
अष्ट-करम करि नष्ट अष्ट-गुण पाय के, अष्टम-वसुधा माँहिं विराजे जाय के ऐसे सिद्ध अनंत महंत मनाय के, संवौषट् आह्वान करूँ हरषाय के॥
निज वज्र पौरुष से प्रभो ! अन्तर-कलुष सब हर लिये प्रांजल प्रदेश-प्रदेश में, पीयूष निर्झर झर गये॥
चिदानंद स्वातम रसी, सत शिव सुंदर जान। ज्ञाता दृष्टा लोक के, परम सिद्ध भगवान॥
हे सिद्ध तुम्हारे वंदन से उर में निर्मलता आती है। भव-भव के पातक कटते हैं पुण्यावलि शीश झुकाती है॥
भव्य जिवांनो! भावे ऐका, महती दशविध धर्माची सुखमय मंगलकारक विजयी, वाणी वीर जिनेशाची । वंदे श्रीजिनम् । वंदे श्रीजिनम् ॥ घृ. ॥