(अंतर्मुखी मुनि श्री १०८ पूज्य सागर महाराज के ९वें दीक्षा दिवस पर श्रीफल जैन न्यूज में उन्हीं की कलम से उनकी जीवनगाथा प्रस्तुत की जा रही है।)
घर में था, तब भी विचार आते थे कि कभी शादी नहीं करूंगा, समाज सेवा के लिए जीवन समर्पित करूंगा। लोगों के दुख-दर्द में काम आऊंगा। यों तो मुझे धर्म से कुछ विशेष लगाव नहीं था लेकिन निकट के मंदिर में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते या मंदिर को सजाना आदि होता तो मैं उसमें हिस्सा जरूर लेता। माता पिता, दादा-दादी के साथ तीर्थयात्रा भी की। सामाजिक कार्य करते-करते परहित में कई बार लड़ाई-झगड़ा भी किया। मन के भीतर पत्रकार का जुनून भी था, इसलिए पत्रकारिता से भी परहित साधा। दोस्तों के सहयोग के लिए भी आगे रहता और इन सब के कारण पुलिस स्टेशन में २-३ दिन रहा। अदालत से जमानत भी हुई। मेरा पढ़ाई में मन नहीं लगता था। मन में यह सोच लिया था कि जब दुकान ही करनी है तो पढ़ाई करने का फायदा ही क्या। हालांकि शिक्षकों का कभी अनादर नहीं किया। राजनीति करने का जुनून भी था। पत्रकारिता और राजनीतिक संगठन में कई पदों पर भी रहा। स्कूल में, स्कूल से बाहर लड़ाई झगड़ा भी होते थे लेकिन मन के अंदर के एक कोने में धर्म और धर्मात्माओं के प्रति आदर का भाव था।
इस सब बातों से मुझे एक बात का अहसास हुआ कि सामाजिक कार्यों से दया, करुणा का भाव तो आ सकता है पर भावों की निर्मलता नहीं बन सकती। अपनी शक्ति, विचार, क्षमता को जानने के पहले हमें धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ना चाहिए और उसके बाद सामाजिक कार्यों से जुड़ना चाहिए। तभी दया, करुणा के साथ स्वयं के भाव निर्मल होते हैं। यह बात तो स्पष्ट इन सब से अधिक आनंद और पुण्य का संचय स्वयं के आत्म चिंतन से ही होता है।
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