घटना है सन् 1984 की, जब मुनि श्री विराग सागर का प्रथम विहार गुरु आज्ञा-पूर्वक श्रुतपंचमी के दिन भीषण गर्मी में पालीताना से भावनगर चातुर्मास हेतु मुनि श्री सिद्धांत सागर जी के साथ हुआ। प. पू.आ. श्री विमल सागर जी ने देखा कि मुनिश्री के पुस्तक तथा चटाई का बस्ता कमरे में रखा है तो उन्होंने किसी श्रावक के हाथ भिजवा दिया, क्योंकि गुरु को ही शिष्य की चिंता होती है कि वह कैसे विहार में सोयेगा, आदि। पर मुनिश्री तो अनियत-विहारी थे, निस्पृही साधक थे उन्होंने सोचा इसकी व्यवस्था कौन करेगा। हम किसको कहेंगे कि यह हमारा बस्ता भिजवा देना अतः उन्होंने उसकी आवश्यकता नहीं समझी बल्कि निस्पृहता में बाधक समझ उसे संघ में ही भिजवा दिया। पू.आ. श्री को इस बात की जानकारी हुई तो प्रथम तो खुश थे उनकी असहाय मोक्ख मग्गो सूत्र को चरितार्थ देखकर, पर फिर उन्होंने उनके दोनों बस्ते सीधे भावनगर पहुँचवा दिये।
यह थी पू. मुनिश्री निस्पृहता तथा अपने गुरुदेव का प्रेम-करुणा उन पर।
जिनका मन सदा लीन रहता है ज्ञान, ध्यान और तप में ऐसे पूज्य मुनि श्री 108 विराग सागर जी महाराज सन् 1984 में विराजमान थे – भावनगर में । एक दिन मुनि श्री बैठे थे सामायिक में, ध्यान की गहराइयों में उतरते ही जा रहे थे, समय का पता ही नहीं चला और 1-2 घंटे ही नहीं, हो गये पूरे पाँच घण्टे, गुरुवर तो निराकुलता से ध्यान में लीन थे पर श्रावको को हो रही थी आकुलता। कोई कहता शायद हमसे कुछ गलती हो गई है या हमने अनुकूल व्यवस्था नहीं बनाई। या तो मुनिराज हमसे रूठ गये हैं आदि मनगढ़ंत बातें उठ रही थी सभी श्रावको के मन में, पूज्य गुरुवर के कान में जब यह बात सुनाई पड़ी तो सामायिक का विसर्जन कर अपनी अमृत तुल्य वाणी में बोले-अरे, आज तो विशुद्धि अपनी तीव्रता पर थी, रोज तो मात्र दो घड़ी की ही सामायिक होती है, मन में विचार आया चतुर्थकाल में तो मुनि जन चार-चार माह का योग धारण कर ध्यान करते थे अत: मैं भी करूं, पुण्य योग से अविरल चिंतन धारा बहती गई और मैं उसमें डूबता गया और 6 घड़ी से भी अधिक सामायिक हो गई। जब लोगों को पता चला तो सोचने लगे धन्य है मुनि श्री की साधना व निर्मल भावना। अपने कर्तव्यों के प्रति कितनी निष्ठा है, आज के समय में ऐसे ही साधकों से धर्म जीवंत रह सकता है।
पूज्य मुनि श्री विराग सागर जी का चातुर्मास सन् 1984 में गुरुवर विमल सागर जी की कृपा से चल रहा था भावनगर में। कर्मों ने अपना राज्य स्थापित हेतु सबसे पहले अपने एक सिपाही को मुनि श्री के पास भेजा जिसका नाम था बालचन्द, जैसे ही मुनि श्री का आहार हुआ। बालचन्द जी आहार की सामग्री के साथ मुनि श्री के हाथ में जा बैठे, मुनि श्री भी युद्ध के लिए तैयार थे अत: उन बालचन्द जी को ग्रास सहित पात्र में पटक दिया। मुनि श्री वैराग्य से ओतप्रोत कर्म विपाक के चिंतन में डूब गये, चेहरे पर शिकन तक नहीं, गृहस्थ लोगों को बहुत दुःख हुआ तो विरक्तमना मुनि श्री बोले – आप दुखी ना हों, आज तो मेरी संवर, निर्जरा और अधिक होगी , युद्ध में आये सिपाही को मैंने खदेड़ दिया। कर्म महाराज को अपनी हार देखकर बड़ा गुस्सा आया दूसरे दिन पुनः युद्ध करने दूसरा सिपाही भेजा, जीवलाल, अब की बार जीवलाल ने और अधिक कठोरता दिखलाई तथा प्रारंभ में ही आ धमके , मुनि श्री ने प्रसन्नता से उन्हें भी खदेड़ दिया, अब तो श्रावकों का दुःख और बढ़ गया लगातार दो अंतराय। मुनि श्री बोले-हमारा वास्तविक भोजन तो ज्ञानामृतं भोजनं अर्थात् ज्ञानामृत, ही भोजन है। अत: मुझे कर्म संवर व निर्जरा हेतु मैदान में डटे रहने दो। श्रावकों ने सोचा, चलो ठीक है कल हम बहुत सावधानी से निरंतराय आहार कराएंगे। परन्तु ये क्या महाराजा कर्मचन्द का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया और लगातार सिपाहियों को भेजकर 10 दिन तक युद्ध जारी रखा और हर दिन मुनि श्री की समता व दृढ़ता रुपी सुभट सखियों ने जो कि युद्ध में पारंगत थीं सारे सिपाहियों को खदेड़ डाला, परन्तु 10 दिन तक लगातार अंतराय होने से सारी समाज विह्वल सी हो गई सबकी आँखें आसुओं से भर गई। अतः सभी ने निर्णय लिया कि हम सब पूज्य आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज के पास चलेंगे। वे तो वात्सल्य और करुणा की साक्षात् मूर्ति हैं अतः हमें कुछ न कुछ उपाय बतालायेंगे। जब पूज्य आचार्य श्री विमल सागर जी महाराज को यह समाचार मिला तो उनका हृदय द्रवित हो गया और तुरन्त संघ संचालिका चित्राबाई के हाथों मंत्र सेबफल भेजे और अब आहार का प्रारंभ हुआ गुरु प्रसाद से, गुरु आशीष का चमत्कार-आहार निरंतराय हो गया अर्थात् गुरुमंत्रों के प्रभाव से कर्मचन्द जी राज जमाने का विचार छोड़ अपनी सेना सहित भाग खड़े हुए। पूज्य आचार्य श्री विमल सागर जी को जब यह पता चला कि मुनि श्री इतने अंतराय होने पर भी अपनी साधना में दृढ़ व प्रसन्नचित्त हैं तो गुरु का हृदय शिष्य स्नेह से आपूरित हो गद् गद् हो गया और अंतरात्मा से जो आशीष की वर्गणाएँ संप्रेषित हुईं उन्हीं ने मुनि श्री के अंतराय को बंद करा दिया।
धन्य है पूज्य मुनि श्री की दृढ़ता व गुरुवर का चमत्कारी आशीर्वाद जिसके आगे कर्मशत्रु को हार माननी पड़ी।
गुरुवर जी जब थे मुनि अवस्था में उस समय साथ में थे मुनि सिद्धांत सागर जी । सन् 1984 में दोनों मुनिराज पालीताना के पहाड पर स्थित वीतराग जिनेन्द्र देव के दर्शन हेतु मंदिर जी प्रात: कालीन बेला में चल दिये, भीषण कड़कती ठंड पढ रही थी, छोटी सी उम्र के नव दीक्षित मुनिदय को देखकर सभी को प्रसन्नता के साथ हो रहा था आश्चर्य कि इन्होंने इतनी अल्पवय मैं कैसे इतनी कठोर तपस्या को अंगीकार कर लिया, घर में रहते बाद में दीक्षा ले लेते आदि चर्चाएं चल रही थी।
तभी वहाँ में कु श्वेताम्बर साधु निकले उन्होंने मुनि दय के प्रति वात्सल्य भाव प्रकट किया तथा उन्हें रोककर पूछा- अपने इतनो अल्प वय में इतनी कठोर दिगम्बरी तपस्या कैसे धारण कर ली, आपको का होता होगा? जब मुनि श्री विराग सागर जी बोले- अरे कष्ट नहीं, अपितु आनंद ही आनंद आता है, तब साथ बोले- नहीं, यह मार्ग दुस्साध्य और दुरसअ है, जिसमें अंगारों पर चलना पढ़ता है, अपने प्राणों को हाथ में लेना पता है, दांतों से लोहे के चने पता है, बड़ी-बड़ी कठिनाइयों को सहन करना पडता है। मुनि श्री ने कहा- यह सत्य है, परंतु कष्ट असाध्य तब लगता है जय वैराग्य सही नहीं होता, अंतरंग से मोह-ममता समान हो जाए तो सब मान लगता है। वह श्वेतांबर साधु मुनि ी केराम्य युका नो को सुन कर मत प्राप्त हुए तथा बोले- आपने ठीक कहा सच्ची विरकि होने पर संयम भार तुल्य लगता है।
मुनि श्री ने जैसे ही उनके पैरों पर लगी पट्टियों को देखा तो पूछा यह क्या है। उन्होंने कहा- सुबह ठंडी के मौसम में विहार करते समय कंकड़-पत्थर चुभते है.दर्द तकलीफ होती है इसलिए कपडा बांधकर चलते हैं. लेकिन आज आप लोगों का सच्चा त्याग देखकर पट्टी बांधने का त्याग करता हूँ। और पट्टी निकालकर फेक दी | मुनि श्री ने पुनः पूछा तो क्या अब कभी पैरों में पट्टी नहीं पहनोगे। उन्होंने दृढ़ता पूर्वक उत्तर दिया- नहीं, जब आप सहन करते है तो मैं भी सहन करूँगा और कभी पट्टी नहीं पहनूंगा।
बात है सन् 1984 की, जब पूज्य मुनि श्री विराग सागर जी एवं मुनि श्री सिद्धान्त सागर जी का विहार पालीताना गुजरात की ओर चल रहा था | साथ चल रहे थे श्रद्धालु श्रावक गण । मुकाम को नजदीक जानकर कुछ श्रावकों ने मुनिद्वय से आगे प्रस्थान हेतु आग्रह किया। संत तो संत होते हैं, उन्हें क्या, वे आगे बढ़ दिये, पर यह क्या, चलते-चलते रात्रि होने लगी, अंधकार छाने लगा, परन्तु ठिकाने का कुछ पता नहीं । श्रावकों ने निवेदन किया – महाराज श्री, थोड़ी दूरी पर ही मुकाम है। परन्तु आगम आज्ञा से बंधे मुनि द्वय ने रात्रि में चलने से साफ इन्कार कर दिया। जहाँ पर मुनि द्वय रुके थे, वहाँ आर्मी कैंप लगा था। अत: लोगों ने जैसे-तैसे आर्मी कैम्प वालों को दिगंबर संतों की महिमा व उनके त्याग, नियम आदि बताकर एक कमरा खाली करवा लिया । मुनि द्वय ठहर गये। बाहर श्रावकों से आर्मी वालों की चर्चायें प्रारम्भ हुई। आर्मी वालों ने पहली बार संतों को देखा था, अत: वे उनके बारे में कुछ जानने को अत्यंत उत्सुक थे। एक भक्त, श्रद्धालु-श्रावक ने कहना प्रारंभ किया- हमारे दिगंबर जैन संतों की साधना बड़ी कठोर होती है, वे दिन में एक ही बार खाते हैं, नग्न रहते हैं, पैदल विहार करते हैं, केशलोंच करते हैं। भक्ति की भाषा कब शिखर चढ़ गई पता ही नहीं चला। एक भक्त ने बतलाया हमारे साधु तो रात-रात भर जागकर ध्यान करते हैं। सभी श्रोतागण प्रभावित थे। तब तक मुनिद्वय के कानों में उनको चर्चा पड़ी। अपने धर्म की महिमा कहीं फीकी पड़ जाए तथा इन अनभिज्ञ लोगों की श्रद्धा में अंतर न आ जाए. यह विचार कर मुनि द्वय ने विश्रांति नहीं ली अपितु रात भर ध्यान में लीन रहे। प्रतिध्वनि गूंज रही थी – धर्म के लिए सब स्वीकार है। आमी वाले हर आधे घंटे में आ-जा रहे थे । उन्होंने अनुभव किया कि दोनों मुनिराज ध्यान मग्न हैं। जैसा सुना था वैसा ही पाया। मुनिराजों की ऐसी कठोर साधना देख वे सुबह अंतर श्रद्धा से भर, उनके चरणों में बार-बार नतमस्तक हुए।
धर्म प्रभाव से अभिप्रेत पूज्य मुनि विराग सागर जी ने धर्म की प्रतिष्ठा हेतु कष्टों को नहीं देखा। यह उनकी धर्म के प्रति अकाट्य श्रद्धा, भक्ति का अनुपम उदाहरण है।
उन्होंने अपने पद्य साहित्य भावों के विशुद्ध क्षण में सच्ची धर्म प्रभावना के विषय में लिखा है कि
समर्पण हो जायेंगे फिर
धर्म पर / शक्ति पर
जुट जायेंगे / मार्ग पर
बढ़ने में चढ़ने में
मुक्ति सोपान
ऐसी हार्दिक भावना
करेगी सच्ची प्रभावना।
पूज्य गुरुवर जब थे सन् 1984 में मुनि अवस्था में, तब मुनि सिद्धांत सागर जी भी थे साथ विहार चल रहा था विजय नगर से। मुनि श्री की चर्या व ज्ञान अपना प्रभाव छोड़ती थी, हर एक पर, एक दिन एक पटेल साहब जिनका हट्टा कट्टा शरीर था, उन्होंने आकर सुना मुनि श्री का प्रवचन, वैराग्य वर्धक उस उद्बोधन को सुन उनका हृदय परिवर्तित हो गया ओर आकर मुनि श्री के चरणों में माथा टेक प्रार्थना की, हे पूज्यवर! मैं आपके संघ में शामिल होना चाहता हूँ, गुरुवर ने सोचा – भावुकता भी हो सकती है अत: कहा हाँ-हाँ देखेंगे। उन्होंने लगभग 20-25 बार प्रार्थना की, मुनि श्री ने उनका परिचय लिया और कहा – यह मार्ग बहुत कठिन है, अत: पात्रता की परीक्षा देनी होगी।
मुनि श्री की आज्ञा को शिरोधार्य कर साथ हो गये, वे एक ही बार भोजन करते व एक ही बार पानी लेते, तीनों समय की डेढ़-डेढ़ घंटे तक स्थिर आसन से सामायिक, नंगे पैर विहार तथा रात्रि में स्वाध्याय आदि क्रियायें व्यवस्थित चल रही थीं, सभी संघ प्रभावित था उनकी चर्या से। मुनि संघ अतिशय क्षेत्र भीलवाड़ा के दर्शनार्थ गया तथा लौटकर आया पुनः विजयनगर, तब तक करीब 8-10 दिन पटेल साहब को संघ में रहते हो गये ।
जब वैराग्य होने का समाचार ज्ञात हुआ उनके कुटुम्बी एवं परिवार जनों को, लगभग 20-25 लोग आ गये। उन्होंने पटेल जी को समझाया फिर मुनि श्री के पास पहुँचे तथा बोले-महाराज ये धार्मिक प्रवृति के शुरु से है, परन्तु अभी इनकी भरी-पूरी गृहस्थी है, छोटे छोटे बच्चे हैं, जवान कुंवारी लड़की है, ऐसी स्थिति मैं क्या घर छोड़ना उचित है?
मुनि श्री ने दूर दृष्टि से विचार किया और पटेल साहब को समझाया – वैराग्य मार्ग पर आपको प्रथम परीक्षा यही देना है कि घर जाइए और पहले अपनी जिम्मेदारियों को पूर्ण करके आइए। मुनि श्री की आज्ञा स्वीकार कर वे घर चल दिये।
मुनि श्री की उत्कृष्ट चर्या की झलक को देख प्रभावित थे सभी जैन-जैनेतर। पूज्य आचार्य श्री आज भी जहाँ अपने चरण बढ़ाते है वहाँ जैन हो नहीं जैनेतरों को भी आकर्षित कर लेते हैं अपनी विलक्षण प्रतिभा से और जोड़ देते हैं धर्मसाधना से। क्योंकि संत का लक्षण यही है कि जो किसी जाति-सम्प्रदाय से बंधा न होकर प्राण मात्र का होता है। जैसे नदी के बहते हुए जल पर सबका अधिकार है, उगते हुए सूर्य की किरणें सभी के लिए हैं, वृक्ष की शीतल छांव सभी के लिए है वैसे ही हमारे गुरुवर की धर्मध्यान रूपी छांव भवभ्रमण की तपन से व्याकुलित हर प्राणी के लिए है।a
जो निरत रहते हैं सदा तपाराधना में ऐसे पूज्य मुनि श्री विराग सागर जी सन् 1985 में विराजे थे पाँचवा में।
एक दिन पूज्य मुनि श्री वृत्ति परिसंख्यान व्रत को धारण कर निकले आहार चर्यार्थ, पर ये क्या? एक चक्कर, दूसरा चक्कर व तीसरा चक्कर भी पूर्ण हुआ परन्तु विधि नहीं मिली, लोगों में शोरगुल था आखिर क्या विधि हो सकती है, बहुत प्रयास किया परन्तु विधि नहीं मिली परिणामस्वरुप मुनि श्री का उपवास हो गया, सारे चौके वाले उदास थे, रात्रि के समय एक चमत्कारिक घटना हुई, कुछ लोगों को रात्रि में विधि विषयक स्वप्न आया, एक महिला ने भी स्वप्न में देखा कि मैं तीन मिट्टी के भरे कलश लेकर मुनि श्री का पड़गाहन कर रही हूँ।
स्वप्न अनुसार दूसरे दिन उस महिला ने वही विधि रखी अर्थात् सिर पर तीन भरे कलश लेकर पड़गाहन को खड़ी हो गई फिर क्या था विधि मिलते ही मुनि श्री पड़ग गये और निर्विघ्न आहार सम्पन्न हो गया।
चारों ओर मुनि श्री की उत्कृष्ट तपश्चर्या की जय – जयकार होने लगी।
1985 केशरिया जी ऋषभदेव की मन लुभावनी रोचक घटना है।
एक बार वहाँ 7 साल का बालक अड़ गया कि मैं भी मुनिश्री विरागसागर जी को आहार दूंगा, तभी आज भोजन करूँगा, नहीं तो भूखा रहूंगा। उसकी माँ ने बहुत समझाया बेटा अभी तुम छोटे हो, नहीं माना तो प्यार-दुलार से, टाफी देकर, मनाने का प्रयास किया, सुबह से शाम हो गई पर उसने भोजन नहीं किया, पिताजी ने भी समझाया जब वह नहीं माना तो माता-पिता ने मिलकर पूजा-पाठ भी कर दी, पर वह तो रोता रहा, खाना नहीं खाया पहले महाराज को आहार दूँगा। माँ परेशान होकर उसे मुनिश्री के पास ले आई, सारी समस्या बताई, मुनिश्री ने उससे कहा- देखो, तुम छोटे हो, और हम खड़े होकर आहार लेते हैं, तुम्हारा हाथ ऊपर नहीं पहुँच पायेगा तो वह भोली भाषा में महाराज श्री से बोला- मैं एक टेबिल पर खड़ा हो जाऊँगा। सुनकर हँसी आ गई, उन्होंने कहा तुम्हे मालूम है आलू-प्याज, रात्रिभोजन का त्याग करना होता है? उसने कहा- हाँ। तो तुम कितने समय का त्याग करोगे? आजीवन। अच्छा आजीवन जानते हो कितना बड़ा होता है? हाँ, जब तक मरूँगा नहीं। उसकी दृढ़ता भरी बातें बड़ी प्रभावक थी। अच्छा- रात्रि में भूख लगेगी तो क्या करोगे? बोला फल खा लँगा। फल न मिले तो? दूध पी लूंगा। दूध न मिला तो? पानी पीकर सो जाऊँगा। और नींद नहीं आई तो? उसने सुन्दर जवाब दिया महाराज श्री मैं रात भर णमोकार मंत्र जपता रहूँगा। पर नियम नहीं तोडूंगा। पर आहार आप ले लो। मुनिश्री ने कहा- ठीक, कल शुद्ध वस्त्र पहनकर आना और वह तो सुबह से ही तैयार और आहारोपरांत उन्होंने उससे हाथ धुलवा लिये। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा।
ऐसे थे मुनिश्री के परम भक्त कि जिनके आगे भगवान को भी झुकना पड़ा।
पूज्य गुरुवर थे जब मुनि अवस्था में , तब उनके साथ मुनि सिद्धान्त सागर जी भी थे, सन् 1985 में जब पूज्य मुनि श्री का विहार चल रहा था नावा की ओर तब वहाँ विराजे थे परम पूज्य आचार्य श्री 108 धर्म सागर जी महाराज। जब उन्हें मुनि द्वय के आगमन की सूचना प्राप्त हुई, तब पूज्य आचार्य श्री ने सम्पूर्ण संघ व समाज के लोगों को धूमधाम से मुनि द्वय की आगवानी हेतु आज्ञा प्रदान की, आचार्य श्री की आज्ञा पाते ही चल दिये सब गाजे-बाजे के साथ।
तभी कौतुक वश एक श्रावक ने एक महाराज जी से पूछा महाराज श्री, आखिर मुनि विराग सागर जी में ऐसी क्या विशेषता है जो सारा समूह उन्हें लेने जा रहा है? तब संघस्थ लोगों ने मुनि श्री की विशेषता बताते हुए कहा – \”वे गुरु आज्ञा पालन करने में तत्पर, आगम-निष्ठ साधक हैं उनकी प्रत्येक क्रिया /चर्या आगमानुकूल हैं, वे एकल विहारी नहीं हैं, आहार चर्या बहुत अच्छी है, चन्दा चिट्ठा से दूर रहते हैं, न ही उनके पास अनुचित परिग्रह-गाड़ी, फोन आदि नहीं हैं, भौतिक चकाचौंध से दूर हैं, सदैव आत्मप्रभावना में ही रत रहते हैं, षडावश्यकों के पालन में निरत रहते हैं, शक्त्यानुसार तप करते हैं।\” पूज्य गुरुवर (आचार्य धर्म सागर जी महाराज) ने हमें उनकी ये विशेषताएं समय-समय पर बताई थी और गुरुवर की आज्ञा से ही हम उनकी आगवानी करने जा रहे हैं।
मिलन का दृश्य अद्भुत था, मात्र शरीर ही नहीं हृदय से हदय मिल रहे थे तथा दे रहे थे धार्मिक वात्सल्य का परिचय, मुनि श्री जब पूज्य गुरुवर के पास पहुंचे तो आचार्य श्री बहुत ही प्रसन्न हुए, रत्नत्रय व स्वास्थ्य आदि पूछा तथा संघ में रुकने की उचित व्यवस्था भी कर दी, आचार्य श्री मुनि का हर प्रकार से ध्यान रखते थे तथा हार्दिक धार्मिक वात्सल्य भी देते थे।
पूज्य आचार्य श्री इसी तरह अपने साधना काल में पूज्य आचार्य श्री समन्तभद्र सागर जी, आचार्य श्री सुबुद्धि सागर जी, आचार्य श्री सुमति सागर जी, आचार्य कल्प श्री विवेक सागर जी, आचार्य कल्प श्री श्रुत सागर जी, गणधराचार्य श्री कुन्थु सागर जी, आचार्य श्री वीर सागर जी आदि कई संघों से मिले तथा हर जगह से बड़े आचार्यों के अनुभव व चिंतन के खजाने व उनके वात्सल्य एवं आशीष को प्राप्त करते रहे तथा अपने विनय, सरलता, निश्छलता आदि विशिष्ट गुणों से सर्वत्र आदर को पाया है। आज भी पूज्य गुरुवर समय-समय पर पुराने आचार्यों के अनुभव, शिक्षाओं को स्मरण करते हैं। गुणों के पिण्ड गुरुवर का यह भी एक महान गुण है कि वे गुणवानों के विनय-सम्मान में रहते हैं तत्पर।
धन्य है पुज्य मुनि श्री की आगम-निष्ठ पवित्र चर्या, जिसके माध्यम से सहज ही वे पाते थे सबके हृदयों में स्थान । मुनि अवस्था में ही जिनकी चर्या प्रबल प्रभावना का हेतु बनी ऐसे पूज्य गुरुवर का शिष्यत्व पाकर अहोभाग्य मानते हैं हम शिष्य ।
यह घटना है उस समय की जब पूज्य गुरुवर मुनि अवस्था में विहार कर रहे थे, समय-समय पर मुनि श्री का मिलन हुआ अनेक आचार्यों से तथा मिले अनेकों अनुभव। सन् 1985 में पूज्य मुनि श्री को सौभाग्य मिला सरल परिणामी, भोले-भाले ओजस्वी आचार्य श्री 108 धर्म सागर जी के चरण कमलों में अनुभव ज्ञान पाने का, पहला दिन था सोचा – पूज्य आचार्य श्री के साथ ही आहार लेंगे, मन की भावना पूरी हुई, एकाएक पड़गाहन साथ ही हुआ क्योंकि कहा जाता है – पवित्र मन से भायी गई भावना शीघ्र ही फलदायी होती है। जैसे ही मुनि श्री के गृहप्रवेश का अवसर आया तो वे दरवाजे पर ही रुक गये क्योंकि अन्दर जो चंदोवा लगा था वह इतना ही था कि उसके नीचे एक ही व्यक्ति खड़ा हो सके, और आंख बंदकर सोचने लगे कि अभी तक तो बिना चंदोवे के आहार किया नहीं अब कैसे करें? मुनि श्री की मुखमुद्रा पर आंकित प्रश्न को पढ़ते आचार्य श्री धर्मसागर जी को देर न लगी अत: वे उठकर दूसरे पाटे पर बैठ गये और स्नेह भरे इशारे से बुलाया मुनि श्री को चंदोवे के निचे बिठा दिया, फिर क्या था आहार प्रारम्भ हो गया, आहार चल ही रहा था कि बीच में किसी व्यक्ति ने आकर फोटो खींच लिया। ये क्या? मुनि श्री तो अंजुलि छोड़ कर बैठ गये, उनका अंतराय हो गया। बाद में आचार्य श्री के पूछने पर मुनि श्री ने कारण बताया फोटो खींचा गया इसलिए अंतराय हो गया, तब पूज्य आचार्य धर्म सागर जी बोले- फोटो खींचने से किसी अग्निकायिक जीव का तो घात हुआ नहीं अत: इसका अंतराय नहीं करना चाहिए।
विनय गुण सम्पन्न पूज्य मुनि श्री विराग सागर जी ने विनीत भाव से कहा – पूज्य श्री आप हमसे ज्येष्ठ व श्रेष्ठ हैं, हम आपकी बात को कैसे टाल सकते हैं, परन्तु आप से क्षमा प्रार्थी हूँ पहले इस विषय की चर्चा में पूज्य गुरुवर आचार्य श्री विमल सागर जी के समक्ष रखूंगा फिर जैसी उनकी आज्ञा होगी वैसा ही करूँगा, जब आचार्य धर्म सागर जी ने मुनि श्री के मुख से ये शब्द सुने तो वे बहुत ही खुश हुए और बोले-नि:संदेह आप एक कर्तव्य निष्ठ आदर्श शिष्य है, ऐसा ही होना चाहिए, शिष्य को गुरु आज्ञा के बिना संघ की नियम पद्धति में स्वतः कुछ भी परिवर्तन नहीं करना चाहिए और पुनः पूछा क्या चंदोवे में आहार लेने का नियम है आपका? नहीं- तो फिर चंदोवा की क्या आवश्यकता? आज तो पुराने खप्पर वाले कच्चे मकान नहीं रहे, जिससे कूड़ा-कचरा गिरे। अब पक्के मकान है। तब मुनि श्री बोले – हमें आपकी आज्ञा शब्द: स्वीकार है पर मेरा सोचना है कि प्राचीन काल में भी बड़े-बड़े पक्के महल होते थे उसमें चंदोबा बांधे जाते थे अभी भी खण्डहरों से प्राप्त ऐसे उदाहरण मिले है जिनमें चंदोवा बंधा था। शास्त्रों में ऐसा नहीं आया कि चांदोबा कच्चे मकानों में ही बांधे, पक्के में नहीं और पक्के मकानों में भी जीव-जन्तु छिपकली, मकड़ी जाल आदि तो रहते ही हैं और ये गिर भी सकते हैं, आदि।
एक बार आचार्य धर्म सागर जी ने विहार के अवसर पर चौके में बड़े-बड़े जाले लटकते देखे,चंदोवा था नहीं।
अत: आहारोपरान्त बोले – हाँ, विराग सागर तुम ठीक कह रहे थे। तुम्हारी युक्ति सही है। चंदोवा होना ही चाहिए। मुनि श्री की भूरि-भूरि प्रशंसा की। अतः पूज्य गुरुवर! हम भी आप जैसे कर्तव्यनिष्ठ शिष्य बने ऐसा आशीष हमें देना।
सन् 1985, गुरुवर जब थे मुनि अवस्था में तब सानिध्य प्राप्त हआ आचार्य धर्म सागर जी महाराज का, परन्तु अचानक एक दिन मुनि श्री का स्वास्थ्य बहुत अधिक खराब हो गया, उन्हें ठण्ड देकर तेज बुखार आ गया, अब क्या किया जाए तो मुनि श्री सूखी घास के प्याल पर चटाई ओढ़कर लेट गये, उस समय आचार्य श्री धर्म सागर जी महाराज प्रमोद भाव से उन्हें प्राय: शास्त्री या पंडित कहा करते थे। आचार्य श्री, मुनि श्री को देखने आये अग्नि सा तपता बदन, मुनि श्री को कुछ होश ही नहीं था कि कौन आया कौन गया? दूसरी बार पुनः आचार्य श्री देखने आये और आवाज लगाई – विराग सागर ठीक हो, अब की बार जैसे ही आवाज मुनि श्री के कानों में पड़ी उन्होंने तुरंत प्रयास किया उठने का परन्तु महाराजों ने उन्हें इतनी चटाईयों से ढक दिया था कि सहसा उठ नहीं पाये, आचार्य श्री ने लेटे रहने का संकेत दिया पर मुनि श्री हिम्मत करके उठे, आचार्य श्री ने उने संबोधन दिया, उसी से उनका आधा बुखार उतर गया, फिर मुनि श्री लेटे नहीं अपितु प्रतिक्रमण सुनने हेतु बैठे रहे। इतनी अस्वस्थता में अपने षड्आवश्यकों के प्रति जागरुक रहे, धन्य था उनका आत्मबल, वही उनकी आत्मोन्नति का साधक बन गया।
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2. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran2 | Sansmaran 11 to 20 | 11 to 20 Sansmaran |
3. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran3 | Sansmaran 21 to 30 | 21` to 30 Sansmaran |
4. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran4 | Sansmaran 31 to 40 | 31 to 40 Sansmaran |
5. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran5 | Sansamaran 41 to 50 | 41 to 50 Sansmaran |
6. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran6 | Sansmaran 51 to 60 | 51 to 60 Sansmaran |
7. | Aacharya Shri 108 Virag Sagar Ji Sansmaran7 | Sansmaran 61 to 71 | 61 to 71 Sansmaran |
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