दूसरे के मनोभावों को सहजता से समझने वाले विशाल हृदय क्षुल्लक पूर्ण सागर जी सन् 1982 में विहार करते हुऐ पहुँचे परभणी (महाराष्ट्र)। समय था आहार चर्या का, लोगों के मन में श्री श्रद्धा-भक्ति परंतु पड़गाहन आदि क्रियाओं से अनभिज्ञ थे। क्षुल्लक जी ने मन्दिर से मुद्रा धारण की और निकल पड़े आहार चर्या को, लोगों में हलचल प्रारंभ हुई कुछ लोग बोले – म्हण म्हण, काही तरी म्हण, महाराज गेले पड़गाहन क्रिया से अनजान । चौके वाले बोले – मी का म्हणू तुम्ही सांगा, मला काही येत र नाहीं वे अपनी मराठी भाषा में बोल रहे थे हम महाराज को कैसे पड़गाहें हमें कुछ आता नहीं।
क्षुल्लक जी ने लगाया एक चक्कर, पुनः लौटे परन्तु किसी को पड़गाहन की विधि पता ही नहीं, फिर क्या, क्षुल्लक जी वापस चल दिये मन्दिर की ओर, पर ये क्या सारे श्रावक दौड़ पड़े क्षुल्लक जी की ओर और घेर लिया क्षुल्लक जी को तथा जोर-जोर से रो पड़े |बोले महाराज! आम्हाला काही समझत नाहीं, आमचे दोष माफ करा, मला क्षमा करा, जर तुमचा उपवास झाला तर सगळेच श्रावक उपवास करतील।
सरल हृदयी क्षुल्लक जी का मन कुछ पिघला, उनकी सरलता वे भद्रता को देखे और पुनः एक राउण्ड लिया, तो क्या देखा-एक महिला हाथ में श्रीफल लेकर आयी बोली महाराज इच्छामि, भोजन शाळेत चला आहार ग्रहण करा फिर क्या था क्षुल्लक जी तुरंत उससे पडग गये, क्षुल्लक जी का पड़गाहन होते ही सभी श्रावकों में आनंद की लहर दौड़ गई। क्षुल्लक जी ने शुद्धि बुलवाई और हाथ के इशारे से देते जाते थे सांत्वना ताकि वे श्रावक घबरायें न। अब नंबर था थाली दिखाने का, वे भोले-भाले श्रावक हण्डे के हण्डे उठाकर ले आये, दिखाया गया दाल का हण्डा, क्षुल्लक जी मन में मुस्कुराये, फिर क्रमशः भात व रोटी दिखाई गई। क्षुल्लक जी ने उनकी सरलता को ध्यान में रखते हुए जैसा आहार दिया वैसा ही समता व प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण किया, आहार निर्विघ्न संपन्न हो गया, सभी श्रावकों के चेहरे प्रसन्नता से खिल गये। आज की इस समस्या से क्षुल्लक जी बहुत प्रभावित हुए, मन में सोचा – ऐसे स्थानों पर अवश्य रुकना चाहिए तथा सम्यक् प्रकार से ज्ञान भी देना चाहिए, फिर क्या था क्षुल्लक ने प्रारंभ की कक्षाएँ, श्रावकों पर आवश्यक कर्तव्यों की उस कक्षा का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि समाज के अबला वृद्ध सभी जन कुछ ही दिनों में आहार, पूजन, स्वाध्याय आदि में पूर्णतः निष्णात हो गये। क्षुल्लक जी ने अपने कष्ट व असुविधा की परवाह न करते हुए लोगों में धर्म धारा प्रवाहित की उनमें सम्यग्ज्ञान की ज्योत जलाई। झलक मिली गुरुवर की क्षुल्लक अवस्था में निस्वार्थ धर्मपरायणता की।
गुणग्राही की दृष्टि सदा सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ के गुणों पर ही टिकी रहती है। प्रसंग है सन् 1983 का, गुण-ग्राहकता के भाव को मन में संजोने वाले क्षुल्लक पूर्ण सागर जी के गुरु आज्ञा से कदम बढ़ रहे थे – तीर्थक्षेत्र पावापुर की ओर। प्रकृति का वह मनोहारी दृश्य जिसकी रमणीयता अकथनीय थी, शौच के पश्चात् किसी खेत की मेढ़ से गुजर रहे थे, तब जल मंदिर की शोभा का अवलोकन करते हुए तथा तालाबों में पड़ रहे जिनबिम्बों का दर्शन करते हुए क्षुल्लक पूर्ण सागर जी शीघ्रता से आगे बढ़ रहे थे। अचानक किसी आहट को पाकर सावधान हुए देखा तो सामने फण फैलाए बड़ा भारी सर्प है, साथ चल रहे श्रावक ने क्षुल्लक जी को झटके से खींचा। सर्प ने जोर से फण जमीन पर पटका और उचट कर खेत में कूद पड़ा। कई बार लौट-2 कर देखता रहा तब श्रावक ने कहा महाराज श्री! आप एक कदम और आगे बढ़ाते तो निश्चित उस सर्प के क्रोध का भाजन बनना पड़ता। निर्भीक, निडर क्षुल्लक जी बोले –अरे, तुम्हें पता नहीं वह सर्प तो मुझे काटने नहीं अपितु शिक्षा देने आया था कि क्षुल्लक जी ईर्या समिति से चलिये। यहाँ वहाँ देखते हुए नहीं चलना चाहिए और मंदिर आदि यदि देखना ही है तो चलते-चलते नहीं खड़े होकर देखना चाहिए। इधर-उधर देखते हुए चलोगे तो अहिंसा व्रत में दोष लगेगा तथा कर्म रूपी सर्प डसने के लिए तैयार ही है। उसने मुझे अच्छी और सही दिशा दी है अत: वह तो मेरा बड़ा उपकारी था । जो मुझे मेरे कर्तव्य का भान करा कर चला गया। यह है गुण ग्राहक दृष्टि, इसी गुण ग्राहकता के कारण ही पूज्य गुरुवर महानता को प्राप्त हुए हैं।
स्वास्थ्य लाभ होते ही अब क्षुल्लक पूर्ण सागर जी के मन में भावना थी, ली हुई प्रतिज्ञा को पूर्ण करने की, अत: तीर्थयात्रा करने के उपरान्त क्षुल्लक जी पहुँचे कचनेर जी सन् 1983 में वहाँ विराजे थे परम पूज्य निमित्त ज्ञानी आचार्य श्री 108 विमल सागर जी महाराज हालाँकि क्षुल्लक जी मात्र दर्शनार्थ ही पूज्य आचार्य श्री के पास आये थे परन्तु जैसे ही आचार्य श्री के पास पहुँचे नमोस्तु किया, और गुरुवर ने न जाने क्या देखा क्षुल्लक जी में और अपने निमित्त ज्ञान के बल से बोले – अरे, तेरी दीक्षा तो मेरे ही हाथों होनी है, सुनकर क्षुल्लक जी को कुछ आश्चर्य हुआ, क्षुल्लक जी ने यह सुन रखा था कि पूज्य आचार्य श्री तंत्र-मंत्र करते हैं अतः मन में सोचा था कि चलकर देखना चाहिए, क्षुल्लक जी पूज्य आचार्य श्री के ही कमरे में रुके थे, पूज्य आचार्य श्री थे एक बड़े साधक, अत: रात्रि 11.00 बजे से उठकर ध्यान, जाप, स्वाध्याय आदि क्रियाओं में रत हो जाते थे।
आज क्षुल्लक जी को नींद नहीं आ रही थी, मन में चिंता थी | प्रतिज्ञा शीघ्र पूर्ण करने की, इन्हीं विचारों में डूबे थे कि अचानक कुछ आवाज आयी खन-खन की, ध्यान दिया तो ऐसा लगा जैसे कोई पैसे गिन रहा हो, आवाज आ रही थी पूज्य आचार्य श्री के पास से, आचार्य श्री जाग रहे थे, क्षुल्लक जी के मन में संकल्प-विकल्प उठने लगे, सोचा-लोग कहते हैं कि आचार्य श्री तंत्र-मंत्र करते हैं, अत: दिन-भर-तंत्र-मंत्र और जो पैसे आये होगे उन्हें रात्रि में बैठकर गिनते होंगे, सोचा, चलकर देखना चाहिए। जैसे ही क्षुल्लक जी लघुशंका जाने की आज्ञा लेने के बहाने आचार्य श्री के पास पहुँचे तो देखते ही स्तब्ध रह गये यह क्या, आचार्य श्री तो मणियों मोतियों की विभिन्न प्रकार की मालाओं से जाप कर रहे थे और उन्हीं के हिलने तथा सामने रखी चौकी से टकराने के कारण खनखन की आवाज आ रही थी। क्षुल्लक जी को बहुत पश्चाताप हो रहा था, सारी रात क्षुल्लक जी सो नहीं सके, मन में दु:ख था कि एक महान साधक के विषय में मैंने ऐसे खोटे विचार किये, पूज्य गुरुवर के प्रति अत्यन्त श्रद्धा उमड़ पड़ी तथा निर्णय किया अब दीक्षा यहीं लँगा तथा इन्हीं आचार्य भगवन् को अपना गुरु बनाऊँगा।
प्रातः काल होते ही पूज्य आचार्य श्री को रात्रि की सारी घटना सुनाई तथा पश्चाताप के अश्रुओं से भीगे नेत्रों से हाथ जोड़कर क्षमा याचना की तथा भाव व्यक्त किये दीक्षा के, कोमल हृदयी गुरुवर शिष्य की निश्छल वृत्ति को देख बहुत प्रसन्न हुए तथा मन में विचार रहे थे कि सच, निश्छल-सरल-सहज वृत्ति ही सफलता की सीढ़ी होती है। इसकी निश्छल वृत्ति ही इसे ले जायेगी ऊँचाइयों के शिखर पर।
स्वास्थ्य लाभ होते ही पुण्य घड़ियाँ आई मुनि दीक्षा की और प.पू. आ. श्री विमल सागर जी ने जब अपने निमित्तज्ञान से भविष्यवाणी कर दी कि तेरी दीक्षा मेरे द्वारा ही होगी तथा भावना भी ऐसी बलवती हुई पू. क्षुल्लक पूर्णसागर जी की। चूँकि क्षुल्लक जी का स्वास्थ्य नाजुक था इसलिए उन्होंने पू.आ. श्री के समक्ष भावना रखी कि आप बहुत विहार करते हैं, पर मुझसे यह संभव नहीं। तो वे बोले- मुझे ज्ञात है अत: तुम दो लोग सदैव साथ रहना, एकलविहारी मत होना, कुछ समय के बाद पृथक विहार कर लेना। यह बात बन गई, फिर उन्होंने कहा- एक बात और है। वे बोले- वह क्या? क्षुल्लक जी ने कहा कि संघ में शूद्रजल त्याग करवाया जाता है पर मेरी भावना रहती है कि नई पीढ़ी भी धर्म से जुड़े, धर्म-क्रियायें सीखे परन्तु यह तभी संभव होगा कि जब आप मुझे शूद्र जल त्याग के स्थान पर रात्रि भोजन आदि का त्याग कराकर आहार लेने की अनुमति दे। पू. गुरुवर ने सुना तो मुस्करा गये- बोले यह नहीं हो सकता क्योंकि यह तो पू.आ. महावीर कीर्ति महाराज की परम्परा है गुरु आज्ञा है, उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता। क्षुल्लक जी ने कहा पू.आ. श्री मेरा शुरु से सिद्धान्त रहा है कि मैं कभी गुरु से छल नहीं करूँगा, इसलिए मैंने अपनी प्रार्थना आप श्री के चरणों में प्रकट कर दी। 2-3 दिन हो गये, पर बात नहीं बनी। तब चित्राबाई ने उपाध्याय श्री भरत सागर को मनाया कहा कि देखो वह छोटा क्षुल्लक सही तो कह रहा है शूद्र जल त्याग के कारण चौके में मात्र बूढ़े-पुराने लोग रहते हैं ऐसा रहा तो नई पीढ़ी तो धर्म संस्कारों को भूलती जाएगी। और फिर वह झूठ तो नहीं बोल रहा, कुछ लोग तो यहाँ से नियम ले लेते और बाहर जाकर अपने अनुसार चलने लगते हैं। अब तो पू. उपाध्याय श्री का भी शोर्स लग गया। प्रातः चित्राबाई और उपाध्याय श्री ने पू. आ. श्री से कहा कि हमें क्षुल्लक जी की वार्ता पर विचार करना चाहिए। तो बोले- क्या विचार करना चाहिए, ऐसे तो हमारी गुरु परम्परा ही बिगड़ जाएगी, आज एक को छूट दूंगा तो दूसरे भी अनुसरण करने लगेंगे। उपाध्याय श्री बोले- कोई नहीं करेंगे और फिर क्षुल्लक श्री जब तक संघ में रहेंगे तो वे भी इसी परम्परा का पालन करेंगे, मात्र उन्हें बाहर की छूट है। न मालूम क्षुल्लक जी का क्या तीव्र पुण्योदय आया कि बिगड़ी बात बन गई। पू.आ. श्री सहमत हो गये और दीक्षा पक्की। दीक्षा हुई और कुछ समय बाद द्वय मुनियों का अर्थात् मुनिश्री सिद्धांत सागर जी एवं मुनि श्री विराग सागर जी का पृथक् विहार हो गया। जब कुछ वर्षों बाद आ. श्री विमलसागर जी से पू. गुरुवर का मिलन हुआ तब तक संघ में 8-10 पिच्छिधारी साधु तथा 4-5 ब्रह्मचारी भईया जुड़ गये थे। पू.आ. श्री विमलसागर जी ने छोटे-छोटे उम्र वाले साधुओं को देखा तो अत्यधिक प्रसन्न हुये बोले-विराग सागर जी तुमने तो बड़ा अच्छा काम किया ये कि छोटे-छोटे नवयुवकों को भी आत्मकल्याण के पथ पर लगा दिया। तब पू. गुरुवर बोले- पू. आ. श्री यह सब आपके आशीर्वाद तथा आज्ञा का फल है। यदि आप उस समय रात्रि भोजन त्याग की आज्ञा न देते तो यह संभव नहीं होता। यह सब 1 माह रात्रि भोजन त्याग का चमत्कार है कि ये धीरे-धीरे महानव्रतों के धारण की भावना बना सके।
पू.आ. श्री विमलसागर जी का सहज ही पू. गुरुवर के सिर पर आशीष भरा वरदहस्त रखा गया वे बोले, तुम अपनी सरलता, विनय, च्या, कृतज्ञता आदि गुणों के कारण खूब धर्मप्रभावना करोगे। भविष्य में वही आशीर्वाद फलीभूत है कि पू. गुरुवर स्व के साथ परकल्याण धर्मप्रभावना में संलग्न है।
औरंगाबाद के गरिमा मंडित इतिहास में वह पावन दिवस था 9 दिसम्बर 1983 का, जबकि निमित्त ज्ञानी गुरुदेव आचार्य श्री 108 विमल सागर जी महाराज ने अल्पवयी क्षुल्लक पूर्ण सागर जी महाराज को प्रदान की थी दिगंबर मुनि दीक्षा, हजारों की संख्या में श्रावकगण देख रहे थे इस पावन पुनीत दृश्य को, तभी गुरुवर विमल सागर जी महाराज ने नवयुवा दीक्षित मुनि के प्रति घोषणा करते हुए कहा –
“आज से ये मुनि श्री 108 विराग सागर जी महाराज के नाम से 46 विख्यात होंगे, इनकी चर्या देशभर में प्रभाव जमायेगी उन्हें औरंगाबाद की पवित्र भूमि सदा संबल देगी और आज से औरंगाबाद की सीमाएं मिलकर एक समग्र भारत वर्ष में परिणत हो जावेंगी। जैसा मैं आज इन युवा मुनि को देख रहा हूँ ये इसी तरह प्रखर रहेंगे और 15-20 वर्षों के बाद मुझसे भी अधिक ख्याति प्राप्त करेंगे। ये अपनी सरलता और विनयशीलता के कारण अपने समकालीन समस्या दिगंबर मुनियों की तुलना में अधिक यश पायेंगे। ऐसे शिष्य को दीक्षा देने से मुझे स्वत: जो खुशी हुई है वह वर्णनातीत है। मेरा आशीर्वाद आज तो इनके साथ है ही और मेरे न होने पर भी रहेगा।”
गुरु मुख से निकले ये आशीष वचन शिष्य के जीवन में बने अमोघ मंत्र। धन्य है वह शिष्य जिसने पाया गुरुवर के वात्सल्य और विश्वास को। स्वयं गुरु की वात्सल्य छाया जिसे मिल गयी हो उसे उन्नति का उच्चतम शिखर भी प्राप्त हो जाए तो क्या आश्चर्य ?
घटना है सन् 1984 की जब पूज्य आचार्य श्री 108 विमल सागर जी महाराज गर्मी की भीषण तपन में विहार कर रहे थे पावागढ़ की ओर, प्रतिदिन तेज धूप और गर्म हवा की लपटें सभी को बैचेन कर रही थी परन्तु गुरु आशीष की शीतल छाया में सभी आगे बढ़ते जा रहे थे, उस समय संघ में थे नव दीक्षित मुनि विराग सागर जी। आप पहले से ही अस्वस्थ थे परन्तु गुरु चरणों के सानिध्य ने एक शक्ति का संचार किया और वे खुशी-खुशी अपने गुरु के साथ चल रहे थे। एक दिन सुबह का विहार हुआ समग्र संघ यथोचित स्थान पर आहार चर्या हेतु रुका, सभी का आहार प्रारंभ हुआ पर मुनि श्री को भीषण गर्मी में शारीरिक थकान तो थी ही ऊपर से शुरु में ही अंतराय हो गया, वे अपने कमरे में आ गये, विहार का श्रम और आहार न होने से कमजोरी लग रही थी अतः मैं थोड़ी देर विश्राम कर उठ जाऊँगा ऐसा सोचकर लेट गये, यहाँ सभी का आहार भी हो गया सामायिक भी हो गयी और सभी दोपहर के स्वाध्याय में पहुँच गये, आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज ने पूछा – क्या बात है विराग सागर जी नहीं आये, जाकर देखा तो मुनि श्री लेटे थे, काफी हिलाया आवाज दी, पर कोई संकेत नहीं, फिर देखा तो शरीर तेज बुखार के ताप से तप रहा है, उन्हें कोई सुध नहीं थी। सूचना भेजी गयी गुरुवर के पास।
पूज्य निमित्त ज्ञानी गुरुवर ने कहा- कुछ नहीं, उन्हें लू लग गई है अत: कच्चे आम को उबालकर हाथ-पैरों में मल दो। अत: ऐसा ही किया गया। दोपहर के स्वाध्याय के बाद गुरु जी चले शिष्य को देखने साथ में सारा संघ, चमत्कार हुआ – जैसे ही उन्होंने आवाज लगाई, विराग सागर क्या हो गया? क्या विहार नहीं करना, गुरुवर के वात्सल्य पूरित शब्द जैसे ही मुनि श्री के कानों में पड़े वे तुरन्त उठ कर बैठ गये और देखा तो सामने गुरुवर व सारा संघ, क्या बात है? मनि श्री को कमजोरी लग रही थी, आँखें एकदम लाल थीं पर घड़ी में साढ़े चार बज गये थे, विहार करना था। स्वास्थ्य ठीक नहीं, तेज बुखार है तो ठीक है विराग सागर जी धीरे- धीरे बाद में आ जायेंगे. गुरुवर ने कहा। मुनि श्री ने जैसे ही सुना तो बोले नहीं आचार्य श्री, आपके स्नेह भरे शब्दों को सुनकर तो मेरा आधा स्वास्थ्य ठीक हो गया अत: आपके साथ ही विहार करूँगा, आचार्य श्री बोले – ठीक है, आज हम कम विहार करेंगे। मुनि श्री उस तेज बुखार में भी, भीषण गर्मी में पूज्य गुरुवर के साथ चल दिये, शरीर कमजोर था अत: उपाध्याय भरत सागर जी के हाथ का सहारा लेकर चले और पूरा विहार किया। पूज्य मुनि श्री को पूर्ण विश्वास था कि गुरु चरणों में तथा वात्सल्यमयी आशीष की छाया में असीम शक्ति होती है और उसी दृढ़ विश्वास ने ही मुनि श्री को प्रदान की अपूर्व शक्ति। मुनि श्री के इसी दृढ़ विश्वास और साहस ने दिया दूना, रात चौगुना साधना को वृद्धिंगत किया और वे आगे चलकर बने एक महान आचार्य।
पूज्य गुरुवर थे जब मुनि अवस्था में, पावागढ़ की ओर ही विहार चल रहा था सन् 1984 में | तब एक विद्वान आया पूज्य मुनि श्री की गुरु के प्रति श्रद्धा, भक्ति व समर्पण की परीक्षा करने। सर्वप्रथम उसने मुनि श्री के चरणों में नमोस्तु किया | फिर प्रशंसा के पुल बांधने लगा, मुनि श्री की प्रशंसा करने के उपरान्त उसने प्रारंभ की पूज्य आचार्य विमल सागर जी महाराज की निंदा । मुनि श्री कब सहने वाले थे, क्योंकि आस्थावान के लिए तो गोविन्द से बड़े गुरु होते हैं। गुरु की निंदा सुनना तो परमात्मा की निंदा सुनना है, शास्त्रों में गुरु निंदा सुनने के लिए नहीं अपितु गुरूपदेश सुनने के लिए मिले हैं फिर जो सदा गुरु भक्ति में निरत रहते हैं वे मुनि गुरु की निंदा सह भी कैसे सकते थे | अत: बोल पड़े –चुप रहिये, वे हमारे गुरु महाराज हैं और उनके बारे में बुरा कहने का आपको कोई अधिकार नहीं, जौंक नहीं हंस बनो। खून नहीं, दूध पीने की आदत डालो। गुरबीला गोबर की डली मुख से बाहर निकाले तो पंकज के पराग का रसास्वादन हो सकता है, अनास्था की डली मुँह से निकालते ही श्रद्धा से, धर्म के रस का आस्वादन होगा, छिद्रान्वेषी से गुणान्वेषी बनने पर ही सत्संग में गुण दिखेंगे और गुणों की प्राप्ति का सफल पुरुषार्थ हो पायेगा, जैसी तुम्हारी दृष्टि होगी, वैसी ही सृष्टि तुम्हें दिखेगी। संशय प्रवृत्ति को छोड़ निशंक बनने पर ही गुणीजनों को देख हृदय में प्रेम उमड़ेगा और प्रेम परमात्मा को पाने का साधन है।
मुनिवर के उपरोक्त वचन सुनते ही उन विद्वान के कान खड़े हो गये और अंदर आस्था का दीप प्रज्वलित हो गया मुनि श्री की परीक्षा लेने का जो दुस्साहस किया उसके लिए माँगी क्षमा और बोले -जो जग के परीक्षक हैं ऐसे निग्रंथ दिगंबर साधु की मैं परीक्षा करने जा रहा था, जरूर मेरी श्रद्धा में खोट थी, जो मैं टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वरूप भगवान आत्मा पर ही संदेह कर रहा था।
इस प्रकार वे पंडित जी मुनि श्री के वास्तविक गुरुभक्ति को जानकर उनके अनन्य भक्तों में से एक गुरु भक्त बने।
पूज्य गुरुवर की इस घटना से आज समस्त शिष्य समूह को ही नहीं अपितु समग्र गुरुभक्त समाज को भी जीवंत शिक्षा मिलती है कि हमें कभी गुरु निंदा नहीं सुननी चाहिए क्योंकि गुरु के ही सम्मान में शिष्य का सम्मान समाहित होता है। शिष्य के जीवन में गुरु ही परमात्मा का स्वरूप होते हैं। सच, यही लक्षण होते हैं जिनसे शिष्यत्व की सच्ची पहचान होती है। गुरु की निंदा के साथ मिली स्वप्रशंसा प्रतिष्ठा चार क्षण की होती है और ऐसी प्रशंसा से सन्तुष्ट होने वाले शिष्य स्वार्थी और उनकी भक्ति बगुला भक्ति कहलाती है। जो आज गुरु की बुराई हमारे समक्ष कर रहा है, कल हमारी बुराई भी किसी और से करेगा। अत: ऐसे लोगों से सावधान रहते हुए अपने जीवन को गुरुवर की तरह गुरु भक्ति की एक मिसाल बनाएँ।
पूज्य गुरुवर जब थे मुनि अवस्था में, तब गुरु आज्ञा से मुनिद्वय (मुनि श्री विराग सागर जी तथा मुनि श्री सिद्धान्त सागर जी) सन् 1984 में भावनगर का चातुर्मास करने आगे बढ़ दिये, करते जा रहे थे – धर्म शून्य समाज में धर्म संस्कारों को बीजारोपण । भावना यही थी कि भविष्य में यही बीज विकसित हो वृक्षत्वपने को पाये तथा समाज में धर्म हरियाली छाये, समाज सुसंस्कारित धार्मिक बनें।
पूज्य मुनिवर निसंग पवन की तरह समाज को बिना अवगत किए ही बढ़ गये अगले मुकाम की ओर। ग्रीष्म काल की प्रचण्ड धूप दिखा रही थी अपना प्रभाव, नीचे तपती धरती और ऊपर गर्म हवा सम्पूर्ण परीषहों को सहते हुए मुनि द्वय सोनगढ़ होते हुए पहुँचे पड़गाहन किया, गुरुवर खड़े हुए अंजुलि लगाकर, पहले ही ग्रास में आ गया प्लास्टिक का लंबा धागा। यद्यपि उसका अंतराल तो नहीं होता परन्तु बलवान कर्मणां गति अर्थात् कर्मों की गति बलवान होती है, हुआ यों कि जो महिला आहार दे रही थी उसने जैसे ही मुनि श्री के हाथ में धागा देखा तो घबरा गई, इतनी भीषण गर्मी व आहार अभी प्रारंभ ही हुआ है अत: उसने हड़बड़ाहट में झटके से, ग्रास हाथ से छुड़ा लिया। फिर क्या, अंतराय पहले तो नहीं था पर अब पिण्ड हरण होने से करना ही था।
उस महिला को बहुत दुःख हुआ, उसने दुःखित मन से मुनि श्री से क्षमा याचना की, समता भावी मुनि रे विराग सागर जी ने प्रसन्नता पूर्वक आशीर्वाद दिया और उसी कड़कड़ाती धूप में 15 कि.मी. चलकर शाम को विश्राति ली एक खेत में, जब खेत वाले को पता चला तो वह भक्ति से खिंचा चला आया और बोला महाराज श्री, आपने कल से कुछ नहीं खाया, मैं व्यारू लाता हूँ। मुनि श्री ने इशारे से मना कर दिया, तो बोला कि – चाय, दूध पी लेना,। इशारे से नहीं, हम कुछ नहीं खाते-पीते रात्रि में। अच्छा, | तो पलंग दरी ले आता हूँ, खेत की ऊबड़-खाबड़ जमीन आपको चुभेगी। मुनि श्री ने मना कर दिया। वह बोला – महाराज, क्या आप हमसे बोलेंगे भी नहीं, रात्रि में मौन रहते हैं। कोई बात नहीं, मेरा सौभाग्य है कि आप जैसे महात्मा के चरण कम से कम हमारे खेत में तो पड़े।
अपना धन्य भाग्य मानता हुआ वह रात्रि भर खेत में ही रहा और सेवा भक्ति में लगा रहा।
सचमुच गुरुवर की साधना महान है, उनकी उत्कृष्ट साधना का ही प्रभाव था कि हर एक मन बन जाता गुरुवर के लिए मंदिर। ऐसे ही पूज्य मुनिवर/गुरुवर के एक नहीं अनेक दृष्टांत उनकी जीवनी में भरे पड़े हैं कि पूज्य गुरुवर ने बिना पूर्व सूचना के ही स्वावलम्बी वृत्ति को धारण कर अनियत विहार किए और कष्टों को भी गुलाबवत् हँसते-हँसते सहन किया। आपकी इसी अद्वितीय साधना से प्रभावित हो जैन ही नहीं जैनेतर लोगों ने भी आपकी सेवा कर अपने सौभाग्य को सराहा है, ऐसे ऋषिवर जयवंत रहें।
घटना है सन् 1984 की जब आचार्य श्री मुनि अवस्था में थे तथा मुनि श्री विराग सागर जी का विहार चल रहा था भावनगर की ओर, चूंकि भावनगर एक सोनगढ़ी एरिया है, अत: वहाँ के लोग विहार में ही मुनि श्री की परीक्षा लेने आ गये। अब उन्होंने मुनि श्री से प्रश्न करना प्रारम्भ किया। एक श्रावक बोला – मुनि श्री, आप कहाँ जा रहे हैं? भावनगर। क्यों? क्या वहाँ कोई कार्यक्रम है? नहीं, किन्तु वर्षा योग की संभावना है, तो भावनगर की समाज ने प्रार्थना की होगी, गुरुवर उसकी कुटिलता को ताड़ गये और बोले- समाज की प्रार्थना का तो नहीं परन्तु गुरु की आज्ञा मुझे मालूम है। वह बोला – तो क्या आप बिना प्रार्थना के चातुर्मास कर लेंगे? मुनि श्री की तेजस्विता से शायद वह परिचित नहीं था, गुरुवर ने सोचा अब सीधे ढंग से काम नहीं चलेगा अतः अब गुरुवर/मुनि श्री ने उल्टा उसी से प्रश्न प्रारम्भ कर दिया। प्राचीन काल में मुनि जंगलों में चातुर्मास करते थे तो क्या श्रावक प्रार्थना करने जाते थे? तब वह बोला – नहीं। साथ चल रहा दूसरा व्यक्ति बोला नहीं, महाराज आप ठीक कह रहे हैं, तब मुनि श्री बोले – संतों की चर्या स्वावलम्बी है वे किसी के आधीन नहीं होते तब अन्य श्रावक पुनः परीक्षक दृष्टि से बोला- पर वहाँ चातुर्मास करने योग्य उचित स्थान भी तो नहीं है। मुनि श्री गुरु भक्ति का परिचय देते हुए बोले – कि जब गुरु आज्ञा है तो सभी स्थान उचित ही होंगे। अब वह बोला पर नगर में प्रवेश के समय बैंड और जुलूस की आवश्यकता होगी? मुनि श्री बोले – क्यों? क्या आवश्यकता है? ये मुनियों का काम नहीं, श्रावकों का है, संत तो वैरागी होते हैं, बैंड बजाओ या न बजाओ उससे उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। सभी श्रावक मुनि श्री के वैचारिक मन्तव्यों, वैराग्य, गुरु भक्ति स्वावलंबीपना तथा निस्पृह वृत्ति से अत्यधिक प्रभावित हो गये और जो लोग हाथ बांधे साथ में चल रहे थे उन्होंने श्रद्धा से नमस्ते हाथ जोड़ लिये, श्रीफल चढ़ाकर भावनगर चातुर्मास की प्रार्थना की और बड़ी धूमधाम से बैंड, आरती, झण्डों के साथ सहर्ष/खुशी के साथ मुनि श्री का प्रवेश कराया। सारी समाज चाहे वह मुनि भक्त हो या सोनगढ़ मत वाले, सभी मुनि की निस्पृह चा व साधना के प्रभाव से एकमत हो गये और भावनगर में बह चली ज्ञान की धारा। जिसमें अवगाहन किया सभी ने, चाहे वह सोनगढ़ी हो या अन्य मतावलम्बी।
मुनि श्री की निस्पृह चर्या का ही अपूर्व प्रभाव रहा कि वे जहाँ जहाँ जाते वहीं सारी समाज एक माला के मोतियों की तरह जुड़ जाति और धर्म धारा प्रभावित हो जाती।
धन्य हैं पूज्य मुनिवर जैसे संत जो पंथ, मत, परम्पराओं से परे होकर समाज को जोड़ने में एक महान शक्ति का सेतु रुप कार्य करते है तथा जो अधर्ममयी वातावरण को भी धर्ममयी बना देते हैं, ऐसे ही संतों के बल से हमारी श्रमण संस्कृति की शान दीर्घकाल से वृद्धिंगत रही थी/है और सदा रहेगी।
आचार्य विराग सागर जी जब मुनि अवस्था में थे तब प्रथम बार गुरु से दूर मुनि सिद्धान्त सागर जी के साथ धर्म ध्वजा को लहराते हुए गाने 1984 में विराजे थे भावनगर की पावन वसुन्धरा पर। नवीन दीक्षा, नया उत्साह और जेठ माह की प्रचण्ड/भीषण तपन। फिर क्या? प्रारम्भ हुआ उत्कृष्ट साधना का क्रम, मुनि श्री कहाँ है? वे तो सुर्य की तरफ मुख कर ध्यान कर रहे हैं मानो चतुर्थ काल ही प्रवर्तमान हो रहा हो। लौकिक सूर्य तो तपाता है पर पदार्थों को परन्तु ये निस्पृही संत तो तपा रहे थे स्वयं अपनी आत्मा को तपस्या के माध्यम से। पर ये क्या! धूप में से आने के बाद आँखों के आगे छा जाती अंधियारी। परिणाम स्वरुप प्रारम्भ हुई आँखों में जलन। साधना का क्रम चला लगभग1 माह तक आँखों की तकलीफ बढ़ती गयी और डॉक्टर ने सलाह दी चश्मे की, जब यह बात ज्ञात हुई गुरु भात उपाध्याय भरत सागर जी को, तब उन्होंने बड़े हितकारी बात कही- हम साधना करने हेतु ही मोक्ष मार्ग पर आये हैं अत: साधना तो करनी ही चाहिए परन्तु स्वास्थ्य व शक्ति को ध्यान में रखते हुए ताकि भावी समय में भी साधना निर्विघ्न रूप में अनवरत चलती रहे।
मुनि श्री ने गुरु भाई के महत्वपूर्ण कल्याणकारी मधुर वचनों को हदय में अंकित कर लिया और उसी प्रबोधित शिक्षा को संचारित भारते है हम सभी में।
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Sr.No | Sansmaran Details | Link | Details |
1. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran1 | Sansmaran 1 to 10 | 1 to 10 Sansmaran |
2. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran2 | Sansmaran 11 to 20 | 11 to 20 Sansmaran |
3. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran3 | Sansmaran 21 to 30 | 21` to 30 Sansmaran |
4. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran4 | Sansmaran 31 to 40 | 31 to 40 Sansmaran |
5. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran5 | Sansamaran 41 to 50 | 41 to 50 Sansmaran |
6. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran6 | Sansmaran 51 to 60 | 51 to 60 Sansmaran |
7. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran7 | Sansmaran 61 to 71 | 61 to 71 Sansmaran |
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