1978 में अरविंद एक अनुशासनवान, अध्ययनशील,गुणप्रवीण, विनयी तथा सभी छात्रों में एक होनहार, कुशल प्रिय छात्र थे। वे प्रायकर सभी मित्रों के साथ बैठकर नई-नई योजनाये बनाते रहते थे कभी अध्ययन संबंधी तो कभी नैतिकता, सदाचार संबंधी। एक दिन उन्होंने अपनी मित्रमंडली जो स्वाभिमानी एवं परिश्रमी थी उसे बुलाया तथा कहा- जिस स्कूल में हम पढ़े-लिखे और वह गंदी रहे, यह कैसे हो सकता है हमें उसकी सफाई एवं सौंदर्यीकरण करवाना चाहिए। भावना स्कूल के सुपरिटेंडेंट के समीप रखी, सुनाई ना न होने पर समिति के समक्ष शिकायत की। पर सफलता नहीं मिली, फिर भी वे हारे नहीं सभी ने मिलकर ग्राउंड की सफाई करके सुंदर बगिया बना दी। अब नंबर आया स्कूल की बड़ी-बड़ी दीवारों की पुताई, लड़कों ने कमर कस ली और पुताई प्रारंभ, जिसे देख सभी प्राचार्य, शिक्षक आदि यही कहते कि तुम लोग छोटे हो यह काम तुमसे नहीं होगा, छोड़ो इस कार्य को पर लड़के नहीं माने, उन्होंने कुछ ही दिन में पूरा स्कूल पोत दिया।उनके इस साहसी कार्य की सभी ने भूरी-भूरी प्रशंसा की।
सच भी है महान पुरुष जिस कार्य में अपने कदम बढ़ाते हैं तो उसे पूर्ण ही करते हैं, चाहे कितनी भी परेशानियां, प्रतिकूलताये आये उनके कदम रुकते नहीं अपितु अविराम बढ़ते हैं।
महानपुरुषों की महानता के लक्षण प्राय: कर बचपन से ही स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं कि यह बड़ा होकर एक महानपुरुष बनेगा। पर इस रहस्य को वर्तमान या वर्तमान के लोग समझ नहीं पाते कि हमारे बीच भविष्य की एक महापुरुष की आत्मा विराजमान है।
बात है 1978 की जब अरविंद भैया कटनी में एक आदर्श छात्र की तरह सभी मित्रों शिक्षकों के स्नेह पात्र बनकर अध्ययनरत थे। बड़े आश्चर्य है कि पढ़ाई के अलावा जो समय घूमने-खेलने मिलता था तो सभी छात्र इसका भरपूर आनंद उठाते थे।पर अरविंद भैया तो बड़े विचित्र थे कि वे अपने गुरु पंडित धन्य कुमार जी के साथ या कभी अकेले ही लाइब्रेरी में पहुंच जाते एवं वहां बैठकर घंटो- घंटो पुस्तकों को पढ़ते रहते थे, कुछ ना कुछ खोजबीनी करते रहते हैं जिससे उनका लौकिक ज्ञान स्कूली अध्ययन के साथ निरंतर बढ़ता गया। सभी उन्हे इतने पढ़ते देखकर प्रमोदभाव से शास्त्री जी पुकारने लगे।
आज वे खोजबीनी के संस्कार इतने वृद्धिगंत हो चुके हैं कि वे शुध्दोपयोग, सम्यग्दर्शन, आगमचक्खू साहू जैसी भ्रम- भ्रांतियों को दूर करने वाली आगमानुसारी शोधात्मक कृतियों का सर्जन करते जा रहे हैं।
1983 में टी.बी. के रोग से मुक्त होकर क्षुल्लक जी ने तीर्थराज सिद्धक्षेत्र सम्मेद शिखर की पुनीत यात्रा हेतु बड़े उत्साह के साथ, मन में नई-नई उमंगों, भक्ति भाव के साथ पहाड़ पर प्रयाण किया।अस्वस्थयता होने पर भी आत्मसाहस उनका अपूर्व था क्यों ना हो क्योंकि वे वहां है जहां से उन्हें उन अनंत सिद्ध-भगवंतो की तरह निजस्वरूप की प्राप्ति करनी है। शनै:-शनै: सकलकर्मक्षयारथ की भावना,मन में संजोये पूरी वंदना हो गई और लौटते-लौटते सायं 4 बज गये। तभी श्रावकों ने कहा-महाराज शीघ्रता से शुद्धि करें और आहारारथ उठे। वे आहारारथ उठे-पर शुरू में ही कर्म रूपी चोर बालचंद के रूप में आ गये, एक तो कमजोरी, वंदना की थकान और प्रारंभ में अंतराय, सभी श्रावक बड़े दुखित हुए।पर क्षुल्लक जी के मुखमंडल से समता ही बरस रही थी। जैसे ही यह समाचार वहां स्तिथ आर्यिका सुपाश्वमति माताजी को ज्ञात हुआ तो श्रावक को बहुत फटकारा। और दूसरे दिन स्वयं आहार की व्यवस्था बनवाकर अपनी संघस्थ आर्यिका इलायचीमति माता जी के साथ आहार के शोधनार्थ गई उन्होंने एक वात्सल्यमयी मां की तरह क्षुल्लक जी का पूर्ण आहार करवाया।
सच जहां सरलता,सहजा ,विनय भावना होती है वहां सारे लोग अपने बन जाते हैं।
1983 कारंजा,क्षुल्लक पूर्ण सागर जी का असातावेदनीय कर्म का पर्दा हटा, स्वास्थ लाभ हुआ, 6 माह के अंदर, स्वास्थ्य लाभ होते ही भावना थी लक्ष्य को पूर्ण करने की और क्षुल्लक जी के अंतरग के भावों को, विदुषी महिला नर्मदा ताई ने पढ़ लिया, वह समझ गई कि क्षुल्लक जी की भावना शीघ्र मुनि वेश धारण करने की हो रही है,अत: बोली- महाराज,यह आपकी दृढ संकल्प शक्ति का ही फल है कि आपने इतनी जल्दी आरोग्यता का लाभ किया है परंतु मुनि दीक्षा के पूर्व मेरा निवेदन है-आप एक बार शिखर जी की यात्रा अवश्य कर ले, मुनि पद धारण करने के बाद अनुकूल साधन सामग्रियां जुटाना कठिन है। क्योंकि असहाय मोक्ख मग्गो है।क्षुल्लक जी को बात जच गई, और यात्रा प्रारंभ हो गई, सभी स्थानों के दर्शन कर प्रसन्नता पूर्वक जब क्षुल्लक जी वापस लौट रहे थे, तब एक घटना घट गई-चलती बस के नीचे एक बकरी का बच्चा आ गया, यहां क्षुल्लक जी का करुणा से दयार्द्र हदय णमोकार मंत्र को जपने लगा, लगता था प्राण पखेरू उड़ गये होंगे पर नहीं, वह बच्चा तो सामने से घूसा और दोनों चक्को के अंतराल से छलांग लगाकर निकल गया क्योंकि उसकी रक्षा की भावना भायी जा रही थी। उस बच्चे के जीवित निकलते ही क्षुल्लक जी की जान में जान आई, प्रसन्नता से चेहरा खिल गया तथा दृढ संकल्प शक्ति का संचार हो गया। कि अब मैं कभी शासकीय या अशासकीय डेली सर्विस बसों में नहीं बैठूंगा। और प्रतिज्ञा की, कि आज से पगयात्रा करूंगा और ईर्या समिति पूर्वक पदयात्रा शुरू हो गई, जो अभी तक अविराम जारी है।
धन्य है पूज्य गुरुवर जिनकी दृढ संकल्प शक्ति व करूणा भाव ने आज उन्हें ऊंचाइयों के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा दिया।
सन 1980 में परम पूज्य आचार्य श्री 108 सन्मति सागर जी महाराज विराजमान थे कटनी नगर में, तब अरविंद अहर्निश रहे सेवा में तत्पर, अरविंद के मन में उठ रही थी वैराग्य की हिलोरे, अब समय आया विहार का तो अरविंद भी गुरुवर का विहार कराने हेतु चल दिये, अरविंद का वैरागी मन एक पल भी नहीं रहना चाहता था संसार रूपी पिंजरे में, वह तो छटपटा रहा था आत्म स्वाधीनता पाने हेतु।अत: दीक्षा हेतु भावनाये रखी पूज्य गुरुवर के समक्ष। गुरुवर ने बड़े गौर से अरविंद को निहारा और बोले- बुढ़ार में देखेंगे। रास्ते में गुरुवार ने विभिन्न प्रकार से अरविंद की परीक्षा की और बुढार पहुंचते ही दीक्षा का मुहूर्त निकाल दिया और कहा- आज तुम्हें पेंट-शर्ट का त्याग करना है व धोती-दुपट्टा पहनना है, आज से तुम्हारा आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत रहेगा और कल दीक्षा होगी, फिर आचार्य श्री ने प्रश्न किया- तुम अपने माता-पिता की आज्ञा ले आये। विवेकी अरविंद ने विनय पूर्वक प्रति प्रश्न किया- पूज्य श्री, गुरुवर से बढ़कर जग में और कौन माता-पिता है।
आचार्य श्री- क्या तुम्हें उनकी नाराजगी का ख्याल नहीं है?
अरविंद- गुरुदेव!मोह कब राजी होने देगा और मोह की नाराजगी को देखकर मैं क्या करूंगा, अनंत भवों से मोह ने ही पछाड़ा है अब उस पर विजय पाना चाहता हूं।
आचार्य श्री- यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें दीक्षित अवस्था में ही ले गए तो क्या करोगे?
अरविंद- गुरूवर!ले जाना अवश्य ही उन पर निर्भर है पर अपनी प्रतिज्ञा में दृढ रहना तो मुझ पर निर्भर है। मैं आपका शिष्य हूं, धर्म को कलंकित नहीं करूंगा।
आचार्य श्री- तुम्हारे परिवार, नगर, कुटुम्ब व समाज को जवाब कौन देगा?
अरविंद- गुरुदेव!मोहि जन जवाबों से कहां संतुष्ट होते हैं, और कब उन्हें वैरागियों की बातें ही सुनाई पड़ती है।
पूज्य आचार्य श्री अरविंद के उत्तरों को सुन मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे उसकी दृढ़ता को देखकर।अत: उन्होंने पुनः पूछा- तुम्हें पता है जिस मार्ग पर तुम बढ़ रहे हो उस पर एक बार कदम बढ़ा दिया जाए तो वापस लौटना संभव नहीं होता?
अरविंद- हां गुरुदेव! आप सत्य कर रहे हैं, मैं अपने मोक्षपथ पर सदा दृढ़ रहूंगा किसी भी परिस्थिति में कदम पीछे ना हटाऊंगा।
आचार्य श्री- यह मोक्षमार्ग ककंड, पत्थरों और संकटों का मार्ग है?
अरविंद- गुरूवर,वैरागियों को मार्ग में ककंड और पत्थर भी फूल लगते हैं, विपत्ति, संपत्ति लगती है और संकट, आनंद का हेतु।
आचार्य श्री- इस मार्ग पर तुम्हें सर्दी-गर्मी भूख-प्यास की वेदना और डांस-मच्छर आदि के परिषहों को सहना पड़ेगा।
अरविंद- मोक्ष पथ इच्छुक वैरागी मोक्ष पथ की यात्रा में अपने प्राणों को हथेली पर लेकर चलता है, फिर वह छोटी-छोटी समस्याओं से प्रभावित नहीं होता,अंत: मैं सब कुछ सहर्ष सहन करूंगा।
पूज्य गुरुवर को अरविंद की बातें सुन दृढ विश्वास हो गया कि अब यह मानेगा नहीं, अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़-संकल्पित है। फिर गुरुवर ने पूछा- क्या तुमने कभी निर्जला उपवास किया है।
अरविंद- एकासन तो किया है पर उपवास नहीं।
आचार्य श्री- कल तुम्हारी दीक्षा है उपवास करना पड़ेगा।
अरविंद- हां गुरुवर, आपके आशीर्वाद से अवश्य कर लूंगा।
आचार्य श्री- तुम केशलोंच करोगे या बाल उस्तरे से बनवाओगे?
अरविंद- केशलोंच करुंगा।
आचार्य श्री- देखो, अभी तुम नये हो, तुम्हारी उम्र छोटी है, केशलोंच में कष्ट होगा और फिर क्षुल्लक अवस्था में उस्तरे से बाल बनवाना निषिद्ध भी नहीं है,अत: उस्तरे से बाल उतरवा सकते हो।
अरविंद- नहीं, गुरुवर मै केशलोंच ही करूंगा।
आचार्य श्री- अच्छा, तो कल तुम्हें कुशलोंच भी करना है और उपवास भी,अत: आज भोजन अच्छी तरह से करना अभी जाओ और मैंनाबाई से धोती-दुपट्टा लेकर पहन लो। अरविंद गुरुवर को नमोस्तु कर हर्षित मन से चल दिये मैनाबाई जी के कमरे की ओर।
घड़ी उतारते हुए बोले- बाई जी, आज से मैं घड़ी नहीं पहनूंगा, ये लो घड़ी तथा धोती-दुपट्टा दे दो मैंने पेंट-शर्ट का भी त्याग कर दिया है, और ये अलमारी की चाबी विजय आये तो उसे दे देना, आज मैं ब्रह्मचारी बन जाऊंगा और कल मेरी दीक्षा होगी। मैना बाई जी छोटे से अरविंद की बातों को सुन बहुत प्रसन्न हुई और थमा दिया अरविंद के हाथ में धोती दुपट्टा।
धन्य है छोटे से बालक की दृढ़ता जिसके वैराग्य से ओतप्रोत उत्तरो को सुन गुरुवर थे हर्षित, उन्होंने भांप लिया कि आज का यह होनहार बालक आगे चलकर बहुत नाम कमायेगा और करेगा धर्म की उन्नति। वहीं बालक आज हमारे पालक पूज्य गुरुदेव विराग सागर जी महाराज है।
मुक्ति-पथ पर चलने वाले पथिक का संयम, वैराग्य और ज्ञान ही पाथेय होता है। उस वैराग्य रूपी पाथेय को हृदय रूपी पोटली में बांधकर अरविंद चल दिए मुक्ति मंजिल की ओर।
ग्राम बुढार जिला-शहडोल सन् 1980 में वेश आया क्षुल्लक पूर्ण सागर का। अब समय का वैराग्य की परीक्षा देने का। प्रथम प्रश्न पत्र के रूप में पिताजी आ पहुंचे बोले- चल बेटा,घर चल, तेरी मां बहुत रोती है, तेरी याद में। तेरे वियोग में बीमार हो गई है। वैरागी क्षुल्लक जी बोले-पिताजी! मैं कोई डॉक्टर नहीं हूं जो मेरे जाने से मां ठीक हो जाएगी, वह मेरी याद में नहीं अपितु अपने मोह से रोती है। ऐसी तो मेरी अनेक भवो में अनेक माताएं हुई हैं उन्हीं को देखा तभी तो संसार में हूं परंतु अब मैं उधम करूंगा, मुक्ति पथ पर चलकर मुक्ति मंजिल को पाने का।
प्रथम परीक्षा में तो क्षुल्लक जी ने पूरे अंक प्राप्त किये अर्थात पिताजी को निरुत्तर कर दिया। द्वितीय प्रश्न-पत्र का समय आया अब की बार के प्रश्न पत्र का नमूना अलग था अबकी बार क्षुल्लक जी के पास फूफा जी आए पैसों से भरा सूटकेस लेकर, एकांत में क्षुल्लक जी को ले जाकर बोले-बेटा, देख यह रुपयों से भरा सूटकेस तेरे लिए है तू घर चल मैं तेरी सारी व्यवस्था बनाऊंगा। क्षुल्लक जी मुस्कुराये और बोले- अरे, इससे भी बहुमूल्य तीन-तीन रत्न मेरे पास है फिर इन नोटों का क्या मूल्य? एक ही क्या, नोटों से भरे आपके अनेक सूटकेस भी मेरे रत्न की कीमत नहीं चुका सकते। इस दूसरे प्रश्न पत्र में भी क्षुल्लक जी अव्वल नंबर पर रहे। यह है अकाट्य श्रद्धा वह दृढ़ता जिसने अरविंद को मुक्ति पथ का अध्येता, महान साधक बना दिया।
सच्चे साधकों की पहचान होती है उनकी वैराग्य शक्ति और संयम के प्रति दृढ़ता से, जिसके आगे झुकना पड़ता है सारी सृष्टि को, वैरागी को कौन बांध पाया है, कौन उसकी राहों को मोड़ सका है, किसने हवाओं को बांधा है, किसने सुमेरु को कम्पित किया है, सब जानते हुए भी रागी जन वैरागी जनों का रास्ता रोकते हैं। झूठे रिश्तों की सौगातें देकर उनको बांधने की व्यर्थ कोशिशें करते हैं और यह कोई आज की बात नहीं अनादि-काल से यही हुआ है, आज भी होता आ रहा है।
वैरागी को रागियों से जूझना पड़ता है। पर अंत में होता क्या है जानना चाहते हैं तो पढिये पूज्य गणाचार्य श्री विराग सागर जी महाराज के जीवन में हुए रागी जनों से संघर्ष की रोचक शिक्षाप्रद सच्ची कहानी | माता-पिता का कोमल हृदय, हर पल, हर स्थान पर खोजता है अपनी वैरागी लाल को।खोज जारी थी पिता कपूरचंद जी की, सन् 1980 बुढार की गलियों में, बहुत समझाया, लोभ- मोह दिखाया परंतु दृढ वैरागी क्षुल्लक जी कहां हाथ आने वाले थे। 1 दिन प्रातः क्षुल्लक पूर्ण सागर जी अपने गुरुवर के साथ जा रहे थे शौच हेतु और गुरुवर के बगल से ही कपूरचंद जी के मन में एक तरकीब आयी और बोले-देखो तो इन चार दिन के क्षुल्लक को।दीक्षा लेते तो देर नहीं हुई और गुरु की बराबरी करने लगा, क्षुल्लक जी ने सुना तो सोचा हां, बात तो सही है, और वह पीछे-पीछे चलने लगे। पर ये क्या मोही पिता ने शीघ्रता से बेटे का हाथ पकड़ा और बोले- चल, घर चल। क्षुल्लक जी बोले- नहीं जाऊंगा। कैसे नहीं जायेगा, रस्सी से बांधकर ट्रेन में डालकर ले जाऊंगा। ठीक कहा आपने- आप कुछ भी कर सकते हैं पर प्रतिज्ञा व नियम तो मेरे हैं- मैं अन्न जल का त्याग कर दूंगा। आचार्य श्री, सब कुछ सुन रहे थे, अत: बोले-देखो वह बहुत मजबूत है, अपनी साधना से डिगने वाला नहीं फिर यदि ले जाना चाहते हो तो अच्छे से ले जाओ रास्ते में खींचा-तानी करना उचित नहीं।
बेचारे कपूरचन्द जी क्या करते, हाथ छोड़ दिया और वहां से वापस आए पर मोह क्या-क्या नहीं करवाता है। एक ही धुन थी कैसे भी हो बेटे को ले जाऊंगा। मैंने दीक्षा की इजाजत तो दी नहीं थी। आचार्य श्री ने कैसे मेरे लाल को दीक्षा दे दी। मोह के कारण पूज्य गुरुवर के प्रति भी उनका आक्रोश भडका और वे बिना विचारे की किनके प्रति क्या करने जा रहे हैं, फौरन पुत्र के मोह से पहुंचे पुलिस थाने रिपोर्ट लिखाने,जब सारी वार्ता सुनायी तो पुलिस इंस्पेक्टर ने चरण छू लिये कपूरचंद जी के और बोले- अरे आप तो महान है।आप तो पूज्य हो गये, जो इतने महान पुत्र को आपने जन्म दिया।जहां आज के पाश्चात्य युग में बच्चे धर्म से कतराते हैं चोरी, जुआ, शराब आदि व्यसनो में फंसते हैं, वहां आपका बच्चा धर्मपथ पर चलने तैयार हुआ है, आपको तो ऐसे पुत्र को गर्व होना चाहिए।
कपूरचंद जी उनकी बातों से द्रवित हो आंसू बहाते हुए लौटे एक हारे सिपाही की तरह। क्योंकि वे अपने पुत्र की वैराग्य शक्ति की दृढ़ता को देख चुके थे। रागी पिता हारे और वैरागी पुत्र विजयी हुआ।
1980 में दीक्षा के पश्चात बुढार से अकलतरा के विहार में अचानक मार्ग के अभयारण्य के रास्ते में लगभग 50 कदम की दूरी पर, सम्मुख ही पांच जंगली भैंसे दौड़े आ रहे थे, चूँकि क्षुल्लक जी ने प्रथम बार देखा था तो पालतू भैंसे ही समझ रहे थे, पर पूज्य आचार्य श्री की पैनीदृष्टि ने उनकी आंखों से पढ़ लिया कि ये जंगली भैंसे है अत: उसी समय कहा- पूर्णसागर नियम सल्लेखना का व्रत लो तो भोले-भाले क्षुल्लक जी ने कहा यह क्या होता है तो पूज्य आचार्य श्री ने कहा- चारों प्रकार का आहार का त्याग कर दो, उन्होंने कहा ठीक तथा धैर्यता का पाठ-सिखाते हुए कहा- घबराना नहीं, क्योंकि क्षुल्लक जी नए दीक्षित थे, पर वे तो अपूर्व साहसी थे। पूज्य आचार्य श्री ने कहा- आत्मा, धर्म की उत्तम शरण लो, णमोकार का जाप करते चलो, यही आध्यात्मिक वीरता- पराक्रम के क्षण है तो उन्होंने कहा- हम वीर, मार्ग से पीछे नहीं हटते। जो एक व्यक्ति था वह भी अपनी साइकिल से पीछे के पीछे खिसक गया । एक व्यक्ति था उसने कहा आप लोग पेड़ पर चढ़ जाओ । और बड़ा आश्चर्य कहें, पूज्य आचार्य श्री की तपस्या का, पुण्य का प्रताप की वे भैंसे चौकड़ी दौड़ से रोड से नीचे उतरकर संघ की ओर देख रहे थे। पूज्य आचार्य श्री ने पुनः सावधान किया की ये पीछे से भी वार कर सकते हैं। पर वे तो जंगल की ओर बढ़ते गए पर रुक-रुक कर पीछे मुड़कर देखते रहे। तभी से क्षुल्लक जी को एक नया पाठ अपने पूज्य गुरुवर से मिला की संघर्ष-विपत्ति में घबराना नहीं चाहिए । वीरता से सामना करना चाहिए । उनका यह पाठ उन्हे आज तक याद है वे हमेशा विपत्ति में उसे याद रखते हैं।
गुरु चरणानुगामी ही पाता है सच्चे मोक्षपथ को और बनता है श्रेष्ठ आचरणवान और प्रभावशाली। मोक्षपथ की राहों पर अग्रसर होते हुए क्षुल्लक पूर्णसागर जी, पूज्य गुरुवर आचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज के साथ सन 1980 में बढ़ रहे थे बुढार से अकलतरा की ओर, गर्मी की भीषण तपन, जँहा सूर्य देवता बिखेर रहे था अपनी किरणों को चहुँ ओर, ऊपर से विहार भी अधिक, क्षुल्लक पूर्णसागर जी तो गुरुवर के पीछे-पीछे चले जा रहे थे परंतु अन्य साधु जिनकी हालत चलते-चलते कुछ नरम हो गई थी, तलाश में थे छोटे रास्ते के। उपाय निकाला और short cut के चक्कर में अनजान रास्ते पर बढ़ गये, पर ये क्या हुआ वे तो रास्ता भटक गये। पूज्य आचार्य श्री ने पहले ही कहा था –
“मार्ग चलना स्वच्छ सही
चाहे तकलीफ हो या देर भली”
अतः गुरुवाणी के अनुसार तो ये होना ही था, पूज्य आचार्य श्री व क्षुल्लक जी सीधे रास्ते पर ही चल रहे थे, ठीक समय पर मुकाम पर पहुंच गए, आहार चर्या भी संपन्न हो गई परंतु अभी भी कोई नहीं पहुंचा, गुरुवर ने कुछ श्रावको को साधुओं को खोजने भेजा, जैसे-तैसे सब ठिकाने पर पहुंचे । चले थे short cut पर वह बन गया long cut ।
सभी शिष्य बोल उठे – गुरुवर, आपने ठीक कहा था सीधे रास्ते पर ही चलना चाहिए। क्योंकि क्षुल्लक जी ने पकड़ रखे थे गुरुचरण अतः शीघ्र मंजिल को पा लिया । क्षुल्लक जी की आज्ञाशीलता से मिला सभी को एक पाठ।
क्षुल्लक दीक्षा लेने के उपरांत पुर्ण सागर जी सलंग्न थे आत्म साधना में, बात उस समय की है जब विहार चल रहा था बुढार से अकलतरा की ओर सन 1980 में । परम पूज्य तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मति सागर जी महाराज के पास अध्ययन करते थे । गुरुवर जो भी पढ़ाते वह उन्हें याद करके सुनाना पड़ता था, प्रारंभिक अवस्था थी, दैनिक समस्त क्रियाओं को करना साथ ही विहार भी करना, संपूर्ण क्रियाओं का समय निर्धारित अब पढ़ाई पूरी कैसे करूं, कभी-कभी समय कमी के कारण याद नहीं कर पाते, आचार्य श्री प्रश्न पूछते तो कोई उत्तर नहीं,क्षुल्लक जी को बहुत फीका लगता, ऐसा न हो गुरुवर यह सोचे कि यह क्षुल्लक पढ़ता लिखता नहीं, सोता रहता होगा, गुरु की वात्सल्य दृष्टि में कहीं अंतर न आ जाए, अत: क्षुल्लक जी ने निकाली एक तरकीब । उन्होंने एक पेज पर गाथा व सूत्र लिख लिये, कागज को तो विहार में भी लेकर चला जा सकता है।
परंतु जब गुरुदेव को पता चला तो क्षुल्लक जी को पास बुलाया-पूर्ण सागर, यहाॅ आओ। जी गुरुदेव! क्या आपने गाथा सूत्र वगैरह कागज पर लिखे हैं, हां गुरुदेव, समयाभाव के कारण याद करके नही सुना पाता था इसलिए लिख लिया । तब पूज्य आचार्य श्री समझाते हुए बोले- यह कागज तुम कब तक अपने पास रखोगे अधिक से अधिक तब तक, जब तक याद नहीं हुआ, जब याद हो जाएगा तो अलग कर दोगे और यदि मंदिर में भी रख दोगे तो कोई व्यक्ति फालतू कागज समझ कर फेंक देगा, श्रुत की बड़ी भारी अविनय होगी, एक गाथा क्या, एक अक्षर भी श्रुत ही है, श्रुत की विनय करने से ही विद्या आती है, जितना समय लिखने में लगता है, उतना याद करने में लगाओगे तो दिमाग में लिख जायेगा। कागज पर लिखा तो मिट सकता है, खो सकता है, कागज फट सकता है परंतु दिमाग मे जो लिख जाता है वह चिर स्थायी हो जाता है।तथा साधुओ का तो एक- एक अक्षर महत्वशाली होता है साधु ही जिनवाणी के संरक्षक होते हैं, अतः श्रुत की विनय का सदैव ध्यान रखना चाहिए।
गुरु मुख से प्राप्त शिक्षा ही आज पूज्य गुरु आचार्य श्री के जीवन की महान उपलब्धियों का प्रबल सेतु वर हेतु है। क्षुल्लक पूर्ण सागर जी सदैव गुरु के आज्ञानुवर्ती रहे, परिणाम स्वरूप उन्नति के उतंग शिखर पर विराजमान है। तथा हमें भी शिक्षा मिली कि-
गुरु सीख जो मन में धारे,
मंजिल उसको स्वयं पुकारे।
भाषण कर्ता विद्वान सुंदर वाणी से श्रोताओं का मन मोह लेते हैं किंतु शास्त्र के मर्म के अनुसार आचरण न होने से वे सिर्फ श्रोता की तरह है। जिसमें शास्त्र के मर्म को जीवन में उतारा है वहीं ज्ञानी पंडित है, उसी का जीवन अलंकृत है। इसलिए, हे आत्मन्! तू अधिक पढ़ने की अपेक्षा थोड़ा पढ किन्तु जो भी पढ़ उसे अच्छी तरह हदयंगत कर।
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Sr.No | Sansmaran Details | Link | Details |
1. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran1 | Sansmaran 1 to 10 | 1 to 10 Sansmaran |
2. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran2 | Sansmaran 11 to 20 | 11 to 20 Sansmaran |
3. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran3 | Sansmaran 21 to 30 | 21` to 30 Sansmaran |
4. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran4 | Sansmaran 31 to 40 | 31 to 40 Sansmaran |
5. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran5 | Sansamaran 41 to 50 | 41 to 50 Sansmaran |
6. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran6 | Sansmaran 51 to 60 | 51 to 60 Sansmaran |
7. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran7 | Sansmaran 61 to 71 | 61 to 71 Sansmaran |
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