i.e. 15th Apr. 2006. Thus she is having the dignity of the most anciently initiated (Deekshit) Sadhvi of the present Digambar Jain Sadhu tradition.
On this unique occasion the Samaj paid its humble homage in her holy feet by successfully organizing “Ganini Pramukh Shri Gyanmati Mataji Aryika Deeksha Golden Anniversary Celebration” from 14th to 16th April 2006 at Jambudweep-Hastinapur. Various Programmes are being organized in this Deeksha Golden Anniversary year throughout the country.
Ganini Aryika Shri 105 Gyanmati Mataji
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
Pujya Mataji took Kshullika Deeksha in 1953 and Aryika Deeksha in 1956. 3 Chaturmas of Kshullika Deeksha are as follows :
Sr. Place Year
1. Tikaitnagar (Barabanki-U.P.) 1953
2. Jaipur (Rajasthan) 1954
3. Mhasvad (Maharashtra) 1955
Chaturmas after Aryika Deeksha are as follow
Sr.No Place and Year
1. Jaipur (Khaniya)1956
2. Jaipur (Khaniya) 1957
3. Byavar (Raj.) 1958
4. Ajmer (Raj.) 1959
5. Sujangarh (Raj.) 1960
6. Seekar (Raj.) 1961
7. Ladnu (Raj.) 1962
8. Calcutta (W. Bengal) 1963
9. Hyderabad (A.P.) 1964
10. Shravanbelgola (Karnataka) 1965
11. Solapur (Maharashtra) 1966
12. Sanavad (M.P.) 1967
13. Pratapgarh (Raj.) 1968
14. Jaipur (Raj.) 1969
15. Tonk (Raj.) 1970
16. Ajmer (Raj.) 1971
17. Delhi (Pahari Dhiraj) 1972
18. Delhi (Najafgarh) 1973
19. Delhi (Lal Mandir) 1974
20. Hastinapur (Old Temple) 1975
21. Khatauli (Muzzafarnagar) 1976
22. Hastinapur (Old Temple) 1977
23. Hastinapur (Old Temple) 1978
24. Delhi (Mori Gate) 1979
25. Delhi (Kucha Seth) 1980
26. Hastinapur (Jambudweep) 1981
27. Delhi (Kammoji Dharmashala) 1982
28. Hastinapur (Jambudweep) 1983
29. Hastinapur (Jambudweep) 1984
30. Hastinapur (Jambudweep) 1985
31. Hastinapur (Jambudweep) 1986
32. Hastinapur (Jambudweep) 1987
33. Hastinapur (Jambudweep) 1988
34. Hastinapur (Jambudweep) 1989
35. Hastinapur (Jambudweep) 1990
36. Sardhana (Meerut-U.P.) 1991
37. Hastinapur (Jambudweep) 1992
38. Ayodhya 1993
39. Tikaitnagar 1994
40. Hastinapur (Jambudweep) 1995
41. Mangitungi Siddhakshetra 1996
42. Delhi (Lal Mandi) 1997
43. Hastinapur (Jambudweep) 1998
44. Delhi (Cannaught Place) 1999
45. Delhi (Preet Vihar) 2000
46. Delhi (Ashok Vihar) 2001
47. Prayag Tirth (Allahabad) 2002
48. Kundalpur (Nalanda-Bihar) 2003
49. Kundalpur (Nalanda-Bihar) 2004
50. Hastinapur (Jambudweep) 2005
51. Hastinapur (Jambudweep) 2006
52. Hastinapur (Jambudweep) 2007
53. Hastinapur (Jambudweep) 2008
54. Hastinapur (Jambudweep) 2009
55. Hastinapur (Jambudweep) 2010
56. Hastinapur (Jambudweep) 2011
57. Hastinapur (Jambudweep) 2012
58. Hastinapur (Jambudweep) 2013
59. Hastinapur (Jambudweep) 2014
60. Mangitungi 2015
61. Mangitungi 2016
62. Mumbai 2017
63. Mangitungi 2018
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