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#DeshbhushanJiMaharaj1906Jaikirtiji
Early life
Born on Mārgaśirṣa Śukla Pakṣa Pratipat of the year 1905 in Kothli district of Belgaum, Karnataka in a wealthy landlords family of Sh. Satya Gauda and Akka Devi Patil (Parents), Sh. Bala Gauda Patil (Balappa) completed his primary and secondary education in Hindi, English, Marathi and Kannada medium at Sadalga and Secondary Education at Gilginchi Artal High School, Belagavi with his best friend Dr. A.N. Upadhye. Both went on to receive their Bachelor of Arts with Honours from Bombay University in Sanskrit and Prakrit languages and later moved to Pune for Post-Graduation and joined Bhandarkar Oriental Research Institute. At this point while Sh. A.N. Upadhye decided to join as Lecturer of Prakrit at Rajaram College, Kolhapur to meet up the social and financial obligations. Bala Gauda decided to continue his further research with the help of original references which were kept intact in the custody of Jain Temples where he came in contact with Acharya Jayakirti and got deeply influenced by his lectures.
Religious career
Acharya Deshbhushan (left) and Prime Minister Lal Bahadur Shastri (right)
Influenced by Acharya Jayakirti, Bala Gauda requested him to join his group or Jain Sangha. Looking at his young age and family background Acharya explained to him about the traditional way of learning with the Pratimas or the vows which every student has to practice and follow in order to get associated with them. Observing his determination and zeal towards his quest for the right knowledge as per Jain philosophy Acharya Jayakirti initiated him as Ailak or individual researcher to be known as Ailak Deshbhushan in the early 1930s and kept him under observation to be elevated as a Jain Muni. Ultimately, after six years of strict observations under his Jain Sangha. Acharya Jayakirti elevated and initiated him as Muni Deshbhushan on 8 March 1936 at the famous Kunthalgiri Jain temple in Maharashtra to further research and explore his ultimate quest for the right wisdom.
Entire Jain community unanimously entitled him as Samayaktva Chudamani Acharya Ratna Shri Deshbhushan ji Muni Maharaja on the event of successfully organizing and conducting the Mahamastakabhisheka at Shravanabelagola in the year 1981. Entire Jain community around Delhi organized a huge event under the banner of Delhi Jain Samaj and entitled him as Acharya Ratna Deshbhushan ji Muni Maharaja in the year 1961. He was entitled as Acharya Shri Deshbhushan ji Muni Maharaja by Acharya Shri PaayaSagar ji Muni Maharaja under the guidance of Chatuh Sangha in the year 1948 during a huge event organised at Surat in Gujarat. He was initiated as Shri Deshbhushan ji Muni Maharaja by Acahrya Shri JayaKirti ji Muniraj on 8 March 1936 at Shri Digambra Jain Siddha Kshetra located at Kunthalgiri, Maharashtra.
He had initiated and elevated some of the most prominent of Jain monks and Nuns including Acharya Vidyananda and Ganini Pramukha Aryika Gyanmati Mataji. He gave the title of Upadhyaya (Preceptor) to Muni Vidyananda on 17 November 1974 in Delhi. He further elevated Upadhyaya Vidyananda to Acharya (Chief Preceptor) Vidyananda on 28 June 1987.
Deshbhushan urged for the establishment of Chulagiri in 1953. Acharya Deshbhushan Ayurvedic Medical College, Shamanewadi, Karnataka was inaugurated on 13 June 1951
आचार्य श्री १०८ देशभूषण जी महाराज
संक्षिप्त परिचय | |
जन्म: | मग्सिर सुदी २,वि. सं.१९६२,सन १९०६ |
जन्म स्थान : | कोथली(कर्णाटक) |
नाम : | श्री बालगौड़ा पाटिल |
माता का नाम : | श्रीमती अक्का देवी |
पिता का नाम : | श्री सत्यगौड़ा पाटिल |
क्षुल्लक दीक्षा : | रामटेक(महाराष्ट्र) |
दीक्षा गुरु : | आचार्य श्री जयकीर्ति जी महाराज |
मुनि दीक्षा तिथि: | जुलाई २५ , १९६३ |
मुनि दीक्षा स्थान : | सिद्ध क्षेत्र कुन्थलगिरी जी |
मुनि दीक्षा नाम : | मुनि श्री देशभूषण जी |
आचार्य पद : | आचार्य श्री पायसागर जी की आज्ञानुसार |
आचार्य पद तिथि: | सूरत(गुजरात),1948 |
समाधि तिथि | २८ मई,1987 गुरुवार |
समाधि स्थल | कोथली(कर्णाटक) |
विशेष : | राष्ट्र संत और भारत गौरव की उपाधि थी, सर्वप्रथम संसद भवन में जाकर जैन धर्म की अमिट छाप छोड़ी |
आचार्य देशभूषण २०वीं सदी के एक विख्यात दिगम्बर जैन आचार्य हैं, जिन्होने कई प्राकृत, संस्कृत ओर कन्नड़ शास्त्रों का सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद एवम् व्याख्यान किया है।
उन्होने अपने प्रिय शिष्यों श्वेतपिच आचार्य श्री विद्यानंद जी एवम् गनन्नी प्रमुख अरियका श्री ज्ञानमति माता जी को इस विषय में कार्य करने को प्रेरित किया।
उनका जन्म सन १९०५ में मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन कर्नाटक के एक सर्व सम्पन्न जमीन्दार परिवार में हुआ। पिता का नाम सत्य गौड़ा और माता का अक्का देवी पाटिल था।
उनकी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा हिंदी, अंग्रेजी, मराठी और कन्नड़ माध्यम से सदलगा माध्यमिक विद्यालय तथा उच्या मध्मिक शिक्षा गिलगांची अर्ताल हाई स्कूल इटावा में उनके प्रिय मित्र डॉ. ए. एन. उपाध्याय के साथ हुई।
दोनों ही मित्रों को भाषा और संस्कृति पर शोध करने का प्रभाव इस कदर हावी था कि दोनों ने अपनी आगे कि पड़ाई साथ जारी रखने के लिए बंबई विश्वविद्यालय से संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में कला स्नातक और बाद में स्नातोत्तर करने के लिए पुणे के भंडारकर प्राच्य शोध संस्थान से पीएचडी अथवा डाक्ट्रेट की पढ़ाई करी।
एक ओर जहां अपने सामाजिक और वित्तीय दायित्वों को निभाने के लिए डॉ. ए. एन. उपाध्याय ने कोल्हापुर के राजाराम कॉलेज में प्राकृत भाषा पर अपना शोध जारी रखने के लिए प्राचार्य पद ग्रहण किया।
वहीं दूसरी ओर श्री बाला गौड़ा ने प्राकृत भाषा पर अपने शोध और अनुसंधान को जारी रखने के लिए मंदिरों ओर जिनालयों का रुख कर लिया। उनका मानना था कि प्राकृत को सही रूप में समझने के लिए उसे उसके मूल रूप में अधयन करने की आवश्यकता है। उन्हें इस बात का विशेष ज्ञान था कि प्राकृत की सर्वश्रेष्ठ रचनाएं किसी दिव्य कलाकृति से कम नहीं हैं ओर वो अपने मूल स्वरूप में पांडुलिपियों और ताड़पत्रों पर अंकित किसी पूजनीय ग्रंथ से कम नहीं है।
इन में से कुछ कृतियां तो इतनी प्राचीन ओर दुर्लभ हैं कि उन्हें एक विशेष समय काल अंतराल ओर विशेषज्ञों की अनुमति निरक्षण ओर परामर्श के बिना उनका अवलोकन भी नहीं किया जा सकता। यह भी ज्ञात रहे कि इन में से कई काव्य कृतियां तो भित्ति लेखों के स्वरूप में हैं जो की इन प्राचीन मंदिरों और जिनालयों की दीवारों पर अंकित या गढ़ी गई हैं जिनके बारे में किताबे सिर्फ व्याख्यान ही उपलब्ध करवाएगी। अतः उनका यह निर्णय उन्हें प्राचीन मंदिरों ओर जिनालयों के समीप लेगाया जहां वे आचार्य श्री जयकीर्ति जी के संपर्क में आए जो कि एक सुविख्यात जैन आचार्य थे और उनके सरल व्याख्यान द्वारा गहराई से प्रभावित हो गए और उनके जैन श्रावक संघ में शामिल होने का मन बना लिया।
युवक बाला गौड़ा का साहित्यिक ओर सांस्कृतिक शोध कार्य देख कर आचार्य जयकीर्ति जी भी बड़े ही प्रभावित हुए ओर उन्हें सहज ओर सरल व्याख्यान कर समझाने लगे। बातों ही बातों में युवक बाला गौड़ा ने आचार्य श्री को अपना गुरु मान उनके संघ में शामिल होने कि प्रार्थना रखी। युवक बाला गौड़ा की कम उम्र और परिवार की पृष्ठभूमि आचार्य जी ने उन्हें अध्यन के पारंपरिक तरीके ओर जैन श्रावक संघ के कठोर तप अनुशासन और प्रतिमाओं के बारे में समझाया और उन्हें अपने परिवार से आज्ञा प्राप्त करने का निर्देश दिया।
युवक बाला गौड़ा भी अपना मन बना चुके थे ओर भाषा ओर संस्कृति पर अपने शोध ओर अनुसंधान को दृढ़ संकल्प पूर्ण पारंपरिक तरीके से जारी रखने के लिए अपने परिवार से अनुमती प्राप्त कर पुनः आचार्य श्री के समक्ष दीक्षा प्राप्ती के लिए उपस्थित हो गए। कुछ समय तक अपने जैन श्रावक संघ में रखने ओर अनुशासन ओर प्रतिमाओं का पालन करते देख आचार्य श्री ने उन्हें ब्रह्मचर्य ओर ऐलक धर्म की दीक्षा प्रदान करने का विचार कर लिया और उचित महुरत तिथि ग्रह ओर नक्षत्र देख सन् १९३६ में रामटेक स्थित जैन मंदिर में पारंपरिक रूप से समारोह आयोजित कर एयलक देशभूषण की पदवी प्रदान की ओर पारंपरिक तरीके से अपना शोध ओर अनुसंधान जारी रखने का आदेश दिया।
ऐलक् श्री देषभूषण जी अपनी प्राथमिक शिक्षा ओर अब पारंपरिक दीक्षा प्राप्त कर एक नए जोश उमंग और उत्साह के साथ अपने शोध ओर अनुसंधान कार्य को पूर्ण करने में जीजान से जुट गए। उनके अनुशासन अभ्यास ओर दृढ़शक्ती को देख आचार्य श्री जयकीर्ति जी बहुत प्रभावित हुए। उन्हें अपने निर्णय पर मन ही मन गर्व होने लगा ओर उन्होंने अपने शिष्य में एक जैन मुनि बनने के लक्षण साफ नज़र आने लगे।
अतः आचार्य जी भी एक अच्छे गुरु की भांति ऐलक् श्री देषभूषण जी पर विशेष ध्यान देने लगे ओर शिग्रह ही उन्हें "क्षुल्लक" दीक्षा भी प्रदान की जिस से उनके शोध ओर अनुसंधान को एक नई दिशा ओर सही मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।
क्षुल्लक की पदवी प्राप्त होने से अब देशभूषण जी घंटों तक एकल साहित्य शोध कर सकते थे ओर अपनी शंकाओं और खोजों को विस्तार पूर्वक आचार्य श्री से परामर्श प्राप्त कर सूक्ष्म रूप से समझ सकते थे। बैठकें लंबी होने लगी शोध और अनुसंधान का मार्ग ओर भी पृष्ठ ओर परिपक्व हो गया।
ऐसा ज्ञात होने लगा मानो आचार्य श्री अपने शिष्य को एक जैन मुनि के स्वरूप में एक प्रतिमा कि तरह गढ़ रहे हों। यह अब निश्चित हो गया था कि अब वे ज्यादा दिन क्षुल्लक नहीं रहगें ओर अग्रेशित हो मुनि की उपाधि प्राप्त कर लेंगे।
अब यह साफ हो गया था कि अपने शोध ओर अनुसंधान को जारी रखने के लिए क्षुल्लक श्री देषभूषण जी को जैन मुनियों की भांति ही अपने जैन श्रावक संघ के अनुसार गुरु शिष्य की परंपरा का निर्वाह करते हुए ही आगे बढ़ना होगा। अतः आचार्य श्री जयकीर्ति जी ने ६ वर्ष की कठोर तपस्या अध्यन और अनुशासन को देखते हुए अपने परम शिष्य को मुनि दीक्षा देने के लिए उचित समय स्थल ओर महुरत की प्रतीक्षा करने लगे।
अंततः ८ मार्च सन् १९३६ महाराष्ट्र स्थित प्रसिद्ध कुंथलगिरी जैन मंदिर तीर्थक्षेत्र में एक भव्य आयोजन कर आचार्य श्री जयकीर्ति जी ने उन्हें मुनि श्री देशभुषण की पदवी प्रदान की ओर अपने शोध ओर अनुसंधान को आगे जारी रखने का आदेश दिया।
अपने गुरु की आज्ञा ओर आदेशों का अनुसरण प्राप्त कर अब मुनि श्री स्वतंत्र रूप से अपनी शोध ओर अनुसंधान या कहिए भाषा साहित्य ओर संस्कृति की खोज को जारी रख सकते थे। ओर उन्होंने एक सत्य साधक की भांति अपने इस कार्य पर कभी कोई बाधा नहीं आने दी और इस अन्वेषण में सर्वस्व त्याग कर जुट गए।
अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए ओर उनके द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करते हुए मुनि श्री अपने शोध ओर अनुसंधान को आगे बढ़ाने में जुट गए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पाते ही उन्होंने कई ग्रंथों का स्पष्ट ओर सरल अनुवाद प्रस्तुत किये। उन दिनों अधिकतर व्याख्यान मंदिरों ओर जनसभाओं में प्रवचन स्वरूप प्रस्तुत किए जाते थे इस से उनकी ख्याति ओर प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई।
फल स्वरूप आचार्य श्री पायसागर जी मुनिराज ने सन् १९४८ में सूरत, गुजरात में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम के दौरान उन्हें आचार्य श्री देशभूषण जी की पदवी प्रदान की। आचार्य पदवी पाकर मानो अपने उत्तरदायित्व का भारी प्रभाव छोड़ा ओर वो इस उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के लिए अपने शोध पत्रों के प्रकाशन ओर प्रसारण में जुट गए।
आचार्य पद ग्रहण करने के साथ ही संघ ओर समाज के प्रति उनका उत्तरदायित्व कुछ ओर बढ गया। अब ना सिर्फ उन्हें अपने शोध को अपितु पूरे संघ के नायक की भूमिका में सामाजिक कल्याण ओर उत्थान के लिए अग्रसर होना पड़ा। यह कार्य भी उन्होने बखूबी निभाया ओर दिल्ली ओर आसपास के अनेक जीनशिर्न हो रहे मंदिरों ओर जिनालयों का संग्रहण जीर्णोद्धार ओर पुनरनिर्माण कार्य करवाया।
उनके इस कार्य से दिल्ली ओर आसपास के जैन धर्मावलंबी इतने प्रसन्न ओर उत्साहित हुए की उन्होंने संयुक्त जैन समाज दिल्ली के तत्वावधान में सन् १९६१ में एक भव्य आयोजन कर उन्हें आचार्यरत्न की उपाधि प्रदान की।
जैसे जैसे उनकी ख्यती बढ़ती जा रही थी वैसे वैसे ही उनके कार्यों का दायरा भी विकसित होता जा रहा था। समाज को मानो एक असाधारण व्यक्तित्व का सानिध्य प्राप्त हो गया था।
सन् ९८८१ में उनको एक ओर बड़े अंतरराष्ट्रीय आयोजन की कमान सोंपदी गई। यह अवसर श्रवणबेलगोला स्थित ५७ फिट ऊंची बाहुबली की प्रतिमा का महामस्तकाभिशेक का था जो कि १२ वर्ष में १ बार आयोजित किया जाता है।
इस कार्यक्रम के सफल आयोजन से वे अब एक अंतरराष्ट्रीय संत के रूप में निखर के सामने आए ओर समस्त जैन समाज ने उन्हें सम्यक्त्व चूड़ामणि के पद से अलंकृत किया।
अंतरराष्ट्रय खायाती प्राप्त होने के बाद उनके शोध पत्रों लेखों और सरल हिंदी अंग्रेजी ओर संस्कृत अनुवादों की मांग बढ़ गई। इतने सालों के अपनी तपस्या का मानो उन्हें स्वयं भगवान ने आगे बढ़ के आशीर्वाद प्रदान किया हो। अनुयाई ना सिर्फ हिंदी अंग्रेजी ओर संस्कृति में यद्यपि क्षेत्रीय भाषाओं में भी उनके द्वारा रचित साहित्य की मांग करने लगे। मराठी कन्नड़ गुजराती हिंदी आदि भाषाओं में उनके एनुवादों को संग्रहित करने की साहित्य जगत में एक होड़ मच गई। उन्होंने भी अपने पाठकों को निराश नहीं किया ओर अपने द्वारा संग्रहित साहित्यिक खजाना निस्वार्थ भाव से लूटा दिया।
आचार्य श्री द्वारा प्रदत्त प्रमुख दीक्षाएँ -
श्री शान्तिसागरजी, श्री सुबलसागरजी, श्री विद्यानन्दजी, श्री विमलसागरजी, श्री चन्दसागरजी, श्री सिद्धसेनजी, श्री भद्रबाहुजी, श्री ज्ञानभूषणजी, श्री बाहुबलीजी, श्री कुलभूषणजी, श्री वरागसागरजी, श्री आदिसागरजी, श्री गुणभूषणजी, श्री सीमंधरजी, श्री धर्मभूषणजी श्री सन्मतिभूषणजी।।
सुव्रतमतीजी, शान्तमतीजी, विशालमतीजी, पुष्पदन्तमतीजी, चारित्रमतीजी, नेममतीजी, अजितमतीजी, शान्तिमतीजी।
सुबलसागरजी, वीरभूषणजी।
वृषभसेनजी, वासुपूज्यसागरजी, नंदिमित्रजी, ज्ञानभूषणजी, इन्द्रभूषणजी, जिनमूपणजी चन्द्रभूषणजी, वरांगसागरजी, वरदत्तसागरजी, शांतिभूषणजी, आदिसागरजी, सोमकीर्तिजी. ज्ञानसागरजी, गुणभूषणजी।
वीरमतीजी, राजमतीजी, जयश्रीजी, श्रेयांसमतीजी, जिनमतीजी, एलभूषणमतीजी, वृषभसेनाजी, गमतीजी, अजितमतीजी, कृष्णमतीजी, अनन्तमतीजी, शान्तिमतीजी, चन्द्रमतीजी, भद्रमतीजी, मरुदेवीजी, वृषभसेनाजी, रत्नभूषणमतीजी, शीतलमतीजी, कृष्णमतीजी ।
एलाचार्य मुनिश्री विद्यानन्दजी।
मुनिश्री बाहुबलीजी।
मुनिश्री सुबलसागरजी, मुनिश्री ज्ञानभूषणजी।
उपाध्यायश्री विद्यानन्दजी।
मुनिश्री विद्यानन्द जी, मुनिश्री कुलभूषण जी ।
आर्यिकाश्री ज्ञानमतीजी।।
आचार्य श्री के पावन वर्षायोग :
आचार्यश्री की प्रेरणा एवं उपदेश से निर्मित संस्थाएँ एवं सम्पन्न कार्य ओर रचनात्मकल्प शक्ति के प्रतीक :-
#DeshbhushanJiMaharaj1906Jaikirtiji
आचार्य श्री १०८ देशभूषणजी महाराज
Acharya Shri 108 JaiKirtiji Maharaj 1934
आचार्य श्री १०८ जयकीर्तिजी महाराज १९३४ Acharya Shri 108 JaiKirtiji Maharaj 1934
Dhaval Patil Pune-9623981049
Dhaval Patil Pune-9623981049
https://www.facebook.com/dhaval.patil.9461/
Edited by: Yastika Jain
Date: 17 Dec 2020
JaiKirtiJiMaharaj1934AnantKirtiJi
Early life
Born on Mārgaśirṣa Śukla Pakṣa Pratipat of the year 1905 in Kothli district of Belgaum, Karnataka in a wealthy landlords family of Sh. Satya Gauda and Akka Devi Patil (Parents), Sh. Bala Gauda Patil (Balappa) completed his primary and secondary education in Hindi, English, Marathi and Kannada medium at Sadalga and Secondary Education at Gilginchi Artal High School, Belagavi with his best friend Dr. A.N. Upadhye. Both went on to receive their Bachelor of Arts with Honours from Bombay University in Sanskrit and Prakrit languages and later moved to Pune for Post-Graduation and joined Bhandarkar Oriental Research Institute. At this point while Sh. A.N. Upadhye decided to join as Lecturer of Prakrit at Rajaram College, Kolhapur to meet up the social and financial obligations. Bala Gauda decided to continue his further research with the help of original references which were kept intact in the custody of Jain Temples where he came in contact with Acharya Jayakirti and got deeply influenced by his lectures.
Religious career
Acharya Deshbhushan (left) and Prime Minister Lal Bahadur Shastri (right)
Influenced by Acharya Jayakirti, Bala Gauda requested him to join his group or Jain Sangha. Looking at his young age and family background Acharya explained to him about the traditional way of learning with the Pratimas or the vows which every student has to practice and follow in order to get associated with them. Observing his determination and zeal towards his quest for the right knowledge as per Jain philosophy Acharya Jayakirti initiated him as Ailak or individual researcher to be known as Ailak Deshbhushan in the early 1930s and kept him under observation to be elevated as a Jain Muni. Ultimately, after six years of strict observations under his Jain Sangha. Acharya Jayakirti elevated and initiated him as Muni Deshbhushan on 8 March 1936 at the famous Kunthalgiri Jain temple in Maharashtra to further research and explore his ultimate quest for the right wisdom.
Entire Jain community unanimously entitled him as Samayaktva Chudamani Acharya Ratna Shri Deshbhushan ji Muni Maharaja on the event of successfully organizing and conducting the Mahamastakabhisheka at Shravanabelagola in the year 1981. Entire Jain community around Delhi organized a huge event under the banner of Delhi Jain Samaj and entitled him as Acharya Ratna Deshbhushan ji Muni Maharaja in the year 1961. He was entitled as Acharya Shri Deshbhushan ji Muni Maharaja by Acharya Shri PaayaSagar ji Muni Maharaja under the guidance of Chatuh Sangha in the year 1948 during a huge event organised at Surat in Gujarat. He was initiated as Shri Deshbhushan ji Muni Maharaja by Acahrya Shri JayaKirti ji Muniraj on 8 March 1936 at Shri Digambra Jain Siddha Kshetra located at Kunthalgiri, Maharashtra.
He had initiated and elevated some of the most prominent of Jain monks and Nuns including Acharya Vidyananda and Ganini Pramukha Aryika Gyanmati Mataji. He gave the title of Upadhyaya (Preceptor) to Muni Vidyananda on 17 November 1974 in Delhi. He further elevated Upadhyaya Vidyananda to Acharya (Chief Preceptor) Vidyananda on 28 June 1987.
Deshbhushan urged for the establishment of Chulagiri in 1953. Acharya Deshbhushan Ayurvedic Medical College, Shamanewadi, Karnataka was inaugurated on 13 June 1951
Deshbhushan ji Maharaj had sweetness in his speech. His life was very simple and divine. He used to spend each moment of his life in self-reliance and self-realization. The texts have been translated from Kannada to Hindi. Many old texts have been published again. Whenever he went to any Jinalaya, he would definitely go to the Shastra Bhandar and after seeing the old texts, he would publish them.
Aacharya Vidyananda, Acharya Bahubali Sagar ji are some of his chief students. He was bestowed with the position of Aacharya by the blessings of Acharya Shanti Sagar ji's disciple Paya Sagar ji and Acharya Jai Kirti ji. Aacharya Dharmanand Sagar ji told that Acharya Deshbhushan Ji Maharaj was a self-respecting and dutiful saint.
Acharya Shri 108 Deshbhushanji Maharaj
आचार्य श्री १०८ जयकीर्तिजी महाराज १९३४ Acharya Shri 108 JaiKirtiji Maharaj 1934
आचार्य श्री १०८ जयकीर्तिजी महाराज १९३४ Acharya Shri 108 JaiKirtiji Maharaj 1934
Acharya Shri 108 JaiKirtiji Maharaj 1934
Acharya shri Jaikirti ji Maharaj
Dhaval Patil Pune-9623981049
https://www.facebook.com/dhaval.patil.9461/
Edited by: Yastika Jain
Date: 17 Dec 2020
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